पान झाझरा में अब तो ऐसे बहुत कम लोग होंगे जिन्हें यह पता हो कि वहां के प्राइमरी स्कूल की गली के किनारे कभी अजुध्या लाला की दुकान हुआ...
पान
झाझरा में अब तो ऐसे बहुत कम लोग होंगे जिन्हें यह पता हो कि वहां के प्राइमरी स्कूल की गली के किनारे कभी अजुध्या लाला की दुकान हुआ करती थी। वैसे तो यह उसके एक कमरे वाले मकान का बरामदा था जिसे दुकान भी कहा जा सकता था। बरामदे की गली वाले किनारे पर भटृटी चिनवा दी गयी थी जिस पर हर समय एक केतली पर पानी खौलता रहता था। इसी भटृटी पर हर रोज सुबह वह कुछ पकौड़ियां भी तल लेता था जिन्हें दिन भर ताजा कह कह कर चाय के साथ खिलाता रहता था। उसकी दुकान मे कनस्तरियों मे नमकीन,रस,बिस्कुट और लडृडू रख्ो होते थ्ो। वहीं गदृदी की बगल मे एक ओर पान लगाने का सामान भी होता था। गरज यह कि उस अकेले प्राणी की गुजर-बसर लायक यह एक अच्छी खासी दुकान थी।
बरामदे के बाहर लोगों के बैठने के लिये जमीन मे गडे़ दो खूंटों के उपर किसी अच्छी डाट का किनारे वाला तख्ता जड़ दिया गया था जिसकी चौडा़इर् नौ-दस इंच से कम नहीं होगी। एक लोहे की कुर्सी भी थी जो किसी अच्छे बाबूजी टाइप ग्राहक को बैठाने के लिये खाली करा ली जाती थी।
अजुध्या लाला के ग्राहक होते थ्ो कुछ राह चलते राहगीर, इंटरवल मे प्राइमरी स्कूल के मास्टर और बच्चे, जंगलात रेंज के कारिंदे या फिर झाझरा तक आने जाने वाले आस पास के गांव के कुछ मर्द जो घण्टों बैठ कर अखबार पढ़ते, गपशप करते या कभी प्रसंग आ गया तो परसन लडा़ते। एक-दो ही हों तो दबी जबान मे सटृटे की भी बातें कर लेते। कभी-कभी चाय के साथ पकौड़ी भी खा लेते। परन्तु ज्यादातर ग्राहक चलते समय पान जरूर खाते थ्ो और अजुध्या लाला भी ऐसा कि चाहे किसी के पास पैसे हों या न हों, पान जरूर खिलाता। 'अरे लाला पैसे नहीं हैं'-'तो कौन से भागे जा रहे हैं,अगली बार आ जायेंगे' कह कर लाला अपने ग्राहकों को घ्ोरे रखता। ग्राहक भी दो नये पैसे के पान से अपना मुंह लाल करने मे परहेज न करते ताकि अपने गांव वापस जाते समय साइन बोर्ड से ही पता चल जाय कि झाझरा से आ रहे हैं।
झाझरा का प्राइमरी स्कूल आस पास के पांच-छः प्राइमरी स्कूलों का सैंटर था। स्कूलों की सारी सूचनाएं पहले केन्द्र मे ही एकत्र होती और फिर कार्यालय को भ्ोजी जाती अथवा कार्यालय से आने वाली सूचनाएं पहले केन्द्र मे आती और वहां से अलग अलग विद्यालयों को जातीं। केन्द्र के स्कूल के जिम्मे एक और मुख्य बात होती थी और बह थी पांचवी कक्षा की हर वर्ष होने वाली वार्षिक परीक्षा ।
अजुध्या जानता था कि बच्चे हर वर्ष अप्रैल मे इम्तहान देने आते हैं, इसलिये वह पहले से ही इम्तहान की तिथि पता करके इस इवसर के लिये विश्ोष तैयारी मे जुट जाता। अब उसकी दुकान मे बच्चों की बिक्री लायक सामान भी जमा होने लगते। इस मौके पर वह एक दो दिन के लिये एक लड़का भी रख लेता था जिसका काम रन्दे से बर्फ छील छील कर डण्डी पर गोले चिपका कर , उस पर बच्चों के मन चाहे मीठे रंग का छिड़काव करके बेचते रहना। शहर से दूर छोटे कस्बों और गावों मे तब बच्चों की यही एक मनपसन्द मांग थी और अजुध्या लाला इस बात को समझता था।
सन् उनसठ के अप्रैल मे बगल के गांव धूलकोट का पूरण भी एक दिन अपने लड़के को साइकिल पर बैठा कर पांचवीं का इम्तहान दिलाने झाझरा आया। जैसे ही स्कूल आया, साइकिल रुकी। सामने लाला गद्दी पर बैठा था। देखते ही दोनों मे राम राम हुयी।
अरे भई पूरण ! आज सबेरे सबेरे कहां
अरे लाला ! आज इम्तहान है न ! इस लड़के को लाया हूं इम्तहान दिलाने! फिर लड़के की ओर देख कर कहा - लाला को नमस्ते नहीं की लड़के ने झट से हाथ जोड़े और लाला को नमस्ते कर दी।
जीता रह बेट्टे ! बडी़ अच्छी बात है, पांचवीं तक पहुंचग्या !
न जाने अजुध्या लाला की दुकान मे बैठ बैठ कर लाला या वहां बैठने वाले लोगों से पूरण की क्या और कैसी बातें होती रही होंगी कि आज लाला को उसके लड़के को देखते ही कुछ बातें करना जरूरी सूझा और बोहनी तथा भीड़ का वक्त होते हुए भी लाला बतियाने लगा -
' बेट्टै इम्तहान देण्ो तो जरूर आया और पास भी हो जागा । पर मैं पास जब मानूं जब मेरे सवाल का जवाब दे देगा। '
लड़के के होश गायब। न जान न पहचान। बाप ने कही तो नमस्ते कर दी। फिर उसने लाला का ऐसा क्या बिगाड़ा था कि इम्तहान देने से पहले ही पास फेल की बातें करने लग गया। बेचारा बोलता भी तो क्या ! लगा अपने बाप की ओर ताकने।
' अरे लाला ! पहले अपना सवाल तो बता। ' कहां तो लड़का अपने बाप की ओर इस उम्मीद से देख रहा था कि इस लाला और उसके सवाल से वे ही उसे बचा सकते हैं और कहां लाला से उल्टा यह पंगा।
' देख बेट्टा ! सवाल यो है कि एक घर मे बीस आदमी हैं -मर्द, औरतें और बच्चे - सब मिलाके बीस। और उस घर मे बीस ही बण्ो हैं रोटियां। न एक ज्यादा और न एक कम। पूरी की पूरी बीस। और देख मर्द तो खायें दो रोटी, औरत खाए डेढ़ और बच्चा खाये आधी। अब सवाल यो है कि उस घर मे कितने तो मर्द हैं, कितनी औरतें और कितने बच्चे। बोल ! देगा मेरे सवाल का जवाब ! जो तो तूने सही जवाब दे दिया तो समझो तू पास, नहीं तो हीं....हीं....हीं- बस तू जाण्ो ही है, और हां - जो तूने सही जवाब बता दिया तो तुझे मेरी तरफ से एक पान मिलेगा ईनाम में - मुफत !'
लड़के की घिग्घी बंध गइर्। घबरा कर अपने बाप की ओर सवालिया निगाहों से देखा। बाप ने भी कह दिया -' दे दे लाला के सवाल का जवाब। ' लड़का हक्का-बक्का। 'अरे तू तो घबरा रहा है। अरे अभी खडे़ खड़े ही थोड़े देना है जवाब। तेरे पास सारा दिन पड़ा है जवाब देने को। सोच लेना- शाम तक कभी भी जवाब दे देना। और फिर लाला ने कहा तो है कि वो इनाम मे पान भी देगा।'
लड़का आया तो था इम्तहान देने। पांच-छः स्कूलों के और भी बच्चे आये थ्ो। नयी जगह - नये लोग। आते ही इतना बड़ा सवाल दाग दिया लाला ने। इनाम या पास फेल की तो छोड़ो, यदि लाला के सवाल का जवाब नहीं दे पाया तो आज झाझरा मे सरेआम बाप की किरकिरी हो जायेगी। बड़ा बनता है परसन लड़ाने वाला। जहां चार छः भले लोग देख्ो नहीं कि किसी न किसी बहाने परसन लगा दिया। उस जमाने मे लोग एक दूसरे की अक्ल को परखने के लिये ऐसा ही करते थ्ो। पर इस सब मे बेचारे दस साल के लड़के का क्या दोष ! वो तो इम्तहान से ज्यादा इस सोच मे डूब गया कि लगता है आज बाप की बेइज्जती का कारण वह बनेगा।
कुछ देर बाद इम्तहान शुरू हुए। एक पेपर खत्म होने के बाद दूसरा शुरू होने के बीच जो समय मिलता, सारे बच्चे अगले पेपर की तैयारी करते और लड़का रोटियां गिनने लग जाता। कभी रोटियां ज्यादा हो जाती तो कभी आदमी। कभी आदमी घट जाते तो कभी रोटियां। सिलसिला चलता रहा। एक के बाद एक पेपर भी होते रहे और जरा सा मौका मिला नहीं कि लाला का सवाल शुरू। कापी के नीचे रखा जाने वाला गत्ता सारा इसी गिनती मे रंग गया पर ऐसा भी एक क्षण आ ही गया कि रोटियां और आदमी पूरे हो गये।
बार बार परख कर देखा कि उत्तर मे कहीं कोई कमी तो नहीं और जब इत्मीनान हो गया कि नहीं सब सही है तो यह भी इत्मिनान हो गया कि जब लाला को पान खिलाना पड़ेगा तो बाप की छाती दोगुनी हो जाएगी। कम से कम उसके सामने तो अजुध्या लाला उसके पिता का मखौल नहीं उड़ा पाएगा। उत्तर पा जाने के संतोष ने अचानक लड़के को आदमी बना दिया। अरे आगे पीछे वे आपस मे चाहे जैसे बातें करलें पर आज - आज तो वो ही लाला की बोलती बन्द कर देगा और लाला से पान अलग से खाएगा - वो भी मुफ्त में।
सारा दिन पेपर चलते रहे। तब एक दिन मे ही सारे पेपर हो जाते थ्ो। एक अलग कमरे मे जांच कार्य भी साथ साथ चलता रहता था। सारे अध्यापक देर शाम तक रुक कर जांच कार्य निबटाते और रिजल्ट तैयार करते ताकि उसी दिन वहीं मौके पर रिजल्ट पर डिप्टी साहब के हस्ताक्षर हो जाएं। क्योंकि उनका अगले रोज किसी अन्य केन्द्र पर इम्तहान लेने का कार्यक्रम होता।
शाम को अन्तिम पेपर के बाद जब छुट्टी हुयी तो सब बच्चे एक साथ बाहर सड़क पर आ गये। एक बार फिर लाला की दुकान पर भीड़ जुट गयी। जिनकी जेब मे अब भी कुछ बचा था वे अब भी कुछ ले - खा रहे थ्ो तो कोई चुपचाप अपने घरों की ओर चल पड़े थ्ो।
पूरण भी साइकिल लेकर तैयार खड़ा हो गया कि कब लड़का आए और घर चलें। लड़का आया और यह पता चलने पर कि सारे पेपर ठीक ठाक हो गये हैं, कहा -' चल बैठ। ' लड़का भला क्यों बैठता ! उसे आश्चर्य हो रहा था कि सुबह इतनी बड़ी बात हो गयी और इन्हें जरा भी याद नहीं कि लाला ने क्या कह दिया था। उस पर दिन भर क्या क्या गुजरी और जब लाला को जवाब देकर पान खाने की बारी आयी तो कह दिया कि - ' चल बैठ !'
'क्यों ! क्या हुआ ! बैठता क्यों नहीं !' लड़के को लाला की ओर देखते हुए पाया तो कहा -' तुझे भी कुछ लेना है क्या ! जा तू भी ले ले अगर तेरा मन है तो !'
' कुछ नहीं। '
' तो फिर बैठता क्यों नहीं !'
' वो लाला को बताना है न। '
' और मै कह तो रहा हूं कि ले ले अगर कुछ लेना है !'
' नहीं ! - क्या लाला को वह सुबह वाले सवाल का जवाब नहीं बताना है!'
तो क्या तूने निकाल लिया है लाला के सवाल का जवाब ! तो जा - बतादे लाला को। '
लड़का जाकर लाला के सामने खड़ा हो गया। बहुत देर तक खड़ा रहा। आखिर अजुध्या ठहरा एक लाला। बिक्री का समय। कोई कुछ मांग रहा तो कोई कुछ। बड़ी देर मे लड़के की ओर ध्यान गया वो भी तब जब उधर से लड़के का बाप चिल्लाया, ' अरे लाला - ये लड़का भी कुछ कह रहा है - इसकी भी कुछ सुन ले। '
' बोल बेट्टा - तू क्या लेगा !'
लड़का चुप। चुप भी क्या - सारे अरमान फुस्स। इतना अपमान कि मानो धरती मे गड़ जाए। लाला तब तक दूसरे बच्चों के पैसे पकड़ कर सामान बेचने लग गया था। लड़का विचार कर रहा था कि लाला से कुछ कहे या वापस आकर साइकिल पर बैठे और घर जाए। लेकिन पान का मलाल उसे जाने न देता। पान - जो उसने मांगा नहीं था। और मांगना भी क्या - उसने तो सारा दिन न जाने कैसी हालत मे पड़ पड़ कर उस सवाल का उत्तर ढूंढा था। आखिर था तो वह केवल दस साल का ही। सवाल तो उसकी उमर लायक नहीं था। जो भी हो - उसने तो बड़ी मेहनत से पान कमाया था।
हिम्मत करके लाला से कह ही दिया -' वो जो आपने सबेरे मुझसे एक सवाल पूछा था !
' कौन सा सवाल ! भ्ौया देख ! मुझे देर हो रही है - जल्दी बोल !'
' वही बीस आदमी और बीस रोटियों वाला। '
' अच्छा ! - वो सवाल ! तो क्या तूने निकाल लिया उसका जवाब ! बता तो क्या है तेरा उत्तर !'
' दो मर्द, सात औरतें और ग्यारह बच्चे। '
' गलत ! यह तो सही जवाब नहीं है। '
' क्यों - सही क्यों नही है। गिन कर देख लो। पूरे बीस आदमी हैं। रोटियां भी पूरी बीस बैठती हैं। '
' बेटृटे ! सही जवाब है - चार आदमी, चार औरतें और बारह बच्चे।
' पर उत्तर मेरा भी तो ठीक है। '
' देख मेरा टैम खराब न कर। अपने बाप से पूछ ले न। उसे तो पता है। '
लड़के ने अपने बाप की ओर देखा तो जरूर परन्तु वहां से कोई समर्थन मिलता नजर नहीं आया। गर्दन झुकाकर भारी मन से चुपचाप साइकिल पर आकर बैठ गया और घर की ओर चल पड़ा। रास्ते मे उसने अपने पिता से पूछ ही लिया कि उसका उत्तर गलत कैसे हुआ। ठीक से हिसाब बिठाने पर पूरण की समझ मे आ गया कि लड़के का उत्तर भी सही है। वे लोग तो अब तक एक ही उत्तर जानते थ्ो और उसे ही सही मानते थ्ो। लड़के के मन मे अपना ईनाम न पा सकने को लेकर क्या चल रहा है, यह तो पूरण भी न जान सका। उस ईनाम मे पान के अतिरिक्त चार लोगों के सामने पिता का मान न बढ़ा सकने का एक दस वर्षीय बालक का अफसोस भला वह क्या समझता। लड़के ने तो असली इम्तहान के बजाय इस इम्तहान को तवज्जो दी थी और वह भी बाप की इज्जत की खातिर। पान तो उसे हर हाल मे मिलना ही चाहिये था।
अगले दिन अपने गांव के स्कूल मे रिजल्ट सुनने जाना ही था। रिजल्ट ने फिर पहले दिन का घाव हरा कर दिया। पहला स्थान पाने वाला एक नहीं बल्कि दो लड़के थ्ो। इस लड़के के साथ साथ बंशीवाले गांव का रामचन्दर भी पहले ही स्थान पर था। दोनों ने बराबर अंक पाये थ्ो।
लड़के को आजीवन इस बात ने कभी परेशान नहीं किया कि यदि उसका ध्यान न बंटाया गया होता तो वह अकेला ही पहला स्थान पा जाता, पर उसे पान नहीं मिला था , इस बात का मलाल उसे आज भी है।
झाझरा के प्राइमरी स्कूल की टीन की छत वाला वह भवन गिर चुका है। मैदान के उस पार एक कोने मे पक्का भवन बन गया है। अजुध्या लाला और उसकी छप्पर की एक कमरे और बरामदे वाली दुकान भी अब वहां नहीं है। अब तो कोई पुराना आदमी ही ठीक से यह बता पाएगा कि वह दुकान कहां थी। शायद यह बताने वाले भी मिल जांए कि हां अजुध्या की दुकान पर परसन भी लड़ाए जाते थ्ो पर यह कोई नहीं बता पाएगा कि हां - अजुध्या लाला ने दस साल के एक लड़के से भी परसन लड़ाया था और सीमित जानकारी के कारण उसका सही उत्तर भी नकार दिया गया था। ईनाम मे पान भी था - यह तो ख्ौर कौन बता सकता है, सिवाय उस लड़के के। परसन भले ही लड़ा ले, पर अजुध्या था तो एक लाला ही न।
आपके आस पास भी दस - बारह साल या उससे भी अधिक उम्र के बच्चे होंगे। जरा किसी से पूछ कर तोे देखना - मालूम हो जाएगा कि पान का मलाल वाजिब है या गैरवाजिब।
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संपर्क:
अर्जुन धुलकोटिया
गांव धुलकोट
पोस्ट आफिस सेलाकुई
देहरादून 248197
उत्तरांचल
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चित्र : काकोली सेन की कलाकृति
पुरस्कार का मोल न होता,
जवाब देंहटाएंपेन, पेंसिल हो या पान।
लाला की हठधर्मी से आहत है,
बालक का सम्मान।।
धूर्त, पिशाचों को उनकी,
करनी का फल देना होगा।
प्रश्न जहाँ हो स्वभिमान का,
छीन - झपट लेना होगा।।