संस्मरण ग़ालिब छुटी शराब रवींद्र कालिया (पिछले अंक से जारी…) माडल टाउन सद्गृहस्थों की बस्ती थी। मेरे जैसी अकेली जान के लिए कई अ...
संस्मरण
ग़ालिब छुटी शराब
रवींद्र कालिया
माडल टाउन सद्गृहस्थों की बस्ती थी। मेरे जैसी अकेली जान के लिए कई असुविधाएँ थीं। भोजन की कोई व्यवस्था न थी। उर्दू और पंजाबी के मित्र रचनाकारों की सलाह से मैंने हमदम के साथ तय किया कि करोल बाग में कमरा ढँढ़ा जाए। उर्दू के अफ़सानानिगार सुरेन्द्र प्रकाश ने चुटकियों में डब्ल्यू0 ई0 ए0 में ग्राउण्ड फ्लोर पर एक कमरा दिलवा दिया। पहली तारीख को हमदम और मैं नये कमरे में चले गये। अनेक लेखक करोल बाग में रहते थे। मोहन राकेश और कमलेश्वर के अलावा रमेश बक्षी, गंगाप्रसाद विमल, भीष्म साहनी, सुरेन्द्र प्रकाश, निर्मल वर्मा आदि अनेक कथाकार आसपास ही रहते थे। करोल बाग में भोजन आदि की उत्तम व्यवस्था थी।
उस बरस करोल बाग की लड़कियों पर बहुत बौर आया था। कुछ ही दिनों में मैं हमदम से कहने लगा ‘सुन हीरामन कहौं बुझाई, दिन-दिन मदन सतावै आई। गली मुहल्ले की लड़कियाँ उद्दीपन का काम करती थीं। दिन भर दरवाज़े के सामने रस्सा टापतीं, किक्रेट खेलतीं और हुड़दंग मचातीं। वे अपने यौवन से बेखबर थीं। मेरी इच्छा होती, बाहर निकल कर उन्हें समझाऊँ कि बेबी यह रस्सा टापने की उम्र नहीं है, दुपट्टा ओढ़ने की उम्र है। अक्सर लड़कियाँ गेंद उठाने हमारे कमरे में चली आतीं। यह एहसास होने में ज़्यादा समय नहीं लगा कि लड़कियाँ उतनी मासूम नहीं हैं, जितना हम समझते थे। वे अपने यौवन के प्रति उतनी बेखबर भी न थीं, बाकायदा बाखबर थीं। गेंद उठाने के बहाने अपने यौवन की एकाध झलक भी दिखा जातीं। कई बार तो लगता कि ये लड़कियाँ अपना ही नहीं हमारा भी कौमार्य भंग कर डालेंगी। उन दिनों करोल बाग में दिलबाज़ आशिकों की बहुत जम कर पिटाई होती थी। आये दिन किसी न किसी लेन में कोई न कोई आशिक लहूलुहान अवस्था में कराहते हुए सड़क पर पड़ा मिलता। हम लोग परले दर्जे के बुज़दिल और मूक आशिक थे। लड़कियों की गेंद लौटाते-लौटाते पसीने छूट जाते। कुछ दिनों में स्थिति यह आ गयी कि हम लोगों का जीना मुहाल हो गया। पिटने के इमकानात इतने बढ़ गये कि हम लोग कमरे पर ताला ठोंक ज़्यादा से ज़्यादा समय घर से बाहर बिताने लगे। करोल बाग में ही पंजाबी कवि हरनाम की पर्स की दुकान थी, वहाँ भी लड़कियों का जमघट लगा रहता। हमने आजिज़ आकर सुरेन्द्र प्रकाश को बताया कि लड़कियाँ हमारे संयम की परीक्षा लेने पर आमादा हो चुकी हैं और कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारे ये निरपराध मित्र बेमौत मारे जाएँ।
शाम को सुरेन्द्र प्रकाश अपनी पत्नी के साथ छड़ी लेकर घुमाते हुए सामने वाले घर में गया। उसने लड़कियों के माता-पिता के कान में ऐसा ऐसा मंत्र फूँका कि महीने भर के भीतर गली में थोड़ी देर के लिए सजावट हुई, शामियाने लगे, शहनाइयाँ बजीं और इसके बाद दीगरे तमाम लड़कियाँ एक-एक कर अपने घर विदा हो गयीं। देखते देखते गली सुनसान हो गयी, दोपहर को भायँ-भायँ करती। इससे तो कहीं बेहतर था लड़कियाँ परेशान करती रहतीं। उनके बगैर हमारी हालत एक जोगी जैसी हो गयी - तजा राज भा जोगी और किंगरी कर गहेउ वियोगी। तीज त्योहार पर वे लड़कियां मैके आतीं तो हमारी तरफ पलट कर भी न देखतीं। उनकी यह बेन्याज़ी और बेरुखी भी नाकाबिले बर्दाश्त होती। मैंने ऐसे ही वंचित और बेसहारा युवकों पर एक कहानी लिखी। दो एक संवाद ही कहानी का लब्बोलुबाब ज़ाहिर कर देंगे। यह उन दो नौजवानों की कहानी थी, जो छोटी-छोटी सुविधाओं से वंचित थे, जिन्होंने मुद्दत से फल नहीं खाया था, जिनकी ज़िन्दगी बस की लम्बी कतार हो कर रह गयी थी, जो छुट्टी के दिन कनाट प्लेस की चकाचौंध में तफरीह की तलाश में निकल आये थे ः
‘पहला कुछ देर चुप चलता रहा। अचानक उसकी बांह एक औरत की बाँह से छू गयी। वह फुसफुसाया - ‘औरत की बांह ठंडी होती है।'
‘ठंडी होती है, बर्फ़ की तरह ठंडी?' दूसरे ने पूछा।
‘नहीं, बर्फ़ ज़्यादा ठंडी होती है, बाँह उतनी ठंडी नहीं होती।'
कुछ इस प्रकार के संवादों से कहानी आगे बढ़ती है। मुझे कहानी का शीर्षक ‘अकहानी' उपयुक्त लगा वह एंटी थियेटर का दौर था। ‘वेटिंग फॉर गोदो' जैसे नाटकों की धूम मची थी। दूसरों से अलग हट कर कुछ नया कर दिखाने की धुन थी।
राकेशजी ने कहानी पढ़ी तो तलब कर लिया। उन्हें कहानी पर कोई आपत्ति नहीं थी, मगर शीर्षक से घोर असहमति थी। उन्होंने दफ़्तर में मुझे फोन किया, जो मुझ तक नहीं पहुँचा। शाम को ‘टी-हाउस' में मिले तो रात के आठ बजे अत्यन्त जरूरी काम से घर पर मिलने के लिए कहा।
मैं साढ़े सात बजे ही राकेशजी के यहाँ पहुँच गया। उस शाम पहली बार मैंने अनीताजी को देखा था। मैंने महसूस किया अनीताजी के नैकट्य में राकेशजी बहुत प्रसन्न हैं। एक खास तरह का अकड़फूँ विश्वास और दर्प भी मैंने पहली बार महसूस किया। अनीताजी ने मुझे बहुत ही खूबसूरत प्याले में कॉफी दी और जब तक मैं प्याले को होंठ तक ले जाता, राकेशजी ने लापरवाही से कहा, ‘मैं कुछ बातें स्पष्ट कर लेना चाहता हूँ।'
मैंने प्याला तिपाई पर रख दिया और बदहवास-सा राकेशजी की ओर देखने लगा। अपने तईं मैंने कोई गलती नहीं की थी और राकेशजी को हमेशा प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से आदर ही दिया था। वास्तव में मैं राकेशजी से इतना जुड़ गया था कि राकेशजी को लेकर प्रायः लोगों से भिड़ जाया करता था। उन दिनों एक नवोदित लेखक मनहर चौहान की एक लेखमाला प्रकाशित हो रही थी, जिसका प्रथम लेख था : ‘मैं और मोहन राकेश' उनका ‘मैं और कमलेश्वर' शीर्षक लेख भी आने वाला था। लेख पढ़कर ‘टी-हाउस' में मैंने मनहर से कहा कि वह अपनी लेख माला का शीर्षक दे : ‘मैं और मेरा बाप।' उसकी और राकेश की उम्र और उपलब्धियों में इतना अंतर था कि उस लेख के शीर्षक का कोई औचित्य मेरी समझ में नहीं आ रहा था। राकेशजी को लेकर मैं प्रायः किसी न किसी से उलझ जाया करता था। यहाँ तक कि उनकी झूठी प्रशंसा करने का दुर्गुण भी मेरे अन्दर उत्पन्न हो गया था। ऐसी स्थिति में राकेशजी की बात मुझे बहुत नागवार गुज़री।
मैं अपने को इस स्थिति में नहीं पा रहा था कि राकेशजी मुझसे इस तरह का सवाल करें। मुझे लग रहा था, इस तरह के सवाल वे कमलेश्वर से कर सकते थे अथवा राजेन्द्र यादव से।
‘तुम अपने को बहुत ज़्यादा स्मार्ट समझ रहे हो।' राकेशजी ने अपने चश्मे के मोटे शीशे के भीतर से बड़े रहस्यात्मक ढंग से झांकते हुए कहा।
मैं केवल हतप्रभ हो सकता था। मैं घबराहट में कॉफी पीने लगा। ऐसे में मैं सिगरेट की तलब महसूस करता, जो राकेशजी ने पहले ही थमा दी थी।
‘मैंने ऐसा कुछ भी नहीं किया, जो आपकी प्रतिष्ठा के अनुकूल न हो।' मैंने कहा।
राकेशजी ने अनीता की तरफ देखा, जैसे कह रहे हों, देखो कितनी सादगी से भोला बन रहा है।
‘मुझे तुमसे यह आशा न थी कि थोड़ी-सी लोकप्रियता मिलते ही हमारे खिलाफ एक षड्यंत्र में शामिल हो जाओगे।' उन्होंने कहा।
राकेशजी की बेरुखी भी मुझसे बर्दाश्त नहीं हो रही थी। मेरी आँखें भर आयीं। थोड़ी ही देर में मैं ऐसी स्थिति में आ गया कि जरा-सा भी हिलता-डुलता तो आँसू गिरने लगते। पूरी दिल्ली में यही एक ऐसा घर था, जहाँ मैं कभी भी बेरोकटोक आ जा सकता था और माँजी बिना खाना खिलाये नहीं भेजती थीं। अनीता के बारे में सुन जरूर रखा था मगर देखा उसी दिन पहली बार था। देखा क्या था, उसकी उपस्थिति में लगातार डाँट खा रहा था। मुझे हल्का-सा यह आभास भी हुआ कि राकेशजी मुझे डाँट कर कहीं अनीता को भी प्रभावित कर रहें हैं।
‘तुमने अपनी नयी कहानी का नाम ‘अकहानी' क्यों रखा?' मैंने जेब से रूमाल निकाला और स्पंज की तरह आँखों पर रख लिया। मैं कल्पना नहीं कर सकता था कि कहानी के शीर्षक को लेकर राकेशजी इतने उत्तेजित हो जायंगे। शीर्षक मैंने किसी षड्यंत्र के तहत नहीं रखा था। औसतन हिन्दी कहानी का गद्य बहुत फीका और मानसिकता अत्यन्त भावुकतापूर्ण लगती थी। यह उसी के प्रतिक्रिया स्वरूप था।
मैं इतना ज़रूर मानता था कि यह शीर्षक कई लोगों को चुनौतीपूर्ण लगेगा, मगर मुझे यह नहीं मालूम था कि इससे राकेशजी ही भड़क उठेंगे। उन दिनों अधिसंख्य लेखकों की रचनाओं में आर्यसमाजी मानसिकता का पुट कुछ ज़्यादा ही रहता था, जबकि कर्म में नदारद रहता था। शायद यही वजह थी कि हिन्दी कहानी में भाषा, संवेदना और कथ्य के स्तर पर कहीं कोई परिवर्तन लक्षित होता, तो ये लोग आक्रामक हो उठते। निर्मल वर्मा ने उन दिनों युवा वर्ग की मानसिकता पर जो कुछ भी लिखा, नामवर सिंह के अलावा पूरा माहौल उनके विरुद्ध था। बन्द समाज में युवक-युवतियों के लिए जो प्रतिबंध है, कहानी में भी लोग आँसूवादी यथास्थिति बनाये रखना चाहते थे। निर्मल वर्मा अपने प्रेमी-प्रेमिकाओं को सड़क पर ले आये थे। रेस्तरां में ले आये थे। बन्द दरवाज़ों के बाहर यह खुली हवा का झोंका कहानी के लिए नया था।
हथौड़े की तरह राकेशजी के शब्द मेरे दिमाग में चल रहे थे, ‘तुमने कहानी का नाम ‘अकहानी' क्यों रखा?'
‘मुझे अच्छा लगा इसलिए रखा।' मैंने कहा।
मगर राकश को और भी शिकायतें थीं। आज मैं तटस्थ होकर सोचता हूँ तो लगता है कुछ शिकायतें जायज़ भी थीं।
जैसे उन्हीं दिनों ‘नयी कहानियाँ' में मेरा आत्मकथ्य ‘नयी कहानी : सम्भावनाओं की खोज' शीर्षक से छपा था। राकेश और कमलेश्वर दोनों उससे असंतुष्ट थे। आज मुझे लगता है, मैंने बहुत सी बातें फैशन में आकर लिखी थीं।
राकेशजी इस बात से भी खफा थे कि मैंने ‘मार्कण्डेय' द्वारा संपादित ‘माया' के विशेषांक में कहानी क्यों दी? दरअसल इसके पीछे कोई राजनीति नहीं थी। मार्कण्डेय ने कहानी के लिए पत्र लिखा और मैंने कहानी भिजवा दी। भीतर ही भीतर खुशी भी हो रही थी कि मार्कण्डेय जैसे स्थापित कहानीकार ने कहानी के लिए आग्रहपूर्वक लिखा था। मार्कण्डेय, राकेश और कमलेश्वर के सम्बन्ध कैसे थे, मुझे इसका एहसास भी न था। मैं तो यह मानकर चल रहा था कि ये तमाम लोग नयी कहानी आंदोलन के सशक्त रचनाकार हैं।
मार्कण्डेय'जी ने कहानी मांगी थी और मैंने भेज दी। आपने संकेत भी किया होता तो न भेजता।' मैंने कहा।
मेरे उत्तर से वह संतुष्ट नहीं हुए। बहरहाल, उस रोज राकेशजी से मेरी भेंट मेरे लिए अत्यन्त कष्टदायी साबित हुई। मैं भारी कदमों और भरी आँखें से घर लौट आया। मन में यह सोचकर आ गया था कि रात वहीं पड़ा रहूँगा और सुबह वहीं से दफ़्तर चला जाऊँगा। मुझे याद है उस रोज़ मैं करोल बाग से पैदल माडल टाउन पहुँचा था। जेब में एक पैसा न था। दूसरे दिन सुबह सतसोनी से पचीस रुपये उधार लेकर दफ़्तर गया।
दफ़्तर में मन नहीं लगा। कुछ देर गुम-सुम बैठा रहा। फाइल छूने तक की इच्छा न थी। दो-एक बार राकेशजी को फोन मिलाया मगर नहीं मिला। फाइलों से मुझे वैसे भी नफरत थी। मैं दफ़्तर से छुट्टी लेकर निकल गया और मन ही मन अंग्रेजी में एक वाक्य बनाता रहा, जो राकेशजी से मिलते ही उन पर बम की तरह फेंकने का निश्चय कर चुका था। दिन भर कनाट प्लेस के कारीडोरों में निरुद्देश्य घूमता रहा। शाम को टी-हाउस गया तो संयोग से राकेशजी दिख गये।
उस समय वे अकेले नहीं थे। उनकी मेज पर कमलेश्वर, यादव, नेमिचंद जैन, सुरेश अवस्थी आदि अनेक लोग बैठे थे। मैं राकेशजी के पीछे चुपचाप खड़ा हो गया और निहायत भर्राई आवाज़ में बोला- ‘राकेशजी, यू हैव हर्ट मी फार नो फाल्ट आफ माइन।' मैंने किसी तरह वाक्य पूरा कर लिया और दूसरी ओर मुँह कर लिया ताकि दूसरे लोग मेरी मनःस्थिति का अनुमान न लगा सकें। सब लोग परिचित थे और मैं सब के बीच नाटक नहीं करना चाहता था।
राकेशजी ने पलटकर मेरी तरफ देखा और तुरन्त खड़े हो गये। मुस्कराते हुए उन्होंने अत्यन्त स्नेह से अपना हाथ मेरी पीठ पर टिका दिया। मैं इस पुचकार के लिए तैयार नहीं था। मैं राकेशजी के स्वभाव से परिचित था। उनके व्यक्तित्व में जहाँ बेपनाह गर्मजोशी थी, दूसरी ओर एक जानलेवा ठंडापन था। उन्होंने जिस गर्मजोशी से मेरे कंधे पर हाथ रखा, मेरा गुस्सा पारे की तरह तल पर जा लगा।
राकेशजी मित्रों को वहीं छोड़कर मेरे साथ-साथ चलने लगे। थोड़ी दूर पर राजस्थान एंपोरियम था। एंपोरियम बन्द हो चुका था। सामने छोटा-सा लॉन था। हम लोग वहीं बैठ गये।
मैं कुछ कहता, इससे पहले ही उनकी आँखं नम हो गयीं। अचानक उन्होने जेब से रूमाल निकाला और पोंछने लगे। मेरे लिए यह सब बहुत अप्रत्याशित था। वे खुद रो रहे थे और मुझे चुप करा रहे थे।
‘मैं दरअसल तुम लोगों के प्रति जैलेस हो गया था।' राकेशजी ने छूटते ही कहा। ‘मैंने तुम्हारे साथ गलत सुलूक किया।'
मैं एकदम उत्फुल्ल हो गया। फूल की तरह हल्का। मैं नहीं चाहता था, राकेश इस विषय पर और बात करें।
‘तुमने खाना खाया राकेशजी ने मेरा उतरा चेहरा देखकर पूछा।'
‘नहीं' मैंने कहा, ‘कल से कुछ नहीं खाया। इस वक्त भी भूख नहीं है।'
‘कहां खाते हो?'
‘करोल बाग में। हम सब लोग वहीं खाते हैं। उड़द की फ्राई दाल और तन्दूरी रोटी।'
‘सब कौन?'
‘प्रयाग, विमल, हमदम और मैं। सबका खाता भी एक है? जिसके पास जितना पैसा होता है, दे देता है। हमदम कभी-कभी महीनों कुछ नहीं दे पाता और कभी सब का भुगतान कर देता है।'
‘रोज़ यही खाते हो?'
‘रोज़।'
राकेशजी ने स्कूटर रुकवाया। हम लोग करोल बाग की तरफ़ चल दिये। जेब में ज़्यादा पैसे न थे। मैंने एक जगह स्कूटर रोका और एक पौवा लेकर जेब में रख लिया। दिल्ली में कभी किसी ने मेरे भोजन की चिन्ता नहीं की थी। सत सोनी और कृष्ण भाटिया के ही परिवार ऐसे थे जहाँ घर जैसा स्नेह और फुल्का मिलता था। मगर मेरी मित्र मंडली में तेज़ी से परिवर्तन आए थे। करोल बाग पहुँचकर तो इन लोगों से बहुत कम सम्पर्क रह गया था। हम चारों ने कभी कम ही साथ-साथ भोजन किया होगा, जिसको जब भूख लगती या फुर्सत होती, खा आता। देर हो जाती तो नीचे कपूर कैफे से आमलेट और चाय मंगवा कर पेट भर लेते। यहाँ भी संयुक्त खाता था और टैक्सी के मीटर की तरह कर्ज़ बढ़ता। अक्सर इतना बकाया हो जाता कि हम सब अपनी पूरी आमदनी भी कपूर साहब को सौंप दें तो पूरा न पडे। एक दो बार कपूर बदतमीज़ी से पैसों की मांग की तो हमदम ने उसे पीट भी दिया था। हम लोग कुछ न कुछ भुगतान करते रहते ताकि भुखमरी की नौबत न आये। एक बार मैं किसी गोष्ठी के सिलसिले में चण्डीगढ़ गया हुआ था कि पीछे से मेरे माता पिता और छोटी बहन मुझ से मिलने दिल्ली चले आये। बहुत दिनों से उन्हें मेरा पत्र न मिला था और वे चिन्तित हो गये थे। हम लोगों का जीने का ढंग देखकर उन्हें बहुत निराशा हुई। मां और बहन ने मिलकर पूरे कमरे की सफाई की, बिस्तर की चादर बदली, मैले कपड़े धोकर प्रेस करवाये और जब उन्हें यह पता चला कि चाय वाले का बिल सात सौ रुपये से ऊपर है तो बहुत नाराज़ हुए। उन्होंने उसका भी भुगतान कर दिया और मेरे लौटने से पहले ही वापिस चले गये। मैं लौटा तो कमरा पहचान में न आ रहा था। हर चीज़ करीने से रखी हुई थी। कुछ दिनों बाद पिता एक पत्र मिला। उन्होंने बहुत पीड़ा से वह पत्र लिखा था और मेरे भविष्य को लेकर वह बहुत संशकित हो गये थे। उन्हें विश्वास हो गया था कि मैं किसी बुरी लत या कुसंगति का शिकार हो चुका हूँ। उन्होंने यह सूचना भी दी थी कि हिसार में मेरा स्थान अभी तक रिक्त है और मैं हामी भरूँ तो वह मैनेजमेंट से बात करके मेरी बहाली के लिए कोशिश कर सकते हैं। पूरा पत्र लानत, मलामत और नसीहतों से लबरेज़ था। मैं तो अच्छे-अच्छे पत्रों का उत्तर नहीं देता था, इस पत्र का क्या उत्तर देता। मुझे मालूम था, मैं अपनी बात उन्हें समझा ही न सकता था। मैं उस फटेहाल ज़िन्दगी से ही सन्तुष्ट था। साहित्य मेरी पहली और अन्तिम प्राथमिकता थी। सोने-चांदी या हीरे-मोती की कोई ख्वाहिश न थी। वह एक जुनून का दौर था, जिसे कोई दीवाना ही समझ सकता था। मेरे माता पिता तो इस फकीराना जीवन और दर्शन की परिकल्पना भी न कर सकते थे। राकेश कर सकते थे। वह भी गर्दिश में थे, मगर उन की गर्दिश का स्तर सम्मानजनक था।
‘पहले खाना खा लो।' राकेशजी ने कहा, ‘जहाँ रोज़ खाते हो वहाँ चलते हैं।'
मैं राकेशजी को उस ढाबे में नहीं ले जाना चाहता था। वहाँ हर समय भीड़-भाड़ रहती थी और वहाँ पीने का सवाल ही न उठता था। मैंने रोहतक रोड पर स्कूटर रुकवाया, ‘ग्लोरी' रेस्तरां के पास। वहाँ से सड़क पार करते ही हमारा घर था। घर के सामने वही एक साफ़ सुथरा रेस्तरां था। भूले भटके कहीं से पारिश्रमिक आ जाता तो हम लोग ‘ग्लोरी' में जश्न मनाते।
मैंने दो गिलास मंगवाये। राकेशजी ने अपना गिलास उलटा रख दिया, ‘नहीं, मैं नहीं लूंगा।' मैं जानता था, कि उनका ‘नहीं' अन्तिम होता है। दुबारा अनुरोध करने का प्रश्न ही न उठता था।
राकेश मेरे बारे में जानकारी हासिल करते रहे। कितना वेतन है, मकान का कितना भाड़ा है, क्या पढ़ लिख रहे हो, दोपहर का भोजन कहाँ करते हो, दिल्ली में कैसा लग रहा है। उन्होंने मीनू मेरे सामने फैला दिया, ‘तुम अपने लिए खाना मंगवाओ, मैं घर जा कर अनीता के साथ भोजन करूँगा।'
खा पीकर हम लोग बाहर आये। वही स्कूटर खड़ा था। राकेश प्रायः स्कूटर अथवा टैक्सी घर पहुँच कर ही छोड़ा करते थे। मुझे घर पर उतार कर वह उसी स्कूटर से लौट गये। मैं सम्मोहित सा देर तक वहीं खड़ा रहा। मन एक दम स्थिर हो गया था।
कुछ दिन बाद राकेशजी के साथ यात्रा का भी अवसर मिला। डॉ0 मदान ने चण्डीगढ़ विश्वविद्यालय में एक कथा गोष्ठी का आयोजन किया था। उन्होंने मुझे भी आमंत्रित किया था। गोष्ठी के लिए नये लेखकों के नाम पते भी मंगवाये थे। मैंने केवल एक नाम की सिफ़ारिश की। ममता अग्रवाल के नाम की। जगदीश चतुर्वेदी द्वारा संपादित ‘प्रारम्भ' में ममता की कविताओं ने घ्यान आकार्षित किया था। उसके पिता आकाशवाणी के दिल्ली केन्द्र में सहायक केन्द्र निदेशक थे। विद्याभूषण अग्रवाल भारतभूषण अग्रवाल के बड़े भाई। वे कई बार दफ़्तर से लौटते हुए टी-हाउस में भी आ जाते। जगदीश से उनका पुराना रिश्ता था। समकालीन साहित्य में उनकी गहरी दिलचस्पी थी। जगदीश ने परिचय करवाया तो उन्होंने मेरी दो-एक कहानियों का हवाला देते हुए बताया कि वह मेरे नाम से बखूबी परिचित हैं। उन दिनों मेरी कहानी ‘नौ साल छोटी पत्नी' की धूम थी। वह साहित्यनुरागी थे और साहित्य चर्चा में गहरी दिलचस्पी रखते थे। वह टी-हाउस में बैठकी नहीं करते थे, लेखक बंधुओं से मिल मिलाकर चले जाते थे। अक्सर घर आने कर निमंत्रण देते। एक दिन शाम को जगदीश ने शक्ति नगर चलने का प्रस्ताव रखा। ‘प्रारम्भ' का प्रकाशक भी वहीं रहता था। जगदीश को उस से भी कोई काम था। पहले हम लोग विद्याभूषणजी के यहाँ गये। वह पहली मंजिल पर रहते थे। जगदीश ने घंटी बजायी तो ममता ने दरवाज़ा खोला। वह एकदम दुबली पतली और छरहरी थी। आंखों पर घुमावदार अजीब डिज़ायन का चश्मा पहनती थी। उस दिन उसने बाल शैम्पू किये थे और चेहरे पर उसके बाल नुमाया थे। उस दिन 27 जून 1964 की तारीख थी। यह तारीख भी उन की मौत के बाद ममता के पिता की डायरी से मिली।
ममता खाली समय में उनकी डायरियाँ पढ़ा करती है। डायरी में वह केवल दिनभर का ब्योरा लिखते थे । किस से भेंट हुई, कौन आया, कौन सी पिक्चर देखी, किसका पत्र मिला कुछ उल्लेखनीय पढ़ते तो उसे भी नोट कर लेते। अपने विचार वह कम ही प्रकट करते थे। अपनी प्रतिक्रिया वह फुटकर काग़जों पर लिखते थे, जो बुकमार्क की तरह उनकी पुस्तकों में आज भी मिल जाती हैं। अस्तित्ववाद पर चर्चा करते तो राम के निर्वासन और अकेलेपन के सन्दर्भ में। ममता उन दिनों कविताएँ अधिक लिखती थी। वह काफ़ी बेबाक होकर लिखती थी और उसकी भाषा में एक ताज़गी थी। एक बार वह अपने पिता के साथ टी-हाउस आई तो मैंने उसकी किसी कविता की तारीफ़ की। उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि कोई उसकी कविता की तारीफ भी कर सकता था। उसने बताया कि उसे पंजाब विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित कथा गोष्ठी का निमंत्रण मिला है और संभावित कथाकारों में उसका भी नाम है तो मैं मुस्कराया। अब मैं क्या बताता कि उसका नाम मैंने ही प्रस्तावित किया था।
चण्डीगढ़ ममता के लिए निहायत अपरिचित जगह थी। मेरे अलावा उसे कोई पहचानता भी न था। मैंने डाक्टर मदान से उसका परिचय करवाया। गोष्ठी में वह मेरे साथ ही बैठी रही। भोजन के समय भी हम लोग साथ थे। राकेश और कमलेश्वर बहुत शरारत से हमारी तरफ़ देख रहे थे। ममता को उसी शाम लौटना था। हर बात में वह अपने पिता का हवाला देती थी। पापा ने कहा, पापा बोले, पापा की राय में, पापा के पुस्तकालय में, पापा के दफ़्तर में, गर्ज़ यह कि जो कहें पापा, जो सुनें पापा। बातचीत से आभास हुआ कि वह सोच रही है कि मैं शादीशुदा व्यक्ति हूँ, मैंने तुरन्त इसका प्रतिवाद किया। उसने बताया कि ‘नौ साल छोटी पत्नी' पढ़कर उसने ऐसा सोचा था। मुझे लगा, अन्य तमाम लड़कियों की तरह इसका भी यही अनुभव रहा है कि हमको तो जो भी दोस्त मिले, शादीशुदा मिले। ममता ने बताया कि शाम को उसका दिल्ली लौटना ज़रूरी है, क्योंकि उसके पिता उसकी प्रतीक्षा करेंगे। मेरी इच्छा हो रही थी कि उससे पूछूँ कि क्या उसकी माँ नहीं है। यह सोचकर मैं अपनी जिज्ञासा शांत न कर पाया कि अगर माँ हुई तो यह बुरा मान जाएगी। बाद में पता चला कि उसकी माँ ही नहीं एक बहन भी है, जिसकी बरसों पहले शादी हो गयी थी और वह उन दिनों कलकत्ते में रहती थी। यह सोचकर कि एक लड़की के साथ यात्रा आराम से कट जाएगी, मैंने कहा, मैं भी दफ़्तर से छुट्टी ले कर नहीं आया, मेरा लौटना भी बहुत ज़रूरी है। राकेश कमलश्वर को मेरे लौटने के इरादे की भनक लगी तो सुझाव दिया कि मैं अगले रोज़ उन लोगों के साथ ही लौटूँ, रास्ते में करनाल में किसी मित्र ने खाने पीने की उत्तम व्यवस्था कर रखी है। मैं उन लोगों को बिना बताए चुपचाप ममता के साथ वहाँ से खिसक लिया और हम लोग पहली उपलब्ध बस में सवार हो गये।
बस में एक अत्यन्त सभ्य और संकोचशील व्यक्ति की तरह बहुत सिकुड़ कर ममता के साथ बैठा कि कहीं बदन न छू जाए। बस जब दिल्ली पहुँची तो आधी रात हो चुकी थी। वही रात बाद में मेरे लिए कत्ल की रात साबित हुई यानी कि तय हो गया कि हम लोग शादी कर लेंगे। घर की शान्ति कायम रखने के लिए ज़रूरी है कि मैं उस रात की तफ़सील में न जाऊँ। जाने क्यों मोहन राकेश मेरे शादी के इस निर्णय से सहमत न थे, हो सकता है इसलिए कि शादी ने उन्हें बहुत कटु अनुभव दिये थे। यह भी हो सकता है कि मेरे लिए कोई दूसरी लड़की उनके ज़ेहन में रही हो। उन दिनों दफ़्तर के एक उच्च अधिकारी की भी मुझ पर नज़र थी, वह अपनी गोद ली गयी मोटी थुलथुल लड़की से मेरा रिश्ता जोड़ना चाहते थे। वह निःसंतान थे और उन्हें एक घर जमाई की तलाश थी। उन्होंने मेरे पास पदोन्नति का प्रस्ताव भी भेजा, मगर मुझे मालूम था मैं उन की अपेक्षाओं पर खरा न उतरूँगा। मूर्खतावश मैंने राकेशजी की असहमति के बारे में ममता को बता दिया था, नतीजा यह निकला कि ममता ने कभी सीधे मुँह उनसे बात न की। इस की मुझे बहुत तकलीफ़ होती थी। दरअसल इस प्रकार की मूर्खताएँ मैं हमेशा ही करता रहा हूँ। मेरी बहन की जिस लड़के के साथ इंगलैण्ड में शादी हुई, उसका पत्र पढ़कर मैंने अपनी बहन को लिख दिया था कि वह लड़का तुम्हारे योग्य नहीं है, क्योंकि उसका हैंडराइकटंग मुझे पसन्द नहीं आया था। बहन की विदाई हुई तो मैंने उससे अनुरोध किया कि यह बात अपने मियां को न बताये। उसने यही बात सबसे पहले बताई और हम लोगों के बीच कभी पत्राचार न हो पाया।
चण्डीगढ़ यात्रा से पूर्व सन् 64 में राकेशजी के साथ इलाहाबाद की यात्रा की थी। राकेश-कमलेश्वर के पास इलाहाबाद से परिमल कहानी सम्मेलन का निमंत्रण आया तो उन्होंने तार दिया कि हमारा प्रतिनिधित्व एकदम नये लेखक रवीन्द्र कालिया करेंगे। मगर बाद में हम सब लोग अपर इंडिया में बैठ कर एक साथ इलाहाबाद पहुँचे थे। पूरी रात हँसते-गाते गाड़ी में बीती थी। राकेश, कमलेश्वर, गंगा प्रसाद विमल, परेश और मैं पिकनिक के से माहौल में इलाहाबाद पहुँचे। कृष्णा सोबती भी उसी गाड़ी में चल रही थीं, मगर वे फर्स्ट क्लास में यात्रा कर रही थीं। हम लोग तब तक साहित्यिक राजनीति से वाकिफ न थे, मगर परिमल सम्मेलन में केवल राजनीति थी। कुछ चीजे़ समझ में आने लगीं। पहली तो यह कि कहानी के केन्द्रीय विधा के रूप में स्थापित हो जाने से ‘परिमल' के खेमे में बहुत बहुत खलबली थी। कहानी समय के मुहावरे, वास्तविकता के प्रामाणिक अंकन तथा सामाजिक परिवर्तन के संक्रमण की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बन गयी थी। ‘परिमल' काव्य की ऐन्द्रजालिक और व्यक्तिवादी रोमानी बौद्धिकता को कहानी पर आरोपित करके कुछ कवि कहानीकारों--- कुंवर नारायण, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर तथा कुछ कहानीकार कवियों --- निर्मल वर्मा आदि को -- नये कहानीकार के रूप में प्रतिष्ठित कराने के प्रयत्न में था। आज मुझे लगता था कि यह अकारण नहीं कि ‘परिमल' एक भी सफल कथाकार उत्पन्न नहीं कर पाया। श्रीलाल शुक्ल केवल अपवाद हैं, जबकि वे भी अपने को परिमिलियन नहीं मानते। यह दूसरी बात है कि एक वह समय परिमल के प्रभाव में आकर जीवन से कटे जासूसी उपन्यास लिखने लगे थे। ‘परिमल' की पूरी मानसिकता व्यक्तिवादी थी, जो कहानी की समाजोन्मुख धारा में एक नगण्य-सा द्वीप बन कर रह गयी थी। विजय देव नारायण साही ने बगैर किसी तर्क के मोहन राकेश की कहानियों को संवेदना के धरातल पर नीरज के गीतों के समकक्ष ला पटका तो यह समझने में देर न लगी कि साहीजी हिन्दी कथा साहित्य की परम्परा से निपट अपरिचित हैं और दो-एक फुटकर कहानियाँ पढ़ कर अपनी धारणाओं को आरोपित कर रहे हैं।
इलाहाबाद में तमाम नये पुराने और हमउम्र कथाकारों से भेंट हुई। हम लोगों के आतिथ्य की जिम्मेदारी दूधनाथ सिंह को सौंपी गयी थी। राकेश वगैरह अश्कजी के मेहमान थे। दूधनाथ सिंह से पहली मुलाकात इलाहाबाद स्टेशन पर हुई थी। वह प्रथम दृष्टि से ही एक संघर्षशील रचनाकार लगा एकदम कृशकाय और हडि्डयों का ढांचा मात्र, जैसे सारे जहां का संघर्ष उसी के हिस्से आया हो। वह थोड़ी-थोड़ी देर बाद खाँसता और खाँसते-खाँसते बेहाल हो जाता। उसके बीमार चेहरे पर केवल उसके दाँत स्वस्थ लगते थे, उजले-उजले चमकदार दाँत आँखें बुझी थीं, दांत जगमगा रहे थे। वरना इलाहाबाद के तमाम लेखकों के दांत पान और खैनी के रंग में रंग चुके थे। विमल, परेश और मैं दूधनाथ सिंह के यहाँ ही ठहरे थे, शायद करेलाबाद कालोनी में। पहली मंजिल पर उसका बेतरतीब कमरा था। जैसे पढे योगी फकीर का साधना स्थल हो। कमरे में जगह-जगह कागज़ पत्र बिखरे हुए थे।
उन दिनों अमरकांत और शेखर जोशी भी करेलाबाग कालोनी में रहते थे। सुबह चाय पिलाने दूधनाथ सिंह हम लोगों को अमरकांतजी के यहाँ ले गया। अमरकांतजी बाबा आदम के ज़माने की एक प्राचीन कुर्सी पर बैठे थे। उनके यहाँ चाय बनने में बहुत देर लगी। वह अत्यन्त आत्मीयता से मिले। हम लोगों ने उनके यहाँ काफ़ी समय बिताया। दीन दुनिया से दूर छल कपट रहित एक निहायत निश्चल और सरल व्यक्तित्व था अमरकांत का। हिन्दी कहानी में जितना बड़ा उनका योगदान था, उसके प्रति वह एकदम निरपेक्ष थे। जैसे उन्हें मालूम ही न हो कि वह हिन्दी के एक दिग्गज रचनाकार हैं। हाड़ मांस का ऐसा निरभिमानी कथाकार फिर दुबारा कोई नहीं मिला। अमरकांतजी के घर के ठीक विपरीत अश्कजी के यहाँ का माहौल था। गर्म गर्म पकौड़े और उस से भी गर्म गर्म बहस। कहानी को लेकर ऐसी उत्तेजना जैसे जीवन मरण का सवाल हो। उनके घर पर उत्सव का माहौल था, जैसे अभी-अभी हिन्दी कहानी की बारात उठने वाली हो। नये कथाकार जिस तरह अग्रज पीढ़ी को धकेल कर आगे आ गये थे, उससे अश्कजी आहत थे, आहत ही नहीं ईष्यालु भी थे। राकेश कमलेश्वर से उनकी नोंक झोंक चलती रही। एक तरफ़ वह परिमल के कथा विरोधी रवैये के खिलाफ़ थे दूसरी ओर नयी कहानी का नयापन उनके गले के नीचे नहीं उतर रहा था। उनकी नज़र में उनकी अपनी कहानियाँ ही नहीं यशपाल, जैनेन्द्र और अज्ञेय की कहानियाँ भी नयी कहानी की संवेदना से कहीं आगे की कहानियाँ हैं। हम लोगों यानी विमल, परेश और मेरे साथ अश्कजी की अकहानी को लेकर लम्बी बहस हुई। यह भी लग रहा था कि वह नये कथाकारों को चुनौती देने के लिए हमारी पीढ़ी को अपने सीमा सुरक्षा बल की तरह पेश करना चाहते थे। हम लोग नये बटुकों की तरह पूरा परिदृश्य समझने की कोशिश कर रहे थे। अश्कजी के यहाँ कथाकारों का अहर्निश लंगर चल रहा था।
सम्मेलन में गिरिराज किशोर से भेंट हो गयी। उन दिनों गिरिराज किशोर साथी लेखकों के साथ जमकर पत्राचार करते थे। जाने वह दिन में कितने पोस्टकार्ड लिखते थे। इलाहाबाद में उसका अन्दाज़ और रुतबा एक लेखक का कम अधिकारी का ज़्यादा था। वह हमेशा ऐसे तैयार मिलता जैसे अभी-अभी दफ़्तर कि लिए तैयार हो कर निकल रहा हो। उसका पूरा व्यक्तित्व किसी बड़ी कम्पनी के जनसम्पर्क अधिकारी जैसा था। दोपहर को उसने सुझाव रखा कि यदि हम लोग ‘माया' में एक-एक कहानी देने को तैयार हों तो वह बतौर पारिश्रमिक सौ-सौ रुपये अग्रिम दिलवा सकता है। सस्ते का ज़माना था, तीन चार रुपये में बीयर की बोतल आ जाती थी। गिरिराज हम लोगों को माया प्रेस ले गया। आलोक मित्र से हम लोगों की भेंट करवायी और सचमुच सौ-सौ रुपये कहानी के अग्रिम पारिश्रमिक के रूप दिलवा दिये। उन दिनों ‘माया' में यशपाल, अश्क, जैनेन्द्र और अज्ञेय की रचनाएँ भी प्रकाशित होती थीं, पारिश्रमिक मिलते ही हम लोग परिमल के कथा सम्मेलन को भूल गये। माया प्रेस से सीधे ‘गजधर' पहुँचे। उन दिनों ‘गजधर' के मुक्तांगन में बीयर शॉप थी। मखमली घास, कर्णप्रिय संगीत और खूबसूरत ‘हैज' से घिरे उस मुक्तांगन में बीयर पीने का अपना ही आनंद था। मैंने इससे पूर्व ऐसा खूबसूरत बियर पार्लर न देखा था। गिरिराज किशोर हम लोगों को बार में छोड़कर सम्मेलन में भाग लेने चला गया, वह किसी सत्र में अनुपस्थित न रहना चाहता था। वह प्रत्येक सत्र को लेकर इतना गम्भीर था जैसे उसकी पूरी पूँजी दांव पर लगी हो। कुछ देर बाद राकेश कमलेश्वर वगैरह भी ‘गजधर' में ही चले आये। हम लोगों को एक में देखकर वे लोग चौंके। हम लोगों ने बताया कि यह सब गिरिराज किशोर के प्रयत्नों से ही सम्भव हो पाया है कि हम लोग दोपहर से बीयर का सेवन कर रहे हैं। मैंने राकेशजी को बताया कि ‘गजधर' की बियर शॉप ने अपने जालंधर की बीयर बार को पछाड़ दिया है। वहाँ इतना काव्यमय, संगीतमय और मखमली तो माहौल न था। हम लोगों ने गजधर में काफ़ी पैसे फूँक दिये, जबकि अभी एक दिन इलाहाबाद में और रहना था। अगले रोज़ दूधनाथ सिंह हम लोगों को चौक के और भी सस्ते बार में ले गया। हम लोगों में परेश की रुचियाँ कुछ भिन्न थीं। उसकी दिलचस्पी बीयर से ज़्यादा हुस्न में थी। हम लोग चौक के एक सस्ते बीयर बार की सीढ़ियाँ चढ़ गये और परेश मीरगंज की। सौ रुपये यों अनायास मुफ़्त में अग्रिम राशि पाकर वह किसी बिगड़े रईसज़ादे की तरह व्यवहार करने लगा था। हम लोग दिल्ली के लिए रवाना हुए तो जेबें खाली थीं, अपनी समूची पूँजी हमने ‘गजधर' में होम कर दी थी।
कथा लेखन के साथ कथा गोष्ठियों का ऐसा क्रम शुरू हुआ जो आजतक जारी है। यह कहना भी गलत न होगा, मैंने जीवन में जो कुछ भी पाया है कथा लेखन के कारण , जितना भी भारत देखा कहानी ने दिखा दिया। ज़िन्दगी में शादी से लेकर नौकरियाँ और छोकरियाँ गर्ज़ यह कि जो कुछ भी मिला, कहानी के माध्यम से ही। कहानी ओढ़ना बिछौना होती गयी, ज़रियामाश बन गयी। कहानी ने नौकरियाँ दिलवायीं तो छुड़वायीं भी। कहानी ने ही प्रेस के कारोबार में झोंक दिया। कहानी के कारण घाट- घाट का पानी पीने का ही नहीं, घाट-घाट का दारू पीने का भी अवसर मिला। अपने बारे में मैं निःसंकोच कह सकता हूँ कि मैंने घाट-घाट का दारू पिया है। आजकल झटपट का ज़माना है। झटपट वैभव, वित्त और सफलता का ज़माना। साहित्य में भी लोगों ने झटपट नाम कमाया, चर्चा में आये, मगर झटपट ही परिदृश्य से ओझल हो गये। संगीत की तरह साहित्य में भी लम्बे रियाज़ की ज़रूरत है। जो घर जारे आपना ले हमारे साथ। सफ़र के शुरू में एक लम्बा कारवाँ साथ होता है, अमरनाथ की इस दुर्गम यात्रा में बहुत से सहयात्री बीच राह में दम तोड़ देते हैं या चुपचाप बहिर्गमन कर जाते हैं। पग-पग पर झंझा, आँधी और तूफान और मंजिल एक मरिचिका। मगर किसी भी यात्रा की तरह यह यात्रा है बहुत दिलचस्प रही। ज़िन्दगी के अनेक रंग देखने को मिले - रंग और बदरंग दोनों। चालीस बरस लम्बी यात्रा के बाद भी एहसास होता है कि अभी तो मीलों मुझको चलना है। एक अंतहीन यात्रा है यह। एक ऐसी यात्रा कि पाथेय का भी भरोसा नहीं रहता।
मेरे पास तो एक नौकरी थी। अनेक सहयात्री ऐसे भी थे, जिनकी हर सुबह एक नये संघर्ष की सुबह होती थी। वे जेब में बस का पास ठूँस कर निकल जाते थे, एक अनजाने सफर पर। कोई लम्बी-चौड़ी महत्वकांक्षाएँ भी नहीं थीं उनकी। ज़िन्दा थे कि रचनाकर्म से जुड़े थे, इसी के लिए पूरा संघर्ष था। उन दिनों दिल्ली में लेखकों की कई जमातें थी। एक जमात साधन सम्पन्न लेखकों की थी और एक जमात फ़कीर लेखकों की। एक दुनिया अफ़सर लेखकों की और एक दुनिया मातहत लेखकों की। एक वर्ग समर्पित लेखकों का और एक वर्ग शौकिया लेखकों का। हर कोई इस दौड़ में शामिल था, साथी लेखकों का कंधा छीलते हुए आगे निकल जाने की होड़ थी। प्रत्येक रचनाकार रोज़ एक नये अनुभव से गुज़रता था।
एक जमात पुरानी दिल्ली के कथाकारों की थी। जैनेन्द्र कुमार इस जमात के सरगना थे। जैनेन्द्र का ज़माना था, अनेक छोटे मोटे जैनेन्द्र काफ़ी हाउस में नज़र आते थे। पुरानी दिल्ली के ठेठ नये रचनाकारों में योगेश गुप्त, भूषण बनमाली, शक्तिपाल केवल, अतुल भारद्वाज, और कुछ-कुछ हरिवंश कश्यप और सौमित्र मोहन प्रमख थे। इन में से अधिसंख्य कथाकार मसिजीवी थे। कोई चावड़ी बाज़ार या नयी सड़क में प्रूफ पढ़कर काम चला रहा था तो कोई जैनेन्द्रजी की डिक्टेशन ले कर अपने को धन्य समझ रहा था। वे जैनेन्द्र का अनुकरण करने की कोशिश करते, मगर दारू के दो पैग पीकर ही मंटो का अवतार बन जाते। ऊपर से देखने पर जैनेन्द्र और मंटो में कोई समानता नज़र नहीं आती, मगर दोनों में एक महीन सी समानता थी। सैक्स के अन्धेरे बंद कमरों में दोनों ताकझांक करते थे। जैनेन्द्र अभिजात में लपेट कर सैक्स परोसते थे और मंटो के यहाँ पूरी मांसलता के साथ सैक्स मौजूद था-- कच्चा, फड़फड़ाता हुआ, धड़कता हुआ, जिन्दगी के ताज़ा कटे स्लाइस की तरह जीवंत। लेखकों की पुरानी दिल्ली की यह जमात जैनेन्द्र और मंटो की काकटेल थी। वे साठोत्तरी पीढ़ी के बुज़ुर्ग रचनाकार थे। वे नये कथाकारों के हमउम्र थे, मगर नयी कहानी की बस उनसे छूट गयी थी। वे साठोत्तरी पीढ़ी की बस में भी सवार न हो पाये। कल के लौंडों के साथ सफर करने में उनकी तौहीन थी। इसी क्रम में वह डार से बिछुड़ गये थे, उनकी अपनी डगर थी। साहित्य के नभ में उनका अपना झुण्ड था। सच तो यह है उनका अपना आकाश था। अपनी परवाज़ थी। समय भी उनकी रचनाशीलता के साथ न्याय नहीं कर पा रहा था। नतीजा यह निकला कि दिल्ली में ऐसे लेखकों की एक अलग श्रेणी बन गयी जिनकी कहानियाँ स्थापित पत्र पत्रिकाओं में तो स्थान प्राप्त न कर सकीं, उनके विषबुझे तिक्त पत्र खूब प्रकाशित होते थे। कुछ लेखकों ने तो मुझे ऐसा निशाना बनाया कि मेरी कहानी जिस भी पत्रिका में प्रकाशित होती उसके अगले ही अंक में मेरी कहानी के खिलाफ मोर्चा खुल जाता। मेरी कहानी के साथ-साथ सम्पादक की भी शामत आ जाती। उसकी भर्त्सना करते हुए कहा जाता कि ऐसी घटिया और बेतुकी कहानियाँ छाप कर वे पाठकों का अमूल्य समय ही नहीं पत्रिका के पन्ने भी नष्ट कर रहे हैं। मुझे घुट्टी में ही यह महामंत्र पिलाया गया था कि प्रशंसा से बड़े-बड़े लेखकों की लुटिया डूब जाती है, तीखी आलोचना और विवाद से ही लेखक चर्चित होता है। राकेश का तो तकिया कलाम था कि ऑल सेड एण्ड डन, मरे हुए घोड़े को कोई नहीं पीटता। बाद में मैंने अपने अनुभव से भी जाना कि प्रशंसा नये लेखकों को प्रायः चर्चा से बाहर कर देती है। यह बात लेखक को समझ में तो आ जाती है मगर तब, जब बहुत देर हो चुकी होती है। मेरे लिए यह सुखद अनुभव था कि मेरी कहानियों के खिलाफ़ जितने पत्र प्रकाशित होते, कहानियों की जितनी तीखी प्रतिक्रिया होती, उसी अनुपात में मेरी कहानियाँ चर्चा के केन्द्र में आ जातीं और उनकी माँग बढ़ जाती। यह दूसरी बात है कि मैंने अथवा मेरी पीढ़ी के अन्य कथाकारों ने कभी भी माँग और पूर्ति के हिसाब से लेखन नहीं किया। व्यवसायिक पत्रिकाओं के रंगीन चिकने पन्नों पर भी साठोत्तरी पीढ़ी के रचनाकारों की रचनाएँ सब से कम छपी हैं। अधिसंख्य कथाकारों ने अव्यावसायिक लघु पत्रिकाओं से ही अपनी पहचान बनायी।
दिल्ली के खांटी नये रचनाकारों में सौमित्र मोहन और अतुल भारद्वाज तालीमयाफ़्ता थे और विश्वविद्यालय में पढ़ते थे। कभी-कभी ये लोग जगदीश चतुर्वेदी से मिलने दफ़्तर आया करते थे। जगदीश पर उन दिनों अकविता का भूत सवार था। वह हमेशा आन्दोलित रहता। उन दिनों राजस्थान से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘लहर' पर जगदीश और उसके गिरोह का कब्ज़ा था। पर्दे के पीछे से प्रभाकर माचवे वगैरह भी देशी विदेशी एजेंसियों की मदद से ‘लहर' के लिए वित्त की व्यवस्था करते रहते। मेरा और जगदीश का दिन भर का साथ रहता, मुझे बहुत सी जानकारी अनायास ही मिल जाती। एक दिन दिल्ली के लेखकों से सूचना मिली कि आगामी सात दिसम्बर को योगेश गुप्त का जन्म दिन है। पता चला कि इस बार वह बहुत धूमधाम से अपना जन्मदिन मनाने की तैयारी कर रहा है। उसके मित्र इस बात से बहुत उत्तेजित थे। अभी से मदिरा और डिनर की व्यवस्था की जा रही थी। शाम को कनाट प्लेस में घूमते हुए मुझे ख्याल आया कि योगेश गुप्त के लिए एक अच्छा सा बधाई कार्ड खरीदा जाए। खोजते-खोजते मुझे एक उपयुक्त कार्ड पसन्द आ गया। मैंने कार्ड खरीदा और योगेश गुप्त के पते पर पोस्ट कर दिया। वह उन दिनों भी यमुनापार के किसी उपनगर में रहता था। कार्ड भेज कर मैं भूल गया। योगेश गुप्त कभी मेरे पक्ष में नहीं रहा था, मेरे विरुद्ध यदा कदा उसके भी पत्र प्रकाशित होते रहते थे, मगर उसका संघर्षशील जीवन मुझे हमेशा चमत्कृत करता। वह कभी बहुत ऊँची कला में होता और कभी गहरे अवसाद में। वह तन, मन और धन से साहित्य को समर्पित था, जबकि तन मन और धन से वह खस्ताहाल ही दिखायी देता था।
शाम को जब चरणमसीह टी-हाउस के दरवाज़े बंद करने लगता तो हम लोग टहलते हुए पैदल ही घर की तरफ़ चल देते। रास्ते में थकान महसूस होती तो अगले स्टॉप से बस पकड़ लेते। लौटते में कभी-कभी रमेश बक्षी भी साथ हो लेता। उसने उन दिनों एक मोर पाला हुआ था उसे अपने पेट की कम, मोर की ज़्यादा चिन्ता रहती। वह बहुत खुश होता अगर हम भी उसके साथ मोर का हाल चाल पूछने चल देते। घर में दारू होती तो वह आखिरी बूँद तक इस खुशी में लुटा देता। वह मोर के प्रेम में पड़ चुका था। बिना प्रेम के वह ज़िन्दा ही न रह सकता था। उसका दिल अक्सर किराये पर उठा रहता, जिन दिनों दिल किराये के लिए खाली रहता, वह अपने मोर पर दिलोजान से फ़िदा रहता। वह मूल रूप से एक प्रेमी जीव था। मात्र प्रेम करने से उसका जी न भरता, वह वह अपने प्रेम का प्रदर्शन करने में भी आनन्द उठाता। कई बार वह झूठमूठ का प्रेम प्रपंच भी करता। छुट्टी के एक दिन मैं उसके कमरे में डटा हुआ था, वह बार-बार अपनी घड़ी देख रहा था।
‘क्यों कोई आने वाली है क्या? ' मैंने पूछा।
‘हाँ यार, एक बजे पाँच नम्बर की बस के स्टॉप पर मिलने को कहा था।'
एक बजने में दस मिनट बाकी थे, हम लोग टहलते हुए अजमल खाँ रोड की तरफ चल दिये। चलते-चलते मुझे अचानक आभास हुआ कि वह सिर्फ अपने प्रेम की धौंस जमाना चाहता है, कोई लड़की वड़की आने वाली नहीं। ठीक एक बजे हम लोग बस स्टॉप पर थे। बसें लगातार आ जा रही थीं। उन में से लड़कियाँ भी उतर रही थी, हर बार वह उचक कर देखता और मेरे साथ रेलिंग पर बैठ जाता।
कोई आधा घंटा तक प्रतीक्षा करने के बाद उसने कहा कि लगता है लड़की किसी ज़रूरी काम में फंस गयी है।
‘धीरज रखो, उसने वादा किया है तो ज़रूर आयेगी।' मैंने कहा, ‘हो सकता है उस की बस छूट गयी हो।'
उसने पंद्रह बीस मिनट और इंतजा़र किया और बोला कि उसे भूख लग रही है, कहीं जाकर खाना खाते हैं।
‘यार तुम बहुत ग़ैरज़िम्मेदार आशिक हो। दिल्ली में एकाध घंटे की देर तो मामूली सी बात है। रुको थोड़ी देर और इन्तज़ार करते हैं।' मैंने कहा।
रमेश ने सिगरेट सुलगा ली और कहा कि लड़की को सिगरेट से बेहद एलर्जी है इस वक्त सिगरेट पीकर उसे यही दण्ड दिया जा सकता है। वह लम्बे-लम्बे कश खींचने लगा। इन्तज़ार में एक घंटा बीत गया, लड़की को नहीं आना था, नहीं आई। मुझे मालूम था, उन दिनों उसके जीवन में कोई लड़की नहीं थी। इसकी एक छोटी सी पहचान थी। जिन दिनों उसके जीवन में लड़की नहीं होती थी, वह मोर से बहुत प्यार करता था। घर से चलते समय उसने मोर से वादा किया था कि वह जल्द ही उसके लिए मोतीचूर का लड्डू लेकर लौटेगा। वह अब सचमुच लौटना चाहता था, मगर मैंने भी तय कर रखा था कि इतनी आसानी से उसे बस स्टॉप से हटने न दूँगा। मैं नितांत फुर्सत में था। तीन बजे तक उसका धैर्य जवाब दे गया, ‘मैं अब एक पल न रुकूँगा। भूख के मारे मेरी जान निकल रही है और मेरा मोर भी भूखा होगा।' रमेश ने कहा और पिंड छुड़ा कर यों भागा जैसे कोई गैया खूँटा उखाड़ कर भागती है । वास्तव में रमेश बक्षी नादानी की हद तक सरल व्यक्ति था। उसकी प्रेमिका उससे रूठ जाती तो वह रोने लगता। वह ‘माई डियर' किस्म का दोस्त था। इसके बाद दीगरे उसकी कई प्रेमिकाओं ने शादी कर ली थी और वह हाथ मलता रह गया था। एक बार उसने अपनी एक प्रेमिका को मुझसे पत्र लिखवाया कि वह उसे दिलोजान से चाहता है और उससे शादी करना चाहता है। जब तक मेरा पत्र पहुँचता उसकी प्रेमिका की शादी की खबर आ गयी। रमेश बक्षी अपने मोर को बाहों में भरकर देर तक बच्चों की तरह सिसकियाँ भरता रहा।
जाड़े के दिन थे। हम लोग मूँगफली जेबों में भरे पैदल ही घर लौट रहे थे। मूँगफली खत्म हो गयी तो बस पकड़ ली। अफजल खाँ रोड पर उतर कर पैदल ही ढाबे तक पहुँचे, जिसे हम ‘साँझा चूल्हा' के नाम से पुकारा करते थे। हम लोगों ने कई महीनों तक उस ढाबे में भोजन किया था मगर कभी हिसाब की नौबत न आयी थी। विमल, हमदम और मुझे कभी मालूम न हुआ कि ढाबे का पैसा हमारे ऊपर निकलता है या हमारा ढाबे के ऊपर। हमदम को लगता कि कर्ज़ बढ़ गया है तो वह किसी ‘एड एजेंसी' में दो तीन महीने काम करके यकमुश्त हज़ार पाँच सौ रुपये चुका देता। विमल और मैं बारोज़गार थे, पहली तारीख को अपनी जेब के मुताबिक भुगतान कर देते। भोजन के समय हमदम हमारे साथ होता वरना ढाबे पर मिल जाता। उस दिन वह ढाबे पर नज़र नहीं आया। संत नगर पहुँचे तो कमरे पर मिल गया। कमरे का माहौल गुलज़ार था। तख्त पर योगेश गुप्त, भूषण बनमाली और शक्तिपाल केवल आलथी पालथी मारकर बैठे थे और बेचारा हमदम गिलास, सोडा, बर्फ की व्यवस्था में मशगूल था। बीचों-बीच नाथू स्वीट्स के खुले हुए डिब्बे में ढेर सा तला हुआ काजू रखा था। हमेशा गुरबत की गवाही देने वाले कमरे में पीटर स्काट की बोतलें और गोल्ड फ़्लेक के पैकट बिखरे हुए था। धुएँ और दारू की गंध से कमरा सुवासित था।
मुझे देखते ही योगेश गुप्त बाहें फैलाये मेरी तरफ़ बढ़ा। मुझे याद आने में एक क्षण की भी देर न लगी कि आज ज़रूर सात दिसम्बर है। मैंने भी जवाबी गर्मजोशी से योगेश को बाहों में भर लिया ---- मैनी हैप्पी रिटर्न्स ऑफ द डे। भूषण बनमाली ने मेरे हाथ में गिलास थमा दिया और सब के गिलास एक दूसरे से टकराये-चीयर्स।
योगेश ने मेरा एक हाथ लिया और दूसरा हाथ मेरे कंधों पर गमछे की तरह फैला दिया---- ‘दोस्त, मैंने तुझे गलत समझा था। तुम सही मायने में यारों के यार हो। इतनी बड़ी दिल्ली में सिर्फ़ तुम्हें मेरा जन्म दिन याद रहा। आज सुबह की डाक से तुम्हारा बधाई कार्ड मिला तो मुझे बेहद अच्छा लगा। अचानक महसूस हुआ कि क्लर्कों का यह बेरहम शहर संवेदनशून्य हो चुका है। संवेदना का स्पर्श सिर्फ़ बाहर से आने वाले लोगों में ही शेष है। आज मेरे ज़ेहन में बहुत सी बातें स्पष्ट हो गयी हैं। आज समझ में आया कि तुमने इतनी जल्द दिल्ली में अपने लिए कैसे जगह बना ली। आज की शाम तुम्हारे नाम।'
भोजन के बाद शराब पीने का मुझे अभ्यास नहीं था। भूषण बनमाली ने सबके लिए नया पैग ढाल दिया और अपना गिलास सिर के ऊपर ले जाते हुए कहा ‘चियर्स।' भूषण बनमाली इन तमाम लोगों में सब से अधिक वाचाल और तेज़तर्रार था। वह जवाहर चौधरी की तरह खास देहलवी अन्दाज़ में बातें करता था -- उसे सुनकर कोई भी कह सकता था कि वह ग़ालिब और ज़ौक के शहर का बाशिन्दा है। अपनी इन्हीं विशेषताओं की बदौलत वह विख्यात शायर और फिल्म निदेशक गुलज़ार के इतना नज़दीक चला गया कि दिल्ली से बम्बई जा बसा और गुलज़ार के साथ कई फिल्मों पर काम किया, बाद में फिल्मी लेखक निदेशक के रूप में भी अपनी अलग पहचान बनायी। मैंने भूषण से पूछा कि आजकल वह क्या लिख रहा है तो उसने बताया कि वह आजकल हनुमान चालीसा लिख रहा है। चावड़ी बाजार और नयी सड़क के प्रकाशक उन दिनों इसी प्रकार की पुस्तकें प्रकाशित किया करते थे। भूषण बनमाली राम की कमाई खा रहा था, कभी हनुमान चालीसा का प्रूफ संशोधन कर के और कभी रामचरित मानस का। शक्तिपाल केवल बहुरूपिया था, कभी लेखक बन जाता, कभी सम्पादक, कभी प्रकाशक और कभी प्रूफ़ रीडर। बोतल खत्म हो गयी तो योगेश गुप्त ने जादूगर की तरह पीटर स्कॉट की दूसरी बोतल हाज़िर कर दी। शाक्तिपाल केवल तख्त पर नाचने लगा जिओ मेरे राजा। तुम इसी तरह पिलाते रहो हज़ारों साल।
योगेश गुप्त ने अपनी अब तक प्रकाशित तमाम पुस्तकों का एक सेट मुझे भेंट किया। मुझे तब तक मालूम ही नहीं था कि योगेश की तब तक इतनी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। वज़न में वह किलो से कम न होंगी। वह सचमुच गुदड़ी का लाल था। बाद में मैं दिल्ली से मुम्बई चला गया तो अपने अमूल्य संग्रह की तमाम पुस्तकें गंगाप्रसाद विमल की सुरक्षा अभिरक्षा में रख गया। विमल की रचनात्मकता पर इन पुस्तकों का गहरा प्रभाव पड़ा, जो आज भी उसकी रचनाओं में चिन्हित किया जा सकता है।
नीचे टैक्सी वाला बार-बार हार्न बजा रहा था। योगेश ने आठ घण्टे के लिए टैक्सी भाड़े पर ले रखी थी। हम लोग देर रात तक दिल्ली की खुली वीरान सड़कों पर टैक्सी दौड़ाते रहे और बाद में पंढारा रोड पर जा कर भोजन किया। योगेश गुप्त ने उस बरस जन्म दिन पर जैसे तय कर लिया था कि वह सब कुछ लुटा कर ही होश में आयेगा। अगले रोज़ उसके होश ठिकाने लग गये होंगे। वह दिन था और आज का दिन योगेश गुप्त की छवि मेरे मन मन्दिर में बसी हुई है। उस दिन के बाद किसी भी पत्रिका में मेरे खिलाफ उसका पत्र नहीं छपा। छद्म नाम से जो पत्र इधर पत्रिकाओं में प्रकाशित भी होते हैं, जानकार लोगों का अनुमान है कि उसके पीछे योगेश गुप्त का नहीं, दूसरे रकीबों का हाथ है।
उन दिनों योगेश गुप्त दरियागंज का गोर्की था। कुछ दौर ही ऐसा था कि हर शहर का अपना गोर्की होता था। दिल्ली चूँकि महानगर था, इसलिए दिल्ली के कई गोर्की थे। भूषण बनमाली बिल्ली मारान का गोर्की था तो शक्तिपाल केवल लाजपत नगर का। दिल्ली में उन दिनों कुछ जदीद किस्म के कथाकार भी सिर उठा रहे थे। इस लिहाज़ से उर्दू अफ़सानानिगार बलराज मेनरा किंग्ज़वे कैम्प का आल्बेयर कामू था। उर्दू कथाकारों की एक जमात ऐसी भी थी जो शाम को गजरा लिए जी0 बी0 रोड के चक्कर लगाती थी और उसके जो सिपहसालार शाम को शराब में धुत्त होकर गिर पड़ते थे, अपने को सआदत हसन मंटो के अवतार से कम न समझते थे। उन दिनों दिल्ली का इतना राजनीतिकरण न हुआ था, वहाँ की फिज़ा शायराना थी। राजकमल चौधरी दिल्ली आता तो उसकी उर्दू के शायरों और अफ़सानानिगारों से ज़्यादा छनती, हिन्दी के लेखकों की नज़र में वह शरतचन्द्र का चरित्रहीन था। वह बहुत भावुक किस्म का आदमी था, मगर अपने चरित्र की खुद ही धज्जियाँ उड़ाता रहता था। उर्दू के शायर लोग शाम को उसकी तलाश में कनाट प्लेस में दर बदर भटका करते थे। पीने के लिए वह एक बेहतर साथ था। मुद्राराक्षस का उससे कलकत्ता का साथ था। उस वक्त लग रहा था कि मुद्रा भी राजकमल के पथ का दावेदार है, मगर मुद्रा ने अपने को बहुत संभाला। उसने धीरे से अपना काँटा बदल लिया।
नयी कहानी आन्दोलन की और कोई उपलब्धि हो न हो, इतना ज़रूर, है उसने कहानी को साहित्य की केन्द्रीय विधा के रूप में स्थापित कर दिखाया था। साहित्य में कहानी की तूती बोलती थी। जैनेन्द्र कुमार तक परेशान हो उठे थे कि आखिर क्या हो गया है जो कहानी की इतनी अधिक चर्चा हो रही है। राकेश, कमलेश्वर और यादव नयी कहानी के राजकुमार थे, जिन्होंने कहानी के शहंशाओं को धूल चटा कर सिंहासन पर कब्जा कर लिया था। लग रहा था कि वे किसी बिजनेस इन्स्टीट्यूट से मार्केटिंग का डिप्लोमा हासिल कर के कथा क्षेत्र में उतरे हैं। समय-समय पर तीनों किसी न किसी महत्वपूर्ण कहानी पत्रिका के सम्पादक रहे, इसके अलावा अन्य अनेक पत्रिकाओं का भी वे ‘रिमोट कण्ट्रोल' से सम्पादन करते रहे। दरियागंज उन दिनों भी साहित्य की राजधानी था। ‘नयी कहानियाँ' का कार्यालय राजकमल प्रकाशन में था और अक्षर प्रकाशन की भी नींव पड़ चुकी थी। ‘हंस' का जन्म पुनर्जन्म नहीं हुआ था, मगर पेट में आ चुका था। योगेश गुप्त की टीम राजेन्द्र यादव के दरबार में प्रायः दिखायी देती थी। यह कहना ज़्यादा ग़लत न होगा कि योगेश गुप्त उन दिनों राजेन्द्र यादव का मैत्रेयी पुष्पा था और कुछ लोग उसे छोटा जैनेन्द्र भी कहते थे। जैनेन्द्रजी से मुझे पहली बार योगेश गुप्त ने ही मिलवाया था। जैनेन्द्रजी अत्यन्त स्नेह से मिले, अन्दाज वही फिलासफराना था, पोशाक गाँधीवादी। वह बहुत बारीक कातते थे, कई बार तो सूत दिखायी भी न पड़ता था। मेरा मतलब है उनकी बात पल्ले ही न पड़ती थी। उनकी बात योगेश ही समझ सकता था, खग जाने खग ही की भाषा। जैनेन्द्र और अज्ञेय में कोई न कोई समानता थी। एक तो यही कि दोनो स्नॉब थे। जैनेन्द्रजी को अगर गाँधीवादी स्नॉब कहा जा सकता है तो अज्ञेय को अस्तित्ववादी स्नॉब। उन दिनों मेरा कार्यालय भी दरियागंज में था। नयी कहानियाँ का कार्यालय भी, अक्षर प्रकाशन, राजकमल, राधाकृष्ण, भारतीय ज्ञानपीठ, कमलेश्वर, यादव, जैनेन्द्र सब दरियागंज में ही थे। मैं दफ़्तर की कुर्सी के पीछे अपना कोट टाँग कर ज़्यादातर समय इन्हीं केन्द्रों पर बिताया करता था। शाम को यहीं से हिन्दी कहानी के सूरमे फटफटिया पर सवार होकर कनाट प्लेस के लिए निकलते थे।
उन दिनों भी दरियागंज की सड़कों और गलियों में किसी न किसी लेखक से अचानक भेंट हो जाया करती थी। एक दिन दफ़्तर से नीचे उतरा तो देखा नीचे पट्टी पर राजकमल चौधरी पत्रिकाएँ पलट रहा था।
‘किसी का इंतज़ार कर रहे हो क्या?'
‘हाँ, तीन बजे लंच है मोती महल में।'
‘मोती महल तो तीन बजे बंद हो जाता है।'
‘हमारी किस्मत में यही बदा है। वक्त पर कभी कोई चीज़ नहीं मिली। आज बियर, जिन और चिकेन का लंच है। यही समझ लो, लंच के बाद लंच है।'
सन् साठ के आस-पास दरियागंज के मोतीमहल रेस्तरां का बहुत नाम था। कहा जाता था, कि कभी-कभी पंडित जवाहरलाल नेहरू अपने मेहमानों के लिए वहाँ से चिकेन मंगवाया करते थे। उन दिनों मोतीमहल की वही साख थी जो आजकल जामा मस्जिद के करीम होटल की है। रात को ग़ज़ल, कव्वाली और रंगारंग कार्यक्रमों के बीच मोती महल के मुक्तांगन में डिनर होता था और लोग गाड़ी में बैठे-बैठे जगह मिलने का इन्तज़ार किया करते थे। आम जनता के लिए मोतीमहल की ही पट्टी पर मोतीमहल के नाम से मिलते जुलते कई ढाबे खुल गये थे, जहाँ किफायती और टिकाऊ भोजन की व्यवस्था रहती थी। जो लोग मोतीमहल में जाने की हैसियत न रखते, इन्हीं ढाबों की शोभा बढ़ाते थे। हम लोग दूसरी कोटि के लोगों में से थे। मोतीमहल तो दूर, हमें ये ढाबे भी महँगे लगते थे। बाहर से कोई लेखक आ जाता तो हम लोग इन्हीं ढाबों पर उसकी मेहमाननवाज़ी करते थे।
राजकमल ने जेब से ‘जिन' का अद्धा निकाला और उसकी सील तोड़कर दोबारा जेब में रख लिया। ‘जिन' देखकर मेरी लार टपकने लगी। मुझे लगा, उसकी लाटरी खुल गयी है। राजकमल प्रकाशन से उसका उपन्यास मछली मरी हुई, छपकर आने वाला था या आ चुका था, मैंने कहा, ‘कब तक मरी हुई मछलियों की तिजारत करते रहोगे?'
मेरी बात सुनकर उसने ज़ोरदार ठहाका लगाया, ‘आजकल सड़े हुए ग़लीज़ माल का ही बाज़ार गर्म है। कुछ दिनों में इस्तेमाल किये हुए सेनेटरी टावल बिका करेंगे।'
‘जगदीश को मत बता देना, वह इसी पर एक दर्जन कविताएँ लिख देगा।'
‘चलो आज तुम्हारी भी ऐश करा देते हैं।' राजकमल ने पूछा, ‘सुरेन्द्र प्रकाश को जानते हो?'
सुरेन्द्र को मैं राजकमल से तो ज़्यादा ही जानता था। तब से जानता था जब कहानीकार के तौर पर उसकी मसें भीगनी शुरू हुई थीं। वह सत्यपाल आनन्द का मित्र था और सत्यपाल आनन्द की सिफ़ारिश से मैंने उसकी कुछ प्रारम्भिक कहानियों का हिन्दी अनुवाद किया था। उसकी कहानियों में उन दिनों बहुत लफ़्फ़ाज़ी रहती थी ---- समुद्र, चाँद रेत वगैरह-वगैरह। बाद में दिल्ली आया तो टी-हाउस में उससे रोज़ मुलाकात होने लगी। बलराज मेनरा और सुरेन्द्र प्रकाश में लिखने की होड़ लगी रहती थी। उर्दू अफ़साने की दौड़ में ये दोनों धावक मुँह में रूमाल खोंसकर बेतहाशा भाग रहे थे। कभी मेनरा आगे निकल जाता और कभी सुरेन्द्र प्रकाश। दौड़ते-दौड़ते सुरेन्द्र प्रकाश तो साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त करने में सफल हो गया, मेनरा का क्या हुआ, किसी दिन अकील साहब या फारूक़ी साहब से दरियाफ़्त करूँगा।
‘सुरेन्द्र प्रकाश को मैं आज से नहीं, बहुत अर्से से जानता हूँ' मैंने राजकमल को बताया।
‘ख़ाक जानते हो।' राजकमल ने पूछा, ‘उसने तुम्हें कभी मोतीमहल में आमंत्रित किया कि नहीं?'
‘मैं समझा नहीं।'
‘समझोगे भी नहीं।' राजकमल ने कहा। उसी की जु़बानी पता चला, कि सुरेन्द्र प्रकाश मोतीमहल के मालिकों का रिश्ते में दामाद लगता है और आजकल मोती महल के स्टोर का इंचार्ज है। उसने एक नयी कहानी लिखी है और उसे सुनाने के लिए राजकमल को लंच पर आमंत्रित किया है। दोपहर को रेस्तरां की सफ़ाई के बाद स्वच्छ वातानुकूलित माहौल में जिन और बियर की जुगलबंदी के बीच सर्वोत्तम भोजन की व्यवस्था रहेगी। ‘अब तुम्हीं बताओ ऐसे मुबारक माहौल के बीच कौन बेवकूफ़ कहानी सुनेगा? वैसे कितनी अच्छी बात है सुरेन्द्र प्रकाश छोटी-छोटी कहानियाँ ही लिखता है।'
मुझे यह सोचकर बहुत तकलीफ़ हो रही थी कि सुरेन्द्र प्रकाश से इतने नज़दीकी ताल्लुकात होने के बावजूद मैं उसके बारे में उतना भी नहीं जानता था जितना यह परदेसी बाबू जानता है। छुट्टी के रोज़ कई बार सुरेन्द्र प्रकाश पूरा-पूरा दिन हमारे यहाँ बिताता था, मगर उसने आज तक भनक न लगने दी थी कि वह किसका दामाद है और क्या करता है।
‘तुम चाहो तो मेरे साथ दावत में शरीक हो सकते हो।' राजकमल ने कहा।
‘मैं बिन बुलाए मेहमान की तरह कहीं नहीं जाता।' मैंने कहा और दफ़्तर की सीढ़ियाँ चढ़ गया।
दफ़्तर में कोई कामधाम नहीं था। मैं और जगदीश कभी श्याममोहन श्रीवास्तव के कमरे में समय बिताते तो कभी शेरजंग गर्ग और रमेश गौड़ के साथ गप्प लड़ाते। कुलभूषण भी दफ़्तर में थे, शायद सहायक निदेशक के पद पर। उन्हें नयी कहानी को कोसना होता तो वह हम लोगों को बुलवा लेते। उन्हें अफ़सोस था कि उन्होंने साहित्य में गुटबाज़ी नहीं की वरना वह राकेश, कमलेश्वर और यादव से कहीं आगे निकल जाते। उन्हें विश्वास था कि इतिहास एक दिन दूध का दूध और पानी का पानी कर देगा। ये लोग बहुत बड़े कथाकार बनते हैं पहले ‘ललक' और ‘तंत्र' की टक्कर की एक भी कहानी लिख कर दिखा दें। यही वह नाज़ुक क्षण होता था, जब कुलभूषण चपरासी को चाय नाश्ता लाने का संकेत करते। जगदीश ‘तंत्र' की तारीफ़ के पुल बांधता और मैं ‘ललक' की। ‘ललक' और ‘तंत्र' को लेकर मैं और जगदीश आपस में भिड़ जाते। कुलभूषण हम लोगों को शांत करते हुए कहते, ‘दरअसल, आप दोनों ठीक फरमा रहे हैं। आप लोग अपनी बात छोड़ दें अभी तक ख्वाजा अहमद अब्बास भी तय नहीं कर पाये कि दोनों कहानियों में से कौन बेहतर है।'
‘एक सेर है तो दूसरी सवा सेर।' मैं कहता।
कुलभूषण अपने ड्राअर में हम लोगों के लिए विल्स का पैकेट रखा करते थे। वह गदगद भाव से हम लोगों को सिगरेट पेश करते। कहानी की तारीफ़ सुनकर वह बच्चों की तरह निहाल हो जाते। बाद में ऐसा वक्त आया, उन्होंने कहानी पर बातचीत करना एकदम बंद कर दिया। पता चला जीवन में उनसे एक भारी भूल हो गयी थी। उन्होंने बहुत मेहनत और चाव से बनाया अपना मकान किराये पर उठा दिया था और किरायेदार भी ऐसा मिला था, जो न केवल बेदर्दी से मकान का इस्तेमाल कर रहा था, अनुबंध के मुताबिक मकान खाली भी नहीं कर रहा था। कुलभूषण मुकदमेबाज़ी में ऐसा उलझ गये कि दिन भर इसी चिन्ता में बेहाल रहते। दिन भर वकीलों और कोर्ट कचेहरी के चक्कर काटते। उन्हें भूख लगती, न प्यास। उनके पास अच्छी खासी नौकरी थी, भरापूरा परिवार था, पण्डित सुदर्शन जैसे विख्यात कथाकार का पुत्र होने का गौरव प्राप्त था। मेरे मित्र कपिल अग्निहोत्री के बड़े भाई दिल्ली की न्यायिक सेवा में उच्चाधिकारी थे। मैं कुलभूषणजी को उनसे मिलाने ले गया। उन दिनों वह दरियागंज में ही डॉ0 सुरेश अवस्थी के ऊपर वाले फ़्लैट में रहते थे। कुलभूषण उन्हें अपना केस बताते हुए फफक कर रोने लगे। उन्हें देखकर किसी भी संवेदनशील आदमी को किरायेदार पर गुस्सा आ जाता कि वह एक मासूम, नेकदिल और सीधे-सादे इन्सान पर ज़ुल्म ढा रहा है। मालूम नहीं कि बाद में उनका मकान खाली हुआ कि नहीं। जबसे मकान का बवाल शुरू हुआ, उनका लिखना पढ़ना चौपट हो गया। उन्होंने चाय पिलाना नहीं, पीना भी छोड़ दिया।
सुरेन्द्र प्रकाश ने उलाहने का अवसर न दिया और अगले सप्ताह मुझे भी कहानी और लंच का निमंत्रण मिल गया। निर्धारित समय पर जब मोतीमहल लंच के लिए बंद हो गया, मैं रेस्तरां की बगल के छोटे द्वार से भीतर घुसा। सब से पहले सुरेन्द्र प्रकाश पर ही नज़र पड़ी। उसके सामने एक बड़े से टोकरे में छिले हुए चूज़ों का ढेर लगा था और वह बैलेंस पर एक-एक चूज़े का वज़न नोट कर रहा था। जो चूज़े मानक के अनुरूप न निकलते, उन्हें एक दूसरे टोकरे में फेंक देता। उसने मेरे लिए भी एक स्टूल मंगवा लिया और मैं भी तमाशबीन की तरह उसके साथ बैठ गया। चूज़ों के व्यापारी से उसकी बातचीत सुनकर मुझे लगा कि उसे चूज़ों के बारे में काफ़ी प्रमाणिक जानकारी है। उसे मुर्गे तौलते हुए देखकर मुझे पल भर के लिए भी यह नहीं लगा कि वह मोतीमहल के मालिकों का दामाद है। अगर वह दामाद था तो ज़ाहिर है वे बहुत बड़े जाहिल होंगे जो अपने दामाद से दो कौड़ी का काम ले रहे थे। काम निपटाने में उसे आधा घंटा का समय और लगा होगा। उसने वाशबेसिन पर हाथ धोए और एक बैरे से कहा कि फौरन से पेश्तर खाना लगाये। हम रेस्तरां में पहुँचे तो खाना लग रहा था। सुरेन्द्र प्रकाश ने मेरे लिए भी एक प्लेट मँगवायी। उसने पानी का गिलास पिया, सिगरेट सुलगायी और पाँच सात मिनट में छोटी सी कहानी सुना डाली मैंने कहानी का अनुवाद करने और उसे हिन्दी में छपवाने का आश्वासन दिया।
धीरे-धीरे मोतीमहल में लेखकों की आमोदर बढ़ने लगी। एक दिन मैंने कमलेश्वर को मुँह पोंछते हुए रेस्तरां से निकलते देखा। मुझे लगा, सुरेन्द्र प्रकाश अब मोतीमहल का ज़्यादा दिन का मेहमान नहीं है। वह इस काम के लिए पैदा भी न हुआ था। कुछ ही दिनों बाद खबर लगी कि वह मोतीमहल से अलग हो गया है। वह टी-हाउस में नियमित रूप से दिखायी देने लगा। बलराज मेनरा से उसकी अदावते फित्री थी। अक्सर दोनों में फिक्रःबाज़ी चलती।
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)
दिलचस्प है....बस निवेदन है इसे श्रृंख्लाबढ़ थोड़ा ओर छोटा करके पेश करे
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