लोक संस्कृति के आइने में लोक कहावतों की प्रांसगिकता एवं उपादेयता डॉ 0 वीरेन्द्र सिंह यादव कहावतों की परम्परा कितनी पुरान...
लोक संस्कृति के आइने में लोक कहावतों की प्रांसगिकता एवं उपादेयता
डॉ0 वीरेन्द्र सिंह यादव
कहावतों की परम्परा कितनी पुरानी है, यह निश्चयपूर्वक कह पाना कठिन है। हाँ इतना अवश्य कहा जा सकता हैं कि वैदिक युग में भी कहावतों का प्रचलन था, क्योंकि ऋग्वेद् में कहावतों के अनेक उदाहरण दैनिक जीवन में मिलते हैं।‘‘उपनिषदों में भी इनका बाहुल्य है। त्रिपिटक तथा जातक कथाओं में भी कहावतों का प्रयोग प्रचुरमात्रा में प्राप्त होता है। संस्कृत साहित्य में लोकोक्तियों का अत्यधिक सुन्दर निरूपण हुआ है। संस्कृत में लोकोक्ति को सुभाषित या सूक्ति कहा गया है। सुन्दर रीति से कहा गया कथन ही सुभाषित है-सुष्ठुभाषितं सुभाषितम्। इस प्रकार लोकोक्ति वह सुन्दर रीति से कहा गया कथन है जो लोकव्यापी प्रभाव से पूर्ण हो।'' परन्तु प्रश्न उठता है कि आखिर कहावत या लोकोक्ति होती क्या है? बूढ़े-बडेे, अनुभवशील विद्धानों एवं नीतिज्ञों द्वारा देखे सुने ज्ञान के आधार पर सोच-समझकर कही हुई नपी-तुली स्पष्ट और खरी बात जो सबको अच्छी लगे इसके साथ ही चमत्कार पूर्ण भी कहावत या लोकोक्ति कहलाती है। लोकोक्ति, सूक्ति, और सुभाषित सब इसी के पर्याय हैं। डॉ0 वासुदेव शरण अग्रवाल ने इन्हें व्यावहारिक जीवन की गुत्थियाँ सुलझाने में सहायक मानवी ज्ञान के चोखे और चुभते हुए सूत्र कहा है।
‘‘सुभायि तेन, गीतेन, युवतीनां च लीलया। मनो न रमते यस्य, स योगी अथवा पशुः॥''
सुन्दर रीति से कही गई उक्ति को ही सूक्ति कहते हैं। इसी उक्ति को यदि लोक अर्थात् साधारण मनुष्य प्रयोग में लाने लगते हैं तब उसका नाम लोकोक्ति पड़ जाता है।‘‘ जार्जिया देश की लोकोक्तियों पर विचार करते हुए एक विद्वान ने कहा है कि लोकोक्तियाँ वे संक्षिप्त सुभाषित हैं जिनमें नैतिक विचारों तथा लौकिक ज्ञान का ही जो जनता के चिरकालीन निरीक्षण तथा अनुभव से प्राप्त होता है वर्णन नहीं है, बल्कि इसके अतिरिक्त वे संस्कृति के तत्व, पौराणिक कथाओं के स्वरूप तथा ऐतिहासिक घटनाओं पर भी प्रकाश डालती हैं।''
लोकोक्तियों/कहावतों में सामान्य जन जीवन का अनुभव सिद्ध ज्ञान इसके द्वारा किसी कथन में तीव्रता और प्रभाव उत्पन्न का वृहद खजाना छुपा हुआ होता है। इन्हें मानवी बुद्धि रूपी ज्ञान का सूत्र कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। जिन तथ्यों सत्यों का साक्षात्कार मानव अपने परिवेश से ग्रहण करता है उनका संक्षेपण हम लोकोक्तियों/कहावतों के द्वारा अर्जित करते हैं,‘‘चिरसंचित अनुभव ज्ञान-राशि का सूत्रबद्ध संक्षिप्त प्रकाशन लोकोक्तियों में प्राप्त होता है। लोकोक्तियों के लघु आकार में भी गागर में सागर के समान नीति, शिक्षा, अध्यात्म, राष्ट्र सभी समाज एवं जाति के व्यापक नियम, सिद्धांत एवं आचार-विचारों का समावेश रहता है। लोकोक्ति की एक छोटी सी सीमा में विशाल राष्ट्र का स्वरूप प्रतिबिम्बित हो सकता है।''
लोकोक्तियों या कहावतों के द्वारा गागर में सागर भरने का प्रयास किया जाता है समास श्ौली में कही गई लोकोक्ति आकार में छोटी होने के बावजूद अपने अन्दर एक विशाल-भाव राशि को समेटे हुए होती है। लोकेक्तियों की दूसरी विश्ोषता उसकी अनुभूति और निरीक्षण की होती है क्योंकि लोकोक्तियों में मानव जीवन के युग-युग की अनुभूतियों का परिणाम और निरीक्षण शक्ति अन्तर्निहित होती है। ‘‘भाव सम्प्रेषण और अर्थ बोध का तीव्र माध्यम होने के कारण लोकोक्तियों का प्रयोग कभी-कभी व्यग्ंय रूप में सामने वाले व्यक्ति को चोट पहुँचाने के लिए भी किया जाता है। सरल, बोधगम्यता और कुटिल वाक् प्रहार के रूप में कभी-कभी लोकोक्तियां दुधारी तलवार का काम करती हैं। अर्थ और प्रभाव की व्यापकता के कारण लोकोक्तियों में कभी-कभी एक ही वस्तु या बात दो भिन्न प्रंसगों में रूप से उपयोगी और प्रभावी हो जाती है।'' स्पष्ट है कि लोकोक्तियों के द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी उसकी जीवतंता के साथ-साथ हमारे लोक जीवन की समर्थ संस्कृति की विराट झांकी भी देखने को मिलती है।
मोटे तौर पर लोकोक्तियों या कहावतों को वर्गीकरण की दृष्टि से निम्न प्रकार से विभाजित किया जा सकता है। प्रकृति या कृषि सबम्धी लोकोक्तियाँ, नीति एवं उपदेशात्मक लोकोक्तियां, भाग्य सबम्धी लोकोक्तियाँ, शकुन-अपशकुन सम्बधी लोकोक्तियांॅ, सामाजिक व्यवहार सम्बधी लोकोक्तियां, स्थान सम्बधी लोकोक्तियाँ, इतिहास सम्बधी लोकोक्तियाँ, पशु-पक्षी सम्बधी लोकोक्तियॉ एवं जाति सम्बधी लोकोक्तियों/कहावतों में लोकसाहित्य की तरह लोकमानस जुड़ा रहता है। वास्तव में देखा जाए तो किसी प्रदेश की सभ्यता, संस्कृति एवं साहित्य की उचित समझ के लिए वहाँ की कहावतों /लोकोक्तियों से जनमानस की हलचल का पता लगाया जा सकता है।
भारत एक कृषि प्रधान देश है अतः यहाँ प्रकृति ही कृषि व्यवस्था का अधिकतर स्थानों का आधार हुआ करती है। यहाँ के लोक जीवन में प्रकृति में होने वाली हलचलों को कहावतों के द्वारा लोग जान लेते थे। जो आज के वैज्ञानिक युग में तर्क एवं विश्लेषण की कसौटी पर खरी उतरतीं हैं। किस समय किस दिशा से वायु चलने पर उसका क्या प्रभाव पडे़गा, ‘आभा राता, मेह माता'- आकाश (अभ्र) रक्त वर्णी हुआ तो बरखा की सम्भावना है और आभा पीला, मेह सीला अर्थात् आसमान पीत वर्णी हुआ, तो समझो बरखा आ गयी ।इन ‘‘बादलों के रंगो को देखकर अर्थात् सूर्य की रश्मियों और वायुमण्डल से प्रभावी निसर्ग के विभिन्न उपकरणों तथा ऋतु परिवर्तनों के साथ रंग और रंगतों के लक्षणों के अनुसार भारतीय कृषक वृष्टि और अनावृष्टि की सम्भावनाएं सदा से व्यक्त करता आ रहा है।''...... रंगों के आधार पर वर्षा-सूखे का अनुमान वर्षों के अनुभूत सत्यों का सार है। निरन्तर (सतत) अवलोकन और परिणामों के स्वरूपों ने किसी निर्णयों को कहावतों के रूप में बांधा है। ऋतु, पवन, वर्षा आदि के अतिरिक्त महीनों के लक्षण एवं उनके अच्छे -बुरे फलों का उल्लेख कहावतों में मिलता है-‘‘अगहन दूना पूस सवाई, माघ मास घरहू से जाई।'' अर्थात् अगहन में वर्षा होने पर दुगना अन्न उत्पन्न होता है, पूस में वर्षा होने से सवा गुना और माघ में वर्षा होने से घर की पूँजी भी समाप्त हो जाती है। इसी तरह से प्रकृति परिवर्तन पर कुछ कहावतें प्रचलित हैं जैसे-‘‘पवन चले उत्तरा, अनाज खाए न कुत्तरा।'' इसका आशय यह है कि उत्तर की ओर से यदि हवा चलती है तो अनाज इतना अधिक पैदा होगा कि कुत्ते भी नहीं खायेगें।भारतीय जनमानस में कृषि जीवन से सम्बधिंत अनेक ऐसी कहावतें हैं जो वैज्ञानिक सत्यों एवं तथ्यों पर आज भी खरी उतरती हैं -
असाढ़ में खाद खेत में जावै ,तब भरि मूठि दाना पावै॥
अर्थात् खाद को असाढ़ के महीने में डालने से फसलों में अच्छी पैदावार होती है। ऋतुओं के अनुसार हरियाणा में सावन और फागुन महीने में व्यक्ति उल्लास एवं मस्ती में होता है। एक कहावत के द्वारा इसे समझा जा सकता है - ‘‘कच्ची अमली कदराई सामण म्हैं। बुड्ढी लुगाई मस्ताई फागण म्हैं।'' सावन के महीने में इतनी वर्षा होती है कि चारों ओर हरियाली ही हरियाली दिखाई देती है। कुछ महत्वपूर्ण त्योवहार भी इसी महीने सुखद होते हैं। हर दृष्टि से यह महीने सुखद होते हैं। लेकिन एक ही वर्ष में दो सावन यदि आ जाये ंतो इससे अनिष्ट की आशंका बढ़ जाती है क्योंकि इससे भयंकर अकाल की सम्भावना बढ जाती है -
दो सावण, दो भादवे, दो कात्तक दो म्या , ढ़ाडे ढ़ोरे बेच के , नाज बिसावण जा।
स्पष्ट है कि इन कहावतों का समुचित रीति से अध्ययन किया जाए तो प्रकृति एवं कृषि का मिला-जुला ज्ञान वर्षा विज्ञान के क्षेत्र में अति महत्वपूर्ण हो सकता है।
प्राचीन काल से भारत में नीतिपरक एवं उपदेशात्मक कहावतों का बाहुल्य रहा है। इनमें जीवन को सफल तथा सद्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देखने को मिलती हैं। घाघ तथा भड्डरी ने जीवन के हर क्षेत्र की लोकोक्तियां कही हैं परन्तु इनकी नीति सम्बधी कहावतें अधिक प्रसिद्ध हैं। जैसे-
ओछो मन्त्री राजै नासै, ताल बिना सै काई। सुक्ख साहिबी फूट बिनासै , घग्घा पैर बिवाई॥
इसी तरह की नीतिपरक एक अन्य लोक कहावत है -‘‘प्रीत न जानइ जात कुजात। नींद न जानइ टूटी खाट। भूख न जानइ बासी भात। पियास न जानइ धोबी घाट॥'' कहीं-कहीं घाघ की उक्ति जनमानस के जीवन के जीवंत यथार्थ को प्रतिबिम्बित करती हैं - ‘लरिका ठाकुर बूढ़ दिवान। ममिला विगरै सांझ विहान।'भोजन सम्बधी नीति विषय पर कहावतों का अपना अलग ही महत्व है-
क्वार करैला,चैत गुड़,सावन साग न खाय।कौड़ी खरचे गॉठ की,रोग बिहासन जाय।
कुछ कहावतों के द्वारा जीवन में स्वस्थ्य रहने के नुख्से भी बताये गये हैं-
मोटी भुखारी जो करै, दूध बियारी खाय। बासी पानी जो पियै, तेहि घर वैद न जाय॥
अपने जीवन के प्रति सतर्क उन लोगों से रहना चाहिए जो मीठी बोली बोलकर हमारा अनिष्ट कर देते हैं,इस तथ्य को इन प्रमुख उक्तियों के द्वारा समझा जा सकता है -
सुण-सुण मीठी बोलगत, बैठ न वैरी पास। दही भुलावै बावले, खाज्या कदै कपास॥
इसी तरह से एक लोकोक्ति में कहा गया है कि- साधु का विनाश दासी (स्त्री) के कारण, चोर का विनाश खांसी के कारण, प्रेम का विनाश हंसी (अपमान) के कारण तथा बुद्धि का विनाश स्वस्थकर भोजन न मिलने के कारण हो जाता है -
सघुवै दासी , चोखै खॉसी , प्रीति विनासै हॉसी। घग्धा उनकी बुद्धि विनासै , खॉय जो रोटी बासी॥
साधु का रूप धारण कर, खड़ा चंदन (तिलक) लगाकर मीठी-मीठी बातें करने वाला व्यक्ति धोखेबाज (दगाबाज) होते हैं। इनसे हमेशा सतर्क रहना चाहिए - खड़वा चंदन मधुरी बानी। दगाबाज कइ इहै निसानी।
जीवन के यथार्थ सत्यों का वर्णन निम्न उक्ति के द्वारा समझा जा सकता है -
मूरख मूढ़ गॅवार नै , सीख न दीज्यो कोय। कुत्तै बरगी पूॅछड़ी , कदै न सीधी होय॥
नीति सम्बधी इन विभिन्न विषयों से सम्बधित उक्तियों में लोक जीवन को नीरोग रखने, तथा जीवन को सफल एवं सुखी बनाने का अक्षय ज्ञान रूपी भण्डार छिपा हुआ है। भारत में परम्परागत से चली आ रही रीति रिवाज एवं अन्धविश्वास के कारण भाग्य सम्बधी लोकोक्तियां आज भी लोक मानस में अपना विशिष्ट स्थान लिए हुए हैं-
माता-पिता हों जन्म देण के, ना ग्यान गुरू बिन आता। कर्म-रेख ना टाली टलती,जो लिख दे बेमाता॥
जीवन-मृत्यु, होनी-अनहोनी जीवन में चलने वाली शास्वत प्रक्रियाएं हैं इन्हें कोई रोक नहीं सकता है-
अणहोणी होती नहीं,होणीहोसो होय। मिरतु अर् जलम , घड़ी टाल सकै न कोय॥
भाग्य के अजर-अमर होने की प्रक्रिया को प्रस्तुत हरियाणवी लोकोक्ति के द्वारा समझाया गया है-
भाग बिना भोगे नहीं भली वस्तु का भोग। दाख पके ज्यब काग कै होत कंठ मैं रोग॥
सामाजिक व्यवहार में कुछ लोकोक्तियां आज भी मानव मन में शंका पैदा कर जीवन में एक विचित्र तरह का भय पैदा कर देती हैं। जो मन की अनुभूति की तरह मानव जीवन में छायी रहती हैं। बुरे कार्य और संगति का असर कहीं न कहीं दिखाई पड़ ही जाता है -
काजर की कोठरी में नेकहू सयानो जाय।एक लीक काजर की लागिहै, पै लागि है॥
अवधी में एक कहावत इससे मिलती जुलती और भी है - कोयला क दलाली में हाथ भवा करिया।
लोक मानस के हृदय में कुछ कहावतें ऐसी आज भी रची बसी हुईं हैं जो उन्हें आज भी भाग्यवाद से जोड़कर एक शगुन-अपशगुन की परम्परा के रूप में अपनाती चली आ रहीं हैं -
सास घर , जमाई कुत्ता , ब्राह्मण के घर भाई कुत्ता। सब कुत्यां का ओ , सरदार जो बाप रहै बेटी के बार।
छींकत न्हाइए , छींकत खाइए , छींक रहिए सो। छींकत पर-घर ना जाइए , चाहे सर्वस सोना हो॥
इसी तरह पशु पक्षियों की बोली भी भविष्य पर प्रकाश डालती हैं -
रात नै बोलै कागला , दिन में बोलै स्याल। तो न्यूँ भाखै भड्डरी , निहचै पड़िहै काल॥
सामाजिक व्यवहार की इन शगुन-अपशगुन कहावतों में कभी-कभी जीवन का गहन एवं गूढ़ रहस्य भी मिलता है जो सत्य के नजदीक जान पड़ता है-
छोटी मोटी कामनी सब हों विष की बेल,। बैरी मारे दाब तै ,ये मारैं हंस-खेल।
इसी तरह का साझै का व्यापार भी दुखदायी होता है -
कांटा बुरा करील का अरबदली का घाम। सौकण बुरी हो चून की और साझै का काम॥''
इसी से मिलती जुलती अवध क्षेत्र में एक कहावत प्रचलित है -
की त मारइ साझे का काम। की त मारइ भादौ का घाम ॥
कुछ परिस्थितियों को छोड़ दें तो आज भी इन पारम्परिक कहावतों में मानव प्रकृति एवं उसके व्यवहार का नग्न यथार्थ हमारे सामने दर्पण में तस्वीर की तरह स्पष्ट झलकने लगता है।
चोर , जुआरी गंठकटा, जार अर नार छिनार। सौ-सौ सौगन्ध खाएं तो भी भूल न कर इतबार॥
सामाजिक व्यवहार में प्रचलित इस कहावत का प्रयोग भी लोग अक्सर करते हैं -सौ में सूर, हजार में काना, सवा लाख में ऐंचा ताना। ऐंचा ताना कहे पुकार, कुर्रा से रहियो होशियार॥ सामान्य जीवन में भारत के जनमानस में ऐसी अनेक लोकोक्तियों का प्रचलन होता है जो उस स्थान विश्ोष की विश्ोषताओं को रेखांकित करती हैं-क्योंकि लोकोक्तियों में मानव जीवन के युग-युग की संचित अनुभूतियों का परिणाम और निरीक्षण शक्ति अन्तर्निहित होती है। स्थान विश्ोष में काशी के प्रति (निवास) एक लोाकेक्ति प्रसिद्ध एवं विवादास्पद है -‘
‘रॉड़, सॉड़, सीढ़ी, सन्यासी;। इनसे बचै तो सेवै कासी।''
इसमें कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रस्तुत कहावत में बहुत कुछ स्थान विश्ोष में होने वाली गतिविधियों का सत्य छिपा हुआ है। इसी तरह दिल्ली एवं मथुरा में कहावत है कि
‘‘जिसनै देख्यी ना दिल्ली वो कुत्ता न बिल्ली।''
कलकत्ता शहर के बारे में बड़ी ही रोचक कहावत है कि -
‘‘घोड़ा गाड़ी , नोना पानी, और रॉड़ के धक्का। ए तीनू से बचल रहे, तब केलि करे कलकत्ता।''
दिल्ली एवं मथुरा के बारे में एक कहावत प्रसिद्ध है -‘‘दिल्ली की लड़की मथुरा की गाय। करम जो फूटे बाहर जाय।'' स्थान विश्ोष में बिहार के तिरहुत प्रदेश की विश्ोषताओं को प्रकट करने वाली लोकोक्ति अति महत्वपूर्ण है -
कोकटी धोती पटुआ साग , तिरहुत गीत बड़े अनुराग । भाव भरल तन तरूणी रूप , एतवै तिरहुत होइछ अनूप॥
इसी तरह से हरियाणा प्रदेश की पहचान इस मुख्य कहावत में देखने को मिलती है -
देस्सां म्हें देस हरियाणा , जडै़ दूध दही का खाणा।
इतिहास सम्बधी कहावतों में यद्यपि तिथियों का निर्धारण नहीं रहता है परन्तु ये उस स्थान विश्ोष की ऐतिहासिकता को उजागर अवश्य करने में सक्षम होती हैं जैसे -अंग्रेजी राज तन को कपड़ा, पेट को न नाज इसी तरह से अन्य कुछ कहावतें बिट्रिश सरकार की कच्चे चिट्ठे की पोल खोलती हैं जैसे -
‘‘धोती आला कमावै , टोपी आला खावै ''
अर्थात् धोती धारी हिन्दुस्तानी कमाते हैं और टोपधारी अंग्रेज लूट-लूट कर खाते हैं। मुस्लिम शासकों के समय की एक कहावत बहुत प्रसिद्ध है कि -
पढ़ै फारसी बेचै तेल, देखो ये कुदरत का खेल।
तत्कालीन समय में फारसी भाषा के पतन के इतिहास को स्पष्ट रूप से उजागर करती है - इतिहास में कई ऐसे दौर आये हैं जब हमने भुखमरी एवं अकाल का सामना किया है। ऐसी स्थिति में समाज की हकीकत को इस लोकाक्ति के द्वारा समझा जा सकता है -
एक रोटी को बैल विक्या ,अर पिस्सा बिक गया ऊँट। चौंतीसा ने खो दिया गाय-भैंस का बूँट॥
चौंतीसा ने चौंतीस मारे , जीये बैस कसाई। ओह मारै डाण्डी अर उसनै छुरी चलाई॥
पशु-पक्षियों से सम्बधिंत कहावतें भी जन सामान्य में अत्यधिक लोकप्रिय हैं। इनमें पशु - पक्षियों के स्वभाव, गुण, दोष तथा उनमें आन्तरिक एवं वाह्य व्यापार का विविध उल्लेख देखने को मिलता है। अच्छी कृषि के लिए लोकमानस में बैलों के प्रति श्रद्धा अधिक देखने को मिलती है क्योंकि अतीत काल से किसानों के लिए कृषि-कर्म का प्रधान अंग बैल रहा है। अच्छे बैल के बिना किसान का कोई कार्य सम्पन्न नहीं हो सकता है। एक लोकोक्ति में उत्तम बैल के गुणों एवं लक्षणों को इस प्रकार दर्शाया गया है -
सींग मुड़े , माथा उठा , मुंह होवे गोल। रोम नरम , चंचल करन; तेज बैल अनमोल॥
कृषि कार्य में बैल का कितना महत्व है इसका पता उक्त कहावत से लगाया भी जा सकता है -
‘‘बिन बैलन खेती करै , बिन भैयन के रार। बिन मेहरारू घर करै , चौदह साख लबार॥''
कृषि कार्य में बैलों के अलावा और भी पशु-पक्षियों से काम लिया जाता है। इन पशु-पक्षियों की अनेक कहावतें प्रसिद्ध हैं -
भेड़ के जाणैं विनोल्याँ की सार? मिरग, बांदर, तीतर,ये च्याएँ खेती के चोर।
इसी तरह बुरे बैल के लक्षण इस कहावत में स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है-
उजर बरौनी मुँह का महुआ; ताहि देखि हर वहबा रोवा॥
इसी तरह से हरियाणा में गधे पर एक कहावत प्रसिद्ध है -
गधे खाया खेत पाप न पुन्न। गधा कुरड़िया-ए एजै।
भारत एक कृषि प्रधान देश होने के साथ-साथ एक जाति प्रधान देश भी है। विभिन्न जातियों में विभाजित इस वर्ग के विभिन्न लोगों के स्वभाव, आचार, व्यवहार और रीति-नीतियों एवं ढकोंसलों का वर्णन इन लोकोक्तियों में देखने को मिलता है। आज-कल के अनेक साधु -महात्मा जो अपने को बाह्मण कहते हैं, रामानुजी टीका लगाते फिरते हैं और मधुरवाणी बोलकर भक्तों को फंसाते हैं। इस सम्बंध में कही गई उक्ति कितनी सार्थक एवं सटीक हैं -
तीन फंकिया टीका, मधुरी बानी। दगाबाज के इहे निसानी॥
इसी तरह से बाह्मणों के बारे में एक कहावत है-तीन कनौजिया तेरह चूल्हा अर्थात इसका अर्थ यह है कि कान्य कुब्ज ब्राह्मण अपने को श्रेष्ठ समझते हैं जैसा कि कान्य कुब्जाः द्विजाः श्रेष्ठाः ये श्रेष्ठता का दावा करने वाले ब्राह्मण अपनी ही जाति वालों से अधिक मेल-जोल रखना पंसद नहीं करते हैं अर्थात् आपस में ही अन्न -जल का रिश्ता नहीं रखते हैं। वे आपस में इतना भेदभाव रखते हैं कि यदि तीन भी कनौजिया होगा तो भोजन पकाने के लिए उन्हें तेरह चूल्हों की आवश्यकता पड़ती है। एक दूसरी कहावत है कि चार कवर भीतर, तब देवता पीतर, इस लोकोक्ति का अर्थ है कि भोजन के पश्चात ही देव पूजा की चिन्ता करनी चाहिए। इसी तरह जाति सूचक अनेक कहावतों में ब्राह्मण और नाई वाली कहावत अति प्रसिद्ध है।कहते हैं कि ब्राह्मण,कुत्ता और नाई किस प्रकार अपनी जाति वालों को देखकर स्पर्धा, क्रुद्ध एवं जलते हैं -
वांभन, कुकुर, नाऊ। आपन जाति देखि गुर्राऊ।
इसी तरह से इससे मिलती-जुलती एक हरियाणवी कहावत है-
वामण, कुत्ता हाथी, ये नहीं तीन जात्य के साथी।''
ब्राह्मण जाति पर एक कहावत यह भी प्रसिद्ध है - वारहा वामण बारह बाट ,बारह खाली एक्कै घाट।
ब्राह्मण पुरोहित किस प्रकार हवन करते समय यजमान के घी और अन्न को अग्नि में भस्मसात कर देता है इसका एक कहावत के द्वारा सटीक वर्णन किया गया है -
करवा कोहार के,धीव जजमान के। बाबा जी कहेले,स्वाहा स्वाहा॥
इसी तरह से- आनकर आटा, आनकर धीव। चाबस चाबस बाबा जीव।
यह कहावत ब्राह्मण की भोजन के प्रति लोलुपता को प्रदर्शित करती है। इसी तरह एक अन्य जाति सूचक कहावत बहुत प्रसिद्ध हैं -
बीर, वाणिया, पुलिस, डलेवर नहीं, किसी के यारी। भीतरले मैं कपट राखल, मीठी बोली प्यारी।''
इसी तरह से- ‘आमी नींबू बानिया। चापे तें रस देय।
अर्थात् आम, नींबू और बनिया इन तीनों को दबाने या कष्ट देने से ही ये रस देते हैं। इसी तरह इसी तरह एक अन्य कहावत भी प्रसिद्ध है-‘बावन बुद्धि बाणिया, तरेपन बुद्धि सुनार।
क्षत्रिय और कायस्थों के विषय में भी इसी प्रकार की अनेक कहावतें प्रसिद्ध हैं -
कायस्त मीत ना कीजिए, सुणकंथा नादान। राजी हो तो धनहड़ैं, बैरी हो तो ज्याान॥
हरियाणा में सर्वाधिक संख्या जाटों की है अतः उनके बारे में अधिक कहावतें प्रसिद्ध हैं -
पीताम्बर ओच्छा भला, साबत भला न टाट। और जात्य शत्रु भली, मित्र भला न जाट।
इसी तरह से अहीर (यादव) शूद्रों तथा अन्य तथाकथित नीच जातियों के सम्बंध में यह प्रायः कहा जाता है कि ऊँच जाति (ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि) बात करने से परन्तु नीच जातियां दण्ड देने से ही ठीक रास्ते पर रहती हैं-
ऊॅच जाति बति अवले। नीच जाति लति अवले॥
तुलसी बाबा ने इसी तथ्य को दोहराया है -
शूद्र गंवार, ढोल, पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी।
इसी तरह गूजरों के बारे में यह कहावत अति प्रसिद्ध है-गूजर तै ऊजड़ भला, ऊजड़ तै भली उजाड़।
अहीरों के बारे में हरियाणा में यह लोकोक्ति बड़ी चर्चित है-
हीर बे पीर खावे राबडी बतावै खीर। हीर का के जजमान अर लापसी का के पकवान।
लोक जीवन में चर्चित इन लोकोक्तियों को लोक मनीषियों ने दीर्घकालीन अनुभवों के आधार पर संक्षिप्त सूत्र में आबद्ध किया है; सरलता, अनुभव सिद्ध ज्ञान के कारण इन लोकोक्तियों में प्रत्यक्ष घटना, दृश्य अथवा कार्य व्यापारों के आधार पर जनमानस को सफल, सम्पन्न एवं सुखी बनाने तथा व्यवहारिक तौर पर यह अपने अर्थ व्यवहार में जनतानस के लिए उपयोगी होती हैं, अर्थात् भारतीय लोक संस्कृति की विराट झांकी का श्रेय इन्हीं लोक, कहावतों को दिया जा सकता है। भूमण्डलीकरण के दौर में जहाँ एक ओर बाजार और पैसा महत्वपूर्ण हो गया है ऐसे में हमारे मूल्य, संस्कार एवं संस्कृति को अक्षुण्य बनाये रखने के लिए इन लोकोक्तियों/कहावतों की प्रांसगिकता एवं उपादेयता और बढ़ जाती है।
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रचनाकार परिचय:
युवा साहित्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त डाँ वीरेन्द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। आपके दो सौ पचास से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की स्तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनेक पुस्तकों की रचना कर चुके डाँ वीरेन्द्र ने विश्व की ज्वलंत समस्या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्तुत किया है। राष्ट्रभाषा महासंघ मुम्बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्व0 श्री हरि ठाकुर स्मृति पुरस्कार, बाबा साहब डाँ0 भीमराव अम्बेडकर फेलोशिप सम्मान 2006, साहित्य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्मान 2008 सहित अनेक सम्मानो से उन्हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आार्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।
सम्पर्क-
वरिष्ठ प्रवक्ता, हिन्दी विभाग डी0 वी0 (पी0जी0) कालेज, उरई (जालौन) उ0 प्र0 -285001
घाघ कवि की कहावतों का संग्रह और शोध काफी सराहनीय है। घाघ की कहावतें औ भी पढ़ने को मिलेंगी..ऐसी उम्मीद है-
जवाब देंहटाएंMahendra Yadav