यशवन्त कोठारी का व्यंग्य उपन्यास : असत्यम् अशिवम् असुन्दरम् (4)

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“..उसने पढ़ रखा था कि सपने बुनने से कभी-कभी चादर, शाल, रजाई, अंगोछा आदि बन जाते हैं। वैसे भी सपने देखना-बुनना इस देश में बिल्कुल निःशुल्क...

“..उसने पढ़ रखा था कि सपने बुनने से कभी-कभी चादर, शाल, रजाई, अंगोछा आदि बन जाते हैं। वैसे भी सपने देखना-बुनना इस देश में बिल्कुल निःशुल्क था। सरकार चाहकर भी इन सपनों पर टेक्स नहीं लगा पा रही थी। सरकार का ध्यान आते ही कल्लू को अपने पिता के मृत्यु-प्रमाण-पत्र को प्राप्त करने में जो परेशानी आई थी, उसे सोच-सोचकर उसने झबरे से कहा।

‘देखा सरकार को मेरे मरे बाप का प्रमाण-पत्र देने में भी मौत आ गई।'

झबरा क्या जवाब देता। सफेदी कहीं रोटी, मांस के टुकड़े के लिए भटक रही थी। झबरा चुपचाप बैठा था।…” – इसी उपन्यास से.

॥ श्री ॥

असत्यम्।

अशिवम्॥

असुन्दरम्॥।

(व्यंग्य-उपन्यास)

महाशिवरात्री।

16-2-07

-यशवन्त कोठारी

86, लक्ष्मी नगर,

ब्रह्मपुरी बाहर,

जयपुर-302002

 

Email:ykkothari3@yahoo.com

समर्पण

अपने लाखों पाठकों को,

सादर । सस्नेह॥

-यशवन्त कोठारी

 

 

(बेहद पठनीय और धारदार व्यंग्य से ओतप्रोत इस उपन्यास को आप पीडीएफ़ ई-बुक के रूप में यहाँ  से डाउनलोड कर पढ़ सकते हैं)

 

 (पिछले अंक से जारी…)

माधुरी के मौहल्ले वाले स्कूल कम जूनियर कॉलेज के प्रिन्सिपल हांफ्ते हुए माधुरी के बंगले पर प्रकट हुए। शुक्लाजी की सांस फूलती देखकर माधुरी ने उन्हें बैठने को कहा।

‘मैडम गजब हो गया।'

‘क्यों ? क्यों ? क्या हो गया।'

‘एक सवर्ण लड़के ने एक दलित को मार दिया। उसके कपड़े फाड़ दिये। जातिसूचक बातें कही।'

‘अच्छा फिर क्या हुआ।'

‘दलित छात्र ने पुलिस में रपट लिखा दी। पुलिस आई है मेरे भी बयान लेने को कह रही है।'

‘अच्छा और।'

‘और ये कि कॉलेज में दो गुट बन गये है। एक दलित और दूसरा सवर्ण। कभी भी विस्फोट हो सकता है।'

‘तुमने क्या कार्यवाही की।'

‘मैं क्या कार्यवाही करता। सीधा-सीधा आपकी सेवामें सूचना देने आ गया हूं।'

‘शुक्लाजी आप भी बस........। आपसे तो लक्ष्मी मैडम ठीक है। वो सब संभाल लेती।'

‘अब मुझे क्या करना चाहिये।'

आप कुछ मत कीजिये। दोनों छात्रों को मेरे पास भेज दीजिए।

‘जो आज्ञा।' शुक्लाजी हांफ्ते-कांपते चले गये। थोड़ी देर बाद दोनों छात्र माधुरी के बंगले पर हाजिर थे।

माधुरी ने दोनों को प्यार से समझाया। बिठाया। नाश्ता कराया। पूछा।

‘तुम्हें कौन भड़का रहा है ?'

दोनों छात्र चुप रहे। माधुरी ने फिर दलित से पूछा।

‘तुम्हारे साथ क्या हुआ ?'

‘इसने मुझे मारा। कपड़े फाड़ दिये। गाली दी।'

‘और तुमने क्या किया ?'

‘मैं क्या करता पुलिस में चला गया।'

‘इससे पहले तुम्हें प्रिन्सिपल से मिलना था। मुझसे मिलते। हम कुछ करते। मगर तुमने मौका ही नहीं दिया।'

लड़का चुप रहा।

‘और तुम....स्कूल में पढ़ने आते हो या लड़ाई-झगड़े करने। तुम्हारे कारण हमारी कितनी बदनामी हो रही है।'

सवर्ण भी चुप रहा।

‘मैं चाहूं तो तुम दोनों को स्कूल से निकाल बाहर कर दूं। मगर तुम बच्चे हो। तुम दोनों एक-दूसरे से माफी मांगो।' माधुरी ने दोनों को एक-दूसरे से माफी मंगवाई। लिखित में समझौता कराया। प्रिन्सिपल शुक्ला से अग्रेषित करा पुलिस में दिया पुलिस की भेंट पूजा के बाद मामला शान्त हुआ। दलित छात्र की फीस माफ कर दी गई। सवर्ण छात्र के पिता ने स्कूल में डोनेशन दिया। सब कुछ शान्ति से चलने लगा।

X X X

माधुरी, विशाल और नेताजी अपनी टाऊनशिप के सिलसिले में राजधानी आये हुए थे। राजधानी में नेताओं के लिए ठीये तय थे। तीनों एक सरकारी डाक बंग्लों में रूके। राजधानी तो राजधानी। यहां की राजनीति के क्या कहने ? बड़े अफसरों के क्या कहने। सचिवालय, पार्टी दफ्तरों की चमाचम। चौड़ी खूबसूरत सड़कें। बड़ी-बड़ी कम्पनियों के बड़े-बड़े दफ्तर। राजधानी की चमक-दमक देखकर माधुरी दंग रह गयी। विशाल ये सब देखता समझता था। उसे अपने काम से मतलब था। पैसा खर्च करना उसे आता था। माधुरी को काम निकलवाना आता था। नेताजी रूपी घोड़े की लगाम माधुरी ने अपने हाथ में ले ली और राजधानी की सड़कों पर तेजी से दौड़ने लगी। राजधानी रात में किसी दुल्हन की तरह लगती थी।

राजधानी आकर ही व्यक्ति को अपनी औकात का पता लगता है। कस्बे की राजनीति और कार्यप्रणाली में तथा राजधानी की राजनीति और कार्यप्रणाली में जमीन-आसमान का अन्तर होता है। व्यक्ति यहां की भीड़ में खो जाता है। आदमी का वजूद खत्म हो जाता है। राजधानी में राजनीति भी बड़ी होती है। बड़ी तेजी से हर कोई कहीं भी भाग रहा है। राजधानी में क्या नहीं है। साड़ियां हैं। सलवार-सूट है। जीन्स हैं। पेंट हैं। टॉपलेस बाटम हैं। बाटमलेस टाप हैं। यहां पर सूट हैं। टाई हैं। जॉकेट हैं। धोती-कुर्ता हैं। टोपियां हैं। विग हैं। मुखौटे हैं। खेलापोलमपुर हैं। कहीं-कहीं पोपाबाई का राज है। राजधानी में बड़ी बातें हैं। लहरदार बातें। हवाई बातें। राजधानी ही प्रदेश है। यहां पर पत्रकार हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया है। बार है। बार गर्ल है। राजधानी में हर तरफ दौड़ती भागती जिन्दगी है। हर तरफ हर कोई भाग रहा है। किसी के पास भी टाइम नहीं है। टाइम इज मनी यहीं आकर पता चलता है। यहां प्रेम है। घृणा है। सब कुछ है। षडयंत्र है। सब तुच्छ है। शक्ति है। शक्तिशाली है। पुरूषों के चेहरे रंगे हुए है। कई चेहरों के रंग उड़ गये है। क्योंकि राजनीति में चेहरे के रंग बदलते रहते हैं। राजधानी में कच्ची बस्तियां है। भव्य अटटालिकाएं है। अलकापुरी से दृश्य है। गरीब,भीख, मांगती जनता है।, मगर राजधानी का दिल बहुत बड़ा है। वो हर एक को पनाह देती है। शरण देती है। सब के लिए कुछ न कुछ जुगाड़ करती है।

राजधानी के अस्पताल क्या कहने। फाइल स्टार, होटलों को मात करते हैं। राजधानी के कॉलेज, स्कूल, विश्वविद्यालय, लगता है पूरी दुनियां में श्रेष्ठ है। विधानसभा भवन जिस पर नजरें नहीं ठहरे।

शानदार मॉल, मल्टीप्लेक्सोंं की दुनिया और चौराहे-चौराहे भीख मांगती मानवता। है। राजधानी का उसूल चढ़ते सूरज को सलाम। आने वाले का बोल-बाला। जाने वाले तेरा मुंह काला।

ऐसे ही माहौल में विशाल, माधुरी ओर नेताजी सचिवालय की सीढ़ियां चढ़कर मंत्रीजी के कक्ष तक पहुंचे क्योंकि सचिवालय की एक लिफ्ट खराब थी और दूसरी आरक्षित थी। मंत्री से मिलने से पहले पी.ए. से मिलो। फिर पी.एस. को काम समझाओं। फिर कुछ बात बने। मगर मंत्रीजी ने तुरन्त कह दिया।

‘यार कल सुबह बंगले पर आ जाना। अभी तो मंत्रीमण्डल की मिटिंग में जा रहा हूं।'

पहला दिन बेकार ही रहा। यह सोचकर तीनों वापस ठीये पर आ गये।

राजधानी के क्या कहने। राजधानी में राजनीति दूषित। हवा दूषित। पानी दूषित। कोढ़ में खाज ये कि दूषित पेयजल की आपूर्ति से कच्ची बस्ती में सैकड़ों बच्चे, बड़ों और बूढ़ों को उल्टी दस्त हो गये। दो बच्चों की मौत ने हंगाम बरपा कर दिया।

अफसरों अहलकाहरों का दौरा हुआ। विपक्षी दलों ने सरकार के खिलाफ नारे लगाये। जुलूस निकाले। मृत बच्चों की आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना सभाएं हुई। ज्यादा उत्साही नवयुवा नेताओं ने पेयजल की आपूर्ति के लिए अपने खजाने खोल दिये। सत्ताधारी पार्टी, नेता अपनी सरकार का कार्यकाल सफलतापूर्वक पूरा होने का जश्न मनाने लगे। इस जश्न की व्यस्तता के चलते सरकार का ध्यान पेयजल, बिजली, स्वास्थ्य जैसी छोटी-मोटी समस्याओं पर नहीं गया।

पेयजल से हुई मौतों पर अखबारों में अलग-अलग बयान छपे। बयानों की सच्चाई का पता लगाने की कोशिश किसी ने भी नहीं की। स्वास्थ्य मंत्री ने मौत का कारण दूषित पेयजल बताया जबकि जलदाय मंत्री ने मृतक का कारण इलाज में लापरवाही बताया। दोनों मंत्री एक ही सरकार में थे, मगर अलग-अलग गुटों में थे, इस कारण राजनीति करने से बाज नहीं आये। विपक्ष के नेता के बयान पर एक सत्ताधारी पक्ष ने स्पष्ट कर दिया कि विपक्ष लाशों की राजनीति कर रहा है। लेकिन विपक्ष ने पीड़ित, दुःखी जनों को, आर्थिक सहायोग देकर जनता की सहानुभूति इसलिए जीत ली कि अगले चुनावों में यह सब सहानुभूति की लहर बनकर उन्हें सत्ता के द्वार तक पहुंचा देगी।

सुबह के अखबारों का पारायण करने के बाद माधुरी, विशाल और नेताजी अपने टाऊनशिप के मिशन पर चले। नेताजी जब मंत्रीजी के दरबार में हाजरी लगा रहे थे तो वहां पर दूषित पेयजल की समस्या छाई हुई थी। नेताजी सीधे मंत्रीजी के कक्ष में घुस गये। पीछे-पीछे माधुरी और दबे कदमों से विशाल।

मंत्रीजी ने माधुरी व विशाल के अभिवादन का जवाब देना भी उचित नहीं समझा और नेताजी को लेकर मंत्रणा कक्ष में घुस गये। आधे घंटे की बातचीत के बाद नेताजी ने विशाल और माधुरी को भी अन्दर बुला दिया। विशाल ने स्कीम का प्रेजेन्टेशन शुरू किया मगर नेताजी उन्हें सब समझा चुके थे। अतः बातचीत व्यापारिक स्तर पर शुरू हुई।

‘आपकी इस सेजनुमा टाऊनशिप से किसे लाभ होगा।'

‘सभी का लाभ है सर। जनता को सस्ते दामों में फ्लैट, कम्पनियों को ऑफिस खोलने की जगह और लोगों को रोजगार मिलेगा।'

‘कितने लोगों को।'

‘शुरू में दस हजार बाद में यह संख्या बढ़कर पच्चीस हजार तक हो जायेगी।'

‘सरकार से क्या चाहते हैं आप?'

इस पर माधुरी बोली।

‘सरकार हमें जो सब्सिडी देगी उसी से हम और ज्यादा विकास करेंगे।'

‘बिजली, सड़क, पानी की सुविधाएं कैसी होगी ?'

‘वो हम कर लेंगे सर। बिजली और सड़क हम बनायेंगे। पानी की व्यवस्था भी हम ही कर लेंगे। बस सरकार अनुमति दे दे।'

‘मैं कोशिश करूंगा। मामला बड़ा है केबिनेट में जायेगा ?'

‘सर। आपका आर्शीवाद मिल जाये तो.............।' विशाल बोल पड़ा।

‘आर्शीवाद की कीमत क्या है।' मंत्री ने पूछा।

‘सर जो आपका आदेश हो।'

‘आदेशों की चिन्ता मत करो। इतने आदेश दे दूंगा कि बोलती बन्द हो जायेगी।' नेताजी ने कहा।

‘सर आप कहे।'

ठीक है, दस प्रतिशत फ्लैट, दस प्रतिशत विकसित कारपोरेट लैण्ड मेरा होगा।

‘सर ये तो बहुत ज्यादा है, हम केवल तीस प्रतिशत जमीन ही काम में लेंगे, बाकी जमीन तो ग्रीन रहेगी।'

‘तो तुम तीस के बजाय चालीस प्रतिशत जमीन को काम में लेना। मैं सब ठीक कर लूंगा। ठीक है।'

‘हां, सर ठीक है।'

और सुनो कल के सभी अखबारों में एक पूरे पृष्ठ का रंगीन विज्ञापन डाल दो। कल ही बुकिंग भी शुरू कर सकते हो।'

‘जी अच्छा।' नेताजी, माधुरी और विशाल सभी ने एक स्वर में खुशी जाहिर की।

मंत्रीजी कक्ष से वापसी में सभी के चेहरे खुश थे। अन्दर मंत्री जी दूषित पेयजल से हुई मौतों पर मीडिया के सामने अफसोस जाहिर कर रहे थे।

मंत्रीजी के बंगले के बाहर ही मिनरल वाटर की बोतलें लेकर माधुरी कार में बैठ गई। विशाल ने कार चलाई और नेताजी ने कार के शीशे चढ़ा दिये। वे वापस कस्बे की और लौट चले।

कस्बा यथावत था। सब कुछ सामान्य।

X X X

शुक्लाजी आज घर जल्दी आ गये। श्रीमती शुक्ला याने शुक्लाइन को यह सुविधा थी कि वो मध्यान्तर से पूर्व अपनी कक्षाएँ ले ले और मध्यान्तर के बाद घर आकर गृहस्थी का कामकाज संभाल ले। यह सुविधा शुक्लाजी के प्राचार्य होने के कारण नहीं थी बल्कि माधुरी की कृपा का प्रसाद था या मित्रता का लाभ था। आज के इस अति आधुनिक कलिकाल में मित्रता की परिभाषा ही यहीं थी कि स्वार्थ पूरे हो तो मित्रता और यदि स्वाथोंर् की पूर्ति में कमी आ जाये तो शत्रुता। माधुरी, शुक्लाईन से अपनी शर्तों पर काम करवा लेती थी। शुक्लाइन ने पति को प्रिन्सिपल स्वयं को स्थायी अध्यापक बनवा लिया था। दोनों हाथ साथ-साथ धुल रहेे थे। मौजां ही मौजां।

शुक्लाजी का बच्चा भी अब बड़ा हो गया था। तुतलाकर बोल-बोल कर सबको मोहित कर देता था। शुक्लाईन घर पर बच्चे की आसानी से देखभाल कर लेती थी।

शुक्लाजी ने आते ही कहा।

‘राज्य सरकार की तरफ से अपने कॉलेज को कम्प्यूटर की निःशुल्क शिक्षा के लिए चुना गया है। मैं चाहता हूं कि अध्यापिका के बजाय तुम कम्प्यूटर लेब का काम संभाल लो।'

‘आपके चाहने से क्या होता है ? और फिर मुझे कम्प्यूटर के बारे में कुछ भी मालूम नहीं है।'

‘कौन मां के पेट से सीख कर आता है।' ‘मुझे विश्वास है तुम सब संभाल लोगी।'

‘इस विश्वास का कारण।' लक्ष्मी ने अर्थपूर्ण नजरों से देखते हुए कहा।

‘विश्वास इसलिए तुम सुन्दर ही नही, होशियार, चतुर, चालाक और इन्टेलिजेंट भी हो।'

‘इतने विशेषण एक साथ। क्या बात है आज सब ठीक-ठाक तो है।'

‘हां-हां सब ठीक-ठाक है। माधुरी मैडम राजधानी से आ गई है और कॉलेज में कम्प्यूटर लेब खोलने के लिए मुझ घर पर बुलाया है।'

‘तो चले जाओ।'

तुम भी चलती तो...।' शुक्लाजी ने कहा।

लक्ष्मी ने जान-बूझकर कोई उत्तर नहीं दिया।

शुक्लाजी लक्ष्मी को मना कर अपने साथ माधुरी के यहां ले गये। उन्हें एक साथ देखकर माधुरी बोली।

‘कहो भाई। क्या हाल-चाल है ? सब ठीक-ठाक तो है।'

‘हां मेम सब ठीक है।'

माधुरी शीघ्र ही कम्प्यूटर साक्षरता कार्यक्रम पर आ गई । बोली।

‘भविष्य का युग कम्प्यूटर का युग है। हमें अभी से इस ओर प्रयास करने चाहिये। मैं चाहती हूं कि जब कॉलेज विश्वविद्यालय बने तो हम कम्प्यूटर कोर्सेज शुरू कर सके। हमें अभी से पूरी तैयारी से जुट जाना होगा। अब बड़ी-बड़ी कम्पनियां प्रदेश में आयेगी और हमारे यहां के लड़कों को काम पर रखेगी।'

‘वो तो ठीक है मैडम मगर कम्प्यूटर के खेत्र में मानव-शक्ति का अभाव है।'

‘इसलिए तो हमारी दाल गल जायेगी। यदि विशेषज्ञ उपलब्ध हो जायेंगे तो हमें कौन पूछेगा।'

‘मेम कम्प्यूटर लेब के लिए एक इन्चार्ज भी चाहिये।'

‘वो सब शुक्लाजी आप जाने। नया स्टॉफ रखना अभी सम्भव नहीं है। जो है उनसे ही काम चलाये।'

‘फिर आप उचित समझे तो लक्ष्मी को कम्प्यूटर लेब इन्चार्ज बना दे।'

‘ठीक है किसी न किसी को तो बनाना ही है। फिर लक्ष्मी को क्यों नहीं।'

‘मैडम कुछ कम्प्यूटर भी क्रय करने है।'

‘वो सब आप छोड़ो। मैने राजधानी से दस कम्प्यूटर व अन्य सामान मंगवा लिये है। आप कक्षों की व्यवस्था कर दे। और काम शुरू करें।

‘जी अच्छा।‘ शुक्लाजी तो लक्ष्मी के इन्चार्ज बनने मात्र से ही खुश थे। वे ज्यादा बहस नहीं करना चाहते थे। फिर भी बोले।

‘मैडम कम्प्यूटर साक्षरता के लिए शायद राज्य सरकार किसी बड़ी कम्पनी से संविदा करेगी और वे ही यहां पर आकर काम देखेंगे।'

‘इसलिए तो लक्ष्मी ठीक रहेगी। वो हमारी और से काम देखेंगी।'

‘हां-हां ये ठीक रहेगा।'

‘और देखो शुक्लाजी मैंने विश्वविद्यालय के लिए जमीन देख ली है।'

‘अच्छा। बहुत अच्छा।'

‘लेकिन अभी एक्ट बनवाना बहुत मुश्किल है।'

‘जब जमीन हो गई तो बाकी के काम भी हो जायेंगे।' लक्ष्मी बोली।

‘सब मिलकर ही विकास कर सकते हैं ये तो खण्ड-खण्ड विकास के पाखण्ड पर्व है।'

‘हम भी बहती गंगा में हाथ धो रहे है बस।' यह कहकर माधुरी ने उन्हें विदा किया।

घर आकर लक्ष्मी और शुक्लाजी ने बच्चे को प्यार किया वे सोच रहे थे विश्वविद्यालय बने तो उसमें भी अपने लिए जगह बना लेंगे।

विश्वविद्यालय की गन्दी राजनीति का वृहद अनुभव उन्होंने अपने शोधकार्य के दौरान कर लिया था और उसका लाभ वे ले सकेंगे। इधर लक्ष्मी लेब इन्चार्ज के बाद डीन बनने के सपने बुनने लग गयी थी। सपनों के संसार में हर किसी को आने की इजाजत नहीं होती, शुक्लाजी को भी नहीं, यहीं सोचकर लक्ष्मी बच्चें को छाती से चिपकाकर सो गई।

X X X

शुक्लाजी अध्यापन में ज्यादा रूचि नहीं रखते थे। मगर पढ़ने के शौकीन थे। स्कूल-कॉलेज के जमाने से ही विभिन्न पुस्तकों को पढ़ने-संग्रह करने में उन्हेंं आनन्द आता था। घर पर ही छोटी-मोटी लाइब्रेरी थी। सुबह जल्दी उठ जाते तो पढ़ने लग जाते।

आज भी सुबह उनकी आंख जल्दी खुल गयी। इधर-उधर घूमने के बाद वे पुस्तकों की अलमारी के पास आ गये। सीमोन द बोउवार की पुस्तक स्त्री उपेक्षिता खोलकर पढ़ने लग गये।

लक्ष्मी उठी। चाय लेकर आई। सुबह के अखबार आ गये थे। लक्ष्मी ने देखा। शुक्लाजी का मन पुस्तक में है। वो भी स्त्री उपेक्षिता पढ़ चुकी थी। उसे स्त्री हमेशा से ही उपेक्षिता, वंचिता, शोषिता लगी थी। उसकी खुद के बारे में भी ऐसी ही राय थी। वो इस सोच से चाहकर भी बाहर नहीं निकल पाती थी। उसे प्रेम, वासना, प्यार, घृणा, भोग विलास सभी कुछ नापसन्द थे, मगर जिदंगी एक व्यापार है, यदि यह मान लिया जाये तो इस व्यापार में जायज-नाजायज सब करना ही पड़ता है। भोग का हिस्सा है प्यार, या प्यार का व्यापार। ढाई आखर प्यार के और ढाई आखर ही घृणा के...। उसने अपने आप से कहा। बच्चा जगने के लिए कुनमुना रहा था। उसे उसने वापस थपका दिया। बच्चा सो गया।

शुक्लाजी ने मां के प्यार को देखा और महसूस किया। वे सोचने लगे।

प्रेम के बारें में हम क्या जानते हैं ? प्रेम एक महत्वपूर्ण भावनात्मक घटना हैं। प्रेम को वैज्ञानिक अध्ययन से अलग समझा जाता है। कोई भी शब्द इतना नहीं पढ़ा जाता है, जितना प्रेम, प्यार, इश्क, मुहब्बत। हम नहीं जानते कि हम प्रेम कैसे करते हैं। क्यों करते हैं। प्रेम एक जटिल विषय हैं। जिसने मनुष्य को आदि काल से प्रभावित किया है। प्रेम और प्रेम प्रसंग मनुष्य कि चिरस्थायी पहेली है। प्रेम जो गली मोहल्लों से लगाकर समाज में तथा गलियों में गूंजता रहता है। प्रेम के स्वरूप और वास्तविक अर्थ के बारें में उलझनें ही उलझनें है। प्रेम मूलतः अज्ञात और अज्ञेय है। प्रेम का यह स्वरूप मानव की समझ से दूर हैै। प्रेम के बारें में कोंई जानकारी नहीं हो पाती है प्रेम पर उपलब्ध सामग्री कथात्मक, मानवतावादी तथा साहित्यिक है या अश्लील है या कामुक है और प्रेम का वर्णन एक आवेशपूर्ण अनुभव के रूप में किया जाता है अधिकांश साहित्य प्रेम कैसे करें? का निरूपण करता है। प्रेम के गंभीर सामाजिक और मनोवैज्ञानिक अध्ययन के प्रयास देर से शुरू हुए। प्रेम एक आदर्शीकृत आवेश है जो सेक्स की विफलता से विकसित होता है। या फिर सेक्स के बाद प्रेम विकसित होता है। परन्तु सेक्स प्रेम से अलग भी प्रेम होता है प्रेम को शुद्धतः आत्मिक चरित्र भी माना गया है। प्रेम और सेक्स की अलग अलग व्याख्याएं संभव है। परिभाषाएं संभव हें पे्रम एक जटिल मनोग्रन्थि हे। प्रेम एक संकल्प हैं। जिसके अर्थ अलग अलग व्यक्तियों कि लिए अलग अलग हो सकता है। यदि प्रेम का समनवय शरीर से है तो उद्दीपन ही सेक्स जनित प्रेम है, यदि ऐसा नहीं है तो यह एक असंगत प्रेम है।

प्रेम संवेगों का उदगम क्या है? प्रेम भावना क्या है? व्यक्ति के उदगम अलग अलग क्यों होतें है। देहिक ओर रूहानी प्रेम क्या है? प्रेम का प्रारम्भ कहां से होता है और अंत कहां पर होता है। प्रेम में पुरस्कार स्वरूप माथे पर एक चुम्बन दिया जाना काफी होता था, मगर धीरे धीरे शारिरिक किस को महत्व दिया जाने लगा ओर सम्बन्ध बनने लग गये। प्रत्येक मनुष्य में जन्म के समय से ही प्रेम का गुण होता है तथा प्रेम की क्षमता होती है।

प्रेम वास्तव में मनुष्य का वह फोकस है जो सेक्स से कुछ अधिक प्राप्त करना चाहता है। जब किसी के लिए दूसरे की तुष्टि अथवा सुरक्षा उतनी महत्वपूर्ण बन जाती हैं। जितनी स्वयं की तो प्रेम अस्तित्व में आता है। प्रेम का अर्थ अधिकार नहीं समर्पण और पूर्णरूप से स्वीकार करना होता है। दो मनुष्योेें के बीच आत्मीयता की अभिव्यक्ति ही प्रेम है। प्रेम से अभिप्राय उस अतः प्रेरणा के संवेगों से होता है जो व्यक्ति के साथ व्यक्तिगत संपर्क से प्राप्त होती है। रोमांटिक प्रेम वास्तव में सामान्य प्रेम की गहन अभिव्यक्ति होता है। जिसमें एन्द्रिय तथा रोमांटिक प्रेम का अस्तित्व हमेशा से ही रहता है।

प्रेम के चार मुख्य घटक संभव है परमार्थ प्रेम, सहचरी प्रेम, सेक्स प्रेम, और रोमांटिक प्रेम। शुक्लाजी ने प्रेम का वर्गीकरण करने का प्रयास किया।

प्रेम उभयमानी होता है वास्तव में प्रेम घनात्मक एवं ़़ऋणात्मक धु्रर्वो की तरह ही होता है एक ही मन उर्जा के दो विपरीत घुर्वो की तरह है।

प्रेम के पात्र के साथ तादात्मय स्थापित करना ही प्रेम मेें सवोंर्च्य लक्ष्य हो जाता है। महिला के लिए प्रेम ही धर्म बन जाता है। संसार में प्रेम के अलावा कुछ भी वास्वविक नहीं है। व्यक्ति प्रेम से कभी भी थकता नहीं है। प्रेम जीवन की प्रमुख अभिव्यक्तियों का श्रोत है। प्रेम ही एक ऐसी चीज है जो सर्वाधिक सार्थक है। प्रेम करने वाला कष्ट ओर विपत्तियों का सामना करता है। ओर प्रेम को वरदान मानता है। सुख का कोई भी श्रोत उतना सच्चा नहीं जितना प्रेम है। प्रेम सहनशील बनाता है। समझदार बनाता है। ओर अच्छा बनाता है। हम अधिक उद्दात्त बन जाते हैं। शुक्लाजी का सोच आगे बढ़ता रहा।

व्यक्ति का जन्म प्रेम ओर मित्रता करने के लिए होता है। प्रेम के अमूल्य विकास में बाधा डालने वाली प्रत्येक चीज का विरोध किया जाना चाहिये। प्रेम का उन्मुक्त विकास होना चाहिये। अपने रूप को बनाये रखकर दूसरे को ऊर्जान्वित करने को ही प्रेम कहा जाना चाहिये। प्रेम से सुरक्षा की भावना बढ़ती है। प्रेम करने वाले को अपने प्रेम के पात्र के कल्याण ओर विकास मेें ही दिलचस्पी रहती है। प्रेमकरने वाला अपने साधन अपने पात्र को उपलब्ध कराता है। इससे उसे सुख मिलता है।

प्रेम सबसे सहजता से ओर परिवार की परिधी में उत्पन्न होता है। आगे जाकर पूरी मानवता को इस में शामिल किया जा सकता है। प्रेम का भाव प्रेम के पात्र तक ही सीमित नहीं रहता है। बल्कि प्रेम करने वालें के सुख तथा विकास को भी बढ़ाता है।

प्रेम पसन्द या रूचियों पर निर्भर नहीं रहता, प्रेम की गली अति संकरी या में दो ना समाये, ढ़ाई आखर प्रेम का पढ़े सौ पण्डित होय। शुक्लाजी को अपने जीवन की स्मृतियां याद आई। वे फिर सोचने लगे।

प्रेम का रास्ता तलवार की धार पर चलने का रास्ता हैं। विश्व की महान उपलब्ध्यिों के लिए प्रेरणा स्त्री के प्रेम से प्राप्त होती है। कालिदास, नेपोलियन, माइकल फैराडे के जीवन में प्रेम ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ऐन्द्रिय उल्लास पे्रम का फल होता है। प्रेम व्यक्ति का जीवन हो जाता है, ओर जीविका भी। प्रेम आवश्यक रूप से पसन्द या रूचियों पर निर्भर नहीं करता है। प्रेम अति भाव भी जाग्रत करता है। प्रेम एक ऐसा संवेग है जो आवेग ओर आवेश के बढ़ जाने के बाद बना रहता हैै। प्रेम केवल एक रोमांटिक भावना नहीं है। प्रेम के अधारभूत अनुभव की जड़े व्यक्तियों की आवश्यकताओं में होती है। सूत्र रूप में हम प्रेम की कल्पना एक संवेंगात्मक रूप मेें कर सकतेे है। वास्तव में प्रेम वैयक्तिक ओर सामाजिक दोनो प्रकार के कल्याण तथा सुख के लिए आवश्यक है। प्रेम की जटिलता को समझना आसान नहीं होता है। प्रेम के विषमलिंगी व्यक्तियों में अनुराग , लगाव रूचि ओर भावावेश होता है। ओर अन्य व्यक्ति इस क्रिया को अपने ढ़ंग से देखने के लिए स्वतंत्र होता है। शुक्लाजी ने स्त्री-पुरूष सम्बन्धों पर पुनर्विचार किया। प्राचीन भारतीय स्त्री में भी पुरूष की अपेक्षा प्रेम का गुण कहीें अधिक पाया जाता है। प्रेम को उसके अधिक उद्दात्त अर्थ में समझना स्त्री के लिए ही संभव है संपूर्ण प्रेम की और स्त्री का झुकाव ज्यादा पाया जाता है। शरीर गौण हो जाता है। निष्काम प्रेम की कल्पना ही सहज रूप में संभव है।

शुक्लाजी सोचते-सोचते परेशान हो गये।

लक्ष्मी उन्हें विचार मग्न देखकर अपने काम में लग गई। छुट्टी का दिन था। सब कुछ आराम से किया जा सकता है। शुक्लाजी ने उसे अपने पास बिठाया। बोले।

‘प्रेम के बारे में तुम क्या सोचती हो?'

‘स्त्री बेचारी क्या सोचे। उसे कौन पूछता है। बचपन में बाप की छाया, जवानी में पति की शरण और बुढापे में पुत्र और बाद में नाती-पोते। हर कोई उसे अपना एक खिलोना समझता है या काम करने वाली मशीन या फिर जवानी में बच्चे पैदा करने वाली मशीन बस।'

‘लेकिन स्त्री का मन......।' शुक्लाजी ने टोका।

‘काहे का मन और काहे की आत्मा। सब कहने की बात है। एक संतान हो तो लड़का चाहिये। चीन की हालत देखो बहुत खुश होकर एक-एक संतान का नारा दिया गया। अब आज...। और हमारे देश में भी एक-या दो-या तीन लड़कियों के बाद भी एक लड़के की इच्छा।'

‘लेकिन तुम्हारे तो लड़का है।'

‘व्यक्तिगत बातचीत से क्या फायदा। समाज का सोच क्या है?'

‘समाज का सोच। हमारे हाथ में नहीं है।'

‘फिर पूछते क्यों हो ?'

‘देखो ये सब समस्याएं हमारी अकेले की नहीं है।'

‘वो तो मैं भी जानती हूं। प्रेम एक व्यापार की तरह है। और इस घोर कलियुग में तो इस हाथ दे उस हाथ ले...।'

‘शायद तुम सही हो।'

‘लेकिन यह तो वासना का व्यापार है।'

‘यही तो त्रासद व्यंग्य है श्रीमान।'

‘इस युग में और हर युग में इस व्यापार का अन्तिम सिरा वासना के हाथ में ही रहा है। प्रेम के घटकों को एक साथ कौन समझuk चाहता है।'

‘और कौन समझ सकता है। प्रेम गली अति सांकडी या में दो uk समाये। प्रेम करना तलवार की धार पर चलना है।'

‘नही प्रेम एक व्यापार है और इसे इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिये।' शुक्लाजी ने निर्णायक अंदाज में कहा।

‘चलो छोड़ो सुबह खूबसूरत है। नहाने के बाद तुम और भी खूबसूरत लगती हो। तुम किसी अप्सरा की तरह लगती हो।'

‘छोड़ो ये चोंचले। मुझे मालूम है जन्नत की हकीकत। यदि विश्वविद्यालय से तुम्हारी प्रिन्सिपली तक की सफलता बयां करने लगंू तो महाभारत के कई सीन हो जाये।'

‘लेकिन ये सब इक तरफा तो न था........।'

‘सवाल ये नहीं है, सवाल ये है कि क्या ये व्यापार नहीं है, यदि व्यापार है तो प्रेम नहीं है। घृणा नहीं है। विनिमय है, और विनिमय की शर्तें हमेशा से ही कठोर होती है। हमें इन शर्तों को मानना पड़ता है।'

‘शर्तें मानने से हमारे सम्बन्धों पर क्या असर होता है।'

‘होता है। असर होता है। एक कसक हमेशा कलेजे में रहती है। एक टीस है जो कभी खत्म नहीं होती।'

‘लक्ष्मी मानव भी एक जीव है, क्लास मेमेलिया का गया मुख्य चरित्र ही पोलिगेमी है और इससे कोई बच नहीं सकता।'

‘न बचे मगर क्या मनुष्य जानवर है ?'

‘समाज तो ऐसा नहीं मानता।'

‘तब फिर हम ये सब क्यों करते हैं ? या क्यों करने को मजबूर करते हैं। इसका जवाब कोई नहीं दे सकता।'

‘दे सकता है। हर पीड़ित, शोषित, वंचित को इन बातों का जवाब पता है। प्रेम ही वासना है। वासना ही व्यापार है।'

शुक्लाजी चुपचाप शून्य में देखते रहे। वे चाहकर भी शुक्लाइन से आंखे नहीं मिला सके। शुक्लाईन बच्चे को दूध पिलाने में व्यस्त हो गई। उसे प्रेम का शाश्वस्त स्वरूप वात्सल्य ही लगा। बाकी सब वासना, व्यापार, अश्लीलता। पोलिगेमी आदि। वह स्वर्ग सा सुख पा गई।

शुक्लाजी भी इस वात्सल्य सुख को देख-देख कर अनिर्वचनीय आनन्द की अनुभूति करने लगे।

शुक्लाईन बच्चे के तोतले मंुह से वाणी सुनकर निहाल हो गई। उसने प्यार से बच्चें को चूम लिया। शुक्लाजी ने भी बच्चे के गाल पर स्नेह-चिन्ह का अंकन किया। मगर शुक्लाजी शुक्लाईन से आंखें नहीं मिला पाये। उन्हें जीवन में त्रासद व्यंग्य की फिर अनुभूति हुई।

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दिल्ली का बहादुरशाह जफर मार्ग। भव्य अट्टालिकाएं। इन भवनों में प्रिंट मीडिया के दफ्तर। इन दफ्तरोंं में बड़े-बड़े सम्पादक। पत्रकार। लेखक। दिल्ली के बुद्धिजीवी। देशभर के बुद्धिजीवी यहां पर चक्कर लगाते रहते हैं। थोड़ी दूर पर ही दरियागंज, पुरानी दिल्ली। जामामस्जिद। लाल किला। कश्मीरी गेट। दिल्ली के क्या कहने। हर व्यक्ति दिल्ली में बसना चाहता है। हर फूल दिल्लीमुखी। दिल्ली को ही ओढ़ना, बिछाना चाहता है। कनाट प्लेस दिल्ली का दिल। चाणक्यपुरी दिल्ली का राजनयिक परिसर। राष्ट्रपति भवन। प्रधानमंत्री कार्यालय। नार्थ ब्लाक। साउथ ब्लाक। केन्द्रीय सचिवालय। पार्टियों के दफ्तर। पूरे देश की नब्ज पहचानती है दिल्ली। चपरासी की दिल्ली, दिल्ली के चपरासी तक। मंत्री की दिल्ली, दिल्ली के मंत्री तक। साहित्यकार की दिल्ली साहित्य अकादमी। कलाकार की दिल्ली, ललित कला अकादमी। संगीतकार की दिल्ली, संगीत नाटक अकादमी। सब व्यस्त। सब अस्त। सब अस्त-व्यस्त। भागम-भाग। एक के पीछे एक। अब मेट्रो रेल में भागती दिल्ली। मशहूर और मारूफ दिल्ली। कई बार बसी। कई बार उजड़ी दिल्ली। खाण्डवप्रथ से इन्द्रप्रस्थ। अंग्रेजों की दिल्ली। बाहदुशाह जफर की दिल्ली। मेरी आपकी सबकी दिल्ली। दिल्ली दिल है भारत का। कुछ के लिए काला है यह दिल मगर दिल्ली का दिल दरिया है...।

इसी दिल्ली के बहादुरशाह जफर मार्ग पर एक नये खुले खबरिया चैनल के दफ्तर में तेजी से अविनाश जा रहा है। उसे इस सीमेंट कंकरीट के जंगल में आदमी का वजूद कहीं नजर नहीं आ रहा था। चारों तरफ लोग कबूतरों की तरह भरे पड़े थे और फ्लैटों में ठंुसे पड़े थे। वो इस भीड़ में था। भीड़ का एक हिस्सा। मगर भीड़ से अलग दिखने के प्रयास में भी लगा हुआ था।

अविनाश अपनी सहयोगी ऋतु से मुखातिब था।

‘आज की ताजा खबर।'

‘यही की सब ठीक-ठाक है। तुम्हारा न्यूज कैपसूल जारी है।'

‘और वो मंत्री के भ्रष्टाचार वाला मामला।'

‘आजकल भ्रष्टाचार ही शिष्टाचार है।'

‘लेकिन ये तो बहुत बड़ा मामला है।'

‘अविनाश भाई हर मामला बड़ा है और वैसे भी इस मंत्री कोे भ्रष्ट कहना उसका अपमान है। वे तो भ्रष्टों में श्रेष्ठ है। बल्कि श्रेष्ठतम है।' ऋतु ने अपना गुबार निकाला।

अविनाश चुप रहा। बोलने को था ही क्या।

‘सुना है सेठजी आजकल कोई नया चैनल लांच करने वाले हैं।'

‘हो सकता है, हमें तो अपना काम करना है।'

‘हां अपना-अपना काम खत्म करो और घर जाओ वैसे भी इस नई तकनोलोजी में मानव का वजूद ही कहां है। हम सब मशीनें हैं। मशीन की तरह अपना काम करो और यदि एक पुर्जा बेकार है तो उसे बदल दो।'

‘सेठजी के नये चैनल में क्या-क्या होगा।'

‘शायद पूर्ण रूप से मनोरंजन। विदेशी फिल्में। इसे एडल्ट चैनल कहो तो बेहतर होगा।'

‘एडल्ट चैनल।'

ये तो बिल्कुल नया नाम है।

‘नया है लेकिन जब छोटे-छोटे कस्बों में ऐसे कार्यक्रम चल रहे है तो एक बड़े चैनल को चलाने में क्या परेशानी है।'

‘परेशानी तो जनता या सरकार को होगी।'

‘सरकार तो हमारे सेठजी की जेब में रहती है। साल भर बाद चुनाव आने वाले है। चुनावों में आजकल इलेक्ट्रोनिक मीडिया का बड़ा महत्व है।'

‘है लेकिन प्रिंट मीडिया की विश्वसनीयता ज्यादा है। इलेक्ट्रोनिक मीडिया की उम्र बहुत कम है। प्रिंट मीडिया कम से कम चौबीस घन्टे तो जिंदा रहता है। इलेक्ट्रोनिक मीडिया तो बस देखा, दिखाया और खत्म।'

‘सुनो। तुम्हें कल का एक किस्सा सुनाती हूं।'

‘जरूर। जरा ये काम देख लूं।'

अविनाश ने अपना काम जल्दी खत्म किया। ऋतु ने कहा।

‘कल मैं एक काम से एक ऑपरेशन के सिलसिले में एक स्थानीय निकाय के कार्यालय में गई। मैंने अपनी पहचान छुपा कर काम कराने की कोशिश की।' अफसर ने कहा।

‘मैडम अभी तो देश की हालत ये है कि यदि महात्मा गांधी भी काम कराने के लिए आये तो बिना लिये-दिये कुछ नहीं होगा।'

अविनाश उस अफसर की बात मुझे छू गई।

‘क्या व्यवस्था वास्तव में इतनी बिगड़ी गई है, और क्या हम एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे है।'

‘शायद तुम ठीक कह रही हो हम एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे है।' अविनाश बोला।

ऋतु अपने काम में व्यस्त हो गई। अविनाश वापस शीघ्र जाना चाहता था।

लगभग हर खबरिया चैनल पर एक जैसा राग अलापा जा रहा था। सब कुछ एक जैसा। सब कुछ व्यवस्था के विरूद्ध लेकिन चैनल के स्वार्थों के अनुकूल।

जिन उद्धेश्यों तथा एथिक्स की कसमें खाई जाती है वो कहां है। कहां है।

अविनाश खुद को कोई जवाब नहीं दे सका।

काश महत्वाकांक्षा की इस अंधी दौड में वो शामिल नहीं होता। मगर इस मकड़जाल में घुसना जितना मुश्किल था, निकलना उससे भी ज्यादा मुश्किल। अन्धेरे में उजाले की एक किरण के रूप में कभी-कभी वो साहित्य की ओर लौटने की सोचता मगर अब बहुत देर हो चुकी थी। अविनाश मनमसोस कर रह गया। इन भव्य भवनों के पीछे की गन्दी जिन्दगी की सड़ान्ध से उसे उबकाई आती। मगर अब तो यह उसका जीवन था क्योंकि घर था। परिवार था। बच्चे थे। आवश्यकताएं थी। किश्तें थी। फ्लेट था। कार थी। और किश्ते देने के लिए जमीर की नहीं खबरों को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत करने की आवश्यकता थी। उसे याद आया एक प्रसिद्ध चैनल का मुख्य कार्यकारी मर गया तो चैनल ने उसकी मृत्यु का समाचार तक नहीं दिया। एक अन्य चैनल के संवाददाता की पिटाई के दृश्य राजनैतिक दवाब के कारण तुरन्त हटा लिये गये। एक महिला पत्रकार के यौन शौषण के मामले को दबा दिया गया। चैनलों की आपसी स्पर्धा में व्यक्ति का वजूद खो सा गया है।

सेठों, बनियों, उद्योगपतियों, अफसरों, नेताओं और पार्टियों के मीडिया मैनेजरों की आंख का इशारा समझने वाला चैनल और पत्रकार ही जिंदा रह सकता है। वैसे भी एक नेता ने स्पष्ट कहा ‘मीडिया इज कम्पलीटली मैनेजेबल।' और वास्तव में यही स्थिति है मीडिया ही नहीं सब कुछ मैनेजेबल है। सत्ता, संगठन, सरकार, समाज, पार्टी, सब कुछ। खरीदने की ताकत होनी चाहिये बस।

अविनाश सोच-सोच कर परेशान होता रहा। ऋतु काफी लाई। अविनाश और ऋतु काफी पीने लगे।

‘यशोधरा कैसी है ?'

‘वो एकदम ठीक है। तुम्हें याद करती है।'

‘कभी आऊंगी। फुरसत निकाल कर।'

‘बच्चा कैसा है।'

‘वो भी एकदम ठीक है। अब तो खड़ा होकर चलने लग गया है।'

‘चलो यशोधरा का टाइमपास हो जाता होगा।'

‘हां ये तो ठीक है। कभी-कभी सोचता हूं उसने काम-काज छोड़ दिया अच्छा किया।'

‘अब अच्छा क्या और बुरा क्या।' ऋतु बोली।

‘फिर भी तुम भी तो छोड़uk चाहती हो।'

‘इतना आसान है क्या छोड़ना। घर वाले तो सोने के अण्डे देने वाली मुर्गी समझते हैं मुझे। डालर बहू न सही रूपया बहू तो हूं न मै...।

‘हां...हां...क्या बात है।'

चलो कुछ काम करते हैं।

X X X

ये ठण्ड के दिन। ठण्डे, उदास और बासी दिन। इन दिनों सूरज भी अफसर हो जाता है। सुबह देर से आता है और शाम को जल्दी चला जाता है। बादल, हवा, वर्षा, शीत लहर सब एक के बाद एक आते चले जाते हैं। सर्दी अमीरों की और गर्मी गरीबों की। सर्दी में ओढ़ना, बिछाना भी एक समस्या। खाने-पीने के मजे भी केवल अमीरों के। सरदी के दिन। कब कौन चला जाये कुछ कहा नहीं जा सकता। ठण्ड के दिन। ताव के दिन। सूरज और धूप को तलाशने के दिन। दिन सरकता है और दिल दरकता है। बड़े-बूढ़े सूरज की धूप के साथ सरकते रहते हैं। धीरे-धीरे जिन्दगी धूप के बावजूद, ठण्डी, बेजान और बेस्वाद हो जाती है।

ऐसे ही ठण्डे दिनों में अविनाश को आदेश मिला कि कवरेज के लिए राजस्थान के एक गांव में जाना है। वो हवाई यात्रा से जाना चाहता था, मगर अफसोस निकटतम हवाई अड्डा काफी दूर था। सेठजी ने ट्रेन से जाने के आदेश दिये। अविनाश को मानने पड़े। अविनाश ने साथी टीम को भी अपने साथ ही प्रथम ए.सी. में बिठा लिया। इलेक्ट्रोनिक मीडिया के पत्रकार होने के नाते इतना हक तो उनका बनता ही था। वैसे भी टे्रेन इस ठण्ड में बिल्कुल खाली थी। ट्रेन एक जगह रूकी। अविनाश ने चाय के लिए बाहर देखा कुछ नहीं सूझा। तभी चाय-चाय की आवाजें लगाता एक वेटर अन्दर ही आ गया। सभी चाय की चुस्कियों मों लगे थे कि वेटर ने बताया।

‘सर आप लोग मीडिया से है, इसलिए बताता हूं, इस ट्रेन में कुछ गड़बड़ है।'

‘क्या गड़बड़ है।'

‘वो तो मैं अभी निश्चित रूप से नहीं कह सकता मगर...।' वेटर का वाक्य अधूरा ही रह गया। एक तेज धमाका हुआ। अविनाश के कोच से दूर इन्जन के पास वाले कोच के परखचे उड़ गये थे, अपना राजस्थान का पूर्व निर्धारित काम छोड़कर अविनाश की टीम ने इस धमाके को कवर करना शुरू किया।

वे घटना स्थल पर पहँुचने वाले पहले पत्रकार थे। मोबाइल के जरिये उन्होंने तेजी से सूचनाएं अपने कार्यालय में देनी शुरू की।

ठण्डी रात। अन्धकार के बावजूद अविनाश की टीम ने शानदार काम किया। वे लगातार देश-दुनिया को इस दुर्घटना की जानकारी देने में लगे रहे।

मगर जल्दी ही मीडिया के भारी भरकम लवाजमें आ गये। प्रशासन पुलिस ने सब संभाल लिया। सरकारी मीडिया की सूचनाएं सही मान ली गई। कितने मरे। कितने घायल हुए। इस मामले में अविनाश की टीम के आंकडों को कयास बताया गया। असली आंकड़े छुपाये गये। लाशों को चुपचाप इधर-उधर कर दिया गया। घायलों को जल्दी से जल्दी अस्पतालों से छुट्टी देने के प्रयास किये गये। वे लोग चाहकर भी हकीकत नहीं बता सके। उनकी बतायी बातों को हकीकत से दूर माना गया। कलक्टर ने साफ कहा।

‘वहीं दिखाईये जो हम कहते हैं।'

ए.सी.पी. एक कदम आगे बोले ?

‘वही लिखिये जो हम कहते हैं। हम बोलते हैं। अपनी मन-मर्जी की बकवास मत छापिये, मत लिखिये, मत दिखाईये।'

‘क्या सब कुछ गलत ही है। सही कुछ भी नहीं है।' और ऊंचे अधिकारियों के विचार और भी ऊंचे थे, वे पत्रकारों से बच-बच कर चल रहे थे।

‘आखिर इस विस्फोट का कारण क्या था।'

‘कारण पता चलते ही सबसे पहले आपको सूचित करेंगे। फिलहाल आप हटिये और हमें हमारा काम करने दीजिये।' एस.पी. बोले।

‘हम भी तो हमारा ही काम कर रहे है।' अविनाश ने कहा।

‘आपका तो बस एक ही काम है। हमें उलझाना...।'

अविनाश और साथी पत्रकार क्या बोलते। तभी विस्फोट की जिम्मेदारी एक आतंकवादी संगठन ने ले ली। अविनाश ने यह खबर मीडिया को दी।

मगर आतंकवाद के समाचारों के दौरान ही अविनाश को एक ओर समाचार मिला। उसके घर पर भी आतंकी हमला हुआ था। मगर शुक्र है यशोधरा-बच्चा सुरक्षित थे। वो सोचने लगा।

‘क्या सब कुछ खतरे में है ? क्या सब कुछ गलत हाथों में है ? क्या कुछ भी ठीक-ठाक नहीं है ? क्या मानवता यूं ही कराहती रहेंगी ? निर्दोष मारे जाते रहोंगे। क्या यही प्रजातन्त्र, स्वतन्त्रता का असली चेहरा है ?‘ अविनाश की आंखों के सामने अंधकार छा गया। वो वापस दिल्ली जाना चाहता था। उसने ऋतु से बात की। ऋतु ने आफिस में सब ठीक-ठाक कर उसे और उसकी टीम को वापस बुला लिया। राजस्थान के गांव का कवरेज इस बार नहीं हो सका, अवनिाश को इस बात का दुःख था। मगर दुःखी होने से क्या हो जाता है। अविनाश ने एक माह की छुट्टी मांगी, दस दिन की मिली। वो पत्नी और बच्चे को लेकर वापस अपने कस्बे में लौट आया। शान्ति, सुकून की तलाश में।

अविनाश वापस उस लक-दक शहर में नहीं जाना चाहता था। लक-दक, चमकती नौकरी के अन्दर का अन्धकार उसे वापस जाने से रोक रहा था। वो अपने पुराने प्रिंट मीडिया में आने को आतुर था। इन्टरनेट से भी उसका मोह भंग हो चुका था। मगर प्रिंट मीडिया में नये लड़के-लड़कियों की बहार थी। वो डिग्रीधारी थे। होशियार थे। स्मार्ट थे। व्यवस्था के नट बोल्ट को कसना और ढीला करना जानते थे। अविनाश ने फिलहाल कुछ कालम लिखना शुरू किये। एक फीचर एजेन्सी शुरू की, मगर बात नहीं बनी। उदासी के इस दौर में पत्नी और बच्चें का ही सहारा था।

X X X

कोरपोरेट में करप्शन एक बड़ी बीमारी के रूप में उभर कर सामने आ रहा था। निजि खेत्र में रोज नई कम्पनियां, रोज नये शेयर, रोज नये बाजार और इन सबके बीच तेजी से उभरता नवधनाढ्य वर्ग, कम्पनियों के पंजीकरण के नये क्षितिज, नये आंकड़े बन गये। शेयर बाजार कहां से कहां पहुंच गया।

इतनी तेजी से बढ़ा शेयर बाजार कि सेन्सेक्स को समझने में ही आम आदमी को परेशानी होने लगी। कोरपोरेट घरानों की यारी-दुश्मनी के किस्से अखबारों में, पत्रिकाओं में तथा इलेक्ट्रोनिक मीडिया में उछलने लगे। इस दाल में कुछ काला है यह मुहावरा पुराना पड़ गया, अब तो दाल ही काली है। कोरपोरेट घरानों में आपसी स्पर्धा, घृणा में बदल गई। हर बड़ी मछली छोटी मछली को निगलने को आतुर। सफलता ही सब कुछ। कुछ बड़े मगरमच्छ जो पुश्तों से कारपोरेट दुनियां पर राज कर रहे थे, पीछे खिसक गये और पहली पीढ़ी के बहुत बड़े नये कारेपोरेट विकसित हो गये। नैतिकता, ईमानदारी, स्वच्छता, जनता के प्रति प्रतिबद्धता आदि शब्दों को हटाकर व्यापारिक लाभ, शुद्ध लाभ, की और ही नजरें गड़ा दी गई।

एक व्यापारिक घराने ने दूसरे घराने में लड़ाई करवा दी। भाईयों में मनमुटाव इतना बढ़ गया कि एक भाई ने दूसरे को बेदखल कर दिया। भाई ने मां का सहारा लिया और हिस्सेदारी के लिए परिवार के गुरू की शरण ली।

अपनी कम्पनी और ज्यादा ऊंची करने के लिए एक व्यापारिक घराने ने दूसरे की फेक्ट्री पर छापा डलवाया। ताले डलवाये। शेयर बाजार से सब शेयर खरीद लिए। दूसरा घराना घबराया नहीं सीधा वित्तमंत्री के पास गया। वित्तमंत्री ने पहले घराने पर आयकर, सर्विसकर, एक्साइज आदि के ऐसे फंदे डलवाये कि घराने की महिलाएं तक जेल हो आई।

वैसे भी वित्तमंत्री का सीधा-सादा जवाब होता है ये सब विदेशी ताकते करवा रही है। आतंकवादयिों का पैसा शेयर बाजार में लग रहा है। हम स्थिति पर नजर रखे हुए है। हम कठोर कार्यवाही करेंगे। नियमों का पालन सख्ती से किया जायेगा। आदि जुमलें हर समय हवा में तथा अखबारों में उछलते रहते हैं।

कारपोरेट घरानों का एक और शौक है तीसरे पेज पर दिखाई देना। इस घटिया मगर आवश्यक कार्य हेतु कारपोरेट घराने अलग-अलग अखबारों व चैनलों के अन्दर अपने आदमी रखते हैं, उन्हें भुगतान करते हैं और समय आने पर आवश्यकतानुसार उनका उपयोग प्रचार, प्रसार, प्रसिद्धि के लिए करते हैं। पेज तीन पर छपने वालेेे इन पार्टी समाचारों में चित्र भी अधनंगे ही होते हैं। अच्छी पार्टी के लिए यही सबसे बड़ी बात होती है कि कितने खरबपति या उनके परिवार वाले इस पार्टी में आये।

ऐसी ही एक पार्टी में रात के तीन बजे एक आलीशान कार में नशे में धुत्त दो युवक आये और पार्टी में शामिल बारटेण्डर लड़की से शराब की मांग की।

‘साकी और पिलाओ।'

‘सर आप पहले ही ओवर है।'

‘ओह। शट आप। तुम्हारी ये हिम्मत। यार जरा इस लड़की की औकात तो देखो। मुझे मना कर रही है...मुझे।'

‘सर...आप... समझिये। बार बन्द हो चुका है।'

‘बन्द हो...चुका है तो खोल डालो। नहीं तो तुम्हारी खोपड़ी खोल डालंूगा।'

लड़की कुछ कहती तब तक नशे में चूर लड़के के पिस्तोल से गोली चली और लड़की वहीं ढेर हो गई।

पार्टी में भगदड़ मच गई। सब रईसजादे भग गये। कई दिनों तक घर से बाहर नहीं निकले। बड़ा हो-हल्ला मचा। मगर चश्मदीद गवाह गायब हो गये। कोई आगे नहीं आया। पेज तीन पर सन्नाटा छा गया। कारपोरेट घराने चुप हो गये। मगर थोड़े ही दिनों के बाद सब कुछ शान्त। वापस जीवन पटरी पर आ गया। लड़की की हत्या का मुकदमा मंथर गति से चलता रहा।

कारपोरेट घरानों में सफलता के लिए ही होती है ये पार्टियां। शराब, शवाब, बिजनिस डील, बिजनिस लंच, बिजनिस डिनर, बिजनिस नाईट सब कुछ सब बिजनिस।

कारपोरेट घरानों के सम्बन्ध सीधे राजनीति की दुनिया से होते हैं। राजनीतिक दलों को चंदा, हेलीकॉप्टर, चार्टर हवाई जहाज चाहिये और कारपोरेट घरानों को व्यापार की सुविधा। प्रगतिशील सरकारें तक सेज, उद्योग, फेक्ट्री के नाम पर किसानों की उपजाऊ जमीन इन्हें देकर अपना समय काटती है, समय काटने के लिए कारपोरेट घराने एक दूसरे का गला तक काट देते हैं। सब कुछ व्यापार के नाम पर। काली लक्ष्मी, सफेद लक्ष्मी। व्यापारे वसति लक्ष्मी। जैसे बेद वाक्यों से चलते हैं व्यापारिक घरानें।

सब कुछ निकृष्ट ही हो ऐसा नही है। वे समाज सेवा भी करते हैं तो व्यापारिक दृष्टिकोण के साथ। किसी मन्दिर का जीर्णोद्धार करके आसपास की जमीन पर कब्जा करना, ऑफिस खोलना, संस्थाएं खोलना आदि।

नई पीढ़ी धनवान तो है ही...कुशल भी बहुत है। बड़ी तेजी से भारत के और स्वयं के नव निर्माण में लगी हुई है। यहां पर रिश्ते भी पैसे के हिसाब से बदलते हैं। बोर्डरूम में जाने के लिए बेड़रूम मों जाना आवश्यक है। कानूने के पचड़े में फंसने पर सेठ किसी उपाध्यक्ष, किसी चेयनमैन, किसी डायरेक्टर, किसी मैनेजर, किसी लेखाधिकारी की गर्दन फंसा देता है, खुद नहीं फंसता।

एक घराने के व्यक्ति को कोर्ट ने सजा दी, मगर सजा काटी, एक गरीब मजूदर ने। हां सेठजी ने उस मजदूर के घर वालों का पूरा ध्यान रखा। बाहर आने पर उसे काम दिया। रूपये दिये। आखिर वो सेठ के बजाय जेल में जो रहा था।

प्ोज तीन में ग्लेमर, गोली और गाली सब थे। बड़े शहरों की यह बीमारी अब छोटे शहरों, कस्बों में आ गई थी। पार्टी देना-लेना एक सामाजिक आवश्यकता बन गयी थी। सम्बन्ध बनाना और सम्बन्धों को केश करना और जो सम्बन्ध केश नहीं हो सके उन्हें क्रेश कर देना एक उच्चवर्गीय मानासिकता बन गई थी। समाज में सोशलाइट होना सम्मान की बात हो गई थी। सोसाइटी गर्ल, कारपोरेट घरानों की आवश्यकता बन गई थी। वे कुछ नहीं करती मगर सब कुछ करती, उच्च वेतन पर रखी जाती। जनसम्पर्क तथा लाइजनिंग के कार्यों हेतु पेज तीन का महत्व निरन्तर बढ़ रहा था।

अविनाश नये स्थायी काम की तलाश में भटक रहा था। फिलहाल उसने यही काम पकड़ा। पेज तीन की पार्टियों में घुसपैठ बनाना। समाचार बनाना। समाचार बिगाड़ना। फैशन मॉडलों के सचित्र समाचारों को लिखना। छपाना। छपे हुए को बड़े लोगों को दिखाना और रोटी चलाना। समाचारों की इस विकट दुनिया में आम आदमी की तलाश लगभग बेकार थी। कभी-कदा किसी ठण्ड से मरते हुए या अस्पताल में इलाज के लिए तड़पते हुए या रैन बसरे में कम्बलों में छुपे हुए गरीब, गुरबों, भिखारियों के समाचार भी लगा दिये जाते। इधर एक नई विधा का विकास हुआ था। बड़े-बड़े चित्र छोटे-छोटे समचार। सचित्र। लड़कियां, महिलाओं के नाचते गाते, गुनगुनाते फोटो। अर्धनग्न हो तो क्या कहने। पत्रकार। उपसम्पादक की बांछे खिल जाती। हर अखबार में चित्र ही चित्र। जो जगह बच जाती उसमें समाचार के नाम पर नवधनाढ्य वर्ग की सूचनाएं।

अविनाश ये सब करने लगा। पक्की नौकरी अखबार में वापस प्राप्त करना मुश्किल काम था। पेज तीन पर राजनेताओं का भी बोलबाला था। उद्योगपतियों का तो साम्राज्य था। कभी-कभी अफसर और अफसरों की पत्नियों, पुत्रियों, प्रेमिकाओं, सालियों, महिला मित्रों के भी दर्शन पाठकों को हो जाते। पाठक धन्य हो जाते।

इस मारामारी में एथिक्स, पत्रकारिता के नैतिक मूल्य, जीवन व समाज की बातें करना बेवकूफी समझी जाने लगी।

कभी-कभी सड़क, पानी, बिजली और स्वास्थ्य की स्थायी समस्याओं पर लिख दिया जाता। पत्रकारों और मालिकों की कई पीढ़ियां, बिजली, पानी और सड़कों पर गढ्ढों के सहारे अपना जीवन-यापन कर रही थी। ये समस्याएं शाश्वत थीं और अविनाश जैसे लोगों के लिए इन पर लिखना भी आवश्यक था। खुद का और समाचार पत्र तथा सेठजी का पेट जो भरना था।

पेज तीन पर माडल थे। चैनलों में काम करने वाले थे। फैशन था। रेम्प था और स्थानीय चैनलों के एंकर थे। एफ.एम. के जोकी थे, कुल मिलाकर एक ऐसा कोलाज था जिसका कैनवास तो बहुत बड़ा था, मगर रंग फीके थे। विचार नदारद थे। चिन्तन ढूंढ़े नहीं मिलता था। मन्थन की बात करना बेमानी था। अविनाश और उसके जैसे पच्चीसों लोगों की ये मजबूरियां थी। हर शहर की तरह इस शहर में भी धारावारिक बनाने वाले पैदा हो गये थे। ये लोग अपने फार्म हाऊसों पर स्क्रीन टेस्ट के नाम पर स्किनटैस्ट करते। झूठा-सच्चा धारावाहिक बनाते। पैसे के बलबूते पर दूरदर्शन या चैनलों पर प्रसारित करते, कराते। विज्ञापन बटोरते और ये सब सूचनाएं पेज तीन पर डाल देते या डलवा देते।

पिछले दिनों ऐसे ही धारावाहिकों के निर्माता के साथ कुछ दूरदर्शी अधिकारी अदूरदर्शिता के कारण रंगे हाथों पकड़े गये। जेल गये। मगर सत्ता बदलते ही छूट कर और भी ऊंचे अफसर बनकर लौटे।

अविनाश क्या कर सकता था। उसे अपना घर-परिवार चलाना था। एक बार विचार किया अपना अखबार निकालू, मगर खर्चें का हिसाब किताब देखकर चुप लगा गया। सब कपड़े तक बिक जाते और शायद अखबार फिर भी नहीं चलता। उसने कुछ काम भी अन्य नाम से शुरू कर दिये। गृहस्थी की गाड़ी चलने लगी। इसी बीच उसकी मुलाकात अपने साले कुलदीपक और झपकलाल से हुई। तीनो कल्लू के ठीये पर मिले।

कुलदीपक भी ठाला था। झपकलाल भी ठाला बैठा था। बैठे ढाले अविनाश मिल गया था। कालू के ढीये पर बैठने को कुछ नहीं था, मगर सोचने को बहुत कुछ था। कालू बोला।

‘साब हमारे गांव का एक सैनिक शहीद हुआ है।'

‘कब।'

पिछली बार जब संसद पर आतंकवादी हमला हुआ था, तब।'

‘अच्छा फिर उसके घर वालों को कुछ मिला।'

‘कहां साहब। सरकार ने घोषणाएं तो बड़ी-बड़ी की, मगर हुआ कुछ नहीं।'

‘क्यों।' अविनाश की पत्रकारिता जागी।

‘क्या-क्या बताये साहब। उसकी विधवा बेचारी गांव में स्मारक बनाना चाहती थी। मगर वो भी नहीं हुआ। मूर्ति तो बन गई। लग भी गई। मगर उसके अनावरण के लिए खर्चा कौन दे। मंत्री आयेंगे।'

‘तो क्या ग्राम-पंचायत या गांव वाले कुछ नहीं करते।'

‘वे बेचारे क्या करें। और क्यों करे। सब कुछ उस विधवा के माथे ही है।'

‘ये तो सरासर गलत है।'

‘क्या गलत और क्या सही बाबूजी। मगर उसी विधवा को जो पैसे मिले वहीं सब झगड़े की जड़ है। घर के लोग भी उस पर आंखें गड़ाये बैठे हैं।'

‘लेकिन पैसा तो उसके खाते में होगा।'

‘खाते मेों होने से क्या होता है। आखिर रहना तो घर में ही पड़ता है।'

‘और पेट्रोल पम्प।'

‘पेट्रोल पम्प की मत पूछो बाबूजी।'

‘क्यों क्या हुआ।'

‘वो भी नहीं मिला।'

‘क्यों-क्यों नहीं मिला।'

‘क्योंकि जमीन नहीं मिली।'

‘जमीन क्यों नहीं मिली।'

‘अफसरों ने आंवटन नहीं किया।'

‘क्यों नहीं किया?'

‘क्योंकि रिश्वत नहीं दी गई।'

‘तो क्या इस शहीदी काम के लिए भी रिश्वत मांगी जा रही हैं ?'

‘हां, भाई हां।' कल्लू ने जल्लाकर जवाब दिया।

‘आप लोग इस मामले को उठाते क्यों नहीं।' अविनाश बोल पड़ा।

‘क्यों उठाये भाई। सब कुछ कमीशन-कट-रिश्वत का मामला है।' झपकलाल बोल पड़ा।

‘और फिर मीडिया खेल बिगाड़ तो सकता है, बना नहीं सकता।' कुलदीपक बोला।

‘नहीं ऐसी बात नहीं है। हम सब मिलकर इस मामलें को हाथ में लेते हैं।'

‘क्या करोंगे हाथ में लेकर आतंकी घटना की बरसी के जो विज्ञापन Nis है। ' उनमें शहीदों के नाम तक गलत Nis हैं, सरकार ने शुद्ध़िकरण हेतु विज्ञापन दिये है।

‘कैसी सरकार ?'

‘कैसी व्यवस्था ?'

‘कैसे अफसर ?'

‘शहीद-शहीद में फर्क।'

और इन नेताओं-अफसरों के आतंक से कैसे बचे। मगर अविनाश व उसके मित्रों ने हिम्मत नहीं हारी। पूरा मामला राष्ट्रीय स्तर पर मीडिया में उठाया गया।

शहीद की विधवा को न्याय मिला, मगर इस न्याय का उपभोग करने के लिए शहीद के मां-बाप जीवित नहीं रहे, वे यह लड़ाई लड़ते-लड़ते स्वर्गवासी हो गये।

शहीद की मूर्ति का अनावरण मुख्यमंत्री ने किया। सब ताम-झाम, खर्चें सरकारी हो गये। शहीद की विधवा की आंखें भर आई। मुख्यमंत्री ने उसे गले लगाया। उसके बेटे को नौकरी का आश्वासन मिला। मगर नौकरी नहीं मिली।

X X X

विशाल जो कल तक मामूली प्रोपर्टी डीलर था, आज एक बड़ा विख्यात या कुख्यात बिल्डर हो गया। इस नई टाऊनशिप के लिए उसने जो अलिखित समझौता उच्च स्तर पर किया था उसमें माधुरी का रोल बहुत बड़ा था। स्थानीय नेताओं से लगाकर राजधानी तक उसके रिश्तों की डोर बन्धी हुई थी। विशाल इस डोर के महत्व को समझता था। उसका उपभोग कर रहा था।

माधुरी के स्कूल-कॉलेज या निजि विश्वविद्यालय के लिए उसने टाऊनशिप का एक ऐसा भू-भाग चुना जो अपेक्षाकृत हल्का था, जहां पर टाऊनशिप के विकास के लिए उसे कुछ ज्यादा नहीं करना था। मगर माधुरी को यह सब मंजूर न था। उसने विशाल को अपनी शतोंर् की याद दिलाई। इधर नेताजी भी माधुरी के साथ थे। टाऊनशिप के कार्य का शुभारंभ हो एतदर्थ विशाल ने सड़क के किनारे से जमीन तक एक बड़ा गेट बना दिया। एक मोर्रम की सड़क बनवाई और बड़े-बड़े होर्डिग लगवा दिये। अखबारों में पूरे पृष्ठों के विज्ञापन दे दिये। बुकिंग शुरू कर दी। शुरूआती दौर में कन्सेशन,फ्री-गिफ्ट, गिफ्ट वाउचर, सस्ती दरें आदि के सब्जबाग दिखाये गये। बड़े-बड़े बैकों से लोन की सुविधाओं के वायदे किये गये और डाउन पेमेन्ट के साथ में भूखण्डों, फ्लैटों, कारपोरेट ऑफिसों, मॉलों मल्टी फैक्सों के नाम पर बड़ी-बड़ी राशियां वसूल कर ली गई। मगर अभी तक जमीन का कहीं भी अता पता नहीं था जो गेट लगाये गये थे, उन्हें गांव वाले उखाड़ कर ले गये।

जिन लोगों ने बुकिंग कराई थी, वे पैसे वापस मांगने लगे। कम्पनी ने उनकी साख बचाने के नाम पर रिफण्ड चैक काटने शुरू किये। रिफण्ड में पच्चीस प्रतिशत राशि काट ली गई। लेकिन ये चैक भी बैंकों से अनादरित होकर वापस आ गये। बुकिंग कराने वाले कम्पनी के कार्यालयों में गये। कुछ नहीं हुआ। मामला मीडिया में उछला। मीडिया से पुलिस और कोर्ट में मुकदमें हुए।

विशाल इस सम्पूर्ण घटनाक्रम से घबरा गया। पुलिस कभी भी उस तक पहुुंच सकती थी। वह माधुरी को लेकर नेताजी के पास आया।

‘सर। ये तो सब मामला ही गड़बड़ हो रहा है।'

‘हां, मैने भी पढ़ा है।'

‘अब क्या करें।'

‘अरे भाई जब जमीन ही नहीं थी तो ये बुकिंग...शुकिंग क्यों ?'

‘सर आपने कहां था सब ठीक हो जायेगा।'

‘कहा था लेकिन ये थोड़े ही कहा था कि यदि जमीन किसान की है तो उसे हड़प जाओ। तुमने तो जमीन खरीदी ही नहीं और हड़प जाने की बात करने लगे। किसान नाराज हो गये। अब वे जमीन क्यों देंगे?'

‘सर। कोई रास्ता निकालिये।' माधुरी बोली।

‘अब तो रास्ता यहीं है कि जो बुकिंग की है उसे लौटाओ।'

‘सर मैं...बरबाद हो जाऊंगा।'

‘तो मैं क्या कर सकता हूूं।'

‘सर आप किसानों की भूमि अवाप्त करवा दे और फिर उसे विकास हेतु हमें दिलवा दे। मंत्री से बात अपनी हो ही चुकी है।'

‘ठीक है कुछ करते हैं।' यह कह कर नेताजी चले गये। माधुरी और विशाल वापस आ गये। विशाल का दफ्तर सीज हो चुका था। मामला पुलिस में था।

X X X

कड़क सर्दी की कड़कड़ाती रात। कल्लू मोची केे ठीये के पास झबरा कुत्ता चारों तरफ से सिमट-सिमटा कर सो रहा था। काफी समय से वो अकेला था। किसी काम में मन नहीं लग रहा था, इधर रोज रात को हलवाई के यहां डिनर पर उसकी मुलाकात एक सफेद कुतिया से होने लगी थी। आज की रात तेज ठण्ड देखकर सफेदी उसके पास ही बैठी रह गई थी। रात बीतती जाती, वे बातें करते जाते। समय धीरे-धीरे खिसकने लगा। रात का दूसरा प्रहर बीता। झबरे कुत्ते की आंखें नींद से बोझिल होने लगी, मगर उसका ध्यान सफेदी की ओर गया। बाल ऐसे जैसे किसी फिल्मी तारिका की त्वचा। आंखों जैसे एक गहरी झील, सुतवा नाक, पतले होठ और जब वो सांस खीचती तो लगता मानों कोई मधुर संगीत बजा है। उसकेे पांवों की आहट ही झबरे को मदमस्त कर देने को शायद पर्याप्त थी। झबरे से रहा न गया। बोल पड़ा।

‘आखिर इस आदमी नामक जानवर को क्या हो गया है?'

‘क्यों क्या हुआ।'

‘देखती नहीं चारों तरफ कैसी आग लग रही है साम्प्रदायकिता, आतंकवाद, जातिवाद, खेत्रवाद, हथियारों की तस्कारी, देसी कट्टे, विदेशी राईफलें और...।और इस युवा वर्ग को देखो या तो बेरोजगार है और या फिर पैसे के पीछे पागल होकर भाग रहा है। हर गली, मोहल्ले में डिग्री देने की दुकानें खुल गई है। पैसे जमा कराओ, डिग्री ले जाओ।'

‘और फिर उस डिग्री का क्या करें ?' सफेदी ने पूछा।

‘कुछ भी करें। हमें, क्या। देने वाले को क्या। वो तो डिग्री बांटते हैं, ज्ञान थोडें़ ही बांटते हैं।' झबरा क्रोध में बोल पड़ा।

‘मगर ये सब गलत है ?'

हां, गलत है, मगर क्या-हम तुम इसे ठीक कर सकते हैं ?'

भई हम तो कुत्ते है। हम कैसे ठीक कर सकते हैं।

‘जब आदमी ही कुछ नहीं कर पा रहा है तो हम क्या कर लेंगे?'

‘ठण्ड बहुत बढ़ गई है।'

‘हां, ये तो है। कहीं रेन बसेरे में चले।'

‘रेन बसेरे में हमें कौन घुसने देगा। वहां पहले ही आदमियों की भारी भीड़ है। वहां भी उत्कोच से प्रवेश मिलता है।'

‘हमारे पास उत्कोच कहां ?'

‘वहीं तो। वहीं तो। हमारी किस्मत में तो यही भट्टी के पास बैठकर रात बिताना लिखा है।'

एक तरफ आहट हुई। आहट की और देखकर झबरा भोंका, सफेदी गुराई। एक पागल सड़क के उस पास से इस पार आ रहा था।

झबरा बोला।

‘अरे ये तो वहीं पागल है जो बस स्टेण्ड पर डोलता है। बेचारा ठण्ड में मर जायेगा।'

‘मर जायेगा तो हम क्या करें। हम तो खुद ही मर रहे है।'

पागल पास आकर बैठ गया और लुढ़क गया। सफेदी ने उसे सूंघा, झबरे ने भी सूंघा। फिर सूं-संू करके उसके पास घेरा डाल कर बैठ गये। पागल को कुछ गरमी आई। उसने आंखें खोली। दोनों कुत्तों को देखकर फिर आंखें बन्द कर ली। सफेदी फिर बोली। ‘रात कट जाये। क्या करें...।'

झबरा मौन। चुपचाप उसे सुनना चाहता था। झबरे ने अपने विचारों को गति दी। उसे चुप देख कर सफेदी बोली।

‘क्यों-क्या बात है आज बहुत उदास हो। रात काटे नहीं कर रही है।'

‘सर्दी तेज है। ये सर्दी के दिन। उदासी के दिन। ये प्रजातन्त्र के दिन।'

सड़क पर लैम्प पोस्ट पर ट्यूब लपक-झपक कर रही थी। सड़क पर विरानी छाई हुई थी। आसपास अन्धेरा था। झबरे के मन में भी अन्धकार था। सफेदी के दिल में नन्हीं आशा का दीप टिमटिमा रहा था। इसी आशा के साथ वो रात को व्यतीत कर रही थी।

‘कहो मन क्या कहता है।'

‘मन बेचारा क्या कहे। मन तो उड़ता है।'

‘राधा ने उद्धव से कहा था, उद्धव मन नाही, दस बीस एक था जो गया श्याम संग।'

‘मेरी कुतिया, दर्शन मत बगार। तू कुतिया है और कुतियों की तरह ही सोच।'

‘मै कुतिया हूं लेकिन सोंचने-पढ़ने-लिखने और बोलने की आजादी वाली हूं।'

‘ये आजादी...।'

‘तुम तो जानते हो। पहली आजादी आई। फिर दूसरी आजादी आई। फिर ये आर्थिक स्वतन्त्रता का दौर...।'

‘तो इससे अपने को क्या ?'

‘क्यों अपन भी तो आजादी का सुख भोग रहे है।'

‘आजादी के सुख-दुःख छोड़ो।'

‘आज कुछ गाओ?'

दोनों ने समवेत स्वरों में राग उगेरा। पड़ोस की गलियों से और भी कुत्ते आ गये। सब समवेत स्वरों में गाने लगे। आज का गीत।

रात का गीत।

मन का गीत।

खुशी में उदासी का गीत।

दूर कहीं, कुछ सियार भी हुआं, हुआं करने लगे।

इस समवेत कौरस को सुनकर पागल की नींद उड़ गई। वो चिल्लाया।

‘साले कुत्तें कहीं के।'

सफेदी ने जवाब में कहा

‘साला आदमी कहीं का।'

‘सियार भी चिल्लाया।'

‘साला आदमी की औलाद कुत्ता।'

झबरा चिल्लाया।

‘आदमी की मां की आंख...।'

कुत्तों की इस क्रांफेस के कारण सड़क पर खड़ी पुलिस पेट्रोलिंग की कार को धक्का मारते पुलिस के जवानों को बड़ा गुस्सा आया। एक ने पत्थर उठाकर कुत्तों पर मारा, मगर दुर्भाग्य से पत्थर कुत्तें को नहीं पागल को लगा। पागल चिल्लाया।

‘साले। कुत्ते। साले कुत्ते कहीं के।'

पागल एक और तेजी से भागा।

पुलिसमेन उसका पीछा करता, मगर नींद में ड्राइवर गाफिल था।

पूरब दिशा में धीरे-धीरे भगवान भास्कर के स्वागत में उषा की लालिमा दिखाई देने लगी थी। सफेदी ने प्यार से झबरे के नथुने में अपना नथुना लगाया और आंखें बन्द कर ली।

सफेदी ने आंखें खोली। मिचमिचा कर देखा। सूरज पूर्व दिशा में ऊगना ही चाहता था। झबरा अलसाया सा पड़ा था। पागल कहीं दूर चला गया था। अभी सड़क पर सन्नाटा था। सफेदी को झबरे पर लाड़ आया। धीरे से कूं-कूं करती हुई अपनी कुत्तागिरी से कुत्ती भाषा में उससे पूछने लगी।

‘तुम कब से अकेले हो?'

‘बस यही कुछ छः मास हुए है। एक कुतिया मेरे साथ रोज रात को डिनर करती थी, नगरपालिका वालों से सहन नहीं हुआ, उसे उठाकर ले गये। भगवान जाने उसके बाद उसका क्या हुआ ?' झबरे ने झबरन रूलाई रोकते हुए कहा।

‘ये साले आदमी होते ही ऐसे है और यदि सरकारी साण्ड बन जाये तो कहना ही क्या।' सफेदी ने सहानुभूति जताते हुए कहा।

झबरा कुछ न बोला। बस मौन पड़ा रहा। सफेदी ने फिर पूछा।

‘वो कैसी थी?'

‘कौन?'

‘वो ही पहले वाली।''

‘पहले वाली। अच्छी थी। सुन्दर थी।'

‘मेरे से भी ज्यादा।'

‘अब सुन्दरता का कुत्ता-पैमाना एक जैसा तो होता नहीं है। कुत्तों का सौन्दर्य बोध और सौन्दर्य शास्त्र मैंने पढ़ा नहीं है, लेकिन मेरे मन में उसकी सुन्दरता की याद ताजा है।'

सफेदी कुछ उदास हो गयी। मगर फिर बोल पड़ी।

‘जो गया सो तो गया ही। उसके पीछे जीना तो नहीं छोड़ सकते।'

‘तुम ठीक कहती हो सफेदी। मैंने जीना नहीं छोड़ा है। जैसे-तैसे जी ही रहा हूं। जीवन है तो हजारों परेशानियां भी है।'

‘तुम ठीक कहते हो। परेशानियों का दूसरा नाम ही जीवन है। मृत्यु के बाद कोई परेशानी नही होती है। मृत्यु तो शाश्वत, सत्य, सुन्दर, शान्त, सौम्य और शीतल होती है।'

‘तुमने फिर दर्शन बघारा।' झबरा गुर्राया।

सफेदी ने मौन धारण कर लिया।

झबरा बोल पड़ा।

‘उसने दो प्यारे-प्यारे छोटे-छोटे बच्चे भी जने थे। उनको दूध पिलाती थी। प्यार करती थी। उनके लिए इधर-उधर से मांस या अण्डे की सफेदी ढूंढ़ कर लाती थी। सब खत्म हो गया। सब कुछ नष्ट हो गया।'

सफेदी ने उसके दुःख में दुःख जताया।‘

‘लेकिन ताकवर पर किसकी चलती है, नगरपालिका वाले उसे ले गये।'

ये साला आदमी कुत्ते से भी गया बीता है।' सफेदी ने कहा। बात का रूख पलटने के लिए पूछा।

‘उसके बाल कैसे थे?'

‘सुनहरे।'

‘और होंठ?'

‘जैसे गुलाब ?'

‘और आंखें।'

‘जैसे शराब के कटोरे।'

‘तुम्हे बहुत पसन्द थी।क्या वो मेरे से भी बहुत ज्यादा अच्छी थी।'

हां अच्छी तो थी। मेरा खूब ख्याल भी रखती थी। झबरे ने एक ठण्डी सांस भरी। सफेदी दूर शून्य में देखती रही।

तभी कल्लू मोची अपने ठिये पर पहंंुचा। उसने अपने बक्से को खोला। दुकान सजा ली। दुकान के नाम पर पालिश का सामान। जूतों की मरम्मत का सामान। हथोड़ी, कीले, खुरतालों, पुराने सोल, टायर की चप्पलें, लैसे, एक-दो पुरानी चप्पलें। पुराने जूते। पुराने सैण्डल। कुल मिलाकर यही उसकी पूंजी थी। इसी के सहारे वो दुनियां को जीतने के सपने बुनता था।

उसने पढ़ रखा था कि सपने बुनने से कभी-कभी चादर, शाल, रजाई, अंगोछा आदि बन जाते हैं। वैसे भी सपने देखना-बुनना इस देश में बिल्कुल निःशुल्क था। सरकार चाहकर भी इन सपनों पर टेक्स नहीं लगा पा रही थी। सरकार का ध्यान आते ही कल्लू को अपने पिता के मृत्यु-प्रमाण-पत्र को प्राप्त करने में जो परेशानी आई थी, उसे सोच-सोचकर उसने झबरे से कहा।

‘देखा सरकार को मेरे मरे बाप का प्रमाण-पत्र देने में भी मौत आ गई।'

झबरा क्या जवाब देता। सफेदी कही रोटी, मांस के टुकड़े के लिए भटक रही थी। झबरा चुपचाप बैठा था।

कल्लू ने चाय मंगवाई। हलवाई ने पुराने पैसे का तकादा किया। कल्लू ने मन ही मन हलवाई को गाली दी। प्रकट में बोला।

‘सुबह-सुबह क्यों खून पी रहा है। आने दो कोई ग्राहक सबसे पहले तेरा हिसाब...।'

चाय आई। कल्लू ने पी। झबरे ने पी। सफेदी भी आ गई। झबरे के साथ उसने भी पी।

चायोत्सव के बाद झबरा गली में निकल गया। सफेदी धूप सेकनें लगी।

कल्लू सुबह से ही बोहनी की बांट जोह रहा था। मगर धीरे-धीरे सूरज के चढ़ने के साथ ही सड़क और बाजार में चहल-पहल शुरू हो गई थी।

एक-दो पालिश वाले ग्राहक आये। कल्लू ने कहा।

‘बाबूजी महंगाई कितनी बढ़ गई। आज से पालिश की भी रेट बढ़ा दी है।'

ग्राहक चिल्लाया।

‘क्या महंगाई तेरे लिए ही बढ़ी है। पुरानी रेट पर करता है तो कर।'

‘बाबूजी जितना बड़ा जूता होता है उतनी ही ज्यादा पालिश लगती है। आपका जूता भी बड़ा है।'

‘अब ज्यादा चिल्ला मत। काम कर।'

कल्लू चुपचाप काम में लग गया।

हलवाई की उधारी चुका दी।

वो मन ही मन जूता और पालिश में सम्बन्ध स्थापित करने लगा। बड़ा जूता ज्यादा पालिश। बड़ा जूता बड़ा आदमी। बड़ा जूता बड़े सम्बन्ध। बड़ा जूता बड़ी खोपड़ी। बड़ा जूता बड़ा पैसा। बड़ा जूता बड़ी लड़ाई। बड़ा जूता बड़ा प्यार। बड़ा जूता बड़ी घृणा। बड़ा जूता बड़ी राजनीति। बड़ा जूता बड़ा पद। बड़ा जूता बड़ा कद। बड़ा जूता बड़ा दुःख। बड़ा जूता बड़ा सुख। बड़ा जूता बड़ी कविता। बड़ा जूता बड़ा साहित्य। बड़ा जूता बड़ी पत्रकारिता। बड़ा जूता बड़ी खबरें। बड़ा जूता सब कुछ बड़ा। बस पालिश छोटी। नालिश बड़ी। बड़ा जूता गरीब का छोटा पेट। आधा भूखा आधा नंगा। बड़ा जूता नपुसंक-नंगा जूता।

उसने बीड़ी सुलगाई और व्यवस्था को एक भद्दी गाली दी।

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(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)

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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
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रचनाकार: यशवन्त कोठारी का व्यंग्य उपन्यास : असत्यम् अशिवम् असुन्दरम् (4)
यशवन्त कोठारी का व्यंग्य उपन्यास : असत्यम् अशिवम् असुन्दरम् (4)
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