मुकेश कुमार तिवारी का व्यंग्य : जहरखुरानी

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आजकल आये दिन अखबार भरे होते हैं ज़हरखुरानी की खबरों से. या लोग मिल जाते हैं बातें करते कि सुना है कि अपने शर्माजी है ना, कल ही दिल्ली से ...

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आजकल आये दिन अखबार भरे होते हैं ज़हरखुरानी की खबरों से. या लोग मिल जाते हैं बातें करते कि सुना है कि अपने शर्माजी है ना, कल ही दिल्ली से लौटे है कोई एक हफ़्ते बाद । शर्माजी गये थे तो लौटेंगे भी , इसमें अचरज की क्या बात हो सकती है भला ...? लेकिन बडे - बडे शहरों की छोटी छोटी गलियों में ऐसी ही बातें राष्ट्रीय चिंता का खास मुद्दा होती हैं । खैर शर्माजी का एक हफ़्ते बाद लौटना मुद्दा नहीं , खुसफ़ुसाहट तो इस बात को लेकर है कि जयपुर की ट्रेन में सवार होकर रवाना हुए शर्माजी दिल्ली से वापस कैसे आए ...? क्या ट्रेन भी अब पटरी छोड़कर मनमानी पर उतर आई है । भई क्या पता लालूजी के राज में रेलगाड़ियों ने गार्ड और ड्राइवर की बात मानने से इंकार कर दिया हो । हो सकता है गाड़ी हांकने वाले ये दोनों अपने "राज ठाकरे भाऊ" {भैया नहीं} के सगे वाले हो ।

इधर शर्माजी का आना हुआ उधर लोगों को बैठे ठाले का काम मिला । कड़ाके की सर्दी में लकड़ी का बुरादा जला कर आंच तापते लोगों को उतनी गर्माहट का एहसास नहीं हो पा रहा जितना मज़ा शर्माजी के घर में लगी आग से । दोपहर में धूप सेंकती महिलाओं को भी वक्त काटने का अच्छा बहाना मिल गया है । जितने मुंह उतनी बात ।

इसमें बात विशेष यह है कि शर्माजी निकले तो जयपुर के लिये थे आखिर साले के लड़के की शादी को अटैण्ड करने और बारात कलकत्ता जाने वाली थी फिर दिल्ली कहां पहुँच गये। आगे चटखारा लगाया जाता है कि सुना है हुआ यूँ कि जैसे ही शर्माजी ट्रेन में बैठे कि डिब्बे में जारी बहस को नजरअंदाज नहीं कर सके। वैसे भी ट्रेनें हमारे यहां यात्रा कराने के इलावा सोये हुये चिंतन को जगाने का काम ज्यादा करती है। सरकारी संपत्ति आपकी अपनी नहीं तो अपने बाप की की तर्ज पर पहले तो लोग रिजर्व सीट को अपनी जागीर समझते हैं और जितना फैल-पसर सकते है उतना तो कब्जा जमाये ही रहते हैं। सीट ना मिलने से परेशान डिब्बे में ठंसा हुआ कोई जैसे ही चारा(सिगरेट, गुटखा, अखबार आदि) डालता है सारे माहौल में जान फुंक जाती है। किसी तरह कोने पर टिके या तशरीफ को कहीं धंसाये हुये जैसे ही कोसता है व्यवस्था को तो सभी जुगाली करने लगते है एकसाथ जैसे हौज में चारा डाला गया हो। तब सीटों से कब्जा सिमटने लगता है और सीट एवं दिल में जगह बनने लगती है। फिर क्या एक से बढ़ कर एक बातें होने लगती हैं कोई रोता है ट्रेनों की लेटलतीफी पे, किसी को शिकायत है कि स्साले आर.ए.सी. होने के बावजूद भी उतार देते है और रात में ढूंढते रहो जगह चोरों की तरह। किसी को गुरेज है रेल्वे स्टेशन पर फैले हुई गंदगी को लेकर, गुसलखाने साबुत नहीं (यहाँ मतलब दरवाजों से है वो भी अपने इस्तेमाल के वक्‍त, यदि कोई और उपयोग कर रहा हो तो फिर क्या ट्रेनों के लेट होने की दुआयें माँगी जाती है). कोई राजनैतिक स्थिती का आकलन किये जाता है और सरकार चाहे किसी की भी हो गरीब की जोरु की तरह बस मजबूर झेलती है जो भी कह दिया जाये. शायद देश के हालातों पर इतना चिंतन तो वो भी नहीं करते जो चुने जाते है। वस्तुतः ट्रेनें हमारी संसदीय व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है जिसके महत्व को अभी समझा जाना बाकी है।

अरे मैं भी कहां जमाने की रोने बैठ गया. हाँ बात तो शर्माजी की चल रही थी, वो भी वकील ठहरे, तो मुँहजोरी में किसी से कम तो नहीं पड़ते थे जो शुरू हुये एक बार फिर क्या यह ले वह ले। जितना बोले उतना ही लोगों के करीब आये। फिर क्या बातें चली, दिल मिलें टिफिन खुले और दौर चला। बस यही वह वक्त होता है जब कोई अंजान नहीं रह जाता बस जो भी है अपना हो आया है। इसी मौके को ताड़ के वो जो कोई भी हो दिखाता है अपना दांव धीरे से ऑफर कर देता है बिस्किट, केक या कुछ और, यदि दांव उल्टा पड़ रहा हो तो ब्रह्मास्त्र के रूप में केवल प्रसाद ही रह जाता है चला दो। बस जहाँ प्रसाद की बात आये तो फिर क्या गर्दन झुका के ग्रहण करो चाहे जहर ही क्यों ना हो। तो चाहे ना चाहे एक बार प्रसाद क्या चखा बस हो गया सारा कि सारा आसमान उतर आता है सिर में, आँखों में तारे समा जाते हैं। फिर अपना होश कहाँ और माल उसका हो जाता है। एक बार आँख जो लगी फिर तो अस्पताल में ही खुलती है. आप अपनी पहनी हुई चढ्ढी को भी नहीं पहचान पाते हो, बनियान के बचने का तो सवाल ही नहीं उठता है। और होश आते ही पुलिस वाले उठा के लाने से आजतक का हिसाब थमा देते हैं।

बात फिर घूम-फिरकर वहीं शर्माजी पर आ जाती है, बेचारे (यहाँ बेचारे उनकी लाचारी पर नहीं उनके बेवकूफ बने जाने को दर्शाता है) कहाँ शादी, दावत को निकले थे कहाँ आफत मोल ले बैठे। फिर कोई और हमदर्दी जताता है भैय्या घर से बाहर निकलने का धर्म ही नहीं बचा है, साले ताक में ही रहते हैं जहाँ कोई शरीफ आदमी दिखा नहीं की धर-दबोचा। एक बार बात शुरू हुई कि रुकने का नाम ही नहीं लेती सभी के पास अपने-अपने किस्से हैं। जाति, धर्म, पंथ, भाषा के बंधनों से परे सभी पर एक सा असर / एक सी घटना. कुछ नहीं देखते आदमी गरीब है / अमीर है / बीमार है / दु:खी है / अकेला है / उम्रदराज है, उन्हें तो बस माल से मतलब रहता है कोई जिये या मरे उनकी बला से। आह निकलती है / गालियाँ निकलती है फिर अंततः यही कहा जाता है भैय्या किस्मत के लिखा कोई बदल पाया है आज तक. जो अपने भाग्य में था अपने पास है।

पहले तो शिकार भी चुप शिकारी भी चुप यही सोचा जाता था कि यह भी कोई बात है जिसे बतायेगें वही हंसेगा और यह विद्या बस दबी रही। फिर धीरे-धीरे इसका लोहा माना जाने लगा, अंततः इसे टेक्नोलॉजी के रुप में पहचाना गया, यही हुनर ज़हरखुरानी कहलाता है। मंत्री जी ने भी इसे रोकने के विशेष इंतेजाम करने को कहा है. पुलिस वाले गश्‍त बढ़ा रहे हैं. संदिग्धों पर नज़र रखी जा रही है. व्यवस्था मुस्तैद है. कोई चाहे कितना भी शातिर क्यों नहीं हो कानून के हाथ बड़े लंबे है. और ना जाने क्या-क्या कहा जा रहा है. मुझे दया आ रही है उन बेचारों पर जो पहले कुछ खिलाते है फिर दांव दिखाते हैं, ना जाने कितने खतरे उठाते है, पकड़े जाते हैं तो पिटते हैं. और वो जो साठ सालों से दिल्ली में बैठे सारे देश को एक साथ ज़हरखुरानी करा रहे हैं उन्हें कोई कुछ नहीं कहता.

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मुकेश कुमार तिवारी (विशेष सहयोग : सरिता अरगरे - भोपाल)

दिनांक : ०१-जनवरी-२००९ / समय : रात्रि ११:५५ / घर

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मुकेश कुमार तिवारी

सहायक महाप्रबंधक (परचेस)

महिन्द्रा टू-व्हीलर्स लिमिटेड़

पीथमपुर, जिला : धार (म.प्र.)

COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. दिल्ली मे बैठे लोग ही तो जहरखुरानी कर रहे हैं।सटीक्।

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रचनाकार: मुकेश कुमार तिवारी का व्यंग्य : जहरखुरानी
मुकेश कुमार तिवारी का व्यंग्य : जहरखुरानी
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