‘निराला’ अपने आपमें एक समाज; अपने आपमें सम्पूर्णता; अपने आपमें कविता या कहें कि अपने आपमें ही सम्पूर्ण साहित्य संसार थे। ‘निराला’ मात्र नाम ...
‘निराला’ अपने आपमें एक समाज; अपने आपमें सम्पूर्णता; अपने आपमें कविता या कहें कि अपने आपमें ही सम्पूर्ण साहित्य संसार थे। ‘निराला’ मात्र नाम के ही निराला नहीं थे वरन् उनकी षैली, उनकी अभिव्यक्ति, उनका लेखन सभी कुछ तो निराला कहा जा सकता है। हिन्दी काव्य को नया आयाम देने वाले महाकवि महाप्राण निराला हिन्दी के प्रथम कवि कहे जा सकते हैं जिन्होंने आधुनिक कविता को जन्म दिया। नयी अभिव्यक्ति, नवीन शैली के साथ प्रस्तुत ‘जूही की कली’, ‘कुकुरमुत्ता’, ‘राम की शक्ति पूजा’ आधुनिक कविता का सशक्त उदाहरण कही जा सकतीं हैं। निराला काव्य-कला को सौन्दर्य की पूर्ण सीमा मानते थे। उनका विचार था कि एक फूल के पूर्ण यौवन दर्शन हेतु जड़, तना, पल्लव, सुगन्धि आदि-आदि अपेक्षित हैं वैसे ही काव्य-कला के लिए शब्द, रस, ध्वनि, अलंकार, छन्द आदि का सामंजस्य आवश्यक है।
काव्य को प्राणत्व की, मानव मात्र की मुक्ति चेतना के रूप में स्वीकारने वाले निराला की काव्य-यात्रा सन् 1920 में ‘प्रभा’ मासिक में प्रकाशित ‘जन्मभूमि’ नामक पहली कविता से प्रारम्भ हुई। इसके बाद मृत्यु पर्यन्त न तो उनकी लेखनी रुकी, न थकी और न ही सहमी। कविता की पुष्टि और परिपक्व अनुगूँज हिन्दी काव्य जगत् में परिभ्रमण करती रही साथ ही निराला की साहसिक लेखनी निरन्तर साहित्य के प्रत्येक बिन्दुओं का स्पर्श करती रही। मुक्त रहने की भावना से ओत-प्रोत निराला ने स्वयं को मात्र कविता के सांचे में नहीं बाँधे रखा वरन् गद्य के भी प्रत्येक पहलू को अपने आसपास पाया। निबन्ध, आलोचना, कहानी, उपन्यास, पत्रकारिता, पत्र-साहित्य आदि को भी निराला ने निराली अभिव्यक्ति प्रदान की।
अप्सरा (1931), अलका (1933), प्रभावती (1936), निरुपमा (1936), कुल्लीभाट (1939), चमेली, इन्दुलेखा, लिली, काले कारनामे, सखी आदि के माध्यम से निराला ने गद्य में भी अपनी गहराई को दर्शाया है। उनके उपन्यासों और कहानियों में निराला धरती से जुड़े मूल यथार्थ को सामने लाते रहे हैं। मानव मूल्य चेतना को हमेशा दृष्टिगत रखने वाले निराला की पारखी नजर से सामाजिक यथार्थ कदापि अछूता नहीं रह सकता था। निराला जी ने समाज की लघुतम इकाई को देखकर पूरी महत्ता के साथ उसे समाज के सामने प्रस्तुत किया है।
‘अप्सरा’ में मूलतः वेश्या समस्या को निराला ने उठाया है। निराला की सोच कि आदमी आदमी है और शास्त्रानुसार सभी एक परमात्मा की सन्तान हैं; के कारण वे वेश्या पुत्री कनक का विवाह राजकुमार जैसे कुलीन व्यक्ति से करवाते हैं। इसी प्रकार ‘अलका’ में भी निराला ने जीवन की यथार्थता को गुम नहीं होने दिया है। नारी की दिव्यता और उज्ज्वलता का चित्रण मनोयोग से करते हुए निराला जी का प्रगतिशील दृष्टिकोण अधिक मुखरित हुआ है।
सामाजिक नीतियों, व्यवस्थाओं को सामने रखकर निराला ने जहाँ सामाजिक समस्याओं पर कुठाराघात किया है वहीं इन पर व्यंग्य भी किया है। जमींदारों का अत्याचार, ग्रामीण जीवन की संकीर्णता, सामाजिक रूढ़ियों आदि को ‘निरुपमा’ में दर्शाया गया है। सशक्त चित्रण में सिद्धहस्त रहे निराला ने अपने कथा साहित्य के द्वारा समस्याओं को सामने लाकर सामाजिक यथार्थ को ही प्रस्तुत किया है। जैसा कि निराला ने स्वयं ही स्वीकारा है कि ‘सत्य की कसैली अनुभूति को उजागर करने की अपेक्षा उन्होंने विधिवत् हास्य का सहारा लेकर ब्राह्मणों की अपने ‘पुरख्यातम् परम्परा’ का बड़ा सही जन्मांक प्रस्तुत किया है। ‘चतुरी चमार’ और ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ में भी निराला का यथार्थवादी दृष्टिकोण साने आया है। ‘चतुरी चमार’ को जूते गाँठने का काम देकर भी निराला ने उसके साहित्य सत्संग को किन्हीं चतुर्वेदियों से ऊपर माना है, उसको कबीर पदावली का विशेषज्ञ बताया है।
समाज की इस जातिगत, क्षेत्रगत तथा व्यक्तियों को हीन मानने वाली व्यवस्था के विरुद्ध खुलकर लिखने का कार्य निराला जैसा लेखक ही कर सकता था। ‘चोरी की पकड़’ में वे जटाशंकर ब्राह्मण की कलई एक कहारिन द्वारा यह कहलवा कर खोलते हैं कि ‘होंठ से होंठ चाटते तुम्हारी जात नहीं गयी।’ जमीदारों, ब्राह्मणों, अफसरों के शोषण को दर्शाते निराला कहीं-कहीं स्वयं अपने जीवन का अभाव, अपने जीवन की बिडम्बना का उद्घाटन करते नजर आये हैं। सामाजिक अन्याय का विरोध, आर्थिक उत्पीड़न और सामाजिक भेदभाव का विरोध भी निराला मुखर होकर करते नजर आये हैं।
वस्तुतः निराला का कथा साहित्य उनकी दोहरी चेतना का प्रतिनिधित्व करता है। कवि स्वभाव के कारण वे मुक्तता के अभिलाषी रहे, सौन्दर्य, प्रेम और भावुकता की बात करते दिखे वहीं सामाजिक जीवन की रूढ़िग्रस्त नैतिकता के विरोधी भी रहे। इसके अतिरिक्त दूसरी ओर संघर्षशील और यथार्थवादी प्रवृत्तियों को वे महत्व देते हैं और रोमांसप्रियता से सामाजिक यथार्थ की ओर प्रवृत्त होते हैं। कहा जाये तो निराला के उपन्यासों की प्रगतिशीलता की ओर आलोचकों की निगाह अभी विवेचनात्मक रूप में नहीं गई है। निराला जी की समालोचनात्मक दृश्टि सामाजिक यथार्थ को उघाड़ देने की प्रवृत्ति से निर्वेक्तिक शैली में उनकी कला को उच्चतम स्तर तक पहुँचाया है। उनके गद्य साहित्य में चाहे वह उपन्यास हो, कहानी हो या निबन्ध हो सभी में सुरुचि, दृष्टि की विराटता, यथार्थ की परख, ग्रमीण परिवेष को सजीव बनाने की क्षमता, निर्भीकता आदि तत्वों का समावेश मिलता है। इतने पर भी लगता है कि इन सब पर उनका कवि रूप ज्यादा भारी पड़ा है और जनमानस उसी से अभिभूत होता रहा है। काव्यत्व के साथ यदि निराला का गद्यकार स्वरूप-कथाकार, आलोचक-भी पाठकों ने समझा होता तो शायद निराला मात्र कवि रूप में अग्रगण्य न होते; उनका गद्यकार स्वरूप भी लोगों को अभिभूत करता रहता।
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पत्राचार का पता- डाॅ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
110 रामनगर, सम्पादक - स्पंदन (साहित्यिक पत्रिका)
सत्कार के पास, उरई (जालौन) प्रवक्ता हिन्दी विभाग,
गांधी महाविद्यालय, उरई (जालौन) उ0प्र0 285001
ई-मेल-dr.kumarendra@gmail.com
दिनांक-31.01.2009
बसंत पंचमी
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अच्छा आलेख है। इसे प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद।
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