“पिताजी कल मुझे स्कूल से कन्या प्रोत्साहन राशि के एक हजार रूपये मिलेगें,” लच्छो ने अपने पिता गरीबा से चहकते हुए कहा था। गरीबा यह खबर सुनक...
“पिताजी कल मुझे स्कूल से कन्या प्रोत्साहन राशि के एक हजार रूपये मिलेगें,” लच्छो ने अपने पिता गरीबा से चहकते हुए कहा था। गरीबा यह खबर सुनकर फूला नहीं समाया था। आधुनिकता से कोसों दूर रतनपुर गाँव के उस सिरे पर जहाँ से दलितों की बस्ती शुरू होती है, ठीक उससे पहले गरीबा का अपना छोटा सा घर था। घर की स्थिति ही उसमें रहने वालों की आर्थिक स्थिति प्रदर्शित करने के लिए काफी थी। उस परिवार के पांच सदस्यों में से गरीबा और उसकी पत्नी रानो ही कभी कभार मजदूरी के लिए जाते थे। वर्ष में ऐसे अवसर भी आते थे जब उन्हें कई दिनों तक बेकार रहना पड़ता था। वैसे भी उस गांव में रोजगार के नाम पर छोटे मोटे धंधे और खेती के सिवाय कुछ भी नहीं था।
गरीबा चालीस का हो गया था। उसके जीवन मे ग्रीष्म की तपती दोपहर और कल-कल कर बहते हुए निर्मल झरने में कोई अंतर नहीं था। गांव में ढोर डंगरों तथा पगडंडियों से गुजरते हुए प्रतिदिन कल की चिन्ता ने उसके माथे पर अनेक लकीरें उकेर दी थी। अधपके बालों ने परिपक्वक्ता के बजाए लाचारी दर्शाना प्रारंभ कर दिया था। वर्षो तक एक सी स्थितियां किसी भी अच्छे खासे व्यक्ति को भी चिड़चिडा तथा क्रोधी बना देती है। गरीबा के साथ भी यही हुआ था। गरीबा ने अभावों तथा दुख-तकलीफों से जूझते रहने में अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा होम कर दिया था। समय की मार सहते हुए उस छोर का कहीं पता नहीं था जहाँ सुख के कुछ पल मिल सकें। दुखों को सहने के लिए शौकिया तौर पर शुरू की गई शराब लत बन गई थी। इस वजह से परिवार के दिन और भी कष्टमय हो गए थे।
”पिताजी, कल जो रूपए मिलेंगे उससे मुझे एक स्वेटर तथा जूते मोजे ले देना। सुबह स्कूल जाने में बहुत ठंड लगती है,” लच्छो ने डरते-डरते कहा था। लच्छो के कहने के ढ़ंग से यह समझ पाना कठिन था कि वह भारी ठंड़ से ठिठुर रही है अथवा अपनी मांग रखने में डर रही है।
”तेरे मास्टर से इन रूपयों के लिए पिछले दो माह से मैं रोज झगड़कर आता रहा हूँ, सोच रहा था उन रूपयों से यह टपरा ठीक करवा लूँगा।”
”पर पिताजी”
”यह पर-वर क्या लगा रक्खा है।” गरीबा ने बेटी को झिड़क दिया था। घर में कही एक और महाभारत शुरू न हो जाए इसलिए लच्छो ने उस वक्त चुप रहना ही बेहतर समझा था।
उस दिन गरीबा ने उन रूपयों को खर्च करने की योजना बनाना प्रारंभ कर दिया था। वह दोपहर बाद रामदयाल कुम्हार के भट्टे पर जाकर कच्ची ईटों का भाव पूछ आया था। टंटी बसोड से घंटे भर तक आत्मीयता पूर्ण बातें कर गांव के भले लोगों के भेद लेता रहा था। अतः बांस बल्ली अपने प्रिय मित्र से मिलने में कोई परेशानी होने का तो सवाल ही नहीं रह गया था। भागचंद मिस्त्री ने हजार रूपए के अंदर निर्माण लागत निकाल दी थी, बदले में शाम की बैठक का प्रस्ताव रखा था। लाचार तथा सुस्त दिखाई देने वाले गरीबा में गजब की फुर्ती आ गई थी। उसकी चपलता देखकर गांव के बहुत से लोगों ने दांतो तले ऊंगली दबा ली थी। पंडित लीलाधर ने कहा था, “क्यों रे गरीबा क्या बात है? क्या कोई लाटरी-वाटरी निकल आई है क्या?” गरीबा ने उस प्रश्न का कोई उत्तर न देने में ही अपनी भलाई समझी थी।
दिन भर थककर चूर होने के बाद गरीबा अपने घर आकर बैठ गया था। रानो ने उसे घर के एक कोने में शांत बैठे देखा, पूछ बैठी, “कहाँ थे तुम दिन भर से? कुछ खाया, न पिया। लच्छो ने रो रोकर घर सिर पर उठा रखा है। ऐसा क्या कह दिया था तुमने।”
“अरी भागवान, तुझे कैसे समझाऊँ? इस टपरे की मरम्मत के लिए ही तो दिन भर से मारा-मारा फिर रहा हूँ” गरीबा में कुछ तैश में आकर कहा था।
“क्यों, कोई गड़ा हुआ धन मिल गया है क्या? दो टेम के बाद खाने का इंतजाम है नहीं और ये चले है घर ठीक कराने।”
“कल लच्छो को हजार रूपए मिलने वाले है, क्या तुझे नहीं मालूम?”
”तुम्हें शरम नहीं आई बेटी के रूपए अपना घर सुधरवाने में लगाओगे क्या?”
“तो क्या हुआ, उसकी शादी में कई गुना खर्च करवा लेना।” गरीबा ने रौब झाड़ते हुए कहा
रानो गरीबा की बातें सुनकर अत्यधिक दुखी हो गई थी। गरीबा से विवाह के बाद गरीबी में खटते हुए
उसने अपने लिए न सही इस घर के बारे में जरूर भला सोचा था। उसने हमेशा चाहा था कि संपन्नता भले ही न हो पर शांति हो, सुकून हो। एक रानो ही ऐसी थी जिसने अपने परिवार के स्वाभिमान पर कभी आंच नहीं आने दी थी। उसने वक्त जरूरत पर उधार लिया था तो समय रहते वापस भी किया था। विवाह होकर आई थी तब रानों सुन्दर थी, आकर्षक थी। पूरे गाँव में ऐसे पुरूष इक्के दुक्के ही बचे थे जो उसकी ओर आकर्षित न हुए हों। उसने अपने ऊपर पड़ने वाली निगाहों को झटकने में देरी नहीं की थी। अतः उसे गाँव तथा बिरादरी के लोग घमंडी समझने लगे थे लेकिन उसने कभी इसकी परवाह नहीं की थी। गाँव में काम पर जाते आते अभी तक वह अपनी लाज बचाती रही थी। उसे गरीबी से कोई शिकायत नहीं थी अगर शिकायत थी तो केवल गरीबा के व्यवहार से। गरीबा और वह हमेशा एक दूसरे से असहमत रहते। अतः साथ-साथ चलते हुए भी उनकी मंजिलें अभी तक दूर ही थीं। रानो ने रो रोकर उस शाम गरीबा से कहा था, “तुम लच्छो से तो उसकी जरूरतों के बारे में पूछ लेते फिर चाहे जो निर्णय लेते मुझे कोई एतराज नहीं होता।”
“लच्छो होती कौन है घर के संबंध में निर्णय लेने वाली? उसकी जरूरतें किसी शहजादी से कम नहीं है। घर सुधर गया तो समझो अगले दो तीन साल में उसके विवाह के प्रस्ताव भेजने लायक तो हम हो ही जाएँगे।”
“तुम अपनी खून पसीने की कमाई से क्यों ठीक नहीं कराते अपना घर?” रानो ने आहत होकर कहा था।
“मैं बाद में वापस कर दूँगा ब्याज समेत।”
“ब्याज समेत वापस करने के लिए क्या नोट छापने का कारखाना लगाने वाले हो?” रानो ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा था। लेकिन गरीबा के पुरूषत्व को यह कतई स्वीकार नहीं था। वह उस दिन रानो के मां बाप तथा अन्य रिश्तेदारों को गालियां बकता हुआ, बड़बड़ाता रहा था। इस बीच दोनों बेटे आ गए थे। उन दोनों को आते देखकर गरीबा कुछ देर के लिए बिल्कुल खामोश हो गया था। आते ही बडे़ बेटे ने कहा था , “माँ, सुना है कल लच्छों का हजार रूपए मिलने वाले हैं?”
“हाँ बेटा।”
“मुझे दो सौ दिलवा देना। पिछले साल खरीदे गेहूं का उधार चुकाना अभी तक बाकी है।”
“माँ, मुझे भी तीन सौ चाहिए।” दूसरे बेटे ने अपनी फरमाईश रखी थी।
“तुझे क्या जरूरत आ पड़ी रूपयों की?”
”माँ तुझे तो मालूम ही है, पिताजी कलारी पर जाते रहते है, अतः उसकी उधारी भी तो हमें चुकानी पड़ेगी।” छोटे ने अपनी बात दृढ़तापूर्वक रखते हुए कहा था।
“कुछ तो शरम करो रे तुम तीनों।” रानो का गला भर गया था। आंख की कोरे गीली हो गई थीं। “लच्छो को मिलने वाले रूपए के कितने हिस्से होंगे?। हे भगवान, इन तीनों को थोड़ी बहुत अकल दी होती। इनके दिल में ममता क्यों नहीं दी? दुनिया का हर बाप अपनी बेटी के लिए त्याग करता है। बेटों से तो कुछ भी उम्मीद करना बेकार है। वे अपने लिए रूपये ऐंठनें का कोई मौका नहीं छोड़ने वाले।“ रानो मन ही मन विचार कर दुखी हो रही थी।
उसे पति तथा बेटों के द्वारा रूपए ऐंठनें की योजना बनाना अखर रहा था।
दोनों बेटे रानो से किसी उत्तर का इंतजार न कर अंदर चले गए थे। गरीबा भी कहीं बाहर चला गया था। रानो ने मौका देखकर लच्छो को समझाया कहा, “बेटी तू चिंता मत कर तुझे मिलने वाले रूपए तेरे ही काम आएंगे। क्या मजाल कि घर का कोई अन्य सदस्य उन रूपयों को हाथ भी लगाए।”
“पर माँ तू पिताजी, भैया को कैसे समझाएगी?”
“वो सब तू मुझ पर छोड़ दे।” रानो ने बेटी को आश्वस्त करते हुए कहा था।
उस रात गरीबा दारू पीकर आया था। घर में घुसते ही अंट शंट बकता रहा था। उसने शराब के नशे में सभी को चेताया था, “खबरदार कोई लच्छो को मिलने वाले रूपए को हाथ न लगाए वरना अच्छा नहीं होगा।” बेचारी लच्छो उस रात डर के मारे माँ से चिपकी पड़ी रही थी।
दूसरे दिन गरीबा चेक लेने के लिए स्कूल चला गया था। मास्टरजी से उसने कहा, “लाइए लच्छो का चेक मुझे दे दीजिए।” मास्टरजी ने आश्चर्यचकित होते हुए कहा था, “लच्छो तो चेक लेकर कब की जा चुकी।
उसकी माँ के साथ जल्दी ही आ गई थी। उन दोनों ने रूपयों की आवश्यकता बताकर चेक ले लिया था।” यह सुनकर गरीबा रानो और लच्छो को सबक सिखाने का इरादा लिए हुए उलटे पांव घर लौट पड़ा था।
अपनी “पहली विजय” पर रानो के पैर धरती पर नहीं पड़ रहे थे। लच्छो भी पंख लगाकर आसमान में उड़ना चाह रही थी।
---------
अखिलेश शुक्ल
संपादक ‘कथा चक्र
63, तिरूपति नगर,
इटारसी 461.111 (म.प्र.)
bahoot achchi kahani hai maza aa gaya.virendra yadav sampadak kritika
जवाब देंहटाएंएक परिवार की कहानी सहज व सरल शब्दों में कह दी....
जवाब देंहटाएं