“…आप कहेंगे ये सामान कहां से आये हैं। प्रयोगशाला कहां से आती है। तो इसका सीधा सपाट जवाब ये है कि क्यों नहीं आपको एक झापड़ मार दिया जाये ताकि...
“…आप कहेंगे ये सामान कहां से आये हैं। प्रयोगशाला कहां से आती है। तो इसका सीधा सपाट जवाब ये है कि क्यों नहीं आपको एक झापड़ मार दिया जाये ताकि आप और आप जैसे दूसरे लोग इस तरह के सवाल बूझना बन्द कर दें और अपने काम से काम रखें। अरे भाई नेता हैं तो क्या उनका निजि जीवन नहीं हो सकता और यदि निजि जीवन है तो आप उसमें तांका झाकी करने का क्या अधिकार रखते हैं।…” – इसी उपन्यास से.
॥ श्री ॥
असत्यम्।
अशिवम्॥
असुन्दरम्॥।
(व्यंग्य-उपन्यास)
महाशिवरात्री।
16-2-07
-यशवन्त कोठारी
86, लक्ष्मी नगर,
ब्रह्मपुरी बाहर,
जयपुर-302002
Email:ykkothari3@yahoo.com
समर्पण
अपने लाखों पाठकों को,
सादर । सस्नेह॥
-यशवन्त कोठारी
(बेहद पठनीय और धारदार व्यंग्य से ओतप्रोत इस उपन्यास को आप पीडीएफ़ ई-बुक के रूप में यहाँ से डाउनलोड कर पढ़ सकते हैं)
व्यवस्था कैसी भी हो। प्रजातन्त्र हो। राजशाही हो। तानाशाही हो। सैनिक शासन हो। स्वेच्छाचारिता हमेशा स्वतन्त्रता पर हावी हो जाती है। सामान्तवादी संस्कार समाज में समान रूप से उपस्थित रहते हैं। कामरेड हो या कांग्रेसी कामरेड हो या केसरिया कामरेड या रूसी कामरेड या चीनी कामरेड या स्थानीय कामरेड सब व्यवस्था के सामने बौने हो जाते हैं। सब व्यवस्था रूपी कामधेनु को दुहने में लग जाते हैं। राजनीति में किसकी चण्डी में किसका हाथ, हमाम में सब नंगे। हमाम भी नंगा।
स्थानीय नेताजी का भी छोटा, मोटा दरबार उनके दीवान-ए-आम में लगता था। दीवाने-आम के पास ही एक छोटे मंत्रणा कक्ष को जानकार लोग दीवाने-ए, खास बोलते थे। नेताजी इसी मंत्रणा कक्ष में अपने हल्के के फैसले करते थे।
अफसरो, छटभैयों से मिलते थे। दीवान-ए-खास के अन्दर ही एक कक्ष उनकी आरामगाह था। जहां पर प्रवेश वर्जित था। उसमें ऐशो आराम के सब सामान थे। आप कहेंगे ये सामान कहां से आये है। प्रयोगशाला कहां से आती है। तो इसका सीधा सपाट जवाब ये है कि क्यों नहीं आपको एक झापड़ मार दिया जाये ताकि आप और आप जैसे दूसरे लोग इस तरह के सवाल बूझना बन्द कर दे और अपने काम से काम रखे। अरे भाई नेता है तो क्या उनका निजि जीवन नहीं हो सकता और यदि निजि जीवन है तो आप उसमें ताका झाकी करने का क्या अधिकार रखते हैं। तांक-झांक का काम मीडिया वालों को सौंप दीजिये और नििश्ंचत होकर नेताजी के सामन्ती संस्कारों की पालना में चरण छुइये। पांव लांगी कीजिये। भेंट-पूजा रखिये। यदि याराना है तो एक-आधा धोप-धप्पा खाईये और नेताजी की शान में नित नये कसींदे गढ़कर सुनाईये। हमेशा चारणीय जय-जयकार कीजिये या फिर अपना रास्ता नापिये।
इस वक्त नेताजी शहर के बुद्धिजीवियों, कवियों, पत्रकारों से घिरे बैठे है। बाहर चांदनी छिटकी है और बुि़द्धजीवी बार-बार चिन्तन-मनन कर रहा है। चिन्तकों की सबसे बड़ी बीमारी चिन्तन, मनन, मंथन ही है। कवि की सबसे बड़ी बीमारी कविता है। वो कविता न कर सके, कोई बात नहीं। मगर स्वयं को राजकवि, राष्ट्रकवि, संतकवि, अन्तराष्ट्रीय कवि तो घोषित कर ही सकता है। इसी प्रकार पत्रकार जो है वो स्वयं को नीति-पथ प्रदर्शक समाज की नब्ज पर हाथ रखने वाला समझता है वो अक्सर कहता है।
‘नेताजी देश आपसे जानना चाहता है कि....।'
नेताजी तुरन्त सुधार करते हैं-
‘...देश नहीं आपके पाठक...। आपके पाठक देश नहीं है।'
‘देश नहीं है लेकिन देश का हिस्सा तो है।' पत्रकार स्वयं को आहत महसूस करते हुए कहते हैं।
वास्तव में जनता को सभी अन्धों का हाथी समझते हैं और जनता इन लोगों को सफेद हाथी समझती है। व्यवस्था में कुछ हाथी रंग-रंगीले भी होेते हैं। कभी-कभी गरीब के घर में भी व्यवस्था का हाथी पूरी साज-सज्जा के साथ घुस जाता है और गरीब बेचारा टापरे के बाहर खड़ा होकर हाथी को टापता रह जाता है।
इस समय नेताजी के कक्ष में उपस्थित बुद्धिजीवी एक-दूसरे को नीचा दिखाने के महान प्रयास में प्रयासरत है। चिन्तक नेताजी को अपनी और खींच रहा था तो कवि नेताजी को कविता के नये सोपानों में उलझाये रखना चाहता था। पत्रकार कल लगने वाली लीड खबर की चिन्ता में मगन था। चिन्तक बोला।
‘सर विपक्षी का वक्तव्य तो एकदम लच्र और कमजोर था।'
‘हूं।' नेता उवाच।'
दूसरा चिंतक कैसे पीछे रहता।'
‘सर ये वक्तत्य तो गैर जिम्मेदाराना था।'
‘हूं।' नेता उवाच।'
लेकिन सर आपका स्टेटमेंट मिल जाये तो कल लीड़ लगा दूं। पत्रकार कम सम्पादक कम अखबार मालिक बोल पड़े।
‘हूं।' नेता उवाच।
इस हूं...हूं को सुनकर तीनों बुद्धिजीवी थक गये थे। मगर क्या करते।
‘देखिये सर।' कवि बोल पड़ा जो स्वयं को राजकवि राष्ट्रकवि और अन्तरराष्ट्रीय कवि समझता था आगे बोला।
‘कविता समाज में समरसता पैदा करती है। वो एक बेहतर इंसान बनाती है।'
‘ठीक है कवि महाराज मगर ये जो हास्यास्पदरस की कविता, तुम गाते हो उसे आलोचक क्यों नही पहचानते।' सम्पादक बोल पड़े।
कवि को यह अनुचित लगा। मगर सम्पादक से वैर मौल लेने पर कविता का प्रकाशन बन्द हो जाता। सो चुप रहे। वे मन ही मन कविता करने लगे।
‘लेकिन कविता से चुनाव नहीं जीता जा सकता। विकास, भारत उदय, इण्डिया शाहिनिंग, चार कदम सूरज की और जैसा चिन्तन चाहिये।'
‘इस खण्ड-खण्ड विकास के पाखण्ड पर्व से क्या होता है।' जनता की नब्ज की पहचान जरूरी है। सम्पादक-पत्रकार फिर बोल पडे।
अब नेताजी ने अपना मौन तोड़ा।
‘तुम लोग अपना-अपना काम करो। चुनाव की चिन्ता छोड़ो। वो मेरे पर छोड़ो। मैं जानता हूं चुनाव कैसे, कब जीता जा सकता है। चुनाव आयेंगे तो देखेंगे।
चिन्तक कम बुद्धिजीवी, कविकर्म में निष्णात अन्तरराष्ट्रीय कवि और सम्पादक-मालिक-विशेष संवाददाता-पत्रकार सभी ने मंत्री जी की ध्वनि को पत्थर की लकीर मान लिया।
ठीक इसी समय मंच पर सुकवि कुलदीपकजी अवतरित भये। वे जानते थे कि आजकल नेपथ्य में संभावनाएं ज्यादा है और मंच पर कम।
व्ो आते ही नेताजी के चरणों में लौट गये और बोले...।
‘इस बार तो अकादमी पुरस्कार दिलवा दीजिये भगवन।'
नेताजी फिर चुप रहे। राष्ट्रकवि ने क्रोधित नजरों से कुलदीपक को देखा।
सम्पादकजी शून्य में देखने लग गये। चिन्तक ने चिन्ता करना शुरू कर दिया। नेताजी बोले।
‘तुम्हें और अकादमी पुरस्कार। बाकी सब मर गये है क्या।'
‘मरे तो नहीं, मगर मुझे पुरस्कार मिलते ही मर जायेंगे।'
तो इन हत्याओं का पाप मैं अपने सिर पर क्यों लूं?
‘वो इसलिए सर कि इस बार प्राथमिक चयन में मेरी पुस्तक ही आपके हल्के से आई है।
‘अकादमी का अध्यक्ष आपके खेत्र तथा जाति का है।'
‘हां वो तो है, मैनें ही उसे बनवाया है।'
‘फिर झगड़ा किस बात का है सर। मुझे केवल पुरस्कार चाहिये। पुरस्कार राशि मैं आपके श्री चरणों में सादर समर्पित कर दूंगा।'
‘और निर्णायकों का क्या होगा ?'
‘उनके सायंकालीन आचमन की व्यवस्था भी मैं ही कर दूंगा।'
‘फिर तुम्हारे पास क्या बचेगा।'
‘मुझे पुरस्कार का प्रमाण-पत्र , माला और शाल मिल जायेगी। जो पर्याप्त है। वैसे भी एक बड़े फाउण्डेशन का पुरस्कार कवि तथा निर्णायकों मे बराबर-बराबर बंट गया था।
यह सुनकर राष्ट्रकवि नाराज होकर चले गये। चिन्तक ने मौन साध लिया और नेताजी ने सब तरफ देखकर कुलदीपक की सिफारिश कर दी। समय पर कुलदीपकजी को पुरस्कार मिला। पुरस्कार राशि नेताजी को मिली। अकादमी अध्यक्ष को समय-वृद्धि मिली। चिन्तक अकादमी के सदस्य हो गये। कवि फिर कवियाने लगे। चिड़ियाएं चहकने लगी। कौए गाने लगे और कोयलों ने मौन साध ली।
नेताजी ने अपान वायु का विसर्जन प्राणवायु में किया। प्रातःकालीन समीर ने इसे सहर्ष स्वीकारा। आज नेताजी परम प्रसन्न मुद्रा में अपने दीवाने-आम में खास तरह से विराजे हुए थे, अर्थात् मात्र लुंगी और बनियान की राष्ट्रीय पौशाक में सौफे पर पड़े थे। रात्रिकालीन विभिन्न चर्याओं के कारण वे अभी भी अलसा रहे थे, अपने विश्वस्त नौकर के माध्यम से उन्होंने अपने पुराने, चहेते मालिशिये रामू को बुलवा भेजा था। रामू नेताजी का मुंह लगा मालिशिया था, उसे अपनी औकात का पता था और नेताजी के विभिन्न राजो का भी पता था। नेताजी उसे प्यार भी करते थे, घृणा भी करते थे और उससे डरते भी थे। मगर ये किस्सा बाद में। सर्वप्रथम आप नेताजी के मानस में प्रस्फुटित हो रहे विभिन्न विचारों से दो-चार होईये।
नेताजी को आज जाने क्यों वे पुरानी यादें याद हो आई। अकाल हो तो अकालोत्सव, बाढ़ हो तो बाढ़ोत्सव, भूकम्प आये तो भूकम्पोत्सव, विकास के नाम पर विकासोत्सव, सुनामी आये तो सुनाम्योत्सव। उत्सव ही उत्सव। भूख के नाम पर भूखोत्सव तो रोजाना ही चलता है। कितने मजे है। पिछली बार इलाके में बाढ़ आई तो मुख्यमंत्री के हेलीकोप्टर में वे भी साथ थे। चारों तरफ पानी...सैलाब...पानी और पानी।
भूखी प्यासी गरीब जनता हेलीकोप्टर को निहार रही थी। उन्हें दया आई और कुछ ब्रेड के पैकेटस नीचे गिरा दिये। चील-कोवों की तरह जनता उन पैकेटों पर टूट पड़ी। छीना-छपटी हुई। एकाध कुचला गया। जो पा गये वे घर की और दौड़ पड़े। जिन्हें नहीं मिली वो उनके पीछे दौड़ पड़े। एक ऐसा दृश्य जो उन्हें आनन्दित कर गया। उन्होंने मुख्यमंत्री की और देखा और मुस्करा दिये। बाढ़ में ही वे अपने अफसरों के साथ दौरा करते हैं। दौरे में भी अनन्त आनन्द आता है। पत्नी, बच्चों की भी पिकनिक हो जाती है। पिछली बार अकाल के दौरान ऐसे ही एक पिकनिक में जानवरों की हडि्डयों के ढेर के पास किया गया केम्प फायर डिनर उन्हें अभी भी याद है। इस डिनर की तस्वीरें भी अखबारों में छपी थी। मगर उससे क्या ?
बाढ हो या अकाल या सुनामी, गरीब का चेहरा एक जैसा होता है। सच पूछा जाये तो गरीबी का एक निश्चित आकार, एक निश्चित मुखौटा होता है, जिसे हर गरीब हर समय पहने रहता है। पिछली बार की घटना उन्हें फिर याद आई। वे बाढ़गस्त खेत्रों का जमीनी दौरा कर रहे थे।
एक गांव के किनारे एक गरीब विधवा अपनी इकलौती बच्ची के भोजन के लिए अपनी अस्मत का सौदा कर रही थी। वे क्या कर सकते थे। इस देश में लाखों औरतें रोज इसी तरह मर-मर कर जीती है। सच में वे कुछ भी करने में असमर्थ थे। दौरे किये, अफसरों ने टी.ए. बिल बनाये, अनुदान लिये, कमीशन लिया-दिया। बस हो गई अकाल राहत सेवा। बाढ़ पीडित सेवा। सबकुछ-कुछ दिनों में सामान्य हो जाता है। इस गरीब भोली-भाली जनता की स्मरण शक्ति कितनी कमजोर है। उन्होंने सोचा ये लोग शंखपुष्पी या स्मरणशक्ति के लिए दवा क्यों नहीं खाते। सोचते-सोचते नेताजी उनीन्दे से हो गये। ये रामू अभी तक मरा क्यों नहीं।
तभी रामू आया। नेताजी ने उसे आग्नेय नेत्रों से घूरा। रामू सहम गया। चुपचाप अपने काम में लग गया। उसने मालिश का तेल गरम किया। उसमेंं कुछ दिव्य-भव्य औषाधियां मिलाई। नेताजी के लिए एक चादर बिछाई। नेताजी लेटे। उसने नेताजी के पांव-हांथ-छाती-पीठ-सिर-गर्दन-कन्धे-टखने-अंगुलिया आदि पर धीरे-धीरे मालिश शुरू की। गरम तेल से नेताजी को मजा आने लगा। शरीर में कुछ देर स्फूर्ति का संचार होने लगा। नेताजी...रामू...संवाद कुछ इस प्रकार शुरू हुआ।
‘नेताजी'- और क्यों बे रामू शहर के क्या हाल है....।
‘रामू-शहर की कुछ न पूछो बाबूजी। सब सत्ताधारी पार्टी से खार गये बैठे है। '
नेताजी-क्यो। क्यों ?
रामू-अब का बताये बाबूजी, सर्वत्र अनाचार, अराजकता हो कोई भी काम बिना सुविधा शुल्क के नहीं होता है।
नेताजी-अब काम कराने में शर्म नहीं तो सुविधा शुल्क देने में कैसी शर्म।
रामू-सवाल सुविधा शुल्क का नहीं। उसकी मात्रा और प्रकार का है।
रामू ने जांघों पर तेजी से हाथ मारते हुए कहा। इस तेजी के कारण रामू का हाथ नेताजी के अण्डरवियर में दूर तक चला गया था। नेताजी चिल्लाना चाहते थे, मगर चुप रहे। कुछ देर के मौन के बाद रामू फिर बोला।
‘बाबूजी आजकल उत्कोच के बाजार में उत्कोच के नये-नये तरीके विकसित हो गये है।'
नेताजी ‘वो क्या।'
‘बाबूजी उत्कोच भेंट में आजकल केश से ज्यादा काइण्ड चल रहा है। नकदी में फंसने का डर है। अतः उत्कोच में कार्य को सम्पन्न करने वाला, बार गर्ल, शराब, डिनर, डिस्को के टिकट, विदेश यात्रा, मनोरंजन आदि की मांग करता है जैसा काम वैसा दाम।'
नेताजी ‘वो तो ठीक है। काम के दाम है और गरीबों की बस्ती के क्या हाल है?'
रामू ‘गरीबों के क्या हाल और क्या चाल। बेचारा झोपड़पट्टी में जन्मता है ओर झोपड़ीपट्टी में ही मर जाता है।'
नेताजी ‘उसे तो मरना ही है। भूख से नहीं मरेगा तो किसी ट्रक के नीचे आकर मरेगा। ये तो साले पैदा ही मरने के लिए होते हैं।'
रामू ‘मरना तो सबको है बाबूजी।' यह कहकर रामू ने सिर की चम्पी शुरू की। नेताजी को मजा आने लगा। रामू की चम्पी के साथ वे भी सिर हिलाने लगे। मालिश का प्रातःकालीन सत्र पूरा हुआ। नेताजी नहाने चले गये।
नेताजी नहा धोकर बाहर निकले तो दीवाने-आम में विशाल और माधुरी को प्रतीक्षारत पाया। आज माधुरी किसी अप्सरा की सी सजी-धजी थी। नेताजी समझ गये आज कोई विशेष समस्या है और समाधान भी विशेष ही करना होगा। माधुरी की मीठी मुस्कान और विशाल के चरण स्पर्श से नेताजी मुलकने लगे। थिरकने लगे।
माधुरी ने चरणों में स्पर्श किया तो नेताजी ने उसकी पीठ पर इस तरह आर्शीवाद स्वरूप हाथ रखा कि अंगुलियां सीधी जा के ब्रा के हुक पर पड़ी। माधुरी ने कटाक्ष किया, मगर नेताजी ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। मालिशिये के जाने के बाद यह अवसर नेताजी के लिए आनन्द लेकर आया था।
विशाल बोल पड़ा।
‘सर। दफ्तर तो खुल गया है मगर अभी तक बैंक से काम-काज शुरू नहीं हो सका है।'
‘वो कैसे होगा, तुमने जो चैक किसानों को दिये थे वे वापस हो गये है।'
विशाल चुप रहा। माधुरी बोली।
‘चैक सिकर सकते हैं यदि जमीन पर कब्जा मिल जाये।'
‘कब्जा मिल सकता है, यदि चैक सिकर जाये।' नेताजी ने उसी भाषा में जवाब दिया।
माधुरी चुप रह गई। अभी भी उसकी पीठ में चीटियां रेंग रही थी।
विशाल बोल पड़ा।
‘सर कुछ किसान नेताओं को आप सुलटाये। बाकी मंै देख लूंगा।'
‘लेकिन उस टाऊनशिप वाली जमीन के पास वाली जमीन जो तुम्हारे ससुराल की है उसका क्या?'
‘सर। उस जमीन के मालिकाना हक बेनामी है। सास के पास कागज है, ससुर की मृत्यु के बाद सब कुछ गड़बड़ा गया है।'
‘तो उस जमीन को भी इसमें जोड़कर काम शुरू कर दो। काम शुरू होते ही किसान भी अपनी जमीन दे देंगे।'
‘लेकिन वे काफी ज्यादा मांग कर रहे हंै।'
‘मांग तो आपूर्ति पर आधारित है और तुम जानते हो जमीन का उत्पादन नहीं किया जा सकता। उसे रबर की तरह खींचकर बढ़ाया भी नहीं जा सकता।'
‘वो तो ठीक है सर...।' विशाल चुप हो गया।
‘ऐसा करो विशाल तुम सास को पार्टनर बनाकर अवाप्त भूमि पर काम शुरू कर दो। सेम्पल फ्लेट बनाओ। फ्लेटों की बुकिंग कर लो। जो पैसा आये उससे किसानों को संतुष्ट करो। मैं भी सरकार में तुम्हारे लिए केबिनेट में लडूंगा।'
‘और मेरे विश्वविद्यालय की जमीन का क्या होगा।' माधुरी बोली।
‘वो भी मिलेगी। पहले पूरी जमीन तो मिल जाये।'
‘सर एक और आईडिया है। काफी वर्षों से शहर की झील का हिस्सा सूखा पड़ा है, इसे रिसोर्ट के रूप में विकसित कराया जा सकता है। मैंने प्रस्तुतिकरण तैयार कर लिया है।'
‘लेकिन सरकार इस झील को नहीं देगी।'
‘सर आप चाहे तो...।' विशाल बोला।
‘झील वैसे भी बेकार पड़ी है, पशु-पक्षी आते हैं और कुछ देखने वाले बस। वर्षा होती नहीं, झील भरती नहीं। ऐसी स्थिति में झील के एक किनारे पर दीवार बनाकर झील को रिसोर्ट बनाया जा सकता है।'
‘मैं तो केवल लीज पर लूंगा। बाकि स्वामित्व तो सरकार का ही रहेगा।'
‘बात तो ठीक है मगर ये मीडिया वाले। ये एन.जी.ओ वाले। ये सूचना के अधिकार वाले। सब हाथ-मुंंह धोकर हमारे पीछे पड़ जायेंगे।'
‘अब इस डर से काम तो बन्द नहीं कर सकते। आप निर्देश दे तो मैं प्रस्तुतीकरण के लिए विकास प्राधिकरण मे बात करूं।'
‘ये काम कौन देखता है।'
‘कमिश्नर साहब।'
‘वो तो ईमानदार है।'
‘ईमानदार इतने ही है कि पैसे के खुद हाथ नहीं लगाते। इस रिसोर्ट मैं उनका भी हिस्सा रहेगा।'
‘मतलब तुम सब तय कर चुके हो।'
विशाल चुप रहा मगर उसकी आंखों ने सब कुछ धूर्तता के साथ कह दिया। शहर के एक हिस्से में विशाल की टाउनशिप और दूसरे छोर पर रिसोर्ट। पूरब से पश्चिम तक सब मंगल ही मंगल।
नेताजी खुश। माधुरी खुश। विशाल खुश। किसान नेता खुश।
छोटा किसान दुःखी। पक्षी दुःखी। झील दुःखी। पक्षी-पे्रमी दुःखी। इस दुःख में आप भी दुःखी होईये।
X X X
अविनाश, यशोधरा, कुलदीपक और झपकलाल चारों नव वर्ष की पूर्व संध्या पर कस्बे की झील के किनारे रात्रि में टहलने का उपक्रम कर रहे थे, वे चारों जीवन के अन्धियारे में भटक रहे थे। अविनाश को स्थायी काम की तलाश थी मगर अपनी शर्तों पर। यशोधरा बच्चे के बड़े होने के बाद खाली थी और इस खालीपन को भरने तथा गृहस्थी की गाड़ी को खींचने में मदद देना चाहती थी। मगर गाड़ी थी कि खिंचती ही नहीं थी। मिट्टी की इस गाड़ी को स्वर्णाभूषणों से लादने की तमन्ना थी यशोधराकी। कुलदीपक बापू की मृत्यु के बाद पारिवारिक पेंशन तथा पुश्तेनी मकान के सहारे कविता के मलखम्भ पर चढ़ते उतरते रहते थे। कभी एक पांव चढ़ते तो कोई आलोचक या सम-सामायिक कवि उन्हें नीचे खींच लेता। अक्सर कुलदीपक सोचता कि जो असफल रह जाते हैं उनका सीधा और बड़ा काम यही रह जाता है कि सफल व्यक्ति की धोती खोले। उसकी लंगोट खोलो। उसकी चड्डी उतारो। उसे ऐसी लंगड़ी-टंगडी मारो कि सीधा नीचे गिरे और यदि ज्यादा ऊंचाई से गिरे तो मजा आ जाये। झपकलाल कस्बे के स्थायी बेरोजगार थे और इस मण्डली में वे एक स्वीकृत विदूषक की हैसियत रखते थे। खाने-कमाने की चिन्ता उन्होंने कभी नहीं की क्योंकि कछ करने में धीरे-धीरे पास होने के बजाय फेल होने का खतरा ज्यादा था।
झील शान्त थी। कस्बों में दूर नववर्ष की धिगांमस्ती चहक रही थी। कस्बें में बारों में, होटलों में, रिर्सोटों में, फार्म हाऊसों में और ऐसे तमाम स्थानों पर वह सब हो रहा था, जिसके लिए नया साल कुख्यात या विख्यात था। इन चारों के पास साधनों का अभाव था। अतः झील के किनारे बैठकर नववर्ष का स्वागत करना चाहते थे, मगर नववर्ष को इनकी चिन्ता नहीं थी, वो अपनी गति से चपला लक्ष्मी की तरह भागा जा रहा था।
यशोधरा बोल पड़ी।
‘देखो नई पीढ़ी कहां से कहां जा रही है ? हमारी संस्कृति। हमारी सभ्यता। हामरी परम्परा। हमारे सामाजिक सरोकार।'
‘ये सब बेकार की बातें है। संस्कृति को ओढ़ो, बिछाओं। परम्पराओं का ढोल मत पीटो। कुलदीपक बोला।'
‘मगर क्या हम भी अपने जीवन को ऐसे ही नहीं जी सकते या नहीं जीना चाहते।' झपकलाल बोला।
‘चाहने से क्या होता है ? मनुष्य बहुत कुछ चाहता है, मगर ईश्वर कुछ और चाहता है।' अविनाश बोले।
‘ईश्वर को बीच में क्यों पटकते हो ? वो तो सभी का भला चाहता है।' यशोधरा बोली।
‘अगर ईश्वर सभी का भला चाहता है तो हमने ईश्वर का क्या बिगाड़ा है।' झपकलाल बोल पड़ा।
‘सवाल ये नहीं कि आपने ईश्वर का क्या बिगाड़ा है। सवाल ये कि आप स्वयं अपने लिए क्या कर रहे है ? समाज के लिए क्या करे हैं ? देश के लिए क्या कर रहे है? अविनाश उवाचा।
‘अब यार, ये आदर्श और प्रवचन तो तुम रहने ही दो।' उपदेश के तथा आदर्शों के लिए इस देश में इतने भगवान, साधु, सन्त, महात्मा, योगाचार्यजी, ऋषि, मुनि है कि अब और ज्यादा आवश्यकता नहीं है।' यशोधरा बोल पड़ी।
और इतने लोगो के बावजूद भी समाज में भय, आतंक, डर, बदमाशियां बढ़ती ही जा रही है। रूकने का नाम ही नहीं लेती। इनमें जातिवाद, साम्प्रदायिकता और कट्टरवाद के जहर और मिला दो। झपकलाल ने जोड़ा।
‘इतने भगवान। मगर शान्ति नहीं । है भगवान, कितने भगवान।' अविनाश बोला।
झील में कहीं से एक कंकड़ गिरा। लंहरे उठी। एक जलपक्षी चीखता हुआ उड़ गया। रात गहरा रही थी। बच्चा यशोधरा के कंधे पर ही सो गया था।
वे चारों झील के किनारे बनी बेंच पर बैठ गये। बातचीत मुड़कर राजनीति की तरफ आ गयी।
‘साठ वर्षों के प्रजातन्त्र ने हमें क्या दिया।'
‘लेकिन प्रजातन्त्र ने आपसे लिया भी क्या?'
‘हर तरफ असुरक्षा, आतंक, अविश्वास, आर्थिक साम्राज्यवाद आदि का बोलबाला।' ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार।
‘ठीक है सब, मगर आलोचना का यह अधिकार भी तो प्रजातन्त्र की ही देन है। यदि प्रजातन्त्र नहीं होता तो क्या हमें बोलने, लिखने और पढ़ने की आजादी होती।' कुलदीपक बोला।
'स्वतन्त्रता का मतलब स्वच्छन्दता तो नही होता है।' अविनाश फिर बोला।
‘प्यारे ये क्रान्ति भूखे पेट ही अच्छी लगती है। जब तुम्हारा पेट भरा हो तो उबकाई आती है, उल्टी होती है। व्यवस्था पर वमन करते हो और शत्तुरमुर्ग की तरह रेत में सिर छुपा कर तूफान के गुजर जाने का इन्तजार करते हो।
कोई कुछ नहीं बोला।
सन्नाटा बोलता रहा।
झिगुंर बोलते रहे।
मकड़ियों ने संगीत के सुर छेड़े।
रात थोड़े और गहराई।
यशोधरा बोली।
‘आज मेरी काम वाली ने बताया कि कल और परसों की छुट्टी करेंगी। जब पूछा क्यों तो बताया नया साल है, मैं...मेरे मां-बाप और भाई-बहन सब नया साल मनायेंगे। छुट्टी लेंगे। शहर घूमेंगे, बाहर खाना खायेंगे। और लगातार दो दिन यही करेंगे।'
‘तो इसमें नया क्या है।' झपकलाल बोला।
‘उन्हें भी अपना जीवन जीने का हक है।'
‘जीवन जीने का हक !'
‘क्या तो वे और क्या उनका जीवन।'
‘फिर एक नई कविता लिखना चाहता हूं बात बन नही रही।'
‘जब बात बन नही रही तो क्यों लिखना चाहते हो।' यशोधरा ने टोका।
‘लिखे बिना रहा नहीं जाता।' कुलदीपक बोला।
‘ठीक है लिखना, मगर सुनाना मत। सुनने का बिलकुल मूड़ नही है।' झपकलाल भी बोला।
कुलदीपक मन-मसोसता रहा।
रात फिर बीती। बारह बजे का घन्टा निनाद हुआ। पूरे शहर में पटाखों का दौर शुरू हुआ। कारों, स्कूटरों, मोटर-साइकिलों पर युवा वर्ग निकल पड़ा। हैप्पी न्यू ईयर। चिल्लाने वाली भीड़ झील के किनारों पर बढ़ने लगी। वे चारों बस्ती की तरह चल पड़े।
बच्चा नींद में कुनमुनाया माने कह रहा हो।
‘हैप्पी न्यू ईयर।'
X X X
नव वर्ष के उत्सव का उत्साह, उमंग, उल्लास का रंग या हुड़दंग का असर। कस्बे के एक हिस्से में स्थित होटल से रात को बाहर निकल रही कुछ युवतियों तथा उनके मित्रों को भीड़ ने घेर लिया। उत्सव का आक्रामक असर इस हद तक रहा कि कोई कुछ समझे तब तक भीड़ ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया। मद्यपान के बाद की उत्तेजना, युवतियों का भीड़ में गिर जाना। अर्द्धरात्रि पश्चात का समय। सब कुछ एक असभ्य, लज्जाजनक स्थिति के लिए पर्याप्त। युवतियां संख्या में ज्यादा नहीं थी, मगर उनके मित्रों को भीड़ ने दबोच लिया। पटक दिया। मारा। वे कुछ करते तब तक भीड़ ने युवतियों के कपड़े फाड़ दिये। नोंचा, खसोंटा, बदतमीजी से बातें की, अनर्गल प्रलाप किया। भीड़ थी सो कोई क्या कर सकता था। नव वर्ष की इस उपसंस्कृति में टी.वी. की अधनंगी संस्कृति मिल गई थी। गाली गलोच अश्लील हरकत है।
दो युवतियों तथा उनके मित्रों ने थोड़ी हिम्मत दिखाई। मोबाइल से भीड़ के फोटों ले लिये। पुलिस को बुलाया गया। धीरे-धीरे पुलिस भी आई। समय की खुमारी के साथ पुलिस ने दोनों युवतियों और उनके मित्रों को थाने में बुलाया। भीड़ से भी दो-चार चेहरे लिए और अपनी घिसीपिटी रफ्तार से कार्रवाही शुरू की।
‘हां तो मेडमजी ये बताओ कि तुम आधी रात को होटल में क्या कर रही थी।'
युवती बेचारी सकपकाई, मगर फिर हिम्मत बांधकर बोली।
‘सर मैं अपनी सहेली और मित्र के साथ पार्टी कर रही थी।'
‘पार्टी। हूं। पार्टी ? तुम्हें यही समय मिला पार्टी का।'
‘मगर इसमें गलत क्या था।' पुरूष मित्र बोला।
‘तू चुप रह। मैं तेरे से पूछूं तब बोलना।' बेचारा युवक सकपका गया।
पुलिस ने अपनी कार्यवाही जारी रखी।
‘हां तो तुम वहां पार्टी कर रहे थे। अब पार्टी थी तो शराब भी पी होगी।'
‘नहीं जी हम दोनों ने तो नहीं ली।' युवती फिर बोली।
‘और तुम्हारे साथियों ने।'
‘हां वे ले चुके थे।'
‘तो मेडमजी तुम्हारे साथी नशे में थे। भीड़ को अंट-शंट बक रहे थे, ऐसी स्थिति में भीड़ क्या करती।'
‘क्या करती। बोलो मेडमजी।' पुलिस अफसर चिल्लाया।
बेचारी लड़किया फिर डर गई।
‘तो मेडमजी ऐसी मस्ती के माहौल में भीड़ ने जो कुछ भी किया ठीक ही किया है। मेरी सलाह है कि इस मामले को रफा-दफा समझो। घर जाओ और आगे से आधी रात की पार्टी घर पर ही कर लिया करो।'
युवक कसमसा रहा था। मगर पुलिस के सामने क्या कर लेता। ऐसी स्थिति में नव घनाढ्यों को दो-चार होना ही नहीं पड़ता है। फिर भी हिम्मत कर बोला।
‘मगर आप हमारी रिपोर्ट तो लिखिये।'
‘रिपोर्ट। दिमाग खराब हो गया है तेरा। ऐसी छोटी-मोटी बातें तो होती ही रहती है और अगर तेरे में हिम्मत थी, मर्द था, तो लड़ मरता भीड़ से। फिर बनता केस तो। इस छेड़छाड़ का कोई केस नहीं बनता।'
‘लेकिन मीडिया वालों ने कुछ फोटो ले लिये है।' दूसरा युवक बोला।
‘अरे छोड़ इस मीडिया-शिडिया को।'
‘घर जा। आराम से सो।' अफसर ने फिर समझाया।
मगर युवती अड़ गई। मीडिया का हवाला। पुलिस ने रिपोर्ट लिखी। अज्ञात लोगों के खिलाफ। पुलिस ने रिपोर्ट कर्ताओं को भी शराब के नशे में होना बताया। रोजनामचे की रिपोर्ट के आधार पर भीड़ से कुछ लोग पकड़े भी गये।
अखबारों में, टी.वी. चैनलों में खूब रंग जमा। मंत्रीजी ने स्पष्ट कह दिया। ऐसे हादसे तो होते ही रहते हैं। हर जगह सुरक्षा संभव नहीं। बेचारे क्या करते।
थाना तो थाना। वो भी पुलिस थाना। एक को मारते तो दस डरते। दस को गरियाते तो पचास को लतियाते। युवाओं का नव वर्ष का नशा उतर चुका था। वे पुलिस थाने से बाहर आये। लेकिन नव वर्ष एक टीस दिल में हमेशा के लिए छोड़ गया। पुलिस के भरोसे किसी को भी नहीं रहना चाहिये, यही सोचकर रह गये।
व्ौसे पुलिस और कोर्ट में छेड़छाड़, बलात्कार आदि के मामलों में, जो जिरह होती है, जिस मानसिक यंत्रणा से गुजरना पड़ता है उसका ऐसा भयावह चित्र अफसर ने खींचा की बस मत पूछो। लिखते रूहे कांपती है। चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते।
इस बीच नववर्ष का आगाज शहर के एक घर में आंसुओं से हुआ। रात को तेज गाड़ी चलाते युवक गाड़ी सहित झील में डूब गये। पांच की जल समाधि हो गई।
ये सब कैसे हो रहा है ? क्यों हो रहा है कि चिंता, किसी को नहीं, सब कुछ अविश्वसनीय, मगर सच। कोरा सच।
समाज में सब कुछ क्या इसी तरह चलता रहेगा ? क्या आमोद, प्रमोद के नाम पर बलियां होती रहेगी। नई पीढ़ी के पास क्या यही सब है और कुछ नहीं, एक युवक ने कहा भी था। आज को जी लो। मना लो। ऐश कर लो। कल हो ना हो। कल किसने देखा है ?
X X X
कस्बे का बाजार। अभी सन्नाटा है। सुबह हुई नहीं है। पो फटने वाली है। अखबार वाले, दूध वाले, काम वाली बाईयों ने आना-जाना शुरू कर दिया है। अन्धेरा अभी पूरी तरह दूर नहीं हुआ है। भगवान भास्कर ने अपने साम्राज्य का विस्तार अभी शुरू नहीं किया है।
ब्राह्म मुहूर्त कभी का हो चुका है। पुरानी पीढ़ी के बूढ़े, खूसंट, बुजुर्ग खांस-खंास कर वातावरण को हल्का कर रहे है। नई पीढ़ी रात की खुमारी में सो रही है।
सुबह होने की खबर के साथ ही बाजार में सोये पड़े कुत्ते इधर-उधर मुंह मारने लग गये है। कुत्तों की सामूहिक सभा रात को ही चुनावी सभा के बाद सम्पन्न हो चुकी है। इस सामूहिक सभा के पश्चात झबरे कुत्ते ने सभी को सावधान कर दिया था, चुनावों में कभी भी हिंसा हो सकती है। कुत्तें अपनी हिफाजत स्वयं करें। सरकार, व्यवस्था, पुलिस, आर.ए.सी. सेना, कट्टर पंथियों, जातिवादी नेताओं के भरोसे न रहे क्योंकि इस प्रकार की चुनावी हिंसा चुनावों में एक हथियार के रूप में प्रयुक्त की जाती है। पूर्व के चुनावों में भी एक पूर्व प्रधानमंत्री की हत्या हो गई थी। पिछले दिनों ही पड़ोस के देश में चुनावी हिंसा ने अपना ताण्डव दिखलाया था। एक ओर पूर्व प्रधानमंत्री हिंसा का निशाना बन गई थी।
कस्बे के बाजार में धीरे-धीरे दुकानों खुलने लग गई थी। डर के बावजूद रोजमर्रा का कामकाज सामान्य चल रहा था। मजदूर, किसान, रोजाना की खरीद फरोख्त करने वाले छोटे व्यापारी धीरे-धीरे बाजार में आ रहे थे। सुबह-सुबह बोहनी बट्टा के इन्तजार में दुकानों पर व्यापारी बैठे थे। कुछ दुकानों पर व्यापारी सामान सजा रहे थे। कल्लू मोची भी बाजार में आ गया था। उसने अपने साथी झबरे को पुचकारा। प्रेम किया। झबरे ने स्नेह से पूंछ हिलाई।
ठीक इसी समय बाजार में दो लघु व्यापारियों ने एक-दूसरे के व्यापार में दखल देने के लिए एक-दूसरे की दुकान को गाली-गलोच से नवाजा। बात धीरे-धीरे बढ़ने लगी। राहगीरों को मजा आने लगा। एक राहगीर बोला।
‘ये तो रोज का झगड़ा है। आपस में लड़ते रहते हैं और ग्राहक को ढगने की कोशिश में लगे रहते हैं।'
‘हां भाई सब एक ही थ्ौली के चट्टे-बट्टे है।'
‘अब देखो साला कैसे गाली दे रहा है ?'
‘अरे गालियों और लड़ाई से व्यापार में बरकत होती है।'
‘लेकिन ये ससुरे चुप क्यों नहीं होते ?'
‘व्यापारी तभी चुप होता है जब ग्राहक दुकान पर चढ़ता है।'
‘तुम ठीक कहते हो।'
राहगीरों ने अपनी राह पकड़ी। कल्लू बोला।
‘साले नोटंकी करते रहते हैं।'
‘रोज नया नुक्कड़ नाटक। बस पात्र पुराने होते हैं।'
तक तक कुलदीपकजी ने भी सीन पर पर्दापण कर लिया था। वे उवाचे।
‘क्यों कल्लू क्या बात है ?'
‘बात नहीं है यही तो रोना है। ग्राहक की तलाश है। जब से कस्बे में मॉल खुला है। सब ग्राहक वहां जाते हंै। अब खरबपति मेवा फरोश की वातानुकूलित दुकान में जाने वाला ग्राहक यहां क्यों आयेगा ?'
‘वो तो ठीक है पर झ़गड़े का कारण ?'
‘कम पूंजी का व्यापारी ऐसे ही छाती कूटता रहता है बस।'
‘हूं।' कुलदीपकजी चुप हो गये।
सोचा। इस नई पूंजी वाली अर्थव्यवस्था से क्या छोटे व्यापारी, छोटे कामगार नष्ट हो जायेंगे। यदि ऐसा हुआ तो बहुत बुरा होगा।
कुलदीपक को चाय की तलब थी, उन्होंने कल्लू से कहकर तीन चाय मंगवाई।
एक खुद पी। एक कल्लू ने सुड़की और एक झबरे ने चाटी।
चायोत्सव के कारण कुलदीपक में कुछ ताजगी आई। उन्होंने एक भरपूर अंगडाई ली और बस स्टेण्ड का मुआईना करने निकल गये। बस स्टेण्ड अभी भी उनीन्दा सा था। उन्होंने बसों का पढ़ा। सवारियों को पढ़ा। महिला सवारियों का सूक्ष्म निरीक्षण किया। प्रतिदिन कौन देवी कौनसी बस से जाती है और कौनसी आयेगी आदि जानकारी का टाइमटेबल संशोधित किया। कुछ स्थानीय लोगों से दुआ सलाम की। मगर फिर भी अभी भी अकेलापन उन्हें काट रहा था, उन्होंने पास की बेंच पर आसन जमाया और एक कण्डक्टर तथा एक ड्राईवर से गप्प लगाना शुरू किया। ड्राईवर को आंख मारते हुए बोले।
‘भगवन। आज ड्यूटी बदल गई है क्या ?'
‘क्या करें जी, एक साहब की भुवाजी को लेने गांव तक बस दौड़ानी है। एक भी सवारी नहीं। मगर भुवाजी को लाना आवश्यक। रोड़वेज का घाटा भुवाजी के खाते में।' अब सरकारी अफसरों के यही मजे है। जब चाहे अपने रिश्तेदारों की मदद कर दें।
‘अफसरों के नही प्रजातन्त्र के मजे है सर।' कण्डकटर बोला। सिटी बजाई। ड्राईवर ने बस आगे बढ़ाई। खाली बस भुवाजी को लेने गई।
कुलदीपक ने कुछ देर इन्तजार किया। अपरिचितों की भीड़ में कहीं कोई नहीं दिखा। कुलदीपक फिर कल्लू के पास जाना चाहता था कि उसे अविनाश दिखाई दिया। अविनाश को भी साथी की तलाश थी।
अविनाश और कुलदीपक मिलकर शहर के इकलौते बाजार में भटकने लगे। भटकाव जिन्दगी के लिए आवश्यक है। मृत्यु में कोई भटकाव नहीं होता किसी शायर ने शायद ठीक ही लिखा है कि मौत तो महबूबा है साथ लेकर जायेगी और जिन्दगी बेवफा है। जिन्दगी की इस बेवफाई से कुलदीपक दुःखी थे। अविनाश इस छोटे कस्बे में दुःखी थे। दोनों की पत्नियां भी दुःखी थी। कुलदीपक ने आज अपने मन की बात अविनाश से करी।
‘यार क्या करूं, कुछ समझ में नहीं आता। मां के जाने के बाद घर अस्त-व्यस्त हो गया है। मंै परेशान हूं। कमाई का कोई जरिया नहीं है।'
‘यही हालत मेरे साथ है। हम दोनों मुफलिसी में दिन गुजार रहे है और देखो चारों तरफ लोग कमा-खा-अघा रहे है।
‘क्या करें। अपन तो शब्दों के व्यापारी है। शब्द बेचने के अलावा अपन को और कोई दूसरा काम नहीं आता है।'
‘यहीं तो मुसीबत है यार। काश हमें आलू-प्याज बेचना आता।'
‘जो कविता रूपया नहीं बन सकती । उस कविता का क्या करे, ओढ़े, बिछाये, चाटे।' आक्रोश पूर्ण स्वर में कुलदीपक चिल्लाया।
‘चिल्लाने से क्या होने जाने वाला है कोई जुगत करनी चाहिये। सुना है माधुरी मेम का स्कूल शीध्र ही निजि विश्वविद्यालय बनने वाला है।'
‘अरे। वाह। अपने कस्बे में युनिवरसिटी।'
‘अब तो हर गली, मोहल्ले में कॉलेज और विश्वविद्यालय खुलने का जमाना है।'
‘कोशिश करो यार कहीं घुस जाये।'
‘अब अपनी स्थिति से सब वाकिफ है। सब जानते हैं इस बिमारी को अपने यहां रखने से परेशानी बढ़ेगी।' अविनाश बोला।
‘लेकिन अपन कोशिश तो कर सकते हैं।'
झपकलाल भी काम की तलाश में भटक रहा है। वो बोला।
‘क्या करें।' अविनाश बोला।
‘अपन तीनों मिलकर नेताजी के दरबार में हाजिरी देते हैं। शायद बात बन जायें।'
अविनाश ने झपकलाल को भी बुलवा लिया। तीनों ने ग्रामीण रोजगार योजना बनाई और उसे साकार करने चल दिये।
नेताजी का दरबार सजा हुआ था। वे प्रातःकालीन कार्यक्रमों से निवृत्त होकर मालिश का आनन्द ले रहे थे। उनके स्थायी मालिशिये रामू के अलावा दरबार में माधुरी भी बैठी थी।
माधुरी अपने विश्वविद्यालय के सपने को साकार होते देख खुश थी। इस निजि विश्वविद्यालय में वही, सर्वेसर्वा होगी, इस कल्पना मात्र से उसे असीम आनन्द का अनुभव हो रहा था। वहीं कुलपति, वहीं कुलाधिपति, वहीं वित्तपोषक, वहीं रजिस्ट्रार, वहीं डीन और बाकी सब उसके अमचे-चमचे, दीन-हीन अध्यापक, कामचोर बाबू, जी हजूरी करते अफसर चारों तरफ बस वही-वही।
एक्ट पास कराने में उसे ज्यादा जोर नहीं आया। नेताजी की कृपा और काली लक्ष्मी के सफेद जूते से सब कुछ आसान हो गया था। जमीन उसने विशाल के टाऊनशिप में दाब ली थी। दाब ली थी इसलिए लिखा कि विशाल की मदद के लिए उसे कुछ तो मिलना ही था, उसने जमीन पर विश्वविद्यालय का शानदार बोर्ड बनवा कर टकवा दिया था। ‘माधुरी विश्वविद्यालय।'
माधुरी विचारों में मग्न थी, मंद-मंद मुस्करा रही थी कि कक्ष में अविनाश, कुलदीपक और झपकलाल अवतरित हुए।
माधुरी ने उन्हें देखकर भी अनदेखा कर दिया। सुबह-सुबह उसे कवाब में हडि्डया अच्छी नहीं लगी, मगर नेताजी को शायद वे लोग पसन्द थे। तीनों ने आकर नेताजी के श्रीचरणों में दण्डवत की। आज्ञा पाकर माधुरी जी को वन्दन प्रणाम किया। माधुरी को मुस्करा कर उचित प्रत्युत्तर देना पड़ा।
नेताजी उवाचे।
‘आज प्रातःकाल कवि, पत्रकारों ने कैसे गरीब खाना पवित्र किया ?'
अविनाश ने सोचा अगर ये गरीब खाना है तो ईश्वर ऐसी गरीबी सबको दें। प्रकट में बोला।
‘सर अब जीवन में सैटल होना चाहता हूं।'
‘तो हो जाओ सैटल कौन मना करता है। शादी हो ही चुकी है। बच्चा भी है। अब सैटल होने में क्या कसर बाकी है।'
‘सर मेरा मतलब था कोई स्थायी काम, नौकरी या धन्धा हम तीनों इसी आशा से आये है कि आप हमें इस निजि विश्वविद्यालय में सैट कर दें।'
अब माधुरी को खटका हुआ। यदि ये बीमारियां विश्वविद्यालय में घुस गई तो चल चुका विश्वविद्यालय। लेकिन वो चुप रही।
नेताजी ने बात संभाली।
‘भैया विश्वविद्यालय निजि है। सरकार का इसमें कुछ भी दखल नहीं है। ये तो स्वायत्तशासी संस्थान है।'
‘वो तो ठीक है पर आपका आर्शीवाद मिल जाये तो...।' कुलदीपक ने कहा।
‘और फिर आपकी कृपा से एक पुराने विश्वविद्यालय में एक बाबू लग गया था। कुछ समय बाद रजिस्ट्रार बन गया अभी तक राज कर रहा है।'
नेताजी ने जान बूझकार चुप्पी साध ली। वे जानते थे कि एक विश्वविद्यालय में उन्होंने एक बाबू को जन सम्पर्क के काम में लगाया और वो अपनी प्रतिभा के बल पर रजिस्ट्रार बन गया था। प्रजातन्त्र में यह सब चलता ही रहता है।
कुछ देर की चुप्पी के बाद नेताजी पुनः बोले।
‘भईयां अभी गांव बसा नहीं और भिखारी कटोरा लेकर आ गये।'
इस टिप्पणी से तीनों दुःखी तो हुए मगर अपमान को पीते हुए झपकलाल बोला।
‘सर पिछले चुनाव में मैंने एक साथ तीन बूथ छापे थे तभी आपकी सीट निकल पाई थी।'
‘ठीक है, उसका तुम्हें पूरा आर्थिक लाभ दे दिया गया था।'
झपकलाल क्या बोलता। चुप रहा।
कुलदीपक ने बात संभाली।
‘सर नई-नई युनिवर्सिटी है, सबके लिए जगह है।'
‘नहीं मेरे विश्वविद्यालय में होशियार, उच्च स्तर के विद्वान आयेंगे। कुलपति, रजिस्ट्रार सभी बहुत ऊंचे दर्जे के होंगे। चयन समिति सब तय करेंगी।'
‘ठीक है माधुरी जी, जब तक गठन हो ', ‘चयन समिति बने‘, ‘सिन्डीकेंट बनें ' तब तक कृपा करके इन लोगों को कहीं घुसा लें।'
‘नही सर। ऐसा करने से बदनामी होगी।'
‘काहे की बदनामी। तुम ऐसा करो कुलदीपक कवि है, इसे हिन्दी मेंं अस्थायी अध्यापक बना दो। अविनाश को जनसम्पर्क विभाग का काम दे दों और झपकलाल को अस्थायी बाबू बना दो। वेतन भी तुम ही तय करना।'
माधुरी क्या बोलती।
तो देखा आपने माधुरी विश्वविद्यालय में तीन व्यक्तियों का स्टाफ नियुक्त हो गया। माधुरी तो ख्ौर कुलपति बन ही चुकी है।
नेताजी ने मिटिंग समाप्त की। वे अन्दर चले गये। माधुरी ने तीनों को कुछ दिन बाद मिलने को कहा तब तक विश्वविद्यालय के लिए स्थान का भी प्रबन्ध करना था वैसे फिलहाल विश्वविद्यालय उसके स्कूल के पीछे के कमरों में शुरू कर दिया गया था। कुल चार का स्टाफ माधुरी, अविनाश, झपकलाल और कवि कुलदीपक।
आप सोच रहे होंगे कि लेखक शुक्लाजी और शुक्लाइन को भूल ही गया मगर वास्तव में ऐसा नहीं है। शुक्लाजी को भूला जा सकता है। मगर शुक्लाइन को कौन, कैसे भूल सकता है। वैसे भी शुक्लाजी के विकास में शुक्लाइन का योगदान अभूतपूर्व है। इसके अलावा शुक्लाइन की मदद ने बिना माधुरी विश्वविद्यालय की कथा अधूरी ही रह जायेगी। कथा की एक प्रमुख किरदार है शुक्लाइन।
ज्योंहि शुक्लाइन को पता चला कि माधुरी विश्वविद्यालय को जगह मिल गई है। कुछ अस्थायी नियुक्तियां भी हो गई है, तो वे तुरन्त शुक्लाजी को बोली।
‘कुछ ध्यान भी है तुम्हें या खाली प्रिन्सिपली कर-कर के ही महान बन रहे हो ?'
‘क्यों क्या हुआ।'
अरे माधुरी मैडम ने विश्वविद्यालय बना लिया है खुद कुलपति है और हिन्दी विभाग में कुलदीपक, जन सम्पर्क हेतु अविनाश को लगा दिया है।'
‘तो अपन तो इन पदों के लिए है भी नहीं।'
‘अरे पदों को मारो गोली। विश्वविद्यालय में घुसना ही महत्वपूर्ण है। हर विश्वविद्यालय वास्तव में ऐसा अभयारण्य होता है जहां पर हर कोई चर सकता है। सबै भूमि गोपाल की।'
‘लेकिन विश्वविद्यालयों में घुसना भी मुश्किल, वहां की राजनीति भी मुश्किल और निकलना तो और भी मुश्किल।'
‘अरे तो निकलना कौन चाहता है। रही बात राजनीति कि तो राजनीति कहां नहीं है। घर से लगाकर संसद तक हर तरफ राजनीति ही राजनीति है।'
‘तो अब क्या करें ?' शुक्लाजी ने परेशान होकर पूछा।
‘करना क्या है ?' चलो माधुरी के पास चलते हैं। हो सकेगा तो तुम रजिस्ट्रार या डीन एकेडेमिक और मैं हिन्दी की विभागाध्यक्ष।
‘क्या ये इतना आसान है।'
‘आखिर अपना दोनों का पुराना अनुभव कब काम आयेगा और नेताजी की मदद भी ली जा सकती है।'
‘लेकिन अपन जो शान्ति और सकून की जिन्दगी जी रहे है वो खत्म हो जायेगी।'
‘जिन्दगी जीने के लिए है और विश्वविद्यालय में तो मजे ही मजे। मौजां ही मौजां। याद है अपन जब विश्वविद्यालय में पढ़ते थे तो एक प्रोफेसर ने क्या लिखा था सरस्वती के मन्दिर में ध्वज भंग। कैसा मजा आया। पूरी यूनिवरसिटी हिल गई। सबकी जड़ें हिल गई। सबकी शान्ति भंग हो गई। चांसलर, वाईस चांसलर तक बगले झांकने लगे।
‘फिर वे प्रोफेसर निलम्बित हो गये।'
‘तो क्या उसके बाद बहाल होकर पूरी पेेंशन, पी.एफ लेकर घर गये।'
‘लेकिन अब ये सब करने को जी नहीं चाहता।'
‘इस श्मशानी वैराग्य को छोड़ो महाराज। उठो। धनुष बाण और कलम रूपी हथियार पकड़ों और सीधे माधुरी मेम के घर चलो। पड़ोसी के फैरे हो और घर के पूत कंवारें डोले। ये मैं नहीं होने दूंगी।'
‘तो फिर क्या करना है ?' शुक्लाजी बोले।
'करना क्या है ?' चलो।
दोनो सीधे माधुरी के बंगले पर हाजिर हो गये।
माधुरी पूजा-पाठ-कर्म-काण्ड-धर्म चर्चा से उठी थी। प्रसन्न थी। शुक्ला-दम्पत्ति (जो पति का दम निकाल दे उसे दम्पत्ति कहते हैं) को प्रतीक्षारत पाकर बोल पड़ी।
‘आज सुबह-सुबह कैसे। स्कूल का कार्य-व्यापार तो ठीक चल रहा है न।'
‘स्कूल का क्या है, शुक्लाजी ने सब ठीक से जमा दिया है।' शुक्लाइन बोली।
‘हां वो तो है शुक्लाजी स्कूल की जान है। और सुनाओ।' माधुरी बोल पड़ी।
‘मैडम ये हम क्या सुन रहे है ?'
‘विश्वविद्यालय में धड़ाधड़ नियुक्तियां हो रही है।'
‘धड़ाधड़ कहां, केवल तीन वो भी अस्थायी। बाकी तो सब एक्ट के अनुसार करना पड़ेगा।'
‘एक्ट तो बन गया है न।'
‘हां एक्ट तो बन गया मगर शासी निकाय, वित्त समिति, एक्जुकेटिव कमेटी, परीक्षा समिति कई काम होने है।'
‘ये सब काम तो होते रहेंगे मैडम। शुक्लाजी को भी अस्थायी रजिस्ट्रार बना दे तो ठीक रहेगा।' शुक्लाइन स्पष्ट बोल पड़ी।
माधुरी से कोई जवाब देते नहीं बन पड़ा। शुक्लाजी भी बोल पड़े।
‘आपको तो सब मालूम ही हंै।'
‘कहे तो नेताजी से फोन कराये, शुक्लाइन ने तिरछी नजर से माधुरी को देखते हुए कहा।
माधुरी क्या बोलती। हमाम मों सब नंगे। माधुरी-शुक्लाइन के आपसी रिश्ते वे दोनों ही बेहतर जानती थीं। माधुरी को शुक्लाइन के अहसान और मदद की याद थी। सो जल्दी में कुछ कह न सकी। मगर शुक्लाइन समझ गई। लोहा गरम है, केवल एक-दो चोट से बात बन जायेगी।
‘मैडम शुक्लाजी को कार्यवाहक रजिस्ट्रार बना दे।'
‘और शुक्लाइन को डीन-एकेडेमिक।'
‘नही सब एक ही घर के हो जायेंगे तो विश्वविद्यालय का भट्टा ही बैठ जायेगा।'
माधुरी ने आंखें तरेरी।
मगर शुक्ला दम्पत्ति कब मानने वाले थे।
बातचीत गलत दिशा में मुड़ सकती थी सो माधुरी पुनः बोली।
‘ऐसा करते हैं कि शुक्लाजी को अस्थायी रजिस्ट्रार एक तदर्थ समिति के माध्यम से बनवा देते हैं।'
‘श्रीमती शुक्ला का क्या ?' शुक्लाजी ने कठोरता से कहा। वे अपनी पत्नी की कुरबानी से परिचित थे।
‘और पूरी बात तो सुनो।'
‘क्या सुनंू। मैडम, पूरी जवानी आपके नाम कर दी। आपने मेरा क्या-क्या दुरूपयोग नही किया। कस्बे से राजधानी तक सब जगह...,' शुक्लाइन ने गुस्से में कहा। माधुरी विश्वविद्यालय के शुरूआत में ही ये सब नही चाहती थी अतः बोल पड़ी।
‘ठीक है, तुम्हें स्कूल का प्रिंसिपल बना देती हूं। फिलहाल कार्यवाहक बाद में समिति के द्वारा स्थायी भी करवा दूंगी।'
ये सौदेबाजी ठीक थी। माधुरी तथा शुक्ला दम्पत्ति ने खुशी-खुशी इस व्यापार को मंजूर कर लिया।
जाने से पहले माधुरी ने श्रीमती शुक्ला को एक तरफ ले जाकर कहा।
‘शाम को नेताजी से मिल लेना।'
शुक्लाइन ने हामीं भरी और शुक्लाजी को लेकर कक्ष से बाहर चली गई।
जहां कल्लू मोची बैठता है, उसी स्थान के पास एक छोटी दुकान में एक पुरानी चक्की की दुकान है। आजकल अनाज पिसवाने कौन आता है, मगर चक्की कस्बे के लोगों के लिए कभी-कभी आवश्यक हो जाती है। लोग चक्की पर आटा पिसवाने कम आते हैं क्योंकि अब आटा मिलों से थ्ौलियों में बंद होकर मॉलों में बिकता है। आटे के स्थान पर लोग दलियां, बेसन, थूली, मिर्च-मसालें पिसवाने आते हैं। पहले कभी चक्की इंजन से चलती थी, तब उसकी आवाज दूरदराज तक गूंजती थी और गांवों से लोग-बाग पिसाई कराने आते थे, मगर बिजली की मार। इंजन बंद हुए। बिजली आई। चक्की चले तो तभी जब बिजली आये। बिजली कब आये। कब जाये। कौन बताये। चक्की मालिक ने धंधे में मंदी देख चक्की अपने ही नौकर को लीज पर दे दी। नौकर भी पूरा चालू। बिजली का बिल ही समय पर नहीं जमा करा पाता। केवल ये लाभ कि जो लोग शाम तक अपनी पिसाई नहीं ले जाये उसके पीपे से एक-आधा किलो आटा लेकर रोटी बना ले। खा ले। चक्की का किवाड़ बन्द कर वहीं सो जाये। सुबह कल्लू के पास वाले नाले पर फारिग हो ले और चक्की की झाड़ पोंछ करके अगरबत्ती जला दे। वापस बैठकर ग्राहकों का इन्तजार कर ले। बिजली आ जाये तो पीस दे नहीं तो पुराना फिल्मी अखबार पढ़े।
सुबह का वक्त। बिजली गुल। एक ग्राहक आया। उसे अभी आटा चाहिये। चक्की वाला इस पहले ग्राहक को जाने नहीं देना चाहता सो बोला।
‘भाईजान। चाहो तो अपना दागीना रख जाओ। लाइट आने पर पीस दूंगा।'
‘लेकिन सुबह क्या खायेंगे ?'
‘उसका भी इलाज है मेरे पास।'
‘क्या ?'
‘तुम्हें अभी के लिए कुछ आटा उधार दे देता हूं। बाद में तुम्हारे आटे में से काट लूंगा।'
‘लेकिन मेरा गेहूं अच्छा है।'
‘क्या अच्छा और क्या बुरा। पेट भर जाये तो सब अच्छा।'
मरता क्या नही करता। ग्राहक ने अपना दागीना रखा और उधारी का आटा लेकर चला गया। चक्की पर अब कल्लू भी आ गया।
‘और सुनाओ प्यारे क्या हो रहा है ?'
‘होना-जाना क्या है यार। लाइट आये तो कुछ धन्धा हो।'
‘लाईट अपने यहां कैसे आये। वो तो मंत्रियों, अफसरों के बंगलो को रोशन कर रही है। व्यापारियों की फेक्ट्रियों को चला रही है।'
‘बिजली आम आदमी को क्यों नहीं मिलती है ?'
‘मिलती है आम आदमी को भी मिलती है। चुनाव आने दो। कुछ समय के लिए भरपूर बिजली मिलेगी।' कल्लू बोला।
‘लेकिन मेरी चक्की को रोज बिजली चाहिये ?'
‘अब यार रोज बिजली तो जनरेटर से ही मिल सकती है।'
‘जनरेटर लगाने की औकात होती तो चक्की ही क्यूं चलाता।'
‘इसी बात का तो रोना है कि हमें अपनी औकात पता है। अपनी औकात बढ़ाने के रास्ते नहीं मालूम।'
‘देखो नये-नये पावर हाऊस बन रहे है।'
‘लेकिन वे आम आदमी के लिए नही है।'
‘तो फिर किसके लिए है।'
‘ये सब तो बड़े उद्योगों के लिए है।'
‘जमीन बड़े उद्योगों के लिए।'
‘बिजली बड़े उद्योगों के लिए।'
‘पानी बड़े उद्योगों के लिए।'
‘सरकार-अफसर बड़े उद्योगों के लिए।'
‘तो फिर हमारे लिए क्या ?' चक्की वाला बोल पड़ा।
‘तुम्हारे लिए ठन-ठन पाल मदन गोपाल।'
‘लेकिन यार ये बड़े लोग इतने पैसे का क्या करते हैं ?'
‘वे पैसे से और पैसा कमाते हैं और एक दिन कमाते-कमाते मर जाते हैं।'
‘जब मरना ही है तो पैसों का क्या ?'
‘मृत्यु के लिए सब बराबर। कोई अमीर नहीं कोई गरीब नहीं।'
तभी बिजली आ गई। चक्की धड़-धड़ चालू हुई। आटा हवा में उड़ने लगा।
कालू वापस अपने ठीये पर आ गया।
एक ग्राहक आया। कल्लू ने पालिश के ही पांच रूपये बता दिये। ग्राहक चालू था उसने पालिश के साथ ही एक टांका लगाने को भी कह दिया।
कल्लू ने मन मार कर काम कर दिया।
ग्राहक जा चुका था। झबरा कुत्ता अपनी पूंछ दबाकर कल्लू की पेटी की छाया के सहारे सुस्ता रहा था। कल्लू ने एक लम्बी अंगडाई ली और टांगे पसारकर सुस्ताने लगा।
तभी झबरा कुत्ता भों-भों कर एक और भागा। कल्लू ने आंखें खोली। मगर उसे कुछ समझ नही आया। थोड़ी देर में झबरा कुत्ता वापस आकर सुस्ताने लगा।
आसमान में धूप की तेजी थी। आग सी बरस रही थी। मगर आमदरफ्त जारी थी।
चक्की की आवाज अभी भी सन्नाटे को तोड़ रही थी।
चक्की के पास ही गुलकी बन्नों की थड़ी थी। वो सुबह शाम लोगों को चाय पिलाती। अदरक की चाय के मारे या चाय में शायद अफीम की मार जो गुलकी की चाय पी लेते वो सही समय पर सही चाय की तलाश में गुलकी के यहां आ जाते।
वैसे गुलकी सत्तर वर्ष की थी। खण्डहर बताते हैं कि कभी इमारत बुलन्द थी। वैसे भी कद काठी अभी भी ठोस थी। शोरबे के रस से बनी थी गुलकी।
पिछले दंगों में पति खरच हो गये थे। एक लड़की थी जिसने स्वयं निकाह कर उसका बोझ हल्का कर दिया था। गुलकी अब हर तरह से आजाद थी। कभी कदा चक्की वाला या कल्लू से हंसी-ठट्टा हो जाता था। बाकी सब वैसा ही था जैसा होना चाहिये था। गुलकी की चाय की थड़ी को कभी-कभी पास वाला हलवाई धमकाता था।
‘अगले दंगों में तुझे और इस चाय की थड़ी को आग लगा दूंगा।'
गुलकी हंसती, फिर कहती।
‘नये पैदा होंगे अब मेरी थड़ी को आग लगाने वाले। मर गये पिछले दंगों में नहीं तो अब तक तुझे ही नही पूरे खानदान को आग लगा देते।'
इस तुर्की ब तुर्की जबाव से आस-पास वालों का मनोरंजन भी होता था और दंगों की असलियत का भी पता चल जाता था।
गुलकी की मुर्गी किसी पड़ोसी हिन्दू के परिवार में घुस जाती तो पड़ोसी कहता...
‘ंदेख तेरी मुर्गी मेरे घर में।'
‘अरे जानवर है घुस गया, मैं तो नहीं घुसी तेरे घर में।'
पड़ोसी क्या जबाब देता। चुप लगा जाता। गुलकी फिर कहती।
‘जानवरों, परिन्दों का कोई मजहब नहीं होता जहां भी मुंह उठाते चल देते हैं। देखों सफेद कबूतर कभी मन्दिर के कंगूरे पर बैठता है और कभी मस्जिद पर।'
बात गम्भीरता से कही जाती। गुलकी चाय पकड़ाते हुए फिर बोलती।
‘ये सियासतदां अपने स्वार्थ के लिए हम गरीबों को क्यों तबाह करते हैं ? बेचारी बेनजीर मारी गई। भुट्टों को फांसी हुई। महात्मा गांधी, इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी तक को नहीं बख्सा इन नासपीटों ने' वो फिर रोने लग जाती। लोग-बाग दिलासा देते।
गुलकी की एक ओर विशेषता थी, कभी किसी से पैसे नहीं मांगती, न हिसाब, किताब ही करती। मगर आश्चर्य ये कि उसका पैसा कोई मारता भी नहीं।
गुलकी के सहारे यहां पर सुबह-शाम रौनक हो जाती। आज भी थी। क्रिकेट का बुखार जोरों पर था। सर्दी भी थी। गुलकी के घुटने में दर्द था।
दो राहगीर चाय की तलब के मारे आये। गुलकी ने चाय दी। वे बतियाने लगे।
‘ये साले विदेशी अम्पायर। हर तरह से मारते हैं।'
‘अब क्या करें हमें तो तेरह खिलाड़ियों से खेलना पड़ता है।'
‘तेरह ही नहीं और भी ज्यादा।'
‘लेकिन ये अम्पायर निर्णायक, रेफरी, जजेज ये सब गलत काम ही क्यों करते हैं।'
‘गलत नही यार देशभक्ती कहो।' वे तो बेचारे देश-भक्ति के मारे अपने देश के हित में निर्णय देते हैं।'
‘देशहित ?'
‘खेल को खेल की भावना से खेलो।'
‘अरे नहीं भाई खेल को राजनीतिक भावना से खेलो। और फिर ये अम्पायर तो वैसे भी दुःखी प्राणी होता है। '
‘जो सबको दुःखी देखकर सुखी हो जाता है।' गुलकी बोल पड़ी।
‘अम्पायरों को दोजख में भी जगह नहीं मिले।'
‘आमीन।
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ग्ुालकी बन्नो परम प्रसन्न थी । आज उसकी लड़की और दामाद आये थे । लड़की श्शादी के बाद पहली बार घर आई थी । घर को झाड़ा-पोंछा-फटका लगाया । नई चद्दर बिछाई । अपने इकलौते दोहिते के लिए मिठाई,टॅाफी ,बिस्कुटो का इन्तजाम किया । जवाई बाबू केलिए सैवईयां बनाई । गुलकी की खुशी देखकर उसकी बेटी भी खुश्ा हो गई । लम्बा समय बीत गया था बेटी से मिले । गुलकी मिली अौर बहुत प्रेम से मिली । मॉ-बेटी का मिलन चाय की थड़ी पर ही हो गया । फिर वे अपनी खोली में चली गई। जवाई बाबू के लिए चाय चढ़ाते हुए गुलकी बोली ।
‘और सुना कैसा चल रहा है श्शहर में ।'
‘ श्शहर तो अम्मा श्शहर है ,सब कुछ बेगाना सा । यहॉ जैसा अपनापन कहॉ।'
‘हॉ वो तो है ,मगर जहॉं पर अन्न-जल मिले वहॉ पर जाना हीं पड़ता है ।
‘स्ोा तो है अम्मा । '
ेजवाइंर् बाबू क्या -क्या करते हैं ? '
व्ेा तो एक सरकारी संस्था में बाबू लग गये है ।
‘ अच्छा । ' कितनी पगार है ?
पगार भी ठीक-ठाक है । खिच जाती है गृहस्थी की गाड़ी ।
तब तो ठीक है ।
लेकिन तुम्हारा दुख देखा नहीं जाता । तुम कैसे ब्याह करती । ये जवान मुझे जम गया । मैं इसे जम गई । निकाह पढ़वा लिया । अब सरकारी बाबू की कोई मामूली हस्ती तो होती नहीं है । '
हां ये भी ठीक किया तूने । '
लेकिन बता कर जाती तो .....गुलकी ने जान बूझ कर बात अधूरी छोड़ दी ।
लड़की भी कुछ न बोली । दोनो चुप थे । मगर सीने में समन्दर थे । गुलकी फिर काम में लग गई ।
बच्चा खा पी कर सो गया । जवाई गांव धूम कर आ गया था ।
तीनो ने खाना खाया और सो गये ।
गुलकी ने रात सपना देखा कि बेटी-जवाई उसे बुढापे में सहारा दे रहे हंै। बेटी ने सपना देखा कि अम्मा विदाई में रो रही है । जवाईं ने सपना देख्ाा कि वापस जाने की तैयारी करनी है । बच्चा कुनमुना कर उठा । सुबह हो गई थी । एक नई सुबह। गुलकी ने चाय की दुकान सजा ली । बेटी जवाई ने श्शहर की राह पकड़ी ।
श्शहर क्या था। कस्बा था। गुलकी के जवाई बाबू एक राजकीय चिकित्सालय में चतुर्थ श्रेणी अधिकारी भर्ती हो गये थे । गली-मैाहल्ले में ड़ाक्टर के रूप्ा में जाने जाते थे । कभी-कभी दवा दारू भी कर देते थे । पूरा नाम कोई नहीं जानता था। जरूरत भी क्या थी । उनकी पहचान ड़ाक्टर-वैध-हकीम के रूप में थी तथा उनकी पत्नी भी ड़क्टरनी वैदाणी या हकीमनजी के रूप में चिन्हित की जाती थी । कभी-कभी आउटडोर से कुछ दवा -दारू चुराकर ले आते थे आस पास के पड़ोसियों में बांट देते थे । फलस्वरूप उनकी प्रतिप्ठा कुछ िदनोे के लिए ही सही बढ़ जाती थी ।
मेाहल्ले ेके सरकारी बाबूओं ,चपरासियों को जब भी फर्जी मेडिकल प्रमाण पत्र की आवश्यकता पड़ती थी ,जवाईं बाबू की श्शरण में आ जाते थे । प्रमाण पत्र की रेट तय थी । इसे प्रति दिन के हिसाब से वसूला जाता था । इन दिनो यह दर एक सप्ताह के लिए सौ रूपया थी । ज्यादा लम्बा प्रमाण पत्र देने में ज्यादा लम्बी जोखिम होती थी , इस कारण राजकीय अस्पताल जिसे ख्ौराती अस्पताल भी कहा जाता था के ड़ाक्टर सोच-समझकर ,देख भाल कर ही निर्णय करते थे । श्शकील भाई ‘‘हमारे जवाई बाबू '' इस सम्पूर्ण प्रकरण्ा में दफतर ओर प्रमाण पत्र लेने वाले के बीच की कड़ी थे । वे अपना उल्लू भी सीधा कर लेते थे । आखिर वे अस्पताल में चपरासी-कम बाबू ,कम वार्ड़ बाय थे।
अस्पताल कभी दोनो समय खुलता था । कभी सुबह खुलता था श्शाम को बंद रहता था । कभी श्शाम को खुलता था सुबह बंद रहता था । मगर कस्बे की भोली जनता शिकायतेां के पचड़े में नही पड़ती थी । पानी में रहकर मगर से बैर लेने का रिवाज नहीं था ।
श्शकील अपनी पत्नी के साथ अस्पताल के पास की एक कालोनी में रहता था। जिन्दगी की गाड़ी मजे से चल रही थी , मगर वो जिन्दगी ही क्या जो मजे से चलती चली जाये ।
अस्पताल में एक कैम्प लगा । कैम्प में बाहर के ड़ाक्टर ,अफसर ,नेता आये । सबने मिलकर कैम्प चलाया । मगर हिसाब किताब की किसी ने परवाह नहीं की ।
अॅाड़िट ने पकड़ा और श्शकील को धर दबोचा । प्रभारी चिकित्सक ने अपनी जान बचाने के लिए श्शकील को ढा़ल बना कर निलम्बन की सिफारिश कर दी । अफसरों ने तनिक भी देर नहीं लगाई और श्शकील भाई की हंसती -मुस्कराती गृहस्थी को नजर लग गई । खबर गुलकी बन्नो तक पहुॅची । गुलकी रोती -कलपती आई । सारा माजरा समझा ,और जैसा कि रिवाज है घुटने पैट की ओर ही मुड़ते हैं ,एक जातिवादी नेता की श्शरण में आ गई । कभी नेता जी अपनी जवानी के दिनो में गुलकी बन्नों से इक तरफा प्यार कर चुके थे , अतः मामले केा हाथेा हाथ रफादफा कराने में जुट गये । मगर मामला ज्यादा गम्भीर निकला । आडिटवालों ने मामला उपर पहुॅचा दिया । उूपर से मामला लेाक लेखा समिति के चंगुल में फंस गया ,साथ में चिकित्सक ओर श्शकील की गर्दन भी फंस गई । आखिर चिकित्सक ने स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ले ली । श्शकील आज भी दर-दर की ठोकरे खा रहा है और गुलकी बन्ोंा स्वर्ग सिधार चुकी है ।
श्शकील कस्बे में इधर -उधर मारा -मारा फिरता था । मगर जातिवादी नेता जी ने उसे चिकित्सालय से मुक्त करा कर अपने मित्र हकीम जी के दवाखाने में दवा बनाने में लगवा दिया । हकीम जी के पास कुछ अच्छे पौरूपीय नुस्खे थे जिन की बदौलत उनकी चिकित्सा ठीक-ठाक चलती थी । श्शकील ने भी ये नुस्खे सीख लिए ।और गृहस्थी की गाड़ी को फिर पटरी पर लाकर हरी झंड़ी दिखा दी । गुलकी की चाय की दुकान बेच -बाच कर जो पैसा आया उससे उसने अपने लिए श्शहर में एक कोठरी ले ली ।
ग्ाुलकी की बेटी अब अपने बच्चे के साथ इस केाठरी में रहती है लोग-बाग बकते रहते हैं कि हकीम सा. कभी-कभी कोठरी में आते हैं ।मगर लोगों का क्या ?
लोगों के डर से क्या आदमी जीना छोड़ दे ।
इधर महगांई ,परमाणु संधि ,अविश्वास प्रस्ताव , सरकार का बहुमत और बहुमत की सरकार जैसे श्शब्द हवा में उछलने लग गये थे। सरकार कभी चुनावों का डर दिखाती कभी डर कर चुनावों से मुंह मोड़ लेती । आंतकी घटनाऐं ,बैंक लूटने की वारदातें ,जातीवादी आन्दोलन कुल मिलाकर अराजकता की स्थिति । वस्तु स्थिति देखने - समझने की फुरसत किसे । चुनाव होगें या नहीं।होगें तो कब होगें । कौन -जीतेगा जैसे नश्वर प्रश्नों का क्या? वे तो हर तरफ हर समय हवा में तैरते रहते हैं । श्राद्ध पक्षो की तरह चुनावी पक्ष आते और जाते । गठ बन्धन सरकारों के धर्म शुद्ध राज धर्म नहीं हो सकते । गठबन्धन का पहला धर्म स्वयं को तथा सरकार को जिन्दा रखने का है । हम ही नहीं होगे तो सरकार या देश के होने का क्या फायदा प्यारे । पहले खुद और सरकार को बचाओं । जान है तो जहान है । सरकार है तो सब कुछ है मंत्री प्यादे ,धोड़े , रानी ,उूंट ,हाथी ,महल ,दफतर ,हवाई जहाज , सब कुछ यदि सरकार नही ंतो कुछ भी नहीं मेरे सरकार । गान्धी हो या गोडसे क्या फर्क पड़ता है । सामन्ती लिबास में कामरेड और कामरेडी लिबास में समाजवादी ,समाजवादी कुर्ते में अम्बेड़करवादी और अम्बेड़कर की टोली में सोशल इन्जीनियरिगं का कमाल । ये ही राजनीति है मरी जान ......। ये ही सरकार है ....। ये ही गठबन्धन है । और ये ही धर्म संकट है ।
सरकार है , लोमड़िया है । कैावे है । कांव कांव करता मीड़िया है । असफल नेता है और आत्मकथा की धमकी देते मंत्री है। मुझे कुछ दे नही ंतो किताब लिख दूगां । किताब का ऐसा सदुपयोग .......।
जो कभी क्रान्ति के कौवे उड़ाया करते थे ,वे आजकल कनकवे उड़ा उड़ा कर टिकट का जुगाड़ कर रहे है । टिकट की भली कही । सेवानिवृत्त भ्रप्ट अफसर ,चाटुकार पुलिस वाले ,अपराधी , स्मगलर , सुपारी किलर ,समाजसेवी , सेविकाएॅ ,सब टिकटों की बन्दर बांट के लिए पार्टी-दफतरों में चक्कर लगाने लग गये और ये बेचारे कार्यर्कता ढपोरशंख ही रह गये । टिकट किसे नहीं चाहिये । सरकार में घुसने का नायाब मैाका है टिकट। यदि टिकट मिल जाये तो सत्ता के श्शीर्प पर या श्शीर्प से एक-आध सीढ़ी नीचे पहुॅचने में क्या दिक्कत है ।
इन्हीं विकट परिस्थितियों में नेता जी अपने महल नुमा - डाईगं रूम में मालिश वाले का इन्तजार कर रहे थे । वे आज गम्भीर तो थे ,मगर आश्वत भी ।
मालिशिये के आने की आहट से उनकी तन्द्रा टूटी । मालिशिये ने अपना काम श्शुरू किया । टिकट के आकांक्षी आने लगे । कोठी के बाहर -भीतर धीरे-धीरे मजमा जमने लगा । एक टिकिट के दावेदार ने नेताजी के चरण स्पर्श किये । नेताजी ने कोई नहीं ध्यान दिया । वे बोले बता कैसे आया । ‘
‘बस वैसे ही । '
‘बस वैसे ही तो तू आने वाला नहीं है । '
‘ नहीं सर । बस दर्शन करने चला आया । '
दशर्नों से क्या होता है यार साफ बता । '
‘ बस टिकट चुनाव होने की संभावना है । '
‘ तेरे इलाके से टिकट उूपर से तय होगा ? '
‘क्यों सर !
‘ तेरी बहुत सी शिकायते हैं । '
‘ शिकायतों से क्या होता है '' हजूर ! मेरे लिए तो आप ही माई -बाप है । '
‘माई-बाप कहने से भी क्या होता है ? '
‘अब तो लाज आपके हाथ में है । '
‘ लाज -लज्जा का राजनीति में क्या काम । '
‘सर कुछ करिये । '
‘क्या करूं बता तू ही बता । '
‘ सर बस इस बार टिकट मिल जाये सब ठीक हो जायेगा । '
‘ टिकट ही तो मुश्किल है मेरे भाई । '
‘ फिर क्या करू निर्दलीय लड़ू । '
‘ जीत सकता है तो लड ़ले । '
‘जीतना तो मुश्किल है । '
‘फिर क्यों अपने पैरो पर कुल्हाड़ी मारता है । '
‘ फिर क्या करू । '
‘तेल देख -तेल की धार देख । ये कहकर नेताजी ने मालिशिये की और देखा । मालिशिया तेल का काम पूरा कर चुका था । नेताजी अन्दर नहाने चले गये । बाहर लॉन में एक कुत्ते ने फड़फड़ा कर अंगड़ाई ली । समवेत स्वरों में श्श्वान समूह ने अपना राग गाया । लॉन में दो छुट भैये नेता सरकार के भविप्य पर चितिंत थे । चिन्तन कर रहे थे । एक बोला ‘ यह सरकार रहेगी या जायेगी । '
ये प्रधान मंत्री रहेगें या जायेगें ?
‘ ये गठबन्धन टूटेगा क्या चलेगा । '
ये सब कब तक ऐसे ही चलेगा । '
श् ‘ सरकार का क्या है । कम्यूनिस्टो के समर्थन से चल रही है ,जब जाजम खींची ,सरकार गिरी । '
‘ अरे यार ऐसे कैसे गिर जायेगी । कम्यूनिस्टों ने जाजम खिंची तो समाज वादियों की दरियां बिछ जायेगी । सब वापस बैठ जायेगें ।
‘ ये कम्यूनिस्ट भी क्या है ? कभी गुर्राते हैं ,कभी भोंकते हैं । कभी धमकाते हैं बस काटते नहीं। '
‘काटने के लिए दांत मजबूत चाहिये । ये तो विपहीन फन वाले है ।
हा ं ये ठीक उक्ति दी तुमने ।
‘सरकार अपना कार्य काल पूरा करेंगी । '
‘ करना ही चाहिये ! अभी चुनाव हो गये तो सब बंटाढार । समझो गई भैस पानी में ।' ‘चुनाव की भैस तो पानी में नहीं कीचड़ में जाती है यार । '
‘क्या पानी और क्या कीचड़ और क्या कीचड़ में कमल । '
‘अच्छा बताओं यदि चुनाव हुए तो प्रधानमंत्री कौन बनेगा । '
‘तुम ही बन जाना यार ।'
‘ मुझे तो टाइम ही नहीं है । '
‘मजाक बन्द । सीरियसली जवाब दो । '
‘देखो भाई पिछली बार राप्टपति के चुनाव में तय हुआ था कि तुम हमारे आदमी को राप्टपति बनाओं हम तुम्हारे आदमी को प्रधानमंत्री बनवा देगें । '
‘ अच्छा फिर क्या हुआ । '
‘होना क्या था ? दोनों ही हार गये । न राप्टपति बना न ही प्रधानमंत्री । '
‘ लेकिन भावी प्रधानमंत्री । '
‘ भावी की खूब कहीं । एक पार्टी ने अपना प्रधानमंत्री घोपित कर रखा है ,एक पार्टी में युवराज राज्यभिपेक के लिए तैयार है ,एक पार्टी में सभी क्षत्रप अपने आप को प्रधानमंत्री मानते हैं और भीप्म पितामह तो श्शरश्ौया पर लेट कर ही प्रधानमंत्री की श्शपथ लेने को तैयार है । '
‘ आखिर कोइ तो बनेगा । '
‘ हां तब तो वर्तमान क्या बुरे है ।'
दोनों छुट भैया नेता कोठी से बाहर आये । और ठण्ड़ी चाय की दुकान पर चले गये । प्रान्तीय सरकार का भला हो जिसने हर-गली ,माैहल्ले नुक्कड़ पर ठण्ड़ी चाय की दुकाने खोल दी थी , और सेल्स मेन जबरदस्ती पिलाते थे । पिलवाते थे । मारपीट करते थे। सरकार को तो बस रेवेन्यू से मतलब था । मगर सरकार बेचारी क्या करे । सरकार चलाने के लिए रेवेन्यू चाहिये ,रेवेन्यू का आसान रास्ता कर लगाना । कर लगाने के लिए श्शराब बेचना ।शराब माफिया से बचने के लिए सरकार ने प्रत्येक दुकान दार को लाइसेंस देना शुरू कर दिया , परिणाम स्वरूप्ा हर व्यक्ति ने श्शराब की दुकान के लिए लाइसेंस की कोशिश करना श्शुरू कर दी ,और ज्यादा भ्रप्टाचार ।
जनता की भागीदारी बढ़ी श्शराब की खपत बढ़ी सरकार की रेवेन्यू बढ़ी ।ये है प्रजातन्त्र के मजे ।
छुट भैया नेता देश की राजनीति से निपट कर प्रदेश की राजनीति पर उतर आये थे ,अर्थात विदेशी श्शराब के बाद देशी ठर्रे तक आ गये थे । वे मोहल्ले स्तर की राजनीति पर उतरना चाहते थे ,अर्थत आपस में जूतम पैजार करना चाहते थे ,मगर कोई दिख नहीं रहा था । ऐसी ही स्थिति में वे सामने कल्लू मोाची के ठीये पर पहुॅच गये । कल्लू मोाची अपने काम में व्यस्त था । लेकिन इन निठल्लों को इधर आते देख कर चौकन्ना हो गया । उसने जबरे को आवाज दी । जवाब में जबरा जोर से भोंका ।
छुट भैये नेता ने कल्लू की ओर पांव कर कहा ,
‘जरा पालिश मार दे । '
‘ पांच रूप्ाये लगेगें । '
‘‘क्या कहा ! पांच रूप्ाये । यहॉ पर बैठने का लाइसेंस है तेरे पास । '
‘ कल्लू चुप रहा । दूसरा छुटभैया बोल पड़ा । '
‘नगरपालिका को कह कर बोरिया बिस्तर गोल करवा दूंगा साले का । चुपचाप पालिश मार ।
यह कह कर उसने भी जूते कल्लू के सामने रख दिये । मरता क्या न करता । कल्लू ने सोचा कौन इन उठाईिगरो के मुंह लगे । चुपचाप पालिश ब्रश,कपड़ा ,रंग लेकर काम में लग गया । काम ख्ातम कर जूते वापस किये तो नेता ने दोनो जोड़ियों के लिए एक पांच का सिक्का पकड़ा दिया । कल्लू ने चुप रहने में ही भलाई समझी ।
कल्लू ने चाय मंगवाई उसने पी और जबरे ने चाटी ।शाम का समय हो आया था ।
अब न तो गांव गांव रहे न श्शहर श्शहर रहे । न महानगर महानगर रहे। कल्लू सोचने लगा । कहॉं प्रेम चन्द के उपन्यासों के गांव , कहां हरिशंकर परसाई की रचनाओं के ग्रामीण परिवेश और कहां श्री लाल श्ुाक्ल के रागदरबारी के गांवों की राजनीति । सब बीत गये । सब रीत गये । इतने लोग मिलकर गांवों की आचंलिकता की अंाच पर अपनी रचनाओं की रोटी सेक रहे है और आचं है कि भड़कती ही चली जा रही है। एक अकेला रागदरबारी सब पर भारी पड़ जाता है । एक मैला आचंल सब की चादर मैली कर जाता है। कल्लू के विचार उत्तम है , मगर कौन सुनता है ।
कल्लू ने दुकान समेटी और घर की राह पकड़ी । झबरा हलवाई की दुकान के बाहर बैठ कर अपने डिनर का इन्तजार करने लगा ।
(क्रमशः अगले अंकों में जारी….)
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