॥ श्री ॥ असत्यम्। अशिवम्॥ असुन्दरम्॥। (व्यंग्य-उपन्यास) महाशिवरात्री। 16-2-07 -यशवन्त कोठारी 86, लक्ष्मी नगर, ब्रह्मपुरी...
॥ श्री ॥
असत्यम्।
अशिवम्॥
असुन्दरम्॥।
(व्यंग्य-उपन्यास)
महाशिवरात्री।
16-2-07
-यशवन्त कोठारी
86, लक्ष्मी नगर,
ब्रह्मपुरी बाहर,
जयपुर-302002
Email:ykkothari3@yahoo.com
समर्पण
अपने लाखों पाठकों को,
सादर । सस्नेह॥
-यशवन्त कोठारी
बड़े लोगों की बड़ी बीमारियां, बड़े डॉक्टर, बड़े अस्पताल, बडे टेस्ट, बड़ी जांचें और बड़ी दवाईयां। माधुरी को भी बड़ी बीमारियां हुई। पैसे के चलते ख्ौराती अस्पताल नहीं गये। बड़े शहर के बड़े फाइवस्टार अस्पताल में गई। बड़ी जांचें हुई और बड़े परिणाम आये। लेकिन माधुरी घबराई नही। सेठजी भी नहीं घबराये। वास्तव में पैसा और खासकर काली कमाई का काला पैसा आदमी, परिवार को बड़ा आत्मविश्वास देता है।
हुआ यंू कि माधुरी के पेट में तेज दर्द हुआ। स्थानीय ईलाज, हकीम, वैद्य, होम्योपैथी से कुछ नहीं हुआ तो शहर में बड़े फीजिशियन को दिखाया। फिजिशियन ने डाइबिटालोजिस्ट को रेफर किया। डायाबिटोलाजिस्ट ने यूरोलोजिस्ट को रेफर किया। यूरोलोजिस्ट ने नेफ्रोलोजिस्ट को, तथा नेफ्रोलोजिस्ट ने न्यूरोलोजिस्ट को रेफर किया। न्यूरोलोजिस्ट ने कारडियोलोजिस्ट तक पहुंचाया। कारडियालोजिस्ट ने साइक्याट्रिस्ट को दिखाने की सलाह दी। साइक्याट्रिस्ट ने भी सभी पूववर्ती जांचें वापस कराई और अन्त में पुनः वे लोग एक पुरूष गाइनेकोलोस्टि की शरण में गये। अब तक नुस्खे, जांचे, रिपोर्टो का एक पुलिन्दा बन गया था। जिसे एक थिसिस का रूप दिया जा सकता था। डॉक्टर ने पूरी जांच-पड़ताल की। मगर रोग हाथ में नहीं आया। डॉक्टर ने उन्हें डी.एन.सी. की सलाह दे डाली। नई सोनोग्राफी से भी रोग का पता नही चला। अन्त में चलकर हुआ ये कि डॉक्टर ने साइक्याट्रिस्ट वाली दवाएं चालू रखने की सलाह दी। माधुरी डॉक्टरों से उबकर अब तंत्र, मंत्र, फकीरों, औझाओं, बाबाओं की शरण में जाना चाहती थी मगर घर वाले नहीं मानते थे। आखिर में ये तय हुआ कि माधुरी को बिना किसी दवा के कुछ दिन रखा जाये। महान आश्चर्य ये हुआ कि माधुरी ठीक होकर सामान्य रूप से अपना काम काज करने लगी।
लक्ष्मी और माधुरी ने मिलकर वापस स्कूल का कामकाज संभाल लिया। लक्ष्मी शुक्लाईन शुक्लाजी को प्रिन्सिपिल बनाने की फिराक में थी और माधुरी वापस निजि विश्वविद्यालय के मिशन ओर चल पड़ी। इस पूरी भागदौड़ में लक्ष्मी माधुरी के साथ थी। राजधानी के चक्कर, नेताओं के चक्कर, राजनैतिक पार्टियों के चक्कर और स्कूल का कामकाज सब काम माधुरी-लक्ष्मी को पूरा करना पड़ता था। माधुरी उम्र में बड़ी थी। बीमारी से उठी थी, मगर दिमाग से तेज थी। जागरूक थी। उसे मछली को चारा डालना आ गया था। मछली जाल में थी। बस उसका उपयोग करना था।
माधुरी के स्कूल में स्टाफ के नाम पर कुल दस थे। मगर सब मिलकर छप्पन का काम करते थे। मिसेज राघवन भी उनमें से एक थी। स्कूल की सबसे पुरानी अध्यापिका। सबसे नम्र और सबसे धूर्त। धूर्तता मों नम्रता का ऐसा घालमेल था कि व्यक्ति चाहकर भी कुछ नहीं कर पाता।
मिसेज राघवन विधवा थी। उसने अपने एकमात्र पुत्र को भी इसी स्कूल में फिट करने का प्रयास किया था। मगर बात बनी नहीं। वो खार खाये बैठी थी। मगर अत्यन्त विनम्रता से सब कुछ देख-सुन समझ रही थी। वो हेडमास्टर के पास गई और बोली।
‘प्रिन्सिपल साहब आपके दिन तो अब लद गये लगते हैं।
‘क्यों भाई अभी-अभी तो स्थायी हुआ हूं। मेरी सेवानिवृत्ति भी दूर है।'
‘सेवा से निवृत्ति दूर तभी तक है जब तक मेडम माधुरी नही कहती।'
‘वो तो मेरे से खुश है।'
‘वो आप सोचते हैं।'
‘मैने तो सुना है कि शुक्लाजी को जल्दी ही प्रिन्सिपल बनाया जाने वाला है।'
‘क्या बकती हो तुम।'
‘मै बकती नही, कानो सुनी और आंखों देखी कहती हूं।'
‘लक्ष्मी बहिनजी ने माधुरी मेम को पटा लिया है और कभी भी आपका पत्ता साफ हो सकता है। संभलकर रहना, फिर न कहना मैम ने चेताया नहीं।' यह कहकर मिसेज राघवन ने हेड मास्टर को चिन्ता में डाला और खुद खिसक कर आ गई।
हेडमास्टर साहब को भी कुछ-कुछ भनक लग रही थी, मगर अब तो स्टाफरूम से भी अफवाहें आ रही थी। जो कभी भी सच हो सकती हैं।
हेडमास्टर साहब कर भी क्या सकते थे। मैनेजर से पंगा लेना उनके बस का नहीं था। मगर घर पर बैठी दो कुंवारी कन्याओं की चिन्ता उन्हें खाने लगी।
वे जल्दी घर आ गये। पण्डिताईन ने पूछा कुछ न बोले बस सरदर्द का बहाना बना कर लेट गये। सायंकाल भोजन के समय बताया शायद नया हेडमास्टर बनेगा। पण्डिताईन ने बिना चिन्ता जवाब दिया।
‘जिसने चोंच दी है वो चुग्गा भी देगा।'
हेडमास्टर साहब को अच्छा लगा। बेटियों को पढ़ाकर सो गये।
माधुरी अपनी बीमारी से उबरकर नयी सज-धज के साथ स्कूल आई। हेडमास्टर से हिसाब की किताबें मांगी उसके बाद अनियमितताओं की चर्चा की ओर स्पष्ट कह दिया। ऑडिट रिपोर्ट बहुत खराब आई है। स्कूल की ग्रान्ट रूक जायेगी। सचिवालय में बहुत बदनामी फेल रही है। आपको निलम्बित करने के लिए बड़ा दवाब है।
‘क्यों मेरा क्या कसूर है। स्कूल के कोषाध्यक्ष ने किया है गबन।'
‘लेकिन सभी वाउचर्स पर आपके हस्ताक्षर है।'
‘लेकिन.......लेकिन...........।' हेडमास्टर हकला गया।
माधुरी ने तुरूप का पत्ता फेंका।
‘देखो मास्टरजी ये दुनिया, बड़ी खराब है, आपकी बदनामी, हमारी बदनामी, ऐसा करो कि आप स्तीफा दे दे, मैं मैनेजमेंट से मंजूर करवा दूंगी। आपको पेंशन के लाभ भी दिलवा दूंगी।'
‘लेकिन.....।'
‘लेकिन-वेकिन कुछ नहीं। जेल जाने से तो यही ठीक रहेगा। आप एक-दो दिन सोच लीजिये। तब तक मैं भी चुप रहूंगी।' ये कहकर माधुरी चली गई।
हेडमाटर साहब के पैरों से जमीन खिसक गई थी, वे चाहकर भी कुछ नही कर सकते थे। गबनकर्ता मैनेजमेंट का ट्रस्टी था, उनके तो केवल हस्ताक्षर थे, मगर वे जानते थे कि कोर्ट, कचहरी, थाना, पुलिस, मुकदमेंबाजी में भी वे ही हारेंगे, उचित यही होगा कि स्तीफा दे और कोई अन्य रास्ता जीने का खोजे। वे माधुरी के हरामीपने से पहली बार परिचित हुए थे। मगर समरथ को नहीं दोष गुंसाइंर्। यही सोचकर उन्होंने स्तीफा लिखा । बाबू को दिया और घर की ओर भारी कदमों से चल पड़े। आज रास्ता काटे नहीं कर रहा था। हर युग में ईमानदार, स्वच्छ, कर्तव्यपरायण, अध्यापकों के साथ ऐसा ही हुआ है मास्टरजी ने सोचा और दो बूंद आंसू पोंछ डाले।
माधुरी ने बिना मैनेजमेंट को बताये लक्ष्मी के पति शुक्लाजी को कार्यवाहक प्रिंसिपल बना दिया। शुक्लाजी को बुलाकर स्पष्ट कहा।
‘मेरी कृपा समझिये शुक्लाजी नहीं तो आप जैसे नौसिखिये को प्राचार्य पद.........असंभव।'
शुक्लाजी बेचारे क्या बोलते। वे अपने पत्नी की सहेली के अहसानों के तले वैसे ही दबे थे। शक्लाइन घर पर शेरनी की तरह दहाड़ती थी। उसके किसी भी कामकाज में हस्तखेप का मतलब था घर-गृहस्थी में घमासान होना। शुक्लाजी को धीरे-धीरे अपनी औकात समझ में आ रही थी, माधुरी आगे बोली।
‘पण्डितजी.......स्थायी होने के लिए लगातार मेहनत करो। मैंनेजमेंट की मीटिंग भी मैं शीघ्र बुला दूंगी।'
‘जी अच्छा मैडम।' शुक्लाजी ने कहा और बाहर आकर पसीना पोंछा। शुक्लाजी जब पहली बार हेडमास्टर की कुर्सी पर बैठे तो बस मजा आ गया। वे अपने आपको महान समझने लगे।
उन्होंने सोचा जिस किसी ने भी कुर्सी का आविष्कार किया है, बड़ा महान कार्य किया है। चार पायों वाली यह छोटी सी लकड़ी की कुर्सी हर ऐरे गेरे नथ्थू ख्ौरें, नूरे, जमाले फकीरे को आकर्षित करती है। हर कुर्सी की मर्यादा होती है। शुक्लाजी की कुर्सी की मर्यादा शुक्लाईन के मार्फत माधुरी की थी। तभी उन्होंने सोचा यदि यह चार कमरों का कॉलेज रूपी स्कूल कभी निजि विश्वविद्यालय बना तो वे भी कुछ बन जायेंगे। डीन एकेडिमिक, रजिस्ट्रार, परीक्षा नियंत्रक जैसे पदों की गरिमा,........ शुक्लाजी कल्पना लोक में खो गये।
अचानक फोन की घंटी ने उनकी तन्द्रा को तोड़ा। शुक्लाईन बधाई दे रही थी और घर जल्दी आने की ताकीद की।
घर पर शुक्लाईन बोली।
‘तुम्हारा स्थायी होना मैनेजमेंट के नहीं शहर के एम.एल.ए. के हाथ में है। वो चाहेंगे तभी सब ठीक-ठाक होगा।'
‘तो हमें क्या करना होगा।'
‘करना क्या है, सायंकाल उनके घर जाकर धन्यवाद देना है। फिर माधुरी मेम के घर जाकर चरण स्पर्श करने है।'
शुक्लाजी सब समझकर भी नासमझ बने रहे।
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राज्य सरकार ने राज्य की साहित्य कला और संस्कृति से सम्बन्धित अकादमियों में अध्यक्षों के पद हेतु राजनैतिक नियुक्तियों को करने का मानस बनाया। पर पता नहीं, कैसे समाचार लीक हो गये। और मीडियावाले राजनैतिक नियुक्तियों के नाम उछालने लगे। एक चैनल ने तो बाकायदा पार्टी अध्यक्ष द्वारा जारी सूची को ही प्रसारित कर दिया। नियुक्तियों का मामला खटाई में पड़ गया। प्रदेश की अकादमियां सनाथ होते-होते रह गई। सरकार ने प्रशासक नियुक्त कर दिये। बुद्धिजीवी चिल्लाने लगे। कपड़े फाड़ने लगे। मगर सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंगी। इसी उठापटक में कुलदीपक ने अपने कविता संग्रह पर अकादमी से आर्थिक सहयोग मांग लिया। अकादमी के अधिकारियों ने तू-तू में-में से बचने के लिए आर्थिक अनुदान सभी मांगने वालों को बराबर-बराबर दे दिया। कोई असंतुष्ट नहीं बचा।
ललिता कला अकादमी वालों ने सभी कलाकृतियों को पुरस्कृत कर दिया। संगीत-नाटक अकादमी ने सभी कलाकारों को कुछ न कुछ दिया। विद्रोह असंतोष केवल हवा में रह गया। सर्वोच्च पुरस्कार के लिए एक महिला को चुन लिया गया। महिला वर्गर् के कारण सब चुप हो गये। सरकार ने अपने गाल स्वयं ही बजाना शुरू कर दिया।
अकादमियों के अध्यक्ष बनने के इच्छुक लोगों ने एक बार फिर प्रयास किये मुख्यमंत्री ने मामला शिक्षामंत्री पर छोड़ दिया। शिक्षामंत्री समझदार थे उन्होंने राज्यमंत्री को कार्यभार दे दिया। राज्यमंत्री ने पार्टी के अध्यक्ष को मामला सौंपा और पार्टी अध्यक्ष ने अगले चुनाव के बाद ही विचार करेंगे, ऐसी घोषणा कर दी।
राजनैतिक नियुक्तियों के मामलों में सरकारें पहले भी संकट में आ चुकी थी। नियुक्तियां हो जाने पर यदि सरकार चल बसे तो बेचारे नियुक्त पदाधिकारियों की बड़ी छिछालेदर होती थी। कई निलम्बित हो जाते थे। कई बरखास्त और कई कोर्ट कचहरी के चक्कर लगा-लगाकर थक जाते थे। कई बार नई सरकार धमकाकर स्तीफा लिखवा लेती थी। कुल मिलाकर प्रजातन्त्र के सीने पर विचित्र केनवास बन जाते थे। कवि कविता छोड़कर फाइलों के हल जोतने लग जाते थे और संगीतकार तानुपरा छोड़कर सरकार के पांव दबाने लग जाते थे।
इन्हीं विचित्र परिस्थितियों में कुलदीपक झपकलाल को लेकर प्रकाशक के अड्डे पर चढ़े। आज प्रकाशक ने कुलदीपक का तपाक से स्वागत किया। उसे विश्वस्त सूत्रों से पता लग गया था कि कुलदीपक को प्रकाशन सहायता मिल गई है और अब कविता संग्रह छापना घाटे का सौदा नहीं था।
‘आईये। आईये कुलदीपकजी। कहिए कैसे है। आज तो बड़े दिनों के बाद दर्शन दिये। क्या लेंगे चाय या काफी।'
झपकलाल और कुलदीपक को बड़ा आश्चर्य हुआ। बाहर ध्यान से देखा, कहीं सूर्य पश्चिम से तो नही निकला था। मगर सब ठीक-ठाक था।
‘मैं अपने कविता संगह के प्रकाशन के सिलसिले में निवेदन करने आया हूं।'
‘अरे यार। ऐसी जल्दी क्या है। पहले कचौडी खाईये। फिर चाय पीजिये, पान खाईये फिर प्रकाशन की चर्चा।' यह कहकर प्रकाशक नेे अपने इकलौते मैनेजर कम अकाउटेंट कम प्रूफरीडर कम सम्पादक को चाय-नाश्ता लाने भेज दिया।
‘और सुनाईये। क्या हाल है। ‘झपकलाल ने पूछा।''
‘सब ठीक-ठाक है, आप तो जानते ही है प्रकाशन का धन्धा तो बेहद घाटे का काम हैं, जो घर फूंके आपना चले हमारे साथ।'
‘अरे सेठजी आपने अभी-अभी पचास लाख की नई प्रेस लगाई हैं।'
‘है.....है......है.......वो तो लोन लिया है।'
चाय हुई। नाश्ता हुआ। पान के बीडे़ हुए। और मदनमस्त माहौल में कुलदीपक के कविता संकलन के अनुदान का बंटवारा आधा-आधा हुआ। आधा अनुदान कुलदीपक को रायल्टी के रूपमें मिलना तय हुआ और आधा-अनुदान प्रकाशकीय सहयोग के रूप में प्रकाशक को मिला एवज में प्रकाशक ने उन्हेंं पचास प्रतियां निःशुल्क दे देने की मौखिक स्वीकृति प्रदान की।
पुस्तक यथा समय छपी। अकादमी तक प्रकाशक ने पहुंचाई और कुलदीपक को प्रतियां मिली। बस यही गड़बड़ हुई। प्रकाशक ने कुलदीपक को प्रतियां देर से दी। कुलदीपक नाराज हुए मगर प्रकाशक ने एक समीक्षा गोष्ठी रखवा दी। जिसकी रपट प्रकाशक ने छपवा दी। कविताएं तो नहीं बिकी मगर कुलदीपक जी शहर के नामी कवियों में शामिल हो गये। जैसे उनके दिन फिरे, सभी के फिरे।
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एक उदास सांझ। सांझ कभी-कभी बहुत उदास होती है। सांझ चाहे गर्मी की हो चाहे सर्दी की या चाहे बारिश की हो। उदासी है कि दूर ही नहीं होती।
ऐसी ही उदास सांझ ढले मां घर के ओेसारे में बैठी हुई थी। पुराने अच्छे दिनों की याद में उसकी आंखोें में आंसू आ गये थे। उसी के मौहल्ले में कुछ मांए ऐसी भी थी कि दुःख ही दुःख। उसने सोचा एक मां पांच-पांच बेटोें को पालती हंै और पांच बेटे मिलकर मां को नहीं पाल पाते। कैसा निष्ठुर है समय। बेटे अमावस से पूनम तक मां को इधर-उधर करते रहते और एकम हो जाने पर गरियाते। मगर मां का क्या है। वह तो मां ही रहती है।
ओसारे में अन्धेरे में उसे कुलदीपक आता दिखा। पांव लड़खड़ा रहे थे, उसे कुछ बुरा लगा। मगर कुलदीपक ही मां का एकमात्र सहारा था।
झपकलाल कोे डांटना आसान था, मां ने उससे ही कहा
‘अरे झपक ये सब क्या करते हो तुम लोग ?'
क्या करें मां ये सब तो इसकी पुस्तक छपने पर हुआ है।
‘कविता की पुस्तक बिकती नहीं और तुम लोग कुछ का कुछ कर डालते हो।'
‘मां मैं........बड़ा कवि हूं।
‘बड़ा कवि है मेरी जूती।'
रोटी खा और सो जा।
मां ने आंसू पोंछते हुए कुलदीपक को सुला दिया।
मां फिर पुराने दिनों में खो गई। बापू की यादें। घर की यादें। मां बाप की यादें। बापू की अच्छी नौकरी की यादें। यशोधरा की यादें। यादें और बस यादें। मां फिर फफक पड़ी मगर अन्धेरी रात में काले साये ही उसके साथ थे। मां मन ही मन खूब रो चुकी थी। प्रकट में भी रो चुकी थी। उसे केवल कुलदीपक की शादी की चिंता थी। एक बहू हो तो घर में रौनक हो और कामकाज आसान हो।
दामाद की खोज उसे नहीं करनी पड़ी थी, मगर बहू की खोज में वो दुबली हो जा रही थी। समय ने उसके चेहरे पर अपने हस्ताक्षर कर दिये थे। वो रोज कई बरस बुढ़ा जाती थी। बापू के जाने के बाद अकेलेपन के कारण उसे जल्दी से जल्दी दुनिया छोड़ने की इच्छा थी मगर राम बुलाये तो जाये या बहूं आ जाये तो जाऊं, यही सोचते-सोचते बूढ़ी मां की आंख लग गई।
कुलदीपक रात में उठे तो देखा मां सोई पड़ी है। उन्होंने मां को कम्बल ओढ़ाया खुद भी कथरी ली और सो गये। बाहर कहीं कुत्ते भौंक रहे थे, मगर कुलदीपक घोड़े-गधे सभी बेचकर सो रहे थे।
सुबह चेत होने पर मां ने कुलदीपक को प्रेम से उठाया। उनका सर भन्ना रहा था। धीरे-धीरे ठीक हुआ। मां ने चाय के साथ नाश्ते में बहू का राग अलापा।
कुलदीपक इस आलाप से दुःखी थे। प्रलाप की तरह समझते थे और आत्मालाप करना चाहते थे, सो बोल पडे़।
‘मां अभी तो मुझे आगे बढ़uk है। कुछ नया अच्छा करना है।'
‘वो सब पूरी जिन्दगी भर चलता रहेगा।'
‘अभी नही मां। शीघ्र ही चुनाव होंगे उसके बाद देखेंगे।'
‘चुनाव से तुझे क्या लेना-देना है। बहू का चुनाव से क्या सम्बन्ध है।'
‘कभी-कभी सम्बन्ध हो जाता है मां। पीढ़ियों का अन्तराल है मां, तुम नहीं समझोगी।' ये कहकर कुलदीपक ने अखबार में आंखे गड़ा ली।
मां बड़बड़ाती हुई अन्दर चली गई।
कुलदीपक खुद शादी के लिए तैयार थे। मां तैयार थी, रिश्ते में दूर के मामाजी को भी कुलदीपक ने आचमन के सहारे पटा लिया था। मगर कमी थी तो बस एक अदद लड़की की। एकाध जगह मामाजी ने बात चलाई पर कुलदीपक के लक्षण देखकर लड़की वाले बिदक गये। एक अन्य लड़की वालों ने स्पष्ट कह दिया लड़की के नाम पर एफ.डी. कराओ। कुलदीपक की स्थिति एफ.डी. की नहीं थी, मामू की हालत और भी पतली थी। मां की जमा पूंजी से निरन्तर खरच होता रहता था।
अखबार में लिखने से जो आता उससे कुलदीपक के खुद के खर्च ही पूरे नहीं पड़ते थे। कुलदीपक की बहन यशोधरा का आना-जाना लगभग बन्द था। उसके पति ने एक नये खबरियां चैनल में घुसने का जुगाड़ बिठा लिया था। इस समाचार से कुलदीपक की स्थिति और बिगड़ गयी। समीक्षा का कालम साप्ताहिक से मासिक हो गया। हास्य-व्यंग्य की जगह लतीफों ने ले ली।
कुलदीपक लगभग बेकार की स्थिति को प्राप्त हो गये। ऐसे दुरभि संधिकाल में कुलदीपक मकड़जाल की तरह फंसे हुए थे। क्या करूं, क्या न करूं के मायामोह में उलझे कुलदीपक के भाग्य से तभी छीकां टूटा।
मामू ने पड़ोस के एक गांव की एक सधःविधवा से बात चलाई। और बात चल पड़ी।
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यशोधरा के पति-सम्पादक अविनाश जिस खबरिया चैनल में घुसने में सफल हो गये थे उसकी अपनी राम कहानी थी। सेठजी पुराने व्यापारी थे, खबरिया चैनल के सहारे उनके कई धन्धे चलते थे। सरकार कोई सी भी आये वे देख-संभलकर चलते थे। चैनल की टी.आर.पी. बनाये रखने के हथकड़ों के वे गहरे जानकार थे। टीम भी चुन-चुनकर रखते थे। प्रतिद्वन्दी की टीम के चुनिन्दा पत्रकारों को उच्च वेतन पर तोड़कर बाजीगरी दिखाते रहते थे। कभी-कभी उनके चैनल के पत्रकार भी भाग जाते थे, मगर वे पहले से ही ज्यादा स्टाफ रखते थे। भागने वाले पत्रकार को थोड़े दिनों के बाद दूसरी जगह से भी निकलवाने के तरीके वे जानते थे।
इन परिस्थितियों में अवनिाश को अपना प्रिंट मीडिया का अनुभव काम में लेते हुए अपना वर्चस्व सिद्ध करना था। अविनाश ने एक शानदार न्यूजस्टोरी बनाने के लिए कन्या भू्रण हत्याओं का मामला हाथ में लिया। अविनाश अपने साथ एक विश्वस्त कैमरामेन लेकर शहर-दर-शहर निजि नर्सिगहोमों में जाने लगा। धीरे-धीरे उसे पता चलने लगा कि पर्दे के पीछे क्या खेल है। अक्सर गर्भवती महिलाएं, उनके पति व घर वाले सोनोग्राफी कराते, कन्या होने पर भू्रण नष्ट करने के बारे में कहते। डॉक्टर शुरू में मना कर देती, मगर उच्च कीमत पर सब कुछ करने को तैयार हो जाती। डॉक्टरों का एक पूरा समूह इस काम में हर शहर में लगा हुआ था। अविनाश ने छोटे शहरों को पकड़ा। आश्चर्य कि वहां पर भी यह गौरखधन्धा खूब चल रहा था। खूब फल-फूल रहा था।
अविनाश ने नर्सिग होमों में कैमरे के सामने डॉक्टरों को पकड़ने के प्रयास शुरू किये। स्टींग ऑपरेशन किये। एक महिला को गर्भवती बताकर उसके बारे में बातचीत डॉक्टरों से की। रिकार्डिंग की। सोनोग्राफी वाली दुकान पर भी रिकार्डिंग की ओर एक पूरी न्यूज स्टोरी बनाई जिसमें लगभग बीस केसेज थे। फुटेज को देखकर चैनल सम्पादक प्रसन्न हुआ। उसे जारी करने का अन्तिम फैसला सेठजी को करना था। सेठजी ने स्वयं फुटेज देखे। एक डॉक्टर उनकी रिश्तेदार थी। उसका फुटेज रोक दिया गया। शेष न्यूज स्टोरी यथावत हुई। पूरे देश में धमाका सा हुआ। मेडिकल काउन्सिल ने कुछ समय बाद डॉक्टरों का पंजीकरण रद्द कर दिया। केस चला। डॉक्टर गिरफ्तार हुए। मगर सब बेकार क्योंकि कुछ समय बाद मेडिकल काउन्सिल ने पंजीकरण रद्द करने का प्रस्ताव वापस ले लिया।
अविनाश बड़ा निराश हुआ। पहले प्रिन्ट मीडिया में भी गुर्दे बेचने के प्रकरणो में मीडिया को अपेक्षित सहयोग नही मिला था। इस संताप के चलते अविनाश कुछ दिनों से उदास था। घर पर ही था। उसे दुःखी देख यशोधरा ने पूछा।
‘क्या बात है ?'
‘देखो कितनी मेहनत से और कितना समय लगाकर हम लोगों ने कन्या भू्रण हत्याओं पर यह कथा तैयार की थी और हमें सफलता भी मिली थी। मगर सब गुड़ गोबर हो गया।'
‘अब नियमों के सामने कोई क्या कर सकता है।'
‘नियमों का बड़ा सीधा-सा गणित है आप व्यक्ति बताइये मैं नियम बता दूंगा। हर व्यक्ति के लिए अलग नियम होते हैं। प्रभावशाली व्यक्ति के लिए नियम अलग और गरीब, मजलूम, लाचार, मोहताज के लिए अलग नियम।'
‘अब ये सब तो चलता ही रहता है।'
‘लेकिन कब तक...........कब तक.........ये सब ऐसे ही चलता रहेगा।'
‘अविनाश ये प्रजातन्त्र की आवश्यक बुराईयां है। हमें प्रजातन्त्र चाहिये तो इन बुराईयों को भी सहन करना होगा।'
‘मगर इन सबसे प्रजातन्त्र की जड़ें खोखली हो रही है।'
‘ऐसा नही है, इस महान देश की महान परम्पराओं में प्रजातन्त्र बहुत गहरे तक बैठा हुआ है।'
‘लेकिन व्यवस्था में सुधार कब होगा।'
‘‘व्यवस्था ज्ौसी भी है हमारी अपनी तो है। पास-पड़ोस के देश को देखो उनसे तो बेहतर है हम।'
‘हाँ यहाँ मैं तुमसे सहमत हूं।'
अविनाश काम पर जाना ही नहीं चाहता था। मगर काल ड्यूटी पर उसे जाना पड़ा। यशोधरा ने उसे भेजा और अविनाश को एक नये काम में जोत दिया गया। अविनाश इस त्रासदायक स्थिति में भी अपना संतुलन बनाये रखना चाहता था सो उसने एक नई बीट पर काम करना शुरू कर दिया।
यशोधरा को बहुत दिनों के बाद मां की याद आई। उसने मां से फोन पर बात की।
‘कैसी हो मां।'
तुम तो हमें भूल ही गई। तेरे बापू के जाने के बाद हमारी स्थिति ठीक नहीं है बेटी। कुलदीपक कुछ करता-धरता नहीं कविता से रोटी मिलती नही।
‘ऐसी बात नहीं है मां सब ठीक हो जायेगा, तुम अपनी सेहत का ध्यान रखना। मैं किसी दिन इनको लेकर मिलने आऊंगी। यशोधरा ने फोन रख दिया।
अविनाश के सेठजी राज्यसभा में घुस गये थे। एक अन्य पत्रकार मित्र ने रक्षा मंत्रालय में व्याप्त भ्रष्टाचार पर एक कथा शुरू की थी, उसे एक बड़े चैनल को देकर सेठजी विपक्ष की सीट पर राज्यसभा में घुस गये थे। अविनाश का मन वितृष्णा से भर गया था। मगर हर खेत्र में अच्छे और बुरे लोग है ऐसा सोचकर मन मसोसकर रह गया। अविनाश को भी लगता खबरिया चैनल से प्रिंट मीडिया अच्छा है, कभी लगता खबरिया चैनल में जो रोबदाब है वो वहां-कहां। इधर इन्टरनेट पर भी चैनल चलने लगे थे।
ऐसे ही एक इन्टरनेट साइट ‘पर्दाफाश डॉट काम' पर नियमित रूप से अच्छी सामग्री आ रही थी, अतिरिक्त आय के साधन से रूप में अविनाश ने इस साइट पर सामग्री देना शुरू किया। इन्टरनेट पर तहलका से सभी परिचित थे। रक्षा मंत्रालय के सौदों में व्याप्त अनाचार की रपटों ने एक पूरी केन्द्रीय सरकार को लील लिया थ। पर्दाफाश डॉट काम इतनी कामयाब नहीं थी मगर इन्टरनेट पर मशहूर थी। अविनाश अपने काम से खुश तो रहता मगर इतने दवाबों के कारण मनमर्जी का लिखना पढ़ना मुश्किल था, उसे कभी-कभी अपनी स्थिति पर बेहद दुःख होता। दुःखी अविनाश यशोधरा को अपने मन की बात बताता और हल्का हो जाता।
यशोधरा उसे लाड लड़ाती और वो दुगुने उत्साह से काम में लग जाता। उसके सेठजी ने एक शॉपिग माल बनाने का निश्चय किया, शहरी विकास प्राधिकरण से सब कामकाज निकलवाने में अविनाश की कथा का बड़ा योगदान रहा, माल बना। खूब बना। शानदार बना। अविनाश की प्रोन्नति हुई, मगर उसे यह रिश्वत का ही एक प्रकार लगा। यशोधरा भी उससे सहमत थी। मगर वे चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते थे। ईमानदारी से सिर्फ रोटी खाई जा सकती है, भौतिक समृद्धि के लिए नियमों में ऊंच-नीच आवश्यक है। अविनाश को ये सब समझ में आ गया था।
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आजादी के बाद प्रजातन्त्र के नारों के बीच एक बड़ा नारा उभर कर ये आया कि भविष्य का युग गठबन्धन सरकारों का युग है। नेहरू, इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी का करिश्माई युग समाप्त हो गया और गठबन्धन के सहारे सरकारें घिसटने लगी। घिसटने वाली ये सरकारें बड़ी नाजुक चीज होती है। कोई भी चाबुक मारे तो चलने का नाटक करती है, वरना सत्ता की सड़क पर खड़ी-खड़ी धुंआ देती रहती है।
एक बार तो एक ऐसी गठबन्धन सरकार बनी जिसके एक और वामपन्थी बैठते थे और दूसरी और धु्रव दक्षिणपन्थी। गठबन्धन सरकारों का जीवन अल्प होता है, मगर अकड़ भंयकर होती है। एक दल ने तीन बार सरकारें बनाई मगर कामयाबी नही मिली। दो-दो प्रधानमंत्री ऐसे बने जिन्होंने संसद का चेहरा तक नहीं देखा।
आजकल भी ऐसी ही एक गठबन्धन सरकार का जमाना है। सरकार के बायें हाथ में हर समय दर्द रहता है। कभी-कभी यह दर्द पूरी सरकार के शरीर में हो जाता है। कभी सरकार गिरने का नाटक करती है और कभी सरकार को गिराने का नाटक किया जाता है। कभी हनीमून खत्म का राग तो कभी तलाक की धमकी।
सरकार को बाहर से समर्थन अन्दर से भभकी। तुम चलो एक कदम। पीछे आओ दो कदम। सरकार की कदमताल से जनता हैरान। परेशान। दुःखी।
पानी, बिजली, सड़क, स्वास्थ्य, आतंकवाद सभी पर सरकार का एक जैसा जवाब अकेली सरकार क्या-क्या करें। कितना करे। सरकार के बस में सब कुछ नहीं। मन्दिर-मस्जिद पर हमला। सरकार का स्पष्ट जवाब सब जगह सुरक्षा नहीं की जा सकती । अल्पसंख्यकों पर अत्याचार, हत्या, सरकार का जवाब जनता अपनी सुरक्षा स्वयं करें।
गठबन्धन सरकारों की नियति है सड़क पर धुआं देना। अपनी साख देश-विदेश में बिगाड़ना। नई अर्थव्यवस्था के नाम पर गठबन्धन सरकारों नेे ऐसे ताव खाये कि पूछो मत। हत्यारें तक मंत्री बन जाते हैं और मुखिया कुछ नहीं कर पाते। ले-देकर एकाध ईमानदार आदमी को कुर्सी पर बिठा दिया जाता है वो निहायत शरीफ व्यक्तित्व होता है। उसको चलाने वाले दूसरे होते हैं, ये दूसरे संगठन-सत्ता, समाज सब पर काबिज रहते हैं। ईमानदार शरीफ सरकार का मुखिया बेईमानी पर चुप्पी साध लेता है और अपराधी को बचाने की अन्तिम कोशिश में लगा रहता है, सरकार जो चलानी है। मुखिया की केबिनेट में किसे रखना है ये सहयोगी दल तय करता है। घोषणा कर देते हैं और मुखिया को मानना पड़ता है।
राज्य सरकारों की स्थिति तो और भी दयनीय है। वहां पर हर काम के लिए केन्द्र का मुंह ताकना पड़ता है। कई गठबन्धन सरकारें तो एक सप्ताह भी नहीं चली। प्रजातंत्र के मुखिया के रूप में एक बार एक राज्य में कुछ दिनों तक दो-दो मुख्यमंत्री रहे। जो हारा उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया।
प्रजातन्त्र में जनता की कौन सुनता है आजकल चुनाव जीतने के नये-नये हथकण्डे आ गये है और जीतने के बाद जनता के दरबार में जाने की परम्परा समाप्त हो गई है।
ऐसी ही स्थिति में चुनाव आये। राज्यों के चुनावों से ठीक पहले साम्प्रदायिक दंगों पर एक चैनल ने जोरदार ढंग से स्टिंग ऑपरेशन किये। व्यक्ताओं ने जोर-शोर से आतंक के जौहर दिखाये। गर्भवती महिलाओं के पेट चीरने की घटना का सगर्व बखान किया गया। चुनावी दावपेंच में मानवता खो गई। जमीन और आसमान को शरम आने लगी मगर कलंक नहीं धुले।
चुनाव आयोग नमक संस्था का राजनीतिकरण कर दिया गया। संविधानिक संस्थाओं का भंयकर विघटन शुरू हो गया। प्रेस मीडिया पर हमला आम बात हो गयी। मीडिया को मैनेज करने वाले स्वयं की मार्केटिंग करने लगे।
माधुरी को अपने स्कूल के मैनेजमेंट की मिटिंग बुलानी थी। शुक्लाजी को स्थायी प्राचार्य बनाना था। शुक्लाईन से राजनीति की सीढ़ी चढ़नी थी।
उसने अपने कमेटी की मिटिंग बुलाने के लिए शुक्लाईन से बात की।
‘बोलो तुम क्या कहती हो ?'
‘मै क्या कहूं। मैं तो आपके साथ हूं। शुक्लाजी को पक्का करना है।'
‘वो तो ठीक है मगर स्कूल में काफी गड़बड़िया है।'
‘वो पुरानी है। शुक्लाजी धीरे-धीरे सब ठीक कर देगें।'
‘मगर एम.एल.ए. भी तो सदस्य हैै।'
‘उन्हें तो आप ही मना-समझा सकती है।'
‘मै अकेली क्या-क्या करूं?'
‘फिर आपको टिकट भी तो लेना है। चुनाव आ रहे है।'
‘हां यही चिन्ता तो खाये जा रही है?'
‘आप एक काम करे। शाम को मीटिंग से पहले नेताजी से मिल ले?'
‘उससे क्या होगा। मेरे अकेले मिलने से कुछ नहीं होगा।'
‘पार्टी फण्ड में पैसा दे देना।'
‘वो तो मैं पहले ही कर चुकी हूं।'
‘फिर डर किस बात का है ?'
डर है कि नेताजी किसी अपने आदमी को फिट करने को न कहे।
‘हाय राम। ऐसा हुआ तो मैं तो बेमौत मर जाऊंगी। शुक्लाजी का क्या होगा।'
‘यही तो मैं भी सोच रही हूं। ऐसा करो चाय पीकर अपन नेताजी के बंगले पर चलते हैं। वो ही कोई रास्ता निकालेंगे।'
‘ठीक है।'
माधुरी और शुक्लाईन नेताजी के बंगले पर पहुंची। शाम गहरा रही थी। नेताजी सरूर में थे। घर में सन्नाटा था। यह बंगला शहर से कुछ दूरी पर एक फार्म हाऊस पर था।
‘कहो भाई कैसे आई आज दो-दो चांद एक साथ..........।' हो-हो कर नेताजी हंसे।
दोनो चुप रही। शर्माई।
नेताजी फिर बोले। ‘जरूर कोई बात है। ठीक है बताओ।'
माधुरी ने मैनेजमेंट की मीटिंग और शुक्लाजी को प्रिन्सिपल बनाने की बात की।
नेताजी बोले। ‘बस इतनी सी बात.........ठीक है। मैं मीटिंग में नहीं आऊंगा। तुम शुक्लाजी का प्रस्ताव पास कर देना।'
‘हां यही ठीक रहेगा। मगर आप नाराज तो नहीं होंगे।'
‘इसमें नाराजगी की क्या बात है। आपने पार्टी फण्ड दिया है। अगला चुनाव सिर पर है। हमों भी वोट चाहिये। और फिर शुक्लाजी भी तो हमारे ही आदमी है। मुझे अपने किसी आदमी को फिट नहीं करना है।' नेताजी ने कुटिलता के साथ शुक्लाइन को देखते हुए कहा।
शुक्लाइन कांप गई। माधुरी ने उसका हाथ दबाकर चुप रहने का इशारा किया। शुक्लाइन चुप ही रही।
चुप्पी का लाभ भी उसे स्पष्ट दिखाई दे रहा था। शुक्लाजी को प्रिन्सिपल की स्थायी पोस्ट। माधुरी को टिकट और कुछ वर्षों में एक अदना स्कूल, एक निजि विश्वविद्यालय। ये सपने माधुरी भी देख रही थी। शुक्लाईन भी देख रही थी। सपनों को हकीकत में बदलने के लिए नेताजी की जरूरत थी। नेताजी को शुक्लाईन की जरूरत थी। माधुरी उसे छोड़ कर गई। वापसी में सुबह शुक्लाईन जब नेताजी की कार में लुटी-पिटी लौट रही थी तो उसने देखा कि मंत्री की कार से नेताजी की धर्मपत्नी भी लगभग वैसी ही स्थिति में उतर रही थी। उसे देखकर शुक्लाईन के चेहरे पर मुस्कान थी। दोनों की आंखे मिली। और कार आगे बढ़ गई।
म्ौनेजमेंट की मिटिंग हुई। शुक्लाजी प्रिंसिपल हुए। शुक्लाईन स्थायी टीचर बन गई। मगर चुनावों के दौर में माधरी को टिकट विपक्षी पार्टी से लेना पड़ा वो तो बाद में पता चला कि विपक्षी पार्टी से भी टिकट तो नेताजी ने ही दिलवाया था। माधुरी ने चुनाव में ज्यादा खर्चा नहीं किया। जो पक्के वोट थे। वो आये। वो हार गई। मगर इस हार में भी उसकी जीत थी।
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कुलदीपक और झपकलाल हिन्दी के परम श्रद्धेय मठाधीश आचार्य के आवास पर विराजमान थे। आचार्यश्री आलोचक, सम्पादक, प्रोफेसर थे। छात्राओं में कन्हैया थे और छात्रों में गोपियों के प्रसंग से कक्षा लेते थे। अक्सर वे कक्षा के अलावा सर्वत्र पाये जाते थे। कई कुलपतियों को भगाने का अनुभव था उनको। ऐसे विकट विरल आचार्य के शानदार कक्ष में ढाई आखर फिल्मों के पर चर्चा चल निकली।
आचार्य बोले।
‘आजकल कि फिल्मों को क्या हो गया है। न कहानी, न गीत, न अभिनय।'
‘सर इन सब के तालमेल का नाम ही फिल्म है। और मनोरंजन के नाम पर देह-दर्शन ही सब कुछ है।' झपकलाल बोले।
‘सर वास्तव में देखा जाये तो या तो अश्लीलता बिकती है या फिर आध्यात्मिकता।'
‘तुम ठीक कह रहे हो।'साहित्य में भी यही स्थिति है। अश्लील साहित्य धडल्ले से बिकता है या फिर आध्यात्मिक साहित्य। वैसे भी इहलोक और परलोक दोनों सुधारने का इससे बेहतर रास्ता नहीं है। आचार्य ने अनुशासन दिया।
मगर कुलदीपक कब मानने वाले थे। इधर ओम शान्ति ओम और सांवरिया फिल्मों के प्रोमो और विज्ञापन बजट देख, सुनकर उनके दिमाग में फिल्मी समीक्षा का कीड़ा फिर कुलबुलाने लगा था। बोले पड़े।
‘सर कल तक फिल्मों में अमिताभ बिकते थे। आज शाहरूख का जमाना है।'
‘यह अफलातून हीरो आज की पीढ़ी का आदर्श है।' झपकलाल बोले।
‘मगर देवदास में तो फ्लोप रहा।'
‘देवदास की बात कौन करता है। दिलीप कुमार के बाद वैसी एक्टिंग संभव भी नहीं है।' न भूतो न भविष्यति। वो तो ट्रेजेडी किंग था, है और रहेगा। आचार्य ने फिर छौंक लगाया।
आचार्य के ज्ञान के छौंक से दोनों युवा त्रस्त हो गये थे। फिल्मी ज्ञान के मामले में कुलदीपक अपने आपको विश्व प्रसिद्ध समीक्षक समझते थे। मगर इन दिनों उनका फिल्मी समीक्षा का कालम बन्द पड़ा था। फिर भी वे फिल्मों के फटे में अपनी टांग अड़ाया करते थे। शहर में वैसे भी फिल्मों, मॉडलों, संगीत, लाफ्टर चैलेज जैसे मनोरंजक कार्यक्रमों में मुफ्त पास के चलते वे अक्सर नजर आते थे। आचार्यजी के पास केवल सैद्धान्तिक ज्ञान था प्रायोगिक कार्य वे पी.एच.डी. की शोध छात्राओं का मार्ग निर्देशन करके करते थे। बोले।
‘कभी मधुबाला, बाद में हेमा, माधुरी दीक्षित, मीना कुमारी और श्रीदेवी जैसी हिरोईने थी।'
‘मगर आज कल वो बात कहां.........।
अब फिल्मों में आर्ट वर्क नहीं रहा। कल्चर नही रहा। अब तो सब तकनीक का कमाल है।
‘जी सर और तकनीक में कम्प्यूटरों के विशेष प्रभावों से मिलकर फिल्म बन जाती है अब फिल्मी गानों की हालत ये है कि एक गायक अपनी लाइन गाकर आ जाता है और दूसरा गायक अपनी सुविधा से बाद में गाकर कम्प्यूटर की मदद से सम्पादक द्वारा गाना पूरा हो जाता है।
और यही स्थिति अभिनय की है। कुलदीपक ने टांका भिड़ाया।
आचार्यजी फिल्मों के शौकीन तो थे, मगर सामाजिकता के कारण घर पर ही सब देख लेते थे। श्रीमती आचार्य वैसे भी उनके व्यवहार और क्रियाकलापों से बहुत दुःखी, परेशान रहती थी, मगर बड़ी होती बच्चियों की खाातिर सब सहन कर जाती थी।
झपकलाल भी बेकार थे और कुलदीपक भी। दोनों आचार्य की सेवा में काम की तलाश में आये थे।
इधर आचार्य जी विश्वविद्यालय की कई कमेटियों के सदस्य थे। हर कमेटी को दुधारू गाय समझते थे। अक्सर अपनी पुस्तक, लेख, कविता, कहानी, नाटक आदि को कोर्स में घुसाने में लगे रहते थे। वैसे भी विश्वविद्यालय में प्रसिद्ध था कि आचार्यजी कक्षा के अलावा सर्वत्र पाये जाते हैं। कुलदीपक ने बात छेड़ी।
‘सर सुना है इस बार आपकी पुस्तक र्कोर्स में लगेगी।'
‘तो इसमें क्या खास बात है। पुस्तक अच्छी है। मैरिट में है। प्रकाशक अच्छा है और प्रकाशक ने थ्ौली का मुंह खोल दिया है।'
‘लेकिन सर सुना है दूसरा प्रकाशक भांजी मारने को तैयार बैठा है।'
‘सब अपनी-अपनी कोशिश करते हैं। सफलता किसे मिलती है यह भाग्य का नही कुलपति से जान-पहचान का खेल है। वर्तमान कुलपति हमारी जाति का है, हमारे खेत्र का है और मेरे उनके सम्बन्ध बहुत अच्छे है। और वैसे भी सबसे बड़ी रिसर्च यही है कि चांसलर आपको व्यक्तिगत रूप से जानता है या नहीं। पेपर लिखने में क्या रखा है।
‘हां सर।'
पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ पण्डित भया न खोय,
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पण्डित होय।
सब हो-हो कर हंस पड़े। मगर कुलदीपक का काम अभी हुआ नही था। बोला।
‘सर कुछ लिखने-पढ़ने का काम हो तो बताईये।'
‘हां है, एक प्रकाशक कुंजी लिखवाना चाहता है, पचास रूपये पेज देगा। मेरे नाम से छप जायेगी।
‘आपके नाम से।'
क्यों क्या हुआ। सांप क्यों सूंघ गया।'
‘नही सर। लेकिन कुल कितने पेज का काम है।'
‘यही कोई तीन सौ पृष्ठ ।'
‘अच्छा आपकी दक्षिणा क्या होगी।' झपकलाल ने स्पष्ट पूछ लिया।
‘म्ौं कोई दक्षिणा-दक्षिणा नही लूंगा। स्काच हो तो ठीक है वरना कौन धर्म भ्रष्ट करेें।
दोनो समझ गये। सांयकालीन आचमन आचार्यजी के प्रकाशक के कार्यालय में सम्पन्न हुआ। कंुजी लिखी गयी। आचार्यजी के नाम से छपी। कुलदीपक, झपकलाल को प्रकाशक ने पारिश्रमिक दिया। जिसे प्रकाशक ने पुरस्कार कहा और दोनों लेखकों ने मजदूरी। इस मजदूरी की बदौलत कुलदीपक कई दिनों तक मस्त रहे।
अचानक एक रोज मामू आ धमके। मामू पास के गांव में ही रहते थे और कुलदीपक के विवाह चर्चा में अक्सर भाग लेने के लिए बिना टिकट आते-जाते रहते थे। वापसी का इन्तजाम कुलदीपक के जिम्मे था। आज भी मामू ने कहा।
‘प्यारे भानजे। तुम्हारी सगई का राष्ट्रीय कार्यक्रम अब सम्पन्न होने ही वाला है। मैंने लड़की के घर वालों से सब बातचीत कर ली है। बस एक अड़चन है।'
‘क्या।'
‘लड़की विधवा तो है ही, लेने-देने को भी कुछ नही है।'
‘अब मामू लेने-देने की बात छोड़ो जमाना कहां से कहां चला गया है। जैसे-तैसे घर बस जाये बस। मां बेचारी कही बहू की शक्ल देखे बिना स्वर्ग नही सिधार जाये।
‘मां को स्वर्ग जाने की इजाजत ही तब मिलेगी जब तुम्हारे हाथ पीले हो जायेंगे बच्चू।'
‘मामू अब अधिक uk सताओ। हमारा ब्याह कराओ।' कुलदीपक ने लाड़ से कहा। मगर मामू पर इन सबका कोई असर नहीं हुआ।
मामू चुपचाप घर की ओर चल पड़े। मां से बातचीत की। गली-मोहल्ले में दुआ-सलाम की ओर ओसारे में बैठकर मां से बतियाने लगे।
‘छुटकी अब समय बदल गया है कुलदीपक का ब्याह उसी छोटी से करना पड़ेगा।'
‘तुम उसको छोटी बोलते हो। वह कुलदीपक से उम्र में बड़ी है।'
‘उससे क्या फर्क पड़ता है बहना बड़ी बहू बड़ा भाग।'
‘लेकिन विधवा भी तो है।'
‘वो तो मैंने तुमसे पहले ही कह दिया था।'
‘अब जैसा हमारा भाग्य भैया तुम डोल जमाओ।'
‘बहना डोल जमाने के लिए कुछ चाहिये।' मां से हजार रूपये खींचकर मामू लौटती रेल से भावी बहू के घर गये। मामला फिट फाट कर वापस आये तो खुश थे।
मगर कुलदीपक के मन में फांस थी। वे मजबूर थे। मजबूत बनना चाहते थे। मां भी खुश न थी । लेकिन सब ठीक-ठाक करनेका ठेका भी मामू के पास नहीं था।
एक रोज अच्छी साइत देखकर मामू, झपकलाल, कुलदीपक और एक-दो बिरादरी वालों के साथ जाकर उस विधवा का उद्धार कर कुलदीपक अपने कस्ब में लौट आये। हनीमून के चक्कर में पड़ने के बजाय वे नून तेल लकडी़ के चक्कर में फंस गये। यथासमय मां बहू का मुंह देखकर स्वर्ग सिधार गई। प्रगतिशील जनवादी कुलदीपक ने सिर मुंडवां कर मां का पूरा विधि विधान से श्राद्ध किया ताकि मां और बाबूजी की आत्मा को एक साथ शान्ति मिले।
शान्ति मिली या नही, यह कुलदीपक नही जान सके।
X X X
कल्लू मोची अपने ठिये पर बैठा था। तथा जबरा कुत्ता चाय की आस लिये पास में कूं-कूं कर रहा था। इसी समय पास की बिल्डिंग में रहने वाली सेठानी अपनी चप्पले ठीक कराने के लिए आई।
कल्लू मोची ने पहले तो सेठानी का मुआईना किया। फिर टूटी चप्पलों को निहारा और हाथ से उसके टूटे हिस्से को झटका दिया। फलस्वरूप चप्पल का तला और टूट गया। सेठानी ने मरम्मत के दाम पूछे।
‘कितने लोगे।'
‘पांच रूपये लगेंगे।'
एक मामूली सिलाई के पांच रूपये।
‘आप इसे मामूली कहती है देखिये। यह कहकर कल्लू ने चप्पल को जोर से मरोड़ा चप्पल चरमरा गई।
‘सेठानी बोली ये तुमने क्या किया। मेरी अच्छी भली चप्पल तोड़ दी।'
‘अच्छी थी तो मरम्मत के लिए क्यों लाई थी।'
‘अरे भाई मामूली काम था, तुमने तो काम ही बढ़ा दिया।'
‘अब सेठानी जी कभी-कभी गरीबों को भी बख्क्षो। आज मुझे भी कमा लेने दो।'
‘तुम लोगों में यही तो खराबी है। एक दिन में लखपति बनना चाहते हो।'
‘आजकल लखपतियों को कौन पूछता है सब खोखापति बनना चाहते हैं।'
‘ये खोखापति क्या है।'
‘खोखा याने करोड़पति।'
सेठानी कल्लू के ज्ञान से प्रभावित हुई। मरम्मत कर चप्पल बंगले पर पहुंचाने का हुक्म देकर चली गयी।
कल्लू ने दो चाय मंगवाई। एक झबरे कुत्ते को पिलाई एक खुद पी।
ठीक इसी समय कल्लू के चौराहे पर झपकलाल और कुलदीपक आये। वो आचार्यश्री के व्याख्यान से दुःखी थे। दाम कुछ मिले थे। कुलदीपक ने कल्लू मोची से पूछा।
‘और सुनाओ प्यारे शहर के क्या हाल-चाल है।
‘शहर की स्थिति दयनीय है। चुनाव हुए है माधुरी चुनाव हार गई है और आजकल अपने स्कूल को कॉलेज बनाने के पुण्य कार्य में लगी हुई है।'
‘हूँ।' कुलदीपक बोले।
और कुछ। झपकलाल बोले।
‘ताजा समाचार ये है कि शहर में गुर्दे बेचने वालों का एक गिरोह पकड़ा गया है। कल के अखबारों में छपेगा। शायद जल्दी ही कुछ लोग जेल में होंगे।'
‘यार ये डॉक्टर भी पता नही क्या-क्या करते रहते हैं। इतने पवित्र पेशे मेे ऐसे राक्षस।'
‘भैया सबसे बड़ा रूपैया।' कल्लू बोला। झबरे कुत्ते ने कूं....कूं कर सहमति प्रकट की।
वास्तव में मुद्राराक्षस के सामने सब फीके है। हर काम में सुविधा शुल्क हर काम में कमीशन। रिश्वत। डॉली। शगुन। कट। उपहार। भेंट। नकद। कुछ भी बस। मुद्रा का राक्षस सबसे बड़ा है भईया। झपकलाल उवाचे।
कल्लू ने फिर कहा।
‘कुछ केवल भोंकते हैं। कुछ केवल गुर्राते हैं। कुछ भौंकते भी है और गुर्राते भी है। प्रजातन्त्र में यही सब चलता रहता है। अब इन चप्पलों वाली सेठानी को ही देखो। हर साल छापा पड़ता है मगर गुर्राती रहती है। चप्पलों की मरम्मत के पैसे देने में जान जाती है, वैसे सौ तौला सोना लाद के चलती है। पति अक्सर विदेश जाता रहता है।
‘विदेश.........?' कुलदीपक ने पूछा।'
‘अरे भाई साहब विदेश मतलब जेल। गैर कानूनी कार्य करेगा टेक्स चोरी करेगा तो विदेश तो जायेगा ही uk और ये लोग विदेश के नाम पर समाज में अपनी कटी नाक बचाने के प्रयास करते हैं। कल्लू उवाचा।
झबरे कुत्ते को कहीं पर मांस के टुकड़े की गन्ध आई, वो उस दिशा में दौड़ पड़ा। थोड़ी देर बाद वापस आया तो उसके मुंह में एक मांस का टुकड़ा था। वो उसे चगल रहा था। झपकलाल, कुलदीपक, कल्लू मोची सभी चौराहे की सांझ का आनन्द ले रहे थे कि चौपड़ पर कुछ लोगों ने धमाल मचाना शुरू किया। वे किसी भी प्रकार की बदमाशी के लिए तैयार थे, मगर कोई अवसर नही मिल रहा था।
कल्लू मोची अपने ठीये के पास रखी पेटी में अपना सामान समेटकर रख रहा था। जबरे कुत्ते के डिनर में अभी काफी देर थी। वो इधर-उधर टहलने लग गया।
बाजार में रौनक शुरू हो गई थी। कल्लू अपने ठीये से उठा और घर की और चल पड़ा। कुलदीपक और झपकलाल ने ठेले पर खड़े-खड़े ही आचमन का पूर्वाभ्यास किया और चल पड़े।
कुलदीक ने कंुजी लेखन के कार्य को हल्के रूप में नहीं लिया था। वो जानते थे कि एक विश्वविद्यालय के प्राध्यापक को निचोड़ो तो एक-दो कुन्जियां अवश्य निकल आती है। इन कुंजियों की शिंकजी बनाकर पी जा सकती है। यही ज्ञान जब उन्होंने झपकलाल को दिया तो झपकलाल ने भी इस ज्ञान को विस्तारित किया।
अध्यापक को निचोड़ने पर कुंजी निकलती है और पत्रकार को निचोड़ने पर ससुर की पुस्तकों की रायल्टी निकलती है।
‘वो कैसे ?'
‘वो ऐसे जैसा कि इस कथा में है। हमारे एक पुराने मित्र लेखक थे। लिखते-लिखते मर गये। वास्तव में भूखे मरते-मरते मर गये लेकिन लिखा छोड़ गये। उनकें एक कन्या थी। कन्या ने एक पत्रकार से शादी की। शादी के बाद पत्रकारिता तो चली नही, मगर अनुभव काम आया और ससुर की पुस्तकों के सम्पादक-प्रकाशक- रायल्टी धारक बन गये। बरसों वे यही खेल खेलते रहे। खेल-खेल में उन्होंने लाखोों बनाये। कन्या यानि पत्नी से पिण्ड छुड़ाया और जीवन के आनन्द लेने लगे।'
‘मगर अध्यापक की कुंजी...?'
‘अरे बेचारे अध्यापक का क्या है। या तो ट्यशन या कुंजी लेखन। अब कुंजियां तो तुम भी लिख रहे हो। बल्कि घोस्ट बनकर लिख रहे हो।'
‘इसमें बुरा क्या है।'
‘बुरा कुछ भी नहीं है। लेकिन तुम्हारे नाम से कुछ छपता नहीं।'
‘अब क्या करें। वैसे भी रोज हजारों शब्द घोस्ट राइटिंग के नाम से नहीं छप रहे है क्या।'
‘और हर भाषा में।'
‘हां यह सत्य है।'
‘नही, यह अर्धसत्य है।'
‘पूर्ण सत्य ये है कि मजबूरी का नाम महात्मा गांधी।'
नहीं, मजूबरी का नाम गान्धिगिरी, चलो गान्धिगिरी करते हैं।
अब गान्धी का नाम क्यों बदनाम करते हो। चलो रात गहरा गई है।
दोनों एक थड़ी में जाकर आचमन करने लगे।
झबरा कुत्ता भी डिनर में व्यस्त था। आज उसकी कड़ाही में भी खुरचन ज्यादा थी। वो खा पीकर भट्टी की गरमी में सो गया।
रात्रि का दूसरा प्रहर। झबरा कुत्ता सोया पड़ा था। राख ठण्डी हो चुकी थी। चारों तरफ सन्नाटा था। गल्ली-मोहल्लों में शान्ति पसरी पड़ी थी।
मगर कुछ हिस्से आबाद थे। झबरे की नींद खुली। वो भौंका। गुर्राया। खुरखुराया। और एक तरफ दौड़ पड़ा। उसकी आवाज सुनकर पूरे इलाके के कुत्ते भौंकने लगे। गुर्राने लगे। खुरखुराने लगे। इस समवेत कोरस गान को सुनने के बाद सभी कुत्ते हलवाई की दुकान के सामने एकत्रित हो गये। इस सभा के स्थायी सभापति का कार्यभार झबरे कुत्ते ने संभाल लिया। वो बोलना चाहता था। मगर चुप था। दूसरे कुत्ते आपस में फुसफुसा रहे थे मगर जोर से बोलने की हिम्मत किसी की भी नही हो रही थी। कुत्तों के इस हजूम में कुछ कुतियाएं भी थी। वे भी हिनहिना रही थी। कुछ युवा कुत्ते उनकी ओर देखकर आंखों में आंखें में डाल रहे थे। मगर कुत्तियाएं देखकर भी अनजान बनी हुइ थी। वे चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रही थे। बुजुर्ग कुत्ते उन पर निगाह रखे हुए थे।
जबरे कुत्ते ने आसमान की ओर मंुह करके जोर से दहाड़ मारी, सभी कुत्तों-कुत्तियाओं ने उसका अनुसरण किया।
कुछ कुत्ते इधर-उधर खाने का सामान ढूंढने लगे। धीरे-धीरे झबरा कुत्ता एक ओर खिसक गया। कुत्तों का यह उपवेशन बिना किसी एजेन्डे केे, बिना किसी निर्णय के समाप्त हो गया। प्रजातन्त्र में ऐसा होता रहता है। कुत्तों ने सोचा और सुबह होने का इन्तजार करने लगे।मगर सुबह क्या ऐसी आसानी से और इतनी जल्दी होती है। कुत्ते बेचारे इसको क्या समझे, वे तो घूरे पर खाने का सामान ढंूढते रहते हैं और मौका मिलने पर भौंकनें या गुर्राने या गिड़गिड़ाने का काम करने लग जाते हैं।
मुर्गो और कुत्तों की यह नियति होती है, बांग दो और घूरे पर मिले दाने खाओ।
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कल्लू मोची नगरपालिका के कार्यालय में था। जबरा कुत्ता भी उसके साथ था। उसे अपने मरे हुए बाप का मृत्यु प्रमाण-पत्र बनवाना था। मामला पुराना था, मगर कल्लू मोची को न जाने क्यों अपने आप पर विश्वास था कि वो यह काम आसानी से करा लेगा। उसने स्वागतकर्ता से पूछा उसने टका सा जवाब दिया।
‘आगे जाओ।'
कल्लू मोची आगे गया। उसे एक बड़े हाल में कुछ अहलकार बैठे दिख गये। वो उनके पास गया एक अहलकार की तरफ देखकर उसने पूछा।
‘मृत्यु प्रमाण-पत्र कहाँ बनता है।'
अहलकार ने चश्में के पीछे की आंखंो को सिकोड़ा और कोई जवाब नहीं दिया। कल्लू ने फिर पूछा।
‘मृत्यु प्रमाण-पत्र वाले कहां मिलेंगे।'
‘मत्यु प्रमाण-पत्र वाला बाबू आज नहीं आया है।'
‘तो उनका काम कौन करेगा।'
‘कोई नहीं करेगा। सरकार में जिसका काम उसी को साजे बाकी करे तो मूरख बाजे।' बाबू नेे चश्मे के पीछे से घूर कर जवाब दिया।
कल्लू दुःखी होकर एक तीसरे बाबू की शरण में गया। कहा ।
‘बाबूजी मुझे मेरे मृत बाप का प्रमाण-पत्र बनवाना है।'
‘तो बनवाओ न कौन मना करता है।'
‘मगर कौन बनाता है?'
‘मैं तो नहीं बनाता हूं। मेरा काम जन्म प्रमाण-पत्र बनाना है। मृत्यु प्रमाण-पत्र नहीं।'
‘तो मृत्यु प्रमाण-पत्र कौन बनाता है।'
‘ये तो लाख टके का सवाल है। वैसे कभी-कभी मैं बना देता हूँ।'
‘कब बना देते हैं आप ?'
‘जब सरकार चाहे या अफसर कहे।'
‘अफसर कब कहते हैं।'
‘जब ऊपर से दबाब हो या फिर दरख्वास्त पर वजन हो।'
‘प्रार्थना-पत्र तो मैं साथ लाया हूं।' ‘आप इसे लेकर बना दें।'
‘क्या बना दूं।'
‘मृत्यु प्रमाण पत्र।'
‘मगर ये काम मेरा नही है।'
‘अच्छा, बाबूजी आप तो मेरा प्रार्थना-पत्र ले ले।'
‘प्रार्थना-पत्र अफसर की चिड़िया बैठेगी तभी तो लिया जा सकता है।'
‘चिड़िया कब और कैसे बैठती है।'
‘वो उस चतुर्थ श्रेणी व्यक्ति से पूछो।'
कल्लू स्टूल पर बैठे चतुर्थ श्रेणी अधिकारी के पास गया। वो ख्ौनी मल कर खा रहा था। पिच्च से थूका और शून्य में देखने लगा। कल्लू ने उससे कहा।
‘मुझे दरख्वास्त पर साहब की सही करानी है।'
‘तो करा लो न कौन मना करता है।' ये कहकर वो फिर थूकने चला गया।
‘मगर साहब तो है नही।'
‘इसमें मैं क्या कर सकता हूं ?' चपरासी फिर बोला।
‘लेकिन मुझे मृत्यु प्रमाण पत्र लेना है।'
‘अरे तो ये बोलो न।'
‘वही तो कह रहा हूं।'
‘ऐसा करो तुम बाबूलाल से मिल लो।'
‘ये बाबूलाल कौन है।'
‘अरे वहीं जो कौने में बैठे हंै।'
‘उनसे तो मिल चुका हूं।'
एक बार फिर मिल लो।
कल्लू प्रार्थना-पत्र लेकिर फिर बाबूलाल के पास आ गया। बाबूलाल ने कोई ध्यान नहीं दिया। कल्लू परेशान हो गया। उसने बाबूलाल का ध्यान अपनी ओर खींचने का पूरा प्रयास किया। असफल रहा। बाबूलाल ने पान की पीक छोड़ी। महिला सहकर्मी की ओर देखा। कल्लू का ध्ौर्य जवाब दे रहा था। फिर भी हिम्मत कर कहा।
‘बाबूजी मेरा प्रार्थना-पत्र ले लीजिये।'
‘मगर तुम तो साहब के पास गये थे न। क्या हुआ।'
‘साहब नहीं है।' कल्लू ने मासूम-सा उत्तर दिया।'
‘तो मैं क्या कर सकता हूं। बताओं मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूं ?'
‘आप मुझे मृत्यु प्रमाण पत्र बनवा दे। तहसील में जमा होना है।'
‘अच्छा। तहसील के लिए चाहिये। तब तो बहुत मुश्किल है।'
‘आप ही कोई रास्ता दिखाईये।' कल्लू ने फिर कहा।
‘ऐसा करो तुम सोमवार को आ जाओ। तब तक मृत्यु प्रमाण पत्र वाला बाबू भी छुट्टी से वापस आ जायेगा।'
‘लेकिन तब तक मेरा केस ही बिगड़ जायेगा।'
‘इसमें तो मैं क्या कर सकता हूं ?'
‘बाबूलाल ने यह कहकर फाइल पर नजरें गड़ा दी।'
कल्लू थक हार गया था। उसे सूचना के अधिकार का तो पता था मगर ये मृत्यु प्रमाण पत्र...........। कल्लू ने अन्तिम प्रयास के रूप में कहा।
‘बाबूजी कुछ करिये। मेरे बच्च्ो आपको दुआ देंगे।'
‘अरे भाई हमारे भी तो बाल-बच्चे है।'
‘बताईये क्या करूं।'
‘करना क्या है। इस प्रार्थना पत्र पर चांदी का वजन रखो।'
‘कितना।'
‘पचास रूपये।'
फिर हो जायेगा।
‘हां।'
‘लेकिन वो बाबू तो छुट्टी पर है।'
‘होगा। सरकार थोड़े ही छुट्टी पर है।'
‘अफसर भी नहीं है।'
‘तुम नेतागिरी तो छांट़ो मत। काम कराना हो तो पचास का नोट इधर करो।' और तीन बजे आकर मृत्यु प्रमाण पत्र ले जाओ।'
कल्लू ने अपने मृत पिता का मृत्यु प्रमाण पत्र उसी रोज तीन बजे पचास रूपये में प्राप्त कर लिया।
सरकार कभी भी छुट्टी पर नहीं रहती और यदि सुविधा शुल्क हो तो अफसर भी लपकर कर कागज निकाल देते हैं।
कल्लू जब प्रमाण पत्र लेकर वापस आया तो जबरा कुत्ता वहां पर एक टांग ऊंची करके पेशाब की धार मार रहा था।
शाम को ठीये पर कल्लू ने यह सब जानकारी झबरे की मौजदूगी में कुलदीपकजी को दी। कुलदीपकजी ने कहा।
‘यार ये सुविधा हमारे यहां ही है। काम कितनी आसानी से हो गया। किसी का अहसान नहीं लेना पड़ा। चांदी का जूता मंुह पर मारने मात्र से काम हो गया। तेरे बाप की आत्मा स्वर्ग में यह सब देख, सुनकर शान्ति से होगी कि उसके बेटे ने मृत्यु प्रमाण पत्र प्राप्त कर लिया है। अब खातेदारी में सफलता मिलकर रहेगी।'
कल्लू कुछ न बोला बस शून्य में ताकता रहा।
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प्रिय पाठकों एवं पाठिकाओं, उपन्यास के प्रथम पृष्ठ पर जिस नायकनुमा खलनायक या खलनायकनुमा नायक से आपकी मुलाकात हुई थी और जिसने आगे जाकर अपने उस मामले को रफा-दफा करने की खातिर अपनी महिला मित्र को कार-फोन, फ्लैट और एक अदद पति उपहार में दिया था, वो आजकल बड़ा दुःखी, परेशान और हैरान था। अवसाद में था। पिताश्री चल बसे थे। इसके साथ ही उसका पुलिसिया रोब-दाब भी चल बसा था। बाजार की हालत उसके हिसाब से खराब थी। एक-दो विवादस्पद जमीनों में पूंजी फंस गई थी। ऊपर से उसने अपनी फर्म को प्राइवेट लिमिटेड बना दिया था।
डायरेक्टर के रूप में स्वयं, अपनी पत्नी और एक साले को रख लिया था। उसकी निजि सगी पत्नी एक स्वर्गीय या नरकीय आई.ए.एस. की सन्तान थी। पहले प्यार हुआ फिर विवाह हो गया सो यह एक लव-कम-अरेन्ज मैरिज हो गई। लेकिन मैडम का रोब-दाब एक बड़े आई.सी.एस अफसर की पुत्री जैसा ही था।
सुबह-सुबह ही वह अपने प्रोपर्टी डीलर कम्पनी के एम.डी. कम चैयरमेन पति पर चिल्ला रही थी।
‘आखिर ये सब क्या हो रहा है ?'
‘कहो। क्या हो रहा है ? कुछ भी तो नहीं। सब ठीक-ठाक तो है।'
‘क्या खाक ठीक-ठाक है। तुम घर से बाहर कुछ भी करो। मुझे कोई मतलब नहीं। मगर मेरे घर में मेरी नजरों के सामने यह सब नहीं चलेगा।'
‘क्या ? क्या नहीं चलेगा ?'
‘वही सब जो तुमने रात को किया।'
‘क्यों ! क्या किया।'
‘रात भर ताशपत्ती, शराब, जुआं और......बाहर के गेस्टरूम में लड़कियां। ये....ये सब मैंं नहीं होने दूंगी।'
‘क्यों ? क्यों ? तुम क्या कर लोगी।'
‘मैं इस घर की मालकिन हूं। और घर में वहीं होगा जो मैं चाहूंगी।'
‘देखो डार्लिंग। ये सब व्यवसाय का हिस्सा है।'
‘क्या व्यवसाय का हिस्सा है। मैं भी तो सुनंू।'
‘मैडम इट इज ए पार्ट ऑफ दी गेम।'
‘व्हाट ? व्हाट इज दी पार्ट ऑफ दी गेम।'
‘आई डू नाट एग्री।' आई.ए.एस. पुत्री ने गुस्से में पैर पटकते हुए कहा।
‘तुम भी सब जानती और समझती हो।' जिस नई जमीन का सौदा हम कर रहे है, उसे सरकार से नियमित कराने के लिए रात को पार्टी थी। तुम्हारा मूड नही था तो तुम्हें नहीं बुलाया। वैसे भी ऐसी पार्टियों में घरेलू महिलाओ को कोई रोल नही होता है।'
‘तो तुम ये सब कर्म-काण्ड बाहर क्यों नहीं करते।'
‘बाहर ही करता हूं। इस बार भी बाहर का ही विचार था मगर कमिश्नर अड़ गया, वेन्यू घर पर रखो। क्या करता मेरे करोड़ रूपये अटक गये थे।'
‘लेकिन ये सब घर में ही.......बच्चे नहीं है तो इसका मतलब ये तो नहीं कि तुम बिलकुल बेलगाम हो जाओ।'
‘मैं तो बेलगाम नहीं हूँ । मैडम केवल धन्धे के कारण ये सब हुुआ। अब गुस्सा छोड़ो। सब ठीक हो जायेगा।'
‘आइन्दा घ्यान रखना। ऐसी लड़कियों को घर लाए तो ठीक नहीं होगा।'
आखिर प्रोपर्टी डीलर ने कान पकड़े, नाक रगड़ी। भविष्य में ऐसा नही करने की कसम खाई तब जाकर मैडम के मूड में उपेक्षित सुधार हुआ।
मौसम ठीक हो गया। अब गरजने-बरसने की कोई संभावना नहीं है, यह देखकर प्रोपर्टी डीलर ने अपना जाल फेंका।
'डार्लिग जो जमीन इस बार ले रहे है वो तुम्हारे पिता के फार्म फाऊस के पास ही है, यदि मम्मीजी भी पार्टनर बन जाये तो पूरी टाउनशिप विकसित हो सकती है यह प्रोजेक्ट पांच सौ करोड़ तक जा सकता है।
‘चुप रहो। तुम्हें शरम नहीं आती तुम्हें, मेरे मम्मीजी की जमीन पर आंखें गड़ाते हो। आंखें निकलवा दूंगी।'
‘इतना नाराज क्यों होती हो। मम्मीजी से एक बार बात करके तो देखो।'
‘मम्मीजी पहले ही भाई को बेदखल कर चुकी है।'
‘वो अलग मामला था। तुम्हारा आवारा भाई सब खा-पीकर नष्ट कर देता।'
‘मैंं इस सम्बन्ध में मम्मीजी से कुछ नहीं कह सकती हूं। तुम खुद बात कर लेना।'
‘मैरे मैं इतनी हिम्मत कहां है।'
‘क्यों रात को तो कमरे में बहुत हिम्मत दिखा रहे थे। आवाजे बाहर तक आ रही थी।'
‘अरे वो दूसरी बात है। वैसी भी ये बाहरी चालू लड़कियो के चोंचलें होते हैं। उनसे अपना काम निकल गया। पैमेन्ट कर दिया। बस। बात खत्म।'
‘तो मैरे से भी काम निकालना है।'
‘नहीं मेरी जान। मेरी मलिका। मेरी बहारों की रानी। तुम तो कम्पनी की मालकिन हो। चाहो तो मुझे सजा दे सकती हो।'
‘सजा तो तुम काट चुके हो। तुम्हारे घर में ही तो पुलिस ने अवैध हथियार बरामद किये थे। वो तो मेर पापा तब पावर में थे। गृह सचिव थे। सब मामला रफा-दफा करवा दिया। नहीं तो अभी भी संजय दत्त की तरह चक्की फीस रहे होते।'
‘अरे मेरी जान, अब माफ भी करो। क्यों गड़े मुर्दे उखाड़ रही हो।'
‘उखाड़ने को अब बचा ही क्या है। उस फार्म में जो मर्डर हुआ था उसका क्या।'
‘अरे वो तो कभी का रफा-दफा हो गया मैडम।'
‘बस तुम ऐसे ही किसी दिन ऐसे फंसोंगे कि निकल नही पाओंगे और मंै तुम्हारे नाम को रोती रहूंगी।'
‘नहीं मैडम ऐसा नही होगा। अब हम भाले से बांटियां सेंकते हैं। कामकाज के लिए कारिंदे है। अक्सर उनके हस्ताक्षरों और मेरे फोन से काम हो जाते हैं। मेरे अब फंसने के अवसर नहीं है। किस्मत भी मेरे साथ है।'
'अब क्या आदेश है?'
‘क्या एक कप चाय मिलेगी।'
‘चाय तो नौकरानी भी बना देगी।'
‘मुझे तो तुम्हारे हाथों से पीनी है।'
‘ठीक है, मगर आज से रात को दस बजे घर आ जाओगे। ये चोंचलें घर से बाहर।'
‘जोे आज्ञा मेम साहब।'
‘एक कप चाय का सवाल है भाई।'
स्त्री पुरूष सम्बन्धों की हजारों विवेचनाएं की गई है। और की जाती रहेगी। आधुनिक नारी सशक्तिकरण के इस उत्तर आधुनिक काल में नारी जागरण के नित नये आयाम दिखाई दे रहे है। प्रापर्टी डीलर तथा पत्नी संघर्ष का भी यही निष्कर्ष निकलता है कि नारी घी से भरा हुआ घड़ा है और नर जलता हुआ अंगारा। दोनों के संयोग वियोग से पुरूष और प्रकृति दोनों प्रभावित होते हैं। दोनों का सम्बन्ध अभिन्न, अखण्ड, अनादि, अविस्मरणीय है। नारी पुरूष के जीवन को हर खेत्र में सहयोग देती है। भारतीय नारीत्व को गौरवान्वित करती है नारी का सहयोग।
समाज की सारी मान्यताएं, मर्यादाएं, नारी स्वयं में रक्षित करती है और पुरूष को बांधे रखने में सफल होती है। मगर यह खुली अर्थव्यवस्था, विश्व एक गांव की अवधारणा तथा तेजी से कम से कम समय में अधिक से अधिक पैसा कमाने की लालसा आदमी को नीच कर्मो की ओर प्रवृत्त करती हैं।
प्रोपर्टी कम्पनी के एम.डी. के रूप में विशाल ने पूरे शहर में अपना दबदबा कायम कर लिया था। मगर बड़े शहरों से आने वाली नित नई कम्पनियों के सामने उसका ठहरना मुश्किल हो रहा था।
उसकी पत्नी ममता भी यह सब समझती थी, मगर बड़े अफसर की पु़त्री होने के नाते पति को दबा कर रखने के हैसियत थी उसकी। वो चाहती वहीं करती। वह विशाल को एक अति महत्वाकांक्षी घोड़ा समझती थी और इस घोड़े की स्वयं सवारी पूरे एशो आराम के साथ करना चाहती थी। इस मामलें में उसे कोई अन्य भागीदार मंजूर नहीं था। पुराने किस्से उसे भी याद थे। मगर अंगारों की राख उड़ाकर वह स्वयं दग्ध नहीं होना चाहती थी। माननीय स्वभाव के अनुसार उसमें भी उतार-चढ़ाव आते रहते थे।
जिस जमीन पर विशाल ने गिद्ध दृष्टि डाली थी, वो पहले कभी शहर से दूर रिसोर्ट था। मगर शहर के विकास के साथ-साथ रिसोर्ट-फार्महाऊस के रूप में शहर के नजदीक आ गया था। धनी-मानी लोग मौज-शोक के लिए आते थे। चारों तरफ खाली जमीन थी और विशाल एक विशाल टाऊनशिप के सपने देखने लगा था। पांच सौ करोड़ रूपयों की टाऊनशिप.....। एक सपना.......।
जो यदि साकार हो जाये तो उसकी कम्पनी भी टक्कर की कम्पनी बन जाये। मगर सब कुछ इतना आसान नहीं था। ममता के पिताजी की जमीन को हासिल करना ही सबसे टेढी खीर थी। विशाल इन सभी उलझनों में उलझा था। जमीनों के मकड़जाल में एक ओर चीज की जरूरत थी, एक प्रभावशाली राजनेता की। उसे राजनेता तो नहीं मिला मगर माधुरी से उसकी मुलाकात हो गयी। और माधुरी ने उसे नेताजी के बंगले पर चलने का न्यौता दिया।
वास्तव में माधुरी को अपने कॉलेज के लिए नई भूमि की तलाश थी, विशाल के पास भूमि थी। टाऊनशिप की योजना थी और क्रियान्वयन के लिए नेताजी की तलाश थी। माधुरी के पास कामचलाऊ राजनैतिक ज्ञान था। नेताजी से दुआ सलाम थी। थोड़ा बहुत पैसा भी था और महत्वाकांक्षी घोड़ो पर सवारी करने में उसे भी मजा आता था। अब उसके पास दो घोड़े थे। विशाल और नेताजी। उसने इन दोनों घोड़ों पर सवारी करने का निश्चय किया। उसने विशाल को नेताजी तक पहुंचाया। नेताजी को हलाल के लिए मुर्गे की तलाश थी। विशाल मोटा-ताजा मुर्गा था। नेताजी के बंगले पर तीनों मिले। विशाल, माधुरी और नेताजी।
विशाल ने अपनी टाउनशिप योजना नेताजी को समझाई। नेताजी ने बात समझने की कोशिश ही नहीं की। वे जानते थे कि इस टाऊनशिप को पूरा कराने में ऊंची राजनैतिक पहुंच की आवश्यकता है और ये विशाल या माधुरी के पास नहीं है। बात यहीं तक होती तो भी ठीक था। विशाल के बारे में उन्होंने अपनी ओर से भी खोजबीन कर ली थी। उन्हें पता चल गया था कि आई.ए.एस ससुराल से उसे कुछ मिलने वाला नहीं है।
माधुरी ने स्पष्ट कहा।
टाऊनशिप में स्कूल, कॉलेज या विश्वविद्यालय के लिये जो जमीन आरक्षित होगी वह उसकी होगी। उसके ऐवज में वो विशाल के सरकार में फंसे पड़े काम-काज निपटाने में मदद देगी। विशाल इस बात से केवल आंशिक सहमत था। बोला।
‘मैडम टाऊनशिप में केवल स्कूल के लिए जमीन है।'
‘वो मैं नही जानती, यदि मेरा निजि विश्वविद्यालय बना तो उसी टाऊनशिप में बनेगा।'
‘तो फिर स्कूल नहीं बनेगा।'
‘स्कूल तो आवश्यक है, नेताजी ने कहा।'
ऐसा करते हैं कि स्कूल खोलने के लिए जमीन आरक्षित कर देते हैं और यदि विश्वविद्यालय का एक्ट बन जायेगा तो स्कूल को ही विश्वविद्यालय का दर्जा दे देंगे। नेताजी ने समझौते के रूप में निर्णय दिया। विशाल और माधुरी सहमत हो गये।
अब मामला नेताजी की हिस्सेदारी पर आकर अटक गया। इस मामला में माधुरी ने पहल की। नेताजी की तरफ से बोली।
‘बोलो विशाल। इस विकास योजना में नेताजी का हिस्सा क्या होगा।'
‘मुनाफे में दस फीसदी।' विकास ने सोच-समझकर मोल-भाव शुरू किया।
‘हिस्सा दे रहे हों या भीख। नेताजी ने गुस्से में कहा।'
विशाल चुप रहा। माधुरी ने बात संभाली।
‘सर। आप गुस्सा मत होईये। मुनाफे में पच्चीस प्रतिशत हिस्सेदारी आपकी रहेगी। ये सब कुछ बेनामी रहेगा। आप कहीं भी पिक्चर में नहीं आयेंगे।
‘पिक्चर में आने से मैं डरता नहीं हूं।'
‘वो तो ठीक है सर। पर..............।' विशाल ने बात जान-बूझकर अधूरी छोड़ दी।
‘फिर आपके अगले चुनाव का खर्चा भी विशाल की कम्पनी ही उठायेगी। माधुरी ने ब्रह्मास्त्र फेंका यह टाऊनशिप आपके खेत्र में ही होगी।'
‘हां ये तो ठीक है।' ‘नेताजी ने सहमति प्रकट कर दी।'
तो क्या सहमति-पत्र पर हस्ताक्षर कर दें। नेताजी बोले।'
‘नेकी और पूछ-पूछ......।' विशाल ने कहा।'
माधुरी ने तीन गिलास भरे।
‘चीयर्स।'
नई टाऊनशिप के नाम पर तीनों ने चीयर्स कहा।
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(क्रमशः अगले अंकों में…)
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