मुझे फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का एक शेर याद आता है वो बात सारे फसाने में जिसका जिक्र न था, वो बात उनको बहुत नागवार गुजरी है। कुछ ऐसी ही आलो...
मुझे फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का एक शेर याद आता है
वो बात सारे फसाने में जिसका जिक्र न था,
वो बात उनको बहुत नागवार गुजरी है।
कुछ ऐसी ही आलोचना पाखी मासिक में एक आलोचक महोदय ने प्रेमचन्द की कहानी 'पूस की रात' की की है। सन्तोष की बात है कि उक्त आलोचक की भी पर्याप्त आलोचना पाखी के फरवरी अंक में हुई है, जिनमें से शशिकला श्रीवास्तव, उषा वर्मा एवं बृज मोहन श्रीवास्तव के आलेख दृष्टव्य है
मेरा अनुमान है उक्त आलोचक बन्धु ने 'पूस की रात' का एक से अधिक बार वाचन नहीं किया है। सर्वप्रथम मेरा उनसे अनुरोध है कि इसे एक बार और पढ़ें तथा जरा ध्यान से पढ़े। मैं कहानी की आलोचना पर अपना मंतव्य व्यक्त करूँ, उससे पहले मैं चाहूँगा कि जिन्होनें इस कहानी को न पढ़ा हो वे भी इसे पढ़ लें तथा इसमें आलोचक के चश्में से कमियाँ ढूँढनें का प्रयत्न करें। पाखी के सम्पादक महोदय से भी निवेदन है कि जब उन्होने इस आलोचना - प्रत्यालोचना का क्रम प्रारम्भ ही किया है तो उसके मूल को भी प्रकाशित करें जिसके लिये यह वाकयुद्ध हो रहा है।
अब मैं उन बातों पर आता हूँ जिन पर आलोचक महोदय रुष्ट हैं। प्रथम यह कि ईंख की खेती को नीलगाय एक रात में नष्ट कैसे कर सकती है। कहानी के आलोक में यह प्रश्न उसी प्रकार है जैसे कोई आरोप लगाये कि खरगोश की सींग उखाड़ कर आपने उस निरीह प्राणी पर बड़ा अत्याचार किया। कहानी में प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप से कही भी ईंख की खेती का वर्णन नही है। यह आलोचक के कल्पना की खेती है। 'ऊँख के पत्तों की छतरी' का उल्लेख है और आलोचक महोदय जान लें कि ईंख के पत्त्तों की छप्पर का प्रयोग पूर्वांचल में अब भी होता है। मात्र छप्पर के प्रयोग के कारण पूरी फसल को ईंख की समझ लेना आलोचक की अतिरिक्त कल्पनाशीलता को प्रदर्शित करता है।
प्रेमचन्द को ऋतुचक्र समझाने वाले आलोचक बन्धु को सम्भवतः भारतीय महीनों के नाम और ऋतुयें ज्ञात होंगी। इससे अनभिज्ञ पाठकों के लिये मैं महीनों और ऋतुओं का क्रम नीचे दे रहा हूँ।
चैत्र - वसन्त, वैसाख एवं ज्येष्ठ - ग्रीष्म, आषाढ़ एवं सावन - वर्षा, भाद्रपद एवं आश्विन (क्वार) - शरद, कार्तिक एवं मार्गशीर्ष (अगहन) - हेमन्त, पौष (पूस) एवं माघ - शिशिर, फाल्गुन - वसन्त।
इस प्रकार दो - दो माह की छः ऋतुयें होती है।परन्तु यह क्रम ऋतुओं के स्थूल विभाजन को प्रदर्शित करता है। ऐसा नहीं है कि चैत्र पूर्णिमा को बसन्त रहेगा और वैसाख प्रतिपदा को गरमी प्रारम्भ हो जायेगी। रही बात पतझड़ और वसन्त की तो सभी जानते हैं कि पतझड़ के बाद के बाद वसन्त प्रकृति का श्रृंगार करता है, इसीलिये इसे ऋतुराज कहते है। वसन्त मे पुरानी पत्तियों की जगह नई कोपलें निकलती हैं।
पतझड़ एक लम्बी प्रक्रिया है जो शिशिर से प्रारम्भ होकर ग्रीष्म तक चलती है तथा इसका प्रभाव अलग - अलग प्रकार के वृक्षों पर एवं अलग - अलग भौगोलिक क्षेत्रों मे अलग - अलग होता है।
जहाँ तक हल्कू द्वारा पत्तियों को जला कर तापनें का सवाल है तो उसके लिये वृहद स्तर पर पतझड़ के आयोजन की आवश्यकता नहीं है। उसके लिये उतनी पत्तियाँ पर्याप्त हैं जितनी पतझड़ के आरम्भ में मिल जाती हैं। प्रेमचन्द जी ने स्पष्ट कहा है कि पतझड़ शुरू हो गया था। ऐसा नही कहा है कि पतझड़ ने जोर पकड लिया था। जिस पेड़ (आम) के पत्तों को जलाने कि चर्चा है, मेरा अनुरोध है कि आलोचक महोदय इस बार दिसम्बर के अन्त एवं जनवरी के प्रारम्भ मे उसके किसी देसी बाग का भ्रमण अवश्य करें, उनका शंसय दूर हो जयेगा। प्रेमचन्द जी ने केवल किताब पढ़ कर नहीं लिखा है बल्कि उन्होने देखा हुआ और भोग हुआ यथार्थ लिखा है, जिसके लिये आजकल लोगों के पास समय नहीं है।
प्रेमचन्द पर किसानों को अकर्मण्यता की सीख देने का आरोप लगा कर आलोचक ने वन्ध्यापुत्र को माफिया डान बना दिया है। एक सामान्य पाठक भी समझ सकता है कि कहानी जमींदारी और मालगुजारी के कुचक्र फँसे किसान के जीवन की त्रासदी को प्रदर्शित करती है कि अपना खेत होते हुये भी उसका जीवन मजदूरों से भी बदतर है। किसानी छोड़कर मजदूरी करना अकर्मण्यता है तब तो आजकल बहुत से अकर्मण्य गाँव की खेती छोड़ कर शहरों मे रिक्शा-ठेला चला रहे हैं। यहाँ पर आलोचक की दृष्टि यथास्थितिवादी प्रतीत होती है जबकि प्रेमचन्द प्रगतिशील दिखाई देते हैं। आलोचक की इच्छा है कि चाहे जितना कष्ट उठाना पड़े, हल्कू को किसानी नहीं छोड़नी चाहिये अन्यथा यह उसका कर्तव्य पलायन या अकर्मण्यता होगी।
मै, यहाँ, लगभग १८ वर्ष पूर्व (१९९०-९१) की एक सत्य घटना का वर्णन करना चाहूँगा। मैं किसी कार्य से नसिक गया था। लौटते समय ट्रेन की प्रतीक्षा में मैं नासिक रोड स्टेशन के सामने की सड़क स्थित एक परमिट रुम के सामने खड़ा हो गया। उसी समय दो ग्रामीण युवक वहाँ पर आये और वारुणी का सेवन करते हुये आपस में बात करके जोर - जोर हँसनें लगे। मैं पास ही खडा़ था इसलिये वे बीच - बीच में मुझे भी देख लेते थे। मुझे न जाने क्यों उनसे परिचय करने की इच्छा हुई। शायद मैं भी हल्के मूड में था। वे दोनों पास के किसान थे। सब्जी लेकर बजार में बेंचने आये थे। ३६ रुपया किराया लगा था और २४ रुपये में सब्जी बिकी थी। उसी २४ रुपये की दोनो शराब पी रहे थे और अपनी इस दशा पर हँस रहे थे। यह सारा किस्सा भी उन्होनें मुझे हँस - हँस कर ही सुनाया। उसके बाद उन्होने जो कहा उस पर आलोचक महोदय ध्यान दें। हम परिचित हो चुके थे। एक ने कहा, तुम्हारे यूपी में कोई सेठ हमारी जमीन खरीदेगा? एक के पास पाँच एकड़ दूसरे के पास सात एकड़ के आस पास जमीन थी। उस समय उन्होनें ५० हजार प्रति एकड़ माँगे थे। मुझे नहीं पता कि उस समय नासिक मे जमीन का क्या मूल्य था। परन्तु, मैनें जिज्ञासा व्यक्त की की जमीन बेंच कर करोगे क्या? उत्तर था, शहर में धन्धा करेंगे।
यह घटना मैनें कई मित्रों को बताई और आज यहाँ भी इसका उल्लेख कर रहा हूँ। यदि मैं आलोचक महोदय की कोटि का भी कोई लेखक होता और इस तथ्य पर कोई कहानी लिख देता तो क्या परवर्ती काल मे मुझपर किसानों को धन्धेबाजी के लिये उकसाने का आरोप लगाया जाता।
आलोचक ने एक न्यायवाक्य स्थापित किया कि ' पूस की रात' दुनिया की सबसे नासमझ कहानी है। परन्तु इसकी व्यप्ति स्थापित नहीं कर पाये कि अपनें ज्ञान कूप में उन्होंने दुनियाँ की कितनी कहानियों का जल भरा है और यह कहानी क्यों उनके कूप में नहीं समा रही है? नासमझ कहानी के क्या मानदन्ड हैं और नासमझ आलोचक की क्या योग्यतायें हैं।
प्रेमचन्द जी पर किये गये व्यक्तिगत आक्षेपों के सन्दर्भ में भी मुझे किसी लेखक द्वारा दिया गया उद्धरण याद आता है कि एक राजदरबार में दरबारी विदूषक के जब सारे चुट्कुले समाप्त हो गये तो वह कपडे़ उतार कर नंगा हो गया कि शायद इसी से कुछ लोग हँस दें। आलोचक पूस की रात तक नहीं रुका, उसने प्रेमचन्द के व्यक्तित्व की पड़ताल में भी अपना जौहर दिखाया। अब प्रश्न है कि विदूषक नंगा होनें के बाद क्या करेगा?
मेरा अन्तिम प्रश्न पाखी के सम्पादक से है कि क्या इस आलोचना के प्रकाशन से पूर्व उन्होनें पूस की रात कहानी पढी़ थी या प्रकाशन से पूर्व उन्होंने इस आलोचना को पढा था। मेरा अनुमान है कि दोनों प्रश्नों का उत्तर हाँ नहीं हो सकता। यदि हाँ है तो मैं ऐसी अधकचरी, पूर्वाग्रहग्रस्त, अस्वस्थ एवं अविचारित आलोचना के प्रकाशन को, सम्पादक की चूक समझूँगा। फिर भी इसी बहाने हमें प्रेमचन्द को शिद्दत से याद करनें क अवसर मिला तथा प्रत्यालोचनाओं को भी प्रमुखता से प्रकाशित करके सम्पादक ने भी अपनी भूल का परिमार्जन करने का प्रयत्न किया है।
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