सामाजिक संदर्भों में नई कविता डॉ. कुमारेन्द्र सिंह सेंगर साहित्य की उपयोगिता सामाजिक संदर्भों में क्या हो; कैसी हो, पर हमेशा विम...
सामाजिक संदर्भों में नई कविता
डॉ. कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
साहित्य की उपयोगिता सामाजिक संदर्भों में क्या हो; कैसी हो, पर हमेशा विमर्श होता रहा है। पूर्वी और पश्चिमी साहित्यिक चिन्तक इस पर अपनी अलग-अलग राय देते दिखाई देते हैं। इस बात पर जोर प्रमुखता से दिया जाता रहा है कि साहित्य किसी न किसी रूप में मानव हित में, समाज हित में कार्य करता है। चूँकि साहित्य की प्राचीन एवं लोकप्रिय विधा के रूप में 'पद्य' हमेशा से समाज में स्वीकार्य रहा है। पद्य के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन तक का कार्य कवियों ने कर दिखाया है। सामाजिक संदर्भों में देखें तो सीमा पर, रणक्षेत्र में लड़ते वीर जवानों को, खेतों में काम करते किसानों, मजदूरों को, सोई जनता, बेखबा सत्ता को झकझोरने को कवियों ने हमेशा कविता को हथियार बनाया है। देखा जाये तो श्रम और वाणी का सम्बन्ध सदा से ही घनिष्टता का रहा है। भले ही कई सारे श्रमिक कार्य करते समय निरर्थक शब्दों को उच्चारित करते हों पर उन सभी का मिला-जुला भाव 'काव्य रूप' सा होता है।
साहित्य सार्थक शब्दों की ललित कला है। अनेक विधाओं में मूल रूप में कहानी-कविता को समाज ने आसानी से स्वीकारा है। दोनों विधाओं में समाज की स्थिति को भली-भांति दर्शाने की क्षमता है। पूर्व में कविता जब भावों, छन्दों, पदों की सीमा में निबद्ध थी तब प्रत्येक व्यक्ति के लिए काव्य रूप में अपने मनोभावों को व्यक्त करना सम्भव नहीं हो पाता था। नयी कविता के पूर्व प्रगतिशील, प्रयोगवादी, समकालीन कविता आदि के नाम से रची-बसी कविता ने मनोभावों को स्वच्छन्दता की उड़ान दी। नायक-नायिकाओं की चेष्टाओं, कमनीय काया का कामुक चित्रण, राजा-बादशाहों का महिमामण्डन करती कविता से इतर नयी कविता ने समाज के कमजोर, दबे-कुचले वर्ग की मानसिकता, स्थिति को उभारा है।
साहित्य जगत में नयी कविता का प्रादुर्भाव एकाएक ही नहीं हुआ। रूमानी, भक्ति, ओज की कविताओं के मध्य देश की जनता सामाजिक समस्याओं से भी दो-चार हो रही थी।
स्वतन्त्रता आन्दोलन का चरम, स्वतन्त्रता प्राप्ति, द्वितीय महायुद्ध, भारतीय परिवेश के स्थापित होने की प्रक्रिया, राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता की सरगर्मियाँ आदि ऐसी घटनायें रहीं जिनसे कविता भी प्रभावित हुए बिना न रह सकी। नागार्जुन, केदार नाथ, नरेश मेहता, मुक्तिबोध, दुष्यन्त कुमार सहित अनेक कवि काव्य-रचनाओं के माध्यम से आम आदमी की समस्या को उठा रहे थे तो कविता का भी नया दौर ला रहे थे। इन कवियों ने समाज के प्रत्येक वर्ग की पीढ़ा को सामने रखा। नयी कविता पर अतुकान्त, छन्दहीनता का आरोप लगता रहा किन्तु वह अपनी आम जन की बोलचाल की भाषा को अपना कर पाठकों के मध्य लोकप्रियता प्राप्त करती रही।
स्वतन्त्रता के बाद की स्थिति की करुणता को आसानी से नयी कविता में देखा गया। किसान हों, श्रमिक हों या किसी भी वर्ग के लोग हों सभी को नयी कविता में आसानी से दिखाया गया है। इन सभी का एक मूर्त बिम्ब निराला की 'तोड़ती पत्थर' कविता में आसानी से देखा जा सकता है। यद्यपि निराला को नयी कविता का कवि नहीं स्वीकार किया गया है उनकी बाद की काव्य-रचनाओं को किसी भी रूप में नयी कविता से अलग नहीं किया जा सकता है-
'देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर
वह तोड़ती पत्थर
नहीं छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी वह स्वीकार
श्याम तन, भर बँधा यौवन,
नत नयन, प्रिय कर्म-रत मन
गुरु हथौड़ा हाथ
करती बार-बार प्रहार
x x x x
गई चिनगी छा गई, प्रायः हुई दुपहर-
वह तोड़ती पत्थर।' -निराला, वह तोड़ती पत्थर
नयी कविता की प्रमुख बात यह रही कि इसमें कवियों ने दबे कुचले शोषित वर्ग को ही अपना आधार बनाया है। नारी रूप में उसकी कोमल देह, कंचन कपोल, ढलकती आँखें, काले केश ही नहीं दिखे बल्कि उसकी मनोदशा, उसकी स्थिति को भी दर्शाया है। वेश्या जीवन हो या किसी एक्सट्रा की स्थिति कवियों ने उसे भी स्वर दिया है-
'सिन्दूर पर हजारों के नाम
होंठ पर अठन्नी की चमक
गर्भ में अज्ञात पिता का अंश
फेफड़ों में टी0वी0 की गमक
- एक रुपया
- नहीं दो रुपया
कौन?
सीता?
सावित्री?' -मृत्युंजय उपाध्याय, कौन, किन्तु
इसी तरह
'मैं एक्सट्रा हूँ
एक्सट्रा यानि कि फालतू
गिनती से ज्यादा
फिलहाल बेकार
बेजरूरत।' - विजयचन्द, एक्सट्रा
नयी कविता के माध्यम से समाज की समस्या को आसानी से उभारा गया है। वर्ग-संघर्ष को, पूँजीवादिता को, इन सबके द्वारा जनित समस्याओं और अन्तर्विरोधों को नयी कविता में दर्शाया गया है। इन विषमताओं के कारण आम आदमी किस कदर हताश, परेशान है इसे नयी कविता ने अपना विषय बनाया है-
'काठ के पैर
ठूँठ सा तन
गाँठ सा कठिन गोल चेहरा
लम्बी उदास, लकड़ी-डाल से हाथ क्षीण
वह हाथ फैल लम्बायमान
दूरस्थ हथेली पर अजीब
घोंसला
पेड़ में एक मानवी रूप
मानवी रूप में एक ठूँठ।' - मुक्तिबोध, इस चैड़े ऊँचे टीले पर
नयी कविता ने मध्यमवर्गीय मनःस्थिति को उठाया है। गहरी निराशा, अवसाद और अपनी विसंगति को आक्रोशपूर्ण स्वर दिया है। मानव-मन के साथ-साथ वह देश की व्यवस्था को भी समग्र रूप से संदर्भित करती है-
'मेरा देश-
जहाँ बचपन भीख माँगते जवान होता है
और जवानी गुलामी करते-करते बुढ़िया हो जाती है
जहाँ अन्याय को ही नहीं
न्याय को भी अपनी स्थापना के लिए सिफारिशों की जरूरत होती है
और झूठ ही नहीं
सच भी रोटरी मशीनों और लाउडस्पीकरों का मुहताज है।'
सामाजिक संदर्भों में नयी कविता ने हमेशा विषमता, अवसाद, निराशा को ही नहीं उकेरा है। सामाजिक यथार्थ के इस सत्य पर कि कल को हमारी नासमझी हमारे स्वरूप को नष्ट कर देगी, कुछ समाज सुधार की बात भी कही है। प्रकृति की बात कही है, प्रेम की बात कही है, सबको साथ लेकर चलने की बात की है। नयी कविता ने देश-प्रेम, मानव प्रेम, प्रकृति प्रेम को विविध रूपों में उकेरा है-
'कोई हँसती गाती राहों में अंगार बिछाये ना-
पथ की धूल है ये, इससे प्यार मुझको
कोई मेरी खुशहाली पर खूनी आँख उठाये ना-
मेरा देश है ये, इससे प्यार मुझको!' - वीरेन्द्र मिश्र, मेरा देश
मानव प्रेम के, प्रणय के कुछ दृश्य इस प्रकार से हैं-
'याद तो होगा तुम्हें वह मधु-मिलन क्षण
जब हृदय ने स्वप्न को साकार देखा।'
'तुम्हारी रेशमीन जुल्फों को सहलाती
मेरे प्यार की लालायित अँगुलियों पर
शोषण के भयंकर भुजंगम दम तोड़ रहे हैं।' - वीरेन्द्र कुमार जैन, अनायता की आँखें
'और जब मैं तुम्हें अपनी गोद में लिटाये हुए
तुम्हारे केशों में अपनी अँगुलियाँ फिरा रहा होता हूँ
मेरे विचार हाथों में बंदूकें लिए
वियतनाम के बीहड़ जंगलों में घूम रहे होते हैं।'
'झाड़ी के एक खिले फूल ने
नीली पंखुरियों के एक खिले फूल ने
आज मुझे काट लिया
ओठ से
और मैं अचेत रहा
धूप में!' - केदार, फूल नहीं रंग बोलते हैं
कहना होगा कि नयी कविता ने समाज के बीच से निकल कर स्वयं को समाज के बीच स्थापित किया है। समाज में आसानी से प्रचलन में आने वाले हिन्दी, अंग्रेजी, देशज, उर्दू शब्दों को अपने में सहेज कर नयी कविता ने समाज की भाषा-बोली को जीवन दिया है। इसके लिए उसने नये-नये प्रतिमानों को भी गढ़ा है-
'सीली हुई दियासलाई की तरह असहाय लोग' - नरेश मेहता
'नीबू का नमकीन रूप शरबत शाम' - शमशेर
कैमरे के लैंस सी आँखें बुझी हुईं' - भारतभूषण अग्रवाल
इस तरह के एक दो नहीं वरन् अनेक उदाहरण 'नयी कविता' में दृष्टव्य हैं। इससे लगता है कि नयी कविता ने 'लीक' तोड़ कर समाज के प्रचलित अंगों को अपने साथ समेटा है। नयी कविता ने कविता की सीमाबन्दी को तोड़कर कुछ नया करने का ही प्रयास किया है। आम आदमी के दंश, मानसिक संवेदना को समाज में स्थापित करने से आभास हुआ है कि नयी कविता इसी समाज की कविता है। जहाँ यदि राजा की यशोगाथा गाई जाती है वहीं वेश्या की मानसिकता भी समझी जाती है; जहाँ किसी यौवन के अंगों पर कविता होती है तो मजदूरन भी उसी का हिस्सा बनती है; साहित्यिकता के मध्य देशज शब्दों को, बोलचाल की आम भाषा-शैली को भी स्थान प्राप्त होता है। इस दृष्टि से नयी कविता समाज से अलग न होकर समाज से जुड़ी प्रतीत होती है। यूँ तो प्रत्येक कालखण्ड में आती कविता को नया ही कहा जायेगा किन्तु सहज, सर्वमान्य नयी कविता के इस रूप ने जिन प्रतिमानों, उपमानों की स्थापना की है उन्होंने सही अर्था में समाज की सशक्त इकाई -मानव- और मानव-मूल्यों को महत्व दिया है। नयी कविता निःसन्देह सामाजिक संदर्भों में खरी प्रतीत होती है।
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डा0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
सम्पादक - स्पंदन (साहित्यिक पत्रिका)
प्रवक्ता हिन्दी विभाग,
गांधी महाविद्यालय, उरई (जालौन) उ0प्र0 285001
पत्राचार का पता-
110 रामनगर,
सत्कार के पास, उरई (जालौन)
ई-मेल-dr.kumarendra@gmail.com
दिनांक-07.02.2009
बहुत ही सारगर्भित आलेख. हिन्दी साहित्य के विधार्थियों के लिए संग्रहणीय.
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