वीरेन्द्र जैन का व्यंग्य : बसंत में बीमारी

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  क भी कभी प्रभु की मति भी मारी जाती है। जैसे कोई ढीठ मक्‍खी बार- बार उड़ाने पर भी किसी चरित्रवान व्‍यक्‍ति की नाक पर बैठने की गुस्‍...

Virendra Jain

 

भी कभी प्रभु की मति भी मारी जाती है। जैसे कोई ढीठ मक्‍खी बार- बार उड़ाने पर भी किसी चरित्रवान व्‍यक्‍ति की नाक पर बैठने की गुस्‍ताखी करती है और चरित्रवान व्‍यक्‍ति को इसके अलावा दूसरा कोई रास्‍ता नही सूझता कि मक्‍खी को मार दिया जाए इसी तरह मति भी मारी जाने के लिए मजबूर हो जाती है। अब मति चाहे प्रभु की हो, प्रभुवर्ग की हो या आम जनता की, जब मारी जाना होती है सो मारी ही जाती है। जबसे मैंने यह सुना है कि उसकी इच्‍छा के बिना पत्‍ता भी नहीं हिलता तभी से मैं अपने सारे दोष उसी पर मढ़ देने में सिद्वहस्‍त हो गया हूं।

अब यह भी कोई बात हुई कि वह मुझे बीमारी दे और वह भी बसंत के मौसम में, यह उसकी मति मारे जाने का लक्षण नहीं तो और क्‍या है ? अरे भला आदमी बीमारी को कुछ अच्‍छा सा अवसर देखकर नही दे सकता था! कि जब दफ्‍तर में ज्‍यादा काम हो तब दे द,े जब बच्‍चे छुटि्‌टयों में पहाड़ घुमाने की जिद कर रहे हों तब दे दे। ऐसे रिश्तेदारों के यहां विवाह समारोह हो जहां बड़ा खर्च करना जरूरी होता है तब दे देता। लोग इस्‍तीफा देने तक में अवसर की अनुकूलता का ध्‍यान रखते हैं और यह प्रभु है कि बीमारी देने में भी वक्‍त नही देखता। सोचता हूँ कि मोनोपली का लाभ उठाने में जब सभी माहिर हैं तो प्रभु ही क्‍यों पीछे रहे, वह भी राशन के दुकानदार या विद्युत टेलीफोन विभाग की तरह अपनी मनमानी करता रहता है।

वैसे बसंत में लोग बनावटी बीमार दिखने में भी आनंदित महसूस करते है, कोई प्रेमरोगी होने का ढोंग करता है तो किसी का दिलो जिगर चाक- चाक हुआ रहता है, भले ही उसमें से रक्‍त की एक बूंद भी न टपकती हो। कोई अपना बैंक बैलेन्‍स, दुकान, जमीन, बीमा, का पैसा आदि छोड़कर शेष सारा जीवन न्‍यौछावर करता नजर आता है। जैसे कि जीवन नहीं नाक हो जिसे जब चाहे छिनका जा सके। कुछ घायल होने के लिए खुद सलाह देते हैं कि '' सीधा तो कर लो तीर को '' और कुछ कहते हैं कि

'' आज अपने हाथों से क्‍यों न कत्‍ल हो जाएं,

अब तो मेरे कातिल के हाथ थक गए होंगे। ''

वैसे मैं इस बासंती मौसम में भी इनमें से किसी कोटि का बीमार नहीं था। अब चाहे आप मुझे रस हीन, हृदयहीन, निरा बौद्विक भौतिक प्राणी के रूप में उपेक्षा से देखें पर में तो अपने और जग के सारे दोषों के लिए प्रभु को जिम्‍मेवारी सौंपकर ऐसे खड़ा हो जाता हूं जैसे दूध की थैली में से दूध निकाल लेने और आखिरी बूंद तक झटक लेने के बाद वह उजली पारदर्शी होकर कचरेदान में शोभायमान होती है।

मैं इस देश के कर्मचारियों, अधिकारियों और राजनेताओं की तरह बनावटी बीमार भी नही था जो डाक्‍टरों को स्‍वस्‍थ्‍य करने की जगह बीमार करने के लिए पैसे देते हैं। मैं बीमार था और प्रभु की कृपा से सचमुच बीमार था। सुइयं दिल में चुभने की जगह बाहों और कूल्‍हे पर चुभाई जा रहीं थीं। छाती खोलकर सीने पर तीर खाने की जगह गोलियां खा रहा था और वह भी मुंह के रास्‍ते। अधरों का रस पीने की जगह मौसम्‍बी का दूसरे के द्वारा निकाला हुआ रस पी रहा था। लोग अस्‍पताल में मुझे देखने आते, तो मुझे कम नर्सों को ज्‍यादा देखते। नर्सें शायद उनके हृदय में पीड़ा पहुंचा रही हों पर मुझे तो वे निरंतर मेरे कूल्‍हों में बदल बदलकर सुइयां चुभाने की पीड़ा पहुंचा रही थीं। बांसती मौसम में जब दिलों में हूक उठती है, मेरे पेट में गैस बन रही थी जिसका इस्‍तेमाल ईधन के रूप में भी संभव नही होता। जब कलियों के चटककर फूल बनने का समय था तब मेरा सिर चटक रहा था और पेट फूल रहा था। जब आँखों में गुलाबी डोरे उभरने का समय था मेरी आँखे दर्द और बुखार में लाल हो रही थीं, जब नायक से नायिका अंग अंग में पीर होने का वर्णन गा गाकर कर रही हो तब मैं उसी पीर का वर्णन कराह- कराहकर कर रहा था। जब कवियों - रसिकों के मन मचल रहे होंगे, तब मेरा जी मिचला रहा था। जब असंख्‍य देहें पुष्‍प गंधों से महक रही थीं तब मैं पसीने में मिली एंटी बायटिक की दुर्गंध से सराबोर पड़ा था। जब लोग चांदनी में नहाने को कपड़े उतार रहे थे तब में नगर निगम के द्वारा रिसाए गए प्रदूषित जल से भी स्‍नान कर सकने की हिम्‍मत नही जुटा पा रहा था। जब साहित्‍यप्रेमियों को ईसुरी, घनानंद, जयदेव और कालिदास याद आ रहे थे तब में एंटी बायटिक एंटीसेप्‍टिक, एंटासिड, एंटीइन्‍फ्‍लूएंट आदि आदि दवाइयों के ब्रान्‍ड नाम उनके लेने के समय उनके फायदे और नुकसान के बारे में जानने की कोशिश कर रहा था। जब लोग दिलो जान लुटा रहे थे तब मैं डॉक्‍टरों, दवाइयों और नर्सिग होम पर पैसे लुटा रहा था। जब नायिकाओं के विनोद पर नायकों को हॅंसी आ रही थी तब मुझे खांसी आ रही थी।

जब लोग मदिरा पीकर मस्‍त हो रह थे, मैं काम्‍पोज खाकर सुस्‍त हो रहा था। जिस बसंत ऋतु में कामदेव कालिदास की नायिका के प्रत्‍येक अंग में प्रवेष कर जाते हैं तथा आंखों में चंचलता बनकर, कपोलों में पीलापन बनकर, कुचों में कठोरता बनकर, कमर में पतलापन बनकर तथा जांघों में पुष्‍टता बनकर प्रकट होते हैं ,बिल्‍कुल उसी तरह मेरी बीमारी ने भी इस बसंत ऋतु में मेरे पूरे शरीर में प्रवेश कर लिया था बस, अंतर इतना था कि नायिकाओं के जिन अंगों में जिस रूप में बसंत प्रकट हो रहा था मेरे उससे भिन्‍न अंगों में बीमारी प्रकट हो रही थी पीलापन मेरी आंखों में था, कठोरता पेट में थी, पतलापन कलाइयों में था और कपोलों पर रूखापन विद्यमान था।

खैर, जो हुआ, सो हुआ, जब मैं अस्‍पताल में वापिस आ गया हूं तथा उसी मोनोपलिस्‍ट एकाधिकारवादी प्रभु से प्रार्थना है कि भविष्‍य में वह अपनी मति को मारी जाने से बचा ले तो बसंत को भी कुछ अपने खेल दिखाने को मौका मिले और इतनी फूल, पत्‍तियों, पार्क, बगीचे, नायिकाएं, उन पर आते जाते रंग उनके निरंतर विकास मान परिधान, बासंती हवाएं तथा प्रकृति का एयरकंडीशनर व्‍यर्थ होने से बच सकता है। गीतकारों के गीत, कवियों की कविताएं, कहानीकारों की कहानियों, ललित निबंधकारों का श्रम तथा आकाशवाणी, दूरदर्शन वालों की नौकरी बरबाद होने से बच सकती है। आखिर मितव्‍ययिता भी तो कोई महत्‍व रखती है।

मैं ये नहीं कहता कि बीमारी न दे और डॉक्‍टरों की रोजी रोटी छीन ले, पर थोड़ा वक्‍त और मौसम देख-दाख के दे, इतना ही विनय है।

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वीरेन्‍द्र जैन

2/1 शालीमार स्‍टर्लिंग रायसेन रोड

अप्‍सरा टाकीज के पास भोपाल म.प्र.

COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. वीरेन्द्र जी,

    ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ था. व्यंग्य बहुत ही अच्छा है. प्रस्तुतीकरण भी प्रभावी है, गुदगुदाता है.

    बधाईयाँ.

    मुकेश कुमार तिवारी
    http://tiwarimukesh.blogspot.com

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divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
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रचनाकार: वीरेन्द्र जैन का व्यंग्य : बसंत में बीमारी
वीरेन्द्र जैन का व्यंग्य : बसंत में बीमारी
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