युवा साहित्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त डाँ वीरेन्द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्था...
युवा साहित्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त डाँ वीरेन्द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। आपके दो सौ पचास से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्ट्र्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की स्तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनेक पुस्तकों की रचना कर चुके डाँ वीरेन्द्र ने विश्व की ज्वलंत समस्या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्तुत किया है। राष्ट्रभाषा महासंघ मुम्बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्व0 श्री हरि ठाकुर स्मृति पुरस्कार, बाबा साहब डाँ0 भीमराव अम्बेडकर फेलोशिप सम्मान 2006, साहित्य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्मान 2008 सहित अनेक सम्मानो से उन्हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं
वैश्विक परिदृश्य में राष्ट्रभाषा हिन्दी की विकास प्रक्रिया
-डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव
इक्कीसवीं सदी को भूमण्डलीकरण या वैश्वीकरण की सदी कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। सूचना और प्रौद्योगिकी के इस युग में हिन्दी को नव्यतर वैज्ञानिक उपकरणों के साथ आगे आना होगा। और इसकी सौ फीसदी अधिकारिणी हिन्दी है भी। अपने विशाल शब्द भण्डार, वैज्ञानिकता, शब्दों और भावों को आत्मसात की प्रवृत्ति के साथ हिन्दी ज्ञान विज्ञान की भाषा के रूप में अपनी उपयुक्तता एवं विलक्षणता के कारण आज हिन्दी को विश्व भाषा के रूप में सर्वत्र मान्यता मिल रही है। लगभग 80 करोड़ आम जनों द्वारा विश्व के 176 से अधिक विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाने वाली हिन्दी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना चुकी है। नये आंकड़ों के अनुसार हिन्दी के बोलने वाले विश्व में (पहले चीनी एवं अंग्रेजी) प्रथम स्थान पर हो गये हैं।
हिन्दी सम्पूर्ण भारत के जन-जन की वाणी है भारत के भाल की बिन्दी ‘हिन्दी' सभी हिन्दुस्तानियों द्वारा अध्ययन करने योग्य है क्योंकि हिन्दी, हिन्द वालों की मातृभाषा है। यह भारत एवं विश्व के एक कोने से दूसरे कोने तक बोली, पढ़ी-लिखी तथा समझी जाती है। राष्ट्रभाषा हिन्दी चीनी एवं अंग्रेजी को पीछे छोड़ते हुये विश्व की प्रथम भाषा हो गयी है, जो सर्वाधिक जनता द्वारा बोली जाती है। इसे बोलने वालों की संख्या 80 करोड़ से अधिक है। ये अस्सी करोड़ से अधिक आम जन स्वेच्छा से हिन्दी बोलते हैं। लेशमात्र कोई विवशता, दबाव अथवा लादने वाली बात हिन्दी भाषियों के सन्दर्भ में न है, न रही है। हिन्दी भाषा का अपना एक गौरवपूर्ण इतिहास रहा है। क्योंकि संसार में जिस भारत भूमि में सर्वप्रथम सभ्यता व संस्कृति का प्रादुर्भाव और विकास हुआ साथ जिस उर्वरा भूमि में ऋग्वेद, सांख्य, योग, दार्शनिक प्रणाली, ज्योतिष ग्रह-नक्षत्रों की दूरी ः काल की गणना का निर्धारण हुआ हो ऐसे देश की भाषा का अंदाजा सहज रूप में लगाया जा सकता है कि उसकी जड़ें कितनी गहरी हो सकती हैं।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य की बात करें तो अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी की समृद्ध परम्परा दृष्टिगोचर प्रतीत होती है। अमेरिका सहित विश्व के अनेक राष्ट्रों के लगभग 176 विश्वविद्यालयों में हिन्दी का अध्ययन-अध्यापन सतत/जारी है। विश्व में ऐसी भी जगह हैं जहाँ भारतीय मूल के लोग नहीं हैं तब भी वहाँ पर हिन्दी बोली जाती है। यहाँ शोध का विषय यह है कि अस्सी करोड़ से अधिक आमजनों द्वारा बोली जाने वाली हमारी हिन्दी भाषा संयुक्त राष्ट्रसंघ में स्थापित नहीं हो पायी है। इसके विपरीत, लगभग चालीस करोड़ लोगों द्वारा बोली जाने वाली स्पेनिश, क्रमशः बीस तथा इक्कीस करोड़ लोगों द्वारा बोली जाने वाली रूसी व अरबी भाषाओं का वहाँ स्थापित होना निश्चित रूप से हिन्दी के समक्ष चुनौती है साथ ही लज्जा का विषय भी है। हालांकि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में स्थितियों में सुधार हो रहा है क्योंकि हिन्दी भाषा की जड़ें विश्व के कई देशों में काफी गहरी हैं अतीत का अवलोकन करें तो विश्व स्तर पर हिन्दी के प्रचार-प्रसार में तात्कालिक स्थितियों का विशेष महत्व है, क्योंकि यहाँ के प्रवासी भारतीय (पुरखों) स्वाधीनता से पूर्व से लेकर स्वाधीनता के उपरान्त द्वारा हिन्दी अन्य देशों में ले जायी गयी है। फिजी, मॉरीशस, ट्रिनीदाद, सूरीनाम, गुयाना उस श्रेणी के देश हैं जहाँ हिन्दी का प्रयोग प्रवासी भारतीयों के द्वारा किया जाता रहा है/किया जा रहा है। इसका प्रमुख कारण धर्म एवं संस्कृति है क्योंकि भाषा ही इसकी वास्तविक संवाहिका होती है यदि व्यक्ति धर्म से जुड़ेगा तो उसका भाषा से जुड़ना लाजिमी हो जाता है। इन देशों में बसे प्रवासी भारतीयों ने अपनी भाषा को धर्म के साथ तादात्म्य बनाये रखा है। विश्व में शायद ही कोई देश हो जहाँ पर प्रवासी (अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, थाईलैण्ड, मलेशिया, सिंगापुर सूरीनाम, रूस, मॉरीशस, अफ्रीका, गुयाना, फ्रांस इत्यादि) भारतीय न हों और यहाँ हिन्दी भाषा विद्यमान न हो।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में प्रवासी भारतीयों ने हिन्दी भाषा के प्रति निरंतर सहयोग एवं भारतीयता के प्रति अनुराग का परिचय दिया। राष्ट्रपति महात्मा गाँधी ने अपने संघर्ष की शुरूआत ही प्रवासी अफ्रीकी लोगों के बीच शुरू की। हमारे देश के युवा शक्ति के प्रतीक सुभाषचन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फौज तथा आजाद हिन्द सरकार की स्थापना दक्षिण-पूर्व एशिया में की थी। इन दोनों महापुरुषों का माध्यम भाषा के रूप में हिन्दी ही था। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो आज जो भी प्रवासी हैं-विदेशों में जब भारतीयों से आपस में मिलते-जुलते हैं तो टूटी-फूटी हिन्दी में ही बात करते हैं इसके लिये जरूरी नहीं कि उनकी हिन्दी परिनिष्ठित ही हो। कनाडा, अमेरिका, रूस, ब्रिटेन या अन्य स्थानों में ऐसे भारतीय जिनकी भाषा हिन्दी नहीं है वे पहले स्थानीय भाषा या कॉमन भाषा में परिचय करके बाद में हिन्दी को ही आधार बनाकर बातचीत करना पसन्द करते हैं।
यदि हम त्रिनीदाद की बात करें तो वहाँ भारतीय सन् 1845-1917 में पहुँचे। तब इनकी संख्या लगभग एक डेढ़ लाख के रही होगी। ये भारतीय पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार (पश्चिमी) के निवासी थे और इनकी मूल भाषा भोजपुरी/मैथिली तथा अंग्रेजी का मिश्रण मिलता है। दुम-तुम, डाटा-दाता, टारन हारे-टारन हारे-तारन हारे है। इनमें कुछ प्रवासी मध्य प्रदेश ब्रज क्षेत्र तथा पंजाब के पिछड़े क्षेत्रों के निवासी थे। ये लोग आपस में बोलचाल के रूप में ‘पवड़ा' जिसे पुरानी हिन्दी कहा जाता था, उसी का प्रयोग करते थे। आज भी प्रवासी लोगों के लिये यहां स्कूलों में सनातन धर्म एसोसियेशन के प्रयास से हिन्दी भाषा के अध्ययन/अध्यापन की व्यवस्था की जाती है। शिव, नारायण एवं कबीर पंथ के द्वारा भी इस दिशा में कार्य किये जा रहे हैं। त्रिनिदाद, टोबेगो द्वीप में भारतीयों का हिन्दी प्रेम सर्वविदित है। कोहेनूर और आर्य संदेश, ज्योति जैसी प्रमुख पत्रिकायें यहाँ प्रकाशित की गई हैं। यद्यपि इन कृतियों में धर्म प्रचार ही अधिक था। भारतीय विधा संस्थान द्वारा प्रकाशित ज्योति यहाँ की सर्वाधिक लोकप्रिय पत्रिका है। साथ ही ‘सनातन धर्म' महासभा द्वारा हिन्दू पत्रिका का प्रकाशन भी होता है। जिसके द्वारा इन क्षेत्रों में हिन्दी का व्यापक प्रसार होता आया है।
जापान सहित अन्य एशियाई देशों में हिन्दी का प्रयोग 1911 के लगभग शुरू हुआ। यहाँ पर इसी वर्ष तोक्यो स्कूल ऑफ फारेन लैंग्वेज की स्थापना की गयी। वर्तमान में यह ‘तोक्यो यूनीवर्सटी ऑफ फारेन लैंग्वेज' के नाम से जानी जाती है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय का हिन्दी विभाग अप्रत्यक्ष रूप से जापान में हिन्दी के अध्ययन की सुदृढ़ स्थिति करने के लिये सराहनीय कार्य करता रहा है क्योंकि जापानी में छात्रों एवं प्रोफेसरों का यहाँ आना-जाना लगा रहता है।
प्रो. दोई ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में सन् 1953-55 ई. में आकर अध्ययन किया था। आपका सबसे महत्वपूर्ण कार्य जापानी-हिन्दी तथा हिन्दी-जापानी कोर्स तैयार करने का है। राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा की परीक्षाओं में बहुत से जापानी विद्यार्थी परीक्षाओं में सम्मिलित होते रहते हैं। गाँधी संस्थान एवं क्योटा नगर भी प्रचार प्रसार में कार्य कर रहा है। जापान में ‘ओसाका यूनीवर्सटी ऑफ फारेन स्टडीज' में हिन्दी अध्यापन की उचित व्यवस्था की गयी है।
विश्व भाषा के रूप में हिन्दी का विकास उसके गुणों के कारण ही हो रहा है। साहित्यिक, धार्मिक तथा सामाजिक चेतना के लिये हिन्दी की पहचान भारत के बाहर निम्न देशों में भी हुई है। फ्रांस, चीन, हाँगकाँग, सूडान, आस्ट्रेलिया, इजराइल आदि राष्ट्रों में हिन्दी के शिक्षण/अध्ययन की समुचित व्यवस्था है। यूरोपीय देशों में कुछ ने हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार में अति महत्वपूर्ण कार्य किया हैं इनमें से फ्रांस का नाम आते ही गार्सा-द-तासी सामने दिखाई पड़ने लगते हैं। फ्रांस की राजधानी पेरिस मेें अपने हिन्दी साहित्य का प्रथम इतिहास फ्रेंच भाषा में लिखा। फ्रांस में ही आधुनिक विश्व-पूर्वी भाषाओं का संस्थान सन् 1975 ई. में स्थापित किया गया था। इस संस्थान में शिक्षण का कार्य गार्सा-द-तासी एवं ज्युलब्लाक ने किया है। अनुसंधान/अध्यापन के क्षेत्र में श्रीमती डॉ. वौदवील का योगदान भी महत्वपूर्ण माना जाता है। इस संस्थान में इस समय हिन्दी की स्थिति सर्वाधिक सुदृढ़ मानी जाती है क्योंकि यह संस्थान हिन्दी के साथ बंगला, तमिल एवं उर्दू पढ़ाने की व्यवस्था भी कर रहा है।
संयुक्त राज्य अमेरिका में सन् 1975 ई. में हिन्दी-भाषा का व्याकरण अमेरिकी निवासी सैमुल कैलाग ने हिन्दी का अनुशीलन करके तैयार किया। हिन्दी व्याकरण की दृष्टि से यह एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता है। भारत को स्वतंत्रता जब मिली तब अमेरिका के विश्वविद्यालयों में अध्ययन/अध्यापन की समुचित व्यवस्था की गयी। वर्तमान की बात करें तो अमेरिका के 35 विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जाती है। इनमें प्रमुख टेक्सास, हारवर्ड, वर्कले, होनो लूलू तथा स्टेन फोर्ड हैं। इसके साथ ही अमेरिका विश्वविद्यालय के ग्रंथागार अति उत्तम हैं। छात्रों को छात्रवृत्तियाँ प्रदान करके भारतीय विश्वविद्यालयों में हिन्दी की शिक्षा हेतु भेजा जाता है। स. रा. संघ के देशों में भारतीय पुस्तकों एवं पत्र-पत्रिकाओं की मांग अधिक रहती है। और जहाँ के पुस्तकालयों में इन्हें मंगाया जाता है। सम्प्रति अमेरिका से प्रकाशित होने वाली हिन्दी पत्रिकाओं में ‘सौरभ' विश्वा ओरे ‘विश्व-विवेक' के नाम उल्लेखनीय हैं।
सोवियत रूस और भारत की दोस्ती जगजाहिर है क्योंकि इस मैत्री का आधार सांस्कृतिक आधार रहा है। भारतीय लेखकों की रचनाओं के प्रति यहां शुरू से लगाव रहा है। यहां के सुधीजन सम्पूर्ण साहित्य (आदिकाल, मध्यकाल, आधुनिक काल) के प्रति रूचि एवं सम्यक ज्ञान रखते हैं। महाकवि तुलसीदास के रामचरित मानस का सफल रूसी अनुवाद वेरन्निकोव ने किया है। अन्य महत्वपूर्ण रूसी हिन्दी के विद्वान वी. चेरनीगोव, वी. क्रेस कोविन एवं बाबालिन हैं। रूस में हिन्दी की एक बोली ताजिकी विकसित हुई है। इन लोगों के द्वारा गद्य एवं पद्य रचनाओं का रूसी भाषा में अनुवाद प्रस्तुत किया जाना एक सराहनीय प्रयास है। पिछले कई दशकों के रूस में हिन्दी भाषा में विविध विषयों (आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, साहित्यिक) पर पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं। इसके साथ ही समसामयिक पत्रिकाओं का प्रकाशन/वितरण भी होता रहा है। प्राथमिक स्तर से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक हिन्दी पढ़ाने की उत्तम व्यवस्था रूस में विघटन के बावजूद आज भी सतत है।
ब्रिटेन के परिप्रेक्ष्य में जब हम देखते हैं तो वहाँ सन् में 1921 में ‘इन्स्टीट्यूट ऑफ ओरियन्टल स्टडीज' की स्थापना के साथ भारतीय भाषाओं और हिन्दी साहित्य का अध्ययन आरम्भ हुआ। आगे चलकर इसका नाम बदलकर ‘लन्दन स्कूल ऑफ ओरियन्टल स्कूल ऑफ स्टडीज' रखा गया। यार्क तथा कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में हिन्दी अध्ययन की वास्तविक शुरूआत मानी जाती है। यहाँ शोध हेतु छात्रों को पर्याप्त सुविधायें दी जाती हैं। हिन्दी साहित्य की बहुत सी पाण्डुलिपियाँ ब्रिटिश म्यूजियम तथा इण्डिया ऑफिस लाईब्रेरी में सुरक्षित रखी हुई हैं। ब्रिटेन में हिन्दी प्रचार/प्रसार का कार्य ‘हिन्दी प्रसार परिषद' के तत्वाधान में हो रहा है। साथ ही इस परिषद के द्वारा ‘प्रवासिनी' नाम से एक पत्रिका का प्रकाशन भी होता है। लंदन से ही प्रकाशित देस, परदेस, पुरवाई प्रमुख हैं।
मॉरीशस द्वीप ने हिन्दी साहित्य के विकास में पर्याप्त योगदान किया है। क्रियोल मिश्रित भोजपुरी यहाँ की जनता में प्रयुक्त होती है। इस भाषा में सर्वनाम, विभक्तियां, तथा क्रियायें हिन्दी की होती हैं पर शेष शब्द क्रियोल से लिये होते हैं। इस द्वीप में साहित्य की लगभग सभी विधाओं काव्य, उपन्यास, कहानी तथा नाटक आदि का साहित्यिक सृजन हुआ है। यहाँ के प्रमुख साहित्यकार जिन्होंने प्रारम्भ में यहाँ पर हिन्दी साहित्य की गरिमा को स्थापित किया है। प्रो. वासुदेव विष्णु दयाल, ब्रजेन्द्र भगत मधुकर एवं जयनारायण राय का नाम प्रमुख है। 1962 में ठाकुर प्रसाद मिश्र ने ‘दीपावली' शीर्षक कविता का प्रकाशन किया। आपके ‘मधुपर्क' कविताओं के संग्रह ने विशेष ख्याति अर्जित किया है, जिसका प्रकाशन कवि मधुकर जी ने किया। यहाँ पर मुक्त छंद की कविता का सृजन मुनीश्वर लाल चिंतामणि के द्वारा शुरू किया गया। ‘शान्ति निकेतन की ओर' कविता 1961 में इनकी प्रमुख रचना है। प्रमुख कवियों में गिरिजादत्त रंग, रविशंकर कौलेसर, पूजानंद नेमा, हरिनारायण सीता, सूर्यदेव सिवरत का नाम महत्वपूर्ण है। यहाँ पर अनेक हिन्दी उपन्यासों का प्रकाशन हो चुका है। हीरालाल रचित ‘सगाई', कृष्ण बिहारी रचित ‘पहला कदम', एवं विष्णुदत्त मधुचंद रचित ‘फट गयी धरती' महत्वपूर्ण औपन्यासिक कृतियां हैं। यहाँ के सबसे महान उपन्यासकार अभिमन्यु अनंत हैं आपकी ग्यारह से अधिक कृतियां अकेले भारत में ही प्रकाशित हो चुकी हैं। इनका सबसे प्रमुख उपन्यास ‘लाल पसीना' है। पत्रों के माध्यम से यहाँ की साहित्य परम्परा में पर्याप्त वृद्धि हुई है। ‘बसंत' तथा ‘अनुराग' पत्रों में कहानी के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया है। कहानियों का प्रमुख संग्रह ‘नए अंकुर' प्रमुख हैं। नाटकों में ‘जीवन संगिनी' 1941 का जयनारायण राय द्वारा रचित माना जाता है। एकांकियों में 1951 में ब्रजेन्द्र भगत के ‘आदर्श बेटी' का प्रकाशन किया गया। निबंधों का प्रकाशन भी मॉरीशस में होता है और इनका प्रमुख विषय धार्मिक होता है। यहाँ से प्रकाशित होने वाली प्रमुख पत्रिकाओं के नाम जनता, आर्योदय, बसंत भारती मासिक महात्मा गाँधी संस्थान से निकलती है।
जब हम वर्मा की बात करते हैं तो हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार में इसका विशेष महत्व है। यहाँ के प्रत्येक जिले में हिन्दी के पठन-पाठन की समुचित व्यवस्था की गयी है। यहाँ बसे प्रमुख प्रवासियों में गुजराती, सिक्ख एवं मारवाड़ी हैं ये आपसी व्यवहार में हिन्दी का प्रयोग करते हैं। वर्मा में हिन्दी के प्रचार-प्रसार में जिन लोगों ने प्रमुख योगदान दिया है वह हैं-पण्डित हरिदत्त शर्मा, सत्यनारायण गोयनका एवं डॉ. ओमप्रकाश इत्यादि वर्तमान में यहाँ नवोदित लेखकों ने भी हिन्दी के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। वर्तमान में जर्मनी (पूर्वी तथा पश्चिमी) कार्लमार्क्स विश्वविद्यालय, लाइपजिंग तथा मार्टिन लूथर किंग विश्वविद्यालय में हिन्दी शिक्षा की व्यवस्था है। यूगोस्लॉविया आदि देशों में भी हिन्दी माध्यम से शिक्षा दी जा रही है। आस्ट्रेलिया महाद्वीप में हिन्दी का प्रचार-प्रसार तेजी से बढ़ रहा है। विदेशों में प्रकाशित होने वाली हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में ‘चीन सचित्र' सर्वाधिक बिक्री वाली पत्रिका है। नार्वे में प्रकाशित हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में ‘शांतिदूत' ही सर्वाधिक नियमित एवं उल्लेखनीय पत्रिका है। श्रीलंका में भी हिन्दी की लोकप्रियता दिनोदिन बढ़ रही है। श्रीलंका में सब लोग हिन्दी भाषा बहुत ही पसंद करते हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि हिन्दी के संगीत जैसा अन्य कोई मधुर और कर्णप्रिय संगीत दुनिया भर में कहीं नहीं है।
इस तरह विश्व परिदृश्य में हिन्दी के प्रचार-प्रसार को देखते हुए ऐसा लगता है कि अब वह समय दूर नहीं जब इसे संयुक्त राष्ट्रसंघ की भाषा न बनाया जा सके। क्योंकि हिन्दी भाषा आज-साहित्य लेखन, वाचन तथा गायन आदि के रिवाज से हटकर अब दैनंदिन जीवन से लेकर विज्ञान-प्रौद्योगिकी तथा व्यापार-प्रबन्धन आदि प्रत्येक क्षेत्र में यह अपनी उपस्थिति दर्शा चुकी है। ‘भाषा के इस नव्यतम रूप का युगानुकूल परिवर्तन एवं नवसृजन अत्यन्त तीव्र गति से हो रहा है क्योंकि विश्वस्तर पर बढ़ रहे आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक अन्तः सम्बन्धों के कारण वैचारिक स्तर पर एक वैश्विक चेतना का प्रादुर्भाव हो रहा है जिससे समूचे विश्व में हिन्दी भाषा को एक नयी दृष्टि मिल रही है और अन्तर्राष्ट्रीय विचार धाराओं का परिप्रेक्ष्य वर्तमान हिन्दी साहित्य में पूर्णतः परिलक्षित हो रहा है। छह महाद्वीपों के सात सागरों से टकराता हुआ भारत, भारती को विश्व भारती के पद पर आसीन करेगा। हमें उस दिन का अब बहुत इन्तजार नहीं करना पड़ेगा जब आचार्य विनोबा जी का वह संकल्प सार्थक होगा जिसे उन्होंने इस वाक्य के द्वारा अभिव्यक्त किया था- ‘हिन्दी को गंगा नहीं, समुद्र बनाना होगा।
सम्पर्क ः वरिष्ठ प्रवक्ता ः हिन्दी विभाग दयानन्द वैदिक स्नातकोत्तर महाविद्यालय उरई-जालौन (उ0प्र0)-285001 भारत
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