संस्मरण ग़ालिब छुटी शराब रवींद्र कालिया (पिछले अंक से जारी…) श्मशान से दो ही रास्ते फूटते हैं, एक अध्यात्म की ओर हरिद्वार ...
संस्मरण
ग़ालिब छुटी शराब
रवींद्र कालिया
श्मशान से दो ही रास्ते फूटते हैं, एक अध्यात्म की ओर हरिद्वार जाता है और दूसरा मयखाने की तरफ़। मैं दूसरे रास्ते का ही पथिक रहा हूँ। हरिद्वार एक ही बार गया था अपनी मां और बड़े भाई के साथ, गंगाजी में पिताजी की अस्थियाँ विसर्जित करने। वैसे श्मशान से अक्सर मयखाने में ही लौटा हूँ। ममता की मां का निधन हुआ तो मैं घाट से सीधा मयखाने ही पहुँचा था। 1991 में ममता की मा का निधन हुआ था। मैं और ममता उस समय ग़ाज़ियाबाद में ही थे। वह कई दिनों से ग़ाज़ियाबाद के नरेन्द्र मोहन अस्पताल के आइसीयू में अचेत पड़ी थीं। अक्सर गम्भीर रूप से अस्वस्थ हो जाया करती थीं, मगर उस बरस खाट पर लगीं तो दुबारा नहीं उठ पायीं। वह साल में दो चार महीने नर्सिंग होम में ही बिताती थीं। ऐसा कई बार हुआ कि ममता या मैं ग़ाज़ियाबाद गये तो घर पर ताला मिला। बाद में हम पहले नर्सिंगहोम में झाँक आते, घर बाद में जाते।
ममता के माता-पिता शुरू से ही स्वतंत्र प्रकृति के थे। वे न किसी पर कभी आश्रित रहे और न ही उन्होंने कभी किसी को आश्रय दिया था। मियाँ-बीवी अपने में मस्त रहते। गुड्डे गुड़िया की तरह हमेशा साथ रहते। कभी तीसरे के मुखपेक्षी न रहे। उनका मेल-मिलाप का दायरा भी बहुत सीमित था। ममता के पिता ने अवकाश ग्रहण किया तो अकेले हो गये। जी हुज़ूरियों की भीड़ छँट गयी। वे लोग जी में आता तो सिनेमा देखने दिल्ली चले जाते, नाटक देखते, कला प्रदर्शनियाँ देखते, पुरानी दिल्ली की याद सताती तो परांठे वाली गली में नाश्ता कर आते। पुरानी दिल्ली के ज़माने के उनके कुछ दोस्त थे, आखिरी दिनों में उन्हीं से सम्पर्क रह गया था। सरकार ने निःशुल्क चिकित्सा की सुविधा दे रखी थी, जिसका उन्होंने भरपूर लाभ उठाया। बीमार पड़ते तो नर्सिंगहोम में बेहिचक भर्ती हो जाते।
उस बार मम्मी बहुत दिनों के लिए बीमार पड़ गयीं। खबर मिलते ही हम दोनों गाजियाबाद पहुँचे थे। मम्मी अस्पताल में बेसुध पड़ी थीं। वह आक्सीजन पर थीं। ऐसी स्थिति में पहले भी कई बार आ चुकी थीं, कुछ दिनों बाद आश्चर्यजनक रूप से स्वस्थ हो जातीं और रसोई में चाय बनाती नज़र आतीं या पापा के लिए शेव का पानी गर्म कर रही होतीं। ममता के पिता की कचौड़ी खाने की इच्छा होती तो कचौड़ी बनातीं, लड्डू खाना चाहते तो लड्डू बनातीं। पापा की फरमाइश भर करने की देर होती, वह काम में जुट जातीं। मैंने उन्हें हमेशा चींटी कर तरह व्यस्त ही देखा था। मगर इस बार उन्होंने आँख खोल कर भी न देखा। उनकी चिरनिद्रा में विलीन होने की यात्रा शुरू हो चुकी थी और एक दिन डाक्टरों ने उनके कमरे से निकल कर घोषणा कर दी कि वह नहीं रहीं।
हम लोग अभी इस सदमे से उबरे भी न थे कि डाक्टरों ने कमरा खाली करने के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया। मरीज़ में जब तक प्राण शेष था, डाक्टरों की उसमें दिलचस्पी थी, अब वह उन के लिए एक अतिरिक्त बोझ था। किसी मालिक मकान को घर खाली कराने की उतनी जल्दी न होती होगी, जितनी अस्पताल को मरीज़ की मौत के बाद बेड खाली कराने की होती है। कभी डाक्टर, कभी नर्स, कभी वार्डब्वाय बार-बार कमरा खाली करने की हिदायत जारी कर जाते। कमरे के लिए अगले मरीज़ के रिश्तेदार दौड़ धूप कर रहे थे, सिफारिशें ला रहे थे।
उस समय अस्पताल में कोई एम्बुलेंस भी उपलब्ध नहीं थी। मृतक के शरीर को कंधे पर लाद कर तो घर तक ले जाया नहीं जा सकता। पापा ने मुझे टैम्पो की व्यवस्था करने के लिए कहा। बहुत चिरौरी और हील हुज्जत करने पर अनाप शनाप भाड़े पर एक टैम्पो तैयार हुआ। वार्ड ब्वाय की सहायता से मैंने मम्मी के पार्थिव शरीर को किसी तरह स्ट्रेचर पर डाला और नीचे लाया। कोई कंधा देने को तैयार नहीं था। पापा भी एक निर्देशक की तरह बगल में बैग दबाये अनुदेश जारी कर रहे थे। मम्मी को टैम्पो में चढ़ाने में काफी दिक्कत आई। किसी के पास फुर्सत नहीं थी। किसी की इस काम में दिलचस्पी भी न थी। यह सेवा भी एक दूसरे वार्ड ब्वाय से खरीदनी पड़ी। मैंने जीवन में पहली बार किसी निष्प्राण शरीर का स्पर्श किया था। मम्मी को टैम्पो में लिटा दिया और मैं उन्हें थाम कर बगल में बैठ गया। पापा उन्हें छूने से भी परहेज़ कर रहे थे। उन्होंने बताया कि उनका छूना वर्जित है। क्यों वर्जित है, मैं जानना चाहता था, मगर चुप रहा। वह तृतीय पुरुष की तरह जैसे छूत से बचते हुए टैम्पो में अलग-थलग और उदास बैठे थे। टैम्पो ने गति पकड़ी तो हवा से मम्मी की टाँगें उघड़ गयीं। पापा ने उन्हें ढकने की हिदायत दी। मैंने मम्मी के पाँव के पास साड़ी का पल्लू दाब लिया ताकि साड़ी से उनकी टाँगें ढंकीं रहें।
घर पहुँचते ही पड़ोस की दो एक बुज़ुर्ग स्त्रियों और से0रा0यात्री ने मोर्चा सम्भाल लिया। यात्री के साथ ‘वर्तमान साहित्य' से सम्बद्ध तमाम लोग चले आये थे। सब साथियों ने अरथी वगैरह का प्रबन्ध किया और मम्मी के पार्थिव शरीर को अरथी पर रख कर बांधने लगे। मम्मी बहुत शालीन और भोली भाली महिला थीं। हर वक्त गुड़िया की तरह सजी रहतीं। मैंने उन्हें हमेशा अच्छे-अच्छे कपड़े पहने ही देखा था, जबकि उनकी उम्र में ज्यादातर स्त्रियाँ पेटीकोट ब्लाउज़ पर ही उतर आती हैं। उनके पार्थिव शरीर से भी जैसे शुआएँ फूट रही थीं। उनके पार्थिव शरीर का एक सुहागिन की तरह श्रृंगार किया गया और वह मृत्यु शैया पर दुल्हन की तरह लेटी हुई थीं। मेरी तरह यात्री ने भी जीवन में पहली बार किसी शव का स्पर्श किया था। उसकी आँखें भी नम हो रही थीं। यह याद करते हुए वह भी रो पड़ा था कि मम्मी कैसे उसकी खातिरदारी किया करती थीं। कभी खाली पेट नहीं जाने देती थीं, रास्ते में कुत्तों को खिलाने के लिए भी रोटियाँ सेंक देतीं।
मम्मी के अन्तिम संस्कार के बाद हम लोगों ने हिन्डेन नदी में हाथ मुँह धोया और चुपचाप अपनी मंजिल की तरफ़ चल दिये। जैसे मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक होती है, हमारी दौड़ मयखाने तक थी। बगैर आपस में बात किये हम लोग बगैर किसी सलाह मश्वरे के वहीं पहुँचे। पीने के बाद शरीर की थकान कुछ कम हुई और दिमाग की नसें ढीली। देर रात को मैं एक चोर की तरह चुपके से घर में घुसा। सब लोग सो चुके थे। घर में मौत का सन्नाटा था। ममता शायद जाग रही थी, मगर उसने पूछा नहीं कि इतनी देर में कहाँ से आ रहा हूँ। उसके पिता भी नहीं सोये होंगे, मगर बत्तियाँ गुल थीं। उन्होंने भी कुछ नहीं पूछा।
सुबह देर से नींद खुली, झाड़न की आवाज़ से। ममता के पिता हस्बेमामूल सुबह उठकर पुस्तकों पर से धूल झाड़ रहे थे। मैं खटिया पर उठकर बैठ गया। एक दिन में पूरे घर का नक्शा बदल गया था। पूरा घर अजनबी और वीरान हो उठा था, जैसे रात भर में सब कुछ उजड़ गया हो। घर का फर्नीचर तक उदास था, दीवारें सूनी थीं, पंखे जैसे सूली पर लटक रहे थे। भांय-भांय कर रहा था पूरा माहौल। जैसे छुट्टी के बाद बच्चों के स्कूल ज़रूरत से कहीं ज़्यादा वीरान लगते हैं। उस माहौल में झाड़न की आवाज़ भुतहा किस्म की लग रही थी।
इस उजड़े दयार में कोई भी बीमार पड़ जाता। कुछ दिनों बाद ममता के पिता इस ग़मगीन माहौल में तन्हा रह गये। किताबों के निर्जीव ढेर थे और वह थे। दीवारों पर जगह-जगह लटक रहे गीता के संदेश के कैलेण्डर उनके लिए जैसे अर्थहीन हो गये थे। साहित्य, संस्कृति, कला, धर्म, अध्यात्म, दर्शन और इतिहास की पुस्तकों का उनके पास अनमोल खजाना था। ऐसा अद्भुत संग्रह कम ही लोगों के पास होगा। यही उनकी जीवन भर की कमाई थी। मम्मी के जाने के बाद किताबों पर धूल की परतें जमने लगीं।
सन् 1992 की एक सर्द रात थी। मैं सुबह ही दिल्ली से लौटा था। गाजियाबाद के एक नर्सिंग होम में ममता के पिता भर्ती थे। मम्मी की मौत के बाद वह एकदम अकेले पड़ गये थे। बुढ़ापे में विधुर होना कितना दर्दनाक होता है यह उन्हें देखकर ही समझा जा सकता था। उनके सीने में दर्द उठा था और मालिक मकान ने उन्हें नर्सिंगहोम में भर्ती कराके दोनों बेटियों को फोन पर सूचना दे दी थी। पड़ोसियों ने बताया था कि आधी रात को जब वह अकेलेपन से घबरा जाते तो बच्चों की तरह दहाड़ मार कर रोया करते थे। सूचना मिलते ही ममता पहली उपलब्ध गाड़ी से गाज़ियाबाद के लिए रवाना हो गयी थी। उनकी तबीयत कुछ संभली और दीदी भैया कलकत्ता से आ गये तो पापा को उनके सुपुर्द कर ममता इलाहाबाद लौट आई। दोनों बहनें कामकाजी महिलाएँ थीं और बारी-बारी से छुट्टी ले सकती थीं। रस्म अदायगी के लिए मेरा जाना भी ज़रूरी था। रस्म अदायगी इसलिए कि मैं मरीज़ की तीमारदारी करने में सक्षम ही नहीं हूँ। मरीज़ के सीने में दर्द हो तो मेरे सीने में उससे ज़्यादा शूल उठने लगता है। मैं मरीज़ के रोग से अद्भुत तादात्म्य स्थापित कर सकता हूँ। बचपन में घर में कोई बीमार पड़ जाता था तो मैं अपनी खटिया घर से बाहर आंगन डाल लेता था। दूसरे की कराह मुझ से बर्दाश्त न होती थी। संयोग से जब मैं गाज़ियाबाद पहुँचा, पापा चैतन्य थे। वह पीठ पर तकिया लगा कर कुछ पढ़ रहे थे। पढ़ने और पुस्तकें जुटाने का उन्हें व्यसन था। दैनिक समाचार पत्र तक वह सहेज कर रखते थे। उनके ट्रांसफर के साथ उनकी रद्दी भी ट्रांसफर होती रहती थी। हम लोग भी पुरानी पत्रिकाएँ उन के घर में ‘डम्प' कर आते। मैंने देखा, शक्ल सूरत से वह बहुत कमज़ोर नज़र आ रहे थे। शरीर पर पहने कपड़े मैले हो चुके थे। मम्मी होतीं तो अब तक कई बार कपड़े बदल चुकी होतीं। बीमारी के बावजूद उनके चेहरे पर अफसरी भंगिमा बरकरार थी। वह यद्यपि नौकरी से अवकाश ग्रहण कर चुके थे मगर आगन्तुक को अब भी मातहत की नज़र से देखते थे, आगन्तुक चाहे उनका दामाद ही क्यों न हो। उनके इस रवैये से अस्पताल के डाक्टर और नर्सें भी त्रस्त रहती होंगी। मातहती मुझे भी रास न आती थी, मैं सविनय अवज्ञा करते हुए सामने पड़ते ही सिगरेट सुलगा लेता। मुझे देखते ही उन्होंने पत्रिका बन्द की, चश्मा उतारा और बहुत कमज़ोर स्वर में मेरा स्वागत किया। मैं मिज़ाजपुर्सी के दो शब्द कहता इससे पहले ही उन्होंने ममता पर लिखे मेरे संस्मरण पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करनी शुरू कर दी।
‘ममता पर तुम्हारा संस्मरण पढ़ा। तुमने उसे कुछ ज़्यादा ही सिर चढ़ा रखा है। ताज्जुब हुआ, तुम्हें उसकी कोई भी कमज़ोरी नज़र नहीं आती, उसकी कोई भी बात नापसंद नहीं है तुम्हें? तुमने कहीं नहीं लिखा उसकी भाषा घाव कर सकती है, वह नासमझ है, नादान है, ज़िद्दी है। यही तुम्हारे संस्मरण की कमज़ोरी है। किसी को कभी ऐसे आसन पर मत बैठाओ कि बाद में अपदस्थ करना पड़े। आई एक्सपेक्टेड यू टु बी मोर आब्ज़ेक्विट।'
यह पापा का बिटिया से मुहब्बत करने का तरीका था। मैं उनके स्वभाव से परिचित था। वह उलटबांसियों में ज़्यादा विश्वास रखते थे। कांता उन्हें प्रिय थी तो शांता कहकर पुकारते थे ताकि कांता कोई भ्रम न पाल ले। मुझे अक्सर रवीन्द्र की जगह नरेन्द्र कह जाते थे। नरेन्द्र उनके बड़े दामाद का नाम था। भैया को अवश्य रवीन्द्र के नाम से पुकारते होंगे। इस वक्त वह मेरे और ममता के सम्बंधों की गहराई नाप रहे थे, मुझे इसका आभास था। लेटे-लेटे ही उन्होंने मुझे मेरा संस्मरण दिखाया जो उसी सप्ताह छप कर आया था। उन्होंने जगह-जगह नीली लाल रोशनाई से पृष्ठ रंगे थे। एक अध्यापक की तरह उन्होंने मेरा लेख जांचा था।
इस की एक वजह यह भी रही होगी कि उस परिवार में लेखकों की विश्वसनीयता खतरे के निशान को छू रही थी। उसके कई कारण रहें होंगे। एक कारण तो यही रहा होगा वे लोग एक समय में राजेन्द्र यादव के पड़ोस में रहते थे। ममता के चाचा भारतभूषण अग्रवाल हिन्दी के प्रतिष्ठित कवि थे, मगर वह खुद लेखकों के बारे में कोई बहुत अच्छी राय न रखते थे। ममता और मेरे रिश्तों को भी वह बहुत संशय की दृष्टि से देखते थे। उन्हें लगता था नये कथाकारों की भांति मैं भी शादी के नाम पर रास रचाऊँगा। उन्होंने बहुत अनिच्छा से इस रिश्ते के लिए हामी भरी थी। मुझ से उनके सम्बन्ध प्रकट रूप से अन्त तक दोस्ताना ही रहे। उनकी उपस्थिति में धूम्रपान या मद्यपान करने में मैंने कभी संकोच न किया था। एक बात मुझे बहुत अच्छी लगती थी, उन्होंने कभी ससुर की तरह व्यवहार नहीं किया। मेरा हाथ खाली देखते तो सिगरेट भी पेश कर देते। अशोक वाजपेयी की और मेरी शादी आगे पीछे ही हुई थी। मेरी तरह अशोक भी टी हाउस अथवा कॉफ़ी हाउस में कम ही दिखायी देते। एक दिन नामवरजी से भनक लगी कि आजकल अशोक रश्मि के साथ टहल रहे थे।
देर रात तक मुझे पीना जितना प्रिय था, उससे कम प्रिय नहीं था पीने के बाद सोना। पीने के बाद ग़ज़ब की नींद आती थी। गहरी। निर्विध्न। अविच्छिन्न। नींद के लिए रात भर करवटें बदलने की नौबत कभी नहीं आई। यह तो नहीं कहूँगा कि करवटें बदलने की नौबत ही नहीं आयी। करवटें बदली हैं, मगर अन्य कारणों से। हर व्यक्ति की उम्र में ऐसे मराहिल आते हैं, जब करवटें बदलने से ही नहीं, अंगड़ाई तक लेने से रोमांच हो जाया करता है। शराब पीने के बाद मैं ऐसा घोड़े बेचकर सोता कि दुनिया जहान के ग़म उसी में ग़र्क़ हो जाते। उस नींद को भावातीत दिव्य नींद की ही संज्ञा दी जा सकती है। घर में नींद का ऐसा लोकतंत्र विकसित हो गया था कि कोई किसी की नींद के साथ छेड़छाड़ न करता। बचपन से ही बच्चों को ऐसी आदत पड़ चुकी थी कि जब तक उन्हें इत्मीनान न हो जाए कि मां बाप सो चुके हो, सोने का नाम नहीं लेते थे। अक्सर देखा गया है कि मां-बाप बच्चों को सुलाकर सोते हैं, हमारे यहाँ यह क्रम उल्टा था। हमारे बच्चे मां-बाप को सुलाने के बाद सोते थे। कई बार तो सोने का नाटक करना पड़ता, ताकि बच्चे वक्त पर सो जाएँ। रात को मां-बाप जगे रहें तो बच्चों में अजब सी असुरक्षा की भावना पैदा हो जाती है। बचपन में मेरे भीतर भी यह असुरक्षा की भावना बनी रहती थी। ममता ने इस तवालत से इस तरह मुक्ति पा ली कि रात (की शिफ्ट) में लिखना शुरू कर दिया। रात के सन्नाटे में पढ़ना लिखना और हॉरर फिल्में देखना उसका प्रिय शगल है।
पापा ने मेरे संस्मरण की बहुत बारीकी से शल्य क्रिया कर डाली। उकसाने का यह उनका प्रिय शगल था। मैं उनकी मिज़ाजपुर्सी के लिए आया था, विमर्श के लिए नहीं। वह उठे और दीवार के सहारे से बाथरूम चले गये। मैंने सहारा देने की कोशिश की तो उन्होंने मना कर दिया। मुझे लगा, वह बहुत जल्द स्वस्थ हो जाएँगे। इलाहाबाद लौटकर मैंने उनके स्वास्थ लाभ की कामना का बहाना बना कर दो एक पैग और चढ़ा लिये। पिता की हालत में सुधार की बात सुन कर ममता ने भी आपत्ति न की। उसने राहत की सांस ली होगी। मद्यपान मैं पूरे रस्मोरिवाज के साथ करता था और भोजन रस्म अदायगी की तरह। कब नींद की आगोश में चला गया, पता ही न चला। ऐसी नींद और ऐसी मौत भाग्य से ही मिलती है। छक कर पीने और बेसुध सोने के बाद लगता था आप किसी दूसरे जहान में चले गये हैं। उसके बाद जो वारदात होती है, वह सिर्फ़ सपने में होती है।
सपने में टेलीफोन की घण्टी बजने लगी तो बजती ही चली गयी। आप किसी दूसरे काम में लगे हों और अचानक टेलीफोन टनटनाने लगे तो एहसास होता है कि टेलीफोन आप को चिढ़ा रहा है। आज भी टेलीफोन ने जैसे तय कर लिया था कि मुझे चैन से सोने नहीं देगा। कई बार अलार्म घड़ी भी इसी तरह से परेशान करती है, अलार्म चाहे आप ने ही भोर में गाड़ी पकड़ने के लिए लगाया हो। शराब छोड़ने के बाद मैं सूर्य से पहले उठने लगा हूँ, वरना उससे पहले तो मुझे कमरे में घड़ी की टिक-टिक भी बर्दाश्त न होती थी। लगता था यह टिक-टिक नहीं दिमाग पर हथौड़े चल रहे हैं।
फ़ोन की कर्कश घंटी की आवाज़ बर्दाश्त न हुई तो मैंने सोते-सोते अन्धेरे में ही अन्दाज़ से रिसीवर उठा लिया। फ़ोन गाज़ियाबाद से था, भैया की आवाज थी-‘रवीन्द्र बहुत बुरी खबर है, पापा नहीं रहे।'
‘क्या?'
‘अभी थोड़ी देर पहले नर्सिंग होम से फ़ोन आया था कि आकर बॉडी ले जाएँ। अब इस समय आधी रात को बाडी लाकर क्या होगा।' भैया की आवाज़ में चिन्ता, खिन्नता, घबराहट और किंकर्तव्यविमूढ़ता थी।
‘पापा को आज ही जाना था, आज हमारी शादी की सालगिरह थी।' भैया ने बताया कि बाडी मार्च्युरी में रखवा दी है। उनकी आवाज़ से लग रहा था, वह मुझ से बेहतर स्थिति में नहीं हैं। मुझे अचानक नशे में भी लगा जैसे ‘कफन' के घीसू और मधुआ आपस में बातचीत कर रह हों। हम दोनों की ज़ुबान लटपटा रही थी। घीसू ने फोन रख दिया और मधुआ ने रजाई ओढ़ ली।
दीदी और भैया हर वर्ष बहुत तामझाम के साथ अपनी शादी की सालगिरह मनाया करते थे। कुछ ही वर्ष पूर्व दीदी को सालगिरह के दिन दफ़्तर के काम से दिल्ली जाना पड़ा था। इलाहाबाद स्टेशन पर हम लोग गाड़ी पर दीदी से मिलने गये तो देखा ‘कूपे' को उन्होंने मण्डप की तरह सजा रखा था। कम्पार्टमेंट फूलों से महक रहा था और रंग बिरंगी झण्डियों से सजा था, जैसे कोई सुहाग शैया हो। मेज़नुमा टिकटी पर भैया और भाभी की शादी की तस्वीरें प्रदर्शित थीं। मुझे पहली बार पता चला कि शादी की सालगिरह एक स्पेशल अवसर होता है। इसके बरअक्स हमारी शादी की सालगिरह भी आती थी और आकर चुपचाप चली जाती थी। अक्सर तो शादी की सालगिरह सिर के ऊपर से गुजर जाती और अगर खुशकिस्मती से वह मुबारक दिन पकड़ में आ जाता तो इसी खुशी में एक पैग दारू ज़्यादा हो जाता और सस्ती और उसके बाद टिकाऊ मध्यवर्गीय शैली में जश्न हो जाता। शुरू-शुरू में ममता भी शादी की सालगिरह को लेकर बहुत उत्तेजित रहा करती थी।
जिस बरस मैं मुम्बई से उखड़ कर इलाहाबाद आया था, सालगिरह के रोज़ ममता को मुम्बई फोन करना भूल गया, ममता ने तूफान बर्पा कर दिया। उसने मुझे बहुत सख्त पत्र लिखा। उसे लगा कि मैं उसके प्रति निरपेक्ष हो गया हूँ और इलाहाबाद में अपनी नयी प्रेमिका के साथ गुलछर्रे उड़ा रहा हूँ। उसने दो एक बार फोन भी किया होगा, मगर मैं घर पर नहीं था। मैंने उन दिनों अश्कजी के यहाँ डेरा जमाया हुआ था और प्रेस सम्बंधी औपचारिकताओं में व्यस्त था। ज्ञानरंजन और नीलाभ इसमे मेरी मदद कर रहे थे। ममता का पत्र पढ़कर मैं बहुत उदास हो गया। मेरी किस्मत खराब थी कि वह पत्र जाने कैसे अश्कजी के हाथ लग गया। अश्कजी जिन दिनों लेखन नहीं करते थे, दिन भर पत्र लिखा करते थे। उन दिनों वह मोहन राकेश को रोज़ एक पत्र लिख करते थे। पहली फुर्सत में उन्होंने ममता को भी एक लम्बा पत्र लिख डाला। पत्र क्या, हिदायतनामा बीवी का एक पूरा अध्याय था। अश्कजी की पुस्तक में वह पत्र संकलित है। उन्होंने लिखा था ः
इलाहाबाद
दिसंबर 1968
प्रिय ममता,
मैं तुम्हें ख़त लिखने की सोच ही रहा था। गुड्डे (नीलाभ) की शादी है-27, 28, 29 को - कालिया यहाँ है, तुम भी आ जाती तो हमारी खुशी द्विगुणित हो जाती। फिर तू आकर उसे तसल्ली भी दे जाती और उत्साह भी बढ़ा जातीं। जब से वह आया है उसने और नीलाभ ने दसियों मकान देख डाले हैं और कई बार एक-एक जगह दिन में तीन-तीन बार जाते हैं। कालिया तो कभी-कभी उखड़ जाता है और जैसा कि मैं उसके स्वभाव से परिचित हो गया हूँ। जैसे वह बिना कोई नोटिस दिये बोरिया-बँधना उठाकर आया है, वैसे ही परेशान होकर वापस चल देता, लेकिन मैं इसे नापसंद नहीं करता, इसलिए देर-सबेर जगह उसे मिल जायेगी, और प्रेस लगा लेगा तो सफल भी हो जायेगा, अगर तुम्हारे प्रोत्साहन ने उसका साथ दिया।
मैं दिल्ली गया हुआ था, जब वह यहाँ पहुँचा। दिल्ली में हम दोनों मियाँ-बीवी बहुत बीमार हो गये। आये तो थके और परेशान, लेकिन पिछले चार-पाँच दिन में बिना एक बार भी कॉफ़ी हाउस गये, उसने जिस तरह हमें सहारा दिया है, उससे बड़ी राहत मिली है।
रात कौशल्या ने तुम्हें पत्र लिखा है, मैं लिखने ही जा रहा था कि तुम्हारा आक्रोश-भरा पत्र मिला है। तुमने लिखा है कि ‘शायद तुम्हें दो-चार आवारा दोस्त मिल गये हैं....' पिछले एक हफ़्ते से लगभग दिन-रात जिन आवारा दोस्तों के साथ वह रहा है वे मैं, मेरी पत्नी और नीलाभ तथा उमेश ही हैं.....पत्नियों की यह आम आदत होती है कि वे कभी भला नहीं सोचतीं। मैं कभी घर से बाहर नहीं जाता, पर यदि कभी चला जाऊँ और मुझे कहीं देर हो जाए तो मेरी पत्नी सदा यही सोचेगी, कि मैं किसी ट्रक या मोटर के नीचे आ गया हूँ। वह कभी कोई अच्छी बात नहीं सोचेगी, इस मामले में तुम भिन्न नहीं हो, हालांकि तुम बहुत पढ़ी-लिखी हो और कहानीकार हो और तुम्हें केवल अपनी तकलीफ़ की बात सोचने के बदले अपने पति की तकलीफ़ की बात भी सोचनी चाहिए। जो आदमी दिन-रात खट रहा हो, उसकी पत्नी यदि कोई ऐसी वाहियात बात लिख दे तो उसे कितनी तकलीफ़ पहुँचेगी, यह भी सोचना चाहिए।
मैं स्वयं जालंधर का रहने वाला हूँ और वहाँ के लोग प्रायः व्यर्थ का औपचारिक पत्र-व्यवहार नहीं करते। पत्र न आये तो समझो सब ठीक है। औपचारिक पत्र आने लगे तो संदेह करना चाहिए कि कहीं कुछ गड़बड़ है।
दूसरी बात यह है कि शादी के दिन की याद पत्नियाँ रखती हँ, पति नहीं रखा करते। उन्हें उस दिन की याद दिलाते रहना चाहिए, पर बदले में वे भी याद दिलायें, ऐसी आशा नहीं रखनी चाहिए। यदि वे भी याद दिलाने लगें तो समझना चाहिए कि कहीं घपला है। नार्मल स्थिति नहीं है।
ज़रा-ज़रा सी बात पर अपने अहं को स्टेक पर नहीं लगाना चाहिए। हम दो-तीन दिन में तुम्हें फ़ोन करने की सोच रहे थे। फ़ोन नंबर होता तो अब तक तुम्हें यहाँ की सारी गतिविधि का पता मिल चुका होता।
बहरहाल कालिया ठीक है। मेरे ही पास है। जब तक उसकी ठीक व्यवस्था नहीं जो जाती, मैं उसे-यहीं रखूँगा, सो तुम चिंता न करो। हिम्मत कर सकती हो तो दो-तीन दिन के लिए आ जाओ, उसका हौसला बढ़ा जाओ और हमारी खुशी भी।
मेरी किसी बात का बुरा न मानना। अपनी बच्ची समझकर मैंने ये चंद पंक्तियाँ लिख दी हैं।
सस्नेह
उपेन्द्रनाथ अश्क
अश्कजी के पत्र ने आग में घी का काम किया। उन दिनों अश्कजी ने राकेश वगैरह अनेक लेखकों के तलाक में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी, उनका बस चलता तो राजेन्द्र ओर मन्नू का भी तलाक करवा देते। ममता को अश्कजी की इस सलाहियत की भारतीजी ने भरपूर जानकारी दे रखी थी। उसे विश्वास हो गया कि अश्कजी के अगले निशाने पर अब हमारा ही दाम्पत्य है। ममता नादानी में जाने क्या-क्या सोच गयी थी।
दीदी भैया की शादी की यह कैसी सालगिरह थी कि मैं फोन पर भी बधाई न दे पाया। अचानक मैंने पाया कि मैं दिल्ली की गाड़ी में लेटा हूँ और गाड़ी अंधेरे को चीरती हुई दिल्ली की तरफ़ बढ़ रही है। हमेशा की तरह दिल्ली स्टेशन पर नींद खुली। भागमभाग किसी तरह गाज़ियाबाद पहुँचा तो घर पर ताला मिला। हिंडेन के तट पर अवस्थित श्मशान मेरा जाना पहचाना था। अभी छह महीने पहले ही ममता की मम्मी के अंतिम संस्कार में मैं शामिल हुआ था। घाट पर पहुँचा तो चिता अभी जल रही थी। मातमी जा चुके थे। केवल भैया रह गये थे। वह धूप के एक चौखटे पर बैठे मूँगफली खा रहे थे। उन्होंने मुझे देखकर थोड़ी मूँगफली मेरी हथेली पर रख दी।
‘मूँगफली नहीं सिगरेट।' मैंने कहा। भैया ने जेब से पैकेट निकालकर एक सिगरेट पेश की। मैं जेब में माचिस टटोलने लगा। माचिस भैया के पास भी नहीं थीं। उन्होंने आगे बढ़कर चिता से जलती हुई लकड़ी उठायी और मेरी सिगरेट सुलगा दी। लकड़ी के ताप से मेरा चेहरा जैसे झुलस गया। मैं हड़बड़ाकर उठ बैठा। धूप की पहली किरणें रजाई पर पड़ रही थीं।
कैसा भयानक सपना था। सपना था या सच था। मुझे सही सही कुछ भी याद नहीं पड़ रहा था। जैसे चेतन अवचेतन के बीच की रेखा मिट गयी थी। शराब पीकर मुझे हैंगओवर नहीं होता था, कभी नहीं हुआ, मगर ‘जाने क्या याद था, भूल गया' होता रहता था। सपने में डरावने दृश्य देखने का मुझे अच्छा खासा अनुभव था। एक दौर ऐसा भी था कि सिर्फ डरावने सपने आया करते थे, मगर नींद खुलते ही एकदम यकायक राहत मिल जाती थी। आज सपने में ऐसा कहर टूटा था कि नींद खुलने पर भी राहत महसूस न हो रही थी। आँगन में चिरपरिचित सुबह पसरी हुई थी। पड़ोस की नीम हमारे आंगन पर झुक आयी थी, सुबह-सुबह उस पर चिड़ियों के झुण्ड चहचहाते थे। सिर में हल्का सा सुरूर था। ऐसे आलम में सुबह-सुबह रिंद लोग एक पैग और पीते थे। उस पैग का बहुत प्यारा सा नाम है-सुबूही। मेरे जैसे मेहनतकश लोगों के लिए सुबूही के बारे में सोचना भी एय्याशी थी। उहापोह की स्थिति में घिरा रहा। अपने ऊपर बहुत गुस्सा आ रहा था, ग्लानि भी हो रही थी, अपराध बोध भी। क्या मैं ‘अल्कोहलिक' होता जा रहा हूँ या स्मृति लोप की तरफ बढ़ रहा हूँ। यह जानने के लिए मैंने दिमाग पर बहुत दबाव डाला कि रात को भैया का फोन आया था कि नहीं। दिमाग में सब-कुछ गड्मड्ड हो गया था।
अचानक मुझे दीदी की शादी की सालगिरह की बात याद आई। अगर आज उन लोगों की शादी की सालगिरह है तो इसकी सूचना भैया ने ही दी होगी, मुझे तो अपनी सालगिरह की तारीख याद नहीं रहती, साली की कैसे याद रह जाएगी। इस मामले में ममता की याददाश्त बहुत अच्छी है। उसे इस तरह की फिज़ूल बातें बहुत याद रहतीं हैं। अगर आज उन लोगों की सालगिरह हुई तो विश्वासपूर्वक ममता को पिता के निधन की खबर दी जा सकती है।
ममता बच्चों के कमरे में सोई हुई थी। वे लोग गहरी नींद थे। मैंने ममता को झकझोरते हुए पूछा, ‘क्या आज दीदी लोगों की शादी की सालगिरह है?'
‘कितने बजे हैं?' ममता ने पूछा।
‘छह बजने वाले हैं। यह बताओ कि क्या आज दीदी लोगों की सालगिरह है?'
‘सुबह-सुबह तुम्हारा दिमाग चल निकला है, सोने दो।' ममता ने करवट बदल ली।
मैंने उसे फिर झकझोरा, ‘पहले मेरी बात का जवाब दो।'
‘आज क्या तारीख है?' उसने जैसे पीछा छुड़ाने की गर्ज़ से पूछा।
मैंने तारीख बतायी और उसने सोते-सोते ही हामी भर दी कि आज उन लोगों की सालगिरह है।
‘सुनो, भैया का फोन आया है। पापा की डेथ हो गयी है, उठो।' मैंने कहा।
वह हड़बड़ा कर उठ बैठी, ‘अभी फोन आया है?'
‘रात गये आया था।' मैंने सावधानी से शब्दों का चुनाव करते हुए कहा।
‘तुमने मुझे उसी समय क्यों नहीं जगाया?'
‘रात को कोई गाड़ी नहीं थी।' मैंने झूठ का सहारा लिया। भोर में तूफान जाती थी, वह निकल चुकी थी।
ममता घुटनों में सिर दबा कर सिसकियाँ भरने लगी। कालका मेल जाने में अभी समय था। वह आँसू पोंछते हुए अपनी अटैची तैयार करने लगी। मैं चाय बनाने रसोई में घुस गया।
(समाप्त)
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मार्मिक संस्मरण.
जवाब देंहटाएंVery touching, I read it complete from 1 to 14 in a week, Thanks for making it available,
जवाब देंहटाएंI wept and laughed many times with it... no words appreciating it... it is amazing..
ग़ालिब पर अच्छा काम। बधाई
जवाब देंहटाएंपूजा
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