संस्मरण ग़ालिब छुटी शराब रवींद्र कालिया (पिछले अंक से जारी…) ‘धर्मयुग' का माहौल अत्यन्त सात्विक था। संपादकीय विभाग ऊपर से नीचे तक शाक...
संस्मरण
‘धर्मयुग' का माहौल अत्यन्त सात्विक था। संपादकीय विभाग ऊपर से नीचे तक शाकाहारी था। ‘धर्मयुग' का चपरासी तक बीड़ी नहीं पीता था। सिगरेट-शराब तो दूर, कोई पान तक नहीं खाता था। कई बार तो एहसास होता यह दफ़्तर नहीं कोई जैन धर्मशाला है, जहाँ कायदे-कानून का बड़ा कड़ाई से पालन होता था। दफ़्तर में मुफ्त की चाय मिलती थी, जिसे लोग बड़े चाव से पीते थे। साथियों के व्यवहार से लगता था जैसे सबके सब गुरुकुल से आये हैं और बाल ब्रह्मचारी हैं। मैं घाट-घाट का पानी पीकर मुम्बई पहुँचा था, दिल्ली में एकदम स्वच्छंद, फक्कड़ और लगभग अराजक जीवन बिताकर, मैं बगैर किसी कुंठा के दफ्तर में सिगरेट फूँकता। धीरे-धीरे मैंने साथियों को दीक्षित करना शुरू किया और कुछ ही महीनों में दो-एक साथियों का दारू से ‘अन्न प्राशन' करने में सफल हो गया। ‘धर्मयुग' की अपेक्षा ‘वीकली', ‘फेमिना', ‘माधुरी' यहाँ तक कि सारिका का स्टाफ उन्मुक्त था। ‘धर्मयुग की शोक सभा से उठकर मैं प्रायः उनके बीच जा बैठता। ‘माधुरी' में उन दिनों जैनेन्द्र जैन (बॉबी फेम) हरीश तिवारी, विनोद तिवारी थे तो सारिका में अवधनारायण मुद्गल। इन लोगों के साथ कभी-कभार ‘चियर्स' हो जाती। इन्हीं मित्रों से पता चला कि ‘धर्मयुग' के मेरे सहकर्मी स्नेहकुमार चौधरी भी ग़म गलत कर लिया करते हैं। चौधरी की सीट ठीक मेरे आगे थी। वह बहुत निरीह और नर्वस किस्म का व्यक्ति था। बच्चों की तरह बहुत जल्द खुश हो जाता और उससे भी जल्द नाराज़। उसने मारवाड़ी होते हुए एक बहुत क्रान्तिकारी कदम उठाया था यानी प्रेम विवाह किया था, एक बंगाली युवती से। कोर्टशिप के दौरान ही वह बंगाली सीख गया था और घर पर केवल बंगला में ही बातचीत करता था। उस युवती के लिए उसने अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया था- तन, मन, यहाँ तक कि भाषा भी, बंगालिन से उसे एक ही शिकायत थी कि वह उसे घर में मद्यपान करने की इजाज़त न देती थी। घर में वह बंगालिन के शिकंजे में रहता था और दफ़्तर में संपादक के। भीतर ही भीतर वह कसमसाता रहता था। एक दिन मुझे पता चला कि वह बोतल खरीद कर पीने का ठौर तलाश रहा है तो मैंने चुटकियों में उसकी समस्या हल कर दी।
मुम्बई में पेईंग गेस्ट की हैसियत से रहता था और मेरे मेज़बान को बिना दारू पिये नींद नहीं आती थी। मैंने सोचा कि उसकी भी एक दिन की समस्या हल हो जायेगी, यह दूसरी बात है उस दिन वह बहुत देर से लौटा था, वह भी किसी पार्टी से टुन्न होकर। मेरी चौधरी से छनने लगी। वह बेरोकटोक हमारे यहाँ आने लगा। वह जब परेशान होता, बोतल लेकर हमारे यहाँ चला आता। दफ़्तर में ‘धर्मयुग' का माहौल ऐसा था कि यह आभास ही नहीं होता था कि यहाँ से देश का सर्वाधिक लोकप्रिय साप्ताहिक पत्र सम्पादित हो रहा है, लगता था जैसे रोज़ आठ घण्टे कोई शोकसभा होती हो। यहाँ दो मिनट का मौन नहीं आठ घण्टे का मौन रखने की रस्म थी। बगल में ही इलस्ट्रेटेड वीकली और पीछे ‘सारिका' और माधुरी का स्टॉफ था, जहाँ हमेशा चहल पहल रहती। लोग हंसी मज़ाक करते। लंच के समय बाहर चाय भी पी आते, मगर ‘धर्मयुग' का सम्पादकीय विभाग अपनी-अपनी मेज़ पर टिफ़िन खोल कर चुपचाप लंच की औपचारिकता निभा लेता और जेब में रखे रूमाल से हाथ पोंछ कर दुबारा काम में जुट जाता। सम्पादकों को कम्पनी की तरफ़ से लंच मिलता था। भारतीजी अपने कैबिन से निकलते तो ‘धर्मयुग' के सन्नाटे में उन की पद्चाप सुनायी पड़ती। सन्नाटे से ही भनक लग जाती कि भारतीजी लंच से लौट आये हैं। उनका चपरासी रामजी दरवाजा खोलने के लिए तैनात रहता। शायद यही सब कारण थे कि ‘धर्मयुग' के सम्पादकीय विभाग को अन्य पत्रिकाओं के पत्रकार ‘कैंसर वार्ड' के नाम से पुकारते थे।
उन दिनों मैं भारतीजी का लाडला पत्रकार था। भारतीजी ने साहित्य, संस्कृति और कला के पृष्ठ मुझे सौंप रखे थे, जो अंत तक मेरे पास रहे। मैं दफ़्तर में ही नहीं, भारतीजी के सामने भी सिगरेट फूंक लेता था। उन दिनों यह ‘धर्मयुग' का दस्तूर था कि जिस पर भारतीजी की कृपा दृष्टि रहती थी, सब सहकर्मी उससे सट कर चलते थे, जिससे भारतीजी खफ़ा, उससे पूरा स्टॉफ भयभीत। मैंने जब लंच के बाद बाहर फोर्ट में किसी ईरानी रेस्तरां में चाय पीने का सुझाव रखा तो सबने खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया। अब वीकली, माधुरी, सारिका के स्टॉफ की तरह हम भी आधा घण्टे के लिए अपने दड़बे से निकलने लगे। नन्दन जी मेरा खास ख्याल रखते, शायद दिल्ली से मोहन राकेश ने उन्हें मेरा ख्याल रखने की हिदायत दी थी। बहरहाल मेरे आने से माहौल में कुछ परिवर्तन आया। उसका एक आभास उस पत्र से मिल सकता है, जो शरद जोशी ने भोपाल से नन्दनजी को लिखा था। उस पत्र को यहाँ उद्धृत करना अप्रासंगिक न होगा। यद्यपि यह पत्र नन्दनजी के पास आया था, मैंने उनसे ले लिया। वह शायद इस पत्र को अपने पास रखने का जोखिम भी नहीं उठाना चाहते थे। मैंने अपनी पुस्तक कामरेड मोना लिज़ा में भी इसे उद्धृत किया था। उस बरस ‘धर्मयुग' के होली विशेषांक में नन्दनजी, प्रेम कपूर और मेरी संयुक्त तस्वीर छपी, जिसमें हम लोग मुस्करा रहे थे। ‘धर्मयुग' के लेखकों ने विश्वास न किया। शरद जोशी का पत्र परोक्ष रूप से ‘धर्मयुग' के माहौल पर एक टिप्पणी करता है।
प्रिय नन्दन,
जो तस्वीर छपी है, उसमें रवीन्द्र कालिया मुस्करा रहा है। यह निहायत अफसोस की बात है। वह सीरियस रायटर है, उसे ऐसा नहीं करना चाहिये। अगर बम्बई आकर वह मुस्कराने लगा तो इसके लिए जिम्मेदार तुम लोग होगे। कुछ हद तक ममता अग्रवाल भी। यों मुझे भोपाल में गंगाप्रसाद विमल बता रहा था कि कालिया में ये तत्व दिल्ली में भी पाये जाते थे। खेद की बात है। उसे सीरियस रायटर बना रहने दो।
तुम्हारा,
शरद जोशी।
वर्षों ‘धर्मयुग' से सम्बद्ध रहने के बावजूद शायद पहली बार नन्दनजी की तस्वीर छपी थी और वह भी मेरे इसरार पर। उन्होंने हमेशा अपने को नेपथ्य में ही रखा था। ‘धर्मयुग' के लिए उन्होंने बहुत कुछ लिखा मगर अपना नाम शायद ही कभी दिया हो। ऐसे में तस्वीर का छपना एक चमत्कारिक घटना थी। हुआ यह था कि भारती पुष्पा जी से शादी रचाने लखनऊ गये हुए थे- जबकि वे लोग अर्से से साथ-साथ रह रहे थे। जाते हुए वह अपना फ़्लैट मुझे और ममता को सौंप गये। उनका लम्बा दौरा था। हनीमून के लिए वे लोग खजुराहो भी गये थे। इस बीच वह नन्दनजी को होली विशेषांक की डमी सौंप गये थे।
‘धर्मयुग' के एक साथ छह अंक प्रेस में रहते थे। ऐन मौके पर होली विशेषांक के दो पृष्ठ विज्ञापन विभाग ने छोड़ दिये। भारतीजी का इतना दबदबा था कि वह अक्सर अनुपात से अधिक विज्ञापन छापने से मना कर देते थे, यही कारण था कि विज्ञापन विभाग प्रायः आवश्यकता से अधिक पृष्ठ घेरने का शेड्यूल बनाता था। यकायक दो पृष्ठ खाली हो जाने से एक नया संकट शुरू हो गया--- भारती की अनुपस्थिति में इन पृष्ठों पर क्या प्रकाशित किया जाय, इसका निर्णय कौन ले। नन्दन जी को अधिकार था मगर यह हो ही नहीं सकता था कि नन्दनजी के चुनाव पर भारती जी प्रतिकूल टिप्पणी न करें, जबकि यह भी संयोग था कि भारतीजी जब-जब छुट्टी पर गये ‘धर्मयुग' का सर्क्युलेशन बढ़ गया। प्रकाशित सामग्री पर भारतीजी का इतना अंकुश रहता था कि सम्पादक के नाम भेजे गये पत्रों का चुनाव वह खुद करते थे। नन्दनजी की उलझन देख कर मैंने उन्हें सुझाव दिया कि इन पृष्ठों पर एक फोटो फीचर प्रकाशित किया जाए। बसों में सफर करते हुए मैंने हिन्दी के लेखकों के नाम कई दुकानों पर देखे थे- जैसे केशव केश कर्तनालय, भैरव तेल भण्डार, श्रीलाल ज्वैलर्स, यादव दुग्धालय, डॉ0 माचवे का क्लीनिक आदि। नन्दनजी को सुझाव जंच गया और नन्दनजी, प्रेमकपूर, मैं एक फोटोग्राफर लेकर टैक्सी में बम्बई की परिक्रमा करने निकल गये। होली के अनुरूप अच्छा खासा फोटो फीचर तैयार हो गया। फोटोग्राफर ने हम तीनों का भी चित्र खींच लिया। खाली पृष्ठों पर यह फोटो-फीचर छप गया और खूब पसन्द किया गया। रात को भारतीजी का फोन आया, वह बहुत प्रसन्न थे, लखनऊ में उनकी जिन-जिन लेखकों से भेंट हुई, सबने इसी फीचर की चर्चा की। दो पृष्ठों के एक कोने में कला विभाग ने हम तीनों का चित्र भी पेस्ट कर दिया, मैंने शीर्षक दिया- कन्हैया, कालिया और कपूर यानी तीन किलंगे (तिलंगे की तर्ज़ पर)। मैंने जब फोन पर नन्दनजी को भारतीजी के फोन की सूचना दी तो उन्होंने राहत की सांस ली। फीचर से तो नन्दनजी समझौता कर चुके थे, मगर तीनों के चित्र से आशंकित थे। शायद भारतीजी ने उन्हें सदैव नेपथ्य में रहने का ही पाठ पढ़ाया था।
इसी बीच एक दुर्घटना हो गयी। अचानक चौधरी के पिता के निधन की खबर आयी। वह छुट्टी लेकर अजमेर रवाना हो गया। लौटा तो उसके पास सिगरेट का एक बट, था जिसे उसने सहेज कर चाँदी की छोटी-सी डिबिया में रखा हुआ था। यह उस सिगरेट का अवशेष था, जिसका कश लेते-लेते उसके पिता ने अंतिम सांस ली थी। अजमेर से वह लौटा तो एक बदला हुए इन्सान था। उसकी जीवन शैली में अचानक परिवर्तन आने लगा। अचानक वह आयातित सिगरेट और शराब पीने लगा। उसे देखकर कोई भी कह सकता था कि इस शख्स के रईस पिता की अभी हाल में मौत हुई है। पिता के निधन के बाद उसमें एक नया आत्मविश्वास पैदा हो गया। इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि एक दिन उसने घर पर बंगालिन की उपस्थिति में बोतल खोल ली और वीरतापूर्वक पत्नी का मुकाबला करता रहा। वह घर में और दफ़्तर में अपने दायिमी दब्बूपन से मुक्ति पाने के लिए संघर्ष करने लगा।
दफ़्तर में डॉ0 धर्मवीर भारती एक कुशल प्रशासक की तरह ‘डिवाइड एण्ड रूल' में विश्वास रखते थे। उपसंपादकों को एक साथ कहीं देख लेते तो उनकी भृकुटी तन जाती। बहुत जल्द इसके परिणाम दिखायी देने लगते। किसी को अचानक डबल इन्क्रीमेंट मिल जाता। किसी एक से सपारिश्रमिक अधिक लिखवाने लगते। किसी एक का वजन अचानक बढ़ने लगता। कोई एक अचानक देवदास की तरह उदास दिखने लगता। चुगली से बाज रहने वाला आदमी अचानक चुगली में गहरी दिलचस्पी लेने लगता। सम्पादक के कृपापात्र को सब संशय से देखने लगते। वह भरे दफ़्तर में अकेला हो जाता।
एक दिन अचानक संपादक ने स्नेहकुमार चौधरी को आरोप-पत्र जारी कर दिया। उसपर गंभीर आरोप लगे थे कि वह ‘धर्मयुग' की सामग्री और चित्र, ट्रांसपरेंसियां ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान' को प्रेषित करता है। चौधरी बहुत सीधा और कायर किस्म का शख्स था। पत्र पाकर उसे मर्मांतक पीड़ा पहुँची। अचानक उसे अपने दिवंगत पिता की शिद्दत से याद आने लगी। दफ़्तर से घर लौटते हुए वह इतना भावुक हो गया कि दादर आते-आते रोने लगा। पता नहीं चल पा रहा था कि वह अपने पिता की याद में रो रहा है अथवा संपादक के दुर्व्यवहार से। इस बीच मेरी शादी हो चुकी थी और हम लोगों ने शीतलादेवी रोड पर आवास की व्यवस्था कर ली थी। माटुंगा पर हम दोनों गाड़ी से उतर गये। उसे मैं अपने साथ घर ले गया। ममता ने किस्सा सुना तो वह भी बहुत क्षुब्ध हुई। उसने कहा कि तुम दोनों अभी भारतीजी के यहाँ जाओ और पूछो कि वह किस आधार पर इतना ओछा आरोप लगा रहे हैं। वास्तव में किसी फोटोग्राफर ने दोनों पत्रिकाओं में चित्र छपवा कर अपने बचाव के लिए कहानी गढ़ ली थी। चौधरी की सूरत देखकर ममता इतनी उद्विग्न हो गयी कि ऐसे दमघोंटू माहौल में काम करने पर लानत-मलामत भेजने लगी। उसने चिंता प्रकट की कि इनके भी बीवी-बच्चे हैं। वे लोग सुबह से इनकी राह देख रहे होंगे। इनकी सूरत देखकर उन पर क्या गुजरेगी। ऐसे नारकीय माहौल में काम करने से अच्छा है कोई दूसरा काम ढूंढ लें।
ममता की बात से वह कुछ उत्साहित हुआ। उसने वाशबेसिन पर जाकर मुंह धोया और अचानक सीढ़ियां उतर गया। कुछ देर बाद वह लौटा तो उसके हाथ में विस्की की पूरी बोतल थी। चेहरे पर आत्मविश्वास लौट आया था और आँखों में चिर-परीचित बाल सुलभ वीरता का भाव था। उसने काजू आदि नमकीन का पैकेट मेज पर रखते हुए कहा, ‘आज इसका फैसला हो ही जाना चाहिये। तुम मेरा साथ दो तो मैं अभी भारती के यहाँ जाकर उनसे दो टूक बात कर सकता हूँ।' उत्तेजना में उसने विस्की की सील तोड़कर दो पैग तैयार किये और ‘चीयर्स' कह कर गटागट पी गया। हम लोगों ने इत्मीनान से जी भरकर व्हिस्की का सेवन किया। पीने के मामले में हम दोनों नये मुसलमान थे। पीते-पीते हम दोनों स्वाभिमान से लबालब भर गये। अन्याय, शोषण और लांछन के प्रति विद्रोह की भावना तारी होने लगी, जब तक हम पूरी तरह स्वाधीन होते बारह बज गये थे।
उन दिनों पीने का ज़्यादा अनुभव तो था नहीं, अचानक मैं अपने को एक बदला हुआ इंसान महसूस करने लगा। दुनियावी रंजोगम बौने नज़र आने लगे। बदसलूकी, अन्याय और शोषण के खिलाफ धमनियों में उमड़ रहा रक्त विद्रोह करने लगा।
‘उठो!' मैंने चौधरी को ललकारा, ‘आज फैसला हो ही जाना चाहिये। अभी चलो वामनजी पैटिट रोड, भारती के यहाँ।'
मगर मेरे मित्र पर विस्की का विपरीत असर हुआ था। उसका सारा आक्रोश शांत हो गया था, बोला, ‘अब घर जाऊंगा।'
‘शराब पीकर मैं उनके यहाँ नहीं जा सकता।'
‘अन्दर जाकर कै कर आओ।' मैंने कहा, ‘तुम्हारे जैसे नामर्दों ने ही उसे शेर बनाया है। आज फैसला होकर रहेगा।'
मेरे तेवर देखकर वह सहम गया, बोला ‘एक शर्त पर चल सकता हूँ। जो कुछ कहना होगा तुम्हीं कहोगे। मैं सिर्फ मूड़ी हिलाऊंगा।'
‘गुडलक', ममता ने कहा।
नीचे जाकर हम लोगों ने टैक्सी की और दस-पन्द्रह मिनट बाद हम लोग भारतीजी के यहाँ लिफ़्ट में चौथे माले की ओर उठ रहे थे, पाँचवे माले पर जीने से पहुँचना था। भारतीजी के फ़्लैट के सामने पहुँचकर मैंने कॉलबेल दबायी। पीछे मुड़कर देखा चौधरी वहाँ नहीं था, वह चौथे माले पर ही खड़ा था। मैंने उसे आवाज़ दी न भारती जी का दरवाजा खुला, न चौधरी दिखायी दिया। दो स्टेप्स उतरकर मैंने देखा, वह जीने की ओट में छिपकर खड़ा था और मुझे लौटने का इशारा कर रहा था। उसकी इस हरकत की मुझ पर विपरीत प्रतिक्रिया हुई। मैंने पलटकर कॉलबेल पर जो अंगूठा रखा तो दबाता ही चला गया। आघी रात के सन्नाटे में घंटी की कर्कश आवाज़ ने जैसे कुहराम मचा दिया था, तभी दरवाजे में लगी ‘मैजिक आई' में से किसी ने देखा।
‘कौन है?' अंदर से आवाज़ आई।
‘नमस्कार', मैंने कहा, ‘मैं कालिया।'
अब तक मुझे इस परिवार में बहुत स्नेह मिला था। पुष्पाजी ने तुरन्त दरवाजा खोल दिया, मुझे देखकर आश्चर्य से उनकी आँखे फैल गयीं, ‘तुम? इस समय? खैरियत तो है?'
‘हूँ, मैंने कहा, मैं मुंह नहीं खोलना चहता था। मैंने गर्दन घुमाकर पीछे देखते हुए कहा, ‘बहुत जरूरी काम था।'
‘मगर भारतीजी तो सो रहे हैं।'
‘उन्हें जगा देंगी तो बड़ी कृपा होगी।' मैंने छत की तरफ देखते हुए कहा और पुष्पाजी की आँख बचाकर दो-चार इलायचियाँ मुंह में और रख लीं।
मेरी आँखे सुर्ख हो रही थीं, उन में शराब का खून उतर आया था। स्नेहकुमार चौधरी मेरे पीछे दुबका खड़ा था। पुष्पाजी बेडरूम की तरफ चल दी थीं और हम दोनों ड्राइंगरूम में गुजराती सोफे पर पसर गये थे। थोड़ी देर बाद भारतीजी खादी की जेब वाली बनियान (बंडी) पहने आँखें मलते हुए ड्राइंगरूम में दाखिल हुए। उन्हें देखकर हम दोनों आदतन खड़े हो गये।
‘बैठो।' उन्होंने कहा। चौधरी को देखकर वह सारा किस्सा समझ गये होंगे, जो उस समय काँपती टांगों के बीच हाथ फँसाये चुपचाप हनुमान चालीसा का पाठ कर रहा था।
‘कैसे आये?'
‘दफ़्तर में बहुत घुटन है। मासूम लोगों का भी दम घुट रहा है। आज यह चौधरी इतना दुखी था कि ट्रेन में रोते हुए घर जा रहा था।'
‘यह निहायात बेवकूफ है। मैं इससे बहुत प्यार करता हूँ। इसकी फाइल तुम्हें दिखाऊंगा कि कितनी गंभीर गलतियाँ करता है। मैंने हमेशा इसे बचाया है। पिछले साल तो डबल इन्क्रीमेंट भी दिलवाया था। बोलो, मैं गलत कह रहा हूँ क्या?' भारतीजी ने चौधरी को लक्षित करते हुए पूछा।
चौधरी सहमति में उत्साहपूर्वक सिर हिलाने लगा।
‘सहयोगी पत्रिकाओं का स्टॉफ ‘धर्मयुग' को कैंसर वार्ड कहता है।' भारतीजी का चेहरा उतर गया, 'कौन कहता है?'
‘सब कहते है,' मैंने कहा, ‘आप सोच रहे होंगे यह नौकरी करके हम बहुत प्रसन्न होंगे, ऐशो आराम से जिन्दगी बसर कर रहे होंगे तो यह आपका भ्रम है, दफ़्तर में घुटन है और घर में सीलन। दफ़्तर में आतंक का माहौल है और घर में चूहों, मच्छरों और खटमलों का उत्पात। जो शख्स ट्रेन में रोते हुए घर पहुँचेगा, उसके बच्चे क्या सोचेंगे? उसके परिवार का माहौल कैसा होगा? लानत है ऐसी अभिशप्त जिंदगी पर।'
मैं नशे में था, निर्द्वंद्व था, सातवें आसमान पर था। शराब के नशे और जुनून में मैंने जैसे जेल की पूरी आचार संहिता तहस-नहस कर दी, तमाम बेड़ियां उतार फेंकी।
चौधरी बदस्तूर टकटकी लगाये छत पर लटके फानूस को देख रहा था। अब वह टांग नहीं हिला रहा था, अब उसकी टांगे कांप रही थीं।
‘तुम लोगों ने खाना खाया?' सहसा भारतीजी ने पूछा।
‘न।' मैंने नशे की झोंक में कहा, ‘हम लोग इस्तीफा देना चाहते हैं।'
भारतीजी ने पुष्पाजी को आवाज़ दी और कहा कि बच्चे भूखे हैं, इनके लिए प्यार से रोटी सेंक दो। नौकर सो चुका था।
मैंने सिगरेट सुलगा ली, भारतीजी ने मेज़ के नीचे पड़ी ऐश ट्रे उठाकर मेज के ऊपर रख दी। उनकी उपस्थिति में मैं पहले भी सिगरेट पी लिया करता था।
भारतीजी ने भड़कने के बजाये मेरी तरफ अत्यंत स्नेह से देखते हुए आत्मीयता से कहा, ‘मैं जानता हूँ ‘धर्मयुग' के लिए तुम सरकारी नौकरी को लात मारकर आये हो, मैं लगातार तुम्हारी पदोन्नति के बारे में सोच रहा हूँ। तुम एक काम करो।'
‘क्या?'
‘मेरी एक मदद करो।'
‘बताइए'
‘मैनेजमेंट नंदन के कार्य से संतुष्ट नहीं है। मैंने सुना है, मातहतों से भी उसका व्यवहार ठीक नहीं है। अगर तुम एक प्रतिवेदन तैयार करोगे कि वह अयोग्य है, मातहतों के साथ दुर्व्यवहार करता है और सबको षड्यंत्र के लिए उकसाता है तो समस्त संपादकीय विभाग तुम्हारा साथ देगा।'
नन्दनजी में दूसरी खामियां होंगी, मगर इनमें से एक भी दुर्गुण नहीं था। मैं सन्नाटे में आ गया, चौधरी तो जैसे तय करके आया था, जुबान नहीं खोलेगा।
मैंने फौरन प्रतिवाद किया, ‘नन्दनजी तो दफ़्तर में मेरी मदद ही करते हैं, पहले दिन से। अभी हाल में मेेरी पतलून कूल्हे पर फट गयी थी, उन्होंने नई सिलवा दी।'
मेरी बात सुनकर भारतीजी पहले तो हंस दिये, फिर कृत्रिम क्षोभ से बोले, ‘तुम पतलून सिलवा लो या मेरी मान लो।'
इस बीच पुष्पाजी ने बड़ी फुर्ती से दाल-रोटी तैयार कर ली, ऐसे अवसर पर रेफ्रिजरेटर बहुत काम आता है। उनके यहाँ चटायी बिछा कर भारतीय पद्धति से ही खाना खिलाया जाता था। भारतीजी भी हमारे संग चटायी पर बैठ गये । उन्होंने बड़े प्यार से खाना खिलाया ।
‘भारतीजी, इस काम के लिए भी आपने हमेशा की तरह गलत आदमी चुना है। मैं इस काम के लिए निहायत अयोग्य हूँ, मैंने कहा ।'
मेरी बात का उनपर कोई असर न पड़ा, उन्होंने कहा कि वह मेरी बात ही दोहरा रहे हैं। ‘अब तुम तय कर लो तुम्हें चूहों, मच्छरों और खटमलों के बीच रहना है अथवा ‘धर्मयुग' के सहायक संपादक बनकर सुविधाओं के बीच लिखते हुए एक अच्छा कथाकार बनना है।'
एक लिहाज से भारतीजी ने गलत आदमी नहीं चुना था। एक बार तो लंच के दौरान तमाम उपसंपादकों ने सामूहिक इस्तीफा लिखकर मेरे पास जमा कर दिया था। मैं अच्छा-खासा विस्फोट कर सकता था, लेकिन मेरी जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती। पेट में भोजन जाते ही दारू का नशा कुछ कम हुआ, मगर अभी वीरता का भाव कायम था। यही वजह थी कि मैं अपना इस्तीफा देने की बात तय नहीं कर पा रहा था।
रात के दो बजे थे, जब हमने भारतीजी से विदा ली। बातचीत का कोई नतीजा नहीं निकला था, मगर अंदर का गुब्बार शांत हो गया था। जैसे आँधी तूफान के बाद बारिश हो जाए और मौसम अचानक सुहाना हो जाय। सच तो यह था कि इस घटना के बाद हम दोनों भीतर ही भीतर बुरी तरह सहम गये थे। यह सोचकर भी दहशत हो रही थी कि सुबह किस मुँह से दफ़्तर जाएँगे। मैंने एक टैक्सी रोकी और यह गुनगुनाते हुए बैठ गया ः
काबा किस मुंह से जाओगे ग़ालिब
शर्म तुमको मगर नहीं आती।
चौधरी मुझे शीतलादेवी टेम्पल रोड पर उतारकर उसी टैक्सी से सीधा अंधेरी निकल गया। ममता जग रही थी, वह हमारी भूमिका से बहुत असंतुष्ट हुई। मैं भी बिना बात किये सो गया। दूसरे दिन सुबह सोकर उठा तो नशा काफूर था, दफ़्तर जाने की हिम्मत न हो रही थी, फिर भी हस्बेमामूल नौ तिरपन की गाड़ी से दफ़्तर पहुँचा। लग रहा था, किसी भेड़िये के मुँह में जा रहा हूँ, रातभर में उसने अपने नाखून तेज कर लिऐ होंगे। मगर मुझे ज़्यादा देर तक इस आतंकपूर्ण स्थिति में नहीं रहना पड़ा। उस रोज भारती ही दफ़्तर न आये थे। उससे अगले रोज़ भी छुट्टी पर थे। हमने किसी सहयोगी को भी अपने उस दुःसाहस की भनक न लगने दी।
हम लोगों ने दफ़्तर से छुट्टी तो नहीं ली, मगर कुछ इस अंदाज़ से दफ़्तर जाते रहे कि एक दिन अचानक कोई भूखा शेर माँद से निकलेगा और देखते-ही-देखते दबोच लेगा। दोस्त लोग चुपचाप यह तमाशा देखते रहेंगे, तमाशाबीनों की तरह। मगर शेर जिस दिन जंगल में नमूदार हुआ, निहायत खामोश और संयत था। लग रहा था शिकार में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है। जैसे शेर और बकरियाँ एक घाट पर साथ-साथ पानी पी रहे हों। दफ़्तर में जैसे सतयुग लौट आया था। माहौल में ही नहीं लोगों के स्वास्थ्य में भी सुधार आने लगा। जो रूटीन सामग्री रवीन्द्र कालिया के नाम आती थी, वह श्री रवीन्द्र कालिया के नाम से आने लगी। इसे हम दोनों के अलावा कोई नहीं समझ सकता था कि यह श्री ‘श्री' नहीं, एक खलनायक है, जिसने रिश्तों के बीच मीलों की दूरी स्थापित कर दी थी। चौधरी की स्थिति मुझ से भी नाजुक थी। उसे सहायक संपादक और मुख्य उपसंपादक के स्तर पर ही काम और निर्देश मिल रहे थे। हम लोगों को इलहाम हो रहा था कि यह बेन्याज़ी और अफसानानिगारी जल्द ही एक दिन जल्द रंग लाएगी। बहुत चाहते हुए भी हम अपने सहयोगियों को कयामत की उस रात का किस्सा नहीं सुना पा रहे थे।
अव्वल तो इसपर कोई विश्वास ही न करता और अगर विश्वास कर लेता तो हमारा सामाजिक बहिष्कार होते देर न लगती। यह उस दफ़्तर का दस्तूर था, वहाँ की संस्कृति का हिस्सा था। मुझे ताज्जुब तो इस बात का हो रहा था कि चौधरी मुझ से कहीं अधिक निश्चिंत था, जबकि मैं उसे अपने से कहीं अधिक भीरु और कमज़ोर समझता था। उसे विरासत में इतनी संपत्ति मिल गयी थी कि वह नौकरी का मुखापेक्षी न रहा था। उन दिनों वह बड़ी बेरहमी से पैसा खर्च कर रहा था। इससे पहले वह घर में मद्यपान नहीं करता था मगर अचानक उसमें इतना परिवर्तन आया कि अक्सर घर लौटते हुए बंगालिन के लिए मछली और अपने लिए बोतल ले जाता। एक दिन दफ़्तर के बाद वह मुझे एक पांच सितारा होटल में ले गया और जाम टकराते हुए सुझाव रखा कि क्यों न हम लोग इस जेल से मुक्त होकर अपना कोई कारोबार शुरू करें और आज़ादी से जिएं।
‘सुझाव तो अच्छा है, मगर कारोबार के लिए पैसा कहां है ?' मेरी जिज्ञासा थी।
‘पैसे की चिन्ता न करो, मेरे पास है, मुझे जरूरत है तुम्हारे जैसे कर्मठ और विश्वसनीय पार्टनर की।'
चौधरी का सुझाव मुझे जंच गया, लगा जैसे तमाम जंजीरें टूटकर कदमों में गिर पड़ी हैं। इस बीच एक और पैग चला आया था। हम लोगों ने एक बार फिर गिलास टकराये और ‘चियर्स' कहा। मदिरापान के दौरान तय हो गया कि हम दोनों मुम्बई में एक प्रेस खोलें और उस प्रेस का नाम होगा---- स्वाधीनता। शराब की मेज पर ही हमने गुलामी को नेस्तानाबूद कर दिया और आजादी का बासंती चोला धारण कर लिया। खाना-वाना खाकर हम स्वाधीनता सेनानियों की तरह अपने-अपने घर पहुँचे।
मेरी रज़ामंदी मिलते ही चौधरी ने दफ़्तर से छुट्टी ले ली और रैपिड एक्शन फोर्स की तरह अपने अभियान में संलग्न हो गया। देखते-ही-देखते उसने अंधेरी (पूर्व) में अपने घर के पास ही सड़क के दूसरे छोर साकी नाका रोड पर कैमल इंक की विशाल फैक्टरी के सामने निर्माणाधीन एक औद्योगिक परिसर में प्रेस के लिए एक बड़ा सा ‘शेड' बुक करवा दिया। चौदह हजार रुपये का भुगतान भी कर दिया। महीने भर में परिसर का हस्तांतरण भी ‘स्वाधीनता' प्रेस के नाम हो गया। उसने हम लोगों को भी अपने चालनुमा फ़्लैट की बगल में जगह दिलवा दी और हम लोग शीतलादेवी टेम्पल रोड से अंधेरी (पूर्व) चले आये। स्वाधीनता प्रेस में मेरी बराबर की हिस्सेदारी थी जबकि ज़्यादातर पूंजी चौधरी की ही लगी थी। पहले मैं चौधरी का हमप्याला बना। फिर हमनिवाला और अंत में पार्टनर। इस बीच उसने न केवल इस पार्टनरशिप को कानूनी जामा पहना दिया, बल्कि हम लोग इस्तीफा देते, इससे पूर्व ही वह राजस्थान से छपाई की बूढ़ी, मगर आयातित मशीनों और प्रेस का दीगर सामान भी खरीद लाया। चौधरी का पूंजी निवेश था, मेरी सक्रिय भागीदारी और व्यवस्था की जिम्मेदारी। उसने मेरे माध्यम से अपना इस्तीफा भी भिजवा दिया जो तुरंत तत्काल मंजूर कर लिया गया। अब मेरा मन इस्तीफा देने के लिए मचल रहा था।
एक सुहानी सुबह मैं भी भारतीजी के केबिन में जाकर अपना इस्तीफा पेश कर आया। भारतीजी चौधरी की बलि से संतुष्ट हो गये थे, उन्हें शायद मेरे इस्तीफे की ज़रूरत या उम्मीद न थी, किसी को भी न थी। किसी को भी कयामत की उस रात की जानकारी न थी। भारतीजी ने भी किसी से इसकी चर्चा न की थी, सिवाय टी0 पी0 झुनझुनवाला के, जो मुम्बई के इनकम टैक्स कमिश्नर थे और जिनकी पत्नी शीला झुनझुनवाला समय काटने के लिए ‘धर्मयुग' के महिला पृष्ठ देखा करती थीं। शीलाजी की सीट मेरी बगल में ही थी और वे लंच में मलाई के मीठे टोस्ट खिलाया करती थीं। उन्होंने एक दिन धीरे से बताया था कि पिछले दिनों आधी रात को दो शराबी भारतीजी के घर में घुस गये थे और वह सोच भी नहीं सकतीं कि उन शराबियों में से एक रवीन्द्र कालिया भी हो सकता है। उन्होंने यह भी बताया था कि भारती जी मुझ से नहीं चौधरी से बहुत ख़फा थे। शायद यही कारण था कि मेरा इस्तीफा पाकर भारतीजी हक्के-बक्के रह गये। उन्होंने इस्तीफा पेपरवेट से दबा दिया और पूछा कि मैंने यह भी सोचा है कि इसके बाद क्या करूंगा।
‘फारिग होकर यह भी सोच लूंगा।' मैंने कहा।
भारतीजी ने मेरे इस्तीफे पर तत्काल कोई निर्णय नहीं लिया। मैं छुट्टी की अर्ज़ी देकर नये अभियान में जुट गया। उतनी ही व्यस्त एक नयी आज़ाद दिनचर्या शुरू हो गयी। ठीक सुबह दस बजे टाई-वाई से लैस होकर हाथ में ब्रीफकेस लिए मैं काम की तलाश में निकल जाता। अंधेरी पूर्व में ही छपाई का इतना काम मिल गया कि बाहर निकलने की नौबत न आई। मैंने पाया बड़े-बड़े औद्योगिक संस्थानों की स्टेशनरी दो कौड़ी की थी। लेटर हेड, विजिटिंग कार्ड एकदम पारम्परिक, देहाती और कल्पनाशून्य थे। मेरे पास टाइम्स ऑफ इंडिया का तजुर्बा था, वहां के कला विभाग के कलाकारों से मित्रता थी। मैंने इन संस्थानों की स्टेशनरी का आर्ट वर्क तैयार करवाया जो उनकी प्रचलित स्टेशनरी से कहीं अधिक कलात्मक और आकर्षक था। ज़्यादा दौड़भाग करने की ज़रूरत नहीं पड़ी, क्योंकि हमारे पास काम ज़्यादा था कार्यक्षमता कहीं कम। हम लोग ‘चोक' बनाने वाली जिस कम्पनी का गारंटी कार्ड मुद्रित करते थे, अक्सर पिछड़ जाते। उनकी चोक उत्पादन की क्षमता हमारे गारंटी कार्ड मुद्रित करने से कहीं अधिक थी। तब तक बिजली का कनेक्शन भी मंजूर नहीं हुआ था। हाथ पैर से मशीनों का संचालन किया जाता। आठ बाई बारह इंच की एक नन्हीं सी लाइपज़िक नाम की जर्मन टे्रडिल मशीन थी, जिस पर मैं वक्त ज़रूरत विजिटिंग कार्ड वगैरह छाप लेता था।
प्रेस चलने लगा। ‘शेड' का दाम भी आश्चर्यजनक रूप से बढ़ने लगा। बहुत जल्द असमान पूंजी निवेश के अन्तर्विरोध उभरने लगे। ज्यादा समय नहीं बीता था कि ज़र, जोरू और ज़मीन का ज़हर संबंधों में घुलने लगा। ‘धर्मयुग' से मैं जरूर स्वाधीन हो गया था, मगर यह एहसास होते भी देर न लगी कि पूंजी की भी एक पराधीनता होती है। वह नित नये-नये रूपों में अपना जलवा दिखाने लगी। मेरी उम्र और मेरी फितरत इसके प्रति भी विद्रोह करने लगी। तफसील या कटुता में न जाकर एक छवि का तीन दशक पहले के ‘इस्टाइल' में ज़िक्र करना चाहूँगा, जो आज भी (तीन दशक बाद) जेहन में कौंध जाती है, जिस पर मैं आज भी फिदा हूँ। इस सादगी पर मैं क्या आप भी कुर्बान हो जाते अगर सुबह-सुबह पूरे दिनों की हामला एक सद्यस्नात अबला अचानक आपकी पत्नी की उपस्थिति में नमूदार हो जाए और शैम्पू किये अपनी स्याह, लंबी और घनी केश राशि को अपने कपोलों से बार-बार हटाती रहे ताकि अश्रुधारा निर्बाध गति से प्रवाहित हो सके और वह राष्ट्रभाषा में इतना भी व्यक्त न कर पाये कि उसका पति परमेश्वर ‘प्लग प्वाइंट' में अंगुलियाँ ठूँस कर आत्महत्या की धमकी दे रहा है क्योंकि उसे वहम हो गया है कि वह उसे कम और कालियाजी को ज्यादा चाहती है। ‘प्लग प्वाइंट' में अंगुलियाँ उसका पति ठूंस रहा था मगर धक्का मुझे लगा। बाद की ज़िन्दगी में ऐसे धक्के बारहा लगे और मैं ‘शॉक प्रूफ' होता चला गया। धक्के खाते-खाते आदमी उनका भी अभ्यस्त हो जाता है, जाने मेरे कुंडली में ऐसा कौन-सा योग है कम्पास की सुइयों की तरह शक की सुइयाँ अनायास ही मेरी दिशा में स्थिर हो जाती हैं।
जब से मैंने शराब से तौबा की है, मेरी कई समस्याओं का सहज ही समाधान हो गया है। अपनी प्रत्येक खामी, कमजोरी और असफलता को मयगुसारी के खाते में डालकर मुक्त हो जाता हूँ। वास्तव में दो-चार पैग के बाद मेरे भीतर का ‘क्लाउन' काफी सक्रिय हो जाता था। मेरे बेलौस मसखरेपन से दोस्तों की ऊबी हुई बीवियों का बहुत मनोरंजन होता था। यह दूसरी बात है कि इसकी मेरे दोस्तों को ही नहीं, मुझे भी भारी कीमत चुकानी पड़ी है। अब तो खैर मेरे हमप्याला दोस्तों ने अघोषित रूप से मेरा सामाजिक बहिष्कार कर रखा है। भूले-भटके अगर कोई मित्र मुझे महफिल में आमंत्रित करने की भूल कर बैठता है तो जल्द ही उसे अपनी गलती का एहसास हो जाता है जब उसकी पत्नी भरी महफिल में ज़लील करने लगती है कि कालियाजी शराब छोड़ सकते हैं तो आप क्यों नहीं छोड़ सकते। यही कारण है कि मैं ऐसी पार्टियों से अक्सर कन्नी काट जाता हूँ और संस्मराणात्मक लेखन से अपना और आपका समय नष्ट करने को अपनी सेहत के लिए ज़्यादा मुफीद समझता हूँ। वर्ना शराब ने मुझे क्या-क्या नज़ारे नहीं दिखाये।
पूस की एक ठिठुरती रात तो भुलाए नहीं भूलती, जब लखनऊ में अचानक मेरे एक परम मित्र और मेज़बान ने मुझे आधी रात फौरन से पेश्तर अपना घर छोड़ देने का निर्मम सुझाव दे डाला था। कुछ देर पहले हम लोग अच्छे दोस्तों की तरह मस्ती में दारू पी रहे थे। मेरे मित्र ने नया-नया स्टीरियो खरीदा था और हम लोग बेगम अख्तर को सुन रहे थे ः ‘अरे मयगुसारो सबेरे-सबेरे, खराबात के गिर्द घेरे पै घेरे' कि अचानक टेलीफोन की घंटी टनटनायी। फोन सुनते ही मेरे मित्र का नशा हिरन हो गया, वह बहुत असमंजस में कभी मेरी तरफ देखता और कभी अपनी बीवी की तरफ। उसके विभाग के प्रमुख सचिव का फोन था कि उसे अभी आधे घंटे के भीतर लखनऊ से दिल्ली रवाना होना है। उसने अपनी बीवी से सूटकेस तैयार करने के लिए कहा और कपड़े बदलने लगा। सूट टाई से लैस होकर उसने अचानक अत्यन्त औपचारिक रूप से एक प्रश्न दाग दिया, ‘मैं तो दिल्ली जा रहा हूँ इसी वक्त, तुम कहाँ जाओगे?'
‘मैं कहाँ जाऊगा, यहीं रहूंगा ।'
‘मेरी गैरहाजिरी में यह संभव न होगा।'
‘क्या बकवास कर रहे हो?'
‘बहस के लिए मेरे पास समय नहीं है, किसी भी सूरत में मैं तुम्हें अकेला नहीं छोड़ सकता। इस वक्त तुम नशे मे हो और मेरी बीवी खूबसूरत है, जवान है, मैं यह ‘रिस्क' नहीं उठा सकता।'
वह मेरा बचपन का दोस्त था, हम लोग साथ-साथ बड़े हुए थे, क्रिकेट, हाकी, बालीवाल और कबड्डी खेलते हुए। वह आई0 ए0 एस0 में निकल गया और मैं मसिजीवी होकर रह गया। हम लोग मिलते तो प्रायः नास्टेलजिक हो जाते, घण्टों बचपन का उत्खनन करते, तितलियों के पीछे भागते, बर्र की टांग पर धागा बांधकर पतंग की तरह उड़ाते।
अभी तक मैं यही सोच रहा था कि वह मजाक कर रहा है, जब ड्राइवर ने आकर खबर दी कि गाड़ी लग गयी है तो मेरा माथा ठनका। मेरा मित्र घड़ी देखते हुए बोला, ‘अब बहस का समय नहीं है। मुझे जो कहना था, कह चुका। उम्मीद है तुम मेरी मजबूरी को समझोगे और बुरा नहीं मानोगे।'
‘साले तुम मेरा नहीं अपनी बीवी का अपमान कर रहे हो।' मैंने कहा और उसे विदा करने के इरादे से दालान तक चला आया। मेरे निकलते ही उसने बड़ी फुर्ती से कमरे पर ताला ठोंक दिया और चाभी अपनी बीवी की तरफ उछाल दी। उसकी पत्नी ने चाभी कैच करने की कोशिश नहीं की और वह छन्न से फर्श पर जा गिरी। वह हो-होकर हँसने लगा।
मैं खून का घूँट पीकर चुपचाप सीढ़ियाँ उतर गया। मेरा सारा सामान भी अंदर बंद हो गया था। बाहर सड़क पर सन्नाटा था, कोहरा छाया हुआ था, कुत्ते रो रहे थे। उसकी गाड़ी दनदनाती हुई कोहरे मे विलुप्त हो गयी। कुछ ऐसी कैफियत में चचा ग़ालिब ने फरमाया होगा कि बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले।
लखनऊ के भूगोल का भी मुझे ज़्यादा ज्ञान नहीं था। मेरे ज़ेहन में मजाज़ की पंक्तियां कौंध रही थी--
ग़ैर की बस्ती है, कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ,
ऐ ग़मे दिल क्या करूँ ऐ वहशते दिल क्या करूं?
अंधाधुंध शराबनोशी में मजाज़ भी लखनऊ की इन्हीं सड़कों पर बेतहाशा भटका था। वह भी पूस की ही एक रात थी, जब मजाज़ ने बुरी तरह शराब पी थी, दोस्त लोग उसे शराबखाने में खुली छत पर लावारिस छोड़कर अपने-अपने घर लौट गये थे और मजाज़ रात भर खुली छत पर पड़ा रहा और सुबह तक उसका शरीर अकड़ गया था।
दिन में ही फोन पर कवि नरेश सक्सेना ने बताया था कि उसका तबादला लखनऊ हो गया है और नजदीक ही वजीर हसन रोड पर उसने घर लिया है। मुझे उसने सुबह नाश्ते पर आमंत्रित किया था। मैं आधी रात को ही नाश्ते की तलाश में निकल पड़ा, वजीर हसन रोड ज़्यादा दूर नहीं थी।
भटकते-भटकते मैंने उसका घर खोज ही निकाला। मैंने दरवाज़ा खटखटया तो उसने ठिठुरते हुए दरवाजा खोला, ‘अरे तुम इस समय, इतनी ठण्ड में?'
‘मेरे नाश्ते का वक्त हो गया है।' मैंने कहा। भीतर पहुँचकर मुझे समझते देर न लगी कि जौनपुर से अभी उसका पूरा सामान नहीं आया था। वे लोग किसी तरह गद्दे और चादरें जोड़कर बिस्तर में दुबके हुए थे। उन्हें देखकर लग रहा था कि बहुत ठण्ड है, मेरे भीतर शराब की गर्मी थी। मैं भी नरेश के साथ उसी बरायनाम रजाई में जा घुसा।
‘स्वाधीनता' मेरे लिए ‘स्टिल बार्न बेबी' साबित हुई और मैं दुबारा सड़क पर आ गया। इस बीच श्रीमती शीला झुनझुनवाला ने भी ‘धर्मयुग' छोड़कर दिल्ली से एक महिलोपयोगी पत्रिका ‘अंगजा' निकालने की योजना बनायी। उन्होंने दिल्ली चलने का प्रस्ताव रखा। एक नयी विज्ञापन एजेंसी में कापी राइटर का काम मिलने की संभावना भी उजागर हुई, मगर मुझे लग रहा था बम्बई से मेरे तम्बू कनात उखड़ चुके हैं, दिल्ली भी तब तक इतनी निर्दयी, निर्मम और भ्रष्ट नहीं हुई थी। लेखकों में विदेश यात्रा और मदिरापान की इतनी ललक और लोलुपता नहीं थी, उन दिनों दिल्ली साहित्य की मंडी की तरह नहीं साहित्य की राजधानी की तरह विकसित हो रही थी। नामवरजी उन दिनों आलोचना के संपादक थे, उन्होंने पत्र लिखकर दिल्ली लौट आने का प्रस्ताव रखा, उन्होंने लिखा ः
‘धर्मयुग' छोड़ने की खबर से दुख तो हुआ, लेकिन आश्चर्य नहीं। बम्बई से आने वाले दो एक लोगों से मैंने तुम्हारी विडम्बनापूर्ण स्थिति की बात सुनी थी और तब से मैं समझे बैठा था कि तुम्हारे जैसा स्वाभिमानी पुरुष ज़्यादा दिन नहीं टिक सकता, खैर सवाल यह है कि अब क्या करोगे? मेरा ख्याल है कि ममता नौकरी कर रही है। इसलिए कुछ दिनों के लिए तो ज़्यादा परेशानी न होगी। लेकिन इस बीच काम तो ढूँढ़ना ही होगा। बम्बई में डौल न बैठे तो दिल्ली चले आना बेहतर होगा। यहाँ बेकारों की पल्टन काफी बड़ी है। इसलिए अपने अंदर किसी प्रकार की हीनता महसूस न होगी। फिर कौन जाने यहाँ तुम्हें कोई काम निकल ही आए।
.....नयी कहानियों में तुम्हारी और ममता की टिप्पणियां पढ़ी। बहरहाल आलोचना में ‘युवा लेखन पर एक बहस' शीर्षक पूरा संवाद ही देने जा रहा हूँ। इस बार ‘वर्किंग पेपर' मैं स्वयं लिखूंगा और आठ-दस लेखकों के पास भेजकर उनकी प्रतिक्रिया मंगवाऊँगा। जिसके जी में आये उस लेख की धज्जियाँ उड़ा दे- मैं सब छापूँगा। सोचता था, निबंध लिखने से पहले तुमसे भी कुछ बात हो जाती। क्या यह संभव हो सकेगा? फिलहाल दिमाग पर यही भूत सवार है।
....अपने को किसी तरह निरुपाय न समझना।
स्नेह
नामवर सिंह
गर्दिश के उन दिनों में नामवरजी ही नहीं, अनेक मित्र मेरे भविष्य को लेकर चिंतित थे। हरीश भादानी, विश्वनाथ सचदेव, मेरा पूर्व मेजबान ओबी, उसके मित्र डेंगसन, जाड़िया, चन्नी, स्वर्ण, शुक्लाज़, शिवेन्द्र आदि का एक भरा-पूरा परिवार था बम्बई में। डेंगसन एक इलेक्ट्रानिक कम्पनी के एरिया मैनेजर थे। वर्ली के बड़े से फ़्लैट में अकेले रहते थे, पत्नी अमृतसर में एक मामूली-सी सरकारी नौकरी करती थी। पत्नी की छोटी-सी ज़िद थी कि जब तक डैंगसन दारू न छोड़ेंगे वह मुम्बई नहीं आयेगी, न नौकरी छोड़ेगी। वह डैंगसन के अन्तिम संस्कार में भाग लेने ही मुम्बई पहुँची। बीच सड़क में हृदयगति रुक जाने से डैंगसन का कार में ही आकस्मिक निधन हो गया था।
कांदिवली में काले हनुमानजी का एक मंदिर था, डैंगसन की उसमें गहरी आस्था थी। वह किसी भी मित्र को परेशानी में पाते तो अपनी कार में बैठा कर श्रद्धापूर्वक कांदिवली ले जाते। मौत से कुछ की दिन पहले मुझे भी ले गये थे। मंदिर में एक अहिंदी भाषी महात्मा रहते थे। महात्माजी ने मुझे देखकर एक पर्चे पर लिखा- नदी किनारे दूर का चानस। महात्मा केवल सूत्रों में बात करते थे, उसकी व्याख्या आप स्वयं कीजिए और करते जाइए। जल्द ही समय अपनी व्याख्या भी प्रस्तुत कर देता था। मेरे सामने भी सूत्र वाक्य के अर्थ खुलने लगे। कुछ दिनों बाद स्पष्ट हुआ कि नदी किनार का अर्थ था संगम यानी गंगा-जमुना का तट और दूर का मतलब निकला इलाहाबाद। सन् 69 के अंतिम दिनों में मेरा इलाहाबाद आ बसना भी एक चमत्कार की तरह हुआ। अभी हाल में मैंने कन्हैया लाल नन्दन पर संस्मरण लिखते हुए उन दिनों की याद ताजा की है। ऐसा नहीं था कि मेरी मित्रता सिर्फ पीने-पिलाने वाले लोगों से रही है। मेरे मित्रों में नन्दन जी जैसे सूफी भी रहे हैं, जिन्होंने कभी सिगरेट का कश भी न लिया होगा।
बहुत जल्द नन्दनजी का गोरेगांव का संसार भी मेरा संसार हो गया था। उनके तमाम मित्र मेरे मित्र हो गये। वह सुखदेव शुक्ल हों या, पंचरत्न, मित्तल, मनमोहन सरल तो खैर दफ़्तर के सहयोगी ही थे। शुक्लाज़ से मेरी दोस्ती उनकी साहित्यिक रुचि के कारण ही नहीं बल्कि इसलिए भी हो गयी कि (डॉ0) मिसेज़ उमा शुक्ला चाय बहुत अच्छी बनाती थीं और इतवार को अक्सर मैं सुबह-सुबह पराँठे खाने उनके यहाँ पहुँच जाता। मैं शिवाजी पार्क में रहता था मगर मेरा खाली समय गोरेगांव में ही बीतता। गोरेगाँव पहुँचकर लगता था, अपने परिवार के बीच पहुँच गया हूँ। सब लोग दफ़्तर को दफ़्तर में भूल आते थे, मगर नन्दनजी अपने ब्रीफकेस में कुछ और परेशानियाँ कुछ और उदासी, कुछ और अवसाद भर लाते। ट्रेन में वह दुष्यंत की पंक्तियाँ गुनगुनाते घर लौट आते ः
कुछ भी नहीं था मेरे पास,
मेरे हाथों में न कोई हथियार था,
न देह पर कवच,
बचने की कोई भी सूरत नहीं थी,
एक मामूली आदमी की तरह,
चक्रव्यूह में फँस कर,
मैंने प्रहार नहीं किया, सिर्फ चोटें सहीं,
अब मेरे कोमल व्यक्तित्व को,
प्रहारों ने कड़ा कर दिया है।
जिन दिनों मैंने ‘धर्मयुग‘ से त्यागपत्र दिया था, नन्दनजी बीमार थे। वह उन दिनों ‘प्लूरसी' के इलाज के सिलसिले में किसी हेल्थ रिजॉर्ट पर गये हुए थे। छुट्टी से लौटे तो दफ़्तर का माहौल बदला-बदला सा लगा। मेरी और चौधरी की कुर्सी पर प्रशिक्षु पत्रकार जमे थे। हम लोगों के विद्रोह से हॉल में एक सनसनी फैल गयी थी और कयामत की उस रात के कई संस्मरण प्रचारित-प्रसारित हो रहे थे। साथी लोग उसमें अनवरत संशोधन, परिवर्द्धन और परिवर्तन कर रहे थे। छुट्टी से लौटने पर नन्दनजी ने भी यह किस्सा सुना। कोई विश्वास ही नहीं कर सकता था कि उस दफ़्तर में भारतीजी को कोई चुनौती दे सकता था। यह सुनकर तो वह विह्नवल हो गये कि मैंने नन्दन के खिलाफ किसी भी षड्यंत्र में शामिल होने से साफ इनकार कर दिया था। नन्दनजी उसी तारीख सपत्नीक अंधेरी पहुँचे। वह बहुत भावुक हो रहे थे। उनकी आँखें नम हो रही थीं और वह देर तक मेरा हाथ थामे बैठे रहे। वह मेरे भविष्य को लेकर मुझसे ज्यादा चिंतित थे। उन्हें अफसोस इस बात का था कि यह सारा खेल उनकी अनुपस्थिति में हो गया। उनकी राय थी कि हम लोगों को इस्तीफा देने की ज़रूरत नहीं थी, व्यवस्था में रहते हुए उसका विरोध करना चाहिये था। नन्दनजी ने यही मार्ग चुना था और उसकी परिणति उनके चेहरे से झलक रही थी वह प्लूरसी के शिकार हो गये थे। तब तक भारतीजी ने मेरा इस्तीफा मंजूर नहीं किया था। मैं चूंकि ‘कन्फर्म' हो चुका था, नियमानुसार मुझे तीन महीने तक कार्यमुक्त नहीं किया गया। इसी दौरान उन्होंने ममता को कालिज यह संदेश भी भिजवाया था कि मैं अपना इस्तीफा वापस ले लूँ। उन्हें लग रहा था कि यह अव्यवहारिक कदम मैंने शराब के नशे में उठाया था। सच तो यह था कि उस दमघोंटू माहौल से मैं किसी भी मूल्य पर मुक्ति चाहता था। अगर मैंने नशे के अतिरेक में यह कदम उठाया होता तो मैं अपने इस्तीफे पर पुनर्विचार कर सकता था। फिलहाल मेरे पास लेखन के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं था। उन्हीं दिनों मैंने एक लम्बी कहानी लिखी- ‘चाल'। अपने समय में वह खूब चर्चित हुई। इस कहानी पर अश्कजी का एक लंबा पत्र भी मुझे प्राप्त हुआ। उन्होंने इस कहानी को ज्ञानरंजन की ‘बहिर्गमन' से श्रेष्ठ कहानी सिद्ध किया था। गर्ज़ यह कि गर्दिश के उन दिनों में मेरे मित्रों ने मेरा हौसला बुलंद रखा।
अब इतने वर्षों बाद बम्बई में जिंदगी ने मुझे दुबारा सड़क पर ला पटका था। दोस्त लोग भी मुझे कोस रहे थे मैंने चौधरी के झांसे में आकर अच्छी-खासी नौकरी को लात मार दी। नन्दनजी रात को इसलिए मिलने आये थे कि दिन के उजाले में बागियों से मिलना खतरनाक साबित हो सकता था। इतनी बड़ी बम्बई भी में लगता था, चप्पे-चप्पे पर धर्मवीर भारती के जासूस छाये हुए है। छूटते ही नन्दनजी ने पूछा, ‘इलाहाबाद जाओगे?'
‘इलाहाबाद में क्या है?'
‘हिन्दी भवन' का प्रेस बिकाऊ है। वह किसी विश्वास के आदमी को ही सौंपना चाहते है ताकि उनके प्रकाशन का मुद्रण कार्य चलता रहे।'
हिन्दी भवन का नाम सुनते ही मेरी स्मृतियां ताज़ा हो गयीं। अपनी करतूतें मैं भूला नहीं था।
छात्र जीवन से ही मुझे पढ़ने लिखने की और दारू की लत लग गयी थी। मेरी दोनों ज़रूरतें हिन्दी भवन से ही पूरी होती थीं। उन दिनों समूचे पंजाब में हिन्दी पुस्तकें केवल ‘हिन्दी भवन' पर उपलब्ध होती थीं। राकेश के सम्पर्क में आकर मैंने यह बात अच्छी तरह समझ ली थी कि लेखको को तीन चीजों यानी पत्नी, नौकरी, और प्रकाशक का चुनाव अत्यन्त सावधानी और सूझबूझ से करना चाहिए जो लेखक इन तीन मसलों पर विवेक से नहीं भावुकता से काम लेते हैं, वे फिर जीवन भर भटकते ही रहते हैं। उन्हें शराब या किसी दूसरे नशे की लत पड़ जाती है, उनका जीवन कभी पत्नी, कभी नौकरी और कभी प्रकाशक बदलने में ही नष्ट हो जाता है (मेरी बात का कदापि यह अर्थ न लगाया जाए कि जो लेखक पत्नी, नौकरी और प्रकाशक नहीं बदलते, उनका जीवन नष्ट नहीं होता)। लेखन एक ऐसा पेशा है कि इसमें ज्यादा विकल्प भी नहीं होते। फ़ैज़ जैसे पाये के लेखक को भी इस नतीजे पर पहुँचना पड़ा कि ः
‘तुम हाँ करो तो बात आगे बढ़ाऊँ।' नन्दनजी ने तफ़सील से बताया कि इलाहाबाद में हिंदी भवन का एक प्रेस है। प्रेस में केवल हिंदी भवन की पुस्तकें मुद्रित होती हैं, इसी उद्देश्य से प्रेस की स्थापना की गयी थी ताकि मुद्रण के लिए इधर-उधर न भटकना पड़े। यह भी मालूम हुआ कि छात्र जीवन से ही नन्दन जी का हिंदी भवन से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। वे हिंदी भवन की पुस्तकों के डस्ट कवर बनाकर इलाहाबाद में अपनी फीस का प्रबन्ध किया करते थे। कितनी विरोधाभासपूर्ण स्थितियों में नन्दनजी का और मेरा छात्र जीवन गुज़रा था। हिंदी भवन उनके लिए फीस का प्रबन्ध करता था और मेरे लिए बीयर का। दोनों का अपना-अपना जुगाड़ था। अपना-अपना भाग्य था।
नन्दनजी ने यह भी बताया कि हिंदी भवन के संचालक नारंग बंधु अब वृद्ध हो गये हैं, और धीरे-धीरे काम समेटना चाहते हैं, वे ऐसे कर्मठ नौजवान की तलाश में हैं जो जिम्मेदारी से प्रेस का संचालन कर सके। हिंदी भवन का मुख्य कार्यालय जालंधर में है जहां इंद्रचंद्र जी के बड़े भाई धर्मचंद्र नारंग हिंदी भवन का संचालन करते हैं। दोनो भाइयों की सहमति हो गयी तो प्रेस आसान किस्तों पर मिल सकता था।
धर्मचंद्र नारंग का नाम सुनते ही मेरा माथा ठनका। मैंने कहा, ‘धर्मचंद्र जी को मैं बहुत अच्छी तरह से जानता हूँ। मगर हो सकता है मेरे बारे में उनकी राय बहुत अच्छी न हो।'
मैंने विस्तार से नन्दनजी को ‘हिन्दी भवन' से उधार पुस्तकें खरीदनें और उन्हें औने पौने दाम में बेचकर बीयर पी जाने का किस्सा सुनाया। मेरी कारगुजारियां सुनकर नन्दन जी को बहुत धक्का लगा। उन्हें लगा कि बना-बनाया खेल बिगड़ गया है। अब नारंग बंधुओं से आगे की बात चलाना व्यर्थ होगा।
‘नारंग बन्धु बहुत आदर्शवादी लोग हैं। स्वाधीनता आंदोलन में भी इस परिवार की सक्रिय भूमिका रही थी। भगत सिंह से भी इन लोगों के आत्मीय संबध थे। तुमने उधार न चुकाया होगा तो वह कभी किस्तों पर प्रेस देने को तैयार न होंगे।'
‘कर्ज़ तो मैंने चुका दिया था। यह दूसरी बात है कि कर्ज़ वसूलने के लिए नारंगजी को मुझे नौकरी दिलवानी पड़ी थी।'
उन दिनों लेक्चरार को कुल जमा दो सौ सत्तर रुपये मिलते थे। मैंने एक अकलमंदी की थी कि पहली तारीख को मैंने अपनी समूची तनख्वाह नारंगजी को सौंप दी थी। उन्होंने मुझपर तरस खाकर मुझे पचास रूपये जेब खर्च के लिए लौटा दिये थे और शेष रकम मेरे हिसाब में जमा कर ली। अगले ही महीने मैं ऋणमुक्त हो गया था। यह सुनकर नन्दनजी कुछ आश्वस्त हुए। उनके चेहरे का तनाव कुछ कम हुआ, ‘तब तो बात आगे बढ़ायी जा सकती है।' और नन्दनजी अगले रोज़ से बात बनाने में व्यस्त हो गये।
अंततः तय हुआ कि इलाहाबाद जाकर प्रेस देखा जाये और संभावनाएं तलाशी जाएँ। मैं तो आज़ाद पंछी था, नन्दनजी को छुट्टी लेने के लिए पिता की मिजाज़पुर्सी के लिए गांव जाने का बहाना करना पड़ा था। ‘धर्मयुग' में छुट्टी मिलना वैसे ही कठिन होता था, नन्दनजी के लिए तो और भी कठिन। भारतीजी न छुट्टी लेते थे न देते थे। वह पूर्णरूप से ‘धर्मयुग को समर्पित थे। उसे ओढ़ते थे और उसे ही बिछाते थे। कई बार तो कोई शंका हो जाने पर आधी रात को उठकर प्रेस चले जाते। एक बार गिन्ज़बर्ग के सन्दर्भ में मैंने अपने पृष्ठ पर अमूर्त्त किस्म का एक न्यूड विजुअल छपने भेज दिया था, भारतीजी का मन नहीं माना और उन्होंने आधी रात को प्रेस जाकर मशीन रुकवा दी। मशीन का एक-एक मिनट कीमती माना जाता था और भारतीजी ने बहुत देर के लिए मशीन रुकवा दी थी, सिलेंडर पर से वह चित्र घिसवाना पड़ा था। उन दिनों मुद्रण कार्य आज की तरह आसान नहीं था, फोटो एंग्रेवर की बहुत जटिल प्रक्रिया होती थी। हफ्तों भारतीजी की मैनेजमेंट से मशीन रुकवाने को लेकर चख-चख चलती रही।
बहरहाल, इलाहाबाद के लिए छद्म नाम से दो सीटें आरक्षित करवायी गयीं। कोशिश यही थी कि नन्दनजी और मुझे को कोई जासूस साथ-साथ न देख ले। मैं तो बागी करार दिया जा चुका था और बागी को प्रश्रय देना और उसके साथ-साथ घूमना उतना ही बड़ा अपराध था, जितना अंग्रेजों के समय में रहा होगा या इंडियन पीनल कोड में आज भी है। उन्हीं दिनों किसी ने नन्दनजी और मुझे किसी फिल्म के बाद साथ-साथ थियेटर की सीढ़ियाँ उतरते देख लिया था और नन्दनजी जवाब तलब हो गये थे और यह तो एक हजार किलोमीटर से भी लम्बी यात्रा थी। कल्याण तक तो हम लोगों ने एक-दूसरे से बात तक न की। तमाम एहतियाती कदम उठाये गये। यात्रा तो सही-सलामत कट गयी, लेकिन इलाहाबाद स्टेशन पर एक हादसा पेश आते-आते रह गया। हम लोग ट्रेन से उतर रहे थे कि सामने ओंकारनाथ श्रीवास्तव दिखायी पड़ गये। उनके साथ कीर्ति चौधरी थीं। भारतीजी और ‘धर्मयुग से ये लेखक दंपत्ति जुड़े थे। भारतीजी के यहाँ उनसे परिचय हुआ था। उन्हें देखते ही हम लोगों की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी और हम लोग स्वाधीनता सेनानियों की तरह पुलिस को चकमा देते हुए अलग-अलग दिशा में चल दिये। मैं पटरियाँ फलांगते हुए एक नम्बर प्लेटफार्म पर जा पहुँचा। मुझे तो कोई फर्क न पड़ता मगर नन्दनजी के साथ मुझे इलाहाबाद स्टेशन पर देखने की खबर भारतीजी को मिलती तो नन्दनजी के लिए संकट खड़ा हो जाता। इलाहाबाद से भारतीजी पहले ही बहुत सशंकित रहते थे। भावनात्मक रूप से वह इलाहाबाद से जुड़े थे, मगर इलाहाबाद के लेखकों पर से उनका विश्वास उठ चुका था। केशवचंद्र वर्मा उन्हें इलाहाबाद का कच्चा चिट्ठा लिखते रहते थे। यह दूसरी बात है कि पुष्पाजी जब भारतीजी की अस्थियां लेकर इलाहाबाद आईं तो उनकी अस्थियों के दर्शन के लिए पूरा इलाहाबाद उमड़ आया था। भारतीजी एक बार इलाहाबाद से गये तो दुबारा कभी नहीं लौटे, लौटीं तो उनकी अस्थियां। मैंने ‘गंगा यमुना' में प्रथम पृष्ठ पर शीर्षक दिया ः
मुट्ठी भर फूल बनकर प्रयाग लौटे धर्मवीर भारती।
मैं बहुत देर तक एक नं0 प्लेटफार्म पर नन्दनजी की प्रतीक्षा करता रहा। बहुत देर बाद जब प्लेटफार्म लगभग खाली हो गया तो नन्दनजी कुली के पीछे खरामा-खरामा चलते नज़र आये। रानी मंडी स्टेशन के पास ही था। स्टेशन से रिक्शा में रानी मंडी पहुँचने में पांच मिनट भी न लगे।
हम लोग प्रेस पहुंचे तो देखा नारंगजी अत्यंत तल्लीनता से मशीन प्रूफ पढ़ रहे थे। बीच-बीच में वह मैग्नीफाइंग ग्लास की मदद भी लेते। हमें देखकर उनके चेहरे पर कोई प्रतिक्रिया न हुई। हम लोग मेज़ के सामने पड़ी कुर्सियों पर बैठ गये। मुझे लगा, नारंगजी को मेरी कारस्तानियों की भनक लग चुकी है और वह जानबूझकर हमारी उपेक्षा कर रहे हैं। नन्दनजी प्रेस के तमाम कर्मचारियों से परिचित थे, उन्होंने बद्री को चाय-नाश्ते का इंतज़ाम करने के लिए कहा। नारंगजी ने जब तक पूरा फ़ार्म न पढ़ लिया, हम लोगों की तरफ आँख उठाकर न देखा। मैं नारंगजी के बड़े भाई से परिचित था, वह भी बहुत कम बोलते थे, मगर वह चुप्पी के भीतर से भी बहुत कुछ कह देते थे। मुझे दोनों भाइयों में कोई समानता नज़र नहीं आ रही थी। धर्मचंद्रजी कमीज़-पतलून पहनते थे और इन्द्रचंद्रजी का लिबास शुद्ध गाँधीवादी था यानी खादी का धोती-कुर्ता। देखने में भी वह अपने बड़े भाई से बड़े लगते थे।
इस बीच नाश्ता आ गया। हम लोगों ने ऊपर जाकर नाश्ता किया। नन्दनजी मुझे धीरे से बता चुके थे कि जब तक नारंगजी प्रूफ़ न निपटा लेंगे किसी से बात न करेंगे। ‘धर्मयुग' में मैं भी अपने पृष्ठों के प्रूफ़ पढ़ता था, मगर बिना किसी तनाव के। इतनी एकाग्रता भी दरकार न थी। प्रूफ़ निपटाकर नारंगजी ऊपर आये, जैसे कोई महत्वपूर्ण और जटिल आपरेशन करके फ़ारिग हुए हों।
नाश्ते के बाद बिना एक भी क्षण नष्ट किये वह उठ खड़े हुए और बोले, ‘आइए आपको प्रेस दिखा दूँ।' हम लोगों ने मशीनें देखी, जबकि लेटर प्रेस की मशीनों की न मुझे कोई जानकारी थी, न नन्दनजी को। नारंगजी हर काम नियामानुसार करते थे। दस श्रमिकों से फैक्टरी एक्ट लागू हो सकता था, वह नौ श्रमिकों से काम लेते थे। दो मशीनें थीं, दोनों निःशब्द चल रही थीं। छह कंपोजिटर थे, सब चुपचाप कंपोजिंग कर रहे थे। ग़ज़ब का अनुशासन और सन्नाटा था। अगर बीच का दरवाजा बंद कर दिया जाए तो कोई अनुमान नहीं लगा सकता था कि भीतर नौ आदमी काम कर रहे हैं या मशीनें चल रही हैं। सब कुछ चुस्त-दुरुस्त और व्यवस्थित था।
‘मेरी भाई साहब से बात हो गयी है, वह राज़ी हो गये हैं।' नारंगजी ने अपनी सीट पर बैठते हुए नन्दनजी से पूछा, ‘आपको मालूम है, मैं सीट पर गद्दी क्यों रखता हूँ?'
हम दोनों ने अनभिज्ञता में सिर हिलाया। नारंगजी ने बताया कि वह किसी सुविधा या आराम के लिए सीट पर गद्दी नहीं रखते, बल्कि इसलिए रखते हैं कि इससे बेंत जल्दी नहीं टूटती।
नारंगजी ने एक ड्राअर से एक मोटी फाइल निकाली। उसमें प्रेस सम्बन्धी सब दस्तावेज़ थे-- मशीनों के मूल बिल, सामान की लंबी फेहरिस्त, रजिस्ट्रेशन के तमाम कागज़ात। फाइल पलटते हुए उन्होंने ‘डासन पेन एंड इलियट' कंपनी का पूरा इतिहास भी बता डाला, जिनसे उन्होंने मशीनें आयात की थीं। बगैर किसी भूमिका के उन्होंने अपनी शर्तें भी रख दीं-- ‘दस हजार रुपये आपको अग्रिम देने होंगे, शेष रकम का भुगतान छत्तीस मासिक किस्तों में करना होगा। आप जब पैसे का इंतज़ाम कर लें, प्रेस संभाल लें। इस बीच मैं वकील से कागज़ात तैयार करवा लूँगा।'
‘मैं तो प्रेस के काम के बारे में कुछ भी नहीं जानता।' मैंने कहा ।
‘सब जान जाएँगे। उसका भी मैं इंतजाम कर दूंगा।' नारंगजी ने कहा, ‘यहाँ हिंदी साहित्य सम्मेलन का एक बड़ा लैटर प्रेस है। विचित्रजी उसके प्रबंधक हैं। मैं लाहौर से उन्हें जानता हूँ। आप उनसे मिल लें, मेरा हवाला दे दें, वह आपको महीने भर में प्रेस के सब दाँव-पेंच समझा देंगे।'
ये सब बाद की बातें थीं। फिलहाल तो मुझे अपने हिस्से के पांच हजार रुपयों की चिंता हो गयी, जो आज से पैंतीस साल पहले काफी बड़ी रकम थी, जब सोने का दाम सवा सौ रुपये तोले था। मैंने सोचा, इसके बारे में जिन पीकर ही विचार किया जा सकता है। लौटते हुए मैंने एक जगह रिक्शा रुकवाया और चौक में मदन स्टोर से लाइम कार्डियल की एक बोतल खरीदी जिन की बोतल मेरे सूटकेस में थी। मुझे बहुत ताज्जुब हुआ जब मदन स्टोर ने रिक्शा वाले को ग्राहक लाने के लिए मेरे सामने एक रुपया बख्शीश में दे दिया । ऐसा तो मैंने किसी शहर में नहीं देखा था।
पांच हजार रुपयों के इंतज़ाम की उधेड़बुन में मैं बम्बई पहुँचा, मुझे आभास भी नहीं था कि बम्बई पहुँचते ही मेरी समस्या का कोई चमत्कारिक हल निकल आयेगा। उन दिनों मैं हरीश भादानी की पत्रिका ‘वातायन' के लिए नियमित रूप से स्तंभ लेखन करता था। ‘वातायन' के पृष्ठों पर मैंने काफी आग उगली थी। ओमप्रकाश निर्मल ने प्रतिक्रिया स्वरूप एक लंबा पत्र भेजा था। उन्हें मेरा तेवर पसंद था, मगर लोहियावादियों के बारे में की गयी टिप्पणियों पर एतराज था। हरीश भादानी और विश्वनाथ सचदेव से अक्सर भेंट होती रहती थी। भादानी और विश्वनाथ ने चुटकियों में पैसे का इंतज़ाम कर दिया। अगले रोज़ वे लोग मुझे अपने एक मारवाड़ी उद्योगपति मित्र के यहाँ ले गये और उन्होंने इससे पहले कि हम कुछ कहते टेलीफोन पर बात करते-करते तिजोरी खोली और पांच हज़ार रुपये मुझे सौंप दिये। सेठजी एक टेलीफोन रखते तो दूसरा टनटनाने लगता। उनके पास शुक्रिया कुबूल करने का भी समय नहीं था। इशारों से ही अभिवादन करते हुए उन्होंने हम लोगों को विदा कर दिया। मैं आज तक नहीं जान पाया कि वह दानवीर कर्ण कौन था। गत पैंतीस वर्षों से हरीश भादानी से भी मेरी भेंट हुई, न पत्राचार। बहुत बाद में मार्कण्डेयजी ने बताया था कि संसद सदस्या सरला माहेश्वरी हरीश भादानी की पुत्री हैं और अरुण माहेश्वरी दामाद।
(क्रमशः अगले अंकों में जारी….)
ग़ालिब छुटी शराब
रवींद्र कालिया
(पिछले अंक से जारी…)‘धर्मयुग' का माहौल अत्यन्त सात्विक था। संपादकीय विभाग ऊपर से नीचे तक शाकाहारी था। ‘धर्मयुग' का चपरासी तक बीड़ी नहीं पीता था। सिगरेट-शराब तो दूर, कोई पान तक नहीं खाता था। कई बार तो एहसास होता यह दफ़्तर नहीं कोई जैन धर्मशाला है, जहाँ कायदे-कानून का बड़ा कड़ाई से पालन होता था। दफ़्तर में मुफ्त की चाय मिलती थी, जिसे लोग बड़े चाव से पीते थे। साथियों के व्यवहार से लगता था जैसे सबके सब गुरुकुल से आये हैं और बाल ब्रह्मचारी हैं। मैं घाट-घाट का पानी पीकर मुम्बई पहुँचा था, दिल्ली में एकदम स्वच्छंद, फक्कड़ और लगभग अराजक जीवन बिताकर, मैं बगैर किसी कुंठा के दफ्तर में सिगरेट फूँकता। धीरे-धीरे मैंने साथियों को दीक्षित करना शुरू किया और कुछ ही महीनों में दो-एक साथियों का दारू से ‘अन्न प्राशन' करने में सफल हो गया। ‘धर्मयुग' की अपेक्षा ‘वीकली', ‘फेमिना', ‘माधुरी' यहाँ तक कि सारिका का स्टाफ उन्मुक्त था। ‘धर्मयुग की शोक सभा से उठकर मैं प्रायः उनके बीच जा बैठता। ‘माधुरी' में उन दिनों जैनेन्द्र जैन (बॉबी फेम) हरीश तिवारी, विनोद तिवारी थे तो सारिका में अवधनारायण मुद्गल। इन लोगों के साथ कभी-कभार ‘चियर्स' हो जाती। इन्हीं मित्रों से पता चला कि ‘धर्मयुग' के मेरे सहकर्मी स्नेहकुमार चौधरी भी ग़म गलत कर लिया करते हैं। चौधरी की सीट ठीक मेरे आगे थी। वह बहुत निरीह और नर्वस किस्म का व्यक्ति था। बच्चों की तरह बहुत जल्द खुश हो जाता और उससे भी जल्द नाराज़। उसने मारवाड़ी होते हुए एक बहुत क्रान्तिकारी कदम उठाया था यानी प्रेम विवाह किया था, एक बंगाली युवती से। कोर्टशिप के दौरान ही वह बंगाली सीख गया था और घर पर केवल बंगला में ही बातचीत करता था। उस युवती के लिए उसने अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया था- तन, मन, यहाँ तक कि भाषा भी, बंगालिन से उसे एक ही शिकायत थी कि वह उसे घर में मद्यपान करने की इजाज़त न देती थी। घर में वह बंगालिन के शिकंजे में रहता था और दफ़्तर में संपादक के। भीतर ही भीतर वह कसमसाता रहता था। एक दिन मुझे पता चला कि वह बोतल खरीद कर पीने का ठौर तलाश रहा है तो मैंने चुटकियों में उसकी समस्या हल कर दी।
मुम्बई में पेईंग गेस्ट की हैसियत से रहता था और मेरे मेज़बान को बिना दारू पिये नींद नहीं आती थी। मैंने सोचा कि उसकी भी एक दिन की समस्या हल हो जायेगी, यह दूसरी बात है उस दिन वह बहुत देर से लौटा था, वह भी किसी पार्टी से टुन्न होकर। मेरी चौधरी से छनने लगी। वह बेरोकटोक हमारे यहाँ आने लगा। वह जब परेशान होता, बोतल लेकर हमारे यहाँ चला आता। दफ़्तर में ‘धर्मयुग' का माहौल ऐसा था कि यह आभास ही नहीं होता था कि यहाँ से देश का सर्वाधिक लोकप्रिय साप्ताहिक पत्र सम्पादित हो रहा है, लगता था जैसे रोज़ आठ घण्टे कोई शोकसभा होती हो। यहाँ दो मिनट का मौन नहीं आठ घण्टे का मौन रखने की रस्म थी। बगल में ही इलस्ट्रेटेड वीकली और पीछे ‘सारिका' और माधुरी का स्टॉफ था, जहाँ हमेशा चहल पहल रहती। लोग हंसी मज़ाक करते। लंच के समय बाहर चाय भी पी आते, मगर ‘धर्मयुग' का सम्पादकीय विभाग अपनी-अपनी मेज़ पर टिफ़िन खोल कर चुपचाप लंच की औपचारिकता निभा लेता और जेब में रखे रूमाल से हाथ पोंछ कर दुबारा काम में जुट जाता। सम्पादकों को कम्पनी की तरफ़ से लंच मिलता था। भारतीजी अपने कैबिन से निकलते तो ‘धर्मयुग' के सन्नाटे में उन की पद्चाप सुनायी पड़ती। सन्नाटे से ही भनक लग जाती कि भारतीजी लंच से लौट आये हैं। उनका चपरासी रामजी दरवाजा खोलने के लिए तैनात रहता। शायद यही सब कारण थे कि ‘धर्मयुग' के सम्पादकीय विभाग को अन्य पत्रिकाओं के पत्रकार ‘कैंसर वार्ड' के नाम से पुकारते थे।
उन दिनों मैं भारतीजी का लाडला पत्रकार था। भारतीजी ने साहित्य, संस्कृति और कला के पृष्ठ मुझे सौंप रखे थे, जो अंत तक मेरे पास रहे। मैं दफ़्तर में ही नहीं, भारतीजी के सामने भी सिगरेट फूंक लेता था। उन दिनों यह ‘धर्मयुग' का दस्तूर था कि जिस पर भारतीजी की कृपा दृष्टि रहती थी, सब सहकर्मी उससे सट कर चलते थे, जिससे भारतीजी खफ़ा, उससे पूरा स्टॉफ भयभीत। मैंने जब लंच के बाद बाहर फोर्ट में किसी ईरानी रेस्तरां में चाय पीने का सुझाव रखा तो सबने खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया। अब वीकली, माधुरी, सारिका के स्टॉफ की तरह हम भी आधा घण्टे के लिए अपने दड़बे से निकलने लगे। नन्दन जी मेरा खास ख्याल रखते, शायद दिल्ली से मोहन राकेश ने उन्हें मेरा ख्याल रखने की हिदायत दी थी। बहरहाल मेरे आने से माहौल में कुछ परिवर्तन आया। उसका एक आभास उस पत्र से मिल सकता है, जो शरद जोशी ने भोपाल से नन्दनजी को लिखा था। उस पत्र को यहाँ उद्धृत करना अप्रासंगिक न होगा। यद्यपि यह पत्र नन्दनजी के पास आया था, मैंने उनसे ले लिया। वह शायद इस पत्र को अपने पास रखने का जोखिम भी नहीं उठाना चाहते थे। मैंने अपनी पुस्तक कामरेड मोना लिज़ा में भी इसे उद्धृत किया था। उस बरस ‘धर्मयुग' के होली विशेषांक में नन्दनजी, प्रेम कपूर और मेरी संयुक्त तस्वीर छपी, जिसमें हम लोग मुस्करा रहे थे। ‘धर्मयुग' के लेखकों ने विश्वास न किया। शरद जोशी का पत्र परोक्ष रूप से ‘धर्मयुग' के माहौल पर एक टिप्पणी करता है।
प्रिय नन्दन,
जो तस्वीर छपी है, उसमें रवीन्द्र कालिया मुस्करा रहा है। यह निहायत अफसोस की बात है। वह सीरियस रायटर है, उसे ऐसा नहीं करना चाहिये। अगर बम्बई आकर वह मुस्कराने लगा तो इसके लिए जिम्मेदार तुम लोग होगे। कुछ हद तक ममता अग्रवाल भी। यों मुझे भोपाल में गंगाप्रसाद विमल बता रहा था कि कालिया में ये तत्व दिल्ली में भी पाये जाते थे। खेद की बात है। उसे सीरियस रायटर बना रहने दो।
तुम्हारा,
शरद जोशी।
वर्षों ‘धर्मयुग' से सम्बद्ध रहने के बावजूद शायद पहली बार नन्दनजी की तस्वीर छपी थी और वह भी मेरे इसरार पर। उन्होंने हमेशा अपने को नेपथ्य में ही रखा था। ‘धर्मयुग' के लिए उन्होंने बहुत कुछ लिखा मगर अपना नाम शायद ही कभी दिया हो। ऐसे में तस्वीर का छपना एक चमत्कारिक घटना थी। हुआ यह था कि भारती पुष्पा जी से शादी रचाने लखनऊ गये हुए थे- जबकि वे लोग अर्से से साथ-साथ रह रहे थे। जाते हुए वह अपना फ़्लैट मुझे और ममता को सौंप गये। उनका लम्बा दौरा था। हनीमून के लिए वे लोग खजुराहो भी गये थे। इस बीच वह नन्दनजी को होली विशेषांक की डमी सौंप गये थे।
‘धर्मयुग' के एक साथ छह अंक प्रेस में रहते थे। ऐन मौके पर होली विशेषांक के दो पृष्ठ विज्ञापन विभाग ने छोड़ दिये। भारतीजी का इतना दबदबा था कि वह अक्सर अनुपात से अधिक विज्ञापन छापने से मना कर देते थे, यही कारण था कि विज्ञापन विभाग प्रायः आवश्यकता से अधिक पृष्ठ घेरने का शेड्यूल बनाता था। यकायक दो पृष्ठ खाली हो जाने से एक नया संकट शुरू हो गया--- भारती की अनुपस्थिति में इन पृष्ठों पर क्या प्रकाशित किया जाय, इसका निर्णय कौन ले। नन्दन जी को अधिकार था मगर यह हो ही नहीं सकता था कि नन्दनजी के चुनाव पर भारती जी प्रतिकूल टिप्पणी न करें, जबकि यह भी संयोग था कि भारतीजी जब-जब छुट्टी पर गये ‘धर्मयुग' का सर्क्युलेशन बढ़ गया। प्रकाशित सामग्री पर भारतीजी का इतना अंकुश रहता था कि सम्पादक के नाम भेजे गये पत्रों का चुनाव वह खुद करते थे। नन्दनजी की उलझन देख कर मैंने उन्हें सुझाव दिया कि इन पृष्ठों पर एक फोटो फीचर प्रकाशित किया जाए। बसों में सफर करते हुए मैंने हिन्दी के लेखकों के नाम कई दुकानों पर देखे थे- जैसे केशव केश कर्तनालय, भैरव तेल भण्डार, श्रीलाल ज्वैलर्स, यादव दुग्धालय, डॉ0 माचवे का क्लीनिक आदि। नन्दनजी को सुझाव जंच गया और नन्दनजी, प्रेमकपूर, मैं एक फोटोग्राफर लेकर टैक्सी में बम्बई की परिक्रमा करने निकल गये। होली के अनुरूप अच्छा खासा फोटो फीचर तैयार हो गया। फोटोग्राफर ने हम तीनों का भी चित्र खींच लिया। खाली पृष्ठों पर यह फोटो-फीचर छप गया और खूब पसन्द किया गया। रात को भारतीजी का फोन आया, वह बहुत प्रसन्न थे, लखनऊ में उनकी जिन-जिन लेखकों से भेंट हुई, सबने इसी फीचर की चर्चा की। दो पृष्ठों के एक कोने में कला विभाग ने हम तीनों का चित्र भी पेस्ट कर दिया, मैंने शीर्षक दिया- कन्हैया, कालिया और कपूर यानी तीन किलंगे (तिलंगे की तर्ज़ पर)। मैंने जब फोन पर नन्दनजी को भारतीजी के फोन की सूचना दी तो उन्होंने राहत की सांस ली। फीचर से तो नन्दनजी समझौता कर चुके थे, मगर तीनों के चित्र से आशंकित थे। शायद भारतीजी ने उन्हें सदैव नेपथ्य में रहने का ही पाठ पढ़ाया था।
इसी बीच एक दुर्घटना हो गयी। अचानक चौधरी के पिता के निधन की खबर आयी। वह छुट्टी लेकर अजमेर रवाना हो गया। लौटा तो उसके पास सिगरेट का एक बट, था जिसे उसने सहेज कर चाँदी की छोटी-सी डिबिया में रखा हुआ था। यह उस सिगरेट का अवशेष था, जिसका कश लेते-लेते उसके पिता ने अंतिम सांस ली थी। अजमेर से वह लौटा तो एक बदला हुए इन्सान था। उसकी जीवन शैली में अचानक परिवर्तन आने लगा। अचानक वह आयातित सिगरेट और शराब पीने लगा। उसे देखकर कोई भी कह सकता था कि इस शख्स के रईस पिता की अभी हाल में मौत हुई है। पिता के निधन के बाद उसमें एक नया आत्मविश्वास पैदा हो गया। इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि एक दिन उसने घर पर बंगालिन की उपस्थिति में बोतल खोल ली और वीरतापूर्वक पत्नी का मुकाबला करता रहा। वह घर में और दफ़्तर में अपने दायिमी दब्बूपन से मुक्ति पाने के लिए संघर्ष करने लगा।
दफ़्तर में डॉ0 धर्मवीर भारती एक कुशल प्रशासक की तरह ‘डिवाइड एण्ड रूल' में विश्वास रखते थे। उपसंपादकों को एक साथ कहीं देख लेते तो उनकी भृकुटी तन जाती। बहुत जल्द इसके परिणाम दिखायी देने लगते। किसी को अचानक डबल इन्क्रीमेंट मिल जाता। किसी एक से सपारिश्रमिक अधिक लिखवाने लगते। किसी एक का वजन अचानक बढ़ने लगता। कोई एक अचानक देवदास की तरह उदास दिखने लगता। चुगली से बाज रहने वाला आदमी अचानक चुगली में गहरी दिलचस्पी लेने लगता। सम्पादक के कृपापात्र को सब संशय से देखने लगते। वह भरे दफ़्तर में अकेला हो जाता।
एक दिन अचानक संपादक ने स्नेहकुमार चौधरी को आरोप-पत्र जारी कर दिया। उसपर गंभीर आरोप लगे थे कि वह ‘धर्मयुग' की सामग्री और चित्र, ट्रांसपरेंसियां ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान' को प्रेषित करता है। चौधरी बहुत सीधा और कायर किस्म का शख्स था। पत्र पाकर उसे मर्मांतक पीड़ा पहुँची। अचानक उसे अपने दिवंगत पिता की शिद्दत से याद आने लगी। दफ़्तर से घर लौटते हुए वह इतना भावुक हो गया कि दादर आते-आते रोने लगा। पता नहीं चल पा रहा था कि वह अपने पिता की याद में रो रहा है अथवा संपादक के दुर्व्यवहार से। इस बीच मेरी शादी हो चुकी थी और हम लोगों ने शीतलादेवी रोड पर आवास की व्यवस्था कर ली थी। माटुंगा पर हम दोनों गाड़ी से उतर गये। उसे मैं अपने साथ घर ले गया। ममता ने किस्सा सुना तो वह भी बहुत क्षुब्ध हुई। उसने कहा कि तुम दोनों अभी भारतीजी के यहाँ जाओ और पूछो कि वह किस आधार पर इतना ओछा आरोप लगा रहे हैं। वास्तव में किसी फोटोग्राफर ने दोनों पत्रिकाओं में चित्र छपवा कर अपने बचाव के लिए कहानी गढ़ ली थी। चौधरी की सूरत देखकर ममता इतनी उद्विग्न हो गयी कि ऐसे दमघोंटू माहौल में काम करने पर लानत-मलामत भेजने लगी। उसने चिंता प्रकट की कि इनके भी बीवी-बच्चे हैं। वे लोग सुबह से इनकी राह देख रहे होंगे। इनकी सूरत देखकर उन पर क्या गुजरेगी। ऐसे नारकीय माहौल में काम करने से अच्छा है कोई दूसरा काम ढूंढ लें।
ममता की बात से वह कुछ उत्साहित हुआ। उसने वाशबेसिन पर जाकर मुंह धोया और अचानक सीढ़ियां उतर गया। कुछ देर बाद वह लौटा तो उसके हाथ में विस्की की पूरी बोतल थी। चेहरे पर आत्मविश्वास लौट आया था और आँखों में चिर-परीचित बाल सुलभ वीरता का भाव था। उसने काजू आदि नमकीन का पैकेट मेज पर रखते हुए कहा, ‘आज इसका फैसला हो ही जाना चाहिये। तुम मेरा साथ दो तो मैं अभी भारती के यहाँ जाकर उनसे दो टूक बात कर सकता हूँ।' उत्तेजना में उसने विस्की की सील तोड़कर दो पैग तैयार किये और ‘चीयर्स' कह कर गटागट पी गया। हम लोगों ने इत्मीनान से जी भरकर व्हिस्की का सेवन किया। पीने के मामले में हम दोनों नये मुसलमान थे। पीते-पीते हम दोनों स्वाभिमान से लबालब भर गये। अन्याय, शोषण और लांछन के प्रति विद्रोह की भावना तारी होने लगी, जब तक हम पूरी तरह स्वाधीन होते बारह बज गये थे।
उन दिनों पीने का ज़्यादा अनुभव तो था नहीं, अचानक मैं अपने को एक बदला हुआ इंसान महसूस करने लगा। दुनियावी रंजोगम बौने नज़र आने लगे। बदसलूकी, अन्याय और शोषण के खिलाफ धमनियों में उमड़ रहा रक्त विद्रोह करने लगा।
‘उठो!' मैंने चौधरी को ललकारा, ‘आज फैसला हो ही जाना चाहिये। अभी चलो वामनजी पैटिट रोड, भारती के यहाँ।'
मगर मेरे मित्र पर विस्की का विपरीत असर हुआ था। उसका सारा आक्रोश शांत हो गया था, बोला, ‘अब घर जाऊंगा।'
‘शराब पीकर मैं उनके यहाँ नहीं जा सकता।'
‘अन्दर जाकर कै कर आओ।' मैंने कहा, ‘तुम्हारे जैसे नामर्दों ने ही उसे शेर बनाया है। आज फैसला होकर रहेगा।'
मेरे तेवर देखकर वह सहम गया, बोला ‘एक शर्त पर चल सकता हूँ। जो कुछ कहना होगा तुम्हीं कहोगे। मैं सिर्फ मूड़ी हिलाऊंगा।'
‘गुडलक', ममता ने कहा।
नीचे जाकर हम लोगों ने टैक्सी की और दस-पन्द्रह मिनट बाद हम लोग भारतीजी के यहाँ लिफ़्ट में चौथे माले की ओर उठ रहे थे, पाँचवे माले पर जीने से पहुँचना था। भारतीजी के फ़्लैट के सामने पहुँचकर मैंने कॉलबेल दबायी। पीछे मुड़कर देखा चौधरी वहाँ नहीं था, वह चौथे माले पर ही खड़ा था। मैंने उसे आवाज़ दी न भारती जी का दरवाजा खुला, न चौधरी दिखायी दिया। दो स्टेप्स उतरकर मैंने देखा, वह जीने की ओट में छिपकर खड़ा था और मुझे लौटने का इशारा कर रहा था। उसकी इस हरकत की मुझ पर विपरीत प्रतिक्रिया हुई। मैंने पलटकर कॉलबेल पर जो अंगूठा रखा तो दबाता ही चला गया। आघी रात के सन्नाटे में घंटी की कर्कश आवाज़ ने जैसे कुहराम मचा दिया था, तभी दरवाजे में लगी ‘मैजिक आई' में से किसी ने देखा।
‘कौन है?' अंदर से आवाज़ आई।
‘नमस्कार', मैंने कहा, ‘मैं कालिया।'
अब तक मुझे इस परिवार में बहुत स्नेह मिला था। पुष्पाजी ने तुरन्त दरवाजा खोल दिया, मुझे देखकर आश्चर्य से उनकी आँखे फैल गयीं, ‘तुम? इस समय? खैरियत तो है?'
‘हूँ, मैंने कहा, मैं मुंह नहीं खोलना चहता था। मैंने गर्दन घुमाकर पीछे देखते हुए कहा, ‘बहुत जरूरी काम था।'
‘मगर भारतीजी तो सो रहे हैं।'
‘उन्हें जगा देंगी तो बड़ी कृपा होगी।' मैंने छत की तरफ देखते हुए कहा और पुष्पाजी की आँख बचाकर दो-चार इलायचियाँ मुंह में और रख लीं।
मेरी आँखे सुर्ख हो रही थीं, उन में शराब का खून उतर आया था। स्नेहकुमार चौधरी मेरे पीछे दुबका खड़ा था। पुष्पाजी बेडरूम की तरफ चल दी थीं और हम दोनों ड्राइंगरूम में गुजराती सोफे पर पसर गये थे। थोड़ी देर बाद भारतीजी खादी की जेब वाली बनियान (बंडी) पहने आँखें मलते हुए ड्राइंगरूम में दाखिल हुए। उन्हें देखकर हम दोनों आदतन खड़े हो गये।
‘बैठो।' उन्होंने कहा। चौधरी को देखकर वह सारा किस्सा समझ गये होंगे, जो उस समय काँपती टांगों के बीच हाथ फँसाये चुपचाप हनुमान चालीसा का पाठ कर रहा था।
‘कैसे आये?'
‘दफ़्तर में बहुत घुटन है। मासूम लोगों का भी दम घुट रहा है। आज यह चौधरी इतना दुखी था कि ट्रेन में रोते हुए घर जा रहा था।'
‘यह निहायात बेवकूफ है। मैं इससे बहुत प्यार करता हूँ। इसकी फाइल तुम्हें दिखाऊंगा कि कितनी गंभीर गलतियाँ करता है। मैंने हमेशा इसे बचाया है। पिछले साल तो डबल इन्क्रीमेंट भी दिलवाया था। बोलो, मैं गलत कह रहा हूँ क्या?' भारतीजी ने चौधरी को लक्षित करते हुए पूछा।
चौधरी सहमति में उत्साहपूर्वक सिर हिलाने लगा।
‘सहयोगी पत्रिकाओं का स्टॉफ ‘धर्मयुग' को कैंसर वार्ड कहता है।' भारतीजी का चेहरा उतर गया, 'कौन कहता है?'
‘सब कहते है,' मैंने कहा, ‘आप सोच रहे होंगे यह नौकरी करके हम बहुत प्रसन्न होंगे, ऐशो आराम से जिन्दगी बसर कर रहे होंगे तो यह आपका भ्रम है, दफ़्तर में घुटन है और घर में सीलन। दफ़्तर में आतंक का माहौल है और घर में चूहों, मच्छरों और खटमलों का उत्पात। जो शख्स ट्रेन में रोते हुए घर पहुँचेगा, उसके बच्चे क्या सोचेंगे? उसके परिवार का माहौल कैसा होगा? लानत है ऐसी अभिशप्त जिंदगी पर।'
मैं नशे में था, निर्द्वंद्व था, सातवें आसमान पर था। शराब के नशे और जुनून में मैंने जैसे जेल की पूरी आचार संहिता तहस-नहस कर दी, तमाम बेड़ियां उतार फेंकी।
चौधरी बदस्तूर टकटकी लगाये छत पर लटके फानूस को देख रहा था। अब वह टांग नहीं हिला रहा था, अब उसकी टांगे कांप रही थीं।
‘तुम लोगों ने खाना खाया?' सहसा भारतीजी ने पूछा।
‘न।' मैंने नशे की झोंक में कहा, ‘हम लोग इस्तीफा देना चाहते हैं।'
भारतीजी ने पुष्पाजी को आवाज़ दी और कहा कि बच्चे भूखे हैं, इनके लिए प्यार से रोटी सेंक दो। नौकर सो चुका था।
मैंने सिगरेट सुलगा ली, भारतीजी ने मेज़ के नीचे पड़ी ऐश ट्रे उठाकर मेज के ऊपर रख दी। उनकी उपस्थिति में मैं पहले भी सिगरेट पी लिया करता था।
भारतीजी ने भड़कने के बजाये मेरी तरफ अत्यंत स्नेह से देखते हुए आत्मीयता से कहा, ‘मैं जानता हूँ ‘धर्मयुग' के लिए तुम सरकारी नौकरी को लात मारकर आये हो, मैं लगातार तुम्हारी पदोन्नति के बारे में सोच रहा हूँ। तुम एक काम करो।'
‘क्या?'
‘मेरी एक मदद करो।'
‘बताइए'
‘मैनेजमेंट नंदन के कार्य से संतुष्ट नहीं है। मैंने सुना है, मातहतों से भी उसका व्यवहार ठीक नहीं है। अगर तुम एक प्रतिवेदन तैयार करोगे कि वह अयोग्य है, मातहतों के साथ दुर्व्यवहार करता है और सबको षड्यंत्र के लिए उकसाता है तो समस्त संपादकीय विभाग तुम्हारा साथ देगा।'
नन्दनजी में दूसरी खामियां होंगी, मगर इनमें से एक भी दुर्गुण नहीं था। मैं सन्नाटे में आ गया, चौधरी तो जैसे तय करके आया था, जुबान नहीं खोलेगा।
मैंने फौरन प्रतिवाद किया, ‘नन्दनजी तो दफ़्तर में मेरी मदद ही करते हैं, पहले दिन से। अभी हाल में मेेरी पतलून कूल्हे पर फट गयी थी, उन्होंने नई सिलवा दी।'
मेरी बात सुनकर भारतीजी पहले तो हंस दिये, फिर कृत्रिम क्षोभ से बोले, ‘तुम पतलून सिलवा लो या मेरी मान लो।'
इस बीच पुष्पाजी ने बड़ी फुर्ती से दाल-रोटी तैयार कर ली, ऐसे अवसर पर रेफ्रिजरेटर बहुत काम आता है। उनके यहाँ चटायी बिछा कर भारतीय पद्धति से ही खाना खिलाया जाता था। भारतीजी भी हमारे संग चटायी पर बैठ गये । उन्होंने बड़े प्यार से खाना खिलाया ।
‘भारतीजी, इस काम के लिए भी आपने हमेशा की तरह गलत आदमी चुना है। मैं इस काम के लिए निहायत अयोग्य हूँ, मैंने कहा ।'
मेरी बात का उनपर कोई असर न पड़ा, उन्होंने कहा कि वह मेरी बात ही दोहरा रहे हैं। ‘अब तुम तय कर लो तुम्हें चूहों, मच्छरों और खटमलों के बीच रहना है अथवा ‘धर्मयुग' के सहायक संपादक बनकर सुविधाओं के बीच लिखते हुए एक अच्छा कथाकार बनना है।'
एक लिहाज से भारतीजी ने गलत आदमी नहीं चुना था। एक बार तो लंच के दौरान तमाम उपसंपादकों ने सामूहिक इस्तीफा लिखकर मेरे पास जमा कर दिया था। मैं अच्छा-खासा विस्फोट कर सकता था, लेकिन मेरी जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती। पेट में भोजन जाते ही दारू का नशा कुछ कम हुआ, मगर अभी वीरता का भाव कायम था। यही वजह थी कि मैं अपना इस्तीफा देने की बात तय नहीं कर पा रहा था।
रात के दो बजे थे, जब हमने भारतीजी से विदा ली। बातचीत का कोई नतीजा नहीं निकला था, मगर अंदर का गुब्बार शांत हो गया था। जैसे आँधी तूफान के बाद बारिश हो जाए और मौसम अचानक सुहाना हो जाय। सच तो यह था कि इस घटना के बाद हम दोनों भीतर ही भीतर बुरी तरह सहम गये थे। यह सोचकर भी दहशत हो रही थी कि सुबह किस मुँह से दफ़्तर जाएँगे। मैंने एक टैक्सी रोकी और यह गुनगुनाते हुए बैठ गया ः
काबा किस मुंह से जाओगे ग़ालिब
शर्म तुमको मगर नहीं आती।
चौधरी मुझे शीतलादेवी टेम्पल रोड पर उतारकर उसी टैक्सी से सीधा अंधेरी निकल गया। ममता जग रही थी, वह हमारी भूमिका से बहुत असंतुष्ट हुई। मैं भी बिना बात किये सो गया। दूसरे दिन सुबह सोकर उठा तो नशा काफूर था, दफ़्तर जाने की हिम्मत न हो रही थी, फिर भी हस्बेमामूल नौ तिरपन की गाड़ी से दफ़्तर पहुँचा। लग रहा था, किसी भेड़िये के मुँह में जा रहा हूँ, रातभर में उसने अपने नाखून तेज कर लिऐ होंगे। मगर मुझे ज़्यादा देर तक इस आतंकपूर्ण स्थिति में नहीं रहना पड़ा। उस रोज भारती ही दफ़्तर न आये थे। उससे अगले रोज़ भी छुट्टी पर थे। हमने किसी सहयोगी को भी अपने उस दुःसाहस की भनक न लगने दी।
हम लोगों ने दफ़्तर से छुट्टी तो नहीं ली, मगर कुछ इस अंदाज़ से दफ़्तर जाते रहे कि एक दिन अचानक कोई भूखा शेर माँद से निकलेगा और देखते-ही-देखते दबोच लेगा। दोस्त लोग चुपचाप यह तमाशा देखते रहेंगे, तमाशाबीनों की तरह। मगर शेर जिस दिन जंगल में नमूदार हुआ, निहायत खामोश और संयत था। लग रहा था शिकार में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है। जैसे शेर और बकरियाँ एक घाट पर साथ-साथ पानी पी रहे हों। दफ़्तर में जैसे सतयुग लौट आया था। माहौल में ही नहीं लोगों के स्वास्थ्य में भी सुधार आने लगा। जो रूटीन सामग्री रवीन्द्र कालिया के नाम आती थी, वह श्री रवीन्द्र कालिया के नाम से आने लगी। इसे हम दोनों के अलावा कोई नहीं समझ सकता था कि यह श्री ‘श्री' नहीं, एक खलनायक है, जिसने रिश्तों के बीच मीलों की दूरी स्थापित कर दी थी। चौधरी की स्थिति मुझ से भी नाजुक थी। उसे सहायक संपादक और मुख्य उपसंपादक के स्तर पर ही काम और निर्देश मिल रहे थे। हम लोगों को इलहाम हो रहा था कि यह बेन्याज़ी और अफसानानिगारी जल्द ही एक दिन जल्द रंग लाएगी। बहुत चाहते हुए भी हम अपने सहयोगियों को कयामत की उस रात का किस्सा नहीं सुना पा रहे थे।
अव्वल तो इसपर कोई विश्वास ही न करता और अगर विश्वास कर लेता तो हमारा सामाजिक बहिष्कार होते देर न लगती। यह उस दफ़्तर का दस्तूर था, वहाँ की संस्कृति का हिस्सा था। मुझे ताज्जुब तो इस बात का हो रहा था कि चौधरी मुझ से कहीं अधिक निश्चिंत था, जबकि मैं उसे अपने से कहीं अधिक भीरु और कमज़ोर समझता था। उसे विरासत में इतनी संपत्ति मिल गयी थी कि वह नौकरी का मुखापेक्षी न रहा था। उन दिनों वह बड़ी बेरहमी से पैसा खर्च कर रहा था। इससे पहले वह घर में मद्यपान नहीं करता था मगर अचानक उसमें इतना परिवर्तन आया कि अक्सर घर लौटते हुए बंगालिन के लिए मछली और अपने लिए बोतल ले जाता। एक दिन दफ़्तर के बाद वह मुझे एक पांच सितारा होटल में ले गया और जाम टकराते हुए सुझाव रखा कि क्यों न हम लोग इस जेल से मुक्त होकर अपना कोई कारोबार शुरू करें और आज़ादी से जिएं।
‘सुझाव तो अच्छा है, मगर कारोबार के लिए पैसा कहां है ?' मेरी जिज्ञासा थी।
‘पैसे की चिन्ता न करो, मेरे पास है, मुझे जरूरत है तुम्हारे जैसे कर्मठ और विश्वसनीय पार्टनर की।'
चौधरी का सुझाव मुझे जंच गया, लगा जैसे तमाम जंजीरें टूटकर कदमों में गिर पड़ी हैं। इस बीच एक और पैग चला आया था। हम लोगों ने एक बार फिर गिलास टकराये और ‘चियर्स' कहा। मदिरापान के दौरान तय हो गया कि हम दोनों मुम्बई में एक प्रेस खोलें और उस प्रेस का नाम होगा---- स्वाधीनता। शराब की मेज पर ही हमने गुलामी को नेस्तानाबूद कर दिया और आजादी का बासंती चोला धारण कर लिया। खाना-वाना खाकर हम स्वाधीनता सेनानियों की तरह अपने-अपने घर पहुँचे।
मेरी रज़ामंदी मिलते ही चौधरी ने दफ़्तर से छुट्टी ले ली और रैपिड एक्शन फोर्स की तरह अपने अभियान में संलग्न हो गया। देखते-ही-देखते उसने अंधेरी (पूर्व) में अपने घर के पास ही सड़क के दूसरे छोर साकी नाका रोड पर कैमल इंक की विशाल फैक्टरी के सामने निर्माणाधीन एक औद्योगिक परिसर में प्रेस के लिए एक बड़ा सा ‘शेड' बुक करवा दिया। चौदह हजार रुपये का भुगतान भी कर दिया। महीने भर में परिसर का हस्तांतरण भी ‘स्वाधीनता' प्रेस के नाम हो गया। उसने हम लोगों को भी अपने चालनुमा फ़्लैट की बगल में जगह दिलवा दी और हम लोग शीतलादेवी टेम्पल रोड से अंधेरी (पूर्व) चले आये। स्वाधीनता प्रेस में मेरी बराबर की हिस्सेदारी थी जबकि ज़्यादातर पूंजी चौधरी की ही लगी थी। पहले मैं चौधरी का हमप्याला बना। फिर हमनिवाला और अंत में पार्टनर। इस बीच उसने न केवल इस पार्टनरशिप को कानूनी जामा पहना दिया, बल्कि हम लोग इस्तीफा देते, इससे पूर्व ही वह राजस्थान से छपाई की बूढ़ी, मगर आयातित मशीनों और प्रेस का दीगर सामान भी खरीद लाया। चौधरी का पूंजी निवेश था, मेरी सक्रिय भागीदारी और व्यवस्था की जिम्मेदारी। उसने मेरे माध्यम से अपना इस्तीफा भी भिजवा दिया जो तुरंत तत्काल मंजूर कर लिया गया। अब मेरा मन इस्तीफा देने के लिए मचल रहा था।
एक सुहानी सुबह मैं भी भारतीजी के केबिन में जाकर अपना इस्तीफा पेश कर आया। भारतीजी चौधरी की बलि से संतुष्ट हो गये थे, उन्हें शायद मेरे इस्तीफे की ज़रूरत या उम्मीद न थी, किसी को भी न थी। किसी को भी कयामत की उस रात की जानकारी न थी। भारतीजी ने भी किसी से इसकी चर्चा न की थी, सिवाय टी0 पी0 झुनझुनवाला के, जो मुम्बई के इनकम टैक्स कमिश्नर थे और जिनकी पत्नी शीला झुनझुनवाला समय काटने के लिए ‘धर्मयुग' के महिला पृष्ठ देखा करती थीं। शीलाजी की सीट मेरी बगल में ही थी और वे लंच में मलाई के मीठे टोस्ट खिलाया करती थीं। उन्होंने एक दिन धीरे से बताया था कि पिछले दिनों आधी रात को दो शराबी भारतीजी के घर में घुस गये थे और वह सोच भी नहीं सकतीं कि उन शराबियों में से एक रवीन्द्र कालिया भी हो सकता है। उन्होंने यह भी बताया था कि भारती जी मुझ से नहीं चौधरी से बहुत ख़फा थे। शायद यही कारण था कि मेरा इस्तीफा पाकर भारतीजी हक्के-बक्के रह गये। उन्होंने इस्तीफा पेपरवेट से दबा दिया और पूछा कि मैंने यह भी सोचा है कि इसके बाद क्या करूंगा।
‘फारिग होकर यह भी सोच लूंगा।' मैंने कहा।
भारतीजी ने मेरे इस्तीफे पर तत्काल कोई निर्णय नहीं लिया। मैं छुट्टी की अर्ज़ी देकर नये अभियान में जुट गया। उतनी ही व्यस्त एक नयी आज़ाद दिनचर्या शुरू हो गयी। ठीक सुबह दस बजे टाई-वाई से लैस होकर हाथ में ब्रीफकेस लिए मैं काम की तलाश में निकल जाता। अंधेरी पूर्व में ही छपाई का इतना काम मिल गया कि बाहर निकलने की नौबत न आई। मैंने पाया बड़े-बड़े औद्योगिक संस्थानों की स्टेशनरी दो कौड़ी की थी। लेटर हेड, विजिटिंग कार्ड एकदम पारम्परिक, देहाती और कल्पनाशून्य थे। मेरे पास टाइम्स ऑफ इंडिया का तजुर्बा था, वहां के कला विभाग के कलाकारों से मित्रता थी। मैंने इन संस्थानों की स्टेशनरी का आर्ट वर्क तैयार करवाया जो उनकी प्रचलित स्टेशनरी से कहीं अधिक कलात्मक और आकर्षक था। ज़्यादा दौड़भाग करने की ज़रूरत नहीं पड़ी, क्योंकि हमारे पास काम ज़्यादा था कार्यक्षमता कहीं कम। हम लोग ‘चोक' बनाने वाली जिस कम्पनी का गारंटी कार्ड मुद्रित करते थे, अक्सर पिछड़ जाते। उनकी चोक उत्पादन की क्षमता हमारे गारंटी कार्ड मुद्रित करने से कहीं अधिक थी। तब तक बिजली का कनेक्शन भी मंजूर नहीं हुआ था। हाथ पैर से मशीनों का संचालन किया जाता। आठ बाई बारह इंच की एक नन्हीं सी लाइपज़िक नाम की जर्मन टे्रडिल मशीन थी, जिस पर मैं वक्त ज़रूरत विजिटिंग कार्ड वगैरह छाप लेता था।
प्रेस चलने लगा। ‘शेड' का दाम भी आश्चर्यजनक रूप से बढ़ने लगा। बहुत जल्द असमान पूंजी निवेश के अन्तर्विरोध उभरने लगे। ज्यादा समय नहीं बीता था कि ज़र, जोरू और ज़मीन का ज़हर संबंधों में घुलने लगा। ‘धर्मयुग' से मैं जरूर स्वाधीन हो गया था, मगर यह एहसास होते भी देर न लगी कि पूंजी की भी एक पराधीनता होती है। वह नित नये-नये रूपों में अपना जलवा दिखाने लगी। मेरी उम्र और मेरी फितरत इसके प्रति भी विद्रोह करने लगी। तफसील या कटुता में न जाकर एक छवि का तीन दशक पहले के ‘इस्टाइल' में ज़िक्र करना चाहूँगा, जो आज भी (तीन दशक बाद) जेहन में कौंध जाती है, जिस पर मैं आज भी फिदा हूँ। इस सादगी पर मैं क्या आप भी कुर्बान हो जाते अगर सुबह-सुबह पूरे दिनों की हामला एक सद्यस्नात अबला अचानक आपकी पत्नी की उपस्थिति में नमूदार हो जाए और शैम्पू किये अपनी स्याह, लंबी और घनी केश राशि को अपने कपोलों से बार-बार हटाती रहे ताकि अश्रुधारा निर्बाध गति से प्रवाहित हो सके और वह राष्ट्रभाषा में इतना भी व्यक्त न कर पाये कि उसका पति परमेश्वर ‘प्लग प्वाइंट' में अंगुलियाँ ठूँस कर आत्महत्या की धमकी दे रहा है क्योंकि उसे वहम हो गया है कि वह उसे कम और कालियाजी को ज्यादा चाहती है। ‘प्लग प्वाइंट' में अंगुलियाँ उसका पति ठूंस रहा था मगर धक्का मुझे लगा। बाद की ज़िन्दगी में ऐसे धक्के बारहा लगे और मैं ‘शॉक प्रूफ' होता चला गया। धक्के खाते-खाते आदमी उनका भी अभ्यस्त हो जाता है, जाने मेरे कुंडली में ऐसा कौन-सा योग है कम्पास की सुइयों की तरह शक की सुइयाँ अनायास ही मेरी दिशा में स्थिर हो जाती हैं।
जब से मैंने शराब से तौबा की है, मेरी कई समस्याओं का सहज ही समाधान हो गया है। अपनी प्रत्येक खामी, कमजोरी और असफलता को मयगुसारी के खाते में डालकर मुक्त हो जाता हूँ। वास्तव में दो-चार पैग के बाद मेरे भीतर का ‘क्लाउन' काफी सक्रिय हो जाता था। मेरे बेलौस मसखरेपन से दोस्तों की ऊबी हुई बीवियों का बहुत मनोरंजन होता था। यह दूसरी बात है कि इसकी मेरे दोस्तों को ही नहीं, मुझे भी भारी कीमत चुकानी पड़ी है। अब तो खैर मेरे हमप्याला दोस्तों ने अघोषित रूप से मेरा सामाजिक बहिष्कार कर रखा है। भूले-भटके अगर कोई मित्र मुझे महफिल में आमंत्रित करने की भूल कर बैठता है तो जल्द ही उसे अपनी गलती का एहसास हो जाता है जब उसकी पत्नी भरी महफिल में ज़लील करने लगती है कि कालियाजी शराब छोड़ सकते हैं तो आप क्यों नहीं छोड़ सकते। यही कारण है कि मैं ऐसी पार्टियों से अक्सर कन्नी काट जाता हूँ और संस्मराणात्मक लेखन से अपना और आपका समय नष्ट करने को अपनी सेहत के लिए ज़्यादा मुफीद समझता हूँ। वर्ना शराब ने मुझे क्या-क्या नज़ारे नहीं दिखाये।
पूस की एक ठिठुरती रात तो भुलाए नहीं भूलती, जब लखनऊ में अचानक मेरे एक परम मित्र और मेज़बान ने मुझे आधी रात फौरन से पेश्तर अपना घर छोड़ देने का निर्मम सुझाव दे डाला था। कुछ देर पहले हम लोग अच्छे दोस्तों की तरह मस्ती में दारू पी रहे थे। मेरे मित्र ने नया-नया स्टीरियो खरीदा था और हम लोग बेगम अख्तर को सुन रहे थे ः ‘अरे मयगुसारो सबेरे-सबेरे, खराबात के गिर्द घेरे पै घेरे' कि अचानक टेलीफोन की घंटी टनटनायी। फोन सुनते ही मेरे मित्र का नशा हिरन हो गया, वह बहुत असमंजस में कभी मेरी तरफ देखता और कभी अपनी बीवी की तरफ। उसके विभाग के प्रमुख सचिव का फोन था कि उसे अभी आधे घंटे के भीतर लखनऊ से दिल्ली रवाना होना है। उसने अपनी बीवी से सूटकेस तैयार करने के लिए कहा और कपड़े बदलने लगा। सूट टाई से लैस होकर उसने अचानक अत्यन्त औपचारिक रूप से एक प्रश्न दाग दिया, ‘मैं तो दिल्ली जा रहा हूँ इसी वक्त, तुम कहाँ जाओगे?'
‘मैं कहाँ जाऊगा, यहीं रहूंगा ।'
‘मेरी गैरहाजिरी में यह संभव न होगा।'
‘क्या बकवास कर रहे हो?'
‘बहस के लिए मेरे पास समय नहीं है, किसी भी सूरत में मैं तुम्हें अकेला नहीं छोड़ सकता। इस वक्त तुम नशे मे हो और मेरी बीवी खूबसूरत है, जवान है, मैं यह ‘रिस्क' नहीं उठा सकता।'
वह मेरा बचपन का दोस्त था, हम लोग साथ-साथ बड़े हुए थे, क्रिकेट, हाकी, बालीवाल और कबड्डी खेलते हुए। वह आई0 ए0 एस0 में निकल गया और मैं मसिजीवी होकर रह गया। हम लोग मिलते तो प्रायः नास्टेलजिक हो जाते, घण्टों बचपन का उत्खनन करते, तितलियों के पीछे भागते, बर्र की टांग पर धागा बांधकर पतंग की तरह उड़ाते।
अभी तक मैं यही सोच रहा था कि वह मजाक कर रहा है, जब ड्राइवर ने आकर खबर दी कि गाड़ी लग गयी है तो मेरा माथा ठनका। मेरा मित्र घड़ी देखते हुए बोला, ‘अब बहस का समय नहीं है। मुझे जो कहना था, कह चुका। उम्मीद है तुम मेरी मजबूरी को समझोगे और बुरा नहीं मानोगे।'
‘साले तुम मेरा नहीं अपनी बीवी का अपमान कर रहे हो।' मैंने कहा और उसे विदा करने के इरादे से दालान तक चला आया। मेरे निकलते ही उसने बड़ी फुर्ती से कमरे पर ताला ठोंक दिया और चाभी अपनी बीवी की तरफ उछाल दी। उसकी पत्नी ने चाभी कैच करने की कोशिश नहीं की और वह छन्न से फर्श पर जा गिरी। वह हो-होकर हँसने लगा।
मैं खून का घूँट पीकर चुपचाप सीढ़ियाँ उतर गया। मेरा सारा सामान भी अंदर बंद हो गया था। बाहर सड़क पर सन्नाटा था, कोहरा छाया हुआ था, कुत्ते रो रहे थे। उसकी गाड़ी दनदनाती हुई कोहरे मे विलुप्त हो गयी। कुछ ऐसी कैफियत में चचा ग़ालिब ने फरमाया होगा कि बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले।
लखनऊ के भूगोल का भी मुझे ज़्यादा ज्ञान नहीं था। मेरे ज़ेहन में मजाज़ की पंक्तियां कौंध रही थी--
ग़ैर की बस्ती है, कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ,
ऐ ग़मे दिल क्या करूँ ऐ वहशते दिल क्या करूं?
अंधाधुंध शराबनोशी में मजाज़ भी लखनऊ की इन्हीं सड़कों पर बेतहाशा भटका था। वह भी पूस की ही एक रात थी, जब मजाज़ ने बुरी तरह शराब पी थी, दोस्त लोग उसे शराबखाने में खुली छत पर लावारिस छोड़कर अपने-अपने घर लौट गये थे और मजाज़ रात भर खुली छत पर पड़ा रहा और सुबह तक उसका शरीर अकड़ गया था।
दिन में ही फोन पर कवि नरेश सक्सेना ने बताया था कि उसका तबादला लखनऊ हो गया है और नजदीक ही वजीर हसन रोड पर उसने घर लिया है। मुझे उसने सुबह नाश्ते पर आमंत्रित किया था। मैं आधी रात को ही नाश्ते की तलाश में निकल पड़ा, वजीर हसन रोड ज़्यादा दूर नहीं थी।
भटकते-भटकते मैंने उसका घर खोज ही निकाला। मैंने दरवाज़ा खटखटया तो उसने ठिठुरते हुए दरवाजा खोला, ‘अरे तुम इस समय, इतनी ठण्ड में?'
‘मेरे नाश्ते का वक्त हो गया है।' मैंने कहा। भीतर पहुँचकर मुझे समझते देर न लगी कि जौनपुर से अभी उसका पूरा सामान नहीं आया था। वे लोग किसी तरह गद्दे और चादरें जोड़कर बिस्तर में दुबके हुए थे। उन्हें देखकर लग रहा था कि बहुत ठण्ड है, मेरे भीतर शराब की गर्मी थी। मैं भी नरेश के साथ उसी बरायनाम रजाई में जा घुसा।
‘स्वाधीनता' मेरे लिए ‘स्टिल बार्न बेबी' साबित हुई और मैं दुबारा सड़क पर आ गया। इस बीच श्रीमती शीला झुनझुनवाला ने भी ‘धर्मयुग' छोड़कर दिल्ली से एक महिलोपयोगी पत्रिका ‘अंगजा' निकालने की योजना बनायी। उन्होंने दिल्ली चलने का प्रस्ताव रखा। एक नयी विज्ञापन एजेंसी में कापी राइटर का काम मिलने की संभावना भी उजागर हुई, मगर मुझे लग रहा था बम्बई से मेरे तम्बू कनात उखड़ चुके हैं, दिल्ली भी तब तक इतनी निर्दयी, निर्मम और भ्रष्ट नहीं हुई थी। लेखकों में विदेश यात्रा और मदिरापान की इतनी ललक और लोलुपता नहीं थी, उन दिनों दिल्ली साहित्य की मंडी की तरह नहीं साहित्य की राजधानी की तरह विकसित हो रही थी। नामवरजी उन दिनों आलोचना के संपादक थे, उन्होंने पत्र लिखकर दिल्ली लौट आने का प्रस्ताव रखा, उन्होंने लिखा ः
‘धर्मयुग' छोड़ने की खबर से दुख तो हुआ, लेकिन आश्चर्य नहीं। बम्बई से आने वाले दो एक लोगों से मैंने तुम्हारी विडम्बनापूर्ण स्थिति की बात सुनी थी और तब से मैं समझे बैठा था कि तुम्हारे जैसा स्वाभिमानी पुरुष ज़्यादा दिन नहीं टिक सकता, खैर सवाल यह है कि अब क्या करोगे? मेरा ख्याल है कि ममता नौकरी कर रही है। इसलिए कुछ दिनों के लिए तो ज़्यादा परेशानी न होगी। लेकिन इस बीच काम तो ढूँढ़ना ही होगा। बम्बई में डौल न बैठे तो दिल्ली चले आना बेहतर होगा। यहाँ बेकारों की पल्टन काफी बड़ी है। इसलिए अपने अंदर किसी प्रकार की हीनता महसूस न होगी। फिर कौन जाने यहाँ तुम्हें कोई काम निकल ही आए।
.....नयी कहानियों में तुम्हारी और ममता की टिप्पणियां पढ़ी। बहरहाल आलोचना में ‘युवा लेखन पर एक बहस' शीर्षक पूरा संवाद ही देने जा रहा हूँ। इस बार ‘वर्किंग पेपर' मैं स्वयं लिखूंगा और आठ-दस लेखकों के पास भेजकर उनकी प्रतिक्रिया मंगवाऊँगा। जिसके जी में आये उस लेख की धज्जियाँ उड़ा दे- मैं सब छापूँगा। सोचता था, निबंध लिखने से पहले तुमसे भी कुछ बात हो जाती। क्या यह संभव हो सकेगा? फिलहाल दिमाग पर यही भूत सवार है।
....अपने को किसी तरह निरुपाय न समझना।
स्नेह
नामवर सिंह
गर्दिश के उन दिनों में नामवरजी ही नहीं, अनेक मित्र मेरे भविष्य को लेकर चिंतित थे। हरीश भादानी, विश्वनाथ सचदेव, मेरा पूर्व मेजबान ओबी, उसके मित्र डेंगसन, जाड़िया, चन्नी, स्वर्ण, शुक्लाज़, शिवेन्द्र आदि का एक भरा-पूरा परिवार था बम्बई में। डेंगसन एक इलेक्ट्रानिक कम्पनी के एरिया मैनेजर थे। वर्ली के बड़े से फ़्लैट में अकेले रहते थे, पत्नी अमृतसर में एक मामूली-सी सरकारी नौकरी करती थी। पत्नी की छोटी-सी ज़िद थी कि जब तक डैंगसन दारू न छोड़ेंगे वह मुम्बई नहीं आयेगी, न नौकरी छोड़ेगी। वह डैंगसन के अन्तिम संस्कार में भाग लेने ही मुम्बई पहुँची। बीच सड़क में हृदयगति रुक जाने से डैंगसन का कार में ही आकस्मिक निधन हो गया था।
कांदिवली में काले हनुमानजी का एक मंदिर था, डैंगसन की उसमें गहरी आस्था थी। वह किसी भी मित्र को परेशानी में पाते तो अपनी कार में बैठा कर श्रद्धापूर्वक कांदिवली ले जाते। मौत से कुछ की दिन पहले मुझे भी ले गये थे। मंदिर में एक अहिंदी भाषी महात्मा रहते थे। महात्माजी ने मुझे देखकर एक पर्चे पर लिखा- नदी किनारे दूर का चानस। महात्मा केवल सूत्रों में बात करते थे, उसकी व्याख्या आप स्वयं कीजिए और करते जाइए। जल्द ही समय अपनी व्याख्या भी प्रस्तुत कर देता था। मेरे सामने भी सूत्र वाक्य के अर्थ खुलने लगे। कुछ दिनों बाद स्पष्ट हुआ कि नदी किनार का अर्थ था संगम यानी गंगा-जमुना का तट और दूर का मतलब निकला इलाहाबाद। सन् 69 के अंतिम दिनों में मेरा इलाहाबाद आ बसना भी एक चमत्कार की तरह हुआ। अभी हाल में मैंने कन्हैया लाल नन्दन पर संस्मरण लिखते हुए उन दिनों की याद ताजा की है। ऐसा नहीं था कि मेरी मित्रता सिर्फ पीने-पिलाने वाले लोगों से रही है। मेरे मित्रों में नन्दन जी जैसे सूफी भी रहे हैं, जिन्होंने कभी सिगरेट का कश भी न लिया होगा।
बहुत जल्द नन्दनजी का गोरेगांव का संसार भी मेरा संसार हो गया था। उनके तमाम मित्र मेरे मित्र हो गये। वह सुखदेव शुक्ल हों या, पंचरत्न, मित्तल, मनमोहन सरल तो खैर दफ़्तर के सहयोगी ही थे। शुक्लाज़ से मेरी दोस्ती उनकी साहित्यिक रुचि के कारण ही नहीं बल्कि इसलिए भी हो गयी कि (डॉ0) मिसेज़ उमा शुक्ला चाय बहुत अच्छी बनाती थीं और इतवार को अक्सर मैं सुबह-सुबह पराँठे खाने उनके यहाँ पहुँच जाता। मैं शिवाजी पार्क में रहता था मगर मेरा खाली समय गोरेगांव में ही बीतता। गोरेगाँव पहुँचकर लगता था, अपने परिवार के बीच पहुँच गया हूँ। सब लोग दफ़्तर को दफ़्तर में भूल आते थे, मगर नन्दनजी अपने ब्रीफकेस में कुछ और परेशानियाँ कुछ और उदासी, कुछ और अवसाद भर लाते। ट्रेन में वह दुष्यंत की पंक्तियाँ गुनगुनाते घर लौट आते ः
कुछ भी नहीं था मेरे पास,
मेरे हाथों में न कोई हथियार था,
न देह पर कवच,
बचने की कोई भी सूरत नहीं थी,
एक मामूली आदमी की तरह,
चक्रव्यूह में फँस कर,
मैंने प्रहार नहीं किया, सिर्फ चोटें सहीं,
अब मेरे कोमल व्यक्तित्व को,
प्रहारों ने कड़ा कर दिया है।
जिन दिनों मैंने ‘धर्मयुग‘ से त्यागपत्र दिया था, नन्दनजी बीमार थे। वह उन दिनों ‘प्लूरसी' के इलाज के सिलसिले में किसी हेल्थ रिजॉर्ट पर गये हुए थे। छुट्टी से लौटे तो दफ़्तर का माहौल बदला-बदला सा लगा। मेरी और चौधरी की कुर्सी पर प्रशिक्षु पत्रकार जमे थे। हम लोगों के विद्रोह से हॉल में एक सनसनी फैल गयी थी और कयामत की उस रात के कई संस्मरण प्रचारित-प्रसारित हो रहे थे। साथी लोग उसमें अनवरत संशोधन, परिवर्द्धन और परिवर्तन कर रहे थे। छुट्टी से लौटने पर नन्दनजी ने भी यह किस्सा सुना। कोई विश्वास ही नहीं कर सकता था कि उस दफ़्तर में भारतीजी को कोई चुनौती दे सकता था। यह सुनकर तो वह विह्नवल हो गये कि मैंने नन्दन के खिलाफ किसी भी षड्यंत्र में शामिल होने से साफ इनकार कर दिया था। नन्दनजी उसी तारीख सपत्नीक अंधेरी पहुँचे। वह बहुत भावुक हो रहे थे। उनकी आँखें नम हो रही थीं और वह देर तक मेरा हाथ थामे बैठे रहे। वह मेरे भविष्य को लेकर मुझसे ज्यादा चिंतित थे। उन्हें अफसोस इस बात का था कि यह सारा खेल उनकी अनुपस्थिति में हो गया। उनकी राय थी कि हम लोगों को इस्तीफा देने की ज़रूरत नहीं थी, व्यवस्था में रहते हुए उसका विरोध करना चाहिये था। नन्दनजी ने यही मार्ग चुना था और उसकी परिणति उनके चेहरे से झलक रही थी वह प्लूरसी के शिकार हो गये थे। तब तक भारतीजी ने मेरा इस्तीफा मंजूर नहीं किया था। मैं चूंकि ‘कन्फर्म' हो चुका था, नियमानुसार मुझे तीन महीने तक कार्यमुक्त नहीं किया गया। इसी दौरान उन्होंने ममता को कालिज यह संदेश भी भिजवाया था कि मैं अपना इस्तीफा वापस ले लूँ। उन्हें लग रहा था कि यह अव्यवहारिक कदम मैंने शराब के नशे में उठाया था। सच तो यह था कि उस दमघोंटू माहौल से मैं किसी भी मूल्य पर मुक्ति चाहता था। अगर मैंने नशे के अतिरेक में यह कदम उठाया होता तो मैं अपने इस्तीफे पर पुनर्विचार कर सकता था। फिलहाल मेरे पास लेखन के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं था। उन्हीं दिनों मैंने एक लम्बी कहानी लिखी- ‘चाल'। अपने समय में वह खूब चर्चित हुई। इस कहानी पर अश्कजी का एक लंबा पत्र भी मुझे प्राप्त हुआ। उन्होंने इस कहानी को ज्ञानरंजन की ‘बहिर्गमन' से श्रेष्ठ कहानी सिद्ध किया था। गर्ज़ यह कि गर्दिश के उन दिनों में मेरे मित्रों ने मेरा हौसला बुलंद रखा।
अब इतने वर्षों बाद बम्बई में जिंदगी ने मुझे दुबारा सड़क पर ला पटका था। दोस्त लोग भी मुझे कोस रहे थे मैंने चौधरी के झांसे में आकर अच्छी-खासी नौकरी को लात मार दी। नन्दनजी रात को इसलिए मिलने आये थे कि दिन के उजाले में बागियों से मिलना खतरनाक साबित हो सकता था। इतनी बड़ी बम्बई भी में लगता था, चप्पे-चप्पे पर धर्मवीर भारती के जासूस छाये हुए है। छूटते ही नन्दनजी ने पूछा, ‘इलाहाबाद जाओगे?'
‘इलाहाबाद में क्या है?'
‘हिन्दी भवन' का प्रेस बिकाऊ है। वह किसी विश्वास के आदमी को ही सौंपना चाहते है ताकि उनके प्रकाशन का मुद्रण कार्य चलता रहे।'
हिन्दी भवन का नाम सुनते ही मेरी स्मृतियां ताज़ा हो गयीं। अपनी करतूतें मैं भूला नहीं था।
छात्र जीवन से ही मुझे पढ़ने लिखने की और दारू की लत लग गयी थी। मेरी दोनों ज़रूरतें हिन्दी भवन से ही पूरी होती थीं। उन दिनों समूचे पंजाब में हिन्दी पुस्तकें केवल ‘हिन्दी भवन' पर उपलब्ध होती थीं। राकेश के सम्पर्क में आकर मैंने यह बात अच्छी तरह समझ ली थी कि लेखको को तीन चीजों यानी पत्नी, नौकरी, और प्रकाशक का चुनाव अत्यन्त सावधानी और सूझबूझ से करना चाहिए जो लेखक इन तीन मसलों पर विवेक से नहीं भावुकता से काम लेते हैं, वे फिर जीवन भर भटकते ही रहते हैं। उन्हें शराब या किसी दूसरे नशे की लत पड़ जाती है, उनका जीवन कभी पत्नी, कभी नौकरी और कभी प्रकाशक बदलने में ही नष्ट हो जाता है (मेरी बात का कदापि यह अर्थ न लगाया जाए कि जो लेखक पत्नी, नौकरी और प्रकाशक नहीं बदलते, उनका जीवन नष्ट नहीं होता)। लेखन एक ऐसा पेशा है कि इसमें ज्यादा विकल्प भी नहीं होते। फ़ैज़ जैसे पाये के लेखक को भी इस नतीजे पर पहुँचना पड़ा कि ः
फै़ज़ होता रहे जो होना हैमैंने बहुत पहले फ़ैज़ की राय गांठ बांध ली थी और अपने को खुश्क पत्तों की तरह हवाओं के हवाले कर दिया था। एक रास्ता बंद होता तो दूसरा अपने आप खुल जाता, जबकि ज़िंदगी बार-बार यही एहसास कराती रही है कि ‘रास्ते बंद हैं सब, कूच-ए-कातिल के सिवा' मेरे जीवन में ग़ालिब का यह शेर भी बार-बार चरितार्थ होता रहा है कि ‘कर्ज की पीते थे मय और समझते थे कि हाँ रंग लायेगी हमारी फ़ाकामस्ती एक दिन।' आप विश्वास न करेंगे, मगर मेरी बात मान लीजिए कि मुझे पहली नौकरी कर्ज़ की मय और फाकामस्ती ने ही दिलवायी थी। अगर मेरे ऊपर ‘मय का कर्ज़' न होता तो यकीनन मुझे एम0 ए0 पास करते ही यों आसानी से नौकरी न मिल जाती। मुझे नौकरी दिलवाने के लिए उन लोगों को ज़्यादा दौड़-भाग करनी पड़ी, जिनकी मय के कर्ज़ से मैं आकंठ डूबा हुआ था।
शेर लिखते रहा करो बैठे।
‘तुम हाँ करो तो बात आगे बढ़ाऊँ।' नन्दनजी ने तफ़सील से बताया कि इलाहाबाद में हिंदी भवन का एक प्रेस है। प्रेस में केवल हिंदी भवन की पुस्तकें मुद्रित होती हैं, इसी उद्देश्य से प्रेस की स्थापना की गयी थी ताकि मुद्रण के लिए इधर-उधर न भटकना पड़े। यह भी मालूम हुआ कि छात्र जीवन से ही नन्दन जी का हिंदी भवन से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। वे हिंदी भवन की पुस्तकों के डस्ट कवर बनाकर इलाहाबाद में अपनी फीस का प्रबन्ध किया करते थे। कितनी विरोधाभासपूर्ण स्थितियों में नन्दनजी का और मेरा छात्र जीवन गुज़रा था। हिंदी भवन उनके लिए फीस का प्रबन्ध करता था और मेरे लिए बीयर का। दोनों का अपना-अपना जुगाड़ था। अपना-अपना भाग्य था।
नन्दनजी ने यह भी बताया कि हिंदी भवन के संचालक नारंग बंधु अब वृद्ध हो गये हैं, और धीरे-धीरे काम समेटना चाहते हैं, वे ऐसे कर्मठ नौजवान की तलाश में हैं जो जिम्मेदारी से प्रेस का संचालन कर सके। हिंदी भवन का मुख्य कार्यालय जालंधर में है जहां इंद्रचंद्र जी के बड़े भाई धर्मचंद्र नारंग हिंदी भवन का संचालन करते हैं। दोनो भाइयों की सहमति हो गयी तो प्रेस आसान किस्तों पर मिल सकता था।
धर्मचंद्र नारंग का नाम सुनते ही मेरा माथा ठनका। मैंने कहा, ‘धर्मचंद्र जी को मैं बहुत अच्छी तरह से जानता हूँ। मगर हो सकता है मेरे बारे में उनकी राय बहुत अच्छी न हो।'
मैंने विस्तार से नन्दनजी को ‘हिन्दी भवन' से उधार पुस्तकें खरीदनें और उन्हें औने पौने दाम में बेचकर बीयर पी जाने का किस्सा सुनाया। मेरी कारगुजारियां सुनकर नन्दन जी को बहुत धक्का लगा। उन्हें लगा कि बना-बनाया खेल बिगड़ गया है। अब नारंग बंधुओं से आगे की बात चलाना व्यर्थ होगा।
‘नारंग बन्धु बहुत आदर्शवादी लोग हैं। स्वाधीनता आंदोलन में भी इस परिवार की सक्रिय भूमिका रही थी। भगत सिंह से भी इन लोगों के आत्मीय संबध थे। तुमने उधार न चुकाया होगा तो वह कभी किस्तों पर प्रेस देने को तैयार न होंगे।'
‘कर्ज़ तो मैंने चुका दिया था। यह दूसरी बात है कि कर्ज़ वसूलने के लिए नारंगजी को मुझे नौकरी दिलवानी पड़ी थी।'
उन दिनों लेक्चरार को कुल जमा दो सौ सत्तर रुपये मिलते थे। मैंने एक अकलमंदी की थी कि पहली तारीख को मैंने अपनी समूची तनख्वाह नारंगजी को सौंप दी थी। उन्होंने मुझपर तरस खाकर मुझे पचास रूपये जेब खर्च के लिए लौटा दिये थे और शेष रकम मेरे हिसाब में जमा कर ली। अगले ही महीने मैं ऋणमुक्त हो गया था। यह सुनकर नन्दनजी कुछ आश्वस्त हुए। उनके चेहरे का तनाव कुछ कम हुआ, ‘तब तो बात आगे बढ़ायी जा सकती है।' और नन्दनजी अगले रोज़ से बात बनाने में व्यस्त हो गये।
अंततः तय हुआ कि इलाहाबाद जाकर प्रेस देखा जाये और संभावनाएं तलाशी जाएँ। मैं तो आज़ाद पंछी था, नन्दनजी को छुट्टी लेने के लिए पिता की मिजाज़पुर्सी के लिए गांव जाने का बहाना करना पड़ा था। ‘धर्मयुग' में छुट्टी मिलना वैसे ही कठिन होता था, नन्दनजी के लिए तो और भी कठिन। भारतीजी न छुट्टी लेते थे न देते थे। वह पूर्णरूप से ‘धर्मयुग को समर्पित थे। उसे ओढ़ते थे और उसे ही बिछाते थे। कई बार तो कोई शंका हो जाने पर आधी रात को उठकर प्रेस चले जाते। एक बार गिन्ज़बर्ग के सन्दर्भ में मैंने अपने पृष्ठ पर अमूर्त्त किस्म का एक न्यूड विजुअल छपने भेज दिया था, भारतीजी का मन नहीं माना और उन्होंने आधी रात को प्रेस जाकर मशीन रुकवा दी। मशीन का एक-एक मिनट कीमती माना जाता था और भारतीजी ने बहुत देर के लिए मशीन रुकवा दी थी, सिलेंडर पर से वह चित्र घिसवाना पड़ा था। उन दिनों मुद्रण कार्य आज की तरह आसान नहीं था, फोटो एंग्रेवर की बहुत जटिल प्रक्रिया होती थी। हफ्तों भारतीजी की मैनेजमेंट से मशीन रुकवाने को लेकर चख-चख चलती रही।
बहरहाल, इलाहाबाद के लिए छद्म नाम से दो सीटें आरक्षित करवायी गयीं। कोशिश यही थी कि नन्दनजी और मुझे को कोई जासूस साथ-साथ न देख ले। मैं तो बागी करार दिया जा चुका था और बागी को प्रश्रय देना और उसके साथ-साथ घूमना उतना ही बड़ा अपराध था, जितना अंग्रेजों के समय में रहा होगा या इंडियन पीनल कोड में आज भी है। उन्हीं दिनों किसी ने नन्दनजी और मुझे किसी फिल्म के बाद साथ-साथ थियेटर की सीढ़ियाँ उतरते देख लिया था और नन्दनजी जवाब तलब हो गये थे और यह तो एक हजार किलोमीटर से भी लम्बी यात्रा थी। कल्याण तक तो हम लोगों ने एक-दूसरे से बात तक न की। तमाम एहतियाती कदम उठाये गये। यात्रा तो सही-सलामत कट गयी, लेकिन इलाहाबाद स्टेशन पर एक हादसा पेश आते-आते रह गया। हम लोग ट्रेन से उतर रहे थे कि सामने ओंकारनाथ श्रीवास्तव दिखायी पड़ गये। उनके साथ कीर्ति चौधरी थीं। भारतीजी और ‘धर्मयुग से ये लेखक दंपत्ति जुड़े थे। भारतीजी के यहाँ उनसे परिचय हुआ था। उन्हें देखते ही हम लोगों की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी और हम लोग स्वाधीनता सेनानियों की तरह पुलिस को चकमा देते हुए अलग-अलग दिशा में चल दिये। मैं पटरियाँ फलांगते हुए एक नम्बर प्लेटफार्म पर जा पहुँचा। मुझे तो कोई फर्क न पड़ता मगर नन्दनजी के साथ मुझे इलाहाबाद स्टेशन पर देखने की खबर भारतीजी को मिलती तो नन्दनजी के लिए संकट खड़ा हो जाता। इलाहाबाद से भारतीजी पहले ही बहुत सशंकित रहते थे। भावनात्मक रूप से वह इलाहाबाद से जुड़े थे, मगर इलाहाबाद के लेखकों पर से उनका विश्वास उठ चुका था। केशवचंद्र वर्मा उन्हें इलाहाबाद का कच्चा चिट्ठा लिखते रहते थे। यह दूसरी बात है कि पुष्पाजी जब भारतीजी की अस्थियां लेकर इलाहाबाद आईं तो उनकी अस्थियों के दर्शन के लिए पूरा इलाहाबाद उमड़ आया था। भारतीजी एक बार इलाहाबाद से गये तो दुबारा कभी नहीं लौटे, लौटीं तो उनकी अस्थियां। मैंने ‘गंगा यमुना' में प्रथम पृष्ठ पर शीर्षक दिया ः
मुट्ठी भर फूल बनकर प्रयाग लौटे धर्मवीर भारती।
मैं बहुत देर तक एक नं0 प्लेटफार्म पर नन्दनजी की प्रतीक्षा करता रहा। बहुत देर बाद जब प्लेटफार्म लगभग खाली हो गया तो नन्दनजी कुली के पीछे खरामा-खरामा चलते नज़र आये। रानी मंडी स्टेशन के पास ही था। स्टेशन से रिक्शा में रानी मंडी पहुँचने में पांच मिनट भी न लगे।
हम लोग प्रेस पहुंचे तो देखा नारंगजी अत्यंत तल्लीनता से मशीन प्रूफ पढ़ रहे थे। बीच-बीच में वह मैग्नीफाइंग ग्लास की मदद भी लेते। हमें देखकर उनके चेहरे पर कोई प्रतिक्रिया न हुई। हम लोग मेज़ के सामने पड़ी कुर्सियों पर बैठ गये। मुझे लगा, नारंगजी को मेरी कारस्तानियों की भनक लग चुकी है और वह जानबूझकर हमारी उपेक्षा कर रहे हैं। नन्दनजी प्रेस के तमाम कर्मचारियों से परिचित थे, उन्होंने बद्री को चाय-नाश्ते का इंतज़ाम करने के लिए कहा। नारंगजी ने जब तक पूरा फ़ार्म न पढ़ लिया, हम लोगों की तरफ आँख उठाकर न देखा। मैं नारंगजी के बड़े भाई से परिचित था, वह भी बहुत कम बोलते थे, मगर वह चुप्पी के भीतर से भी बहुत कुछ कह देते थे। मुझे दोनों भाइयों में कोई समानता नज़र नहीं आ रही थी। धर्मचंद्रजी कमीज़-पतलून पहनते थे और इन्द्रचंद्रजी का लिबास शुद्ध गाँधीवादी था यानी खादी का धोती-कुर्ता। देखने में भी वह अपने बड़े भाई से बड़े लगते थे।
इस बीच नाश्ता आ गया। हम लोगों ने ऊपर जाकर नाश्ता किया। नन्दनजी मुझे धीरे से बता चुके थे कि जब तक नारंगजी प्रूफ़ न निपटा लेंगे किसी से बात न करेंगे। ‘धर्मयुग' में मैं भी अपने पृष्ठों के प्रूफ़ पढ़ता था, मगर बिना किसी तनाव के। इतनी एकाग्रता भी दरकार न थी। प्रूफ़ निपटाकर नारंगजी ऊपर आये, जैसे कोई महत्वपूर्ण और जटिल आपरेशन करके फ़ारिग हुए हों।
नाश्ते के बाद बिना एक भी क्षण नष्ट किये वह उठ खड़े हुए और बोले, ‘आइए आपको प्रेस दिखा दूँ।' हम लोगों ने मशीनें देखी, जबकि लेटर प्रेस की मशीनों की न मुझे कोई जानकारी थी, न नन्दनजी को। नारंगजी हर काम नियामानुसार करते थे। दस श्रमिकों से फैक्टरी एक्ट लागू हो सकता था, वह नौ श्रमिकों से काम लेते थे। दो मशीनें थीं, दोनों निःशब्द चल रही थीं। छह कंपोजिटर थे, सब चुपचाप कंपोजिंग कर रहे थे। ग़ज़ब का अनुशासन और सन्नाटा था। अगर बीच का दरवाजा बंद कर दिया जाए तो कोई अनुमान नहीं लगा सकता था कि भीतर नौ आदमी काम कर रहे हैं या मशीनें चल रही हैं। सब कुछ चुस्त-दुरुस्त और व्यवस्थित था।
‘मेरी भाई साहब से बात हो गयी है, वह राज़ी हो गये हैं।' नारंगजी ने अपनी सीट पर बैठते हुए नन्दनजी से पूछा, ‘आपको मालूम है, मैं सीट पर गद्दी क्यों रखता हूँ?'
हम दोनों ने अनभिज्ञता में सिर हिलाया। नारंगजी ने बताया कि वह किसी सुविधा या आराम के लिए सीट पर गद्दी नहीं रखते, बल्कि इसलिए रखते हैं कि इससे बेंत जल्दी नहीं टूटती।
नारंगजी ने एक ड्राअर से एक मोटी फाइल निकाली। उसमें प्रेस सम्बन्धी सब दस्तावेज़ थे-- मशीनों के मूल बिल, सामान की लंबी फेहरिस्त, रजिस्ट्रेशन के तमाम कागज़ात। फाइल पलटते हुए उन्होंने ‘डासन पेन एंड इलियट' कंपनी का पूरा इतिहास भी बता डाला, जिनसे उन्होंने मशीनें आयात की थीं। बगैर किसी भूमिका के उन्होंने अपनी शर्तें भी रख दीं-- ‘दस हजार रुपये आपको अग्रिम देने होंगे, शेष रकम का भुगतान छत्तीस मासिक किस्तों में करना होगा। आप जब पैसे का इंतज़ाम कर लें, प्रेस संभाल लें। इस बीच मैं वकील से कागज़ात तैयार करवा लूँगा।'
‘मैं तो प्रेस के काम के बारे में कुछ भी नहीं जानता।' मैंने कहा ।
‘सब जान जाएँगे। उसका भी मैं इंतजाम कर दूंगा।' नारंगजी ने कहा, ‘यहाँ हिंदी साहित्य सम्मेलन का एक बड़ा लैटर प्रेस है। विचित्रजी उसके प्रबंधक हैं। मैं लाहौर से उन्हें जानता हूँ। आप उनसे मिल लें, मेरा हवाला दे दें, वह आपको महीने भर में प्रेस के सब दाँव-पेंच समझा देंगे।'
ये सब बाद की बातें थीं। फिलहाल तो मुझे अपने हिस्से के पांच हजार रुपयों की चिंता हो गयी, जो आज से पैंतीस साल पहले काफी बड़ी रकम थी, जब सोने का दाम सवा सौ रुपये तोले था। मैंने सोचा, इसके बारे में जिन पीकर ही विचार किया जा सकता है। लौटते हुए मैंने एक जगह रिक्शा रुकवाया और चौक में मदन स्टोर से लाइम कार्डियल की एक बोतल खरीदी जिन की बोतल मेरे सूटकेस में थी। मुझे बहुत ताज्जुब हुआ जब मदन स्टोर ने रिक्शा वाले को ग्राहक लाने के लिए मेरे सामने एक रुपया बख्शीश में दे दिया । ऐसा तो मैंने किसी शहर में नहीं देखा था।
पांच हजार रुपयों के इंतज़ाम की उधेड़बुन में मैं बम्बई पहुँचा, मुझे आभास भी नहीं था कि बम्बई पहुँचते ही मेरी समस्या का कोई चमत्कारिक हल निकल आयेगा। उन दिनों मैं हरीश भादानी की पत्रिका ‘वातायन' के लिए नियमित रूप से स्तंभ लेखन करता था। ‘वातायन' के पृष्ठों पर मैंने काफी आग उगली थी। ओमप्रकाश निर्मल ने प्रतिक्रिया स्वरूप एक लंबा पत्र भेजा था। उन्हें मेरा तेवर पसंद था, मगर लोहियावादियों के बारे में की गयी टिप्पणियों पर एतराज था। हरीश भादानी और विश्वनाथ सचदेव से अक्सर भेंट होती रहती थी। भादानी और विश्वनाथ ने चुटकियों में पैसे का इंतज़ाम कर दिया। अगले रोज़ वे लोग मुझे अपने एक मारवाड़ी उद्योगपति मित्र के यहाँ ले गये और उन्होंने इससे पहले कि हम कुछ कहते टेलीफोन पर बात करते-करते तिजोरी खोली और पांच हज़ार रुपये मुझे सौंप दिये। सेठजी एक टेलीफोन रखते तो दूसरा टनटनाने लगता। उनके पास शुक्रिया कुबूल करने का भी समय नहीं था। इशारों से ही अभिवादन करते हुए उन्होंने हम लोगों को विदा कर दिया। मैं आज तक नहीं जान पाया कि वह दानवीर कर्ण कौन था। गत पैंतीस वर्षों से हरीश भादानी से भी मेरी भेंट हुई, न पत्राचार। बहुत बाद में मार्कण्डेयजी ने बताया था कि संसद सदस्या सरला माहेश्वरी हरीश भादानी की पुत्री हैं और अरुण माहेश्वरी दामाद।
(क्रमशः अगले अंकों में जारी….)
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