अतीत में जीने से वर्तमान भूमिगत नहीं हो जाता। वैलेंटाइन-डे का तूफान उठा है और आप मदनोत्सव के बिसूर रहे हैं। फूलों के हिंडोलों पर फूलों के...
अतीत में जीने से वर्तमान भूमिगत नहीं हो जाता। वैलेंटाइन-डे का तूफान उठा है और आप मदनोत्सव के बिसूर रहे हैं। फूलों के हिंडोलों पर फूलों के बाण लिए बैठना चाहते हैं। रति-कामदेव की मूर्तियां पूजना चाहते हैं, तो आप इस सदी सानी वर्तमान सदी के लायक नहीं हैं। आप आधुनिक कहला सकते हैं बशर्तें आपको प्यार करना आता हो, वह भी बाज़ारवादी ताकतों के इशारे पर। इशारा समझें और प्रेमवचन पार्कर की ‘वीडे स्पेशल’ पेन से लिखें। दिल लें, दिल दें। सुंदर तोहफों का आदान-प्रदान करें। इज़हारे-मुहब्बत के लिए एक अच्छा दिन दिया जा रहा है। ठंडी ऋतु में गर्म त्यौहार है। संकोच कैसा ?
‘रूमान’ यानी उद्योग जगत की रीढ़ की हड्डी। इसके बिना कोई भी उत्पाद, बाज़ार को आकर्षित नहीं कर सकता। फिल्में, दूरदर्शन, इंटरनेट, या अख़बार, सभी हैं-इसके शिकार। एक अनार सौ बीमार की तर्ज पर सर्वप्रथम वी.डे यानी वैलेंटाइन-डे को बाजार ने लपका फिर ‘बुद्धिजीवी’ भारतीय संस्कृति पर आक्रमण कहकर हंसते-हंसते चिंता में चिरकुट हो गए और अब ‘राजनीतिज्ञों’ द्वारा दोहन की बारी है। चंद वर्षों से गर्माता हुआ वी.डे विगत वर्ष डर और आतंक के साये में सिमटा रहा। छोटे शहरों से महानगरों में आर्चीज के प्रेम में संदेशों की धज्जियां उड़ा दी गई। पुर्जा-पुर्जा प्रेम पातियां सड़क पर बिखरती रहीं। प्रेम दीवानों को पीटा गया। कई दिल जख़्मी हुए, पर एंटी पब्लिसिटी क्या पब्लिसिटी नहीं है क्या? अख़बारों के प्रथम पृष्ट के लिए एक उत्तेजनापूर्ण ख़बर का जुगाड़ हुआ। सहानुभूति लहर यहां भी चली पर दीवानों के हक में।
भारत में क्या प्रेम और मनोविकारों की निकासी के लिए नव वर्ष, होली, मारबत, गणेशोत्सव, ईद जैसे त्यौहार नहीं थे जो वी.डे को अपनाने की आवश्यकता आ पड़ी। तकलीफ प्रेम दिवस मनाने की नहीं है उसके तरीकों से है जो नई मार्किट फोर्स तैयार रही है। अपने मुनाफे के लिए। प्यार के लिए दिल नहीं , कीमती तोहफों का महत्व जताकर युवा मन पर काबिज हो रही है।
एक फूल के बूते हजार रेश्मी बातें कहने वाले, उसकी नजर में उपहार के पात्र हैं। यह ताकत धनाढ्य युवाओं को ललचाकर, औसत युवाओं को हीन ग्रन्थि परोस रही है। सड़कछाप मजनुंओं के लिए शह का इंतजाम करने वाली यह शक्ति भारतीय संस्कृति का ध्वंस चाहती है। राष्ट्र निर्माण की जिम्मेदारी जिन कन्धों पर है वे जवान राग-रंग में डूब जाएं यही तो मकसद है।
हमारे यहां ‘प्यार’ पूजा की वस्तु हैं, प्रदर्शन की नहीं । उसमें शुद्धता जरूरी है ताम-झाम की नहीं । प्रेम शब्द नहीं, खामोशी है। हम कहते हैं-प्रेम न हाट बिकाए और वी.डे.पर प्यार को बाजार ही संचालित कर रहा है। कई प्रबंधन कंपनियां मोटे प्रोयोजक ढूंढ़कर मुनाफाखारी में भिड़े हैं।
वी.डे. नवव्यावसायियों का शस्त्र है जो उन्होंने युवाओं पर उठाया है। सवाल श्रीमंत युवाओं का नहीं, उन निम्न और मध्यवर्गीय लाखों युवाओं का है जो करियर भारी चिंता के साथ तुलनात्मक हीनता से बचने के लिए दिखावा करने को मजबूर हैं। जब वे आर्चीज, अबुनी और हालमार्क के खूबसूरत कार्ड्स और लुभावने उपहार देखते हैं तो बेकाबू होने लगते है। पत्थर भी पिंघल जाएं और संयासी भी प्रेम कर बैठें, ऐसी सामग्री है वहां। चाकलेट, कैसेट्स, डिजिटल डायरी जाने क्या-क्या?
रूपये 10 के आगे शून्य बढ़ाते चले जाइए अपनी-अपनी औकात के अनुसार। प्यार, सस्ता या महंगा चुनाव आपका। साइबर युग है आन लाइन लव का चल भी शुरू हो गया है। यहां प्रेमवीर स्वछंद हो सकते हैं। लड़कियां चैंटिग में भी सीमाओं के अधीन रहती हैं। होटल, रेस्तरां, पार्क, केबल चैनल्स सभी धड़कते दिलों में तबदील हो जाते हैं। ऐसे में प्रणय युगल 50 वाल्ट के चुंबन का आविष्कार तो करेंगे ही। ‘कामदेव’ मकर ध्वज फहराते हैं और प्रेमी प्रेम पताका। अखबार सबसे हसीन संदेश को पुरस्कृत करते हैं तो होटल आदि में डांस कम्पीटीशन में ‘बेस्ट कपल’ को। यहां पर लड़कियां आयोजकों की साजिश का शिकार होकर नुकसान भी उठा सकती हैं।
वी.डे.के आड़ मे भोंडा प्रदर्शन आम बात है। राह चलती लड़की को ‘बुरा न माने होली’ के तर्ज पर आई लव यू कहकर फ्लाइंग किस उछाल देना और कहना कि आज प्रेम दिन है, सिवाए बदमाशी के कुछ नहीं। मनचले व्यस्क भी बहती गंगा में हाथ धो लेते हैं। प्रेम की तौहीन है यह।
भारत में प्रेम प्रदर्शन में आंखों का सहारा है। धड़कनों की जुबां है। वह तोहफों की भाषा नहीं बोलता। प्रेम की विशद संदर्भ में देखा जाए तो माता-पिता, मित्र, गुरु, रिश्तेदार आदि के लिए प्रेम-संदेश छपवाने या कार्डस, फूल उपहार की व्यावहारिकता नहीं होतीं। पूर्ण करने से ही हो पाता है, ऐसा नहीं है। प्रेम सच्चा है तो वह अपने व्यक्त होने के तरीके ढूंढ लेता है क्योंकि हम जिन्हें प्यार करते हैं, उनके लिए बहुत कुछ अच्छा-अच्छा करना चाहते हंै। अगर हम कहें कि यह उत्सव प्यार के आकाश में उमड़ने-घुमड़ने वाले बादलों को बरसने का मौका देता है। रूप, स्नेह की प्यास जगाता है , तो इसका मानक स्वरूप कुछ यूं होना चाहिए। स्कूल,कालेजों में यह अंतप्रांर्तीय स्तर पर छात्र-छात्राओं के बीच आपसी समझ और सौहार्द प्रदर्शन का अवसर बने ताकि दूरियां और भ्रांतियां घटें। स्वस्थ मैत्री का उन्नायक हो। छात्र-छात्रा प्राध्यापक संबंधों पर सम्मानजनक प्यार को मोहरबंद करें। कुल मिलाकर प्रेम इसका उदेश्य बन जाए। प्रणय है तो संजीदंगी से जीया जाए। यही नहीं कि वैज्ञानिकों ने कह दिया है सच्चे प्रेम का तूफान केवल 3 साल तक टिकाउ होता है तो चौथे साल अपना वैलेंटाइन-डे बदल लें।
सेंट वैलेंटाइन ने अपनी कुर्बानी क्या इसीलिए दी थी कि युवक प्यार को शरारत और चालू मस्ती में समेट कर रख दें। आज पूछा जा रहा है-
जिस दौर में वफाएं बिकें कौड़ियों के मोल,
उस दौर में खुलूस की कीमत बताईए?
आज का व्यावसायी किसी बाजीगर से कम नहीं । वह आकर्षण और प्रलोभनों को युवाओं के सामने जिन्न की तरह पेश कर रहा है। भारत का दिल हथियाना चाहता है वह। समस्या इस बात ही है कि वी.डे. के हमले को लेकर मीडिया पर चिल्लाता है और मनाने को लेकर मीडिया ही उकसाता है। यह दोहरा आचरण घातक है। हा पत्र के 4-5 पृष्ठ प्रेम संदेशों में डूबे होते हैं और पत्रिकाएं मसालेदार आलेख तैयार करवाती हैं। विरोधी राजनयिक मीडिया के सत्तापक्ष पर प्रहार नहीं करते, निरी तोड़फोड़ और मारपीट से क्या होगा? चीजें टूटने से वैचारिक क्रांति का सूत्रपात नहीं होता। वी.डे. के परिष्कृत रूप के लिए पहल हर घर से होनी चाहिए।
नोट- लेख 14 फरवरी06 को दैनिक ट्रिब्यून में प्रकाशित हो चुका है।
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डॉ. अनुज नरवाल रोहतकी।
ई-मेल. anujnarwalrohtaki@gmail.com
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