“अस्तित्व ” प्रातः की बेला, रवि की अरूणिम रक्त किरण्ों अपनी छटाओं से मेरी बालकनी को स्वर्णिम आभा प्रदान कर रही थीं और मैं गुनग...
“अस्तित्व ”
प्रातः की बेला, रवि की अरूणिम रक्त किरण्ों अपनी छटाओं से मेरी बालकनी को स्वर्णिम आभा प्रदान कर रही थीं और मैं गुनगुने धूप का किन्हीं विचारों और कल्पनाओं में खोयी हुई आनंद ले रही थी । अरूणोदय के उस नयनाभिराम दृश्य को मै बड़े इत्मीनान से निहार रही थी और सूर्य भी क्षण भर के लिये ठहरा हुआ सा मेरे सौंदर्य का चक्षुपान कर रहा था । उस समय यह कहना नितांत कठिन था कि हम दोनों में किन्हें और किसके सौंदर्य को देखने में ज्यादा खुशी की अनुभूति हो रही है। वह अपने बिख्ोरते गुनगुने धूप में मेरे गौर वर्ण और गुलाब के पुष्प की तरह खिले चेहरे को देखकर ज्यादा आह्लादित है या फिर उसके देदीप्यमान तेज में इंद्र के अलौकिक स्वरूप के दर्शन की अपेक्षा लिये मेरी उत्कंठा, उसके ऐसी किन्हीं अभिलाषाओं पर भारी है।
प्रकृति में प्रिय की तलाश के उन क्षणों में मेरी कल्पना और उन अद्भुत पलों में मेरे समस्त अंगों से प्रस्फुटित प्यार, दिनकर की उन सुनहरी किरणों के समक्ष इर्र्ष्या की अनुभूति कर रही थी। उस समय यदि मैं समस्त चराचर जगत के सौंदर्य का दर्शन उस भानु में कर पा रही थी, तो मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वह भी ठहरा हुआ सा मुझमें अपनी प्रेयसी शशि के शीतल स्वरूप की तलाश करता टकटकी लगाये देख रहा है और उन सुंदर हीरक पलों को जीती हुई मैं भावविभोर हा,े ऐसे सुंदर मनोहारी दृश्य का आनंद लेती हुई, शब्दों के ताने बाने में उलझी, उस प्रकृतिगत् सौंदर्य को बयां करती कुछ पंक्तियों की तलाश में इन्ही कल्पनाओं के इर्द गिर्द भटक रही थी ।
किंतु क्षण भर के ही धूप ने मेरे गौर वर्ण को विचलित सा कर दिया और मैं उस दिवाकर की ओर पीठ दिखाकर बैठ गयी। मेरा यह कृत्य उसे मुंह चिढ़ाने सा लगा और अपने प्रेयसी के वियोग में व्याकुल किसी हाथी की तरह वह अपनी सादगी को रौद्र रूप में परिवर्तित करता हुआ, मेरे सामने रख्ो मेज पर पुष्पित एक नन्हे से कुसुम पर अपना कहर बरसाता, झुलसाने लगा। मुझे यह सब नागवार गुजरा और मैंने बालकनी की खिड़की बंद कर अपनी डायरी और कलम उठा फिर से उन कल्पनाओं में खो गयी जहां से मां सरस्वती की आराधना कर मैं किन्ही शब्दों को शून्य से लाकर पंक्तियों के माध्यम से कोई स्वरूप प्रदान करने की चेष्टा किया करती ।
मैं प्रातः की उस मधुर बेला में खोयी हुई अपनी सुंदर कल्पना को साकार रूप देने का प्रयत्न कर रही थी, शब्दों को तोड़ मरोड़ अलंकारिक रूप देने के उसी उपक्रम के बीच मेरे नन्हे बेटे की तोतली बोली ने मेरी एकाग्रता भंग कर दी, उसकी कोई भी तुतलाती टूटी फूटी बोली मेरे दिन भर की मेहनत के उपरांत खोजे किसी एक अलंकारिक शब्द से मेरे लिये कहीं ज्यादा कर्णप्रिय हुआ करतीं। मेरी तमाम तरह के मेहनत के उपरांत सृजित सारी कविताएं उसके केवल एक शब्द मां के सामने जैसे नतमस्तक सी हो जाया करतीं। उसकी बालसुलभ हरकतों और उच्चारित ध्वनि गीत मां के समक्ष मैं स्वयं को सदैव एक बौने कवियित्री के रूप में पाती।
वैसे भी मेरा बेटा इर्श्वर का दिया मेरे लिये सबसे अनुपम उपहार के रूप में था और मेरी सबसे उत्तम रचना भी । अपने बेटे को अपनी एक सर्वोत्तम रचना कहते हुये मुझे कवि हरिवंश राय बच्चन के वे शब्द अनायास याद हो आते जब उनसे किसी पत्रवार्ता में पूछा गया था कि आपकी नजर में आपकी श्रेष्ठ किसी रचना का नाम बताइए तब उन्होने बड़ी गंभीरता व गर्व से अमिताभ जी का नाम लेते हुये उन्हे अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति बताया था ।
बेटे ने मेरे गोद में सिमटते हुये अपनी तोतली बोली में कहा - मम्मी जी, पापा आपको नीचे बुला रहे हैं ।
मैने अपने बेटे को गोद में उठाते हुये बड़े प्यार से कहा-बेटा, पापाजी से कहना, मम्मी जी बस थोड़ी देर में आ रही है। पापा से यह भी कहना कि किचन में केतली में मैंने चाय बनाकर रख दी है, वे पी लें। फिर थोड़ी देर में मम्मीजी बेटा और पापाजी के लिये गरमागरम नाश्ता बनायेंगी। ठीक है ... ऐसा कहते हुये मै अपने नन्हे से बेटे पर चुंबनों की बरसात करने लगी। मेरा बेटा मेरे चुंबनों से गद्गद् प्रतिदान स्वरूप मुझे कुछ लौटाने की अधीरता से खुसफुसाने लगा मैं उसके हावभाव को भांप गयी और उसे अपने बाहुपास से मुक्त कर अपने आंचल को ठीक करने लगी। मेरे बेटे ने मेरे गालों पर जब लगातार तीन चुंबन लिये तो उस चुंबन ने मुझमें ऐसी उर्जा का संचार किया जो मुझे दिन भर की होने वाली थकान से राहत दिलाने के लिये पर्याप्त थी और ऐसा लगा जैसे किसी भी तरह की विपरीतता से निपटने की एक प्रकार से शक्ति मिल गयी हो ।
अपने बेटे को जीने के प्रथम पायदान तक विदा कऱ फिर से उन कल्पनाओं में मै खो गयी जहां किसी शब्द को एक पथ पर अधूरे स्वरूप में छोड़ आयी थी, उन शब्दों को कुछ श्रृंगारिक छंदो और किन्हीं रसों से अलंकृत करने का प्रयत्न बस कर ही रही थी कि अचानक एक कर्कश ध्वनि ने मेरे कलम के प्रवाह पर विराम लगा दिया ।
आशा, तुम्हें जब से बुला रहा हूं, तुम्हें रत्ती भर फर्क नहीं पड़ता! आखिर तुम क्या बताना चाहती हो? क्या तुम यह कहना चाह रही हो कि तुम कोई महादेवी वर्मा जैसी महान कवियित्री बन गई हो? तुम सिर्फ कल्पनाओं में जीती हो, यथार्थ से तुम्हें कोई लेना देना नहीं? सुबह से सारे काम पड़े हुये हैं, बाई तीन दिनों से काम पर नहीं आ रही, मुझे सुबह 10 बजे ऑफिस जाना है, दिन भर की भागती दौड़ती दिनचर्या के बीच सुबह सुबह कलम और डायरी पकड़कर बैठ जाती हो। तुम्हें न तो मेरी परवाह है और न ही इस बच्चे की।
सुधीर, बस केवल दस मिनट यार, थोड़ा धीरज रखा करो, कुछ पंक्तियां दिमाग पर कौंधने लगी थीं उन पंक्तियों को मैं यदि डायरी में कोई स्वरूप ना देती तो फिर वे कहीं खों जातीं, और तुम इतना तो समझते ही होगे कि जो शब्द एक बार शून्य में खो जाती हैं वे फिर दोबारा वापस नहीं आतीं । मैंने बड़े ही ध्ौर्य से अपने पति के गुस्से को शांत करने का प्रयत्न किया ।
उसके बाद भी तुम बकवास करती हो, तुम्हें केवल अपनी पड़ी है, तुम सिर्फ अपने लिये जीती हो, अरे दो चार पंक्तियों के लिखने से कोई साहित्यकार और कवि नहीं बन जाता, और यदि ऐसा ही होता ना आशा, तो परचून की दुकान वाला भी कवि सम्मेलन में अपनी कविता पाठ किया करता, तुम्हारी तरह चंद पंक्तियां तो आखिर, वो भी गुनगुना लेता होगा ना...। आशा, तुम्हें शायद पता नहीं कि ठूंठ पर फूल नहीं खिला करते।
एक ही सांस में इतनी सारी उलाहनाएं सुनकर मैं क्रोध से अपने होंठों को कुतरते हुये डायरी को वहीं मेज पर रख बिना कुछ बोले सीढ़ियों से उतरने लगी। मेरी तनी हुई भृकुटी, बिखरे हुये केश और माथ्ो पर तनाव से उभरी हुई नसों की लकीरें उस क्षण मेरे अंतर्मन में छिपे क्रोध को प्रतिबिंबित कर रही थी, म्ौं अपने लंबे बिखरे हुये केश को जूड़ें के रूप में समेटते हुये शीघ्रता से किचन की ओर प्रस्थान करने लगी।
मैं मौन थी और जानती थी, कि यह इन क्षणों के लिये एक सर्वोत्तम औषधि है। वास्तव में मैं प्रातः के वक्त किसी भी प्रकार का तनाव मोल नहीं लेना चाहती थी, मैं इस बात से वाकिफ थी कि मेरी थोड़ी भी प्रतिक्रिया न केवल मेरे दिनभर की जीवनचर्या को बुरी तरह प्रभावित करेगी बल्कि बेवजह का वाद विवाद अनावश्यक तूल पकड़ेगा और एक संघर्ष का उद्भव होगा जो मैं किसी भी कीमत पर नहीं चाहती थी। मैं प्रसिद्ध समाजशास्त्री मेक्सवेबर के इस कथन को अपने एवं आसपास के दैनिक अनुभवों से भली भांति परख चुकी थी कि हर संघर्ष की समाप्ति समझौते के एक बिंदु पर आकर होनी है और जब समझौते पर ही किसी विवाद या संघर्ष को समाप्त करना है तब फिर इसकी शुरूवात ही क्यों ?
पिता को बाल्यावस्था में ही खो देने के पश्चात मैने मां के रूप में एक दैवीय शक्ति को बहुत करीब से उस सामाजिक ताने बाने और कुव्यवस्था के विरूद्ध संघर्ष करते देखा था, जिसमें एक स्त्री को उसकी हदें बताकर किस तरह उसके कद को बौना करने का प्रयत्न किया जाता है, क्रोध और अपमान के विष को एक कड़वे घूंट के रूप में शिव सदृश हलक में ही रोक कर रखने की महारत मैने लड़कपन में ही हासिल कर ली थी । मां से बचपन में सीख्ो हुये ये गुर, मुझे कई विपरीत परिस्थितियों में बड़ा संबल प्रदान किया करतीं।
यद्यपि मैं पूरी तरह संयत थी, लेकिन गुस्से में समेटे जा रहे कुछ कार्यों से मेरे क्रोध प्रतिबिंबित हो रहे थ्ो, और मेरी यह गंभीर त्रुटि मुझे समझ में भी आने लगी थी, मुझे जैसे ही इसका आभास हुआ मैं स्वयं पर नियंत्रण करने का प्रयास करने लगी, तभी पीछे से मेरा हाथ पकड़ते हुये सुधीर ने जब मरोड़ने का प्रयत्न किया तो मेरे दाहिने हाथ की कुछ चूड़ियां टूट कर बिखर गयीं ।
उन्होने गुस्से से कहा - आशा तुम कुछ ज्यादा ही रियेक्ट कर रही हो, तुम अपनी हदें पहचानो, तुम्हें शायद यह मालूम नहीं, कि तुम्हारी ये हरकतें तुम्हें नुकसान भी पहुंचा सकती हैं ।
अब मेरे ध्ौर्य की सीमाएं समाप्त हो गयी थीं, मैने अपने हाथ को झटके से छुड़ाते हुये कहा - देखो सुधीर मैं चुप हूं, इसका तुम नाजायज फायदा न उठाओ, मेरे ध्ौर्य की सदैव परीक्षा ना लिया करो, आखिर क्या मिलता है तुम्हें इस तरह के हाथापाई से ? तुम यह सब कर आखिर कैसी मर्दानगी दिखाना चाहते हो ? अरे सही में मर्द हो तो जाओ, सीमाओं पर जाकर सैनिकों की तरह मुकाबला करके दिखाओ। औरत पर हाथ उठाने वाले मर्द नहीं होते सुधीर, और रही बात जहां तक तुम्हारे ऑफिस जाने के वक्त तक भोजन तैयार करने की, तो वह मै रोज कर ही लेती हूं ।
मेरी यह तीखी टिप्पणी, उसके मर्दानगी को ललकार गयी और प्रत्युत्तर में मेरे गालों पर पड़े एक जोर के थप्पड़ ने मुझे चारों खाने चित्त कर दिया, उस झन्न की घ्वनि और विद्युत के तरंगों की भांति एक जोर के झटके ने पूरे शरीर में कंपन सा पैदा कर दिया। मैं उन क्षणों में एकाएक घटे उस अनपेक्षित घटना से स्तब्ध थी और गालों पर हाथ रख्ो सुधीर की ओर एकटक देखती रही, इस बीच मेरा बेटा जो बड़ी देर से हमारे बीच की कहासुनी को देख रहा था, मेरे आंचल में सहमा सा आकर रोते हुये सिमट गया । वह डर से चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा और कहने लगा - पापा, मत मारो मम्मी को।
वैसे, यह सब पहली बार नहीं हुआ था और न ही इस तरह की हाथापाई मेरे लिये कोई नई घटना ही थी, यही नहीं मेरे इस तरह की पीड़ा पर मेरे नन्हे से बेटे का करूण क्र्रंदन भी हम दोनों के लिये किसी तरह का अचरज का विषय नहीं था। वह रोज इस तरह की सुधीर की हरकतों को देख विचलित हो रोया करता और मैं उसे पुचकारते हुये अपनी गोद पर ले उन पलों में उसे बहलाने का प्रयत्न किया करती।
सुधीर की इस तरह की हरकतों को देख मेरा बेटा हर बार मुझसे पूछा करता - मम्मी, पापा आपको क्यों मारते हैं ? और प्रत्येक बार मैं उसके इस अनुत्तरित सवालों के जबाव में उसे क्षण भर अपलक मौन हो देखती और फिर उसे चूमते हुये अपने चेहरे पर हल्की मुस्कुराहट बिख्ोर, उसके साथ लिपट जाया करती । मेरे बेटे का बालमन मेरे इस मौन उत्तर से भले ही संतुष्ट ना होता रहा हो, पर वह मेरी मुस्कुराहट के समुंदर में स्वयं को पूरी तरह समाहित कर, अपने प्रश्न सहित स्वयं का अस्तित्व सदैव थोड़ी देर के लिये इन क्षणों में भूल जाया करता ।
ऐसे किसी वेदना के क्षणों में संतान का निश्छल प्यार, किसी भी स्त्री के लिये दैवीय वरदान से कम नहीं हुआ करता। यदि एकल परिवार की भागती दौड़ती संस्कृति के बीच, बच्चे वृद्धावस्था में अपने माता पिता के लाठी का सहारा न भी बने, तो भी इस तरह के अवसरों पर अपने बाल सुलभ हरकतों एवं निश्छल प्यार से, मां के कोख से जन्म लेने का कर्ज चुका ही दिया करते हैं। एक मां को संतान की लालसा शायद ऐसे ही किन्हीं अवसरों के लिये ज्यादा हुआ करती है। वास्तव में संतान के रूप में एक स्त्री को अपने मित्र, रक्षक और एक ऐसे हमदर्द की तलाश होती है जो एक पति के रूप में कहीं न कहीं अधूरी छूट जाती है।
किसी स्त्री का एक पुत्र के प्रति प्रेम, यदि विपरीत लिंग के आकर्षण के कारण संभव होता होगा, जैसा कि मनोवैज्ञानिकों का कथन है, तो एक स्त्री उसमें उस निश्छल और पवित्र प्यार की तलाश अवश्य करती होगी, जो उसे अपने पति के रूप में उस इंसान से अपेक्षा थी, जिसके प्यार की कल्पनाओं में गोते लगाना कभी उसके लिये सर्वाधिक सुखद हुआ करता था। यद्यपि यह प्यार संतान के साथ वात्सल्य के पवित्र स्वरूप में परिणित हो जाता है ।
मेरा बेटा अभी तक सिसक रहा था, मैं उसे चुप कराने का प्रयत्न करने लगी, किंतु मेरे बार-बार आंसू पोंछने और मेरी ममता के बीच पीड़ा से सहमा हुआ वह नन्हा सा बालक मेरे गले से लिपटा हुआ मुझे छोड़ ही नहीं रहा था। मैने बेटे को पुचकारते हुये उसी की बोली में तुतलाते हुये कहा - क्या हुआ मेरे राजा भ्ौया को, इस तरह नहीं रोते ! अच्छे बच्चे इस तरह आंसू नहीं बहाया करते, ठीक है .... ऐसा कहते हुये उसे मैं गोद में उठा प्यार करने लगी ।
थोड़ी देर में मेरा बेटा संयत हो गया और मुझसे कहने लगा - मम्मी, मम्मी ।
मैने कहा - क्या हुआ ?
मम्मी जी मैं बड़ा हो जाउंगा तो पापा को मारूंगा, आप रोना मत। मम्मी, मुझे भी पापा जितना बड़ा कर दो ना ।
मैं उस दिन अपने बेटे के बालमन में छिपे, पिता के प्रति आक्रोश को देखकर क्षण भर को सहम सी गयी। मुझे डर सा लगने लगा, मैं यह सोच घबराने लगी की कहीं नित्य की कहासुनी उसके बालमस्तिष्क पर बुरा प्रभाव ना डालने लगे।
बेटे को पुचकारते हुये मैने कहा - नहीं बेटा .... ऐसा नहीं कहते । मम्मी से गलती हो जाती है, इसलिए पापा गुस्सा हो जाते हैं। उसके नन्हे से कंध्ो पर हाथ रख मैं उसके प्रति अपने वात्सल्य का प्रदर्शन करते हुये उसी की भाषा में समझाते हुये कहने लगी - देखिये जब आप गलती करते हैं, तो मम्मी जी आपको डांटा करती हैं ना, ठीक वैसे ही मम्मी से भी गलती होती है, फिर पापा के प्रति गुस्सा क्यों? पापा सबसे अच्छे इंसान हैं, बेटा के लिये चाकलेट लाते हैं, ढेर सारे खिलौने लाते हैं, बोलो है ना?
मेरा बेटा मेरे शब्द जाल में उलझ जाता और मैं उसके मन में किसी तरह पनपने वाले पिता के प्रति क्रोध व प्रतिशोध के बीज को अंकुरित होने से बचा पाने में, हर बार सफल हो जाया करती।
मैं इस तरह के वाद-विवाद और जुल्म को, इस उम्मीद के साथ हर बार सहा करती कि शायद शारीरिक रूप से प्रताड़ित होने का मेरा यह अंतिम अवसर हो और वह अंतिम दिन मेरे लिये सदैव ही अनंतिम बन कुछ कदम दूर रूठकर खड़ी हो जाया करती। मैं हर रात इसी उम्मीद के साथ बिस्तर पर इन वाद विवादों और आंतरिक असह्य पीड़ा को अंतर्मन में समेट सो जाया करती, कि आने वाली प्रातः की बेला सूर्योदय के साथ मेरे लिये एक नया सबेरा लेकर आयेगा, लेकिन उस क्रूर आश को न तो कभी मुझ पर दया आयी और न ही मेरे निर्लज्ज ध्ौर्य ने कभी मेरा दामन छोड़ा।
मैं सुधीर को विदा कर अपने ऑफिस जाने की तैयारी करने लगी, आईने के सामने बैठ आंखों के नीचे सूखे हुये आंसुओं की बूंदों को रूमाल से पोंछने के प्रयत्न के बीच मेरा ध्यान गाल पर पड़े उंगलियों के निशान की ओर अनायास ही चला गया और तमाम तरह के सौंदर्य प्रसाधनों के लेप के पश्चात भी मैं उसे ढक पाने में नाकामयाब रही । मेरे गालों पर उभरे हुये रक्तिम निशान, जो धीरे धीरे कालिमा में परिवर्तित हो रही थी, घर की पूरी कहानी खुदबखुद बयां करने के लिये पर्याप्त थी, और ऐसी व्यथाओं को प्रतिबिंबित करती किसी स्मृति चिन्ह के रूप में इस निशान के साथ ऑफिस तक जाना मेरे लिये उस दिन संभव न हो सका। लिहाजा मैने छुट्टी के लिये आवेदन फेक्स कर दिया।
बिस्तर पर पड़े हुये मैं अतीत की स्मृतियों में खो गयी, मैं याद कर रही थी उन दिनों को, जब मैं सुधीर के लिये सब कुछ हुआ करती थी । मेरे हरेक शब्द उन्हे मोतियों की तरह लगा करते, मात्र कुछेक पंक्तियों के सृजन पर तालियों की गड़गड़ाहट से समूचा कमरा ध्वनिमय हो जाता, वह मुझे मंा शारदा की कृपापात्र एक ऐसी स्त्री के रूप में देखा करता, जिसके हरेक अंगों से विद्वता और प्रतिभा किसी झरने की तरह झरा करती, किंतु अब शादी को पांच साल हो गये थ्ो और पुरूष का मन किसी स्त्री और ऐश्वर्य पर बहुत दिनों तक टिका नहीं रहता। वास्तव में पुरूष का परिवर्तित होता चेहरा नये-नये रूप में नित्य प्रति सामने आता ह,ै जिसे किसी औरत के लिये समझ पाना काफी कठिन हुआ करता है। पुरूष स्वयं को जितना सहज प्रदर्शित करता है, वह वास्तव में होता नहीं और स्त्री को समाज के पहरेदार जितना कठिन समझते हैं, वे सदैव उसके विपरीत हुआ करती हैं, स्त्री और पुरूष में शायद यही अंतर हुआ करता है।
अभी इसी उध्ोड़बुन में खोयी हुई थी तभी अचानक मां का फोन आ गया, मां ने कहा -
आशा, मैं आज कुछ जरूरी काम से दिल्ली आ रही हूं, बेटा सोच रही हूं, आज रात तुम्हारे यहां रूकूंगी, तुम लेने स्टेशन आ जाओ रात सात बजे के आसपास ट्रेन वहां पहुँचेगी ।
मेरा इतना सुनना था कि मेरे होश फाख्ता हो गये, मैं कुछ भी कह सकने की स्थिति में नहीं थी, म्ोरे हालात उस समय ऐसे नहीं थ्ो कि मैं मां का उस कड़वे स्मृति चिन्ह के साथ सामना कर पाती, मैंने मां से झूठ बोलते हुये कहा -
मां आज रात हम सुधीर के साथ पार्टी में बाहर जा रहे हैं, तुम छोटे भाई अनिल के यहां आज रूक जाओ, कल सुबह मैं आपको लेने आ जाउंगी ।
मां ने कहा - बेटा, अनिल तो पहले ही दिल्ली से बाहर है, तुम चाबी पड़ोसी के यहां छोड़ जाओ, मैं घर में अकेले रूक जाउंगी।
एक स्त्री के लिये इस तरह के असमंजस भरे क्षण किसी धर्मसंकट से कम नहीं हुआ करते, यदि झूठ को छिपाना इन क्षणों में कठिन होता है तो सत्य को बयां करना उससे कहीं ज्यादा कठिन हुआ करता है। वह जानती है कि पति के इस तरह के दुर्गुणों को छिपाकर झूठ की नींव पर बहुत दिनों तक संतोष की इमारत खड़ी नहीं रखी जा सकती, लेकिन वह यह भी समझती है कि इससे लोगों की नजरों में उसके पति की प्रतिष्ठा को, यदि एक बार आंच पहुंची तो उसकी पुर्नप्राप्ति में काफी समय लगेगा। उसे मां की सेहत को भी ध्यान में रखना होता है, उसे यह भली भांति पूर्वानुमान होता है कि उसका छोटे से छोटा दुख मां को अंदर तक खोखला कर देगा ।
ना चाहते हुये भी, हां कहने के अलावा मेरे सामने कोई विकल्प नहीं बचा था, मैने मां से कहा- ठीक है मां, आप स्टेशन पर इंतजार करना, मैं आपको लेने आउंगी ।
थोड़ी देर में सुधीर भी ऑफिस से आ गया, किंतु मुझे घर में ही पड़ा देख अपने चिरपिरचित कुटील मुस्कुराहट से व्यंग्य लहजे में कहा- अच्छा! तो आज महारानी जी ऑफिस नहीं गयी हैं, क्या घर की दीवारों से गम बांटने का इरादा हो गया या फिर इन्ही गमों के बीच कोई नई कविता उमड़ पड़ी।
मैने एक चाय का प्याला मेज पर रखते हुये सुधीर से निवेदन भरे लहजे में कहा- देखो सुधीर, मैं किसी विवाद को अनावश्यक जन्म नहीं देना चाहती, मां का फोन आया था, वे आज घर आ रही हैं, प्लीज, कुछ ऐसा मत करना जिससे मां को यह सब पता चले ।
अच्छा, तो मां को भी यह सब खबर हो गयी ।
सुधीर, वे अपने कुछ काम से दिल्ली आ रही हैं, मैं इतनी कायर और डरपोक महिला नहीं हूं कि अपने पारिवारिक विवादों में मायके वालों को घसीटूं और फिर अभी मुझमें तुम्हारे जुल्मों से निपटने का मादा बचा हुआ है ।
मैं थोड़ी देर में मां को लेकर स्टेशन से घर आ गयी, वे थकी हुई थीं, उन्हे उबासी आ रही थी, वे कह रही थीं- बेटा ट्रेन में बहुत भीड़ थी । अच्छा बताओ, तुम कैसी हो, सुधीर कैसा है ? और ये लाडला बेटा... ।
मां हम सब ठीक हैं, सुधीर कमरे में अखबार पढ़ रहा है ।
तभी, मां की नजर मेरे गालों पर पड़ गयी, मां के चेहरे से जैसे हवाइर्यां उड़ने लगीं, उसने आश्चर्य मिश्रित लहजे में कहा- बेटा गालों पर उंगलियों के निशान! कहीं सुधीर से कुछ कहा-सुनी तो नहीं हो गयी ?
अरे नहीं मां, आप तो खामखां कुछ भी संदेह करने लगती हो, ये तुम्हारा लाडला बेटा है ना, बहुत जिद्दी है मां, कल अपने नाखून से मेरे गालों में खरोच दिया, बहुत बिगड़ रहा है, क्या करूं आप ही बताओ ना ?
इसी बीच मेरा बेटा कुछ बोलने का प्रयत्न करने लगा, मैने उसे बहलाते हुये गोद में उठा लिया और चाकलेट थमाते हुये कहा, जाओ आप ख्ोलो, नानीजी आपके लिये ढेर सारा चाकलेट लायी हैं।
आशा, मुझे सब कुछ ठीक-ठाक नहीं लगता बेटा, सच-सच बताओ, सुधीर से कुछ कहासुनी हो गयी ?
मैने चेहरे पर बनावटी हंसी का आवरण ओढ़ते हुये कहा- अजी, सुनते हो! मां को समझाओ भई, मेरी बातों में यकीन नहीं है मां को, वे मानने को ही तैयार नहीं है कि गालों पर खरोंच इस लाडले का काम है ।
सुधीर को तो जैसे मेरे इस झूठ से एक प्रकार का सुरक्षा कवच मिल गया, अपने दोहरे पुरूषगत् चरित्र का प्रदर्शन करते हुये वह कहने लगा- हां मां, आशा ठीक कह रही है, लड़का बहुत जिद्दी हो गया है ।
पता नहीं, प्राचीन ग्रंथों में स्त्रियों के चरित्र पर इतनी उंगलियां क्यों उठायी गयी ? क्यों इसे एक आख्यान के रूप में प्रयुक्त किया जाने लगा कि - स्त्री चरित्रं पुरूषस्य भाग्यं, देवो ना जानाति । क्या पुरूष का द्वैत चरित्र, उक्त पंक्तियों को लज्जित करने के लिये पर्याप्त नहीं है ?पुरूष सदैव दोहरे चरित्र में जीता है, वह जितना जटिल होता है, उतने ही सरल स्वरूप का मुखौटा लगाता है।
वह सदा ही स्वार्थ की पृष्ठभूमि पर अपने सफलता की इमारत खड़ी करने की आकांक्षा रखता है। बचपन में पुत्र के रूप में, युवावस्था में एक छलिये प्रेमी के रूप में तथा विवाह के उपरांत एक ऐसे शोषक के रूप में जो नित नये वेश बदलकर सामने आता है। सच तो यह है कि पुरूष, समाज का एक ऐसा कृतघ्न चरित्र है जो अपनी जन्म देने वाली मां को भी बुढ़ापे में बोझ समझने लगता है और जो चरित्र अपनी जननी का ना हो सका उससे भला कोई स्त्री क्या उम्मीद कर सकती है? कम से कम स्त्रियां तो इस मामले में अवश्य श्रेष्ठ होती हैं, कि वे बहुत दूर रहकर भी मां के प्रति अपने प्यार, अपनापन और लगाव को अंत तक जिंदा रख कोख का कर्ज आखिर तक चुका ही देती है।
दिन, महीनों और सालों में बीतते गये, पर मैने तानों और उलाहनों के बीच कभी लिखना नहीं छोड़ा। इर्श्वर जन्म देते समय सबकी भूमिका निश्चित कर भ्ोजता है और कदाचित मां सरस्वती ने मेरी रचना इसीलिये की थी। मेरी मेहनत रंग लाते गयी और अब मेरी कविताओं के चर्चे अंतर्जाल से निकलकर साहित्य के यथार्थ धरातल पर भी होने लगी थी। कविताएं मेरी पहचान बनने लगी थी या यूं कह लें कि कुछ कविताओं की पहचान ही मुझसे होने लगी थीं। वैसे भी किसी कवि के लिये वे क्षण बड़े सुखद होते हैं जब कविताओं की विशिष्ट विधाएं उसकी पहचान बन जाती हैं, और एक शोषित नारी की व्यथाओं के बेहतरीन चित्रण के लिये मुझे जाना जाने लगा था।
अब तो मैं कुछ कवि सम्मेलनों में भी जाने लगी थी,एक कवियित्री के रूप में साहित्य जगत में मेरी पहचान ने, सुधीर के पुरूषोचित दंभ को आहत करना शुरू कर दिया था । वह हर बार मुझे इस तरह के सम्मेलनों में जाने से रोका करता, मेरे साहित्य सृजन पर सभी तरह के रोड़े अटकाया करता परंतु मैं तो उस अविरल प्रवाहमान सरिता की तरह मां शारदा के कर कमलों से प्रस्फुटित हो चुकी थी, जिसे रोक पाना अब सुधीर के बस की बात नहीं थी। सभी तरह के अवरोधों के पश्चात भी मैने लिखना नहीं छोड़ा, “कर्मण्येवाधिकारस्ते मां फलेषु कदाचनः” की तर्ज पर बिना फल की चिंता किये सिर्फ लिखती रही और इस तरह बीते सालों में मैने दर्जन भर से अधिक रचनाएं हिन्दी साहित्य जगत को प्रदान की ।
समय की सुइयाँ अपने निर्बाध गति से चलती रहीं और अब तो धीरे-धीरे सुधीर की पहचान भी मेरे पति के रूप में होने लगी थी। कई अवसरों पर दूसरों के मुख से मेरी प्रशंसा सुन सुधीर को अब मुझमें खूबियां नजर आने लगी थीं। साहित्य जगत में गहरी होती मेरी पैठ और बनती हुई एक अलग पहचान ने सुधीर के सोच की दिशा में थोड़ा परिवर्तन आरंभ कर दिया था। वह कई अवसरों पर अब मेरी प्रशंसा किया करता, लेकिन अब मुझे उसके इस प्रशंसा की शायद जरूरत ही नहीं थी। पुरूष और स्त्री में शायद यही मूल अंतर होता है, एक स्त्री अपने पति की प्रतिभा को सबसे पहले पहचानती है और एक पुरूष अपनी पत्नी की खूबियों की तब कद्र करना प्रारंभ करता है जब उसे इतने प्रशंसक मिल चुके होते हैं कि उसे अपने पति की सराहना की कदाचित् आवश्यकता ही नहीं होती।
रात्रि के 9 बज रहे थ्ो, मैं पिछले एक हफ्ते से बीमार बिस्तर पर पड़ी थी। टी.वी. में साहित्य अकादमी पुरस्कारों की घोषणा हो रही थी। सुधीर भी भोजन के मेज पर बैठा हुआ समाचार देख रहा था, समाचार देखना मेरी आदतों में शुमार नहीं था किंतु सुधीर के साथ बैठकर देखना मेरी विवशता होती थी । अभी पुरस्कारों की घोषणा प्रारंभ ही हुई थी कि अचानक बिजली गुल हो गयी, मुझे अच्छा लगा, थोड़ी शांति महसूस हुई और मैं चादर ढंककर सो गयी ।
अचानक मेरे सेल फोन पर मेरे एक परिचित मित्र, जिसे मैं अपने एक प्रबुद्ध पाठक के रूप में देखती थी का फोन आया, उसने बताया कि साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिये जिन लेखकों व कवियों के नामों की घोषणा अभी-अभी की गयी है उसमें मेरा नाम भी है। मैं बिस्तर से उछल पड़ी, मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। वैसे तो हरेक साहित्यकार, स्वांतः सुखाय के रूप में साहित्य की पूजा करता है किंतु इस तरह के पुरस्कार न केवल उसके मनोबल को बढ़ाते हैं बल्कि उसकी इस साधना को पूर्णता प्रदान करते हैं, ठीक उसी तरह, जिस तरह एक विवाहित स्त्री मां बनने के पश्चात स्वयं को एक पूर्ण औरत के रूप में अनुभव करती है ।
सुधीर ने मुझे बधाई देते हुये अपनी बांहों में समेट लिया, किंतु आज वे बांह मुझे शूल की तरह चुभ रहे थ्ो, मैं जिस छाती में आलिंगन भर, कभी स्वर्ग सा सुख महसूस किया करती और जहां सिमट जाने पलों को लम्हों की तरह गिना करती, आज उससे अलग होने को मैं जैसे छटपटा रही थी ।
उसने मुझे अपने आलिंगन से मुक्त करते हुये कहा- आशा मुझे क्षमा कर दो, मै तुम्हारी कद्र ना कर सका। तुम एक श्रेष्ठ कवियित्री और रचनाकार हो यह तुमने आज प्रमाणित कर दिया ।
मैं चुप थी, बोलने के लिये मेरे पास भला कोई शब्द क्या हो सकते थ्ो, फिर भी अतीत के वे दर्द बार-बार मुझे उद्वेलित कर रही थीं ।
सुधीर ने फिर से कहा- आशा, क्या तुम मुझे माफ नहीं करोगी ? कौतूहल से उसकी नजरें मेरी ओर टकटकी लगाये देख रही थी ।
मैने कहा- सुधीर तुमने बहुत देर कर दी, मेरे शब्दकोष में अब क्षमा शब्द बचा ही कहां है?तुमने तो मेरा सब कुछ रिक्त कर दिया, मेरे अंदर की भावना कुम्हला सी गयी । अतृप्त प्यार आंसुओं के साथ बाहर निकल कोरों पर सूख गयीं, मेरा पल-पल घुटता असहाय जीवन तुम्हारी आस लिये अंत तक सिसकता रहा, पर तुम्हें कभी मुझ पर दया नहीं आयी। सुधीर मैं अपनी पीड़ा को शब्दों के माध्यम से समाज के आइने के रूप में साहित्य जगत को परोसती रही, अपनी व्यथा को कविता का माध्यम बना लोगों के साथ बांट उनकी प्रशंसा के चंद शब्दों के सहारे जीती रही, पर तुमने कभी मुझे पलटकर नहीं देखा। तुम्हारी बेरूखी मुझे हर क्षण तड़पाती रही, मेरा घुटता जीवन मेरे शब्दों में प्रतिबिंबित होता रहा, पर तुमने कभी उसे समझने की आवश्यकता ही महसूस नहीं की । बताओ ना सुधीर, मैने तुम्हारे प्यार पाने क्या-क्या जतन नहीं किये ?
इतने निष्ठुर ना बनो, प्लीज आशा मुझे माफ कर दो, सुधीर ने गिड़गिड़ाते हुये कहा ।
चलो सुधीर, मैं थोड़ी देर के लिये तुम्हें माफ कर भी दूं, तो क्या तुम्हारी आत्मा तुम्हें क्षमा कर देगी? तुम्हारे वे निष्ठुर हाथ, जो कभी मेरे बदन पर चिन्ह छोड़ गौरव अनुभूत करते थ्ो, क्या उन्हे मुझे आलिंगन में लेते हुये लाज ना आयेगी ? तुम कैसे हो सुधीर ? तुमने मुझे जीवन भर इतना सताया है कि अब मेरे पास कुछ भी श्ोष नहीं है, हाड़ मांस के इस देह पर अंदर घुन सा लग गया है, सुधीर, मैं तुम्हें कैसे बताउं ?
सुधीर कातर दृष्टि से मुझे देखता रहा ।
एक सप्ताह बाद आयोजित होने वाले पुरस्कार ग्रहण समारोह हेतु मुझे आमंत्रण मिल चुका था । औरत का हदय बहुत विशाल और धनी होता है, वह चाहे जितनी कंगाल हो जाये पर क्षमा से भरा उसका कोष कभी रिक्त नहीं होता, भले ही अपने जीवनकाल में उसे क्षमादान औरों से कदाचित् ही मिल पाती हो लेकिन वह स्वयं जीवन के अंत तक सबको क्षमा करती है। श्ौशव में भाई की हठधर्मिता से लेकर, एक पुरूष की बेवफाई और पति की बेरूखी तक सबको सिर्फ क्षमा ही तो करती है ।
मैने अपनी उदारता का परिचय देते हुये कहा - सुधीर, पुरस्कार ग्रहण करने तुम चले जाओ, वैसे भी मेरी तबियत ठीक नहीं है, मैं जानती हूं कि यह मेरे जीवन का सबसे गौरवशाली क्षण होगा, जो पुरस्कार मेरी पूजा और साधना के परिणाम के रूप में आज मेरी प्रतीक्षा कर रहा है, उसे तुम्हारे हाथों प्राप्त करते हुये मुझे ज्यादा खुशी होगी। मैं तुम्हें आज अहसास भी कराना चाहती हूं कि उस प्रशस्ति पत्र और छोटे से पुरस्कार जिसमें मां सरस्वती विराजती हैं, को प्राप्त करते हुये कैसा अनुभव होता है। कोई साहित्यकार कैसे शून्य से उकेर कर किन्हीं पंक्तियों को कोई स्वरूप प्रदान करता है, ठीक उसी तरह जिस तरह सुनार एक सोने के एक अनगढ़ टुकड़े को आभूषणों का रूप देता है ।
नहीं आशा, हम दोनो साथ चलेंगे ।
मैंने कहा - नहीं सुधीर, मैं नहीं जा सकूंगी ।
मैं सुधीर के साथ पुरस्कार ग्रहण करने नहीं जाना चाहती थी । औरत के स्वभाव के साथ एक विचित्रता होती है, वह किसी व्यक्ति को उसके किये गये अपराध के लिये क्षमा कर भी दे तो भी पुनः उसे वह स्थान कभी नहीं देतीं, एक बार नजरों से गिरे इंसान को फिर से वही दर्जा देना औरत की फितरत में शायद होता ही नहीं है ।
मैं आज सुधीर को पुरस्कार प्राप्त करने का अधिकार प्रदान कर, एक ओर जहां उसे क्षमा करना चाहती थी, वहीं दूसरी ओर उसे इस समारोह में अकेले भ्ोज उसके जीवन भर मेरे साथ किये गये जुल्म की सजा भी देना चाहती थी । मुझे मेरे एक पाठक के कहे गये वे शब्द आज याद आ रहे थ्ो , उन्होने मुझे एक बार लिखा था - आप तो उस महान वृक्ष की तरह हैं जो व्यक्ति द्वारा पत्थर मारने पर उसे अपने मीठे फल देकर जहां उसे तृप्त करती है वहीं उसे शर्मिंदगी का अहसास भी कराती है ।
कार्यक्रम का सीधा प्रसारण मैं देख रही थी, तालियों की गड़गड़ाहट के बीच जब पुरस्कार वितरण समारोह में मेरा नाम पुकारा गया तो मैं गर्व से अभिभूत हो गयी, मेरे आंखों से आंसू छलक पड़े, म्ौं देख पा रही थी कि किस तरह कार्यक्रम के संचालक ने मेरा नाम पुकारते हुये कहा, कि आशा जी का पुरस्कार ग्रहण करने उनके पति मिस्टर सुघीर सक्सेना आये हुये हैं, हम उनसे अनुरोध करते हैं कि वे मंच पर आयें और पुरस्कार ग्रहण करें ।
सुधीर गर्व से फूला नहीं समा रहा था, वह दोनों हाथों को हिलाता हुआ लोगों का अभिवादन स्वीकार कर रहा था । वह उन क्षणों में बड़ा गौरान्वित था ।
मैं इसी दिन की आस में आज तक बैठी थी, आज जहां मेरी साधना का फल मुझे मिल चुका था, वहीं मेरी प्रतिज्ञा भी पूरी हो चुकी थी। मैने आज पुरूष दंभ को औरत के कद का अहसास कराया था। मैं दुनिया को यह बताने में आज कामयाब थी, कि एक औरत किस तरह सभी तरह की प्रताड़नाओं को झेलती हुई, अपने मूल्यों और आदर्शों के बीच अपने शौक को भी मंजिल प्रदान करने में कामयाब रहती है ।
मैंने ब्रीफकेस में अपना सारा सामान पेक कर लिया था, आज मैं अपने बेटे के साथ उस गुमनाम यात्रा पर निकल जाना चाहती थी, जहां मुझे पहचानने वाला कोई ना हो । म्ौं सुधीर को बस केवल यहीं तक क्षमा करना चाहती थी और उसके साथ इस रिश्ते को इसी मोड़ पर लाकर आज विराम भी देना चाहती थी ।
मुझे किसी चलचित्र में कही गयी वे पंक्तियां याद आ रही थीं, जिसमें किसी ने कहा था कि- यदि किसी रिश्ते को बहुत दूर तक ले जाना संभव ना हो, तो उसे किसी खूबसूरत मोड़ पर लाकर छोड़ देना चाहिये और मेरे लिये इससे खूबसूरत कोई मोड़ हो नहीं सकता था ।
मैने एक पत्र लिखा और उसे वहीं मेज पर छोड़ चाबी, पड़ोसी के यहां देकर चली आयी ।
सुधीर जब पुरस्कार लेकर घर आया तो वह मेज पर पड़े पत्र को पढ़ अवाक् हो अनंत आकाश में शून्य को निहारता रहा। पत्र में मैने लिखा था - सुधीर मैने तुम्हें क्षमा कर दी है, किंतु मैं आज तुम्हें छोड़कर उस अनंत यात्रा के लिये निकल पड़ी हूं , जहां तुम मुझे इस जन्म में दोबारा नहीं पा सकोगे। कुछ व्यक्तियों को किसी के महत्व का अहसास उसे खोकर होता है, सुधीर कदाचित् तुम भी उन्हीं लोगों में से हो । तुम खुश रहो, मुझे ढूंढ़ना मत।
अलविदा ।
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संपर्क:
राकेश कुमार पाण्डेय
हिर्रीमाइंस.
भिलाई इस्पात संयंत्र,(सेल )
बिलासपुर (छ.ग.)
rakesh ji kahani padhte padhte to me ye bhul hi gai ki ye kahani ek purush likhraha hai .
जवाब देंहटाएंkitna sunder chitran kiya hai
aap sahi me badhai ke patr hai
saader
rachana