युवा साहित्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त डाँ वीरेन्द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्था...
युवा साहित्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त डाँ वीरेन्द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। आपके दो सौ पचास से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्ट्र्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की स्तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनेक पुस्तकों की रचना कर चुके डाँ वीरेन्द्र ने विश्व की ज्वलंत समस्या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्तुत किया है। राष्ट्रभाषा महासंघ मुम्बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्व0 श्री हरि ठाकुर स्मृति पुरस्कार, बाबा साहब डाँ0 भीमराव अम्बेडकर फेलोशिप सम्मान 2006, साहित्य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्मान 2008 सहित अनेक सम्मानो से उन्हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आार्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं
दलित और गैर दलित लेखकों की दृष्टि में दलित साहित्य
-डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव
दलित साहित्य वर्तमान समय का सबसे ज्वलंत एवं चर्चित विषय बना हुुआ है। आज भी यह दलित साहित्य चर्चा एवं विवाद का विषय बना हुआ है और इसकी अभी तक कोई सटीक परिभाषा नहीं बन पाई है। साहित्यिक मठाधीश दलित साहित्य को लेकर स्पष्ट दो खेमों में विभाजित नजर आ रहे हैं और फतवेबाजी के माध्यम से एक दूसरे की आम सहमति को काटना उनका शगल बनता जा रहा है। जहां एक ओर सवर्ण लेखकों का मानना है कि कोई भी व्यक्ति दलित की पीड़ा व्यक्त करे वही दलित साहित्य होगा, और हम क्यों नहीं दलित साहित्य लिख सकते हैं। उनका यह कहना कि हम भी तो समाज के सजग पहरेदार हैं। वहीं दूसरी ओर दलित लेखकों का कहना है कि ऐसी कौन सी जरूरत आ पड़ी सवर्ण लेखकों के सामने जो वह हमारी पीड़ा पर मरहम लगाने आ पहुंचे। फिलहाल यहां तक स्थिति अभी नियंत्रण में है परन्तु इसके पहले तो इन (सवर्ण लेखकों) लोगों ने दलित साहित्य को सिरे से नकार दिया था। वैसे वास्तविकता यह है कि दलित साहित्य सामाजिक बदलाव लाने का आह्वान करता है। इस साहित्य में आक्रोश है, आग है, लावा है, गुस्सा है तो इसके साथ-साथ संवेदना, मानवीयता और सब्र भी है। यही नहीं दलित साहित्य जहां एक ओर न्याय की उत्कट लालसा रखता है तो वहीं दूसरी ओर इसमें समानता की तीव्र ललक भी झलकती है। यह साहित्य और बहुत कुछ समाज से नहीं चाहता परन्तु भाई चारे की भावना के साथ आदर पाने की इच्छा भी रखता है। हां रही बात पीड़ा को सहानुभूति के साथ व्यक्त करने की तो इसमें वह दग्ध, अनुभव नहीं समा पायेगा जो पीड़ित, शोषित व्यक्ति के द्वारा व्यक्त किया जा सकता है, यहां लेखक-लेखक में स्पष्ट अन्तर नजर आयेगा। क्योंकि इसमें कोई दो राय नहीं कि ‘‘लेखक लिखते वक्त केवल लेखक होता है, कोरी कल्पना है। लेखक की बहन के साथ अगर बलात्कार हुआ है तो उसकी लेखकी आग फेंकेगी, लेखक की बस्ती उजड़ गई हो तो वह विद्रोह का झंडा उठाने के शिद्दत के साथ गीत लिखेगा। लेखक सुविधा भोगी हो तो वह हर विद्रोही कदम को विघटन कहेगा और पहचान या अस्मिता की हर लड़ाई को जातिवाद कहेगा। जो उसने भोगा ही नहीं, कल्पना या संवेदना, शिल्प श्ौली अथवा चमत्कार से वह उसे सुन्दर भले बना दे- प्रभावी भी हो सकता है वह, पर प्रमाणिक नहीं होगा।''1 मानव प्रवृत्ति ही ऐसी होती है कि उसमें आम सहमति का होना आवश्यक नहीं पाया जाता है और अब तो सापेक्षिक दर्शन ने यह बात सिद्ध भी कर दी है कि शाश्वत सोच समान्तर हो ही नहीं सकती है इसलिए सबका सच सबका यथार्थ, सबका हित एकसा नहीं होता, अलग-अलग होता है फिर प्रश्न उठना लाजमी है कि हमारा साहित्य कैसे एकसा होगा? इस तथ्य को रमणिका गुप्ता भी स्वीकारतीं हैं- ‘‘कि जहां एक वर्ग ‘सभ्यता की उचाईयों, संस्कृति की नफासतों, दर्शन की सूक्ष्मताओं को पकड़ने की होड़ में है तो दूसरा अभी-अभी रोजी रोटी के लिए लड़ते हुए अज्ञान के अंधेरे को काटने की, मनुष्यता का दर्जा हासिल करने की फिराक में है, फिर दोनों की सोच एक कैसे हो सकती है ? जब सोच एकसी नहीं होगी तो साहित्य भी एकसा नहीं होगा।''2 पर इतना तो निश्चित हो गया है कि युगों-युगों से शोषित, प्रताड़ित, कुत्सित, संस्कृति, साहित्यिक सरोकारों से वंचित मानस जब स्वयं को साहित्य से जोड़ता है तब दलित साहित्य अपनी निजता को पहचानने की अभिव्यक्ति बन जाता है। यही नहीं हाशिए पर कर दिये गये इस समूह की पीड़ा जब शब्द बनकर सामने आती है तो सामाजिकता की पराकाष्ठा होती है यही कारण है कि जब सदियों से दबा आक्रोश शब्द की आग बनकर फूटता है तो यहां पर वर्जनाओं का टूटना सुनिश्चित हो जाता है इसे जब कोई आक्रोश कहे या उसकी पीड़ा, या प्रतिक्रिया परन्तु भावों के उद्गार में परम्परा नहीं देखी जाती है। वास्तव मे देखा जाये तो गैर दलितों के जीवन में दलितों का प्रवेश पिछले दरवाजे के बाहर तक है। ठीक वैसे ही दलितों के जीवन में उनका प्रवेश नहीं के बराबर है। इसलिये उनके लेखन में कल्पना अधिक है।''3 इसी तथ्य को विश्लेषित करते हुए मुद्राराक्षस का मानना है कि ‘‘दलित सामाजिक अस्तित्व की परतों का खुलासा दलित लेखन में ही होता है। सवर्ण बुद्धिजीवी की समूची करुणा में कहां सूराख रह जाता है और कहां वह अंतः करुणा से अधिक सामंती उदारता बन जाती है, यह सिर्फ दलित ही जान सकता है।'' कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि दलित साहित्य ने आज अपनी उपस्थिति सभी के दिलों में की है और दलित एवं गैर दलित वर्ग के लेखक इसे किसी न किसी रूप में स्वीकार कर रहे हैं शायद इसके पीछे प्रमुख कारण दोनों वर्ग के लेखकों के मस्तिष्क में आया होगा और तेजसिंह के शब्दों में कहें तो ‘सहानुभूति और स्वानुभूति का अन्तर ही गैर-दलितों और दलितों की साहित्यिक परम्परा को अलग-अलग दिशाओं की ओर ले जाता है क्योंकि इनकी अनुभूति का सामाजिक साहित्यिक स्तर भी अलग-अलग है। इसमें दलित साहित्यिक परम्परा को एक सुदृढ़ आधार मिल जाता है। आज का दलित साहित्य इसी की पुष्टि करता नजर आता है।''4
वर्तमान दलित साहित्य में दलित एवं गैर दलित लेखकों के मंतव्य को देखें तो स्पष्ट खेमेवाजी दृष्टिगत नजर आती है। भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता के पहुरुए साहित्यकार खुलेआम इसे नकारते हैं, वहीं प्रगतिशील, जनवादी (जन संस्कृति के पक्षधर) या जो वामपंथी विचारधारा के लोग इसके प्रति सहानुभूति एवं पक्षधरता में स्पष्ट झंडा बुलंदी करते नजर आ रहे हैं। यहाँ मूल प्रश्न चूंकि दलित साहित्य लेखन में दलित एवं गैर दलित जातियों का है इसलिए दलित लेखन में मूल मुद्दा जातीय समीकरणों का है अर्थात् आज का जो दलित लेखन हो रहा है उसमें इसका वास्तविक हकदार कौन है दलित या गैर दलित ? पहला वर्ग आलोचकों का वह है जो यह स्वीकार करता है कि दलितों के बारे में विनम्र सहानुभूति के साथ चाहे जो (सवर्ण या अवर्ण जाति) लिखे वह दलित साहित्य की श्रेणी में माना जाना चाहिए। इसमें प्रमुख लेखक- डॉ0 राम विलास शर्मा, डॉ0 नामवर सिंह, डॉ0 शिव कुमार मिश्र, प्रेमकुमार मणि, खगेन्द्र ठाकुर, डॉ0 परमानन्द श्रीवास्तव, रमणिका गुप्ता, मैनेजर पाण्डेय, ज्योतिष जोशी, डॉ0 रामचंद, दलवीर सिंह, बी0आर0 बुद्धिप्रिय, मोहर सिंह आदि आते हैं। दूसरे वर्ग के लोग वे हैं जो यह मानते हैं कि वास्तविक दलित लेखक वह हैं जिसने सदियों से शोषण, अत्याचार एवं अमानवीयता की लम्बी दास्तान झेली है यह पीड़ा गैर दलित कैसे महसूस कर सकता है अर्थात् मैनेजर पाण्डेय के शब्दों में कहें तो- ‘‘राख ही जानती है जलने का दर्द, दलित होने की पीड़ा सिर्फ दलित जानता है।''
प्रथम वर्ग के समीक्षकों का मानना है कि यह सिर्फ एक प्रोपेगन्डा है और लेखन करते समय लेखक का ध्यान रचना की ओर रहना चाहिए- खेमेबाजी से साहित्य का भला कभी नहीं होता है- उनका मानना है कि आज दलित साहित्य के नाम पर कुछ लोग साहित्य में एक अलग खेमा तैयार करना चाहते हैं, यह गलत है। दलित साहित्य को हिन्दी साहित्य का केन्द्रीय आन्दोलन बनाना है, जैसे कि कभी भक्ति आन्दोलन और प्रगतिशील आन्दोलन था। एक नया कुनबा या प्रकोष्ठ तैयार करना ही यदि उद्देश्य रहा, तब फिर आन्दोलन किस बात का ? दलितों द्वारा दलितों पर लिखना अच्छी बात है, लेकिन दलितों द्वारा दलितों पर लिखने भर से दलित साहित्य नहीं हो जाता।''5 प्रसिद्ध समीक्षक नामवर सिंह के शब्दों में कहें तो ‘‘कोई लेखक दलित कुल में जन्म लेने से दलित चेतना का संवाहक नहीं हो जाता। उसके लिये जाति का होना जरूरी नहीं है। कबीर ने यही तो कहा था कि ‘जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान।'' उस जमाने में भी बहुत से चमार जाति के कवि थे लेकिन सभी तो रैदास नहीं हो गये।''6 सहानुभूति एवं स्वानुभूति का हवाला देते हुए डॉ0 खगेन्द्र ठाकुर का मानना है कि सहानुभूति और स्वानुभूति में वैसा फर्क नहीं रह जाता, जैसा विचारों के स्तर पर हम समझते हैं। वहां तो सब रचनाकार की आत्मानुभूति का अंग बन जाता है, रचनाकार रचना करता है। सृजन करता है वह अपने अपार काव्य संसार का प्रजापति होता है। रचना के जरिये दूसरों को जगाता है, नई चेतना, नये मूल्य और नये सम्बन्ध का निर्माण करना चाहता है। इसलिए कोई लेखक दलित नहीं होता...........दलितों के बारे में केवल दलित ही लिखें, इस सिद्धान्त का स्रोत असल में वह राजनीति है। जिसके अनुसार कहा जा रहा है कि दलित केवल दलितों को ही वोट दें।''7 इस वर्ग के लेखकों में तुलसीराम जी अपनी व्याख्या को वर्ण व्यवस्था से जोड़ते हुए लिखते हैं कि ''हमारा दलित साहित्य वर्ण-व्यवस्था के विरोध का साहित्य है। वर्ण व्यवस्था का विरोध चाहे जो भी करे, ब्राह्मण करे या कोई भी, वह दलित साहित्य का अभिन्न हिस्सा है।................अश्वघोष तो अयोध्या के ब्राह्मण थे, पर उन्हें क्यों दलित साहित्य के अन्तर्गत रखा जाता है, इसलिए कि उन्होंने वर्ण व्यवस्था पर जोरदार हमला बोला था। सरहपा, राहुल को इसलिये दलित लेखन की परम्परा में रखा जाता है कि उन्होंने वर्ण-व्यवस्था की जड़ पर चोट की थी।''8 यह स्पष्ट है कि मनुष्य समाज का सशक्त अंग होता है और स्वाभाविक है समाज की गतिविधियां ही साहित्य का अभिन्न अंग बनती हैं यही सामाजिक गतिविधियों की विषमता मनुष्य को अनुभव जन्यता की ओर ले जाती है- यहां पर जातीय नियमों का एवं उसूलों का प्रश्न कहां से खड़ा हो गया- ‘‘गैर दलित लेखकों की दलित जीवन संदर्भों पर लिखी गई रचनाओं को साहित्य के अन्तर्गत सम्मिलित करने को दलित-लेखक-विचारक जिस लहजे में, जिस तरह उनकी अंतर्वस्तु को सर्वथा नकारते हुए, ऐसे लेखकों की नियति पर शक करते हुए उनकी मानवीय संवेदना का माखौल उड़ाते हुए उन्हें खारिज करते हैं गोया समाज की रूढ़ और यथास्थितिवाद की पोषक शक्तियां नहीं, वही उनके वास्तविक प्रतिस्पर्धी हों।............वे न मानें उन्हें दलित लेखक और उनकी रचनाओं को दलित लेखन, परन्तु उन पर उठाई गई उनकी आपत्तियां उनके पूर्वाग्रहों को ही उजागर करती हैं।''9
दूसरे वर्ग, जो दलित साहित्य को लिखने के लिये दलित होने के अपने तर्क बताते हैं वे भी किसी हद तक अकाट्य ही हैंं। दलित साहित्य क्या है ? क्या वह साहित्य जो दलितों के बारे में अन्य लोगों द्वारा लिखा दलित साहित्य है या वह साहित्य जो दलित लेखकों, विचारकों, बुद्धिवादी लोगों ने अपनी समस्याओं अपनी कठिनाइयों, बेइन्साफियों, अपने पर होने वाले अत्याचारी ज्यादतियों को ध्यान में रखते हुए लिखा और राजनीतिक मान्यताओं और धर्मों की पैदा की हुई समस्याओं पर लिखा वह दलित साहित्य है ? हम समझते हैंं दलितों से हमदर्दी रखने वाले लेखकों, जिनमें मुंशी प्रेमचन्द्र, कृश्नचंदर, डॉ0 मुल्क राज आनन्द, इस्मत चुगताई, भगवतशरण उपाध्याय, डॉ0 रामशरण शर्मा आदि प्रसिद्ध लेखकों के नाम शामिल हैं। उनकी रचनाओं की सराहना की जानी चाहिए परन्तु उसे दलित साहित्य नहीं कहा जा सकता। इसी तरह अछूत जातियों में जन्मे उन नौजवानों द्वारा लिखी प्यार-मुहब्बत की कहानियों को जो भारतीय हिन्दी फिल्मों से प्रभावित होकर लिखी जाती हैं, दलित साहित्य नहीं कहा जा सकता है। ...............दलित साहित्य सही मायने में वह साहित्य है जो दलितों ने अपने ज्ञान, अपने तजुरबे, अपनी कठिनाइयों और पीड़ा के आधार पर लिखा है।''10 यही राजेन्द्र यादव की मान्यता है कि ‘हाशिये के लोग अपनी जमीन और जीवन स्थितियों से जितने जुडे़ हैं उतने मुख्य धारा वाले हिन्दी लेखक नहीं।''11 दलित साहित्य की अवधारणा में कंवल भारतीय लिखते हैं कि ‘‘दलित साहित्य से अभिप्राय उस साहित्य से है जिसमें दलितों ने स्वयं अपनी अपनी पीड़ा को रुपायित किया है। अपने जीवन संघर्षों में दलितों ने जिस यथार्थ को भोगा है दलित साहित्य उसी की अभिव्यक्ति है, यह कला के लिये कला का नहीं, बल्कि जीवन का और जीवन की जिजीविषा का साहित्य है। ऐतिहासिक लेखन के प्रति अपनी टिप्पणी से अवगत कराते हुए जय प्रकाश कर्दम लिखते हैं कि ‘‘इतिहास में साहित्य लेखन का कार्य गैर दलितों द्वारा ही किया जाता रहा है। दलितों के प्रति साहित्य के इस उपेक्षापूर्ण और नकारात्मक रवैये ने दलितों को अपने दर्द और अनुभवों को स्वयं अभिव्यक्त करने की ओर प्रवृत्त किया। यातना और उत्पीड़न ही नहीं, जीवन के हर पहलू को उन्होंने अपने सृजन का प्रतिपाद्य बनाया।
दलित लेखकों ने अपने जीवन के कड़वे और तल्ख यथार्थ को बेबाकी और साहस से साहित्य में प्रस्तुत किया है, जो वे केवल वे ही कर सकते हैं।‘‘12 डॉ0 श्यौराज सिंह बेचैन भी इसी तरह अपनी पीड़ासे अवगत कराते हुए लिखते हैं कि प्रेमचंद, निराला आदि साहित्य के महत्वपूर्ण लेखक हैं, इसमें कोई इन्कार नहीं कर सकता, लेकिन उनका सृजन जिस तरह से मुस्लिम समाज, ईसाई समाज और अंग्रेज समाज के भीतर सच लिपिबद्ध कर सकता है, उसी तरह से वे दलितों की वास्तविक यातनाओं, आकांक्षाओं और आवश्यकताओं को व्यक्त नहीं कर पाये उनकी सहानुभूति की सीमाऐं थीं, वे अलग समाज के लोग थे, उन्हें अस्पृश्यता के दंश का अनुभव नहीं था वे नहीं जानते थे कि मनुष्य से मनुष्य घृणा करता है तो उस पर क्या बीतती है ? इतना ही नहीं, डॉ0 अम्बेडकर के समय में जो अछूतों के अधिकार की आवाज उठी, उस समय भी ये हिन्दी के महत्वपूर्ण लेखक दलित हितों के विरोध में अम्बेडकर का असहयोग कर रहे थे। यह परम्परा सवर्ण साहित्यकारों में आज भी शामिल है। ऐसी स्थिति में कोई किसी दलित गैर दलित को चाहे वह कितना भी महत्वपूर्ण हो, उसे अपना लेखक कैसे मान सकता है।''13 साहित्य के रंगमहलों में दलित साहित्य के औचित्य को रेखांकित रखते हुए मोहन दास नैमिशराय लिखते हैं कि ‘‘आज जरूरी सवाल है दलित साहित्य को नकारने वालों की मनोस्थिति का ऑपरेशन तथा दलित साहित्य का विश्लेषण बिट्रेन। और फ्रांस की जनसंख्या से अधिक हिन्दी क्षेत्रों में हमारी जनसंख्या है, पर साहित्य और पत्रकारिता में हमारी क्या हिस्सेदारी है, जरूरत इस बात को महसूस करने की है।'' दलित साहित्य की अस्मिता एवं इसकी वर्जनाओं की ओर इशारा करते हुए ओम प्रकाश बाल्मीकि का कहना है कि ‘‘दलित की पीड़ा सवर्ण नहीं समझ सकता तो वह सिर्फ चौकंता ही नहीं है, यह तथ्य उसे गाली की तरह लगता है, जो उसके अहंभाव को विखण्डित करता है। साहित्य उनके लिए कल्पनाओं की विस्तृत ऊँचाई है जहाँ खड़े होकर कल्पना के बलबूते पर वह तमाम दुनिया के यथार्थ को देखने की क्षमता रखने का भ्रम पाले हुए है। उसे खीज होती है जब कोई उसकी इस क्षमता और सामर्थ्य पर उंगली उठाता है। यहाँ यह कहना भी अप्रसांगिक नहीं होगा कि तथाकथित मुख्यधारा का निर्माता अपने विरुद्ध खड़ी हर असहमति को अपना घोर प्रतिद्वन्द्वी समझता है। आत्ममुग्धता के प्रेम में वह सिर्फ अपनी ही तस्वीर देखने का अभ्यस्त है। इसी नजरिये से वह दलित साहित्य पर यह आरोप चस्पा करता है कि वे दलित बोध के संकीर्ण दायर से बाहर नहीं आते हैं। जबकि वस्तु स्थिति इसके ठीक विपरीत है। हिन्दी के महान रचनाकार भी अपने जातीय संस्कारों से बंधे हुए हैं। जिन्हें सार्वभौम और शाश्वत मूल्य कहा जा रहा है, वे ब्राह्मणवादी एवं सामंती सोच के मूल्य हैं-पन्त हों या महादेवी, या फिर निराला, प्रसाद के चिन्तन की धारा क्या है ? वर्ण-व्यवस्था के प्रति उनका दृष्टिकोण क्या है ? ब्राह्मणवाद पर वे क्या सोचते हैं ? इन तमाम तथ्यों पर गहन विश्लेषण एवं गम्भीर अध्ययन, मनन और व्याख्यायित करने की आवश्यकता है जिसे समीक्षक अनदेखा ही करते रहे हैं।''14 दलित लेखन पर सबसे तीखा आक्रोश अखिलेश का है- ‘‘सवर्ण यदि दलित जीवन पर लिख सकते हैं तो उन्होंने लिखा क्यों नहीं ? सवर्णों ने कितने लाख पृष्ठ रंगे होंगे उसमें से कितना हिस्सा दलित जीवन पर है ? ले देकर तर्क के लिए प्रेमचंद्र का नाम लेते हैं, प्रेमचंद्र ने भी तीन सौ कहानियाँ लिखीं जिनमें इक्का, दुक्का में दलित स्वर है। नई कहानी आन्दोलन जो हिन्दी कहानी का स्वर्णकाल है, उसमें दलित जीवन पर कितनी कहानियाँ हैं ? भक्तिकाल से लेकर आज तक सवर्णों द्वारा लिखी गई पूरी काव्ययात्रा में दलित जीवन कितना उपस्थित है ? तो कहने के लिए कहते रहिए कि सवर्ण भी लिख सकता है लेकिन प्रश्न है फिर लिखा क्यों नहीं अब जब दलित खुद अपनी बात कहने के लिए कटिबद्ध हैं तो सवर्ण समाज को लगता है कि लिखना कलाकारी करना तो हमारा काम है, ये कहाँ से चुनौती देने आ गये ?''15 इसी तरह का आक्रोश मुद्रराक्षस में है आपके अनुसार तो दलित साहित्य में दखल केवल व केवल दलितों को ही होना चाहिए। आपके अनुसार- ‘‘किसी सवर्ण लेखक की हिम्मत नहीं कि अपने जीवन में दलित प्रश्न का सामना कर सके। इनसे पूछना चाहिए कि तुम्हें कौन सा कष्ट है जो पिछड़ों और दलितों पर लिख रहे हो, कालिदास, दंडी, जयदेव, बाणभट्ट की दुनिया का वृत्तांत लिखो, तुम्हें क्या कष्ट है ? तुमको इस दुनिया में आने का हक नहीं है। आना चाहते हो तो पक्का सबूत दो और मजबूरी के कारण सार्वजनिक करो। मजबूरी साफ है। उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार में.......लेखकों को सत्ता में घुसने के लिए दलित प्रश्न उठाने ही हैं या वंचितों से सहानुभूति व्यक्त करनी है। बिहार में पिछड़ा शासन है तो वहाँ प्रकाशक राग-विराग ज्यादा बेच लेगा। मायावती राजनैतिक प्रभाव में न होतीं, बिहार में लालू प्रसाद यादव सत्ता में न होते तो क्या श्री लाल शुक्ल उपन्यास लिखते ? इन सबको मालूम है कि दलितों का समय आ रहा है, सत्ता में भागीदारी बढ़ रही है। ये लिखेगें ताकि भागीदारी में हिस्सा बन सकें। भारतेन्दु से लेकर आज तक किसी सवर्ण ने खुद को दलित लेखक नहीं कहा।''16
प्रस्तुत तर्कों एवं वाद विवाद से यही निष्कर्ष निकलता है कि आज दलित रचनाकार अपने परिवेश के प्रति गहरे सरोकारों से प्रतिबद्ध हो रहा है क्योंकि उसकी अपनी पीड़ा इतनी महत्वपूर्ण नहीं है जितनी कि समाज की पीड़ा। वास्तव में देखा जाये तो दलित साहित्य परिवर्तन के लिये लिखा जाने वाला साहित्य है जिसके माध्यम से लेखक सामाजिक चेतना को सर्वोपरि मानता है। अपने समाज एवं पुरखों पर होते चले आ रहे दुख दर्द को वह अपनी लेखनी के माध्यम से उकेरने की कोशिश करता है। उसके लिये उसे भाषा, व्याकरण एवं साहित्य की चिंता नहीं रहती है वह जानता है कि जो सदियों से शोषण का संताप हमने सहा है वह सीधे-सीधे कहने में हमें किस बात की झिझक हो। यहाँ यह कहना पर्याप्त है कि एक दलित की पीड़ा दूसरा दलित बहुत ही सहजता से समझ एवं पहचान लेता है। यह प्रमाणिक लेखन से सिद्ध हो गया है पर कलावादी लेखक इस तथ्य को स्वीकार एवं पचा नहीं पा रहे हैं। ‘‘दलित साहित्य में भाषा और अभिव्यक्ति का रूप दलित जीवन के सच से बनता है जो प्रिय तो एकदम नहीं है, बल्कि वह नंगा, तीखा और चोट करने वाला सच है। वह भला ललित भाषा में कैसे अंट सकता है और अंट भी जाये तो उसका असर वैसा नहीं होगा जैसा दलित चाहते हैं। इसलिए दलित अपने जीवन की भाषा में, उस भाषा में जिसे वे सुनते, सहते और जीते आये हैं, साहित्य लिख रहे हैं। एक तरह से यह भाषा सवर्णों की दी हुई ही भाषा है, वह ललित कैसे हो सकती है वह तो दलित ही होगी।''17
अन्त में यह कहा जा सकता है कि एक दलित की पीड़ा जिस सहजता से दूसरा दलित शिद्दत के साथ अनुभव कर सकता है वह किसी अन्य वर्ग का व्यक्ति नहीं महसूस कर सकता है। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। सर पर मैला रखकर (मैला की सफाई करने वाला) चलने वाला व्यक्ति जो अपमान, तिरस्कार, ग्लानि एवं आन्तरिक ताप सहता रहता है उसके मन का द्वन्द्व क्या जो लोग इस पीड़ा से नहीं गुजरते हैं उनके दग्ध अनुभव को व्यक्त कर सकते हैं, शायद उत्तर में जवाब नहीं मिलेगा। अब कोई विवाद नहीं होना चाहिए की दलित की पीड़ा दलित ही समझता है दूसरा कोई नहीं। यही दलित लेखन के परिप्रेक्ष्य में कहा जा सकता है क्योंकि दलित साहित्य में उनके अपने भोगे गये दग्ध अनुभव के साथ जुड़े अपमान, यातना, खीज, विवशता आक्रोश के साथ विद्रोह भी है इनमें तारतम्यता का अभाव कलावादियों को खटकता है क्योंकि दलित साहित्य में शिकायत के साथ-फरीयाद, विरोध एवं आर्तनाद भी झंकृत होता है। गालिब के शब्दों से अपनी बात समाप्त करना चाहता हूँ-
फरियाद की कोई लै नहीं है नालः पाबन्द-ए नै नहीं है।''
अर्थात् जो लोग फरियाद भी किसी खास लय में सुनना पसन्द करते हैं और अन्तर्नाद भी बांसुरी के जरिये ही, वे कला के प्रेमी तो क्या इंसान नहीं हैं। ऐसे लोगों की आलोचना की परवाह दलित लेखक क्यों करें !
सन्दर्भ ग्रन्थ सूचीः
1. दलित चेतना ः साहित्यिक एवं सामाजिक सरोकार डॉ0 रमणिका गुप्ता, पृ0 154
2. दलित चेतना ः साहित्यिक एवं सामाजिक सरोकार डॉ0 रमणिका गुप्ता, पृ0 27
3. दलित साहित्य का सौदर्यशास्त्र- ओम प्रकाश बाल्मीकि, पृ0 35
4. आजका दलित साहित्य - डॉ0 तेजसिंह, पृ0 8
5. कथा क्रम-2000, प्रेमकुमार मणि पृ0 76
6. दलित साहित्य की अवधारणा और प्रेमचन्द्र-डॉ0 नामवर सिंह, पृ0 193
7. कथा क्रम-2000, डॉ0 खगेन्द्र ठाकुर पृ0 52
8. उत्तर प्रदेश-सितम्बर-अक्टूबर-2002, तुलसीराम, पृ0175
9. कथा क्रम-नबम्बर-2000, डॉ0 शिवकुमार मिश्र, पृ0 43
10. उत्तर प्रदेश भगवान दास-सितम्बर- अक्टूबर 2002 पृ0 73
11. हंस -2004, अगस्त-सम्पादकीय, मेरी तेरी उसकी बात
12. कथा क्रम-नबम्बर 2000, पृ0 85
13. उ0प्र0-सितम्बर-अक्टूबर 2002- डॉ0 श्यौराज सिंह बेचैन, पृ0 180
14. दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र-ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृ0 39
15. कथा क्रम, नम्बर 2000, अखिलेश पृ0 3
16. उत्तर प्रदेश-सितम्बर-अक्टूबर 2002, मुद्राराक्षस पृ0 167
17. दलित चेतना और सोच- डॉ0 रमणिका गुप्ता, पृ0 1
सम्पर्क ः वरिष्ठ प्रवक्ता ः हिन्दी विभाग दयानन्द वैदिक स्नातकोत्तर महाविद्यालय उरई-जालौन (उ0प्र0)-285001 भारत
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