“मुझे रोना बहुत जल्द आता था और पीने के बाद तो और भी जल्द। एक ज़माना था, मैं मद्रासी फिल्म के किसी निहायत फूहड़ किस्म के कारुणिक दृश्य क...
“मुझे रोना बहुत जल्द आता था और पीने के बाद तो और भी जल्द। एक ज़माना था, मैं मद्रासी फिल्म के किसी निहायत फूहड़ किस्म के कारुणिक दृश्य को देखकर रो पड़ता था। आज भी स्थिति में ज़्यादा सुधार नहीं हुआ है, माधुरी दीक्षित को पोंछा लगाते देख लूं तो आँखें सावन भादों होने लगती हैं। शराब पीकर तो मैं फफकर रोने लगता था और मेरी हिचकी बंध जाती थी। पिक्चर हाउस में मैं चुपचाप रोता था ताकि मेरे बीवी बच्चे मुझे इस दुर्दशा में न देख लें। मदिरापान के समय मेरे साथ कोई कुतर्क करने लगता तो मेरी इच्छा होती इसे पीट दूँ, पीटने में संकोच लगता तो आँसू बहने लगते। मुझे कोई बोर करता है तब भी मेरी यही हालत हो जाती है। शराब पीकर मैंने बहुत से कथाकारों को रोते देखा है।...”
--- इसी संस्मरण से.
संस्मरण
ग़ालिब छुटी शराब
रवींद्र कालिया
रुपयों का इंतजाम होते ही मैं बोरिया-बिस्तर उठाकर इलाहाबाद चला आया। एक तरह से मुम्बई ने मुझे दक्षिणा देकर विदा कर दिया था। ममता की व्यवस्था चर्चगेट स्थित विश्वविद्यालय के छात्रावास में हो गयी। मैंने इलाहाबाद में अश्कजी के यहाँ लंगर डाल दिये और संघर्ष के लिए कमर कस ली। ज्ञान उन दिनों इलाहाबाद में ही था। उसकी पीने में ज़्यादा दिलचस्पी न थी, खाने में थी। गर्भवती महिलाओं की तरह उसका मन कभी खट्टी और कभी मीठी चीजों के लिए मचलता रहता। लोकनाथ की लस्सी पीकर ही वह नशे में आ जाता। कोई काम न होता तो ज्ञान, नीलाभ और मैं इलाहाबाद की सड़कें नापते। इलाहाबाद के खुले इलाके की सड़कें बहुत आकर्षित करतीं। नीम के पत्ते झरते तो सड़कें पीली हो जातीं, जैसे पत्तों की सेज बिछ गयी हो।
नारंगजी अत्यंत कठोर अनुशासन के व्यक्ति थे। घड़ी का कांटा देखकर काम करते थे। दिन भर काम में जुटे रहते और पांच बजते ही ताला ठोंककर टैगोर टाउन के लिए चल देते। एक बार तो जल्दबाज़ी में एक कर्मचारी रातभर के लिए प्रेस में ही बंद रह गया था। उनकी हर चीज़ पूर्व निर्धारित थी, यहाँ तक कि रिक्शा का भाड़ा भी। एक दिन उन्होंने हिचकिचाते हुए बताया कि इलाचंद्र जोशी से किसी प्रकाशक ने कहा है कि उन्होंने मुम्बई के जिस लेखक के हाथ प्रेस का सौदा किया है वह जबरदस्त एय्याश है, किस्तें क्या अदा करेगा, धीरे-धीरे प्रेस खा-पी जाएगा। बाद में उस प्रकाशक से मेरी भी मित्रता हो गयी, उसने हिंदी भवन द्वारा प्रकाशित इलाचंद्र जोशी के उपन्यास ही नहीं, मेरी तमाम पुस्तकें भी प्रकाशित कीं। उन दिनों मेरे सामने अपने अस्तित्व का सवाल ही मुँह बाये खड़ा था, पीना तो दरकिनार, खाने के लाले पड़े हुए थे। मेरा हिंदी साहित्य सम्मेलन में विचित्रजी की देखरेख में प्रशिक्षण शुरू हो गया। नारंगजी की शर्तें इतनी कड़ी थीं कि मैं कोई जोखिम उठा ही नहीं सकता था। समय पर किस्त न चुकाने पर सूद की दर दुगुनी हो जाने का प्रावधान था। प्रेस और कर्ज़ का जुआ मेरे कंधों पर गिरने ही वाला था मैं पूरा ध्यान लगाकर विचित्रजी से गुरुमंत्र ले रहा था।
विचित्रजी सचमुच विचित्र शख्सियत के मालिक थे। लंबा तगड़ा बलिष्ठ शरीर, मुँहफट, मलंग, फक्कड़, मगर ग़ज़ब के स्वाभिमानी। नाराज़ हो जाते तो गाली बकने लगते और खुश हो जाते तो कर्मचारी को रम की बोतल थमा देते- जा ऐश कर। सबेरे घंटों हवन करते, शाम को गोश्त भूनते और जमकर मदिरापान करते। उनका पूरा व्यक्तित्व एक ऋषि की मानिंद था। सम्मेलन के पदाधिकारियों से वह पदाधिकारी की तरह पेश आते और मजदूरों के बीच मजदूरों-सा व्यवहार करते। जी में आता तो लोकगीत गाते हुए मशीन चलाने लगते। विचित्रजी की किसी भी बात का कोई बुरा न मानता था। वह उम्र में मुझसे काफी बड़े थे, मगर मेरी उनसे छनने लगी। उनका बड़ा बेटा इंडियन फारेन सर्विस में था। जापान में भारत के दूतावास में वरिष्ठ अधिकारी। अचानक एक सड़क दुर्घटना में उसकी मृत्यु हो गयी। अखबार में यह समाचार पढ़कर मैं अफसोस करने उनके यहाँ पहुँचा तो वह हस्बेमामूल दारू पीते हुए गोश्त भून रहे थे। उनकी पत्नी सलाद काट रही थीं।
‘होनी को कोई भी नहीं टाल सकता।' उन्होंने मेरा पैग तैयार करते हुए कहा, ‘बहू की अभी उमर की क्या है? मैंने उससे कह दिया है कि वह दूसरी शादी के बारे में सोचे, पढ़ी-लिखी योग्य लड़की है, अपने लिए जरूर कोई लड़का ढूँढ़ लेगी।'
विचित्रजी बेटे के बचपन में खो गये। उन्हें याद आया कि कैसे उन्होंने एक बार उसके जन्मदिवस पर छुट्टी के रोज़ दुकान खुलवा कर उसे तिपहिया साइकिल दिलवायी थी। वे देर तक मेरी तरफ पीठ करके गोश्त भूनते रहे। उनका एक गिलास गैस के पास जस का तस भरा रखा था। मैं भी घूंट नहीं भर पाया। सहसा उनकी पत्नी उठकर दूसरे कमरे चली गयीं। संभ्रांत और बहादुर लोग मातम में भी शालीन बने रहते हैं। विचित्रजी और कुछ भी हों, संभ्रांत तो नहीं थे। ऐसा बीहड़ आदमी जीवन में दुबारा नहीं मिलता। बाद में वह दिल्ली चले गये और किसी प्रेस के काम से बिक्री-कर कार्यालय में काम करते हुए हृदयगति रुक जाने से इस दुनिया से रुख्सत हो गये।
मैं इलाहाबाद क्या आया, इलाहाबाद का ही होकर रह गया।
‘अगर जन्नत का रास्ता इलाहाबाद से होकर जाएगा तो मैं जहन्नुम में जाना ज्यादा पसन्द करूँगा।' मिर्ज़ा ग़ालिब ने अपने एक ख़त में इलाहाबाद के बारे में अपनी राय ज़ाहिर की थी। मिर्ज़ा बरास्ता इलाहाबाद बनारस गये थे, मालूम नहीं कि इलाहाबाद ने उनके साथ कैसा सुलूक किया था कि वह इलाहाबाद से खौफ़ खाने लगे थे। उन्होंने एक शेर में अर्ज़ किया कि ‘हज़र अज़ फितन ए इलाहाबाद' यानी इलाहाबाद के फितनों से खुदा मुझे पनाह दे। इलाहाबाद आने से पहले मैंने ‘फितना' शब्द नहीं सुना था। अश्कजी इसका खुलकर इस्तेमाल करते थे। उनकी नज़र में सन् साठ के बाद की पीढ़ी के अधिसंख्य कथाकार फितना थे। इस शब्द की ध्वनि ही कुछ ऐसी है कि सुनने पर गाली का एहसास होता है। लुग़ात में इसका अर्थ देखा तो अश्कजी की ही नहीं मिर्ज़ा ग़ालिब की बात भी समझ में आ गई। फितना का अर्थ होता है, लगाई-बुझाई अथवा साज़िश करने वाला, दंगाई, नटखट, षड्यंत्री, बगावती आदि-आदि। साठोत्तरी पीढ़ी के बारे में अग्रज लेखकों की राय कभी अच्छी नहीं रही। भैरवप्रसाद गुप्त इसे हरामियों की पीढ़ी कहते थे, अश्कजी फितनों की, कमलेश्वर एय्याश प्रेतों की पीढ़ी और मार्कण्डेय दो पीढ़ियों के बीच उगी खरपतवार।
इलाहाबाद का आक्रामक तेवर सभी को झेलना पड़ता है-- आप जवाहरलाल नेहरू या इंदिरा गाँधी ही क्यों न हों। अपने को सुमित्रानंदन पंत या उपेंद्रनाथ अश्क ही क्यों न समझते हों। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित नरेश मेहता इलाहाबाद की इन्हीं सड़कों पर अपनी आधा दर्जन अप्रकाशित पुस्तकें लिए दर-दर भटका करते थे। यह इलाहाबाद में ही संभव था कि कोई विजयदेव नारायण साही भरी महफिल में पंतजी की उपस्थिति में ताल ठोंककर घोषणा कर दे कि उसने पंतजी का ‘लोकायतन' न तो पढ़ा है और न पढ़ेगा। साही जैसे ‘चैक पोस्ट' इलाहाबाद के हर प्रवेश द्वार पर स्थापित हैं।
इलाहाबाद आने से पूर्व मेरे तसव्वुर में इलाहाबाद की एक अत्यंत रोमांटिक छवि थी। गजधर की मखमली घास पर बियर बार, निराला, पंत और महादेवी का प्रभामंडल, निराला का फक्कड़पन, घने वृक्षों से ढकी पत्तों से आच्छादित जादुई सड़कें। मैं सोचा करता था, इलाहाबाद साहित्य को समर्पित कलम के मज़दूरों की कोई मायानगरी है।
मगर कुछ महीनों में इलाहाबाद ने मुझे कलम का नहीं सचमुच का मज़दूर बना दिया। मैं दिन भर मज़दूरी करता, यानी पूरे प्रेस के प्रूफ़ पढ़ता और अगर कोई मशीनमैन गैरहाजिर हो जाता तो मशीन भी आपरेट करता। प्रेस में छुट्टी हो जाती, मैं कर्ज़ चुकाने के चक्कर में अकेला मशीन पर बैठा रहता। ऐसे में सिर्फ एक चीज ने मेरा साथ दिया था और वह था मदिरा का प्याला। मदिरा से मेरी गहरी दोस्ती अकेलेपन और परीक्षा लेने वाले कठिन दिनों में ही हुई थी। संयोग से यह दोस्ती तर्कसिद्ध भी हो गयी थी। इलाहाबाद आकर तबीयत कुछ पस्त और कुछ नासाज़ और कुछ बेगानी-सी लगने लगी थी। डॉक्टर दरबारी ने बताया कि ब्लड प्रेशर लो हो गया है और सलाह दी कि शाम को ब्रांडी ले लिया करूँ। डॉक्टर की यह सलाह मुझे बहुत रास आई। ब्रांडी का एक पैग पीकर तबीयत कुलांचे भरने लगती। मेरे लिए उन दिनों एक पैग ही काफी था। इससे ज़्यादा पीने की क्षमता थी और न साधन। शाम को थक-हारकर जब मैं ब्रांडी की शरण में जाता तो एक-एक घूँट अमृत की तरह स्फूर्ति देता। मैं दोपहर से ही सूरज डूबने का इंतजार करता, यानी सूरज अस्त और बंदा मस्त।
बन्दे के ऊपर प्रेस की किस्तों की तलवार तो लटक ही रही थी, मुम्बई की फुटकर देनदारियाँ भी बाकी थीं। सब से ज्यादा चिंता मुझे टाइम्स की को-आपरेटिव सोसायटी के ऋण की अंतिम दो एक किस्तों की थी। मुम्बई में आदमी सबसे पहले आवास की समस्या से दो-चार होता है। शायद इसी को ध्यान में रखते हुए कंपनी ने कन्फर्म होते ही आसान किस्तों पर ऋण उपलब्ध कराने की व्यवस्था कर रखी थी। इसी सुविधा का लाभ उठाकर कर्मचारी पगड़ी देकर किसी रैन बसेरे का इंतज़ाम कर लेते थे। कन्फर्म होते ही लगभग प्रत्येक कर्मचारी ऋण लेता था। यह वहाँ का दस्तूर था। भाई लोगों ने मुझे भी ‘माधुरी' के संपादक अरविंद कुमार और कन्हैयालाल नन्दन की ज़मानत पर तुरत-फुरत तीन हज़ार का ऋण दिलवा दिया। उस समय मुझे पैसे की कोई खास ज़रूरत न थी। हम कमाऊ दम्पती थे। नन्दनजी, चौधरी और मैंने तय किया कि क्यों न फ्रिज ले लिया जाए। उन दिनों गोदरेज का बड़ा से बड़ा रेफ्रीजरेटर ढाई हजार रुपये में आ जाता था। नन्दनजी ने तीन फ्रिज का सौदा किया और सौ-सौ रुपये की अतिरिक्त छूट मिल गयी। मेरे पास छह सौ रुपये बचे, उनकी मैंने बियर खरीदकर फ्रिज में भर दी। कहना गलत न होगा रेफ्रीजरेटर बियर से लबालब भर गया। उसमें जितनी बोतलें आ सकती थीं ठूँस दी। शाम को दफ़्तर से लौटकर पानी की जगह बियर पीता तो अपने को धन्य समझता। बम्बई में कुल जमा यही हमारी पूंजी थी, यानी कर्ज़ का फ्रिज और कर्ज़ की मय। फ्रिज के बटर-शटर का उपयोग हम लोग सेफ़ की तरह करते थे, घर का रुपया-पैसा उसी में रखा जाता था। ऋण नामालूम आसान किस्तों पर वेतन के कट जाता था। दो-एक किस्तें बाकी थी, जब मैं नौकरी छोड़कर इलाहाबाद चला आया। मुझे एहसास था कि वक्त पर पैसा न भेजा तो अरविंद कुमार और नन्दनजी की तनख्वाह से कट जाएगा, यह दूसरी बात है कि मेरे ज़मानतदार समझदार, समर्थ और धैर्यवान लोग थे और उन्होंने सब्र से काम लिया। वे जानते रहे होंगे कि सब्र का फल मीठा होता है।
इलाहाबाद अपेक्षाकृत एक कठिन और बददिमाग शहर है। यहाँ जड़ें जमाना बहुत मुश्किल काम है, लेखक के लिए ही नहीं, प्रकाशक के लिए भी। पत्र पत्रिकाओं के लिए तो और भी अधिक चुनौतीपूर्ण। जिस लेखक, प्रकाशक, वकील, राजनेता और पत्र-पत्रिका को इलाहाबाद ने स्वीकार कर लिया, उसे पूरे देश की स्वीकृति मिल जाती है। देश भर से यहाँ अनेक साहित्यिक, व्यावसायिक और लघु पत्रिकाएं आती हैं, कुछ पत्रिकाओं के तो बंडल ही नहीं खुलते। एक ज़माने में यहाँ ‘धर्मयुग' की आठ हजार प्रतियाँ प्रति सप्ताह बिकती थीं और ऐसा जमाना भी आया कि ‘धर्मयुग' की अस्सी प्रतियाँ बिकना मुहाल हो गया। भारती इलाहाबाद को लेकर बहुत संशकित रहा करते थे। वह अक्सर कहा करते थे कि यह एक ऐसा शहर है जो दूर रहने पर हाँट करता है और पास जाने पर साँप की तरह डसता है। भारतीजी ने भी इलाहाबाद के घाट-घाट का पानी पिया था, उन्होंने शहर में अपने अनेक मुखबिर छोड़ रखे थे। यह दूसरी बात है कि ये लोग अपने को भारती का विश्वासपात्र और परम मित्र समझने का भ्रम पाले हुए थे। मगर भारती जानते थे कि उनसे क्या काम लेना है। इनके माध्यम से भारतीजी को इलाहाबाद के साहित्यिक जगत की संपूर्ण जानकारी मिलती रहती थी। भारतीजी के पत्रों का संकलन करते समय पुष्पाजी की निगाह ऐसे पत्रों पर गयी कि नहीं, कह नहीं सकता। इलाहाबाद आने से पूर्व मैं दिल्ली और मुम्बई में भी वर्षों रहा, मगर जो अनुभव और झटके इलाहाबाद ने दिये वह इलाहाबाद ही दे सकता था। असहमति, विरोध, अस्वीकार और आक्रामकता इलाहाबाद का मूल तेवर है। इलाहाबाद की पीटने में ज़्यादा रुचि रहती है। इसका स्वाद हर शख्स को चखना पड़ता है- वह लेखक हो, अधिकारी, वकील अथवा साधारण रिक्शा चालक ही क्यों न हो। इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा कि रिक्शा चालक तक इलाहाबाद में ही सबसे ज्यादा पिटते हैं- सवारी से भी, साथियों से भी, पुलिस से भी। नेहरू खानदान का भी काले झंडों से जितना स्वागत इलाहाबाद में हुआ होगा, वह अन्यत्र सम्भव नहीं।
अपनी सूक्ष्म पिटाई का एक उदाहरण्ा पेश करता हूँ। ‘लोकभारती' से मेरी पहली किताब छपकर आई थी और मैं एक लेखकीय ठसक के साथ वहाँ पसर कर बैठा था। तभी विजयदेव नारायण साही होठों में पाइप दबाये हुए ‘लोकभारती' में दाखिल हुए। मेज़ पर लोकभारती के नये प्रकाशन की एक-एक पुस्तक पड़ी थी। उन्होंने सरसरी तौर पर किताबें देखीं और मेरी किताब देखकर मुँह बिचकाया। किताब उठाई और उलट-पलटकर दूसरी मेज की तरफ फेंक दी, ‘आजकल क्या छापने लगे हो भाई?' मेरी किताब के साथ साही का सुलूक देखकर मेरे प्रकाशक का तो जैसे जीवन सार्थक हो गया। उसने तुरंत चपरासी को कॉफी लाने कॉफी हाउस दौड़ा दिया और मेरी तरफ कुछ इस अंदाज़ से देखा जैसे पूरी रायल्टी का अग्रिम भुगतान कर दिया हो। मेरी हालत अत्यंत दयनीय हो गई, चेहरा उतर गया, पुस्तक छपने का सारा उत्साह मिट्टी में मिल गया, मगर इस घटना के बाद इलाहाबाद को झेलना आसान भी हो गया मैंने साही की हरकत को यह सोचकर खारिज कर दिया कि यह हिंदी साहित्य पर समाजवाद का दुष्प्रभाव है। इलाहाबाद के नाम के साथ ‘बाद' जरूर लगा है, मगर यहाँ ‘बाद' कम ‘वाद' ज्यादा हैं, वाद-विवाद उससे भी ज्यादा हैं। मैंने इसी लोकभारती और कॉफी हाउस में वाद-विवाद को हाथापाई में तब्दील होते भी देखा है। प्रकाशकों और लेखकों के बीच कुर्सियाँ भी चली हैं, पेपरवेट भी उछले हैं, प्याले भी टूटे हैं।
इलाहाबाद बरसों से दो खेमों में बँटा रहा है। एक मज़बूत खेमा प्रगतिशीलों का था और उसी की प्रतिक्रिया में खड़ा हुआ था ‘परिमल' आंदोलन। ‘परिमल' के अधिसंख्य लेखक पक्की पेंशनवाली सरकारी अथवा अर्द्धसरकारी नौकरी में थे। कोई विश्वविद्यालय में था और कोई आकाशवाणी में, वह विजयदेव नारायण साही हों या डॉ0 रामस्वरूप चतुर्वेदी, डॉ0 रघुवंश, डॉ0 जगदीश गुप्त अथवा केशवचंद्र वर्मा। प्रगतिशील खेमे के लोग प्रायः गर्दिश में रहते थे। भैरवप्रसाद गुप्त और अमरकांत ने छोटी-छोटी असुरक्षित प्राइवेट नौकरियों में जीवन बिता दिया, मार्कण्डेय ने कभी नौकरी की न चाकरी, शेखर जोशी भी मामूली नौकरी पर थे। दोनों खेमों में हमेशा वैचारिक टकराव रहता। एक खेमा कॉफी हाउस के एक कोने में अड्डा जमाता तो दूसरा दूसरे कोने में। ‘परिमल' के लोग प्रायः शुचितावादी थे- श्रीलाल शुक्ल के अलावा किसी भी परिमिलियन को मैंने मद्यपान करते नहीं देखा। यह दूसरी बात है कि श्रीलाल शुक्ल भी अपने को परिमिलियन मानने से इंकार करते हैं। दोनों खेमों में वैचारिक टकराव के कारण सिर फुटौवल की नौबत आ जाती। दोनों खेमों के लोगों में कुछ समानताएं भी थीं। कहना गलत न होगा अपने तेवर में भैरवप्रसाद गुप्त विजयदेव नारायण साही के मार्क्सवादी संस्करण थे। दोनों कट्टरवादी, उद्दण्ड और मुँहफट थे। भैरवप्रसाद गुप्त तो अंतिम सांस तक यह मानने को तैयार न हुए कि सोवियत संध का विघटन हो चुका है। एक बार ‘लोकभारती' में उन्होंने मुझे इसी बात पर बहुत फटकारा था और मुझे सीआईए का एजेंट घोषित कर दिया था। उनका दृढ़ विश्वास था कि अमरीकी मीडिया सोवियत संघ के बारे में दुष्प्रचार कर रहा है और सीआईए के एजेंट सोवियत संघ के बारे में बेसिर पैर की अफवाहें उड़ा रहे हैं। इलाहाबाद में परिमल के ही लोगों के साथ मैंने मयनोशी नहीं की, वरना प्रगतिशील तो डटकर मदिरा का सेवन करते थे। साही को मैंने कभी नशे में नहीं देखा जबकि भैरवप्रसाद गुप्त पीने का कोई मौका न छोड़ते थे। वह अपने से कम उम्र या यों कहिए नवोदित लेखकों के साथ भी पी लेते थे। वैसे उन दिनों शहर में पीने-पिलाने का ज़्यादा माहौल नहीं था। श्रीपत राय शौकीन आदमी थे। पीते थे और पिलाते भी थे। मैं भी महीने में एकाध शाम उनके यहाँ बिता आता। वह बहुत कम बोलते थे। मगर उनके संग खाना पीना अच्छा लगता था। उन्होंने कभी यह आभास भी नहीं होने दिया था कि आप बिन बुलाये मेहमान हैं। मैं जब भी गया उन्होंने गर्मजोशी में इस्तकबाल किया, जबकि यह शेर मुझे अभी हाल में श्रीपतजी के निधन के बरसों बाद उर्दू शायर मुनव्वर राना ने सुनाया हैः
फायदा तू भी उठा ले कालिया,
गर्म है बाजार इस्तकबालिया।
कभी-कभी अश्कजी भी मेहरबान हो जाते थे, मगर वह बहुत नाप-तौल कर पिलाते थे। अक्सर उनके यहाँ से तिश्ना लौटना पड़ता। वह अच्छे मूड में होते तो बड़े बेटे उमेश को आवाज़ देते-- उमेश बल्ली, ज़रा लपककर खुल्दाबाद से एक अद्धा ले आओ। उस एक अद्धे में वह सबको निपटा देते, खुद भी निपट लेते। एक तिश्नगी बनी रह जाती। बाद में निन्नी मामा (कौशल्या अश्क के छोटे भाई) शराग का जुगाड़ करने लगे। उनकी किसी अवकाश प्राप्त फौजी से दोस्ती हो गयी थी। वह बहुत सस्ते में रम की व्यवस्था कर देते।
समय-समय पर इलाहाबाद में साहित्यानुरागी अधिकारियों की नियुक्ति न होती तो बहुत से रचनाकार प्यासे रह जाते। बहुत सी लघु पत्रिकाएँ बंद हो जातीं। प्रतियोगी परीक्षाओं को फलांग कर इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अनेक छात्र ऊंचे-ऊंचे पदों पर पहुँचे, बीच-बीच में उन्होंने इलाहाबाद को भी गुलज़ार किया। मार्कण्डेय के दरबार से ऐसे अनेक मेधावी छात्र उठे पता चला जो लड़का कल तक मार्कण्डेयजी के लिए कटरा से सब्जी लाया करता था वह आयकर अधिकारी हो गया है या पुलिस अधीक्षक और मार्कण्डेय उसे ठोंक पीटकर कवि-कथाकार बनाने में जुटे रहते हैं और कुछ ही दिनों बाद वह बेचारा ‘कथा' के लिए विज्ञापन बटोरता नज़र आता। इन अधिकारियों के आसपास कुकरमुत्ते की तरह लघु पत्रिकाएं भी उगती रहतीं, मदिरा भी बहती। पहली फुर्सत में ये अधिकारी अपने यहाँ रचनाकारों को आमंत्रित कर कृतकृत्य हो जाते, शेर-ओ-शायरी होती, मदिरा का दौर चलता और उत्तम भोजन की व्यवस्था रहती इलाहाबाद ने अनेक अधिकारी रचनाकारों को जन्म दिया कहना गलत न होगा आयकर और बिक्रीकर अधिकारियों की हिंदी लघु-पत्रिका आंदोलन में उल्लेखनीय भूमिका रही है जिस संपादक की इन विभागों पर पकड़ ढीली हो गयी, उसकी पत्रिका प्रेस में ही दीमक चाट गयी। अधिकारियों का संरक्षण और प्रोत्साहन पाकर इलाहाबाद के कई लेखक संपादक हो गये, प्रकाशक बन गये, नीलकांत तो अधिकरियों के बावर्चीखाने में चिकेन भूनते हुए अच्छे-खासे बावर्ची बन गये। अब प्रतिभा तो प्रतिभा है, उसका प्रस्फुटन तो होगा ही, नीलकांत की प्रतिभा के फूल रसोईघर में खिलने लगे। जैसे कवियों को काव्यपाठ के निमंत्रण मिलते हैं, नीलकांत को लखनऊ, गोरखपुर, आज़मगढ़ जहां भी इन अधिकारियों का स्थानान्तरण होता, भोजन बनाने के निमंत्रण मिलने लगे। पार्टी से बहुत पहले उनकी बोतल खुल जाती और उनका बनाया व्यंजन लोग अंगुलियाँ चाट-चाटकर खाते, मगर तब तक नीलकांत टुन्न हो चुके होते। जीप में लादकर उन्हें घर पहुँचाया जाता। नीलकांत की प्रतिभा जब साहित्य और रसोई की सीमाओं का अतिक्रमण कर जाती तो वह फर्नीचर बनाने में जुट जाते। बहुत कम लोग जानते होंगे कि वह जितने अच्छे लेखक और बावर्ची हैं, उससे कहीं अच्छे बढ़ई हैं। वह आपके लिए कुछ भी बना सकते हैं- कुर्सी, मेज़, पलंग और यहां तक कि ताबूत भी। वह कथा शिल्पी ही नहीं चर्म शिल्पी भी हैं। जिस पर प्रसन्न हो जाते हैं, उसे अपने हाथ से बनाये जूते भेंट कर देते हैं। शायद यही वजह है कि वह साहित्य में भी जूतमपैजार कर बैठते हैं। तब उन्हें यह भी ख्याल नहीं रहता कि सामने रामचन्द्र शुक्ल हैं या डॉ0 नामवर सिंह।
विभूतिनारायण राय इलाहाबाद के शहर कोतवाल यानी एस0 पी0 होकर इलाहाबाद आये तो लेखक लोग एकदम बेफिक्र हो गये। किसी लेखक के यहाँ चोरी या फौजदारी हो गयी तो वह सदैव सहायता के लिए आगे आ गये। उचक्के मार्कण्डेय के घर का लोहे का गेट उखाड़ कर ले गये तो विभूति ने दो दिन के भीतर ही गेट बरामद करा दिये। जानकार लोगों का विश्वास है कि मार्कण्डेय को पहले से कहीं भारी गेट बरामद हो गये। कम ही अधिकारी उनसे बेहतर मेज़बान होंगे। बाद में जब वह महाकुम्भ के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक हुए तो देशभर से आए अनेक मित्र रचनाकारों ने जी भर का संगम स्नान किया था। अनेक रचनाकार सद्गति को प्राप्त हुए। स्थानीय लेखकों में कोई सिद्धावस्था में आधी रात को जीप पर घर पहुँचाता था, कोई स्टे्रचर पर, कोई वहीं स्विस कॉटेज में ही पड़ा रह जाता था और घर पहुँचता ही नहीं था। उस महाकुम्भ में कई रचनाकारों को जीते जी मोक्ष प्राप्त हो गया था। इक्कीसवीं सदी में लेखकों का पुनरुद्धार करने के लिए कोई विभूतिनारायण राय जन्म लेगा कि नहीं, कहा नहीं जा सकता। उस स्थान पर कई अमूल्य शिलालेख गड़े हैं, अगली शताब्दी में कोई पुरातत्ववेत्ता उत्खनन करेगा तो उसे बीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण के लेखकों की जीवन शैली के बारे में अभूतपूर्व जानकारियां उपलब्ध होंगी।
इलाहाबाद में रानी मंडी की जिस इमारत में मेरा गरीबखाना, शराबखाना, कारखाना और इबादतखाना था, स्वाधीनता से पूर्व राष्ट्रीय महत्व का पत्र ‘अभ्युदय' वहीं से प्रकाशित, मुद्रित और संपादित होता था। सन् 1907 में महामना मदनमोहन मालवीय ने इसका प्रकाशन शुरू किया था। पं0 कृष्णकांत मालवीय, व्यंकटेश नारायण तिवारी, पं0 पद्मकांत मालवीय ने समय-समय पर इसका संपादन किया। इसे संयोग ही कहा जाएगा कि लगभग अस्सी वर्ष बाद अभ्युदय के संस्थापक महामना मदनमोहन मालवीय जी के पौत्र लक्ष्मीधर मालवीय और प्रपौत्र-प्रपौत्री अमित तारा अपनी जापानी मां के साथ हमारे यहां कुछ दिनों के लिए इसी ऐतिहासिक इमारत में ठहरे। लक्ष्मीधर मालवीय मुझ से भी बड़े रिंद साबित हुए। मालवीय परिवार के साथ कुछ यादगार शामें बीती, उनका ज़िक्र यहां अप्रासंगिक न होगा, मगर मैं उससे पूर्व रानी मंडी के चरित्र पर थोड़ी और रौशनी डालना चाहता हूँ। आजादी से पहले एक बार जब पंडित जवाहरलाल नेहरू रानीमंडी में तशरीफ लाये थे तो कुछ कट्टरपंथियों ने पूरी गली धुलवायी थी। रानीमंडी को नगर का ज्वलन बिंदु (इग्नीशन प्वायंट) कहा जा सकता है। यह बिंदु किसी भी समय गंगा-जमुनी संस्कृति का उत्कृष्टतम और निकृष्टतम उदाहरण पेश कर सकता है। विजयदशमी पर मुसलमान पौराणिक चौकियों की झांकी देखने के लिए पंक्तिबद्ध खड़े नज़र आयेंगे, भगवान राम के रथ का श्रृंगार भी मुसलमान कारीगर ही करेंगे तो हिंदू परिवार भी उसी निष्ठा से अलम और दुलदुल पर श्रद्धा सुमन चढ़ाते देखे जा सकते हैं। मुहर्रम पर मंदिर के आकार के ताज़िए उठेंगे। साल में दो बार रानी मंडी की नालियों का रंग सुर्ख हो जाता है-बकरीद, पर जब घर-घर कुर्बानी के बकरों की बलि दी जाती है या जब फागुन में होली की बहार आती है। विजयदशमी पर उल्लास का वातावरण होता है और मुहर्रम पर मर्सियाख्वानी, सोज़ाख्वानी, नौहाख्वानी और मातम के बीच जूलूस उठते हैं। मगर शहर पर जब फितनों का भूत सवार होता है तो दंगे का पहला पत्थर भी इसी मुकाम से उठता है। यकायक बम और कट्टों का आतंक छा जाता है। शहर को फिर कर्फ्यू की ज़द में आने में देर नहीं लगती। कब अनिश्चितकाल के लिए बाज़ार बंद हो जाए, इसका भरोसा नहीं रहता। शायद यही कारण था कि हम लोग थोक में राशन की खरीद करते, राशन की ही नहीं दारू की भी। इलाहाबाद में जब-जब कर्फ्यू लगा है, लंबे अर्से के लिए लगा है। जब सारा शहर एकदम शांत हो जाता तब इस थाना क्षेत्र से कर्फ्यू हटाया जाता। रानी मंडी में तमाम असंगतियों और अंतरर्विरोधों के बीच गंगा-जमुनी संस्कृति विकसित और संकुचित होती रहती है। एक ओर हर-हर महादेव का सिंहनाद और दूसरी तरफ अल्लाह ओ अकबर का गर्जन। एक ओर स्लीवलेस ब्लाउज़ और दूसरी तरफ बुर्के ही बुर्के, ऐसी नकाबपोशी कि माशूक का दीदार हासिल करने में पसीने छूट जाएँ। मगर आशिक लोग भी ग़ज़ब की निगाह रखते है, माशूक को कद-काठ और चाल-ढाल से न पहचान पायें तो एड़ी की सुर्खी से पहचान जाएंगे।
रानी मंडी की जिस ऐतिहासिक इमारत में हम लोगों ने तीस बरस बिताए, हमारा मकान इस घनी मुस्लिम बस्ती का आखिरी मकान था। हमारे अगल-बगल और आगे-पीछे मुस्लिम बस्ती थी। ठीक सामने उर्दू के साहित्यिक मासिक पत्र ‘शबखून' का कार्यालय था व्यास सम्मान से सम्मानित जनाब शमसुर्रहमान फारूकी इसके संपादक हैं। चूंकि यह स्थान शहर के बीचों-बीच था, हिंदी-उर्दू का कोई भी रचनाकार अथवा अदीब खरीददारी के लिए चौक आता तो हमारे यहां ज़रूर चला आता। हिंदी के कुछ लेखक ऐसे भी थे, जो इस संवेदनशील गली में घुसने से डरते थे। एक बार चहल्लुम के रोज़ माकर्ण्डेय हमारे यहाँ फंस गये। उन्होंने मर्सियाख्वानी के बीच ऐसा मातम कभी न देखा था। जुलूस में नौहाख्वानी हो रही थी, मर्सिये पढ़े जा रहे थे, लोग जंजीरों से अपने को पीट रहे थे। बुर्कानशीन औरतें रो रही थीं। छाती पीटते हुए नबी के नवासों की शहादत की याद में ग़म का इज़हार किया जा रहा था। मार्कण्डेय जी यह सब देखकर सहम गए। उन्हें लगा अगर इस समय दंगा हो गया तो हम सब लोग मार दिये जाएंगे। हम लोगों के लिए यह एक सामान्य अनुभव था। हम लोगों के बच्चे भी जुलूस की तर्ज़ पर घर में छाती पीटते। बच्चों को छाती पीटने को चस्का लग गया था। वे छाती पीटते, स्कूल जा रहे हों या स्कूल से लौट रहे हों। खाली समय में बच्चों को और कुछ न सूझता तो छाती पीटने लगते।
रानी मंडी में छापेखाने और घर के शोर शराबे से थोड़ा हटकर मैंने नीचे अपना एक अलग ‘डेन' बनवा लिया था। मेरा लिखने पढ़ने, सुस्ताने और संगीत सुनने का यह एक आश्रमनुमा कमरा था। चौक में रहने के नुकसान तो कई थे मगर एक लाभ भी था। कहीं आने-जाने की ज़्यादा ज़रूरत महसूस नहीं होती थी। सब मित्रों से घर बैठे-बैठे मुलाकात हो जाती थी, मुलाकात ही नहीं कभी-कभी मुक्कालात भी। शायद ही कोई शाम मैंने अकेले बितायी हो। धीरे-धीरे मेरा ‘डेन' रचनाकारों का अखाड़ा बन गया, शाम घिरते-घिरते वह कॉफी हाउस और ‘बार' में तब्दील हो जाता। कई बार लगता कि किसी डेरेदारनी (खानदानी तवायफ़) की तरह मेरी दुनिया घर की दरोदीवार में महदूद होती जा रही है। मैंने आश्रम का नाम बदलकर कोठा रख दिया। वैसे भी रानी मंडी एक ज़माने में तवायफ़ों का मुहल्ला था। गली मुहल्ले के बुज़ुर्गों ने बताया था कि सदी के शुरू के वर्षों में इस हवेलीनुमा घर में भी शहर के सबसे बड़े रईस की रख्ौल रहा करती थी। मकान की वास्तुकला से भी इस बात की ताईद होती थी। बड़ी-बड़ी मेहराबें थीं और ऊँची-ऊँची बिना ग्रिल की खिड़कियाँ। फर्श छत से भी ज्यादा पुख्ता थे, घुंघरुओं की गूँज तक सुनाई पड़ती होगी। स्वाधीनता आंदोलन में हुस्नाबाई जैसी बहुत सी तवायफों ने सक्रिय भूमिका निभाई थी। हो सकता है, रईस की मौत के बाद उसकी रखैल के भीतर देश प्रेम की भावना ने ज़ोर मारा हो और उसने यह इमारत ‘अभ्युदय' निकालने के लिए महामना को दे दी हो इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता मगर सोचने में क्या हर्ज़ है?
मुझे उर्दू की एक कहानी याद आ रही है-सिंगारदान। दंगे में एक शख्स किसी तवायफ़ के यहाँ से सिंगारदान उठा लाता है। कुछ दिनों बाद उस सिंगारदान का साया पूरे घर पर पड़ने लगता है। लड़कियां सिंगारदान के सामने खड़ी हो जाती हैं और तवायफों की तरह श्रृंगार करतीं, सिंगारदान में देखते हुए अनचाहे बालों की सफाई करती और घर के मर्द भड़ुओं की तरह गले में रूमाल बाँध कर गली में आवारागर्दी करते अथवा सीटी बजाते हुए सीढ़ियों पर बैठे रहते। दरअसल सिंगारदान की तर्ज़ पर हवेली का अतीत मेरी जीवन शैली को भी प्रभावित कर रहा था। मैं दिनभर बिना नहाये धोये किसी न किसी काम में मसरूफ़ रहता और तवायफों की तरह शाम को स्नान करता और सूरज ग़रूब होते ही सागरोमीना लेकर बैठ जाता। रानी मंडी में शाम को स्नान करने की ऐसी बेहूदा आदत पड़ी जो आजतक कायम है। सूरज नदी में डूब जाता, हम गिलास में।
रानी मंडी में स्थानीय साहित्यकारों का जमवाड़ा तो लगा ही रहता था, बाहर से कोई लेखकों आ जाता तो अच्छी खासी महफ़िल सज जाती। नामवर सिंह, भीष्म साहनी, कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, राजेर्न्द यादव, कमलेश्वर, अशोक वाजपेयी, ज्ञान, काशी ही नहीं नयी से नयी पीढ़ी के रचनाकार इस महफिल की शान बढ़ा चुके हैं। अखिलेश तो बी0 ए0 का छात्र था, जब उसका आना जाना शुरू हो गया था। सागर पार के अनेक लेखक इस अखाड़े में धूनी रमा चुके हैं।
370 रानी मंडी में हिंदी भवन का प्रेस और गोदाम था। नीचे प्रेस और ऊपर गोदाम। दीमक से बचाव के लिए नारंगजी ने गोदाम के कमरे की दीवारों पर तारकोल पुतवा रखा था। अगर बिजली न जलायी जाए तो पूरा कमरा डार्करूम लगता था। ज़ीने पर चमगादड़ों का आशियाना था। उनकी शान्ति भंग होती तो वे चीत्कार सा करते। देखने पर लगता था कि यहाँ या तो चमगादड़ रह सकते हैं अथवा भूत प्रेत। कोई आश्चर्य नहीं दोनों में गहरी छनती हो । मुझे सीढ़ियाँ चढ़ते डर लगता था। किताबों के ढेर के बीच एक ज़ीरो पावर का बल्ब टिमटिमाता रहता था जो वातावरण को और अधिक डरावना बना देता था। किसी हॉरर फिल्म की शूटिंग के लिए वह एक आदर्श लोकेशन थी।
उन दिनों मैं अश्कजी के यहाँ रहता था, मगर वहाँ आखिर कब तक रहा जा सकता था? मुझे चमगादड़ों और भूत प्रेतों के बीच ही अपने लिए स्थान बनाना था। नारंगजी ने गोदाम खाली कर दिया तो कमरों का सन्नाटा और दहशत पैदा करने लगा। मैंने कमरों की पुताई करवा दी मगर तारकोल के ऊपर चूना ठहर ही न पाता था। जगह जगह चूने के अमूर्त्त धब्बे डाइनों की तरह वातावरण की दहशत को चार चाँद लगाने लगे। मैंने कमरों की रगड़ रगड़ कर सफ़ाई करवायी मगर कमरों की मनहूसियत बरकरार रही। मैं मानसिक रूप से अपने को इस माहौल में रहने के लिए तैयार करने लगा। इससे पहले मुम्बई में मैं एक तथाकथित भुतहे बंगले में रह आया था। उस बंगले के माहौल में कहीं प्रत्यक्ष मनहूसियत न थी। अगर ओबी अपने मनोबल पर समुद्र किनारे उस भुतहा बंगले में रह सकता था तो इस आबाद बस्ती में मैं क्यों नहीं रह सकता। ज्ञानरंजन मुझे प्रोत्साहित कर रहा था और वह कुछ दिन मेरे साथ रहने को भी तैयार था। वह कुछ दिन रहा भी। उन्हीं दिनों हम लोगों ने तय किया कि हाउस वार्मिंग पार्टी का आयोजन किया जाए।
ज्ञानरंजन, दूधनाथ और नीलाभ तो थे ही एक दिन अचानक बनारस से काशीनाथ सिंह और रामधनी भी चले आये। रामधनी भी कभी ‘टाइम्सग्रुप' के ‘दिनमान' में था और उसकी विचारोत्तेजक टिप्पणियों ने ध्यान आकर्षित किया था। एक दिन अचानक उसने इस्तीफा दे दिया था और नक्सलवाद की शरण में चला गया था । उन दिनों काशी पर भी नक्सलवाद का प्रभाव था। रामधनी के तेवर अत्यन्त क्रान्तिकारी थे और वह इस मुद्रा में काशी के साथ प्रकट हुआ था जैसे हर चौराहे पर पुलिस ने उसे पकड़ने के लिए जाल बिछा रखा हो।
शाम को उन्हीं काली दीवारों के साये में ‘हाउस वार्मिंग पार्टी' का आयोजन किया गया। ऐन मौके पर पता चला कि तमाम बल्ब फ़्यूज हैं या नारंगजी उतार कर ले गये हैं। किसी तरह एक चालीस वाट्स के बल्ब की व्यवस्था हुई। उस की रोशनी में दीवारें और भी भुतहा लगने लगीं। बाहर आंगन में एक तख्त था, तय हुआ मुक्तांगन में कैण्डल लाइट में पार्टी की जाए। बड़ी जोड़ तोड़ के बाद दो बोतल रम का इंतजाम किया गया था। भोजन के लिए लोकनाथ से पूड़ी आदि मंगवाने की योजना थी।
बाज़ार से चार छह काँच के सस्ते गिलास मँगवाये गये और बोतल खुल गयी। ‘चियर्स' के साथ ही कहानी, समाज और राजनीति पर धुआंधार बहस शुरू हो गयी। शेरो शायरी हुई, लतीफे हुए। दस बजे तक दूसरी बोतल खुल गयी। ज्ञान लोकनाथ जाने के लिए मचलने लगा। उन दिनों ज्ञान लोकनाथ का दीवाना था- कभी बीच में समोसा खा आता और कभी कुल्फी। वही लपक कर पूड़ी कचौड़ी, दम आलू जो कुछ भी मिला बंधवा लाया। उसकी पीने में कम खाने में ज़्यादा रुचि रही है।
रामधनी की खाने में कोई दिलचस्पी न थी वह अन्याय, शोषण, गैरबराबरी और सशस्त्र क्रान्ति पर लगातार भाषण दे रहा था और किसी को ‘बुर्जुआ' किसी को ‘इजारेदार' किसी को ‘एजेंट प्रोवोकीटियर' का खिताब बाँट रहा था। उसने खाली पेट चार पाँच पैग गटक लिए थे। हम लोग भी मस्ती में आ गये थे और ऊधम मचा रहे थे। रामधनी बात करते करते अचानक खामोश हो गया और तख्त पर लेट गया। कुछ देर बाद हम लोगों ने देखा कि ज़मीन गीली हो रही है। मोमबत्ती नज़दीक लेजाकर देखा तो पाया कि उसके मुँह से नल की टोंटी की तरह पानी जैसा तरल पदार्थ लगातार लार की तरह टपक रहा था। नीलाभ ने उसकी नब्ज़ देखी, बहुत धीमे चल रही थी। भोजन के साथ अचार के कुछ टुकड़े भी आये थे। ज्ञानरंजन ने उसके मुँह में अचार का एक टुकड़ा खोंस दिया जो फूल की तरह अटका रहा। दूधनाथ ने कहीं से खोजकर चूने से लिपी पुती एक छोटी सी बाल्टी चिलमची की तरह तख्त के नीचे रख दी। रामधनी करवट के बल लेटा था और धीरे धीरे बाल्टी में स्राव की पतली धार गिरने लगी। उस स्राव को उल्टी या कै की संज्ञा भी नहीं दी जा सकती थी, क्योंकि यह स्राव बगैर किसी प्रयत्न के स्वतः स्फूर्त था। हम लोग सशंकित हो गये कि कहीं कोई हादसा न हो जाए । रात के बारह बज चुके थे। आसपास के किसी डाक्टर का नाम पता भी मालूम न था। रामधनी की आँखों पर पानी के छींटे दिये गये मगर उसकी स्थिति यथावत बनी रही। खतरा पैदा हो गया था कि कहीं पूरी पार्टी शोक सभा में न तब्दील हो जाए। काशी ने अपने खास अन्दाज़ में खैनी फटकते हुए कहा, ‘भोंडसी वाले क्रांन्ति करने निकले हैं।' जिसको जितने टोटके मालूम थे, सब इस्तेमाल कर देख लिए। काशी की गालियों का भंडार खत्म हो चुका था और वह अब पुनरावृत्ति पर उतर आया था। हम सब लोग डर गये थे, मगर सामूहिक डर उतनी घबराहट नहीं पैदा करता।
चाँदनी रात थी। रम का नशा था। लोकनाथ का भोजन था। पुरवैया बह रही थी। सब की आँखों में नींद थी, मगर रामधनी सब को जगा रहा था। काई मुंडेर पर लेट गया, कोई कुर्सी पर ढीला हो गया। काशी को जब कुछ नहीं सूझता तो दातौन करने लगता है। पड़ोस में एक नीम का पेड़ था जिसकी शाखाएँ आँगन पर झुकी हुई थीं। काशी ने उछल कर दातौन का जुगाड़ कर लिया। नीलाभ बार बार रामधनी की नब्ज़ देख कर रामधनी के हेल्थ बुलेटिन का प्रसारण कर रहा था। लोग बीच बीच में झपकी ले रहे थे। छोटे बच्चे जैसे मुँह में अँगूठा लिए सो जाते है काशी दातौन लेकर सो गया। ज्ञानरंजन ने उसके मुँह से दातौन निकाल कर फेंक दी और टहलने लगा। उन दिनों भी उसे टहलने का रोग था। उसे बैठने के लिए कोई जगह नहीं मिल रही थी। वह भी थक हार कर मुँडेर से पीठ सटाकर सुस्ताने लगा।
धूप निकल आयी थी, जब हम लोगों की आँखें खुलीं। इस बीच रात में किसी समय होश आने पर रामधनी ने दातौन के ‘टंग क्लीनर' से तालू पर दबाव बना कर जी भर कर कै कर ली थी। छोटी सी बाल्टी चौथाई से ज़्यादा भरी हुई थी और उसी तरल पदार्थ में छोटी सी दातौन तैर रही थी। रामधनी ने बाल्टी को अखबार के काग़ज़ से ढंक दिया था। अखबार के काग़ज़ का एक कोना उस गाढ़े द्रवीभूत पदार्थ में लिपटा रह गया था, शेष काग़ज़ बाल्टी के ऊपर परचम की तरह फहरा रहा था। सुबह जब मेरी नज़र रामधनी पर पड़ी तो वह अपनी तिरछी आँखों में धीरे धीरे शर्माते हुए मुस्करा रहा था, जैसे छोटे बच्चे रात को बिस्तर गीला करने के बाद अपनी माँ की तरफ देखा करते हैं। बीच बीच में ऐसे झंझावात आते हैं कि बड़े से बड़ा शराबी शराब से तौबा कर ले। मैंने अपने लम्बे शराबी जीवन में ऐसी धारावाहिक लयबद्ध कै न देखी थी।
वास्तव में शराब और कै का चोलीदामन का साथ है। कै के अनेक रूप होते हैं। चाहते या ना चाहते हुए भी पीने वालों को अनायास ही उसका दीदार हासिल हो जाता है। सबसे खूबसूरत कै वह होती है जो ‘स्पांटेनियस ओवरफ़्लो' की तरह निःसृत होती है। इसे स्वतःस्फूर्त कै की संज्ञा दी जा सकती है। कई शराबी इस तरह से कै करते हैं जैसे उन्हें हैजा हो गया हो। यानी वे थोडे़-थोड़े अंतराल के बाद कै करते हैं। रामधनी की कै भी देखी थी जो धीरे-धीरे रिसती है, जैसे नल की टोंटी खुली रह गई हो और सबसे बुरी कै तो वह होती है जिसमें शराबी को इतना होश न रहे कि वह कै में इस प्रकार लथपथ हो रहा है जैसे सुअर गंदे नाले में। हो सकता है कै के कुछ और प्रकार भी हों, मगर मेरा अनुभव मोटे तौर पर संक्षेप में यही है। लोग तो शराब पीकर कै करते हैं मैंने तो अपने शराबी जीवन के प्रारम्भिक दौर में बीयर पी कर ही कै कर दी थी। सन् बासठ तिरसठ की बात है। वाकया दिल्ली का है। उन दिनों केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय का नया-नया गठन हुआ था, गठन तो हो चुका था, अब विस्तार हो रहा था। जिस रफ़्तार से भर्ती हो रही थी, दफ़्तर में काम उतना नहीं था। हम लोग काम की प्रतीक्षा कुछ इस प्रकार करते थे, जैसे वेश्याएँ ग्राहक की प्रतीक्षा करती हैं । हफ़्तों कोई काम ही नहीं होता था। सरकारी प्रेसों को साहित्यिक पत्रिका छापने की फुर्सत नहीं थी। जब मैं ‘भाषा' से सम्बद्ध हुआ तो एक वर्ष पहले के अंक प्रेस में थे। हफ़्तों कोई काम ही नहीं होता था। कहानी लिखने का सही चस्का मुझे उसी कार्यालय में लगा। चतुर्वेदी जीनियस था, मगर भटका हुआ। दफ़्तर में बैठे बैठे वह दिनभर में दर्जनों कविताएँ लिख लेता। उन दिनों दिल्ली में बेकार लेखकों की अच्छी खासी फौज थी। कुछ लेखक नयी सड़क जाकर गुज़ारे लायक प्रूफ संशोधन का काम कर आते। कोई हनुमान चालीसा लिखकर गुज़ारा चलाता कोई पाठ्य पुस्तकें लिखकर। ज़्यादातर बेकार लेखक अपने को फ्री-लांसर कहते थे। कुछ अनुवाद के काम से पेट पाल रहे थे। नामी गिरामी लेखक दूतावासों और बड़े प्रकाशकों से अपने नाम पर अनुवाद लेते और कलम के दिहाड़ी मज़दूरों से अनुवाद कार्य करवाते। कुछ सम्भ्रान्त किस्म के बेरोज़गार थे, उन्हें देखकर लगता ही नहीं था कि वे बेरोज़गार हैं। मैं आज तक नहीं जान पाया कि उनका ज़रिया माश क्या था। वे स्कूटर पर चलते, बार में बियर पीते और किंग साइज़ की सिगरेट फूँकते। उनकी पीठ पीछे कोई उन्हें रूसी तो कोई अमरीकी एजेंट कहता, कुछ लेखकों का मत था कि वे गृह मन्त्रालय के लिए लेखकों की खुफ़ियागीरी करते हैं । भगवान जाने क्या सच था क्या झूठ। इतना ज़रूर है, ऐसे लेखकों की आज भी तादाद कम नहीं।
केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय में सुबह से ही हमारे कार्यालय में संघर्षशील फ्रीलांसरों की आमदोरफ़्त शुरू हो जाती। ‘भाषा' से पारिश्रमिक अवश्य मिलता था, मगर रचना प्रकाशित होने से पूर्व पारिश्रमिक के भुगतान की व्यवस्था न थी। फ्रीलांसरों की दिलचस्पी ऐसी पत्रिका में छपने की शून्य के बराबर थी। फ्रीलांसर लेखकों को तुरन्त भुगतान चाहिए, चाहे आधा ही क्यों न मिले। अगर किसी दिन लेखक लोग न आते तो मैं और चतुर्वेदी एम0 एल0 ओबराय के कमरे में जा बैठते। उनका कमरा स्टूडियोनुमा था । वह कलाकार थे। उन्होंने ‘नदी के द्वीप' के प्रथम संस्करण का रैपर डिज़ाइन किया था। दफ़्तर में उनके पास भी काम नहीं था। सरकारी कायदे कानून की उन्हें बहुत जानकारी थी। वे सरकारी कार्यप्रणाली की विसंगतियों के बारे में विस्तार से बताते। हर अधिकारी का कच्चा चिट्ठा उनके पास था। दफ़्तर में महिलाएँ भी काम करती थीं और ओबेराय साहब को पता रहता था कि कौन महिला किस अफ़सर की गाड़ी में देखी गयी। दफ़्तर में काम नहीं था, मगर हर वर्ष नियुक्तियाँ होती रहती थीं। कुछ दिनों बाद के0 खोसा भी कला विभाग में शामिल हो गये। बाद में खोसा ने खूब यश और धन कमाया। वह खानदानी कलाकार था। उसके पिता भी कलाकार थे, परन्तु वह केवल गाँधीजी के चित्र बनाते थे। एक बार कमलेश्वर ने ‘नयी कहानियाँ' में कहानी के साथ छपने के लिए मेरा चित्र माँगा। मेरे पास चित्र नहीं था। मुझे चित्र खिंचवाने से कहीं बेहतर यह लगा कि उस पैसे से कॉफी हाउस में कॉफी पी जाए। के0 खोसा ने दफ़्तर में मेरा स्केच बनाया और वही मेरी कहानी के साथ छपा।
जेठ की तपती दोपहरी में एक दिन किसी पत्रिका से मेरा और जगदीश चतुर्वेदी का मनीआर्डर से एक साथ पारिश्रमिक आ गया। हम लोगों की जेबें हमेशा की तरह खाली थीं और लिखने पढ़ने में भी मन न लग रहा था। पैसा मिलते ही दोनों की जड़ता टूटी।
‘बियर पिये एक युग बीत गया है।' जगदीश चतुर्वेदी ने सहसा सुझाया, ‘चलो आज दफ़्तर के बाद बियर पी जाए।'
‘मगर कहाँ ?' मैंने पूछा। उन दिनों बियर तो बाज़ार में उपलब्ध थी, मगर सार्वजनिक स्थान पर पीने पर प्रतिबन्ध था। हम लोग शाम भी कनाट प्लेस में बिताना चाहते थे। घर जाकर लौटना संभव नहीं था। जगदीश ने सुझाया कि रीगल से बियर लेते हैं और टी-हाउस के पीछे हनुमान लेन के मैदान में पेड़ की छाया में पी लेंगे।
‘गिलास कहाँ से आएँगे?'
‘गिलास में कौन पीता है। बोतल खोलेंगे और पी जाएँगे।'
मेरा सड़क पर पीने का कोई अनुभव नहीं था। कोई सुरक्षित ठिकाना भी मालूम नहीं था। आये दिन समाचार पत्रों में इस प्रकार के समाचार भी पढ़ने को मिल जाते थे कि सार्वजनिक स्थान पर मदिरापान करते हुए इतने आदमी हिरासत में लिए गये।
दफ़्तर के बाद हम लोगों ने इसी योजना के अधीन रीगल से बियर की दो बोतलें खरीद लीं, ओपनर उन दिनों मुफ़्त मिल जाता था। हम लोग हनुमान लेन की ओर चल दिये। हनुमान लेन पर उतना सन्नाटा नहीं था, जितना जगदीश समझता था। उन दिनों बलवंत गार्गी भी कनाट प्लेस की किसी लेन में रहते थे। अपने पंजाबी और उर्दू के दोस्तों के साथ कई बार उनके घर का इस्तेमाल ‘बार' की तरह किया था, मगर मैं अकेला कभी नहीं गया था। बहरहाल अपेक्षाकृत एक सुनसान जगह पर पेड़ की आड़ में हम लोगों ने बोतलें खोलीं। झाग का फव्वारा फूट निकला। गाढ़ी कमायी की एक भी बूँद नष्ट हो इससे पहले ही हम लोग शंख की तरह मुँह में बोतलें लगाकर गटागट पी गये। हम लोगों से ज़्यादा बीयर हमारे भीतर जाने को उतावली हो रही थी। हम लोग जब तक सांस रोक सकते थे, लम्बे लम्बे घूँट भरते रहे। लग रहा था, अभी कोई सिपाही पीछे से कंधों पर धौल जमा देगा। डर के मारे चार छह सांस में ही आधी आधी बोतल गटक गये। इसके बाद चारों ओर नज़र घुमा कर जायज़ा लिया और ज़्यादा से ज़्यादा बियर पेट में भर ली।
‘जानते हो हम लोग सरकारी कर्मचारी हैं। पकड़े गये तो नौकरी भी जा सकती है।' जगदीश ने कहा और दुबारा यही एक्सरसाइज़ शुरू कर दी। उसकी आँखे बाहर निकल आयी थीं। यही हालत मेरी थी। पेट फूलकर कुप्पा हो गया था। खाली बोतलें हम जितनी दूर फेंक सकते थे फेंक दीं। दूर-दूर तक किसी सिपाही का नामोनिशान नहीं था। हम लोग वहाँ से हटते कि दोनों के मुँह से पिचकारी की तरह बियर का फौव्वारा फूट निकला। एक तरफ़ मैं और दूसरी तरफ़ जगदीश बियर से पेड़ की सिंचाई करने लगे। हम लोगों ने जितनी जल्दबाज़ी में बियर पी थी, उससे कहीं अधिक वेग से वह बाहर निकल रही थी स्वतःस्फूर्त कविता की तरह। पेड़ नशे में झूमने लगा और हम लोग आँख, नाक, मुँह पोंछते हुए वहीं पास के एक बेंच पर बैठकर सुस्ताने लगे। कुछ ही फासले पर बियर की खाली बोतलें पड़ी थीं और हमें मुँह चिढ़ा रहीं थीं।
यह कहना गलत न होगा, जहाँ कुछ लेखक इकट्ठे होंगे, वहाँ तकरार तो होगा ही, कै भी हो सकती है। यह समुदाय ही ऐसा है कि दोस्तों के मिलते ही कदम अनायास ही खराबात की तरफ़ उठने लगते हैं। शायद ही कहीं कोई ऐसी गोष्ठी हुई हो, जहाँ गोष्ठी का समापन मद्यपान से न हुआ हो। यहाँ मुझे पटना का एक ऐसा ही साहित्यिक समारोह याद आ रहा है। सन् सत्तर के आस पास की बात होगी। पटना में एक विराट साहित्यकार सम्मेलन का आयोजन हुआ था। देश भर से कवि, कथाकार, समीक्षक आमंत्रित थे। लगता था सम्मेलन का आयोजन किसी धन पशु के सहयोग से ही हुआ होगा, क्योंकि सिर्फ़ धनपशु मवेशियों की तर्ज़ पर रचनाकारों का मेला आयोजित कर सकते हैं। पटना रुकने वाली प्रत्येक गाड़ी से लेखकों का हुजूम उतरता। सन् साठ के बाद की तो पूरी पीढ़ी आमंत्रित थी। गद्य और मद्य की अनूठी काकटेल थी। प्रत्येक सत्र के बाद लेखक लोग अपनी रुचि के अनुकूल मदिरापान कर रहे थे। शाम को गोष्ठियों के बाद तो जैसे बीसवीं शताब्दी के स्वर्णकाल का उदय हो जाता था। जगह जगह कमरों मे महफिलें सजतीं। कभी सामूहिक और कभी छोटे-छोटे ग्रुपों में। एक बड़े हाल में ज्ञानरंजन के नेतृत्व में कीर्तन चल रहा था ः
बम भोलेनाथ ! बम भोलेनाथ
हम चलेंगे साथ, ले के हाथ में हाथ
तेरी बहन के साथ
बम भोलेनाथ !
जानी आओ अन्दर में
कोई नहीं है मन्दिर में
साधु संत सब सोये पड़े हैं
भोलेनाथ ! बम भोलेनाथ
ज्ञानरंजन की कहानियों की ही तरह उसका एक और कीर्तन पटना में झटपट लोकप्रिय (इंसटेंट हिट) हो गया था ः
बेर से हते बेर से हते
मल मल के भये सवा सेर के
लग रहा था कि साठोत्तरी पीढ़ियाँ लुच्चई और लफंगयी पर उतर आयी हैं। कुमार विकल बीसियों कवियों कथाकारों के बीचों बीच बैठा था। वह नशे में धुत्त था और झूमते हुए समूहगान की टेक छेड़ रहा था ः
सारीयाँ बीबियाँ आइयाँ
हरनाम कौर न आई ।
कुमार के अनुगमन में पूरा समूह भक्तिभाव से दोहराता ः
सारीयाँ बीबियाँ आइयाँ
हरनाम कौर न आई।
इस समारोह के बाद रचनाकारों इतना विराट सम्मेलन न हुआ होगा जहाँ, इतनी अधिक संख्या में कथाकार, कथालेखिकाएँ, कवि और कवयित्रियाँ इकट्ठी हुई हों। यशःप्रार्थी लेखक लेखिकाएँ अपनी नयी पुस्तकों की प्रतियाँ साथी लेखकों को फराखदिली से भेंट कर रहे थे। एक स्वामधन्य मधुरकण्ठा कवयित्री यानी गायिका ने कुमार विकल को आदरपूर्वक अपनी कविताओं का नया संकलन भेंट किया। कुमार उस समय तीसरी मंजिल की सीढ़ियों के मुहाने पर खड़ा था। उसने ज़ोर ज़ोर से पुस्तक में से एक गीत पढ़ा। गीत इतना लिजलिजा था कि वह अचानक उसकी पैरोडी करने लगा। जब पैरोडी से भी उसकी तसल्ली न हुई तो पुस्तक की चिन्दी-चिन्दी करके सीढ़ियों पर फेंकने लगा। सारी इमारत में कविताओं के पतंग उड़ने लगे। कवयित्री तो पैरोडी सुनते ही वहाँ से हट गयी और रिक्शा में सवार हो तमतमाते हुए अपने डेरे लौट गयी थी। वास्तव में कुमार का इरादा पुस्तक का निरादर करने का नहीं था, मगर कूड़ा लेखन के प्रति एक आक्रोश ज़रूर था जो शालीनता और साहित्यिकता की सीमाओं का अतिक्रमण कर गया था। बाद में सुनने में आया कि उस कवयित्री ने साहित्य का दामन हमेशा हमेशा के लिए छोड़ दिया और विवाह कर लिया।
उस सम्मेलन में इलाहाबाद से भी बहुत से लेखक पधारे थे। ज्ञान, दूधनाथ, जमाली, मैं, ममता और भी बहुत से लेखक । ममता ने भी इससे पूर्व ऐसा अराजक माहौल न देखा था, वह घबरा रही थी। नतीजतन लेखिकाओं ने अपनी अलग टोली बना ली थी और वे लेखकों से दूर दूर ही रहती थीं। एक कमरे में अलग से उनकी गोष्ठी चलती रहती। तमाम लेखिकाएँ एक झुण्ड में साथ साथ निकलतीं।
रात को जब हम लोग भोजन कर के लौटे तो ख़याल आया कि सतीश जमाली दोपहर से दिखायी नहीं दिया। अचानक उसकी चिन्ता हो गयी और हम लोग उसकी तलाश में जुट गये। कई लोगों से पूछताछ की गयी। किसी ने बताया कि रात को दिखायी दिया था, किसी ने कहा, सुबह नाश्ते पर देखा था, किसी ने जड़ दिया कि वह दारू की जुगाड़ में निकला है। एक कर्मचारी ने रटा रटाया जवाब दिया कि वह पटना साहब के दर्शन करने गये हैं। प्रत्येक पूछताछ का उसके पास यही टकसाली जवाब था। हम लोग एक एक कमरे में झांकने लगे। आखिर वह एक कमरे में मिल ही गया। दरवाज़ा खोलते ही कमरे से बू का भभका उठा । कमरे के बीचों बीच वह बेसुध पड़ा था। उसकी आँखें बंद थी और वह निश्चेष्ट पड़ा था। कै कर कर के उसने पूरा कमरा भर दिया था। उसके तमाम कपड़े कै से लथपथ थे। किसी की हिम्मत न हुई उसे छूकर देख ले। हम लोग तमाशाइयों की तरह नाक पर रूमाल रख कर खड़े थे। कोई मदर टेरेसा ही उसकी देखभाल कर सकती थी। तभी ममता भी अन्य लेखिकाओं के साथ आ गयी और तमाम लेखिकाएँ बिना कोई परहेज़ के उस की तीमारदारी में जुट गयीं। सब ने संकोच छोड़ कर उसे घसीटकर कै के तालाब से बाहर किया। उसका मुँह धोया और एक नवजात शिशु की तरह उसका टावल बाथ कराया जाने लगा। लग रहा था प्रत्येक स्त्री में एक जन्मजात नर्स छिपी रहती है। मुझे काफ़ी शर्म महसूस हो रही थी कि हम लोग चुपचाप खड़े हैं और ये स्त्रियाँ आनन फानन में काम में जुट गयी हैं। मैं लपककर इलेक्ट्राल और डिटॉल ले आया। उसकी नब्ज़ चल रही थी, मगर बहुत धीमी गति से । महिलाओं ने देखते देखते उसके कपड़े बदल डाले। फर्श डिटॉल से धो दिया। यह ग़नीमत थी कि वह अपने कमरे में ही था, वर्ना उसके कपड़े और तौलिया वगैरह ढूँढने में बहुत दिक्कत आती। सारी रात जमाली की सेवा में गुज़र गयी।
सुबह सुबह जब मुर्गे ने बाँग दी तो सतीश जमाली ने अपनी आँखें खोलीं। उसकी चेतना लौट रही थी मगर वह बहुत कमज़ोरी महसूस कर रहा था। उसे कुछ याद नहीं था, उसके साथ यह हादसा कैसे हुआ। उसने बताया कि उसे यहाँ का भोजन पसन्द नहीं आया था और दो दिनों से निरन्न पी रहा था। देखते-देखते सब लेखक उसकी सेवा में लग गये। शराब लेखकों के साथ जैसा भी सुलूक करे मगर जब कोई शराबी मुसीबत में होता है सब शराबी एक हो जाते हैं। जाम टकराते ही एक अनाम रिश्ता कायम हो जाता है। इसी को हम प्याला और हम निवाला दोस्ताना कहते हैं।
इस हादसे के बाद मैंने सोचा था कि अब कभी जमाली शराब मुँह को नहीं लगायेगा, मगर जमाली पक्का रिंद निकला। स्वस्थ होते ही उसने दोस्तों के बीच पार्टी की मुनादी पीट दी। मुझे यकीन नहीं आ रहा था फोन पर उसकी आवाज़ सुनकर वह अपने पुराने अन्दाज़ में आमंत्रित कर रहा था कि यार बहुत दिन हो गये थे कलेजा ठंडा किये आना ज़रूर।
कभी न कभी हर शराबी कै करता है। मैं भी अपवाद नहीं था। भाग्यशाली ज़रूर था कि बहुत कम कै की। अशोभनीय स्थितियों से गुज़रना पड़ा। मैंने गिनती की कै की होगी, वह भी उन दिनों, जब पीने में सरासर अनाड़ी था। इसे यों भी कहा जा सकता है कि एकाध कै जालंधर में ज़रूर की होगी, जिस का स्मरण नहीं है। एकाध दिल्ली में और शायद अन्तिम कै बम्बई में की होगी। हिसार में शराब पी ही नहीं थी, डट कर लस्सी पी थी। बम्बई में मेरा मेज़बान ओबी था, उसका भाग्य भी उसके साथ ‘सी-सा' का खेल खेलता रहता था यानी कभी वह अर्श पर होता था कभी फर्श पर। जब वह अर्श पर होता था तो स्कॉच पीता था और जब फर्श पर तो ठर्रा। शराब के मामले में वह अधर में ही रहता था यानी ठर्रे या स्कॉच की नौबत कम ही आती थी। उसे पार्टियाँ देने का चस्का था। जब भी उसकी जेब गर्म होती वह पार्टी ‘थ्रो' कर देता। उसकी पार्टी में मुम्बई की बड़ी-बड़ी हस्तियाँ शामिल होतीं- जैसे सुनील दत्त, नर्गिस, अंजू महेन्द्र और उसकी मा, विद्या सिन्हा, कुछ चुनिंदा उद्योगपति या बड़ी बड़ी कम्पनियों के प्रबन्ध निदेशक वगैरह। पार्टी देकर वह लुट जाता, सुबह उस की हालत एक फकीर से भी बदतर होती। जूते पालिश कराने लायक पैसे न होते। उसकी मौत पर मैंने एक संस्मरण लिखा था, जिसे पढ़कर कृष्णा सोबती ने फोन किया था, कि मैंने एक उपन्यास के स्टफ (सामग्री) को संस्मरण्ा में ढाल कर अन्याय किया है। कृष्णाजी का सुझाव मैं भूला नहीं हूँ। यह सुनकर कोई विश्वास नहीं कर सकता कि एक शाम पहले जिसके फ़्लैट के सामने देशी विदेशी कारों का जमघट लगा था, आज उसके पास सिगरेट खरीदने के लिए पैसे नहीं हो। ऐसी ही एक फाइव स्टार पार्टी में मैंने अत्यन्त सम्भ्रान्त किस्म की कै की थी।
ओबी ने पार्टी में मुझे मेहमानों के गिलासों पर निगाह रखने का काम सौंपा था कि किसी मेहमान का गिलास खाली न रहे, तुरन्त दूसरा गिलास भिजवाना मेरे जिम्मे था। एक तरह से ‘बार' मेरे अधिकार में था। उन दिनों ममता दिल्ली के दौलतराम कालिज में पढ़ाती थी और छुट्टी में मुम्बई आई हुई थी। इतनी बड़ी बम्बई में उसके पिता को मेरे घर के पास ही छोटा सा बंगला मिला था। उसी सड़क पर, कैडिल रोड पर समुद्र किनारे। मैंने अतिरिक्त उत्साहवश या यों कहिए मूर्खतावश ममता को भी पार्टी में आमंत्रित कर लिया। मुझे इस माहौल में देखकर वह सकपका कर रह गयी, मगर ग्लैमर से प्रभावित भी हो रही थी। वहाँ तमाम महिलाएँ भी मुक्तभाव से मदिरापान कर रही थीं। मुझे भी जीवन में पहली बार स्कॉच नसीब हुई थी। उसमें कड़ुवापन नहीं था, एक मोहक गंध थी, जिसे ‘फ्लेवर' कहा जा सकता है। पहला पैग शर्बत की तरह पी गया, जबकि लोग धीरे-धीरे घूँट भर रहे थे। किसी का गिलास खाली ही नहीं हो रहा था। ममता ने कभी बियर भी न चखी थी, मैंने ज़ोर जबरदस्ती से ममता के हाथ में भी एक पैग थमा दिया। उसने पहले सूँघा, फिर धीरे-धीरे सिप करने लगी। मैंने एक और गिलास उठा लिया। मुझे शायद प्यास लगी थी। मैंने दूसरा पैग भी दो एक धूँट में समाप्त कर दिया। पार्टी अपने शबाब पर थी। मेरी प्यास कुछ कम हो गयी थी, फिर भी जब कोई गिलास खाली होता, मैं अपना जाम भी बना लेता। मुझे कोई असर भी नहीं हो रहा था। हिन्दुस्तानी विस्की पीकर जो किक महसूस होती थी, वह स्कॉच में नदारद थी। ममता पहले पैग से ही जूझ रही थी, मैंने उसे एक ही घूँट में पी जाने की सलाह दी। कुछ देर बाद मुझे हल्का सा सुरूर हुआ। यह सुरूर बियर के सुरूर से भिन्न था । मैं इसे थोड़ा और ऊपर ले जाना चाहता था। अगले पैग ने तो जैसे चमत्कार कर दिया। मेरा सर घूमने लगा। कभी एकाध पैग से ज़्यादा पी नहीं थी, अब तो ‘सर जो तेरा चकराये' होने लगा। यकायक लगा जैसा पेट में पेट्रोल भर गया हो और बाहर आने को मचल रहा हो। पेश्तर इसके कि किसी को पता चलता, मैं चुपके से बाथरूम में घुस गया। अचानक मुझे जगदीश चतुर्वेदी के साथ पी बियर याद आ गयी और बियर का वह फौव्वारा। मैं वाश बेसिन पर झुक गया और उसका नल खोल दिया। नल से भी तेज़ रफ़्तार से स्कॉच बाहर आ गयी। स्कॉच निकल गयी थी, मगर नशा कायम था। मैंने जमकर आँखों पर पानी के छींटें मारे, मुँह धोया और संभलते ही कंघी कर बाहर आ गया। बाथरूम का नल मैं खुला छोड़ आया था, ताकि मेरी कारगुजारी का नामोनिशान मिट जाए।
हाल में खाना लग गया था। लोग अपनी-अपनी प्लेट लिए गुफ़्तगू में मशगूल थे। ममता भी हाथ में प्लेट लिए एक सोफे पर ऊँघ रही थी। मैंने अपनी प्लेट भी तैयार की, मगर दो एक कौर ही निगल पाया। सारे बदन पर अजीब किस्म का खुमार था। सोने की जबरदस्त इच्छा हो रही थी। महिलाएँ महक रही थीं, अदाएं दिखा रहीं थीं और अंगे्रजी हाँक रही थीं, पुरूष उनपर लट्टू हुए जा रहे थे और कमरा घूम रहा था। मैंने सुन रखा था कि कै के बाद आदमी सामान्य हो जाता है, उसका नशा हिरन हो जाता है, मगर मेरा नशा बरकरार था। मैंने घड़ी देखी, साढ़े ग्यारह बज चुके थे। मेरे ऊपर ममता को घर पहुँचाने की भी ज़िम्मेदारी थी। यह रास्ता पैदल भी तय किया जा सकता था, मगर मेरी उसके साथ जाने की इच्छा नहीं हो रही थी। उन दिनों बम्बई की कानून व्यवस्था बहुत अच्छी थी। आधी रात को भी अकेली लड़की टैक्सी में बेहिचक बैठ सकती थी। मगर दिल्ली की लड़कियों को विश्वास नहीं होता था। दिल्ली की टैक्सियों की बात क्या की जाए, बसों तक में खुलेआम छेड़खानी होती थी। मुझे मालूम था, ममता टैक्सी में नहीं जाएगी, वैसी भी मध्वर्गीय लड़कियाँ टैक्सी में चलना अपनी शान के खिलाफ समझती थीं, जाने किसने सिखा दिया था कि रात में केवल संदिग्ध चरित्र वाली लड़कियाँ ही टैक्सी में चलती हैं। ममता को केवल साठ पैसे की दूरी तक जाना था, उसने टैक्सी में बैठने से साफ़ इन्कार कर दिया। बाद में बारह बजे जब बस आई तो उसने उसमें बैठने से इन्कार कर दिया ‘हम नहीं जाएगा।' मैंने उसे लगभग सूटकेस की तरह उठा कर बस में रख दिया और कंडक्टर से कह दिया कि अगले स्टाप पर उतार दे। बस चलती इससे पूर्व मैं भी लपक कर चढ़ गया। कैडिल रोड पर हम लोग उतर गये। इमारतों के पीछे समुद्र ठाठें मार रहा था । ममता ने सुझाव दिया, कितना प्यारा मौसम है। चलो समुद्र किनारे टहलते हैं। वह नशे में थी। किसी तरह उसे घर के सामने छोड़ कर मैं पलट लिया। न चाहते हुए भी मुझे पदयात्रा करनी पड़ी।
उस दिन मैंने जीवन में दूसरी बार कै की थी, शायद अन्तिम बार। कै के और भी अनेक प्रसंग हैं, मगर यह पार्ट आफ द गेम है। मैं तो इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि कै करना कहीं अच्छा है, बजाए इसके कि यह कै लेखन के रूप में की जाए।
सन् अस्सी के आसपास जापान से लक्ष्मीधर मालवीय अपने जापानी परिवार के साथ पधारे थे। रानीमंडी के पास ही लोकनाथ में उनका पैतृक आवास था, मगर वह वहाँ नहीं ठहरे थे। वहाँ उनकी पूर्व पत्नी अपनी दो बच्चियों के साथ रहती थीं। लक्ष्मीधरजी से मेरा ग़ायबाना परिचय था, जो किसी भी लेखक का दूसरे लेखक के साथ होता है। उनका अन्न प्राशन, यज्ञोपवीत संस्कार और शिक्षा-दीक्षा इलाहाबाद में ही हुई थी और उनके सहपाठी मेरे भी मित्र थे, जैसे कन्हैयालाला नंदन, ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह वगैरह। एक दिन उन्होंने फोन पर मिलने के लिए समय माँगा। इलाहाबाद में किसी से समय माँगकर मिलने का दस्तूर नहीं था, बल्कि हर आदमी मानकर चलता था दूसरे लेखक के पास और कुछ हो न हो समय ज़रूर होगा। यह भी देखने में आया कि जो लेखक समय तय करके मिलना पसंद करता है, उससे कोेई मिलने ही नहीं जाता। मुझे लक्ष्मीधरजी का फोन बहुत अटपटा लगा। मैंने कहा, कभी भी चले आइऐ, मगर वह समय निर्धारित करने के बाद ही मिलना चाहते थे। मुझे लगा कोई बहुत कायदे कानून वाला लेखक इलाहाबाद आया है, जबकि मैं जानता था, वह इलाहाबाद की ही पैदावार हैं और इलाहाबाद की खाँटी लोकनाथ संस्कृति से ताल्लुक रखते हैं। इलाहाबाद में यह भी बताना शान के खिलाफ समझा जाता था कि आपके बाप दादा नामी गिरामी लोग थे। श्रीपतराय और अमृतराय पे्रमचंद के पुत्र के रूप में परिचित कराये जाने से अपमानित अनुभव करते थे। ज़ाहिर है लक्ष्मीधर ने भी महामना का नाम लेना मुनासिब न समझा। बहरहाल शाम के पाँच बजे मिलने का समय तय हुआ । यह दूसरी बात है पांच बजे का समय देकर मुझे पांच बजे तक प्रतीक्षा करना बहुत भारी पड़ा। उन्हें समझाया नहीं जा सकता था कि फ़कीरों से समय तय करके नहीं मिला जाता। जब तक मैं इलाहाबाद में रच-बस नहीं गया था, ममता मुंबई में नौकरी करती रही। जब तक वह इस्तीफा देकर इलाहाबाद लौटती, हमार घर फकीरों का डेरा बन चुका था। भिक्षाटन के बाद शाम तक तमाम फ़कीर मेरे यहाँ चले आते, फ़कीरों का मेला लग जाता। शराब के नशे में हम सामूहिक रूप से बेगम अख्तर की आवाज में ये पंक्तियां बार-बार सुनते ः
किसी दिन इधर से गुज़र कर कर तो देखो
बड़ी रौनकें है फकीरों के डेरे में ।
दूधनाथ सिंह ने अंधकाराय नमः करते हुए ऐसे फकीरों को जोगियों के रूप में चित्रित किया है। जोगी ओर फकीर संप्रदाय में थोड़ा सा अंतर था।जोगी लोग इश्के-हक़ीक़ी में विश्वास रखते थे और फकीर इश्के-मजाज़ी में।
लक्ष्मीधर निर्धारित समय पर पधारे। वह अत्यंत औपचारिक रूप से बातचीत कर रहे थे, जैसे जापान और भारत के राजनयिकों के बीच बातचीत हो रही हो। मुझे औपचारिक बातचीत की तमीज़ है न आदत, मेरी इच्छा हो रही थी कि बात करते-करते अचानक उनके कंधे पर धौल जामाते हुए कहूं कस बे लक्ष्मीधरवा हमऊ से अंग्रेज बनत बा। बातचीत से उनके व्यक्तित्व के कई आयाम खुल रहे थे। मेरे लिए यह तय करना मुश्किल हो गया था कि वह एक यायावर हैं या विद्वान, अध्यापक हैं अथवा रचनाकार, प्रेमी हैं या पति, रिंद हैं या टी टोटलर, कथाकार हैं या फोटोग्राफर। वह थोड़ा-थोड़ा सब कुछ थे और उन दिनों उन पर फोटोग्राफी का जुनून सवार था। उन्होंने हम लोगों के फोटोग्राफ उतारने के लिए समय मांगा। मेरा तन-बदन फिर जलने लगा। मगर अंत में जैसे सत्य की जीत होती है, अनौपचारिकता पर औपचारिकता की जीत हुई और सूरज ग़ुरूब होते-होते हम लोग हमप्याला दोस्त बन गये थे। हम लोगों में इतनी घनिष्टता हो गयी कि वह बीवी बच्चों सहित कुछ दिन हमारे साथ बिताने को राजी हो गये। उनके जापानी बच्चे हमारे इलाहाबादी बच्चों से घुल-मिल गये। बच्चों के बीच भाषा के फासले ध्वस्त हो गये। उनकी पत्नी अकिको सान हिंदी समझती थीं, कम बोलती थीं, मगर जितना बोलती थीं, शुद्ध बोलती थीं। अशुद्धियों में मालवीयजी का विश्वास ही नहीं था।
लक्ष्मीधर का भारतीय परिवार भारती भवन में अपने पुश्तैनी मकान में रहता था। जापानी गुड़िया-सी दोनों हिंदुस्तानी बेटियों की जापानी परिवार से मित्रता हो गयी। एक दिन लक्ष्मीधर की पहली पत्नी इन्दुजी जापानी परिवार से मिलने चली आईं। वह एक स्कूल में संगीत की शिक्षिका थीं। उनके पिता महेशचंद्र व्यास संगीत की दुनिया का एक जाना-पहचाना नाम था। वह बेगम अख्तर की ठुमरी सुनाते ‘कोयलिया मत कर पुकार'। बेगम अख्तर की आवाज़ जैसे उनके कंठ मे उतर आती। इन्दुजी को भी संगीत पे्रम विरासत में मिला था। दोनों पत्नियाँ आमने-सामने थीं, दोनों गर्मजोशी से बगलगीर हुईं। लक्ष्मीधर चुपचाप देख रहे थे कि इन्दुजी की आँखे डबडबा रही हैं। इन्दुजी ने एक गाना सुनाया ः
कभी तो मिलोगे जीवन साथी
बिछड़ी रही जीवन की बाती
जब से गये हाे, मोरी पलकें न लागी रे
सारी-सारी रतियाँ मैं तो रो के जागी रे
याद न जाती
निदिया न आती
कभी तो मिलोगे....
इन्दुजी गा रही थीं, सूरज डूब रहा था, कमरे में सन्नाटा था। लक्ष्मीधर ने रम का एक घूँट भरा और आँखे बंद कर लीं मेरी रुलाई फूटने लगी। जब लगा कि आँसू निकले बिना न मानेंगे तो बाथरूम में घुस गया और कमोड पर बैठ कर रोता रहा।
उन दिनों मुझे रोना बहुत जल्द आता था और पीने के बाद तो और भी जल्द। एक ज़माना था, मैं मद्रासी फिल्म के किसी निहायत फूहड़ किस्म के कारुणिक दृश्य को देखकर रो पड़ता था। आज भी स्थिति में ज़्यादा सुधार नहीं हुआ है, माधुरी दीक्षित को पोंछा लगाते देख लूं तो आँखें सावन भादों होने लगती हैं। शराब पीकर तो मैं फफकर रोने लगता था और मेरी हिचकी बंध जाती थी। पिक्चर हाउस में मैं चुपचाप रोता था ताकि मेरे बीवी बच्चे मुझे इस दुर्दशा में न देख लें। मदिरापान के समय मेरे साथ कोई कुतर्क करने लगता तो मेरी इच्छा होती इसे पीट दूँ, पीटने में संकोच लगता तो आँसू बहने लगते। मुझे कोई बोर करता है तब भी मेरी यही हालत हो जाती है। शराब पीकर मैंने बहुत से कथाकारों को रोते देखा है। एक बार तो मोहन राकेश को देख लिया था मालूम नहीं, उस समय वह मदिरापान किये थे या नहीं।
(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)
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