“…वह शहर के तमाम इन्सपेक्टरों से परिचित था। मैंने इन्सपेक्टर का हुलिया बताया तो बोला, जायसवाल होगा, बहुत हरामी और लालची है। वह आज ही उसे...
“…वह शहर के तमाम इन्सपेक्टरों से परिचित था। मैंने इन्सपेक्टर का हुलिया बताया तो बोला, जायसवाल होगा, बहुत हरामी और लालची है। वह आज ही उसे बुलवा कर बात कर लेगा। अगले ही रोज़ दोपहर को इन्सपेक्टर मेरे पास आया और सौ रूपया लेकर चालान का काग़ज़ फाड़ कर रद्दी की टोकरी में फेंक गया। उसके बाद वह हर महीने आता रहा, निरीक्षण के लिए नहीं, उगाही के लिए। वह मँहगाई से बहुत त्रस्त रहता था। मुझे लगता, वह चाहता है कि घूस की दर मुद्रास्फीती और थोक सूचकांक से जुड़ जानी चाहिये…”
-इसी संस्मरण से
संस्मरण
ग़ालिब छुटी शराब
रवींद्र कालिया
मैं मुम्बई चला गया तो वहाँ कुछ दिन सुरेन्द्र प्रकाश हमारा मेहमान रहा। शीतलादेवी टेम्पल रोड पर ममता और मैं अपना नीड़ बना रहे थे। वह सुबह तैयार होकर निकल जाता। दिन भर प्रोड्यूसरों से मिलता। वह फिल्म उद्योग में एक कथाकार के रूप में कम कैरेक्टर एक्टर के रूप में अधिक प्रवेश पाने को आतुर था। सुबह तैयार होने में काफ़ी समय लगाता, लम्बे-लम्बे संवादों की रिहर्सल करता। गाँव में पनाले को लेकर पड़ोसियों में कैसे वाक्युद्ध होता है, इस का उसने एक लम्बा रूपक बांधा था। सुनते-सुनते पेट में बल पड़ जाते। कुछ वर्षों बाद उसे फिल्मों में प्रवेश मिला मगर एक कहानीकार के रूप में। उसने संजीव कुमार और जयाभादुड़ी के लिए प्रसिद्ध फिल्म ‘अनामिका' का पट कथा लेखन किया था। उसके आगे के संघर्ष के बारे में मुझे कोई विशेष जानकारी नहीं है। एक बार इलाहाबाद में उससे ज़रूर भेंट हुई थी, जब वह ‘शबखून' द्वारा आयोजित किसी विचार गोष्ठी में हिस्सा लेने आया था।
उन दिनों वयोवृद्ध कथाकार देवेन्द्र सत्यार्थी भी संतनगर में हमारे यहाँ आया करते थे। उनके व्यक्तित्व पर रवीन्द्रनाथ ठाकुर के व्यक्तित्व की गहरी छाप थी। वैसी ही लम्बी दाढ़ी और फिलासफराना अन्दाज़ उन्हें देखकर लगता था, वह एक गरीब रवीन्द्रनाथ ठाकुर हैं। उन्हें उत्तरभारत का आवारा मसीहा भी कहा जा सकता था। वह बहुत सहज इन्सान थे। गले में झोला लटकाये किसी समय भी कमरे में नमूदार हो जाते। उनकी एक ही कमज़ोरी थी। कमज़ोरी क्या, उसे मर्ज़ ही कहा जायगा। मौके-बेमौके कभी भी बिना किसी भूमिका के झोले से कागज़ों का पुलिन्दा निकाल कर अपनी रचना सुना सकते थे। शुरू-शुरू में तो हम लोगों ने अत्यन्त आदरपूर्वक उन की रचनाएँ सुनीं, मगर कुछ ही दिनों बाद यह कसरत अझेल हो गयी। उन्हें देखते ही हम लोग जूते पहनने लगते, जैसे किसी ज़रूरी काम से बस निकल ही रहे हों। ऐसा भी समय आया कि वह अपनी इस आदत का खुद ही मज़ाक उड़ाने लगे। उन्होंने अपने बहुत से अनुभव सुनाए कि कहानी सुनाने के चक्कर में उन्हें कहाँ-कहाँ ज़लील होना पड़ा। बाद में ‘धर्मयुग' में मैं उनके इन चटपटे संस्मरणों को प्रकाशित भी करना चाहता था, मगर सत्यार्थीजी से सम्पर्क न हो सका। वह अपने इस मर्ज़ के बारे में कोई नया लतीफ़ा सुनते तो उसे सुनाने भी चले आते। सत्यार्थी ने खुद ही सुनाया था कि एक बार जब उन्हें कहानी सुनने के लिए कोई उपयुक्त पात्र न मिला तो उन्होंने तय किया कि सीधा जनता के बीच कहानी का पाठ करना चाहिए। इस प्रयोग के लिए उन्होंने सबसे पहले गुरूद्वारा रोड को चुना। एक मध्यवर्गीय घर के सामने जाकर वह रुके। घर के कपाट खुले थे, जैसे भीतर आने का निमंत्रण दे रहे हों। सामने आंगन था और आंगन में मध्यम आयु की एक महिला चूल्हे पर रोटियाँ सेंक रही थी। सत्यार्थी ने हाथ जोड़कर विनम्रतापूर्वक उसे नमस्कार किया और उसे बताया कि वह एक कहानीकार हैं और एक छोटी सी कहानी सुनाने की इजाज़त चाहते हैं। महिला कुछ समझती, इससे पूर्व ही सत्यार्थीजी सामने पड़े पटरे पर बैठ गये और अपने झोले से कहानी का मसविदा निकालने लगे। अचानक उस महिला के तेवर बदल गये, सीधी-सादी उस गृहिणी ने अचानक चंडी का रूप धारण कर लिया। उसने शायद यह सोचा कि कोई पाखंडी साधु बाबा उसे ठगने के लिए घर में घुस आया है। जब तक सत्यार्थी अपनी किताब में अपना चित्र दिखाकर कुछ विश्वसनीयता अर्जित करते, उस महिला ने चूल्हे की जलती हुई लकड़ी भांजते हुए सत्यार्थीजी को दौड़ा लिया। वह किसी तरह अपनी जान बचाकर गुरुद्वारा रोड से भागे।
उन दिनों टी-हाउस में सत्यार्थी के बारे में एक लतीफा बहुत लोकप्रिय हो रहा था। सत्यार्थी खुद भी इसे बहुत चाव से सुनते थे। एक बार देवेन्द्र सत्यार्थी अपना झोला टी-हाउस में भूल आये। आधी रात को उन्हें अपने झोले का ध्यान आया, जिसमें उनके उपन्यास की पाण्डुलिपि थी। वह उसी समय करोल बाग से कनाट प्लेस के लिए चल दिये। धड़कते दिल से उन्होंने टी-हाउस का दरवाजा पीटना शुरू किया। उन दिनों टी-हाउस का बैरा चरणमसीह रात को टी-हाउस में ही सोता था। दस्तक सुनकर उसने बत्ती जलायी और काँच में से देखा, सत्यार्थी सामने खड़े हांफ रहे थे। उन दिनों लेखकों को कॉफी पिलाते-पिलाते चरणमसीह भी कविताएँ लिखने लगा था। वह सत्यार्थीजी से भी परिचित था। उसने दरवाज़ा खोला और उनकी खैरियत पूछी। सत्यार्थी ने झोले की बात बतायी तो चरणमसीह ने हामी भरी कि झोला तो मिला है, उसमें कुछ कागजात भी हैं, मगर यह कैसे पता चले कि वह आप का झोला है।
‘यह तो बहुत आसान है।' सत्यार्थी जी ने कहा, ‘तुम झोला ले आओ, मैं तुम्हे बता देता हूँ, उसमें क्या-क्या दस्तावेज़ हैं।'
चरणमसीह झोला लाया तो सत्यार्थीजी ने उसे एक मोटा मसविदा निकालने को कहा और उसका पहला पृष्ठ मुँह ज़ुबानी सुना दिया। चरणमसीह ने आश्वस्त होकर उनका झोला लौटा दिया। सत्यार्थीजी बिगड़ गये, ‘ऐसे कैसे ले लूँ। अब तो तुम्हें पूरा उपन्यास सुनना पड़ेगा....'
अभी अंतर्दृष्टि (संपादक ः विनोद दास) के नये अंक में मुद्राराक्षस ने दिल्ली के उन खुराफाती दिनों की याद करते हुए सत्यार्थीजी के एक और बहु प्रचारित लतीफे का ज़िक्र किया है ः सत्यार्थीजी को कनाट-प्लेस आना था। करोल बाग में उन्होंने एक तांगेवाले से पैसे पूछे। उसने एक रुपया बताया। यह ज़्यादा था। सत्यार्थीजी ने आठ आने कहे, पर वह राज़ी नहीं हुआ। तब सत्यार्थीजी बोले-ठीक है एक रुपया दूंगा, पर शर्त यह है कि तुम्हें मेरी कहानी सुननी पड़ेगी। तांगे वाला कहानी सुनता हुआ तांगा चलाता रहा। थोड़ी दूर जाकर तांगा रुक गया। सत्यार्थीजी ने पूछा-भाई तांगा क्यों रोक दिया। तांगेवाला बोला-तांगा आगे नहीं जाएगा। आगे जाना चाहते हैं तो कहानी सुनाना बंद कीजिए। सत्यार्थीजी नाराज़ हो गये। तुम से तय हुआ था कि कहानी सुनोगे तभी एक रुपया दूंगा। तांगेवाला बोला-क्या करूँ साहब, मैं तो सुनने को तैयार हूं, पर यह घोड़ा नहीं मानता।
सत्यार्थीजी से मेरी प्रथम भेंट कपिल अग्निहोत्री ने करवायी थी। वह उन दिनों सूचना प्रसारण मन्त्रालय में काम करता था और दफ़्तर में उन की कई रचनाएँ सुनने का गौरव प्राप्त कर चुका था। एक दिन कपिल और मैं टी-हाउस के बाहर रेलिंग पर बैठे हुए थे कि अचानक सत्यार्थीजी दिखायी दिये। वह लपक कर उनके पास गया और उनसे मेरा परिचय करवाया सत्यार्थीजी गर्मजोशी से मेरा हाथ थामते हुए बोले, ‘ आप से मिलकर बहुत खुशी हुई।' फिर वह कपिल की तरफ घूम गये, ‘और आपका परिचय?'
अब कपिल को काटो तो खून नहीं। उसने खुद ही अपना परिचय दिया और उन्हें याद दिलाया कि दफ़्तर में उनकी कई कहानियाँ सुन चुका है। सत्यार्थीजी ने अपनी डायरी में मेरा पता नोट किया और अगले रविवार को घर आने का वादा कर चले गये।
कपिल के साथ इस तरह की घटनाएँ होती रहती थीं। वह हर समय किसी न किसी काम में व्यस्त रहता था। कभी प्रेम में व्यस्त हो जाता तो कभी किसी नाटक की रिहर्सल में। उसके बारे में चौंकाने वाली सूचानाएँ मिलती रहती थीं। एक बार पता चला कि मुद्राराक्षस किसी नाटक का निर्देशन कर रहे हैं और उन्होंने बतौर नायक कपिल का चुनाव किया है। उसकी शामें रिहर्सल में बीतने लगीं। नाटक में कुछ रोमांटिक दृश्य थे। वह दिन भर अपने संवाद रटता और आईने के सामने खड़ा होकर घण्टों रिहर्सल करता। रोमांटिक दृश्यों में उसका अभिनय इतना स्वाभाविक और सजीव होता कि एक दिन मुद्राराक्षस ही उखड़ गये। नाटक की नायिका उनकी कमजोरी थी। मुद्रा को याद होगा कि नहीं कह नहीं सकता, मगर मुझे आज भी याद है वह कौन थी। एक दिन रिहर्सल के दौरान मुद्रा ने उछल कर कपिल का गिरेबान पकड़ लिया और उसे उसी समय नाटक से बाहर कर दिया। कपिल की हरकतें ही कुछ ऐसी थीं कि वह बहुत जल्द विवादों के घेरे में आ जाता। कुछ दिनों तक वह दूरदर्शन का समाचार संपादक भी रहा और वहां भी खुद खबर बन गया, जब उसने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक अति संवेदनशील नगर के साम्प्रदायिक दंगे की रिपोर्ट पेश करते हुए समाचार में सुअरों का ‘विजुअल' दिखा दिया था। उसे उस पद से भी हाथ धोना पड़ा था। मगर नौकरी करते-करते एक दिन वह मुम्बई में सेंसर बोर्ड तक पहुँच गया और एक अर्से तक उसके दस्तख़्तों से सेंसर प्रमाणपत्र जारी होते रहे । उससे मेरी अन्तिम भेंट महाकुम्भ के दौरान प्रयाग में हुई थी। मुझे खुशी हुई कि उसका पुराना तेवर और अन्दाज़ बरकरार था। दिल्ली में हम लोग लगभग दो बरस तक साथ-साथ रहे, मगर वह अचानक लापता हो गया
वह उम्र ही ऐसी थी कि जो था। उन दिनों उसका प्रेम चल रहा था और उसी में ओवर टाइम करने लगा। भी दोस्त प्यार में मुब्तिला होता सबसे पहले अपने दोस्तों से कट जाता। ममता से मेरा सान्निध्य बढ़ा तो मैंने भी यकायक टी-हाउस से कन्नी काट ली। एक दिन मोहन राकेश ने शरारत से मेरी आँखों में झांकते हुए कहा कि यह कहाँ की दोस्ती है कि तुम लाबोहीम में कापूचिनो सिप करते हुए दिखायी पड़ते हो। दरअसल लाबोहीम के अंधेरे कोने ममता को कुछ ज़्यादा ही रास आ रहे थे। ममता उन दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय से सम्बद्ध एक कालिज में अंग्रेजी की लेक्चरार थी। उसे प्रभावित करने के इरादे से मैं चार छह रोज़ में ही अपना वेतन फूँक देता। उसे टैक्सी में शक्ति नगर छोड़ता और खुद बस में धक्के खाते हुए घर लौटता। कृष्ण सोबती भी कभी-कभी ‘ला बोहीम' में दिखायी देतीं, वह एक कोने में चुपचाप कॉफ़ी सिप करतीं। उनके हाथों में अंग्रेजी की कोई न कोई मोटी पुस्तक ज़रूर दिखायी देती। ममता उन दिनों ममता अग्रवाल थी और उसे उन दिनों अपना पर्स खोलने का अभ्यास ही नहीं था। मुझे लगता कि वह केवल शोभा के लिए पर्स हाथ में ले कर चलती थी। शादी के बाद ही उसे पर्स खोलने का शऊर आया, मेरा मतलब है उसकी पैसा खर्च करने की झिझक खुली।
केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय दरियागंज से प्रगति मैदान में चला गया तो दफ़्तर में फोन की सुविधा कम हो गयी। शुरू-शुरू में केवल अधिकारियों के फोन शिफ़्ट हो पाये। दफ़्तर में ममता का फोन आता तो उपनिदेशक महोदय लड़की की आवाज़ सुनकर बेरहमी से फोन काट देते। उन्होंने मुझे फोन पर बुलाना ही छोड़ दिया, चाहे वह मोहन राकेश का ही फोन क्यों न हो। मिसेज तिक्कू दिल्ली में अकेली रहतीं थीं। मिस्टर तिक्कू कौन थे, कहाँ थे, कोई नहीं जानता था, मगर इतना स्पष्ट था कि उनके दाम्पत्य में कोई सलवट ज़रूर आ चुकी थी। वह अपने में मस्त रहतीं, उनकी साख भी बहुत अच्छी थी। दफ़्तर में हर कोई बहुत आदरपूर्वक उनका नाम लेता। मैंने मिसेज तिक्कू को बताया कि मैं शादी ब्याह के झंझट में पड़ना नहीं चाहता। उन्हें प्रसन्न करने के लिए मैंने यहाँ तक कहा कि कैसे दो इन्सान ज़िन्दगी भर साथ-साथ रहने की कल्पना कर सकते हैं। मुझे तो यह सम्भव ही नहीं लगता। वही लोग शादी करते होंगे जो अपनी स्वतंत्रता के दुश्मन हो जाते हैं। मिसेज तिक्कू मेरे विचारों से बहुत प्रसन्न हुईं और उन्होंने किसी तरह उपनिदेशक महोदय से मेरा पिंड छुड़वाया, जो मेरी शादी में ही नहीं, मेरी पदोन्नित में भी गहरी दिलचस्पी ले रहे थे। उन दिनों भारतीय ज्ञानपीठ का कार्यालय भी दरियागंज में था। जवाहर चौधरी उसके व्यवस्थापक थे। ममता को कोई सन्देश देना होता तो वह भारतीय ज्ञानपीठ में फोन कर देती और जवाहर चौधरी मुझे उसका संदेश पहुँचा देते। उन दिनों ‘भाषा' का मुद्रण नासिक के राजकीय मुद्रणालय में होता था। अफ़सर तो अफ़सर होता है, आहत हो जाए ता साँप से भी ज़्यादा खतरनाक होता है। मुझे न्यूनतम दण्ड यही दिया जा सकता था कि ‘भाषा' के अगले अंक का मुद्रण करवाने नासिक रवाना कर दिया जाय। इस क्षेत्र में मेरा कोई अनुभव नहीं था। ज़ाहिर है किसी भी अनुभवहीन व्यक्ति से भूलें होंगी और भूलें नहीं होंगी तो स्पष्टीकरण कैसे माँगा जा सकता है। कुछ लोग हर सरकारी काम को आमदनी का ज़रिया बना लेते हैं। एक अधिकारी ने मेरे साथ जाने के लिए तरकीब निकाल ही ली। इससे मुझे बहुत राहत मिली।
वह मेरे जीवन की पहली लम्बी ट्रेन यात्रा थी। इस यात्रा से मुझे बहुत अनुभव प्राप्त हुए। स्टेशन पर सब से पहला अनुभव तो यही हुआ कि मैं प्रथम श्रेणी का टिकट लेकर प्रथम श्रेणी के डिब्बे में बैठ गया और मेरे साथ यात्रा कर रहे अधिकारी ने तृतीय श्रेणी में अपना आरक्षण करवाया था। उन दिनों ट्रेन में तृतीय श्रेणी भी हुआ करती थी। उस अधिकारी ने मेरे डिब्बे में आकर प्रथम श्रेणी में यात्रा करने पर मेरी बहुत लानत मलामत की कि मैं धन का अपव्यय कर रहा हूँ। बाद में नासिक जा कर मैंने पाया कि उस अधिकारी ने बचे हुए पैसों का अत्यन्त सदोपयोग किया, रंडीबाज़ी और मद्यपान में। वह होटल या लॉज की बजाये धर्मशाला में ठहरा था और शाम को गोदावरी के तट पर बैठकर अपनी हरामज़दगियों का गुणगान करता। वह तीन चौथायी गंजा हो चुका था, बात करते-करते उत्तेजित हो जाता तो अपनी चाँद पर हाथ फेरने लगता।
दिल्ली से नासिक की वह रेल यात्रा कई मायनों में अविस्मरणीय बन गयी। दिन भर तो मैं खिड़की से बाहर देखते हुए प्रकृति और जीवन का आनन्द लेता रहा, रात को अचानक एक संकट खड़ा हो गया। कंडक्टर ने बताया कि मेरा आरक्षण नहीं है, मुझे अपनी सीट छोड़नी पड़ेगी। मुझे इससे पहले इल्म नहीं था कि प्रथम श्रेणी में भी आरक्षण की आवश्यकता होती है। मैंने बहुत से तर्क पेश किये मगर मेरी एक न चली। आखिर मुझे अपना बोरिया-बिस्तर उठाकर तृतीय श्रेणी के सामान्य डिब्बे में रात काटनी पड़ी। डिब्बे में बहुत संघर्ष के बाद घुस पाया था और दरवाजे की बगल में किसी तरह उल्टे सीधे सामान के बीच पैर धरने की जगह मिल पायी थी। कंडक्टर ने बताया था कि सुबह आठ बजे मैं दुबारा प्रथम श्रेणी के डिब्बे में बैठ सकता हूँ। सुबह प्रथम श्रेणी के डिब्बे में जो मेरी आँख लगी तो नासिक पहुँच कर ही नींद खुली। सुबह सहयात्रियों ने बताया कि अगर मैंने कंडक्टर को रात ही घूस दे दी होती तो यों बेआबरू होकर तृतीय श्रेणी के डिब्बे में न जाना पड़ता। सच तो यह है तब तक मुझे घूस देने की तमीज़ ही नहीं आती थी।
जैसे सोलहवें साल में यौवन दस्तक दिया करता है और बच्चे यकायक यौवन की जटिलताओं से खेलने लगते हैं, भारत का माहौल कुछ ऐसा था कि जीवन में प्रवेश करते ही नौकरशाही की महिमा समझ में आने लगती है। बंधन छेड़खानी के लिए प्रेरित करने लगते हैं, पथ पर इतने काँटे बिछे नज़र आते हैं जैसे कह रहे हों कि चल कर दिखाओ तो जानें। आदमी को समय पर घूस का महात्म्य समझ में आ जाये तो पथ निष्कंटक हो जाता है, उस पर फूल बिखर जाते हैं। देखा गया, है जो लोग सही वक्त पर इस पाठ में निरक्षर रह जाते हैं, वह फिर अविवाहित लोगों की तरह सनकी हो जाते हैं या हमारे प्रतिष्ठित व्यंग्य लेखक रवीन्द्रनाथ त्यागी की तरह पारिश्रमिक के लिए भी स्मरण पत्र भेजते समय इस बात का उल्लेख करना नहीं भूलते कि उन्होंने जीवन भर इमानदारी से नौकरी की और अपने कार्यकाल में घूस का तिनका भी नहीं छुआ या मेरी तरह प्रथम श्रेणी का टिकट लेकर तृतीय श्रेणी में यात्रा करते रहेंगे। मेरे दूध के दाँत तो समय पर निकल आये थे, मगर घूस के लेनदेन में मेरा अन्नप्राशन ज़रा विलम्ब से हुआ। ईश्वर की मुझपर कृपा रही कि समय रहते मुझे अक्ल आ गयी वरना इन्सपेक्टर लोग मेरा जीना हराम कर देते। वे अपने इस पवित्र काम में लग भी गये थे कि मुझे वक्त पर सही मार्गदर्शन मिल गया। एक ज़माना था मैं गाड़ी में आरक्षण न मिलने पर विचलित हो जाया करता था, बाद में पता चला कि ट्रेन में आरक्षण प्राप्त करना तो एक मामूली सा काम है। मेरे मित्र दीपक दत्ता तो बगैर एक भी शब्द नष्ट किये टी0 टी0 से आँखों ही आँखों में आरक्षण हासिल कर लेते थे। जब जब उनके साथ इलाहाबाद से दिल्ली जाने का अवसर मिला, वह टी0 टी0 को चेहरा दिखाकर प्रथम श्रेणी के वातानुकूलित कूपे में खाते पिलाते कानपुर तक ले गये। कानपुर से दिल्ली के लिए आरक्षित इस कूपे की यात्रा फक्त एक दो पैग और कबाब के एवज़ में उपलब्ध हो जाती। चलती हुई गाड़ी के ठंडे एकान्त में शराब पीने का आनन्द ही दूसरा है। बचपन में सुना एक मुहावरा याद आ जाता था कि हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा आये।
इलाहाबाद में मैंने प्रेस का कारोबार शुरू किया तो रोज़ कोई न कोई इन्सपेक्टर यमदूत की तरह सिर पर खड़ा हो जाता। मेरी समझ में आया कि नारंगजी क्यों दिन भर खातों और रजिस्टरों में सिर खपाते रहते थे। वह हर नियम का अक्षरशः पालन करते थे, इन्सपेक्टर लोग चाहकर भी उनको न घेर पाते। बाज़ार में यह खबर फैलते ही नारंगजी प्रेस से मुक्त हो गये है, टिड्डी दल की तरह इन्सपेक्टरों ने मुझ पर हमला बोल दिया। मैं दफ़्तरी काम में एकदम अनाड़ी था और रजिस्टर वगैरह भरने में मेरी जान सूखती थी। जब पहली बार लेबर इन्सपेक्टर निरीक्षण के लिए आया तो उसने बहुत सी अनियमितताएँ पायीं, जैसे छुट्टी का रजिस्टर अपूर्ण था, साप्ताहिक छुट्टी और अन्य छटि्टयों का विवरण प्रदर्शित नहीं था, हाजिरी रजिस्टर में कुछ खामियां थीं। मेरी निगाह में यह एक मामूली चूक थी, मगर वह चालान काटने पर आमादा हो गया। जब तक वह चालान की किताब में कार्बन लगा कर अपना काम शुरू करता, मैंने देखा, उसके रजिस्टर पर उर्दू शेर लिखा हुआ था। मैंने तुरन्त पूछा कि यह शेर किसका है?
‘इसी खाकसार का है।' अचानक वह इन्सपेक्टर से शायर में तबदील हो गया। उसने अपना पानदान निकाला और एक पान मुझे भी पेश किया। उसने जब शेर पढ़ते हुए ज़िन्दगी को जिन्दगी कहना शुरू किया तो मैंने किसी तरह अपनी हँसी रोकते हुए शेर की भरपूर तारीफ की। यह जानकर कि मेरी भी शेरो-शायरी में दिलचस्पी है, वह यके बाद दीगरे शेर पर शेर सुनाने लगा। मैंने तुरंत उसे अपनी एक पुस्तक भेंट की। पता चला नौकरी से पहले वह कालिज के दिनों में फर्रूखाबाद का नामी शायर था और इस पापी पेट के लिए उसे शायरी का दामन छोड़ना पड़ा। अब भी सरेराह चलते-चलते बारहा उसे शेर सूझ जाया करते हैं और वह उस समय जो कागज़ सामने पड़ता है उस पर शेर दर्ज़ कर लेता है। रजिस्टर पर दर्ज़ शेर उसने आज ही खोया मंडी पर एक तवायफ़ को आईसक्रीम खाते देख कर लिखा था। वह ‘गाफ़िल' उपनाम से यों ही मन की भड़ास निकालता रहता है। गाफ़िल साहब सचमुच बहुत रहमदिल इन्सान थे। जब तक वह इलाहाबाद में रहे, उन्होंने मेरा चालान न होने दिया और मैं रजिस्टरों में उलझने की बजाए अपना सारा घ्यान प्रूफ़ संशोधन के काम पर देता रहा। प्रूफ़ संशोधन की मेहनतमजदूरी से मेरा दारू का खर्च निकलता था, प्रेस की आमदनी तो किस्तों में अदा हो जाती थी।
गाफिल साहब का बलिया तबादला हो गया तो मुझे बहुत तकलीफ़ों का सामना करना पड़ा। उनके स्थान पर जो इन्सपेक्टर तैनात हुआ था, वह बहुत घाघ किस्म का आदमी था। चेहरे पर माता के दाग थे। अपने को तीसमार खाँ से कम नहीं समझता था। शेरो शायरी में भी उसकी दिलचस्पी न थी। पहली मुलाकात में ही उसने चालान काट कर थमा दिया। यह एक नया सिरदर्द था। मुझे लगा यह कारोबार चलाना मेरे बस का काम नहीं है। मेरी सात पुश्तों में किसी ने बिज़नेस नहीं किया था। चालान का अर्थ था स्पष्टीकरण और पेशियों का लम्बा सिलसिला, जिस से मुझे घोर वितृष्णा थी। मैंने अपने फाउँड्री के मालिक को फोन पर अपनी परेशानी बतायी। संयोग ही था कि मैंने एक निहायत उपयुक्त आदमी को फोन किया था। वह शहर के तमाम इन्सपेक्टरों से परिचित था। मैंने इन्सपेक्टर का हुलिया बताया तो बोला, जायसवाल होगा, बहुत हरामी और लालची है। वह आज ही उसे बुलवा कर बात कर लेगा। अगले ही रोज़ दोपहर को इन्सपेक्टर मेरे पास आया और सौ रूपया लेकर चालान का काग़ज़ फाड़ कर रद्दी की टोकरी में फेंक गया। उसके बाद वह हर महीने आता रहा, निरीक्षण के लिए नहीं, उगाही के लिए। वह मँहगाई से बहुत त्रस्त रहता था। मुझे लगता, वह चाहता है कि घूस की दर मुद्रास्फीती और थोक सूचकांक से जुड़ जानी चाहिये, मगर बनिया लोग इस तरफ़ ध्यान ही नहीं दे रहे थे। वह हर महीने घूस के अलावा कोई न कोई चीज़ और उठा ले जाता। और कुछ न दिखायी देता तो कलम ही उठा कर जेब में खोंस लेता। एक इन्सपेक्टर ऐसा भी आया कि जिसकी अपने काम में रुचि थी न आपके काम में। वह दिनभर चप्पल चटखाते हुए अपने साले के लिए नौकरी तलाश करता। वह घूस की राशि तो चुपचाप जेब में रख लेता और देर तक अपने साले की पैरवी करता रहता। उसने मुझपर बहुत दबाव बनाया कि मैं उसके साले को प्रेस के मैनेजर के रूप में रख लूं, वह सब रजिस्टर वगैरह दुरुस्त कर देगा। वह मन लगाकर काम करेगा और वक्त ज़रूरत चपरासी का काम भी कर देगा। मेरे ऊपर इतना कर्ज़ था कि मैं मैनेजर रखने की एय्याशी के बारे में सोच भी न सकता था। मैं सुबह से शाम तक प्रूफ़ पढ़ता, कई बार तो सुबह नींद खुलते ही प्रूफ़ पढ़ने में व्यस्त हो जाता ताकि मशीन का चक्का घूमता रहे। यही मेरी बचत थी और इसी से मेरा दाना पानी निकलता था यानी सिगरेट और दारू का बन्दोबस्त होता था।
घूस की महिमा का जिक्र निकला है तो एक मुँहतोड़ अनुभव का ज़िक्र करना ज़रूरी हो गया है। प्रेस का काम मैंने इतना बढ़ा लिया था कि एक मशीन से पूरा न पड़ता था। मैं एक स्वचालित मशीन लगाना चाहता था, जबकि अभी नारंगजी का ही बहुत सा कर्ज़ बाकी था। एक दिन सुबह के अखबार में मुझे कुछ रोशनी नज़र आई। पंजाब नेशनल बैंक का विज्ञापन प्रकाशित हुआ था कि लघु उद्योगों को प्रोत्साहित करने के लिए बैंक ने आसान किस्तों पर एक कल्याणकारी योजना का शुभारम्भ किया है, इच्छुक व्यक्ति बैंक की निकटतम शाखा से सम्पर्क करें। मैं एक निहायत मूर्ख नागरिक की तरह बैंक खुलते ही कुर्ते पायजामे में सिगरेट फूँकते हुए खरामा-खरामा चौक स्थित पंजाब नेशनल बैंक की शाखा के प्रबंधक के कमरे में पहुँच गया। बैंक मैनेजर मोटे से लेजर में सिर गड़ाये हुए था। हाल में एक टेबुल के पास मैनेजर की बगल में मैं उनके खाली होने की प्रतीक्षा कर रहा था कि एक मोटा सा चूहा मेरे पायजामे में घुस गया। मैं सार्वजनिक रूप से पायजामा तो ढीला न कर सकता था, मैंने अचानक कूदना शुरू किया। चूहा पायजामे के रहस्यमय लोक में पहुँच कर उत्पात मचाने लगा। मैं कूदता रहा और चूहा कभी मेरी दाहिनी टाँग पर रेंगने लगता और कभी बायी टाँग पर। मुझे कूदते देख बैंक में हलचल मच गयी। लोगों ने सोचा कि कोई ग्राहक अचानक पागल हो गया है और बेतहाशा कूद रहा है। इसी प्रक्रिया में मेरा चश्मा नीचे गिर गया। मैनेजर भी अपनी मूड़ी उठाकर हक्का-बक्का सा मेरी तरफ देखने लगा। उसका चश्मा उसकी नाक की नोक पर सरक आया था। अचानक चूहे को सद्बुद्धि आई और वह मेरे दाहिने पैर पर कूद कर भीड़ में रास्ता बनाते हुए निकल गया। लोगों को जैसे सर्कस का आनन्द आ गया। लोग उत्तेजना में ताली पीटने लगे। मैनेजर ने बैंक के प्रबंध तंत्र को पेस्ट कंट्रोल के लिए अपेक्षित धनराशि मंजूर न करने पर पंजाबी में गाली दी और आदरपूर्वक मुझे अपने कमरे में ले गया। बैंक के कर्मचारियों ने मेरे लिए चाय का गर्म-गर्म प्याला भिजवा दिया। मैंने मैनेजर को अपने आने का प्रयोजन बताया। मेरी बात सुनकर बैंक मैनेजर ऐसे व्यंग्य से मुस्कुराया जैसे कह रहा हो कि इस दुनिया में अब भी ऐसे मूर्ख लोग विद्यमान हैं जो सरकारी विज्ञापनों पर विश्वास करते हैं। उसने अपना और मेरा काफ़ी समय नष्ट करके मुझे सुझाव दिया कि मैं शहर की मुख्य शाखा से सम्पर्क करूँ। जिन दिनों मैं बैंक के चक्कर लगा रहा था, मैंने एक लम्बी कहानी लिखी थी ‘चाल'। उस कहानी का एक अंश यहाँ उद्घृत करना चाहूँगा ः
प्रकाश बैंक पहुँचा तो, बिजली नहीं थी। तमाम कर्मचारी अपनी-अपनी कुर्सी छोड़कर बाहर हवा में टहल रहे थे।
‘आपसे मिलने के पूर्व मैं कार्यालय से कुछ जानकारी ले लेना चाहता था, मगर दुर्भाग्य से आज बिजली नहीं है।' प्रकाश ने मैनेजर के सामने बैठते हुए कहा, ‘मैंने इंजीनियरिंग की परीक्षा अच्छे अंक प्राप्त करके पास की है और ‘आर यू प्लानिंग टु सेट अप ए स्मॉल स्केल इण्डस्ट्री' पढ़कर आप से मिलने आया हूँ।'
‘यह अच्छा ही हुआ कि बिजली नहीं है, वरना आप से भेंट ही न हो पाती। आप मिश्रा से मिलते और मिश्रा आपको जानकारी की बजाए गाली दे देता। वह हर आने वाले से यही कहता है कि यह सब स्टंट है, आप घर बैठकर आराम कीजिए, कुछ होना हवाना नहीं है।'
प्रकाश अपनी योजना के बारे में विस्तार से बात करना चाहता था, मगर उसने पाया कि बैंक का मैनेजर सहसा आध्यात्मिक विषयों में दिलचस्पी लेने लगा है। वह धूप में कहकहे लगा रहे बैंक के कर्मचारियों की ओर टकटकी लगा कर देख रहा था जैसे दीवारों से बात कर रहा हो, ‘आप नौजवान आदमी हैं, मेरी बात समझ सकते हैं। यहाँ तो दिनभर अनपढ़ व्यापारी आते हैं, जिन्हें न स्वामी दयानन्द में दिलचस्पी है, न अपनी सांस्कृतिक विरासत में। वेद का अर्थ है ज्ञान। ज्ञान से हमारा रिश्ता कितना सतही होता जा रहा है, इसका अनुमान आप स्वयं लगा सकते हैं। प्रकृति की बड़ी-बड़ी शक्तियों में आर्य लोग दैवी अभिव्यक्ति देखते थे। जब छोटा बड़े के सामने जाता था, तब अपना नाम लेकर प्रणाम करता था। आज क्या हो रहा है, आप अपनी आँखों से देख रहे हैं। बिजली चली गयी और इनसे काम नहीं होता। कोई इनसे काम करने को कहेगा, ये नारे लगाने लगेंगे। मैं इसी से चुप रहता हूँ। किसी से कुछ नहीं कहता। आप चले आये, बहुत अच्छा हुआ, बहुत अच्छा हुआ, नहीं तो मैं गुस्से में भुनभुनाता रहता और ये सब मुझे देख-देखकर मज़ा लेते। मैं पहले ही ‘एक्सटेंशन' पर हूँ। नहीं चाहता कि इस बुढ़ापे में ‘प्राविडेंड फंड' और ‘ग्रेच्युटी' पर कोई आँच आये। आपकी तरह मैं भी मज़ा ले रहा हूँ। मैंने बिजली कम्पनी को भी फोन नहीं किया। वहाँ कोई फोन ही नहीं उठायेगा। इन सब बातों पर मैं ज़्यादा सोचना ही नहीं चाहता। पहले ही उच्च रक्तचाप का मरीज़ हूँ। दिल दगा दे गया तो, यहीं ढेर हो जाँऊगा देवों का तर्पण तो दूर की बात है यहाँ कोई पितरों का तर्पण भी नहीं करेगा। आप यह सोचकर उदास मत होइए। आप एक प्रतिभासम्पन्न नवयुवक हैं, तकनीकी आदमी है। बैंक से ऋण लेकर अपना धंधा जमाना चाहते हैं। ज़रूर जमाइए। पुरुषार्थ में बड़ी शक्ति है। हमारा दुर्भाग्य यही है, हम पुरुषार्थहीन होते जा रहे हैं। आप हमारे बैंक का विज्ञापन पढ़कर आये हैं, मेरा फर्ज है, मैं आपकी पूरी मदद करूँ। ऋण के लिए एक फार्म है, जो आपको भरना पड़ेगा। इधर कई दिनों से वह फार्म स्टॉक में नहीं है। मैंने मुख्य कार्यालय को कई स्मरण पत्र दिये हैं कि इस फार्म की बहुत मांग है, दो सौ फार्म तुरन्त भेजे जायें। फार्म मेरे पास ज़रूर आये, मगर वे नया एकाउण्ट खोलने के फार्म थे। आज की डाक से यह परिपत्र आया है। आप स्वयं पढ़कर देख लीजिये। मैं अपने ग्राहकों से कुछ नहीं छिपाता। मैं खुले पत्तों से ताश खेलने का आदी हूँ। इस परिपत्र में लिखा है कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद पढ़े-लिखे तकनीकी लोगों को बैंक से अधिक से अधिक आर्थिक सहायता मिलनी चाहिये। आपका समय नष्ट न हो, इससे मेरी राय यही है कि आप कहीं से उस फार्म की प्रतिलिपि प्राप्त कर लें, उसकी छह प्रतिलिपियाँ टंकित करा लें, मुझसे जहाँ तक बन पड़ेगा, मैं आप के लिए पूरी कोशिश करूँगा। वैसे निजी तौर पर आपको बता दूँ, मेरे कोशिश करने से कुछ होगा नहीं। मैं कब से कोशिश कर रहा हूँ कि इस ब्राँच के एकाउण्टेंट का तबादला हो जाये, मगर वह आज भी मेरे सर पर सवार है। सारे फसाद की जड़ भी वही है। गर्मी भी उसे ही सबसे ज्यादा सताती है। पुराना आदमी है, अफसरों से लेकर चपरासियों तक को पटाये रखता है, यही वजह है कि उस पर कोई अनुशासनात्मक कार्यवाही नहीं की जा सकती। दो ही वर्षों में मैंने उसकी ‘कान्फीडेशियल फाइल' इतनी मोटी कर दी है कि एक हाथ से उठती ही नहीं। मगर आज काग़ज़ों का वह अर्थ नहीं रह गया, जो अंग्रेजों के ज़माने में था। काग़ज़ का एक छोटा सा पुर्जा जिन्दगी का रुख ही बदल देता था। आप ऋण की ही बात ले लीजिए। यह सब ‘पेपर एनकरेजमेंट' यानी काग़ज़ी प्रोत्साहन है। यही वजह है कि हिन्दुस्तान में काग़ज़ का अकाल पड़ गया है। राधे बाबू ने गेहूँ या तेल से उतनी कमाई नहीं की, जितनी आज काग़ज़ से कर रहे हैं।'
इसी बीच बिजली आ गयी। कमरे में उजाला हो गया और धीरे-धीरे पंखे गति पकड़ने लगे। प्रकाश के दम-में-दम आया। अपनी योजनाओं के प्रारूप की जो फाइल प्रकाश अपने साथ इतने उत्साह से लाया था, मैनेजर ने पलट कर भी न देखी थी। चपरासी ने बहीखातों का एक अम्बार मैनेजर के सामने पटक दिया। एक ड्राफ्ट उड़कर प्रकाश के पाँव पर गिरा। प्रकाश ने वहीं पड़ा रहने दिया। मैनेजर ने चिन्हित पृष्ठों पर मशीन की तरह कलम चलानी शुरू कर दी।'
मैं उस मैनेजर के सम्पर्क में लगातार रहा। ऋण मिलने की कोई संभावना नज़र नहीं आ रही थी। मैंने यह सोचकर सन्तोष कर लिया न सही ऋण कहानी ही सही। उसका एकालाप सुनने के लिए मैं कई बार उसके यहाँ चला जाता।
एक दिन मैं घूमते-घूमते पंजाब नेशनल बैंक की मुख्य शाखा पर जा पहुँचा। चौक शाखा से यहाँ का वातावरण एकदम भिन्न था। मैनेजर ने मुझे सम्बंधित अधिकारी से मिलने को कहा। अगर मैं गलत नहीं हूँ तो उस अधिकारी का नाम मित्तल था, बाद मेंं मित्तल ने बताया कि उसकी पत्नी कैंसर से पीड़ित थी और उसे घूस का घुन लग चुका था। उसने ऋण दिलवाने का वादा किया और मेरे लिए चाय मँगवायी। ड्राअर से फार्म निकाला और खुद ही मेरे काग़ज़ देख कर मेरा फार्म भरने लगा। उसने कुछ ज़रूरी काग़ज़ात की फोटो प्रतिलिपि करवायी और मेरा आवेदन पत्र भी स्वीकार कर लिया। उसने बताया कि अगले सप्ताह क्षेत्रीय कार्यालय से एक अधिकारी निरीक्षण के लिए आने वाला है और उसकी रिपोर्ट मिलते ही ऋण की राशि स्वीकृत हो जायगी।
अगले सप्ताह मित्तल साहब का सन्देश मिला कि क्षेत्रीय कार्यालय से सम्बंधित अधिकारी आ गये हैं और मैं बैंक से तुरन्त सम्पर्क करूँ। मित्तल साहब से मिला तो उन्होंने बताया कि वह शीघ्र ही दो एक दिन में अपने अधिकारी के साथ निरीक्षण के लिए आएँगे। मैं घर में जलपान का प्रबन्ध रखूँ। मुझे बड़ा अफसोस हुआ जब अधिकारी ने जलपान में कोई दिलचस्पी न दिखायी, उसकी दिलचस्पी अपने काम में ज़्यादा थी। उसने प्रेस की बैलेंस शीट का अध्ययन किया, मेरी पृष्ठभूमि के बारे में बातचीत की। वह दक्षिण भारतीय था और मैंने दक्षिण की भाषाओं और साहित्य पर अपनी पूरी जानकारी उडेल कर रख दी। उसे जानकर बहुत आश्चर्य हुआ कि कोई पढ़ालिखा आदमी भी इस धंधे में है। अब तक उसकी मुलाकात ठेठ व्यवसायियों से हुई थी। मुझे लगा, वे लोग मेरी बातचीत से सन्तुष्ट होकर चले हैं। मित्तल साहब ने आँख के इशारे से ऐसा संकेत भी दिया। शाम को दफ़्तर के बाद मित्तल साहब प्रेस में चले आये। उन्होंने बताया कि उन के अधिकारी ऋण स्वीकृत करने का मन बना चुके हैं और मैं शाम को उन के होटल में उन से मिल लूँ। वह शरीफ अधिकारी हैं ज़्यादा मोलभाव न करेंगे, मैं कम से कम एक हज़ार रुपया अवश्य भेंट कर दूँ। अपने हिस्से के बारे में वह बाद में बात कर लेंगे। एक हज़ार रुपया मेरे लिए बड़ी रकम थी यानी इतने पैसों से पत्नी के लिए दर्जनों साड़ियाँ खरीदी जा सकती थीं या दो महीने तक दारू पी जा सकती थी। मैंने असमर्थता प्रकट की तो मित्तल साहब नाराज़ हो गये -- एक लाख का ऋण चाहते हो और एक हज़ार रुपया खर्च नहीं कर सकते। इतनी बचत तो ब्याज में हो जाएगी। बाज़ार से पैसा उठायेंगे तो बीस रुपये सैकड़ा से कम न मिलेगा। आप की समझ में आये तो पैसा पहुँचा दें। मित्तल साहब ने उठते हुए कहा, जहाँ तक उनके पैसे का ताल्लुक है, वह ऋण स्वीकृत होने के बाद ले लेंगे।
मित्तल साहब चले गये तो मैं सोच में पड़ गया। इसी ऋण की खातिर मैं अब तक बहुत चप्पल चटखा चुका था। कहीं से ठोस आश्वासन न मिला था। मैंने बिजली का बिल जमा करने के लिए ग्यारह सौ रुपये संभाल कर रखे हुए थे। आखिर मैंने तय किया कि उसी पैसे से यह काम सरंजाम दे दिया जाए, बिजली के बिल का जुगाड़ बाद में कर लिया जाएगा। रेड्डी साहब जान्सटन गंज के राज होटल में ठहरे हुए थे। मैंने मन मसोस कर एक हज़ार रुपये एक लिफाफे में रखे और उनके पास पहुँच गया। रेड्डी साहब ने मेरे लिए चाय मँगवायी और मुम्बई के जीवन पर बातचीत करने लगे। दो वर्ष के लिए वह भी वहाँ रहे थे। उन्होंने आश्वासन दिया कि वह सप्ताह भर में मेरा ऋण स्वीकृत करा देंगे। मैंने बहुत मासूमियत से अपनी जेब से लिफ़फ़ा निकाला और उन्हें भेंट करते हुए कहा, ‘मेरी ओर से यह भेंट स्वीकार करें।'
रेड्डी साहब ने लिफ़ाफ़ा खोला और उस में रुपये देखकर भड़क गये ‘आप यह सब क्या कर रहे हैं? मैं तो आपको पढ़ा लिखा समझदार शख्स समझ रहा था। आप अपना ही नहीं, मेरा भी अपमान कर रहे हैं।'
मेरा चेहरा एकदम फक पड़ गया और मुझे अपने कर्म पर बहुत शर्म आयी, मगर मैं लाचार था, मित्तल साहब ने ऐसा ही निर्देश दिया था। मुझे असमंजस में देखकर रेड्डी साहब ने पूछा, ‘आपको किसीने पैसा देने को कहा था?'
‘मैं बेहद शर्मिंदा हूँ।' मैंने कहा, ‘मजबूरी में मैंने यह गुस्ताखी की थी।'
‘किसने आप को यह रास्ता सुझाया?'
‘अब मैं आपको क्या बताऊँ, आपके दफ़्तर से यह संकेत मिला था।'
‘किसने दिया ऐसा भद्दा संकेत?'
शिकायत करना ठीक न होगा, आप खुद दरियाफ़्त कर लें।' आत्मग्लानि में मैं देर तक गर्दन झुकाये उनके सामने बैठा रहा।
‘आपसे मुझे इस व्यवहार की कतई आशा न थी।'
‘आप मेरा ऋण मत स्वीकार करें।' मैंने उठते हुए कहा, ‘मुझे क्षमा करेंगे।'
मेरा यह घूस देने का पहला अवसर था और इसमें मैं न सिर्फ़ असफल रहा था, घोर अपमानित भी हुआ था। इससे पहले दी गयी रकमों को बख्शीश ही कहा जा सकता था। मेरी रेड्डी साहब से आँख मिलाने की हिम्मत न पड़ रही थी। मैं कमरे से निकला और चुपचाप सीढ़ियाँ उतर गया।
कई दिनों तक मैं प्रायश्चित में सुलगता रहा। उस समय मित्तल मुझे दिखायी पड़ जाता तो उसे गिरेबान से पकड़ लेता। मैंने मित्तल और बैंक की उस शाखा को भूल जाने में ही अपनी खैरियत समझी। मैंने उस शाखा की तरफ़ जाने वाली सड़कों पर भी चलना बंद कर दिया। एक दिन अनायास दोपहर को बैंक मैनेजर मित्तल साहब के साथ प्रेस में आये। इन लोगों ने सूचना दी कि मेरा ऋण स्वीकृत हो गया है और मैं बैंक आकर तमाम औपचारिकताएँ पूरी कर लूँ। मैंने गौर किया, उस दिन मेरी जो हालत रेड्डी साहब के सामने हो रही थी, उससे भी बदतर हालत में मित्तल साहब थे। वह मुझसे आँख नहीं मिला पा रहे थे। अगले रोज़ मैं दफ़्तर गया तो मित्तल साहब ने बगैर किसी हीलागरी के तमाम औपचारिकताएँ पूरी करवा दीं। कुछ ही दिनों में उनका तबादला भी हो गया। मित्तल साहब के तबादले के बाद देश से भ्रष्टाचार समाप्त हो गया हो, ऐसा नहीं होता और न ऐसा हुआ। मुझे लगता है अगर रेड्डी साहब ऐसे ही ईमानदारी का परिचय देते रहे होंगे तो अब तक उनका तबादला भी हो चुका होगा। उनकी हरकतों से ऐसा लगता था, सीधे उनका निलम्बन ही हुआ होगा। हमारे यहाँ व्यवस्था ऐसी हो गयी है कि इमानदार होने का भ्रम अवश्य प्रदर्शित कर सकती है और अगर ईमानदारी से किसी अधिकारी की उज्ज्वल छवि बनने लगती है तो उसे मुनासिब दण्ड दे दिया जाता है। सरकारी कामकाज में बाधा उत्पन्न करना भी अपराध है। मालूम नहीं, रेड्डी साहब अपना अभियान कहाँ तक पहुँचा पाये या बीच नौकरी में ही उन की साँस उखड़ गयी।
घूस का प्रसंग जिस यात्रा में आया था, वह सन् चौंसठ के आसपास की यात्रा थी। मैं यह सोचकर नासिक यात्रा पर जाने को तैयार हो गया था कि इस बहाने मुम्बई देखने का मौका मिल जाएगा। संयोग से उन दिनों राकेशजी मुम्बई में थे। मुम्बई एक तरह से उन का दूसरा घर था, वह कभी भी मुम्बई के लिए चल देते थे। जाने उन्हें मुम्बई का क्या आकर्षण था। मुम्बई में ऐसे कई परिवार थे, जहाँ राकेशजी घर से भी अधिक अपनापन महसूस करते थे। वैद परिवार ऐसा ही एक परिवार था। वैद लोगों के पास चर्चगेट पर बहुत खूबसूरत फ़्लैट था। समुद्र का पड़ोस था।
शनिवार तक अपना काम निपटा कर मैं मुम्बई रवाना हो गया और मुम्बई पहुँचकर स्टेशन पर ही दिल्ली का आरक्षण करा लिया ताकि बाद में कहीं पैसे न कम पड़ जाएँ। राकेशजी मुम्बई में राजबेदी के यहाँ रुकते थे। चर्चगेट पहुँचने में ज़रा दिक्कत न हुई। इस्मत आपा (इस्मत चुगताई) भी उसी बिल्डिंग में रहती थीं उन से भी भेंट हो गयी। शाम को राकेशजी जुहू ले गये और भेलपूरी का आनन्द लिया, नारियल का पानी पिया। राकेशजी के साथ ही कृष्णचन्दर के यहाँ जाना हुआ। वह उन दिनों खार में रहते थे। सलमा आपा भी मिलीं। भारतीजी और अली सरदार जाफरी वामनजी पेटिट रोड पर एक ही बिल्डिंग में रहते थे। शाम इन लोगों के साथ बितायी। मेरे लिए वे अविस्मरणीय क्षण थे।
मुम्बई में मेरी अच्छी खासी तफरीह हो गयी, मगर जब मैं वापिसी के लिए ट्रेन में सवार हुआ तो पाया कि जेब में टिकट तो फर्स्ट क्लास का था, मगर जेबें खाली थीं। सब जेबें टाटोलकर देख लीं, पास में पाँच रुपये भी न थे। देवलाली के कोच में मेरा आरक्षण था। जेब खाली हो तो भूख भी कुछ ज़्यादा लगती है। मैंने प्लेटफार्म पर उतर कर एक बटाटा बड़ा खरीदा और जी भर कर पानी पी लिया। देवलाली स्टेशन पर सेना के कुछ अधिकारी कैबिन में नमूदार हुए। उन के साथ अर्दली वगैरह भी थे। उन का सामान करीने से रखा गया। होल्डाल खोले गये। जब टे्रन देवलाली से विदा हुई तो शाम का झुटपुटा छा चुका था। सूर्य अस्त होते ही तीनों अधिकारी कुछ बेचैन दिखने लगे। उन के हावभाव से लग रहा था, उन्हें पीने की हुड़क उठ रही है, मगर मेरी उपस्थिति में कार सेवा शुरू करने में संकोच कर रहे थे। आखिर एक नौजवान ने मुझे सिगरेट पेश करते हुए पूछा कि अगर वह ड्रिंक करेंगे तो मुझे कोई एतराज़ तो न होगा। मैंने सिगरेट सुलगाई और धुआँ छोड़ते हुए कहा कि अगर वे लोग मुझे भी शामिल कर लेंगे तो मुझे कोई एतराज़ न होगा। मेरी स्वीकृति मिलते ही डिब्बे का माहौल उत्सवधर्मी और दोस्ताना हो गया। देखते-देखते ट्रंक के ऊपर बार सज गया। बर्फ की बकेट निकल आई, पारदर्शी गिलासों में शराब ढाली जाने लगी। देखते ही देखते उन का अर्दली गर्म-गर्म उबले हुए अंडे छीलने लगा। उसने करीने से सलाद की प्लेट सजा दी। मयनोशी का यह जो दौर शुरू हुआ तो दिल्ली पहुँच कर ही खत्म हुआ। दिल्ली तक का सफर चुटकियों में कट गया, विमान की तरह। मेरी जेब में इतने भी पैसे नहीं थे कि चार लोगों के लिए चाय का आदेश दे सकता, मगर ईश्वर जब देता है तो छप्पर फाड़ कर ही नहीं देता, चलती ट्रेन में भी दे देता है। एक तरफ मेरी मुफ़लिसी थी और दूसरी तरफ़ ये नौजवान थे, जिन के पास किसी चीज़ की कमी ही न थी। सुबह के नाश्ते से लेकर रात के डिनर तक की उत्तम व्यवस्था होती चली गयी। मैं भी निःसंकोच इन लोगों का साथ दे रहा था, मगर भीतर ही भीतर संकोच भी हो रहा था कि इतने लज़ीज़ भोजन और मंहगी शराब में मेरी कोई हिस्सेदारी नहीं थी। मेरे पास कुछ लतीफे थे और शेर। वाजिब अवसर पर मैं उन्हें ही खर्च करता रहा। इश्क मजाज़ी के शेर सुनकर तो वे ताली पीटने लगते। मेरी स्थिति एक विदूषक की हो गयी थी। यात्रा के दौरान इन लोगों से मेरी इतनी घनिष्टता हो गयी कि मेरे बगैर दोपहर को जिन का सेशन भी शुरू न होता। वक्त पर नाश्ता, लंच और डिनर चार प्लेटों में आता। मैं यही सोचकर परेशान था कि जाने अब तक डाइनिंग कार का कितना बिल हो गया होगा। मैं डर रहा था कि बैरा कहीं मुझे बिल पेश न कर दे। ज्यों-ज्यों दिल्ली पास आ रही थी, मेरी जान सांसत में आ रही थी। मैंने धीरे-धीरे अपना सामान समेटना शुरू कर दिया था। सामान था ही क्या, ले दे कर एक टुटहा अटैची थी। एक चादर थी, जो नासिक की लॉज में ही चोरी चली गयी थी। दिल्ली नज़दीक आ रही थी और मेरे दिल की धड़कनें तेज़ हो रही थीं। तभी बैरे ने आकर सामान समेटना शुरू किया। मुझे लग रहा था अभी वारंट की तरह बिल मेरे सामने पेश कर दिया जाएगा, जो सैकड़ों रुपयों का होगा। गाड़ी ने नयी दिल्ली के प्लेटफार्म में प्रवेश किया तो मैं अपना अटैची थामे दरवाजे पर खड़ा था। ज्यों ही गाड़ी की गति कमज़ोर पड़ी, मैंने रेंगती ट्रेन से अटैची थामे हुए कुछ इस तरह छलांग लगायी जैसे अपना नहीं चोरी का सामान लेकर कूद रहा हूँ। बड़े-बड़े गिरहकट मेरी मुस्तैदी देख कर चकित रह जाते। प्लेटफार्म पर संभलते ही मैं ट्रेन की उलटी दिशा में चलने लगा। स्लोप वाले पुल पर बिल्ली की सी तेज़ी से चढ़ गया। प्लेटफार्म से बाहर निकलते ही एक टैक्सी में बैठ गया और बोला ‘करोल बाग।'
करोल बाग में पंजाबी कवि हरनाम की औरतों के पर्स की दुकान थी। मैंने रास्ते में तय कर लिया था कि हरनाम से पैसा लेकर टैक्सी का बिल अदा करूँगा। हरनाम नहीं मिलता तो पास ही वह ढाबा था, जहाँ हम लोग भोजन किया करते थे और भी कई ठिकाने थे। मेरी समस्या का निदान हरनाम ने ही कर दिया। उसकी दुकान पर ग्राहक कम, शायर ज़्यादा दिखायी देते थे। उस समय भी कई दोस्त मिल गये, हमदम, सुरेंद्र प्रकाश वगैरह। आज मुझे उन सहयोगियों के नाम भी याद नहीं, उनकी शक्ल भी भूल चुका हूँ, जिनके साथ मैंने बम्बई से दिल्ली तक की यादगार यात्रा की थी। दुनिया जहान से बेखबर शराब पीते हुए यात्रा करने का यह मेरा पहला अनुभव था। उसके बाद, बहुत बाद ऐसी स्थिति भी आई कि यात्रा में कभी शराब की कमी नहीं आई, पानी की कमी आ सकती थी। दिल्ली के उन संघर्षमय दिनों में होली दीवाली या किसी खास मौके पर ही मयगुसारी का अवसर मिलता था। उन दिनों भी, सन् 63-64 में नये वर्ष की पूर्व संध्या पर दारू पीने का बहुत रिवाज था। पूरा कनाट प्लेस दिल्लीवासियों की मधुशाला बन जाता।
उन दिनों नववर्ष की पूर्व संध्या पर भोर तक अच्छा खासा उपद्रव रहता था। शराब की नदियाँ बहा करती थीं। हम लोग भी अपनी हैसियत के मुताबिक चन्दा करके इस महानदी में हाथ-मुँह धो लिया करते थे। सन् चौंसठ की बात है एक जगह, कनॉट प्लेस के बीचों-बीच पार्क में भारी हुजूम दिखायी दिया। किसी मुंडेर के ऊपर खड़े होकर कुछ युवक गा रहे थे, भीड़ तालियाँ पीट रही थी। प्रसव पर आधारित कोई अश्लील लोकगीत था। अश्लील ही नहीं, घोर साम्प्रदायिक। अचानक भीड़ में से दो युवकों ने लोकगीत के प्रति विरोध प्रकट किया। विरोध प्रकट करने वाले चूँकि अल्पसंख्यक थे, भीड़ उन पर टूट पड़ी। लात घूँसे चलने लगे। हवा में टोपियाँ उछलने लगीं। सहसा कमलेश्वर न जाने कहाँ से प्रकट हो गये और हाथों को चप्पू की तरह चलाते हुए भीड़ में घुस गये और पिटने वाले युवकों के बचाव में लग गये। हम लोग कमलेश्वर को ‘बक अप' करने लगे। देखते-देखते सौ पचास लोगों को कमलेश्वर ने अकेले दम पर नियंत्रण में कर लिया। यही नहीं, उन लोगों के मंच पर कब्जा करके एक संक्षिप्त-सा सांप्रदायिकता विरोधी भाषण भी दे डाला। उस वर्ष नये वर्ष का उदय कुछ इस प्रकार से हुआ था। हम लोग कमलेश्वर के इस शौर्य प्रदर्शन के मूक साक्षी हैं। उस दिन हमारे मन में कमलेश्वर की एक नयी छवि उभर आयी। एक परिवर्तित छवि, पल-पल परिवर्तित प्रकृति वेश की तरह। पता चला, केवल पुस्तकों के पन्नों पर या साहित्य के स्तर पर ही कमलेश्वर गैर-सांप्रदायिक नहीं हैं, अवसर आने पर रणक्षेत्र में भी कूद सकते हैं।
दिल्ली में राकेश मुझ से असन्तुष्ट रहने लगे थे। वह मेरी संगत से क्षुब्ध रहते थे। राजकमल चौधरी, मुद्राराक्षस, श्रीकांत वर्मा, बलराज मेनरा, जगदीश चतुर्वेदी आदि लेखकों को वह फैशनपरस्त और आत्मकेन्द्रित व्यक्तिवादी लेखक मानते थे। मेरा बहुत सा समय ऐसे ही रचनाकारों के साथ बीतता था। एक दूसरा संकट भी था। नामवर सिंह, देवीशंकर अवस्थी आदि आलोचक साठोत्तरी पीढ़ी की रचनाओं को नयी कहानी की मूल संवेदना से सर्वथा भिन्न पा रहे थे और इन्हीं रचनाकारों में भविष्य की कहानी की नयी संभावना तलाश रहे थे। राकेशजी की नज़र में मैं गुमराह हो रहा था। ममता और मेरी दोस्ती से भी वह बुजुर्गों की तरह नाखुश थे। ममता के चाचा भारत भूषण अग्रवाल इस रिश्ते को लेकर सशंकित रहते थे। इसे संयोग ही कहा जाएगा कि अशोक और मैंने एक ही खानदान में सेंध लगायी थी। नेमिचन्द्र जैन और भारतभूषण अग्रवाल साढ़ू भाई थे। भारतजी शायराना और नेमिजी शाही तबीयत के मालिक थे। दोनों की रुचियाँ एक सी थीं, मगर पारिवारिक पृष्ठभूमि एकदम भिन्न थी अशोक ने नेमिजी के यहाँ मुझ से कहीं अधिक विश्वसनीयता अर्जित कर ली थी। उर्दू में अफसानानिगारों की अपेक्षा शायरों को अधिक दिलफेंक समझा जाता था, हिन्दी में स्थिति भिन्न थी। यहाँ कथाकारों को ज़्यादा गैरज़िम्मेदार समझा जाता था। अनेक कथाकारों का दाम्पत्य चौपट हो चुका था। हिन्दी के कम ही कथाकारों ने एक शादी से संतोष किया होगा। मेरा कहानीकार होना ऋणात्मक सिद्ध हो रहा था।
इसी बीच एक दिन मुझे टी-हाउस में देख कर मोहन राकेश मुझे अलग ले गये।
‘बम्बई जाओगे?' उन्होंने अपने मोटे चश्मे के भीतर से खास परिचित निगाहों से देखते हुए पूछा।
‘बम्बई ?' कोई गोष्ठी है क्या?'
‘नहीं, ‘धर्मयुग' में।'
‘धर्मयुग' एक बड़ा नाम था, सहसा विश्वास न हुआ। मैं दिल्ली में रमा हुआ था, दूर-दूर तक मेरे मन में दिल्ली छोड़ने का कोई विचार न था। राकेशजी ने अगले रोज़ घर पर मिलने को कहा। उन्होंने अगले रोज़ घर पर बुलाया और मुझ से सादे काग़ज़ पर ‘धर्मयुग' के लिए एक अर्ज़ी लिखवायी और कुछ ही दिनों में नौकरी ही नहीं, दस इन्क्रीमेंट्स भी दिलवा दिये। ‘धर्मयुग' में जाने का उत्साह तो था, मगर मैं दिल्ली नहीं छोड़ना चाहता था। मुझे स्वीकृति भेजने में विलम्ब हुआ तो भारतीजी ने सोचा मैं सरकारी नौकरी का मोह कर रहा हूँ। इस बीच धर्मवीर भारती का एक अत्यन्त आत्मीय पत्र प्राप्त हुआ और पत्र पढ़ते ही मैंने तय कर लिया कि अगले ही रोज़ नौकरी से इस्तीफ़ा दे दूँगा। भारतीजी ने लिखा था ः
प्रिय रवीन्द्र
सरकारी नौकरी के लिए एक विशेष प्रकार का मोह हमारे बड़ों में अब भी बना हुआ है। लेकिन उन्हें मेरी ओर से समझा देना कि यहाँ भविष्य की संभावना कहीं अधिक है और यह भी कि मेरे पास रहकर तुम परिवार से दूर नहीं रहोगे। 20 तारीख के पहले ही 16-17 तारीख तक ज्वाइन कर सको तो अच्छा ही रहेगा।
सस्नेह,
तुम्हारा,
भारती
मेरे पास मुम्बई जाने का किराया भी नहीं था। उन दिनों ममता से मेरी देखा-देखी चल रही थी। दिल्ली में ममता मुझसे दुगुना वेतन पाती थी, मगर महाकंजूस थी। मगर जल्द ही वह मेरे रंग में रंगने लगी। ममता से लगभग दुगुने वेतन पर ‘धर्मयुग' में मेरी नियुक्ति हुई थी, उससे कम वेतन पाने की कुंठा समाप्त हो गयी। एक अच्छी प्रेमिका की तरह ममता ने न केवल मेरी गाड़ी का आरक्षण करवाया बल्कि बम्बई के जेब खर्चे की भी व्यवस्था कर दी। तब से आज तक मेरी वित्त व्यवस्था उसी के जिम्मे है। वह मेरी वित्तमंत्री है।
मुम्बई में दादर स्टेशन पर मेरे मित्र पंजाबी कवि स्वर्ण को मुझे लेने आना था, मगर वह समय पर नहीं पहुँचा। मैंने सुन रखा था कि दादर स्टेशन में कुली यात्रियों को बहुत परेशान करते हैं। वे अनाप शनाप पैसा माँग रहे थे। मुझे मालूम ही नहीं था कि मुझे कहाँ जाना है। जब देर तक स्वर्ण का नामोंनिशान दिखायी न दिया तो मैंने प्रभादेवी के लिए टैक्सी की। टैक्सी वाले ने भी खूब मज़ा चखाया। कालबादेवी में एक गेस्ट हाउस में हरीश तिवारी रहता था, वह ‘माधुरी' में काम करता था। किसी तरह उसकी लॉज तक पहुँचा तो मालूम हुआ वह दो दिन से लॉज में ही नहीं आया। लॉज का मालिक अच्छा आदमी था, उसने मेरी मजबूरी समझकर रात काटने के लिए गोदाम में खटिया डलवा दी।
बम्बई में जितने आकस्मिक रुप से नौकरी मिली थी, उससे भी अधिक आकस्मिक रूप से शिवाजी पार्क सी फेस में फ़्लैट मिल गया। स्वर्ण का ही एक दोस्त था एस0 एस0 ओबेराय। वह एक भुतहा फ़्लैट में अकेला रहता था और उसे किसी साथी की तलाश थी, किसी पंजाबी साथी की, जबकि उस की टाइपिस्ट और सेक्रेटरी और प्रेमिका सुनन्दा महाराष्ट्रीयन थी।
ओबेराय, जिसे सुनन्दा ओबी कहती थी, विचित्र इन्सान था। वह न बस में दफ़्तर जाता था न ट्रेन में। हमेशा टैक्सी में चलता था, उसके लिए चाहे उसे पानवाले से उधार क्यों न लेना पड़े। ओबी के निधन पर मैंने उस पर एक लम्बा संस्मरण लिखा था। वह सुबह नौ बजे सूट-बूट से लैस होकर एक बिज़ेनस टाइकून की तरह लेमिंग्टन रोड पर अपने दफ़्तर के लिए निकलता था। उसकी जेब में जितना पैसा होता शाम को लौटते हुए सब खर्च कर डालता। थोक में सामान खरीद लाता, शाम को वह दो एक पैग उत्तम हिव्स्की के भी पीता। उसके बाद किचन में घुस जाता और नौकर के साथ मिलकर मांसाहारी व्यंजन तैयार करता। वह मेरे ऊपर जितना खर्च करता, उससे मुझे लगता कि पूरी तनख्वाह भी उसे सौंप दूँ तो कम होगी।
जब भी उसके पास कुछ पैसे जमा होते, वह पार्टी थ्रो कर देता। उसकी पार्टियाँ भी यादगार होतीं, उसमें बम्बई के बड़े-बड़े उद्योगपति, बिल्डर, माडल, एयर होस्टेस और फिल्मी हस्तियाँ शामिल होतीं। उसके ये सम्पर्क कब विकसित हो जाते थे, मुझे पता ही नहीं चलता था। कल तक उसने सुनील दत्त का ज़िक्र भी नहीं किया होता और शाम को अचानक पता चलता शाम को सुनील दत्त और नर्गिस आने वाले हैं। बाद में जब मैं एक बार इलाहाबाद से बम्बई गया तो पाया शरद जोशी का उनके यहाँ दिन-रात उठना बैठना था। दोनों दो ध्रुव थे। इस प्रकार के झटके ओबी के साथ रहने पर अक्सर मिला करते थे।
वह अपने बारे में कुछ भी नहीं बोलता था। लगता था उसका कोई अतीत ही नहीं है। वह इतना ही बड़ा पैदा हुआ है। मैं लगभग पाँच वर्ष तक उसका पेइंग गेस्ट रहा, अन्त तक पता नहीं चला उसके कितने भाई थे और कितनी बहनें। उसका घर कहाँ था? उसके पिता क्या करते थे, उसकी मां कहाँ हैं? इतना ज़रूर लगता था, वह किसी खाते पीते परिवार से ताल्लुक रखता है। उसके घर में जैसे धोबी आता था वैसे ही जूते पालिश करने वाला। उसके पास कई दर्जन जूते थे, जो रोज़ पालिश होते।
ओबी पियक्कड़ नहीं था, मगर पीता लगभग रोज़ था। बड़ी नफ़ासत से। मैंने अब तक शायरों और रचनाकारों के साथ पी थी, इन लोगों में पीने की मारामारी मची रहती, मगर ओबी के लिए पीना बहुत सहज था । दो एक पैग पीकर वह खाने पर पिल पड़ता और तुरन्त सो जाता, चाहे उसका कोई अजीज़ मेहमान क्यों न बैठा हो। सुनन्दा को भी मैं ही अक्सर उसके घर छोड़ आता। एक बार सुनन्दा ने बताया कि उसके विलम्ब से लौटने पर उसके माता-पिता आपत्ति करते हैं तो ओबी ने कहा मत जाया करो। वह अत्यन्त अव्यवहारिक मगर गज़ब का आसान हल पेश करता था। कशमकश की लम्बी प्रक्रिया के बाद आखिर सुनन्दा को यही निर्णय लेना पड़ा और वह ओबी के साथ ही रहने लगी। उनकी शादी तो मेरी शादी के भी बाद हुई।
शाम को काम से लौटने पर दोनों नहाते। उसके बाद सुनन्दा बावर्ची के साथ रसोई में घुस जाती और ओबी लुंगी पहन कर सोफ़े पर आलथी-पालथी मारकर बैठ जाता। सुनन्दा नैपकिन से देर तक काँच के गिलास चमकाती। गिलास जब एकदम पारदर्शी हो जाते तो ओबी की बार सजती। दो एक पैग मैं भी पीता। इससे ज़्यादा पीने की क्षमता ही नहीं थी।
अगर कभी ओबी के पास मदिरा का स्टॉक न होता वह बहुत बेचैन हो जाता। लुंगी पहने ही नीचे उतर जाता और अपने किसी मित्र को फोन पर बुला लेता। कुछ ही देर में कोई न कोई यार बोतल लपेटे चला आता। उसके बाद महीनों उस दोस्त का पता न चलता कि कहाँ गया। वह कोई बिल्डर होता या फिल्म का पिटा हुआ प्रोड्यूसर, फौज का कोई अफसर या रेस का दीवाना। ऐसे ही दोस्तों में डैंगसन थे, शिवेन्द्र था, जड़िया था, बहुत से लोग थे। टेकचंद्र के पास रेस के कई घोड़े थे, वह केवल घोड़ों की बात करता था। शिवेन्द्र कभी आयकर अधिकारी था, नौकरी में पैसा कमाकर वह फिल्म बनाने बम्बई चला आया। उसने जीवन में एक ही फिल्म बनायी थी, ‘यह ज़िन्दगी कितनी हसीन है' जो बुरी तरह पिट गयी। उसके बाद वह रेसकोर्स की ओर उन्मुख हो गया और रेसकोर्स ही उसका ज़रिया माश था। घोड़ों की वंशावली और इतिहास की उसे अद्भुत जानकारी थी। वह कभी मोटी रकम जीत जाता तो चर्चगेट में अपने घर पर भव्य पार्टी देता। मैं पहली बार आइ0 एस0 जौहर, सुनील दत्त, शर्मिला टैगोर, आशा पारेख, विद्या सिन्हा वगैरह से उसके यहाँ मिला था। कड़की के दिनों में वह भी ओबी की सप्लाई लाइन अबाधित रखता। खुद व्यस्त होता तो नौकर के हाथ भिजवा देता।
मेरे दफ़्तर का माहौल इस के ठीक विपरीत था। ‘धर्मयुग' बैनेट कोलमैन कम्पनी का साप्ताहिक था। बोरी बन्दर स्टेशन के सामने मुम्बई में बैनेट कोलमैन का कार्यालय था। स्टेशन और टाइम्स ऑफ इंडिया बिल्डिंग के बीच सिर्फ एक सड़क थी। मुम्बई में यह इमारत बोरी बन्दर की बुढ़िया के नाम से विख्यात थी। अंग्रेज चले गये थे, मगर बोरी बन्दर की बुढ़िया को मेम बना गये थे। दफ़्तर की संस्कृति पर अंग्रेजियत तारी थी। सूट-टाई से लैस होकर दफ़्तर जाना वहाँ का अघोषित नियम था। नये रंगरूट भी टाई पहनकर दफ़्तर जाते थे। पुरुष टाई पतलून में और महिलाएं स्कर्ट वगैरह में नज़र आती थीं। मारवाड़ीकरण की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी मगर मंद गति से ही। एक उदाहरण देना पर्याप्त होगा, ‘धर्मयुग में ऐसी कोई भी रचना प्रकाशित नहीं हो सकती थी जिसमें किसी सेठ के शोषण का चित्रण हो। संपादकीय विभाग को इस प्रकार की कई हिदायतें मिलती रहती थीं। मालूम नहीं ये नियम संपादक ने स्वयं बनाए थे अथवा उन्हें कहीं से निर्देश मिलते थे। अंग्रेजी के प्रकाशन इस कुंठा से मुक्त थे। ‘धर्मयुग' इलेस्ट्रेटेड वीकली से कहीं अधिक बिकता था। मगर इलेस्ट्रेटेड वीकली के स्टाफ का वेतन ‘धर्मयुग' के संपादकीय विभाग के कर्मचारियों से कहीं अधिक था। बाद में जब मोहन राकेश सारिका के संपादक हुए तो उन्होंने इसी भेदभावपूर्ण नीति के कारण प्रतिष्ठान से इस्तीफा दे दिया था। उन्होंने नौकरी के दौरान खरीदी कार बेच दी और फकत एयर कंडीशनर उठाकर दिल्ली लौट आए थे।
(क्रमशः अगले अंकों में जारी….)
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