॥ श्री ॥ असत्यम्। अशिवम्॥ असुन्दरम्॥। (व्यंग्य-उपन्यास) महाशिवरात्री। 16-2-07 -यशवन्त कोठारी 86, लक्ष्मी नगर, ब्रह्मपुरी...
॥ श्री ॥
असत्यम्।
अशिवम्॥
असुन्दरम्॥।
(व्यंग्य-उपन्यास)
महाशिवरात्री।
16-2-07
-यशवन्त कोठारी
86, लक्ष्मी नगर,
ब्रह्मपुरी बाहर,
जयपुर-302002
Email:ykkothari3@yahoo.com
समर्पण
अपने लाखों पाठकों को,
सादर । सस्नेह॥
-यशवन्त कोठारी
कस्बे के बाजार के बीचों-बीच के ढीये पर कल्लू मोची बैठता था। उसके पहले उसका बाप भी इसी जगह पर बैठकर अपनी रोजी कमाता था। कल्लू मोची के पास ही गली का आवारा कुत्ता जबरा बैठता था। दोनों में पक्की दोस्ती थी। जबरा कुत्ता कस्बे के सभी कुत्तों का नेता था और बिरादरी में उसकी बड़ी इज्जत थी। हर प्रकार के झगड़े वो ही निपटाता था। कल्लू मोची सुबह घर से चलते समय अपने लिए जो रोटी लाता था उसका एक हिस्सा नियमित रूप से जबरे कुत्ते को देता था।
दिन में एक बार कल्लू उसे चाय पिलाता था। सायंकालीन डिनर का ठेका झबरे कुत्ते ने पास वाले हलवाई को स्थायी रूप से दे दिया था। रात को नौ बजे से बारह बजे तक जबरे कुत्ते का डिनर हलवाई के बर्तनों में चलता रहता था। कल्लू मोची के पास लोग-बाग केवल अपने जूतों-चप्पलों की मरम्मत के लिए ही आते हो, ऐसी बात नहीं थी। कल्लू की जाति के लोग, सड़क के आवारा लोग, भिखारी, पागल आदि भी कल्लू के आसपास मण्डराते रहते थे। आज कल्लू के पास के गांव का उसकी जात का चौधरी आया हुआ था। जबरा कुत्ता भी उनकी बातों में हुंकारा भर रहा था।
चौधरी बोला-अब बता कल्लू क्या करें। गांव में बड़ी किरकिरी हो रही है। भतीजा रहा नही। भतीजे की बहू के एक लड़की है और भतीजे के मरते समय से ही वह पेट से है................। ‘कैसे सुधरे यह सब।'
‘अब इसमें चौधरी साफ बात है। छोरी का नाता कर दो।'
‘यह क्या इतना आसान है। एक लड़की है और एक ओर बच्चा होगा...........।'
‘अरे तो इसमें क्या खास बात है। नाते में जो मिले उसे छोरी के नाम से बैंक में डाल दो। दादा-दादी इसी बहाने पाल लेंगे। और जो पेट में है उसकी सफाई करा दो।'
‘राम........राम..........। कैसी बाते करते हो।'
‘भईया यहीं व्यवहारिक है। लड़की अभी जवान है, सुन्दर है, घर का काम-काज आसानी से कर लेती है। कोई भी बिरादरी का आदमी आसानी से नाता जोड़ लेगा। सब ठीक हो जायेगा। रामजी सबकी भली करते हैं।
‘कहते तो ठीक हो............मगर....................।
‘अब अगर............मगर छोड़ों। कहो तो बात चलाऊं।'
‘कहाँ।'
‘यही पास के गांव में एक विधुर है।'
‘यह ठीक होगा।'
‘तो क्या तुम पूरी जिन्दगी उस लड़की की रखवाली कर सकोगे। जमाना बड़ा खराब है।'
‘‘हां ये तो है।'
‘तो फिर..............।'
‘सोचकर..........घर में बात कर के बता देना।'
‘या फिर पंच बिठाकर फैसला कर लो।'
‘अन्त में शायद यही होना है।'
कल्लू ने चाय मंगाई। जबरे के लिए एक कप चाय पास के पत्थर पर डाली। जबरे ने चांटी। और चौधरी ने चाय सुड़क ली। तम्बाकू बनाई खाई और चौधरी चला गया। कल्लू अपना काम शुरू करता उससे पहले ही बाजार में हल्ला मच गया। जबरा दौड़कर चला गया। वहां बाजार में कुत्तों के दो झुण्ड एक कुतिया के पीछे दौड़ रहे थे। जबरे ने उन्हें ललकारा, झुण्ड चले गये। झबरा वापस कल्लू के पास आया और बची हुई चाय चाटने लगा। जबरा कुत्ता किसी से नहीं डरता था। डॉक्टर का अलेशेशियन कुत्ता भी उसे देखकर भोंकना बन्द कर देता था। जबरे का गुर्राना डॉक्टर को पसन्द नहीं आता था, मगर उसे क्या करना था। कुत्तों के बीच की यारी-दुश्मनी से उसे क्या मतलब था। कुत्तों की कुत्ता-संस्कृति पूरे कस्बे की संस्कृति का ही हिस्सा थी।
कुछ कुत्ते आदमियों की तरह थे और कुछ आदमी कुत्तों की तरह थे। कस्बे में रामलीला भी चलती थी और कुत्तालीला भी। कुत्ते संस्कृति के रक्षक भी थे और भक्षक भी। कुत्ते बुद्धिजीवी भी थे और नेता भी। कुछ कुत्ते तो स्वर्ग से उतरे थे और वापस स्वर्ग में जाना चाहते थे।
कल्लू मोची जूतों-चप्पलों की मरम्मत के अलावा मोहल्ले समाज, बाजार, मंहगाई, चोरी, बेईमानी, रिश्वत आदि की भी मरम्मत करता रहता था। उसका एक मामला कोर्ट में था, उसको लेकर वह वकीलों, अदालतों और मुकदमों पर एकदम मौलिक चिन्तन रखता था, कभी-कभी गुस्से में जबरे कुत्ते को सुना-सुना कर अपना दिल का दुःख हल्का कर लेता था। लेकिन जबरे कुत्ते के अपने दुःख दर्द थे जो केवल कल्लू जानता था। वह जबरे को लकी कुत्ता मानता था। क्योंकि जबरे के बैठने से ही उसका व्यापार ठीक चलता था। कुत्ता के पास कुत्तागिरी थी और कल्लू के पास गान्धीगिरी।
कल्लू मोची और पास वाले हलवाई के बीच-बीच तू-तू, मैं-मैं चलती ही रहती थी। हलवाई उसे हटवाना चाहता था और कल्लू की इस लड़ाई के बावजूद झबरे कुत्ते का डिनर बाकायदा यथावत चलता रहता था। लड़ाई कल्लू से थी जबरे कुत्ते से नहीं।
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मोहल्ले की प्रोढवय की महिलाओं ने शुक्वाईन के चाल-चलन, व्यवहार, खानदान आदि पर शोधकार्य शुरू कर दिये थे। अभी तक शोधपत्र प्रकाशित नहीं हुए थे, मगर शोध सारांश धीरे-धीरे इधर-उधर डाक के माध्यम से आने-जाने लगे थे। मुंह से ये जनानियां शोध लोकप्रियता का दर्जा प्राप्त कर रहे थे। शोधपत्रों के सारांश में से एक सारांश का सार ये था कि शुक्लाइन वो नही है जो दिखती है, एक अन्य शोधकर्ती ने उन्हें बुद्धिमान मानने से ही इन्कार कर दिया था। आखिर एक अन्य शोधपत्र तो सीधा मौहल्ले में प्रकाशित हो गया। इस शोधपत्र के अनुसार शुक्लाईन शुक्लाजी के साथ ही पढ़ती थी। पढ़ते-पढ़ते लव हो गया। शादी हो गई। बच्चा हो गया। वैसे भी शक्ल सूरत से देहाती लगती है।
इसके ठेठ विपरीत एक अन्य शोध छात्र का निष्कर्ष कुछ ज्यादा महत्वपूर्ण था। उनके अनुसार शादी जो थी वो आर्य समाज की विधि से हुई थी और बच्चा जो है पहले से ही पेट में था। इस शोध का आधार क्या था, यह किसी को भी पता नहीं था। आखिर मोहल्ले की महिलाओं ने एक दिन सामूहिक रूप से शुक्ला परिवार के घर पर धावा बोलने का निश्चय किया।
दोपहर का समय। शुक्लाईन बच्चें को सुलाकर खुद भी आराम के मूड में थी। काल बेल बजी। अभी उनके आने का समय तो हुआ नही था। ऐसे में कौन हो सकता है शुक्लाईन यह सब सोचते-सोचते आई और गेट खोला। गेट पर मोहल्ले की प्रोढ़ाओं को देखकर सूखी हंसी के साथ स्वागत करती हुई बोली।
‘आईये। आईये। धन्य भाग मेरे।'
हां बेटी तुम नई हो सो सोचा परिचय कर ले। किसी चीज की जरूरत हो तो बताना बेटी। चाची बोली।
चाची को चुप करते हुए मोहल्ले की भाभी बोली।
‘तुम्हारे वो तो रोज जल्दी आ जाते हैं क्या बात है। बहुत प्रेम है क्या ?'
‘प्रेम की बात नहीं है, भाभी कॉलेज में काम ही कम होता है। अपनी क्लास लो और बस काम खत्म।'
‘अच्छा। ऐसा होता है क्या भई हम तो कॉलेज गई ही नही। हमारे वो तो देर रात गये आते हैं।'
‘अपनी-अपनी किस्मत।' चाची ने भाभी को नीचा दिखाने के लिए कहा।
शुक्लाइन चाचियों, भाभियों को चाय पिलाकर चलता करना चहाती थी कि मुन्ना जग गया। शुक्लाइन ने उसे फिर सुलाया, इस बार चुलबुली दीदी ने पूछा।
‘भाभी लव मैरिज थी या अरेन्जड ?'
‘अरे भाई क्या लव और क्या अरेन्ज। वास्तव में लव पहले हो गया और मैरिज बाद में हुई।'
‘भई हमारे जमाने में तो ये सब चोंचले नहीं चलते थे।' चाची फिर बोल पड़ी। ‘सीधा ब्याह होता था जिस खूंटी पर बांध देते, बंध जाते।'
‘अब बाकी ये तो सब तो चलता है।' दीदी ने कहा और बात खत्म की।
शुक्लाईन इन महानारियों से उब चुकी थी। चाय, शाय हुई और उन्हें चलता किया। बाहर जाकर औरतों ने अपने-अपने शोधपत्रों में अपेक्षित सुधार किये और प्रकाशनार्थ इधर-उधर चल दी। यह शोध अनवरत जारी है।
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कल्लू मोची और उसके जबरे कुत्ते की कसम खाकर यह किस्सा-ए-अलिफ लैला या दास्तान, ए लैला मंजनू अर्ज करने की इजाजत चाहता हूं। खलक खुदा का और मुलक बादशाह का। यह न तो कोई फसाना है और न ही अफसाना, मगर हकीकत का भी बयां किया जाना बेहद जरूरी है।
जिस प्रोफेसर और प्रोफेसराइन की चर्चा, कुचर्चा, तर्क, कुतर्क, वितर्क कर करके मौहल्लेवालियां हलकान हुई जा रही है उसे तफसील से बताना है तो गैर जरूरी होगा मगर किस्सा गोई के सिद्धान्तों के अनुसार जरूरी बातें अर्ज करता हूं।
प्रोफेसर शुक्ला जिस हाई स्कूल रूपी कॉलेज में पढ़ाने आये थे, वो अभी भी हाई स्कूल के स्तर से ऊपर नहीं उठा था। हैडमास्टर साहब को हैडमास्टर ही कहा जाता था और प्रिंसिपल का पद भी इसी में समाहित था। कॉलेज में सहशिक्षा थी। यौन शिक्षा थी। पास में ही सरकार का शिक्षा संकुल था। राजनीति थी। फैशन थी। अक्सर फैशन परेडे होती रहती थी। किसी भी बहाने नाचने-गाने के कार्यक्रम होते रहते थे। डाण्डिया, दिवाली, वार्षिक उत्सव, परीक्षा, फ्रेशर्स पार्टी, वन दिवस, वर्षा दिवस, सूखा दिवस, आदि दिवसों पर लड़के-लड़कियां नाचते थे। गाते थे। साथ-साथ घूमते थे। मौसम की मार से बेखबर हर समय वसन्त मनाते थे। मां-बाप की काली-सफेद लक्ष्मी के सहारे इश्क के पेंच लड़ाते थे और सरस्वती को प्राप्त करने के लिए नकल करने का स्थायी रिवाज था। जो लोग नकल नहीं कर सकते थे वे विश्वविद्यालय के बाबू से परीक्षक का नाम, पता, सुविधा शुल्क देकर ले आते थे और पास हो जाते थे।
प्रायोगिक परीक्षाओं में पास होने का सीधा अंकगणित था। बाह्य परीक्षक को टी.ए., डी.ए. का नकद भुगतान छात्र चन्दे से कर देते थे। कोई-कोई अड़ियल परीक्षक टी.ए., डी.ए. के अलावा टॉप कराने का शुल्क अतिरिक्त मांगते थे और एक बार दो छात्रों को टॉप करना पड़ा, क्योंकि दोनों ने अतिरिक्त शुल्क आन्तरिक परीक्षक को जमा करा दिया था। वास्तव में सच ये है कि शिक्षा, पद्धति जबरे कुत्ते की रख्ौल थी। जिसे हर कोई छेड़ सकता था। नोंच सकता था। उसके साथ बलात्कार कर सकता था और प्रजातन्त्र की तरह प्रौढ़ा शिक्षा पद्धति की कही कोई सुनवाई नहीं थी।
ऐसे खुशनुमा वातावरण में शुक्लाजी पढ़ाते थे या पढ़ाने का ढोंग करते थे। कक्षा और उनके बीच की केमेस्ट्री बहुत शानदार थी, जैसे दो प्यार करने वालों के बीच होती है। लेकिन इस कॉलेज के चक्कर में असली किस्सा तो छूटा ही जा रहा है।
शुक्लाजी इस महान कॉलेज में आने से पहले राज्य के कुख्यात विश्वविद्यालय में शोधरत थे। अक्सर वे विश्वविद्यालय के सामने की टी-स्टाल पर बैठकर अपने गाईड को गालियां देते रहते थे। उदासी के क्षणों में वे नीम पागल की तरह विश्वविद्यालय की सीढ़ियों पर पड़े पाये जाते थे। आते-जाते एक दिन उन्होंने देखा कि विभाग की एक कुंवारी कन्या उन्हें देख-देखकर हंस रही है। वो शोध छात्रा थी। दोनों के टॉपिक एक से थे। सिनोप्सिस विश्वविद्यालय में जमा हो गये थे। विश्वविद्यालय के शोध बाबू ने शोध सारांश के पास हाने की कच्ची रसीद शुल्क लेकर दे दी थी। अर्थात सब तरफ मंगल ही मंगल होने वाला था।
शुक्लाजी ने भावी शुक्लाईन का अच्छी तरह मुआईना किया। साथ मरने जीने की कस्में खाई। तो शोध छात्रा ने पूछा।
‘आपने गाईड को कैसे पटाया।'
‘पटाने को उस बूढ़े खूंसट में है ही क्या, मैंने उसके नाम से एक लेख लिखकर छपा दिया। अपना फोटो-लेख छपा देख वह बूढ़ा खुश हो गया। एक सायंकाल घर पर जाकर गुरुआईनजी को भी खुश कर आया। उस समय गाईड जी कहीं दोस्तों के साथ ताशपत्ती खेल रहे थे। रात भर घर नहीं आये।
‘वे रात भर ताशपत्ती नहीं खेल रहे थे भई, वे मेरी सिनोप्सिस लिख रहे थे, रजाई में बैठकर.............।'
‘अच्छा तो फिर तुम्हारी सिनोप्सिस भी पास हो गई।'
‘वो तो होनी ही थी। इस कुरबानी के साथ तो डिग्री मुफ्त मिलती है।'
दोनो शोधकर्ता अपनी-अपनी जमीन पर नंगे थे। दोनों के सूत्र मिलते थे। गाईड एक थे। सब कुछ एकाकार होना चाहता था। सो आर्य समाज में दहेज, जाति, वर्ण रहित शादी सम्पन्न हो गई और छात्रा जो किसी गांव से शहर आई थी अब श्रीमती शुक्लाइन बन गई थी।
कॉलेज में पढ़ाने के बाद शुक्लाजी घर की तरफ आ रहे थे, सोचा कुछ सौदा लेते चले। नये खुले मॉल में घुस गये। वहां देखा, कॉलेज के छात्र चारों तरफ जमा थे। शुक्लाजी वापस उल्टे पैरों आये। उनके कानों में कुछ वाक्यांश पड़े।
‘यार शुक्ला बड़ा तेज है।'
‘सुना है शहर से ही चांद का टुकड़ा मार लाया है।'
‘एक बच्चा भी है।'
‘पता नहीं, किसका है ?'
‘दोनों के गाईड का लगता है।'
‘हे भगवान अब ये क्या पढ़ायेंगे ?'
‘बेचारा शुक्ला, बेचारी शुक्लाईन।'
‘जैसी भगवान की मर्जी और क्या ?'
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शुक्लाजी जब घर पहुंचे तो भरे हुए थे। शुक्लाइन का भेजा फ्राई हो रहा था। शुक्लाजी जीवन की परेशानियों से परिचित थे। सोचते थे जीवन है तो परेशानियां है। मगर इस तरह की गलीज परेशानियों की तो उन्होंने कल्पना ही नही की थी। उनके स्वीकृत मानदण्डों में ये सब ठीक नहीं हो रहा था। वे प्रगतिशील विश्वविद्यालय से पढ़कर निकले थे। इस प्रकार की लफ्फाजी के आदि नही थे। वे सभ्य संसार की अन्दरुनी हालत जानते थे। समझते थे। मगर ये सब..............।
इधर शुक्लाईन मौहल्ले की महानारियों के बाणों से त्रस्त थी। उनकी बातों के वाणों के साथ तीखे नयनों की मार भी वो अभी-अभी भी झेल चुकी थी। जाहिर था इस सम्पूर्ण रामायण पर एक महाभारत जरूरी था। वही हुआ।
शुक्लाजी घर में घुसे तो आंधी की तरह शुक्लाईन उन पर छा गई। धूल की तरह जम गई। शुक्लाईन कद-काठी से शुक्लाजी से सवायी डेढ़ी थी, भरी हुई थी, हर तरह से जली-भुनी थी, बोल पड़ी।
‘तुम्हें कुछ पता भी है, मोहल्ले में क्या हो रहा है ?'
‘मोहल्ले को मारो गोली। हम तो किरायेदार है। आज नहीं तो कल इस असार मोहल्ले को छोड़कर कहीं और बसेरा कर लेंगे।'
‘लेकिन बदनामी वहां भी पीछा नहीं छोड़ेगी।'
‘न छोड़े बदनामी के डर से जीना तो बंद नहीं कर सकते।'
‘तुम नहीं समझोगे। नहीं सुधेरोगे।'
‘मैं समझता भी हूं और सुधर भी गया हूं।'
‘अरे वाह। हमारी बिल्ली हमीं को आंखे दिखाये।'
‘मैं आंखें नहीं दिखा रहा हूं। कानों से जो सुना है, उसे ही पचाने की कोशिश कर रहा हूं।'
अब तुम्हारे कानों में क्या गरम सीसा पड़ गया।'
‘हां वही, समझो, आज सोदा खरीदते समय कुछ लोण्डे कुछ अण्ट-सण्ट बक रहे थे।'
‘क्या बक रहे थे। मैं भी सुनूं।'
‘अब तुम जानकर क्या करोगी.........। ये सब गंवार, जंगली, जाहिल लोग है।'
‘अरे तो हम सुनेंगे क्यों ?'
‘सुनना और सहना ही मनुष्य की नियति है। तुम चाय बनाओ। छोड़ो ये पचड़ा।'
नहीं तुम्हें मेरी कसम बताओ।'
शुक्लाजी ने जो सुना था, दोहरा दिया।
शुक्लाईन सन्न रह गई। उसे भी यह खटका था।
उदास सांझ में उदासी के साथ दोनों ने चाय ली। खाना खाया और सो गये। बाहर गली में कुत्ते भौंक रहे थे और जबरा कुत्ता उन्हें चुप रहने के आदेश दे रहा था। कुछ समय में जबरे कुत्ते के आदेशों की पालना हुई क्योंकि अब केवल एक कुतिया ही रो रही थी।
प्रजातंत्र का सबसे बड़ा आराम ये है कि कोई भी किसी को भी गाली दे सकता है। सरकार, मंत्री, अफसर की ऐसी तेसी कर सकता है। गली-मोहल्ले से लगाकर देश के उच्च पदों पर बैठने वालों की बखियां उधेड़ सकता है। लेकिन क्या प्रजातंत्र झरोखे, गोखड़े, खिड़की, दरवाजे पर खड़े रहकर देखने मात्र की चीज है, या प्रजातंत्र को भोगना पड़ता है। सहना पड़ता है। उसकी अच्छाईयों-बुराइयों पर विचार करना पड़ता है। शुक्लाजी स्टॉफ रूम के बाहर के लोन में खड़े-खड़े यही सब सोच रहे थे। प्रजातंत्र राजतंत्र और तानाशाही के त्रिकोण में फंसा संसार उन्हें एक मायाजाल की तरह लगता था। वे इसी उधेड़-बुन में थे कि इतिहास की अध्यापिका भी वही आ गईं। वे शुक्लाजी सेे कुछ वर्ष वरिष्ठ थी और उड़ती हुई खबरें उन तक भी पहुंची थी। लेकिन शालीनता के कारण कुछ नहीं बोल पाती थी।
‘क्या बात है आप कुछ उदास है ?'
‘उदासी नही बेबसी है। हम चाहकर भी व्यवस्था को नहीं सुधार सकते।'
‘आप बिलकुल ठीक कहते हैं। इस सड़ी-गली व्यवस्था से कुछ भी अच्छें की उम्मीद करना बेमानी है।'
‘वो तो ठीक है मगर व्यवस्था सभी को नाकारा, नपुसंक, नंगा और भ्रष्ट क्यों समझती है।'
‘क्योंकि यही व्यवस्था का चरित्र है।' सत्ता का मुखौटा और चरित्र एक जैसा होता है लेकिन बिग बदल जाती है। गंजे सिर पर लगी बिग या पार्टी की टोपी ही सब कुछ तय करती है और मुखौटा तथा बिग बदलने में कितना समय लगता है ?
ठीक कहती है, आप इतिहासज्ञ है, इतिहास के आईने में सूरते बदलती रहती है और हम सब देखतेे रह जाते हैं।
‘राजनीति इसी का नाम है। जब भी किसी के साथ अन्याय की बात आती है तो सर्वप्रथम राजनीतिक बातें ही उठती है। अपना कस्बा छोटा है और कॉलेज तो और भी छोटा है मगर राजनीति बड़ी है।'
अब देखो न शुक्लाजी आपके आने से पहले यहां पर आपके पद पर वर्माजी थे। बेचारे बड़े सीधे-सादे। अपने काम से काम। न किसी के लेने में और न किसी के देने में। मगर हैडमास्टर साहब ने उन्हें एक परीक्षा हॉल में मैनेजमेंट ट्रस्टी के लड़के को नकल नहीं कराने की ऐसी सजा दिलवाई की बस मत पूछो।
‘क्यों क्या किया हैडमास्टर साहब usA'
‘ये पूछो कि क्या नहीं किया।'
‘पहले आरोप। फिर आरोप-पत्र। फिर लड़कों द्वारा अश्लील पोस्टर लगवाये। नारे लगवाये। सड़कों पर नारे लिखवाये। उन्हें जलील किया। बेइज्जत किया। यहां तक कि पत्नी को अपहरण कराने की धमकी दी।'
‘अच्छा। फिर..............।'
‘फिर क्या, पूरे शहर में बदनामी की हवा फैली। हैडमास्टर को आगे कुछ नहीं करना पड़ा। वर्माजी एक रात बोरियां-बिस्तर लेकर गये सो आज तक वापस नहीं आये। बेचारे...........।'
लेकिन अन्याय का प्रतिकार किया जाना चाहिये था.......।
‘ये सिद्धान्त की बातें सुनने और बोलने में अच्छी लगती है शुक्लाजी। लेकिन जब बीतती है तो सिर छुपाने को जगह नहीं मिलती। यह कहकर इतिहास की राघवन मैडम चल दी।'
शुक्लाजी फिर सोचने लगे। वे अपने और शुक्लाईन के भविष्य को लेकर आश्वस्त होना चाहते थे। इस निजि कॉलेज की राजनीति से बचना चाहते थे, मगर राजनीति उनसे बचना नहीं चाहती थी। तभी चपरासी ने आकर बताया कि हैडमास्टर साहब याद कर रहे है। शुक्लाजी हैडमास्टर साहब के कक्ष की ओर चल दिये।
अधेड़ उम्र के हैडमास्टर को हर कोई टकला ही कहता था, मगर रोबदाब ऐसा कि मत पूछो। शुक्लाजी कक्ष में घुसकर बैठने के आदेश का इन्तजार करने लगे। काफी समय व्यस्तता का बहाना करके हैडमास्टरजी ने उन्हें बैठने को कहा।
‘शुक्लाजी सुना है आप की कक्षा में अनुशासन कुछ कमजोर है, पढ़ाने की और ध्यान दे..........।'
‘जी ऐसी तो कोई बात नहीं है, मगर फिर भी मैं ध्यान रखूंगा।'
‘मैं चलूं सर।' मगर अनुमति नही मिली।
‘सुनो हिन्दी की मैडम कुछ समय के लिए मेटरनिटी लीव पर जा रही है कोई पढ़ाने वाली ध्यान में हो तो बताना। '
हैडमास्टर साहब ने मछली को चारा फेंक दिया था। शुक्लाजी को पता था कि उन्हें कुछ समय के लिए ऐवजी मास्टरनी की जरूरत है। अतः हैडमास्टर साहब के प्रस्ताव पर तुरन्त उनके ध्यान में शुक्लाइन का चेहरा आ गया। मगर छोटे बच्चे की सोच चुप लगा गये, फिर सोचकर बोल पड़े।
‘सर मेरी मिसेज भी क्वालिफाइड है। आप उचित समझे तो..........'शुक्लीजी ने जान बूझकर बात अधूरी छोड़ दी।
हैडमास्टर साहब का काम पूरा हो चुका था। उन्होंने देखेंगे का भाव चेहरे पर चिपकाया ओर शुक्लाजी ने कक्ष से बाहर आकर पसीना पोंछा।
हैडमास्टर साहब शिक्षा के मामले में बहुत कोरे थे। वे तो अपने निजि सम्बन्धों के सहारे जी रहे थे, मैनेजमेंट, पार्टी पोलिटिक्स ट्रस्ट, अध्यापक, छात्र, छात्राओं आदि की आपसी राजनीति उनके प्रिय शगल थे। विद्यालय में किसी प्रिन्सिपल की नियुक्ति की अफवाहों से वे बड़े विचलित थे। इस विचलन को ठीक करने का एक ही रास्ता था। मैनेजमेंट के मुख्य ट्रस्टी को अपनी ओर मिलाये रखना। मुख्य ट्रस्टी शहर के व्यापारी थे। उनके पास कई काम थे। उन्होंने कॉलेज का काम-काज अपनी पत्नी माधुरी के जिम्मे कर दिया था। माधुरी कभी-कदा कॉलेज आती। संभालती। एक-दो को डॉट-डपट करती। निलम्बन की धमकी देती और चली जाती। वो पढ़ी-लिखी ज्यादा नही थी मगर सेठानी थी और पैसा ही उसकी योग्यता थी।
हैडमास्टरजी उससे खोंफ खाते थे, कारण स्पष्ट था। सेठजी खुश तो हैडमास्टरी चलती रहती और नाराज तो हैडमास्टर चले जाते। शिक्षा की दुर्गति ही थी एम.ए., बी.एड., एम.एड., पी.एच.डी. जैसी डिग्रियों के धारक सेठानी की आवाज पर चुप लगा जाते। स्थानीय अध्यापकों का गुट अलग था, जो हमेशा से ही मैनेजमेंट का गुट कहलाता था और बाह्य अध्यापकों को कभी भी कान पकड़कर निकाला जा सकता था।
पढ़ाई लिखाई के अलावा ज्यादा काम कॉलेज में दूसरे होते थे। सर्दियों में अवकाश के दौरान सेठजी अपनी दुकान का सामान भी कॉलेज में रखवा देते थे। कॉलेज में पिछवाड़े सेठजी की गायें, भैंसें बंधती थी और कॉलेज के चपरासी उनकी अनवरत सेवा सुश्रुषा, टहल करने पर ही नौकरी पर चलते थे। कॉलेज में मौज-मस्ती, फैशन, करने के लिए पूरे शहर के लौण्डे-लौण्डियां आते थे। नाभिदर्शना-लो-हिप जीन्स और लोकट टॉप के सहारे लड़कियां कॉलेज लाइफ के मजे ले रही थी और लड़के गुरूओंं से ज्यादा लवगुरूओं के पास मंडराते थे।
माधुरी इस हाईस्कूल को कभी निजी विश्वविद्यालय बनाने के सपने देखती थी। ऐसा सपना उन्हें हैडमास्टर साहब दिखाते थे। माधुरी का मानना था कि एक बार उन्हेंं विधानसभा का टिकट मिल जाये बस यह स्कूल राज्य का विश्वविद्यालय बनकर रहेगा और वे इसकी आजीवन कुलपति रहेगी।
प्रदेश को स्वर्ग बनाने की घोषणाऐं अक्सर होती रहती थी और इन घोषणाओं की अध्यापक बड़ी मजाक बनाते थे। प्रदेश स्वर्ग होगा और प्रदेशवासी स्वर्गवासी, जैंसे जुमले अक्सर स्टाफरूम में सुनने को मिलते थे। दूसरा अध्यापक तुरन्त बोल पड़ता, आप स्वर्ग जाकर क्या करेंगे माटसाब आपके तो सभी रिश्तेदार नरक में मिलेंगे। सभी मिलकर अट्टहास करते। वैसे प्राइवेट कॉलेज में पूरे वेतन की मांग करने वाले ज्यादा दिन नहीं टिक सकते थे। पूरे वेतन पर हस्ताक्षर, शेष वेतन का मैनेजमेंट के नाम पर अग्रिम चैक और बकाया का नकद भुगतान। इसी फण्डे पर कॉलेज चल रहे थे। माधुरी भी इसी फण्डे पर कॉलेज, कॉलेज की राजनीति को चला रही थी और एक दिन इस चार कमरे के कॉलेज को विश्वविद्यालय बनाने के सपने को साकार करने में लगी हुई थी। बस एक टिकट का सवाल था जिसे हल करना बड़ा मुश्किल था।
शुक्लाजी ने हैडमास्टर साहब के चारे पर घर आकर शुक्लाइन से विचार-विमर्श किया। शुक्लाईन को मामला जम गया। वैसे भी घर में बैठकर बोर हाने से यह अच्छा था। शुक्लाजी ने हैडमास्टर साहब का दामन पकड़ा, हैडमास्टरजी ने माधुरी को कहा, माधुरी ने शुक्लाइन को घर पर साक्षात्कार के लिए बुलाया और इस प्रकार शुक्लाइन भी हाईस्कूल में प्रोफेसराईन हो गयी। मगर माधुरी ने कच्ची गोलियां नही खेली थी, वे शुक्लाईन के सहारे राजनीति की सीढ़ी चढ़ना चाहती थी।
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उत्तर आधुनिकता की इस आंधी में वैश्विक समानीकरण की दौड़ में जब स्वतन्त्र अर्थ व्यवस्था और विश्व एक गांव की अवधरणा का तड़का लग जाता है तो देश प्रदेश की जो स्थिति होती है, वही इस समय पूरे देश की हो रही है। गरीब और गरीब हो रहा है, अमीर और अमीर हो रहा है। ऐसा लगता है कि शेयर बाजार ही देश है, शेयर बाजार में मामूली उठापटक से सरकारों की चूले हिलने लग जाती हंै। कुलदीपकजी यही सब सोच रहे थे। देखते-देखते धर्मयुग, सारिका, पराग, दिनमान रविवार, सण्डेमेल, सण्डे ओब्जवर, इतवारी पत्रिका और सैकड़ों लघु पत्रिकाएं काल के गाल में समा गई थी। साहित्य पहले हाशिये पर आया, फिर गायब ही हो गया। कुछ सिरफिरे अभी भी साहित्य की वापसी का इन्तजार करते करते हथेली पर सरसों उगाने का असफल प्रयास कर रहे है। लघु पत्रिका का भारी उद्योग अब इन्टरनेट और ब्लागों की दुनियां में चल निकला था। छोटे-बड़े अखबार अब प्रादेशिक होकर पचासों संस्करणों में छप रहे थे। विज्ञापनों की आय बढ़ रही थी, सेठों के पेट भर रहे थे। अखबारों के पेट भर रहे थे, मगर पत्रकारिता, साहित्य और रचनात्मक मिशनरी लेखन भूखे मरने की कगार तक पहुंच गया था।
ऐसे में कुलदीपकजी को सम्पादक ने बुलाया और कहा।
‘लेखक की दुम तुम्हारी समीक्षाओं से न तो फिल्मों का भला हो रहा है और न ही हमारा। बताओं क्या करें।'
‘जैसा भी आपका आदेश होगा, वैसी पालना कर दूंगा।' कुलदीपकजी ने कहा आप कहे तो कविता लिखने लगंू।
‘कविता-सविता का नाम मत लो। उसे कौन पढ़ता है। कौन समझता है। कहानी उपन्यास मर चुके है ऐसी घोषणाऐं उत्तर आधुनिक काल के शुरू में पश्चिम में हो चुकी है।'
कुलदीपकजी चुप ही रहे। आखिर सम्पादक उनका बोस था। और वे जानते थे नेता, अफसर और सम्पादक जब तक कुर्सी पर होते हैं किसी को कुछ नहीं समझते और कुर्सी से उतरने के बाद उन्हें कोई कुछ नहीं समझता। अभी सम्पादक कुर्सी पर था। समीक्षाएं छप रही थी और सायंकालीन आचमन हेतु कुछ राशि नियमित रूप से हस्तगत हो रही थी। कुलदीपकजी इसी से खुश थे। सन्तुष्ट थे।
सम्पादकजी आगे बोले
‘यार आजकल टी.वी. चैनलों पर लाफ्टर शोज का बड़ा हंगामा है, तुम ऐसा करो एक हास्या-व्यंग्य कालम लिखना शुरू कर दो। समीक्षा को मारो गोली...............।'
कुलदीपकजी की बांछे खिल गई। वे मन ही मन बड़े खुश हुए। चलो कालम मिला। अब वे पुराने शत्रुओं से गिनगिन कर बदला ले सकेंगे। मगर अभी रोटी एक तरफ से सिकी थी। सम्पादक ने आगे कहा।
‘लेकिन तुम्हें कालम लेखन का कुछ ज्ञान है क्या। लेकिन ज्ञान का क्या है। तुम लिख देना, मैं छाप दूंगा। करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।'
इस प्रकार एक हास्यास्पद रस के कवि हास्य के चलते इस व्यंग्य के स्तम्भ लेखन की पटरी पर दौड़ने लगे।
सायंकाल जब वे घर पऑचेे उन्हें असली ज्ञान मिला। जब मां ने बताया कि यशोधरा ने सम्पादकजी से आर्य समाज में शादी रचा ली थी और यह खम्भ-लेखन उन्हें इसी उपहार में मिला था।
रोने-धोने के बाद मां, बाऊजी ने बेटी को विदा कर दिया। मोहल्ले पड़ोस को एक पार्टी दी और बिटिया इस एक कमरे के महल को छोड़कर पासवाली बड़ी बिल्डिंग के तीसरे माले पर सम्पादकजी के फ्लेट पर रहने चली गई।
उत्तर आधुनिक साहित्य में ऐसी घटनाएं या दुर्घटनाएं जो भी आप कहना चाहे अक्सर घटती रहती है, जिन्हें सोच समझ कर कहानी या उपन्यास में ढाला जा सकता है। आखिर टी.वी. चैनलों के सास बहू मार्का धारावाहिकों का कुछ असर तो समाज पर भी होना ही चाहिये। अच्छी बात ये रही कि यशोधरा ने नौकरी छोड़कर घर-बार संभाल लिया। कुलदीपकजी का काम अब और भी कठिन हो गया था, मगर नियमित लेखन की आमदनी और बापू की पेंशन से आराम से गुजारा हो रहा था। मगर ऊपर वाले से किसी का भी सुख लम्बे समय तक देखा नहीं जाता।
रात का दूसरा प्रहर। कुलदीपकजी प्रेस से निकलना चाहते थे कि सूचना आई। बाबूजी का स्वास्थ्य अचानक गड़बड़ा गया है। कुलदीपकजी घर की और दौड़ पड़े। बापू को श्वास की पुरानी बीमारी थी, मगर अभी शायद हृदयाघात हुआ था। सब तेजी से बापू को लेकर रावरे की डिस्पेन्सरी तक ले गये। वहां पर नर्स थी, सौभाग्य से डॉक्टर भी था, मगर आपातकालीन दवायें नही थी। सघन चिकित्सा इकाई नहीं थी। डॉक्टर ने बापू को देखा। समझा। समझ गया। सौरी बोला। मगर तब तक कुलदीपकजी ने पास पड़ोस के कुछ लड़के इकट्ठे कर लिये, जो ऐसे शुभ-अशुभ अवसरों पर वहीं सब करते थे जो करना उन्हें उचित लगता था। उन्होंने डॉक्टर से गाली-गलोच की, नर्स के कपड़े फाड़े, चपरासी की पिटाई की। अस्पताल में तोडफोड़ की, हल्ला मचाया। यहां तक तो सहनीय था, मगर जब लड़कों ने, नर्स और डॉक्टर को एक साथ पीटना शुरू किया तो डॉक्टर ने पुलिस को फोन कर दिया।
भारतीय पुलिस नियमानुसार घटना घटने के बाद पहुंचती है॥ दोनों पक्षों को समझाने का असफल प्रयास पुलिस ने किया। दरोगा ने नर्स-डॉक्टर और लड़को को रातभर थाने में बंद कर दिया और बोला।
‘सुबह देखेंगे।' ‘यह हत्या थी, आत्महत्या थी या प्राकृतिक मृत्यु।' इस वाक्य से दोनों पक्ष सहम गये। मगर पुलिस तो पुलिस थी। रातभर बापू की लाश अस्पताल के बरामदे में पड़ी रही।
पास में ही जबरा कुत्ता पहरेदारी कर रहा था। काफी रात गये तक कुत्ता भौंकता रहा मगर प्रजातन्त्र के कानों तक उसकी बात नहीं पहुंची।
सुबह होते-होते दोनों पक्षों ने सम्पादक की सलाह पर केस उठा लिए और बापू के क्रियाकर्म के पैसे डॉक्टर, नर्स, चपरासी से वसूल पाये।
ज्ौसा कि सौन्दर्यवान महिलाएं और बुद्धिमान पुरूष जानते हैं अस्पताल वह स्थान है जहां पर आदमी जिंदा जाता तो है, मगर उसका वहां से जिन्दा आना बहुत मुश्किल काम है। डॉक्टर मरीज के बच जाने पर खुद को शाबाशी देता है और मर जाने पर ईश्वर को दोष देकर अलग हो जाता है। ज्यादा होशियार डॉक्टर साफ कह देते हैं कि मैं इलाज करता हूं, मरना-जीना तो ईश्वर के हाथ में है। वास्तव में ईश्वर और किस्मत दो ऐसी चीजें है जिन पर कोई भी दोष, अपराध आसानी से मढ़ा जा सकता है और मजा ये यारों कि ये दोनों शिकायत करने कभी नहीं आते। सब संकट झेल जाते हैं।
डॉक्टर और नर्स ईलाज में लापरवाही के आरोप से तो बच गये मगर जो कुछ हुआ उससे डॉक्टर और नर्स की बड़ी सार्वजनिक बेइज्जती हुई थी, डॉक्टर परेशान, दुःखी था। नर्स अवसाद में थी, और चपरासी ने अस्पताल आना बन्द कर दिया था। डॉक्टर अपना स्थानान्तरण चाहता था। नर्स भी इसी फिराक में थी, मगर ये सब इतना आसान नहीं था। आज अस्पताल में नर्स की ड्यूटी थी, डॉक्टर शहर से ही नही आया था, उसका कुत्ता बीमार था और उसे पशु चिकित्सक को दिखाना आवश्यक था।
नर्स अस्पताल में अकेली बैठी-बैठी बोर हो रही थी। ठीक इसी समय झपकलाल ने मंच पर प्रवेश किया। झपकलाल को देखते ही नर्स पहचान गई। वो चिल्लाना चाहती थी, मगर दिन का समय, सरकारी कार्यालय और सिस्टर के पवित्र कार्य को ध्यान में रखकर क्राइस्ट का क्रास बनाकर चुप रह गई। झपकलाल भी आज ठीक-ठाक मूड में थे। आते ही वो बोल पड़े ।
‘सारी नर्स उस दिन हम लोग नशे में कुछ अण्ड-बण्ड बक गये। सॉरी....वेरी सॉरी।'
नर्स क्या कहती। शिष्टाचार के नाते चुप रही। झपकलाल फिर बोल पड़े।
‘यह डॉक्टर महाहरामी है। महीने में एकाध दिन आता है और तुम को मरने के लिए यहां छोड़ा जाता है।'
नर्स फिर चुप रही। अब झपकलाल से सहन नही हुआ।
‘अरे चुपचाप सूजा हुआ मंुह लेकर कब तक बैठी रहोगी।' आज शाम को कुलदीपक के बाप की बैठक है। चली आना। ‘सब ठीक हो जायेगा।'
झपकलाल बैठक की सूचना देने ही आया था। सूचना देकर चला गया। बैठक की सूचना अखबार में भी छप गई थी। विज्ञापन के पैसे भी नहीं लगे थे।
शाम का समय। बैठक का समय। घर के सामने ही दरियां बिछा दी गई थी। बापू की एक पुरानी फोटो लगाकर उस पर माला चढ़ा कर अगरबत्ती लगा दी गई थी। पण्डित जी आ गये थे। धीरे-धीरे लोग बाग भी आ रहे थे। कुछ पास पड़ोस की महिलाएं और रिश्तेदारी की अधेड़ चाचियां, मामियां, काकियां, भुवाएं आदि भी धीरे-धीरे आ रही थी। नर्स बहिन जी भी आ गई थी। गीता रहस्य पढ़ा जा रहा था।
लोग-बाग आपस में अपनी-अपनी चर्चा कर रहे थे। कुछ महिलाएं एक-दूसरे की साड़ियोंं पर ध्यान दे रही थी। कुछ अपने आभूषणों की चिंता में व्यस्त थी। मृतक की आत्मा की शान्ति के लिए पाठ जारी था। पुरूष लोगों को अपने उतारे हुए जूतों और वाहनों की चिन्ता थी। कुछ दूर जाने की चिंता कर रहे थे। मृतक की आत्मा अब शान्त थी। राम-राम करके पाठ पूरा हुआ। पुष्पाजंलि हुई। तुलसी बांटी गई। और बैठक शिव मन्दिर में जाकर पूरी हुई। कुलदीपक ने सबको नमस्कार किया। सबने उन्हें और रिश्तेदारों को प्रणाम किया। लोग-बाग धीरे-धीरे घर गृहस्थी की चर्चा करते-करते चले गये।
महिलाएं मृतक की पत्नी को सांत्वना देकर आंसू पौंछती चली गई। रह गया केवल शून्य। सन्नाटा। घर में उदासी। कुलदीपक के मन में भविष्य की चिन्ता। यशोधरा ने सब संभाल रखा था। मां को भी। कुलदीपक ने झपकलाल की मदद से दरियां समेटी। पण्डित जी को दक्षिणा सहित विदा किया और मां के पास आकर बैठ गये।
‘मां।'
‘हा।'
‘अब आगे क्या।'
‘मेरे से क्या पूछता है ब्ोटा अब तू ही घर का बड़ा है। जो ठीक समझे कर।'
‘मगर फिर भी तू बता।'
‘श्राद्ध तेरहवीं की तैयारी तो करनी पड़ेगी। बापू के बैंक में कुछ है ले आना।'
‘अच्छा मां।'
धीरे-धीरे दिन बीते। दुःख घटे। अवसाद कम हुए। कुलदीपकजी वापस दैनिक कार्यक्रमों में रमने लगे। बापू नित्यलीला में चले गये। मां और भी ज्यादा बुढ़ा गई। यशोधरा का आना-जाना लगा रहा। कुलदीपकजी अपना खटकर्म करते रहे।
मां को एक बहू चाहिये थी। मगर इधर समाज में लड़कियों की संख्या निरन्तर गिर रही थी। और अच्छी, खानदानी लड़कियों की तो और कमी थी। कोई रिश्ता आता ही नहीं था। आता तो दायें-बायें देखने लायक। कन्या भू्रण हत्याओं के चलते नर ः नारी का अनुपात अपना असर दिखाने लग गया था।
मां की चिन्ता वाजिब थी। मगर क्या करती। कूलभूषण जहां कभी पूरे गांव शहर की लड़कियों से इकतरफा प्यार करते थे, एक प्रेमिका, पत्नी के लिए तरस गये।
शाम का जुटपुटा था। बाहर रोशनी हो रही थी मगर कुलभूषण के अन्दर अन्धकार था। वे आप्पदीपों भव की भी सोच रहे थे। तमसो मां ज्योतिर्गमय उवाच रहे थे। मगर इनसे क्या होना जाना था। किसी के जाने से जीवन ठहर तो नहीं जाता।
कल्लू मोची जिस ठीये पर बैठकर जूतों की मरम्मत का काम करता था। उसके पास की एक गन्दा नाला था, जो चौबीसों घन्टे बहता रहता था। नाला खुला था। इसकी बदबू पूरे शहर का वातावरण, पर्यावरण, प्रदूषण आदि से जुड़ी संस्थाओं को रोजी-रोटी देती थी। वास्तव में स्वयं सेवी संस्था का मतलब खुद की सेवा करने वाली संस्था होता है। कल्लू मोची को इस नाले से बड़ा डर था। नाला आगे जाकर झील में गिरता था। नाले के किनारे पर खुली हवा में संडास की सार्वजनिक व्यवस्था थी। अक्सर मुंह अन्धरे से ही लोग-बाग इस नाले को पवित्र करने का राष्ट्रीय कर्मकाण्ड प्रारम्भ कर देते थे। नाल में मल, मूत्र, गन्दगी, एमसी के कपड़े आदि अनवरत गिरते बहते रहते थे। शहर के बच्चे यहां पर लगातार मल-मूत्र का विसर्जन करते रहते थे। साथ में हवा में प्राणवायु का भी संचार करते रहते थे।
सभी रात का खाया सुबह इस नाले में प्रवाहित करते थे। महिलाएं भी मुंह अन्धेरे इस दैनिक कर्म को निपटा देती थी। सरकारी शौचलाय नहीं था। सुलभ वाले दुर्लभ थे और सबसे बड़ी बात नाले की सुविधा निःशुल्क, निर्वाध थी, जो हर किसी को रास आती थी। नाले के और भी बहुत सारे उपयोग थे।
सुबह-सवेरे नाले के किनारे पर बड़ी भीड़ थी। कल्लू मोची, उसका जबरा कुत्ता, और सैकड़ों की भीड़ वहां खड़ी थी। नाले के अन्दर एक कन्या भू्रण पड़ी थी। झबरे कुत्ते की बड़ी इच्छा थी कि नाले में कूदे और भू्रण का भक्षण करे। मगर नाले की गहराई देखकर हिम्मत नहीं हो रही थी। भीड़ तरह-तरह के कयास लगा रही थी। घोर कलियुग की घोषणा करते हुए एक पण्डितजी ने राम-राम करके सबको पुलिस को सूचना देने का आदेश दिया। मगर पुलिस के लफड़े में कौन पड़े।
मगर पुलिस बिना बुलाये ही आ गई। भीड़ छट गई। पुलिस ने सबसे पूछा और भू्रण को कब्जे में किया। पंचनामा बनाया, अस्पताल में भू्रण को रखवाया और एक दरोगा को इन्क्वायरी आफिसर नियुक्त कर दिया। ये सब कार्यवाही करके पुलिस ने अपनी पीठ थपथपाते हुए मीडिया को सूचित किया कि शीध्र ही ये पता लगा लिया जायेगा कि कन्या भू्रण की हत्या कब कहां कैसे हुई और हत्यारे या भू्रण के माता पिता को शीघ्र ही ढूंढ़ निकाला जायेगा।
पुलिस के अनुसार इस जघन्य अपराध के लिए किसी को भी बख्शा नहीं जायेगा। पुलिस ने जांच शुरू कर दी और सबसे पहले कल्लू मोची को ही थाण्ो में बुला भेजा।
कल्लू मोची हॉफता-कॉपता थाने पहुँचा, उसकी समझ में ये नहीं आया की उसका कसूर क्या है? मगर कसूरवार को थाण्ो में कौन बुलाता है। अपराधी तक तो थानेदार खुद जाता है। गरीब, असहाय निरपराधी को थाण्ो बुलाने का पुराना रिवाज चला आ रहा है और थानेदार की निगाह में घटना स्थल पर सबसे नजदीक कल्लू ही था।
थानेदार ने डण्डा दिखाते हुए पूछा,
‘क्यों बे तूने किसी को नाले में भू्रण फेंकते देखा था। या ये पाप साले तेरा ही है।'
‘हजूर मांई बाप है, जो चाहे कहे मगर न तो मैने किसी को भू्रण फेंकते देखा और नही ये पाप मेरा है।'
‘तेरा नही है ये तो मान लिया। क्योंकि इस उम्र में तेरे से ये सब नहीं होगा। मगर तू साला मरदूद सुबह से शाम तक वहां पर रहता है तो किसी को आते-जाते देखा होगा।'
‘आते-जाते तो सैकड़ों लोग है, आधा शहर यही पर मल-मूत्र का त्याग करता है, मगर ये भ्रूण का मामला मेरी समझ के बाहर है।'
थानेदार ने कल्लू को एक तड़ी देकर जाने का कहा और जाते-जाते कहा।
‘देख बे कल्लू कोई ऐसी वैसी बात सुनाई पड़े तो मुझे तुरन्त खबर करना। तुझे सरकारी मुखबिर बनाकर बचा लूंगा।
कालू चुपचाप अपनी किस्मत को रोता हुआ चला गया।
इधर स्थानीय पत्रकारों, चैनल वालों ने मीडिया में इस कन्या भू्रण हत्या की बात का बतंगड़ बना दिया, राई से पहाड़ का, निर्माण कर न्यूज कैपसूल सुबह पंाच बजे से निरन्तर दिखाये गये। ऐसा शानदार मसालेदार, समाचार स्थानीय चैनलों से लेकर नेशनल चैनल तक दिखाये जाने लगे। मीडिया के अलावा स्वय सेवी संगठन, छुटभैये नेता, महिला संगठनों के पदाधिकारी और प्रगतिशील बुद्धिजीवियों ने हंगामा खड़ा कर दिया।
पुलिस भी कुछ कम न थी। उन्होंने धीरे-धीरे खोजबीन करके एक वेश्या से यह कबूल करवा लिया कि भू्रण मेरा था म्ौंने फिकवा दिया। मगर लाख टके का सवाल ये था कि भू्रण का बाप कौन था। वेश्या से बाप का नाम उगलवाना आसान न था, मगर वो किस-किस का नाम लेती। सो कन्या भू्रण हत्या का यह मामला धीरे-धीरे अन्य मामलों की तरह ही मर गया। दो-चार दिन समाचार पत्रों में पहले पन्ने पर फिर तीसरे-चौथे पन्ने पर फिर धीरे-धीरे समाचार अपनी मौत मर गया। समाज में यह सब चलता ही रहता है, ऐसा सोचकर भीड़ ने अपना ध्यान अन्यत्र लगाना शुरू कर दिया, वैसे भी भीड़ की स्मरण शक्ति बड़ी कमजोर होती है।
कन्या भू्रण हत्या का मामला निपटा ही था कि कल्लू पर एक और मुसीबत आई। उसका जबरा कुत्ता कहीं भाग गया था। कल्लू ने इधर-उधर दौड़ धूप की और कुछ दिनों के बाद झबरा कुत्ता वापस तो आया, मगर उसके साथ कुतिया भी थी। कल्लू अब घर से दो रोटियां लाने लगा। दोपहर में उन दोनों को चाय पिलाने लगा और सामने वाले हलवाई के यहां सर कड़ाई में डाल दोनों एक साथ डिनर करने लगे। कुतिया पेट से थी। उसने अपने पिल्लों की भू्रण हत्या नहीं करके उन्हें जन्म दिया।
कल्लू के ठीये के पास के पेड़ के नीचे कुतिया अपने पिल्लों को दूध पिलाती, चाटती, उनसे खेलती, खुश रहती, मगर नगरपालिका वालों से यह सुख देखा नहीं गया वे कुतिया और उसके पिल्लों को पकड़कर ले गये और जंगल में छोड़ आये। कल्लू का जबरा कुत्ता फिर अकेला हो गया।
X X X
वर्षा समाप्त हो चुकी थी। खेतों में धान पक रहे थे। किसान-मजदूर निम्न मध्यवर्गीय समाज के पास काम की कमी थी, ऐसी स्थिति में धर्म, अध्यात्म, प्राणायाम, योग, कथावाचन आदि कार्यक्रमों को कराने वाले सक्रिय हो उठते हैं।
धर्म कथाओं का प्रवचन पारायण शहर में शुरू कर दिये गये। हर तरफ माहोल धार्मिक हो गया। ऐसे में एक दिन एक धर्मगुरु के आश्रम में एक महिला की लाश मिली। सनसनी फैली और फैलती ही चली गयी। जिन परिवारों से महिलाएं नियमित उक्त बाबाजी के आश्रम में जा रही थी, उन घरों में शान्ति भंग हो गई। उनके दाम्पत्य जीवन खतरे में पड़ गये। एक बार तो ऐसा लगा कि दिव्य और भव्य पुत्र की आस वाली बांझ स्त्रियों को पुत्र-प्राप्ति ऐसे ही स्थानों से होती है। मगर बाबा आखिर बाबा थे उन्होंने अपना अपराध कबूला और जेल का रास्ता नापा। असुन्दर का यह ऐसा सुन्दर उदाहरण था कि मत पूछो।
कल्लू के ठीये पर चौराहे की तरह लोग आते-जाते थे। गांव के भी, शहर के भी और बाजार के भी। सभी इस नई घटना पर अपने महत्वपूर्ण विचार व्यक्त करना चाहते थे, मगर श्रोताओं की तलाश में भटक रहे थे। ऐसी गम्भीर स्थिति में कुलदीपक, झपकलाल और कल्लू मिल गये।
कुलदीपक ने जूता पालिश के लिए दिया और कहा।
‘और कल्लू सुना शहर के क्या हाल है।'
‘बाबू शहर के हाल कोई तुमसे छिपे है। तुम शहर के जाने-माने पत्रकार। मैं अनपढ़ गंवार।'
‘अरे यार मस्का छोड़ कुछ नया बता।'
‘अब क्या बताऊं, कहता आंखन देखी और सच बात तो ये है कि बाबूजी वो जो कन्या भू्रण नाले में मिला था वो किसी बाबा का कृपा-प्रसाद ही था।'
‘अच्छा।' लेकिन वो औरत.....।'
‘पुलिस किसी से भी कुछ भी उगलवा सकती है पण्डित जी। मुझे भी थाने में बुलाया था।'
‘फिर।' झपकलाल उवाच ।
‘फिर क्या। मुझे तो छोड़ दिया और पुलिस ने एक नई कहानी गढ़ डाली। पुलिस की झूठी कहानी भी सच्ची कहानी होती है क्योंकि वो डण्डे के जोर से लिखी जाती है।' भू्रण हत्या का मामला अदालत में नही गया। मीडिया और पुलिस से ही काम चल गया। शहर आये बाबा का अस्थायी आश्रम यथासमय बिना संकट के विदा हो गया। बचे हुए गृहस्थ दम्पत्ति अब स्वयं योग, प्राणायाम, व्यायाम आदि सीख चुके थे और उनसे अपना काम चला रहे थे।
कुलदीपक पत्रकारिता के खम्भे पर चढ़ने के असफल प्रयास निरन्तर कर रहे थे, वे जितना चढ़ते उतना ही वापस उतर जाते। उधर उन्होंने एक भूतपूर्व लेखक, असफल सम्पादक जो अब प्रकाशक बन गया था को अपनी कविताओं की पाण्डुलिपि पकड़ा दी थी। आज वे उसकी दुकान पर जमे हुए थे। बाजार में यह इकलौती दुकान थी, जिस पर प्रकाशन, स्टेशनरी, बोर्ड की पुस्तकें, सब एक साथ बिकते थे। प्रकाशक को सबसे ज्यादा प्यार सबमिशन नामक शब्द से था। यह शब्द सुनकर ही वह उछल पड़ता था। आज कहां सबमिशन की सूचना मिल सकती है, सबमिशन के लिए किस अधिकारी से सम्पर्क करना है, कमीशन रिश्वत की दरें क्या है, कौनसी पुस्तक सबमिट करने में फायदा हो सकता है, वह सुबह से लेकर शाम तक इसी गुन्ताणें में व्यस्त रहता था। ऐसे अवसर पर एक कवि का आना उसे बड़ा नागवार गुजरा मगर कुलदीपकजी के सम्पादक जीजा ने एक बार उसकी बड़ी मदद की थी, बोर्ड में एक पुस्तक लगवाने के लिए एक सरस समाचार का प्रकाशन अपने पत्र के विशेष संवाददाता के हवाले से कर दिया था, तब से ही प्रकाशक कुलदीपक जी के कविता संग्रह से जुड़ गया था।
प्रकाशक ने कुलदीपक के नमस्कार का जवाब देने के बजाय उन्हें बिठा दिया और अपने कार्य में व्यस्त हो गया। काफी समय तक कुलदीपक इधर-उधर पड़ी पुस्तकों का मुआईना करता रहा, बोर होकर प्रकाशक की ओर देखता, प्रकाशक व्यस्तता का बहाना करता नोकर पानी पिला चुका था। अन्ततः कुलदीपकजी बोले।
‘भाई साहब म्ोरा कविता संग्रह कब तक आयेगा ?'
‘अरे यार इस कविता-सविता का चक्कर छोड़ो, कुछ शाश्वत, सुन्दर, आकर्षक लिखो। तुम एक उपन्यास लिख लाओ। तुरन्त छापूंगा।'
‘लेकिन मैं तो कवि हूं।'
‘अरे कवि की असली पहचान तो गद्य-लेखन में ही होती है।'
‘वो तो ठीक है पर.........।'
ठीक इसी समय प्रकाशक की दुकान पर एक स्थानीय पुस्तकालयाध्यक्ष आये। प्रकाशक ने कुलदीपक को उठने का इशारा किया। कुर्सी साफ की, खीसें निपोरी और पुस्तकालयाध्यक्ष की ओर देखकर कहा।
‘क्या आदेश है?'
‘काहे का आदेश, यार।' तुम बड़े बदमाश हो।'
‘क्यों क्या हुआ।' पिछली बार तुमने पुराने संस्करण की पुस्तकें टिका थी। तुम्हारा बिल रूक गया है।
‘यह सुनकर प्रकाशक गिडगिड़ाने लगा। कुलदीपक को एक तरफ करके प्रकाशक ने पुस्तकालध्यक्ष से अलग जाकर रास्ता पूछा।'
‘रास्ता सीधा है। अग्रिम कमीशन दो।'
प्रकाशक जी ने तुरन्त आज्ञा का पालन किया। ठण्डा मंगवाया। पिलाया। कुलदीपकजी से पूछा तक नही। लाइबे्ररियन चला गया। प्रकाशकजी ने अब कुलदीपक से कहा।
‘यार तुम्हारा काव्य, संकलन छाप दूंगा, यार चिन्ता मत करो।
‘लेकिन कब तक......। दो वर्षों से पड़ा है।'
‘पड़ा रहने के लिए नहीं लिया है, मगर क्या करूं चाहकर भी कुछ नहीं कर पाता, कविता बिकती कहां है ?'
‘नहीं, बिकती है तो फिर इतनी छपती कैसे है ?'
‘वो तो लेखकों के पैसे छपती है। लेखक अपने मित्रों में बांट देता है और तीन सौ प्रतियां खप जाती है बस.......।'
‘लेकिन मैं तो पैसे नहीं दूगा।'
‘तुमसे पैसे कौन मांग रहा है ? ‘यथासमय छाप दूगा।' ‘तुम निश्चिन्त रहो।'
कुलदीपक जानता था कि ये प्रकाशक भी चालू चीज हे। जब जैसा समय हो वैसा काम करता है, जनता साहित्य छापते समय जनवादी, प्रगतिशील साहित्य छापते समय प्रगतिशील तथा भगवा सरकार के समय भगवा हो जाता है। इसी चातुर्य के कारण धीरे-धीरे वह अच्छा प्रकाशक बनने के कगार पर आ गया था।
इधर देश-विदेश में सबमिशन के चलते उसे थोक विक्रय का लाभ भी मिलने लग गया था। कुल मिलाकर प्रकाशक, लेखकों से घृणा करता था क्योंकि वे रायल्टी मांगते थे, और रायल्टी तो सब रिश्वत में देनी पड़ती थी।
प्रकाशक का फण्डा बिल्कुल स्पष्ट था, रायल्टी को रिश्वत में दे दो। उन लेखकों को छापों जो रायल्टी मांगने के बजाय पुस्तक बिकवाने में समर्थ हो। वे लेखक काम के होते हैं जो पुस्तक क्रय समिति के सदस्य होते हैं। बोर्ड आफ स्टडीज या शिक्षा बोर्ड में घुसपैठ रखते हैं। कुलदीपक में फिलहाल यह योग्यता नहीं थी लेकिन प्रकाशक के मनमुताबिक करने को तैयार जरूर थे। वो काव्य संकलन स्वयं छापने के बारे में भी पच्चीसों बार सोच चुके थे, मगर एक पुराने कवि के घर पर स्वयं द्वारा प्रकाशित पुस्तकें देखकर मन-मसोसकर रह जाते थे। इन प्रकाशित पुस्तकों के कागज गल चुके थे। दीमक रोज लंच, डिनर करती थी और कवि-पत्नी कवि महाराज को रोज गरियाती थी क्योंकि इस महान काव्य पुस्तक के प्रकाशन में उनके गहनों का अमूल्य योगदान था जो आज तक वापस नहीं आये थे। इस महान भूतपूर्व कवि को उनके बच्चे भी नापसन्द करते थे क्योंकि कवि के दादाजी द्वारा प्रदत्त पुश्तैनी मकान कब का बिक चुका था और कवि महाराज अब मंच पर जोर आजमा रहे थे जहां से कुछ प्राप्त हो जाने पर घर-गृहस्थी की गाड़ी धक्के से खिंच जाती थी।
कुलदीपक ने अपनी काव्य-प्रेरणाओं से भी सम्पर्क साधने की असफल कोशिश की थी, अब अधिकांश प्रेरणाएं, शहर, छोड़ चुकी थी, सभी अपने बच्चों को कुलदीपक का परिचय मामा, चाचा, ताऊ के रूप में कराती थी और गृहस्थी के मकड़जाल में सब कुछ भूल चुकी थी।
कविताओं के सहारे जिन्दगी नही चलती। साहित्य से रोटी पाना बड़ी टेड़ी खीर थी। ये सब बातें कुलदीपकजी बापू की मृत्यु के बाद समझ गये थे। मां-बापू की पारिवारिक पेंशन और कुलदीपक जी की पत्रकारिता के सहारे घर को खींच रही थी यशोधरा का आना-जाना न बराबर हो गया था। कभी कदा दबी जबान से मां कुलदीपक की शादी की बात उठाती थी मगर सब कुछ मन के माफिक कब होता है। जब मन के माफिक नही तो समझो कि भगवान के मन के माफिक होता है और ये ही सोचकर मां चुप लगा जाती थी।
इधर शहर का विकास बड़ी तेजी से हो रहा था। शहर के विकास के साथ-साथ विनाश के स्वरूप भी दिखाई देने लग गये थे। बड़ी-बडी बिल्डिंगों में बड़े-बड़े लोग, शोपिंग मॉल और टावर्स और घूमने फिरने को डिस्को, होटल्स, रेस्ट्रा, चमचमाती गाड़ियां, चमचमाती सड़कें, चमचमाती हँसी, नगर वधुओं, कुलवधुओं के अन्तर को पहचानना मुश्किल। एक अमीर शानदार भारत, शेयर बाजार की ऊंचाईयां और झोपडपट्टियां, मगर इन सब में गायब मानवता कराहती गरीबी, मजबूर मजदूर।
पुलिस वाले अफसर के लड़के ने दो-चार दुर्घटनाओं से बचने के बाद समझ लिया कि पापा ज्यादा समय तक उसे नही बचा पायेंगे, उसने डिग्री हासिल की। एम.बी.ए., प्रशासनिक सेवाओं के फार्म भरे। परीक्षाएं दी, पापा ने जोर लगाया, मगर अच्छे कॉलेजों को अच्छे लड़कों की तलाश थी। उनमें उसका प्रवेश नहीं हुआ।
राजनीति के फटे में उसने टांग अड़ाई, पुराने खबीड़ नेताओं ने तुरन्त टांगे हाथ में दे दी। थक हारकर पापा के सहारे, पुलिस के रोबदाब की मदद से पुलिस अफसर के सुपुत्र ने एक निर्माण कम्पनी का कामकाज शुरू किया। पापा की कृपा और पापा की कमायी काली लक्ष्मी के सहारे उसने विवादास्पद जमीनों को सस्ते दामों पर खरीदने का काम शुरू किया और एकाध जमीन ऊंची होटल बनाने के लिए बेच दी। काम चल निकला। कारें बदल ली। और कारों की तरह ही लड़कियां भी बदल दी। मगर वह अध्यापिका जो प्रारम्भ में उसके साथ थी, अब भूखी शेरनी थी, उसे अपनी जिंदगी को नष्ट करने वाले इस लड़के के नाम और काम से नफरत होने लगी। उसने शहर में उसे एक बार में जा पकड़ा।
‘कौन हो तुम।'
‘तुम मुझे नहीं जानते।'
नही.......।
‘मैं तुम्हारी जान...........। तुमने मेरे साथ जीने मरने की कसमें खाई थी।'
ऐसी कसमों में क्या रखा है.....।' छोड़ों बोलो क्या चाहती हो।'
‘एक सुकून भरी जिन्दगी।'
‘तो ऐसा करो शहर में एक फ्लेट दिला देता हूं, शादी कर लो और मुझे बक्शों।'
‘ठीक है.....।'
लड़की ने उससे हमेशा के लिए नाता तोड़ा, फ्लेट और पति से नाता जोड़ा। आप ये मत पूछियेगा कि पति कहां से आया। कब आया। पति की कहानी क्या थी। ये सब ऐसे ही चलता है। समाज है तो ये सब भी है।
महाभारत का उदाहरण लीजिये। विचित्र वीर्य की मृत्यु के बाद वंश चलाने के लिए माता सत्यवती ने अपने पूर्व प्रेमी के द्वारा उत्पन्न जारज सुपुत्र कृष्ण द्वैपायन व्यास को बुलाकर अपनी बहुओं से नियोग द्वारा संयोग कराकर प्रसंग से पुत्र उत्पन्न किये और कौरवों-पाण्डवों का जन्म हुआ। यह प्रक्रिया अनादि काल से चली आ रही है, चलती रहती है और चलती रहेगी।
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कल्लू मोची जिस ठिये पर बैठता है, धीरे-धीरे इस जगह ने एक चौराहे, चौपाटी या चौपड़ का रूप-अख्तियार कर लिया था। चौराहा होने के कारण चर्चा के लिए यह स्थान सबसे मौजूं रहता था। सायंकाल यहां पर दिनभर के थके हारे मजदूर, ठेले वाले, रिक्शे वाले, कनमैलिये, मालिशिये, इकटठे हो जाते हैं। चौपड़ पर एक तरफ फूल वाली भी बैठती है और मालण भी। चाराहे के चारों ओर हर तरफ रेलमपेल मची रहती है।
कान साफ करने वाले कान साफ करते हैं, मालिश करने वाले दिन भर की थकान दूर करने क नाम पर मालिश करते हैं। आने-जाने वाले टाइम पास के लिए मूंगफली टूंगते रहते हैं। शाम के समय मौसम में गर्मी हो या सर्दी थोड़ी मस्ती छा जाती हे। कुछ पुराने लोग भांग का शौक फरमाते हैं तो नई पीढ़ी बीयर, थ्ौली से लेकर महंगी शराब के साथ चौपड़ पर विचरती है।
ऐसे ही खुशनुमा माहौल में चौराहा कभी कभी खुद ही समाज देश, व्यक्ति को पढ़ने की कोशिश करता है। उसे अपने आप पर हंसी आती है। क्योंकि पढ़ते-पढ़ते उसे अक्सर लगता है कि मैं चौराहा होकर भी मस्त हूं, मगर समाज कितना दुःखी, कमीना और कमजर्फ है। चौराहे पर राहगीर आते। बतियाते । सुस्ताते हैं। काम पर चल देते थे। मगर ये सब देखने, सुनने, समझने, पढ़ने की फुरसत उन्हें नही थी। चौराहा अपने आप में उदास रहता था। कभी खुश होकर खिलखिलाता था। कभी मंद-मंद मुस्कराता था। चौराह अपने आप में एक सम्पूर्ण इकाई था। कभी-कभी दहाई ओर दंगे में सैकड़ा भी हो जाता था।
चौराहे पर इस समय कुलदीपक, झपकलाल, कल्लू मोची और कुछ रिक्शा वाले खड़े थे। वे एक दूसरे के परिचित थे मगर फिर भी अपरिचित थे। परिचित इसलिए कि रोज एक ही ठीये पर खड़े होते थे और अपरिचिय का विध्यांचल टूटने का नाम ही नही लेता था। चौराहा अपनी रो में बहता जा रहा था। चौराहे पर सुख-दुःख की बातों का सिलसिला चला। इस गरज से कल्लू ने अपने कुत्ते को पुचकारा। जवाब में कुत्ता फड़फड़ाया और एक तरफ दौड पड़ा। उसे हड्डी का एक टुकड़ा दिख गया था। मांस का एक लौथड़ा भी दूर पड़ा था। तभी कुत्ते ने एक मुर्गे को देखा। मुर्गा घूरे पर दाना बीन रहा था और भारतीय बुद्धिजीवियों की तरह दाना खा के बांग देने की तैयारी कर रहा था वैसे भी पेट भरा होता है तो बांग देना अच्छा लगता है।
कुलदीपक ने झपकलाल की ओर देखा। झपकलाल ने आसमान की ओर देखा। दोनों ने कल्लू की ओर देखा। फिर तीनों ने मिलकर सडक को घूरा। सड़क बेचारी क्या करती। उसे हर कोई आता, रोदंता, मसलता और चला जाता। चौराहा ये सब रोज भुगतता था।
झपकलाल ने इस बार चुप्पी तोड़ने की गरज से पूछा।
‘अच्छा बताओ प्रदेश की सरकार रहेगी या जायेगी।'
‘रहे चाहे जाये अपने को क्या करना है।'
‘करना क्यों नहीं अपन इस देश के जागरूक नागरिक है जो सरकारों को बनाते-बिगाड़ते हैं।'
‘गठबन्धन सरकारों का क्या है। पांच-दस एम.एल.ए. इधर-उधर हुए, घोड़ा खरीद हुई और बेचारी सरकार राम-नाम सत्य हो जाती है।'
‘लेकिन सत्य बोलने से भी गत नही बनती है।'
‘ठीक है, लेकिन ये सरकार जायेे न जाये मुख्यमंत्री कभी भी जा सकते हैं।'
‘मुख्यमंत्री बेचारा है ही क्या। हर विधायक उसे ब्लेकमेल करता है। चारों तरफ अराजकता है। सरकार नाम की चीज है ही कहां।
‘हां देखो, मुख्यमंत्री की गाय तक को सरकारी डॉक्टर ने बीमार घोषित कर दिया।'
‘डॉक्टर की हिम्मत तो देखो।'
‘वो तो भला हो गाय का जो जल्दी स्वर्ग सिधार गई और सरकार बच गई।'
इसी बीच कल्लू का कुत्ता वापस आ गया था और पूंछ हिला रहा था। कल्लू अपने काम में व्यस्त होने का बहाना बना रहा था। अचानक बोल पड़ा।
‘बाबूजी मेरी तहसील वाली अर्जी पास हो गई है अब मुझे सूचना के अधिकार के तहत कागजात मिल जायेंगे।'
‘कागज को क्या शहद लगाकर चाटोगें ? या अचार डालोगे।'
बाबूजी अचार-वचार मैं नहीं जानता बस एक बार कागज हाथ लग जाये फिर मैं जमीन अपने नाम करा लूंगा।
‘तेरा बाप भी ऐसे ही अदालतों के चक्कर काटते-काटते मर गया........तू भी एक दिन ऐसे ही चला जायेगा।'
‘ऐसा नही है बाबूजी, भगवान के घर देर है, पर अन्धेर नही।' कल्लू बोला और चुपचाप शून्य में देखता रहा।
तभी उधर से एक धार्मिक जुलूस आता दिखा। माथे पर छोटे-छोटे कलश एक जैसी साड़ियों में दुल्हनों की तरह सजी-धजी महिलाएं, झण्डे, रथ ध्वजाएं.....पीछे बेन्ड वाले। नाचते-गाते लोग।
‘ये धर्म भी अजीब चीज है यार।' झपकलाल बोला।
‘कितनों की रोजी-रोटी चलती है इससे। पदयात्राओं के नाम पर, कावड़ यात्राओं के नाम पर, मन्दिरों के जीर्णाेद्धार के नाम पर सरकारी अनुदान पाने के ये ही रास्ते है।' कुलदीपक बोल पड़ा ओेर जुलूस में आगे आ रही महिलाओं का आंखों के माइक्रोस्कोप से सूक्ष्म निरीक्षण करने लगा। उसे अपनी पुरानी रोमांटिक कविताओं के दिन याद आ गये है, मगर उसका सपना-सपना ही रह गया। एक पुलिसवाले ने सबको धकिया कर एक तरफ किया। जुलूस आगे बढ़ गया। ये लोग ताकते रह गये।
कुलदीपक को सपनों की बड़ी याद आती है। चौराहे पर बिखरे सपने। सुन्दर और हसीन सपने। स्वस्थ प्रजातन्त्र के सपने। चिकनी साफ सड़कों के सपने। आकाशवाणी, दूरदर्शन के सपने। भ्रष्टाचार के सपने। शुद्ध हवा-पानी के सपने। अच्छे कार्यक्रमों के सपने। बड़े-बड़े सपने। अमीर बनने के सपने। साफ-सुथरे अस्पतालों के सपने, सरकारी स्कूलों के पब्लिक स्कूल बनने के सपने। हर मुंह को रोटी और हर हाथ को काम के सपने। सपने ही सपने। मगर सपने तो हमेशा से ही टूटने, अधूरे रह जाने के लिए ही देखे जाते हैं।
कुलदीपक, झपकलाल दोनों ही सपनों के अधूरेपन से ज्यादा खुद के अधूरेपन से परेशान, दुःखी, संतप्त थे। अवसाद में थे। अवसाद को अक्सर वे आचमन में डुबो देते थे। आज भी उन्होंने कल्लू से एक देशी थ्ौली मंगाई, गटकी और चौराहे को अपनी हालत पर छोड़कर घर की ओर चल पड़े। कुछ दूरी तक कल्लू और उसके कुत्ते ने भी साथ दिया।
हलवाई की दुकान आने पर कुत्ते ने डिनर करने के लिए उनका साथ छोड़ दिया। कल्लू अपनी गवाड़ी की ओर चल दिया। झपकलाल और कुलदीपक रात के अंधेरे को पीते रहे और तमसो मा ज्योर्तिगमय कहते रहे।
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ज्ौसा कि राजनीति के जानकार बताते हैं, राजनीति में महिलाओं की सफलता का रास्ता बेडरूम से होकर गुजरता है। कोर्पोरेट खेत्रों में भी बोर्डरूम का रास्ता बेड़रूम से ही निकलता है। माधुरी इस को समझती थी। उसके लिए सफलता का रास्ता ही सब कुछ था। वो एम.एल.ए. की कुर्सी पाने में दिलचस्पी नहीं रखती थी, उसे तो अपने चार कमरों के कॉलेज को विश्वविद्यालय बनाना था और चारे के रूप में उसने लक्ष्मी याने शुकलाइन रूपी मछली को फांस लिया था। मछली कभी-कभी फड़फड़ा तो सकती है मगर उड़ नहीं सकती। और बिना पानी मछली जीवित नहीं रह सकती। माधुरी के पास पानी था। जिसकी मछली को बड़ी आवश्यकता थी। मछली रूपी लक्ष्मी का उपयोग करना माधुरी को आता था।
लक्ष्मी शुक्लाइन को स्कूल में पढ़ाने का काम दिया गया। उसका मुख्य लक्ष्य प्रशासन की सहायता करना था। सरकार में अनुदान की जो फाइलें कागज अटक जाते थे उसे निकलवाने के लिए लक्ष्मी तथा काली लक्ष्मी का उपयोग किया जाने लगा। माधुरी के पिता बड़े व्यवसायी थे, घर पर अक्सर सेल्सटेक्स, इनकमटेक्स, वेट वाले, शोप इन्सपेक्टर आदि का जमावड़ा रहता था और माधुरी की मां और बाद में माधुरी इन लोगों से अपने काम निकलवा लेती थीं। माधुरी को जीवन का यह अनुभव यहां भी काम आने लगा। सड़ी-गली शिक्षा व्यवस्था में पढ़ने पढ़ाने का काम छोटे-मोटे अध्यापक-अध्यापिकाएं करती थी और माधुरी विश्वविद्यालय के सपनों को साकार करना चाहती थी।
व्ो पढ़ी लिखी कम थी, मगर दुनियादारी में गुणी बहुत ज्यादा थी। लेकिन वह कुपढ़ लोगों से परेशान रहती थी। स्कूल में भी कुछ कुपढ़ घुस आये थे, वो चाहकर भी उन्हें नही निकाल पा रही थी। ऐसे ही एक सज्जन थे अंगे्रजी के मास्टर श्रीवास्तवजी। श्रीवास्तवजी को अंग्रेजी की डिक्शनरी याद थी और अक्सर वे ऐसे वाक्य, शब्द आदि का प्रयोग करते थे कि माधुरी, लक्ष्मी और हेडमास्टर सब मिलकर भी उन शब्दों, वाक्यों का मतलब नहीं समझ पाते थे। माधुरी ने एक दिन स्कूल समय के बाद श्रीवास्तवजी को बुलाया।
‘श्रीवास्तवजी आजकल मैं यह क्या सुन रही हूं।'
‘क्या सुना-जरा मैं भी सुनंू।'
‘यही कि आप कक्षा में छात्रों को प्रेम कविताएं बहुत रस ले लेकर पढ़ा रहे है। छात्राएं बेचारी शर्म से गड़ जाती है।
‘ऐसी कोई बात नहीं है, मैडमजी।' सन्दर्भ विषय के आधार पर मैं अपना लेक्चर तैयार करता हूं।
‘नही, भाई ये छोटा कस्बा है। यहां पर ये सब नहीं चलेगा।'
‘लेकिन मैडम पढ़ाना मुझे आता है।'
‘लेकिन आप समझते नही है। माधुरी बोली।'
‘मैं सब समझ रहा हूं। शायद स्कूल को मेरी आवश्यकता नहीं है।'
‘नही.......नही, मास्टरजी ऐसी बात नहीं है, बस आप थोड़ा ध्यान दीजिये और कभी घर पर लालू को भी देख लीजियेगा......।'
‘तो ये कहिये न मैं हर रविवार को एक घन्टा दे दूंगा।'
मास्टरजी बाहर आये। ओर सोचने लगे इस वज्र मूर्ख लालू को अंग्रेजी पढ़ाने के बजाय तो कोई दूसरा स्कूल ढूंढना ठीक रहेगा। मगर मास्टरजी ने काम जारी रखा। बेचारे मास्टरजी जानते थे सरकारी स्कूलों की ओर भी बुरी हालत है।
तबादलों का चक्कर, टीकाकरण, पशुगणना, मतदाता सूचियां बनाना, सुधारना, चुनाव कराना, पंचायतों में हाजरी बजाना जैसे सैकड़ो काम करने के बाद मिड डे मील पकाना, खिलाना, उसका हिसाब रखना, सस्पेंड होना, जैसे सैकड़ों जलालत भरे काम के बजाय एक सेठानी के बुद्धु बच्चे कोे, पढ़ाना ठीक था। वे इसे इज्जत की मौत कहते थे जो जलालत की जिन्दगी से अच्छी थी। मास्टर श्रीवास्तवजी स्कूल के अन्य कामों में कोई दिलचस्पी नहीं लेते थे। पढ़ाया और चल दिये। जो मिला उस पर सब की तरह अंगूठा लगाते और स्वयं पढ़ने में लगे रहते। धीरे-धीरे कस्बे में उनका एक व्यक्तित्व विकसित होने लगा था। जिसे वे बचा-बचा कर खर्च करते थे।
लक्ष्मी और माधुरी धीरे-धीरे सहेलियां हो गयी। सहेलियां जो एक दूसरे की राजदार हो जाती है। एक दूसरे के काम आती है। गोपनीयता बनाये रखती है और एक दूसरे कोे समझती है।
माधुरी के सेठजी व्यस्त थे, उन्होेने उसे दो बच्चे दे दिये थे। बस। माधुरी को स्कूल खुलवा दिया था। उनके शब्दों में स्कूल एक ठीया था जहां पर माधुरी अपना शगल पूरा करती थी। सेठजी ने स्कूल में पैसा डाला था। जमीन उनकी थी। माधुरी जब चाहती स्टाफ से काम करवा लेती।
लक्ष्मी ये सब जानती थीं। समझती थीं। शुक्लाजी की नौकरी को भी अच्छी तरह समझ रही थी। उसके अपने स्वार्थ थे, और माधुरी के अपने, लक्ष्मी सोचती यदि हेडमास्टर को चलता किया जा सके तो शुक्ला को हेडमास्टर बनवाया जा सकता है। माधुरी सोचती थी लक्ष्मी की मदद से राजनीति की सीढ़िया चढ़ी जा सकती हैं। ऐसी ही मानसिकता के चलते वे दोनो घर के लॉन में टहल रही थी कि माधुरी बोली।
‘एक वर्ष में चुनाव होने वाले है।' ‘मैं भी खड़ी होना चाहती हूं।'
‘पर तुम्हें टिकट कौन देगा।'
‘टिकट कोई देता नही खरीदना पड़ता है। आजकल पार्टियों को पैसा दो, टिकट लो। अपने पैसे से चुनाव लड़ों, जीत जाओ तो ठीक है वरना पैसा डूबा।'
‘लेकिन तुम क्यों अपना पैसा डुबोना चाहती हो।'
‘डुबोना कौन चाहता है और डूबेगा भी नहीं। यह तो निवेश है, निवेश का फल मीठा होता है।'
‘निवेश कैसे।'
‘वो ऐसे समझो कि मैं अगर पैसा लगाने के बाद भी हार गई तो भी मेरी राजनीति में एक पहचान बन जायेगी, एम.एल.ए. अफसर मुझे जानने लग जायेंगे और इस जान पहचान से जो भी शिक्षामंत्री बनेगा उससे निजि विश्वविद्यालय की मांग कर दूंगी।'
‘लेकिन क्या ये इतना आसान हैं ?'
‘आसान तो कुछ भी नहीं है। कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है और अपने पास पैसा ही है जिसे खोकर कुछ पाया जा सकता है।'
‘एक ओर चीज है जिसे खोया जा सकता है।'
‘वो भी चलती है।' सच बात तो ये हैं लक्ष्मी की महत्वाकांक्षी औरत को एक अतिमहत्वाकांक्षी पुरुषरूपी घोड़े पर चढ़कर वल्गाएं अपने हाथ में ले लेनी चाहिये, जब भी चाबुक मारो, पुरुष की महत्वाकांक्षाएं दौडेगी और ऐड़ लगाने पर और भी ज्यादा तेज दोड़ेगी।'
‘लेकिन ऐसा महत्वकांक्षी घोड़ा है कहां ?
‘राजनीति में घोड़े, गधे-खच्चर, हाथी बैल सब मिलते हैं। बस पाररवी नजरें होनी चाहिये।'
‘तो तुम्हारे पास ऐसी पाररवी नजरें है।'
नजरें भी है और घोड़ा भी ढूंढ रखा है, मगर वल्गाएं मेरे हाथ में आ जाये बस।
‘कौन है वो घोड़ा ?'
‘अभी जानकर क्या करोगी।'
‘तुम तो मेरा साथ देती जाओ।'
मुझे क्या मिलेगा ?
तुम्हें क्या चाहिये। पति-पत्नी दोनों कमा रहे हो। एक बच्चा है और मध्यवर्गीय मानसिकता वाले को क्या चाहिये ?
‘तो क्या मेरा शोषण मुफ्त में होगा।'
‘शोषण शब्द का नाम न लो। हर युग में नारी शोषित, वंचित रही है।'
‘मगर ये तो नारी सशक्तिकरण का जमाना है।'
‘वूमन लिब तक फेल हो गया। '
‘अब तो इस हाथ दो, उस हाथ लो। और सशक्त हो जाओ।'
इस पूरे खेल में जीवन का रस कहां है?
‘रस ढूंढती रह जाओगी तो सफलता हाथ से निकल जायेगी और सफलता ही सब कुछ होती है। मेरी राजनीतिक शतरंज पर तुम्हें भी मौका मिलेगा।'
‘लेकिन.....।'
‘लेकिन-वेकिन कुछ नहीं। तुम्हारे शुक्लाजी को भी तो प्रिन्सिपल बनना है। बेचारा सुन्दर, पढ़ा-लिखा, स्मार्ट और सक्रिय है।'
लक्ष्मी ये सुन कर ही कृतार्थ हो गई। उसे अच्छा लगा कि माधुरी बिना कहे ही उसकी बात समझ गयी। माधुरी ने उसकी कमर में हाथ डालकर उसे अपने स्नेह से सराबोर कर दिया।
तभी बंगले पर एक गाड़ी आई। एक नेताजी उतरे। माधुरी ने उनकी अगवानी की। नेताजी ने लक्ष्मी को ध्यान से देखा ऊपर से नीचे तक निरीक्षण किया। मन ही मन खुश हुए और प्रकट में बोले।
‘माधुरी ये कौन है ?'
‘अरे ये हमारे स्कूल में नई आई है, बेचारी मिलने चली आई।
अच्छा.........अच्छा......।' नेताजी माधुरी के साथ अन्दर गये। माधुरी ने लक्ष्मी को भी बुला लिया। सेठजी बाहर गये हुए थे। माधुरी और लक्ष्मी ने मिलकर कुछ जरूरी फाइलों की चर्चा नेताजी से की। नेताजी ने फाइलें निकलवाने का वादा किया, थकान मिटाई और चले गये।
माधुरी ने लक्ष्मी को भी इस वादे के साथ बिदा किया कि शीध्र ही हेडमास्टर को चलता कर शुक्लाजी को प्रिन्सिपल बनाने का प्रस्ताव मैनेजमेंट में ले जायेगी।
लक्ष्मी जब घर पहुंची तो शुक्लाजी घर पर ही बच्चें को क्रेश से ले आये थे और उसके साथ खेल रहे थे। शुक्लाजी की नजरें बचाकर लक्ष्मी बाथरूम में घुस गई। तरो ताजा होकर आई तो शुक्लाजी चाय लेकर तैयार खडे़ थे।
शुक्लाईन को खुश देखकर शुक्लाजी भी खुश हुए। मुन्ना मन्द-मन्द मुस्करा रहा था। दोनों पति-पत्नी देर रात तक बच्चे के साथ खेलते रहे। न शुक्लाजी ने कुछ पूछा न शुक्लाइन ने कुछ बताया।
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)
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