संस्मरण ग़ालिब छुटी शराब रवींद्र कालिया (पिछले अंक से जारी…) वर्ष भर में ‘भाषा' के दो-तीन अंक ही निकल पाते थे। वास्तव में सरक...
संस्मरण
ग़ालिब छुटी शराब
रवींद्र कालिया
वर्ष भर में ‘भाषा' के दो-तीन अंक ही निकल पाते थे। वास्तव में सरकारी प्रेसों के पास नोट छापने का ही इतना अधिक काम था कि शिक्षा मंत्रालय का काम उन की अन्तिम प्राथमिकता पर रहता। ‘भाषा' राजकीय प्रेस नासिक से मुद्रित होती थी और मुद्रण के दौरान ‘भाषा' से सम्बद्ध हर आदमी अंक छपवाने नासिक जाना चाहता था। ज़्यादातर लोग तृतीय श्रेणी में नासिक जाते थे और सरकार से प्रथम श्रेणी का मार्ग व्यय वसूल करते थे। ‘भाषा' के मुद्रण कि सिलसिले में एक बार मैंने भी नासिक यात्रा की थी, उसका ज़िक्र आगे कहीं करूंगा। फिलहाल भाषा के अभी वे अंक प्रकाशित होने थे, जो तब से प्रेस में धूल चाट रहे थे जब हमारा पद विज्ञापित भी न हुआ था। ऐसी वस्तुस्थिति में समझ में नहीं आता था कि हम करें तो क्या करें? कभी-कभार डाक से कोई नयी रचना प्राप्त होती तो हम लोग भूखे शेर की तरह उस पर टूटते, जैसे किसी दुकान में बहुत दिनों के बाद कोई ग्राहक आया हो। हम लोग रचना के भाग्य का फैसला करने में जुट जाते। उस रचना की फाइल चल निकलती और अन्ततः अस्वीकृत के साथ डिस्पैच क्लर्क के पास पहुँच जाती। ‘भाषा' में अयाचित रचनाएँ प्रायः नहीं छपती थीं। उस में तमाम भारतीय भाषाओं को स्थान दिया जाता था। कई रचनाएँ तो हिन्दी के साथ-साथ मूल भाषा में भी प्रकाशित होती थीं। प्रतिष्ठित रचनाकारों की ही इतनी रचनाएँ प्राप्त हो जातीं कि बहुत सी अच्छी रचनाओं को भी स्थान न मिल पाता। उन दिनों दिल्ली में संघर्षशील लेखकों की लम्बी जमात थी, जो अपने को ‘फ्री लांसर' लेखक कहते थे। ये लोग ऐसी पत्रिकाओं के कार्यालयों का चक्कर काटते रहते, जिन से पारिश्रमिक मिलने की गुंजाइश रहती। जगदीश चतुर्वेदी की कोशिश रहती कि ‘फ्री लांसर' लेखकों की मदद होती रहे। सरकार ने जैसे ज़रूरतमंद लेखकों की आमदनी का एक स्रोत खोल दिया था। मगर यह एक ऐसा स्रोत था कि अक्सर सूखा पड़ा रहता।
दफ़्तर में हम लोगों का समय न कटता। हम लोग काम करना चाहते थे, मगर काम नहीं था। उन्हीं दिनों सरकार ने यह जानने के लिए सरकारी दफ़्तरों का सर्वेक्षण करवाया कि मंत्रालय में स्टाफ ज़्यादा है या उसकी कमी है। निदेशालय के अफ़सरों को जैसे काम मिल गया। प्रत्येक इकाई से स्टाफ का लेखा जोखा माँगा गया। केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय से रिपोर्ट भेजी गयी कि स्टाफ की कमी से राष्ट्रभाषा की प्रगति का कार्य बाधित हो रहा है। ‘भाषा' के लिए भी नये पद सृजित किये गये, जबकि वर्तमान स्टाफ ही दफ़्तर में उबाइयाँ लेकर राष्ट्रभाषा के उन्नयन में अपना अमूल्य योगदान दे रहा था। प्रगति मैदान में दफ्तर गया तो मुझे और जगदीश को अलग कमरा मिल गया हम लोग अन्दर से सिटकनी लगाकर ग्यारह बजे तक सो जाते। नींद न आती तो साहित्य सेवा करते। दफ़्तर में स्टेशनरी भी इफरात में उपलब्ध थी। जगदीश चतुर्वेदी इतनी रफ़्तार से कविताएँ लिखता था कि प्रायः नोट शीट कम पड़ जातीं। वह एक बैठक में दर्जनों कविताएँ लिख मारता। अकविता का दौर था, वह जो कुछ भी लिखता उसे कविता की संज्ञा दे देता। वह अकविता का आशुकवि था। उसकी रचनाएँ नर नहीं मादा पर केन्द्रित रहतीं। समाज में व्याप्त शोषण, अन्याय, असमानता, भ्रष्टाचार उस की रचना का विषय नहीं थे, वह नारी के ‘उन कठिन दिनों' के बारे में ज़्यादा चिन्तित रहता। औरत उसके लिए सिर्फ मादा थी। उसने हिन्दी कविता को नितांत नयी शब्द सम्पदा दी। जगदीश बहुत कल्पनाशील था, उसके साथ समय बिताना बहुत आसान था। जेठ की न खत्म होने वाली दोपहरी में मैं अत्यन्त मासूमियत से उससे पूछता कि क्या कभी उसने चलती रेल गाड़ी में पे्रम किया है तो वह सिगरेट सुलगा कर एक लम्बा कश खींचता और शुरू हो जाता- रात की गाड़ी से मैं इन्दौर से ग्वालियर जा रहा था, फर्स्ट क्लास के कूपे में हमदोनों का आरक्षण था। उसे ‘जिन' और ‘लाइम कार्डियल' का चस्का था। ज्योंही ट्रेन खुली मैंने उसे बाहों में भींच लिया वह ट्रेन से ग्वालियर के लिए चलता और रास्ता भूल जाता। ट्रेन अचानक बम्बई की तरफ़ दौड़ने लगती। निदेशालय में कुछ इसी शैली में होता रहता था राष्ट्रभाषा के उन्नयन का कार्य। किसी केबिन में कामुक अधिकारियों का कच्चा चिट्ठा खोला जाता। गोयल के पास एक दिलचस्प किस्सा था कि कैसे एक चपरासी दफ़्तर के बाद डिप्टी डायरेक्टर के कमरे से एक महिला कर्मचारी की शलवार ले कर फरार हो गया था और कैसे शलवार की फाइल खुल गयी वगैरह-वगैरह। इस पर भी समय न कटता तो हम लोग बाहर धूप में जा बैठते। लंच का समय हो जाता तो मिल कर लंच करते। सहकर्मियों के टिफ़िन से मेरा भी काम चल जाता। मुझे एम0 एल0 ओबेराय के यहाँ के पराँठे बहुत पसन्द थे और जगदीश के टिफ़िन की सूखी तरकारी, खोसा मेरे लिए घर से हरी मिर्च लाता। लंच से लौटकर बोरियत का दौर शुरू होता। जगदीश कविताएँ लिख-लिख कर थक जाता तो कहानी लिखने लगता। वह खूब सेक्सी कहानियाँ लिखता। भाषा पर उसका ज़बरदस्त अधिकार था। वह कमर से नीचे की कहानियाँ लिखता। उसकी कहानियों से पापी पेट नदारद रहता। वह किसी लम्बी चौड़ी सामाजिक समस्या से न जूझता था, उसे छह फुट जमीन भी दरकार न थी, वह मात्र डेढ़ इंच को लेकर परेशान रहता। उसी डेढ़ इंच के लिए उसके पात्र मर्मांतक पीड़ा में से गुजरते, लगता कि वे एक दिन मानसिक सन्तुलन खो बैठेंगे। कहानी लेखन के लिए जगदीश को ज़्यादा समय न मिलता, क्योंकि दोपहर बाद लेखकों का आना जाना शुरू हो जाता। कुछ लोग तो रोज़ आते थे। वहीं कुर्सी पर बैठे-बैठे वह किसी न किसी प्रकाशक को भी पटा लेता। बाद में ‘प्रारम्भ' निकालने की योजना बनी तो उसका पूरा समय उसी में जाने लगा। नये-नये कवियों को लगा कि इस पीढ़ी को भी अपना सच्चिदानन्द हीरानन्द मिल गया है। ‘प्रारम्भ' प्रकाशित हुआ तो ‘धर्मयुग' में पूरे पृष्ठ की समीक्षा छपी। दफ़्तर में दिन भर कवियों का तांता लगा रहता। जगदीश चतुर्वेदी ने बताया कि पण्डित सूर्यनारायण व्यास ने बचपन में उसके लिए भविष्यवाणी कर दी थी कि जातक की ख्याति दिगन्त तक पहुँचेगी। अभी हाल में मुझे यू0 के0 से हिन्दी समिति का एक परिपत्र मिला है, जो शीघ्र ही इक्कीसवीं सदी के स्वागत में आप्रवासी भारतीय साहित्य का अनूठा संकलन प्रकाशित करने जा रही है। परिपत्र पढ़कर मुझे लगा कि पंडित सूर्यनारायण व्यास ने पचास साल पहले जान लिया था कि इस संकलन की भूमिका सुविख्यात साहित्यकार जगदीश चतुर्वेदी लिखेंगे।
दिल्ली में टी-हाउस हमारा दूसरा घर था। जैसे दफ़्तर के बाद घर लौटते हैं, हम टी हाउस लौटते। पहुँचते ही चरणमसी ठंडा-ठंडा पानी पिलाता। हम लोगों ने बस का पास घर से दफ़्तर तक नहीं, दफ़्तर से रीगल तक बनवाया हुआ था, बीच में आठ घंटे के लिए दफ़्तर उतर जाते। घर से हम यही सोचकर निकलते थे जैसे टी हाउस जा रहे हैं। रात को अन्तिम बस से हम लोग अपने-अपने घर लौट जाते। लौटते में उर्दू कथाकार बलराज मेनरा का किंग्ज़ कैम्प तक साथ रहता। बाद में जब मैं दिल्ली से मुम्बई पहुँचा तो भारतीजी ने मुझ से टी हाउस पर एक रेखाचित्र लिखने के लिए कहा। ‘धर्मयुग' के सन् 65 के स्वाधीनता विशेषांक में वह प्रकाशित हुआ था। यहाँ उसे उद्धृत करना अप्रासंगिक न होगा।
मेरा एक कलाकार मित्र हमदम टी-हाउस पर एक पेंण्टिग करना चाहता था। उसका विचार था कि टी-हाउस के चरित्र का सबसे प्रमुख तत्व टी-हाउस का शोर है और शोर को रेखाओं में बांधना मुश्किल काम है, खासकर उस शोर को, जिसकी ध्वनियाँ अलग-अलग न की जा सकें, जो मछली बाज़ार या सट्टा बाज़ार के शोर से आश्चर्यजनक रूप से साम्य रखते हुए भी उस शोर से भिन्न हो। टी-हाउस के एक पुराने पापी ने सुझाया कि टी-हाउस का सही चरित्र पेश करना हो तो टी-हाउस की छत पर गिद्धों, चीलों, छिपकलियों, कौओं आदि को लटकते हुए दिखाया जा सकता है। एक और अनुभवी व्यक्ति ने सुझाया कि टी-हाउस के शोर को कहानी-बम के विस्फोट के रूप में पकड़ा जा सकता है। मुद्राराक्षस ने कहा कि कौन कहता है टी-हाउस में शोर होता है, टी-हाउस में तो मौत का-सा सन्नाटा रहता है.....जगदीश चतुर्वेदी ने उसी समय ‘हाइकू' लिख दिया, टी-हाउस एक कब्रगाह है......, बलराज मेनरा ने, जो पिछले बारह वर्षों से आंधी, पानी, तूफान और बुखार में भी टी-हाउस जाना नहीं भूलता, पेरिस के कुछ काफी हाउसों का हवाला देते हए सवाल किया, यह शोर बडा़ मानीखेज है। सार्त्र इसी शोर की पैदावार है और किसी ने कामू को काफी हाउस में बोलते नहीं सुना तो कुछ नहीं सुना है। पेरिस में काफी हाउस न होते तो
बलराज मेनरा की बात गलत नहीं है। यद्यपि दिल्ली का यह टी-हाउस बेजोड़ है, इसकी तुलना पेरिस के कैफे डि ला सिविलाइज़ेशन, कैफे डि ला पेक्स और न्यूयार्क के ‘कैफे ला मेट्रो' से अवश्य की जा सकती है। यहाँ आपको सार्त्र और कामू भी मिल सकते हैं, गिन्सबर्ग और पीटर आर्लवस्की भी। टी-हाउस का सार्त्र टी-हाउस में नहीं घुसेगा अगर उसे मालूम हो जायगा कि टी-हाउस का कामू टी-हाउस में बैठा है। टी-हाउस का हेमिंग्वे फिशिंग नहीं करता, बुलफाइट में भी उसकी रुचि नहीं है, वह केवल उन पाठकों-आलोचकों-सम्पादकों का डट कर मुकाबला करता है, जो उसकी रचनाओं का सही मूल्यांकन नहीं करते। मगर टी-हाउस का हेमिंग्वे इतना क्रूर नहीं है, आपको उसकी रचना पसन्द आ गयी तो फिर आपको कॉफी (मय सैण्डविचेज) की चिन्ता नहीं, डिनर की भी चिन्ता नहीं, बियर अथवा जिन की भी चिन्ता नहीं। आपकी ये चिन्ताएँ हेमिंग्वे की चिन्ताएँ हैं। इस बात को टी-हाउस का हर व्यक्ति जानता है। शायद यही कारण है कि बहुत से लोग निःसंकोच खाली जेबों से टी-हाउस चले आते हैं। खाली जेबें, पागल कुत्ते और बासी कविताएँ ले कर
शाम को पांच साढ़े पांच बजे जब सरकारी दफ़्तरों में छुट्टी होती है, तो ढेरों सरकारी कर्मचारी दिन भर का लेखन पोर्टफोलियो में रखे, टी-हाउस की ओर भागते नजर आते हैं। बहुत से सरकारी अफसर, जिनकी कई कारणों से साहित्य में रुचि है, शाम को दफ़्तर से लौटते हुए बहुत से लेखकों, नीम-लेखकों और प्रशंसकों को अपने साथ टैक्सी में भर लाते हैं। टी-हाउस की रौनक और गहमागहमी की एक वजह यह भी है कि हर व्यक्ति अपने साथ पूरी टीम रखता है। जो व्यक्ति अपनी टीम नहीं बना पाता, वह श्रीकान्त वर्मा की तरह टी-हाउस के बुक-स्टाल पर पत्रिकाएँ पलटकर या सिगरेट खरीदकर ही लौट जाता है या ओमप्रकाश दीपक (अब दिवंगत) की तरह टी-हाउस के एक कोने में अपने परिवार के साथ कॉफी पीता नज़र आता है। टी-हाउस में बैठे हुए भी टी-हाउस से अछूता या वह निर्मल वर्मा की तरह दोपहर में टी-हाउस आयेगा या जैनेन्द्र कुमार की तरह बहुत जल्दी उसे टी-हाउस से वितृष्णा हो जायेगी।
छह बजते-बजते सभी टीमें मैदान में उतरी नज़र आती हैं। कप्तानों के चेहरों पर जलाल आता जाएगा और वे बढ़-बढ़कर कॉफी का आर्डर देते जायेंगे। जब तक कप्तान बिल अदा नहीं कर देंगे, टीमें निष्ठापूर्वक कप्तान के प्रवचन सुनती रहेंगी, वाह-वाह करेगी, कप्तान की पुरानी रचनाओं का हवाला देंगी और हर बात की हां में हां मिलायेंगी। कप्तान नया कहानीकार है तो नयी कहानी, युगबोध, युगचेतना, भावबोध और युगसंत्रास का सशक्त माध्यम है। कप्तान कवि है तो कविता। कप्तान कथाकार है तो कहानी, अभिव्यक्ति का युगानुकूल एकमात्र ‘जैनुइन' माध्यम है। कप्तान सम्पादक है तो उसकी पत्रिका हिन्दी की एकमात्र साहित्यिक पत्रिका है और उसका हर बच्चा राजा-बेटा है, उसके रेडियो की आवाज़ बहुत सुरीली है, उसके घर के पर्दे उसकी सुरुचि का परिचय देते हैं। शायद यही कारण है कि बहुत से फ्री लांसर परिश्रम करने के बावजूद कप्तान-पद प्राप्त करने में असमर्थ रहते हैं और टी-हाउस में जलजीरा (अब कांजी भी) पीने की लत डाल चुके हैं। वे अपनी टीम भी नहीं जुटा पाते, क्योंकि जलजीरा और कांजी का आकर्षण टीम-भर लोगों को नहीं खींच पाता। आपातकालीन स्थिति में या मन्दी के दिनों में इक्के-दुक्के विश्विद्यालय के छात्रों की बात अलग है।
टी-हाउस में वह क्षण अविस्मरणीय होता है, जब बैरा बिल लेकर यमराज की तरह सहसा उपस्थित हो जाता है। जो लोग क्षण के इस तनाव को झेल नहीं पाते, वे उठकर टायलट की तरफ चले जाते हैं या दूसरी टेबुल पर। कुछ लोग बैरे को देखते ही जेबें टटोलनी शुरू कर देते हैं और तब तक टटोलते रहते हैं, जब तक कि बिल अदा नहीं हो जाता। कुछ घबराहट में सिगरेट सुलगा लेते हैं या माचिस से खेलने लगते हैं और कुछ बैठे रहते हैं चुपचाप, ‘बैरे की ओर से मुँह फेरे'। यह तो हुआ बिल अदा करने से पहले का तनाव। अब उस वक्त का जायजा लीजिए, जब आर्डर प्लेस होने वाला हो :
टी-हाउस की मेज़ों पर चारों गिर्द शोर
केवल खाली गिलासों की बेतरतीब लकीर
मेरे आस-पास बैठे दोनों दोस्त
काफी का आर्डर देते हुए
भयभीत से काफी बोर्ड का विज्ञापन
देख रहे हैं।
उन्हें डर है
कि कहीं मैं भी काफी पीने की हामी न भर दूँ
उनकी जेबों में हैं चन्द सिक्के,
वैसे वे रोज टी-हाउस में बैठते हैं।
सार्त्र, कामू, विस्की के पैग,
पिकासो की पेनिंग
कहानियों का एब्स्ट्रैकशन
राजकमल प्रकाशन से मिले अनुवाद
सभी पर ये बात करते हैं
(बैरा दो बार बारह गिलास पानी रख जाता है)
नरेन्द धीर (प्रारम्भ)
यह सच है कि कुछ लोग टी-हाउस में केवल पानी पीने के लिए ही आते हैं। पानी टी-हाउस के बाहर भी मिलता है, मगर दो नये पैसे में, और फिर वहाँ बैठने का भी कोई इन्तज़ाम नहीं है। कुछ लोग टी-हाउस में रचनाएं सुनाने के लिए ही आते हैं, रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में भी प्रकाशित होती हैं, परन्तु पत्रिकाओं में इन लोगों का विश्वास नहीं रहा। इनके मुताबिक इनकी रचनाएं ‘अत्याधुनिक' होती हैं और सम्पादकों के पल्ले नहीं पड़तीं। एक वक्त आता है, ये सम्पादकों की चिन्ता छोड़ देते हैं और अपना छोटा-मोटा प्रकाशनगृह खोल लेते हैं या किसी जेबी पत्रिका के प्रकाशन की व्यवस्था कर लेते हैं। कुछ लोग टी-हाउस में केवल ठहाके लगाने आते हैं। ठहाका टी-हाउस में बहुत जल्दी लगता है जैसे पेट्रोल को आग या कहानी को ‘वाद'। ठहाका किसी बात पर लग सकता है। कोई व्यक्ति चुप बैठा है। ठहाका। कोई व्यक्ति बोल रहा है। ठहाका। किसी व्यक्ति ने बिल अदा किया है। ठहाका। कोई टी-हाउस में घुसा। ठहाका। कई बार ठहाकों की साहित्यिक प्रतियोगिता भी हो जाती है। यदि टी-हाउस में मोहन राकेश (अब दिवंगत) के ठहाके गूँज रहे होंगे, पुराने कहानीकार या अन्य कहनीकार उतने ही ज़ोर से ठहाका लगायेंगे कि कहीं मोहन राकेश के ठहाकों का यह अर्थ न लगा लिया जाए कि नयी कहानी चढ़ती कला में है। ऐसी प्रतियोगिता ज़्यादा देर नहीं चल पाती, क्योंकि टी-हाउस का प्रबंधक कुछ अमनपसन्द आदमी है। वह कुछ देर तो कोने में खड़ा ठहाके थमने की प्रतीक्षा करता रहेगा, फिर निराश होकर ठीक उसी मेज़ के पीछे खड़ा हो जायेगा और शान्तिपूर्ण वातावरण के लिए अपील करेगा। कई बार उसकी अपील का आश्चर्यजनक रूप से असर होता है और कई बार इसी को लेकर एक नये ठहाके या झगड़े की शुरुआत हो जाती है। इस झगड़े की सम्भावना ज़्यादा रहती है, अगर मेज़ के आसपास डॉक्टर रामकिशोर द्विवेदी या सुरेन्द्र मल्होत्रा बैठे हों। डॉक्टर रामकिशोर द्विवेदी टी-हाउस का फेमिली डॉक्टर है। कमलेश्वर से लेकर बालस्वरूप राही तक सभी उसके मरीज हैं और डॉक्टर का ख्याल है कि ठहाके अच्छे स्वास्थ्य के लिए बहुत ज़रूरी होते हैं, वह प्रेस्क्रिप्शन के साथ दर्जन दो दर्जन ठहाके भी लिख देता है। डाक्टर तो खैर कई बार अपने खास ‘मूड' में होता है, मगर सुरेन्द को प्रबंधक की बात पर तब गुस्सा आता है जब वह समोसे, पकौड़े और मसाला दोसा खाने के बावजूद ठहाके लगाने के अपने अधिकार को छिनते हुए पाता है और उसे पता होता है कि टेबुल-भर का बिल उसे ही चुकाना है। कुछ लोगों पर इस झगड़े का यह असर होता है कि वे टी-हाउस में दुबारा न आने का प्रण करके टी-हाउस का त्याग कर देते हैं। यह दूसरी बात है कि कुछ ही देर के बाद वे दुबारा टी-हाउस में घुसते नज़र आते हैं। ऐसा प्रण यहाँ के हर व्यक्ति ने किया है, किसी ने उपन्यास लिखने के लिए तो किसी ने वक्त के सदुपयोग के लिए, किसी ने यों ही देखा-देखी। ऐसे बहुत से लोग मिलेंगे, जिनका पाँच बजे दरियागंज में या करौल बाग में या माडल टाउन में टी-हाउस आने का कोई इरादा नहीं था, मगर छह बजे वे टी-हाउस में कॉफी पीते (?) नज़र आयेंगे।
टी-हाउस में लड़कियाँ नहीं आती, पत्नियाँ आती हैं, कभी-कभी ही। कोई लड़की आती भी है कभी-कभार, तो अपने मां-बाप के साथ, सहमी-सकुचायी। शायद यही वजह है कि कनाट-प्लेस के प्रत्येक रेस्तराँ के सामने वेणियाँ और गजरे बेचने वालों की भीड़ टी-हाउस के बाहर नहीं मिलेगी। टी-हाउस के बाहर रेलिंग के साथ-साथ ठण्डा जल या ईवनिंग न्यूज या पेन बेचने वाले ही मिलेंगे या फिर जूते पालिश करने वाले, जो अक्सर मंदी की शिकायत करते हैं। टी-हाउस के मुख्य प्रवेश द्वार के बिल्कुल साथ एक पान वाला बैठता है, जो चरणमसी की तरह एक तरह से पूछ-ताछ विभाग का काम करता है और ‘उधार मुहब्बत की कैंची है' में जिसका दृढ़ विश्वास होता जा रहा है। वह किसी भी समय बता सकता है कि नागार्जुन टी-हाउस कब आने वाले हैं, राकेश टी-हाउस में बैठे हैं या जा चुके हैं, रमेश गौड़ (दिवंगत) को कहीं से पारिश्रमिक आया या नहीं, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना (दिवंगत) कब से कनाट-प्लेस नहीं आये, जगदीश चतुर्वेदी की नयी योजनाएं क्या हैं, जवाहर चौधरी, अजित कुमार और डॉ0 अवस्थी टी-हाउस कम क्यों आते हैं, प्रयाग शुक्ल ‘रानी' से अलग क्यों हो गये या ‘दस कहानियाँ' का नया अंक कब आने वाला है? यह सच है कि उन लोगों के बारे में उसकी जानकारी हमेशा अपर्याप्त होती है, जिन लोगों को उसका उधार चुकाना होता है। उदाहरण के लिए, वह कहेगा कि श्री ‘क' कई दिनों से कनाट-प्लेस की तरफ़ नहीं आ रहे हैं, जबकि श्री ‘क' दूसरे दरवाजे से रोज़ टी-हाउस आते हैं और दूसरे दरवाजे से ही रोज वापस भी जाते हैं। दरअसल टी-हाउस के तीनों दरवाजे अलग-अलग अर्थ रखते हैं। तीसरा दरवाजा एक साथ किचन, टायलट और ‘वेजेटेरियन' में ले जाता है। जब कोई व्यक्ति बहुत देर तक तीसरे दरवाज़े से वापस न आये, तो इसका सीध-सादा एक ही अर्थ होता है कि वह ‘वेजेटेरियन' में बैठा ‘स्टफ़्ड परांठा' खा रहा है। दूसरों के सिगरेट और दूसरों की कॉफी पीकर परांठा खाने या सुस्ताने के लिए ‘वेजेटेरियन' से बेहतर और कोई जगह नहीं हो सकती।
टी-हाउस में कभी-कभी दंगा भी हो जाता है। यह दंगा शराब के नशे में भी हो सकता है और मण्टो की किसी कहानी को लेकर भी। दंगे यहाँ आतिशबाज़ी की तरह फूटते हैं और कुछ क्षण बाद आतिशबाज़ी की तरह ही ठण्डे भी हो जाते है। ज़्यादा नुकसान नहीं होता। किसी मेज का कोई शीश टूट जाता है या किसी दीवार पर कोई गिलास। किसी के मुँह पर तमाचा पड़ता है और कोई तमतमा कर रह है जाता है या दाँत पीस कर। इसके बावजूद टी-हाउस एक सुरक्षित जगह है। महानगर का अकेलापन इस हद नहीं है कि कोई अकेला पड़ा कराहता रहे। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो किसी के भी साथ किसी भी वक्त सहायतार्थ अस्पताल या थाने जा सकते हैं। एक प्रतिष्ठित लेखक (मोहन राकेश) पर किसी अराजक तत्व ने हमला कर दिया था तो टी-हाउस एकदम खाली हो गया था। सभी भाषाओं के लेखकों के झुण्ड के झुण्ड प्रधानमन्त्री लालबहादुर शास्त्री के बंगले पर पहुँच गये थे और लेखकों का शिष्टमण्डल उनसे मिला था। एक कहानी के एक क्रुद्ध पात्र ने जनपथ के पास एक लेखक (खाकसार) की पिटाई कर दी और लेखक घायल हो गया था, टी-हाउस के दोस्तों की भीड़ रात देर तक इर्विन अस्पताल बैठी रही थी और सुरेन्द्र प्रकाश ने कई लिटर पेट्रोल खर्च कर हमलावार पात्र को ढूँढ निकाला था। मगर यह ज़रूरी नहीं कि कि क्रुद्ध पात्र ही टी-हाउस आते हैं, कभी-कभी टी-हाउस में प्रशंसक भी आते हैं और अपने प्रिय लेखक तथा उसके प्रिय मित्र को हैम्बर्गर या मसाला दोसा खिलाकर या काफी पिलाकर लौट जाते हैं। यह दूसरी बात है कि टी-हाउस में मिलने वाला प्रशंसक, प्रशंसक नहीं रहता और दुबारा टी-हाउस भी नहीं आता।
टी-हाउस के बारे में बहुत किंवदन्तियां प्रचलित हैं। जैसे, ‘फांसी पाने वाले एक व्यक्ति ने टी-हाउस में कॉफी पीने की अन्तिम इच्छा प्रकट की थी और उसे टी-हाउस लाया गया था।' ‘नयी कहानी का जन्म टी-हाउस में हुआ था।' ‘हमदम अब तक टी-हाउस में कॉफी के पाँच-हज़ार प्याले पी चुका है।' ‘अमुक का टी-हाउस में प्रेम हुआ था और अमुक ने अपनी पत्नी को तलाक देने का अन्तिम निर्णय टी-हाउस में किया था।' ये किंवदन्तियां ‘नये मुसलमानों' को आकर्षित करने के लिए फैलायी जाती हैं।
इस सब के बावजूद राजधानी में टी-हाउस की वजह से जितनी जागरूकता और चेतना है, वह शायद ही अन्यत्र मिले। क्रिकेट मैच हो रहे हों, तो टी-हाउस का हुजूम टी-हाउस के पीछे रेडियो सेट से सटा हुआ आँखों-देखा विवरण नजर सुनता नजर आयेगा। इसी दुनिया को हुसेन, रामकुमार और सतीश गुजराल की कला प्रदर्शनियों में भी देखा जा सकता है और लेडी हार्डिंग कालेज के सामने के मैदान में हाकी या फुटबॉल का मैच देखते हुए भी, साहित्य अकादमी में भी और ‘नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा' के किसी रंगमंच के आसपास भी। दिल्ली में फिल्म फेस्टिवल हो रहा था, तो टी-हाउस के लोगों ने आकस्मिक और अर्जित छुट्टियाँ ले ली थीं। वियतनाम और अल्जीरिया, क्यूबा और कांगो टी-हाउस में चर्चाओं का विषय रहते हैं। राजधानी में सबसे अधिक साहित्यिक पत्रिकाएं टी-हाउस के स्टाल पर ही बिकती हैं। इसी माहौल की वजह से टी-हाउस के बैरे तक साहित्य में गहरी दिलचस्पी लेने लगे हैं। चरणमसी तो कविताएँ करने लगा है। ‘उदास रहता है चरणमसी' उसकी नयी कविता है। टी-हाउस में कोई भी रचना ‘अननोटिस्ड' नहीं जाती, वह चाहे किसी चक्रलिखित पत्रिका में क्यों न प्रकाशित हुई हो।
टी-हाउस बाहर से बाहर आने वाले रचनाकारों को आकर्षित करता है। यशपाल दिल्ली आयें तो टी-हाउस अवश्य आयेंगे। अश्क, भगवती बाबू, अज्ञेय, डॉ0 भारती, राजेन्द्रसिंह बेदी, कृष्ण चन्दर, डॉ0 मदान, रमेश बक्षी, दुष्यन्त कुमार, शानी,(सब दिवंगत) कुन्तल मेघ, लक्ष्मीकान्त वर्मा, ओंकारनाथ श्रीवास्तव, कीर्ति चौधरी, कुंवर नारयण, भीष्म साहनी, गिरिजाकुमार माथुर, राजकमल चौधरी, नामवर सिंह, दूधनाथ, ज्ञानरंजन, शरद देवड़ा, विष्णु प्रभाकर, भारतभूषण अग्रवाल, राजीव सक्सेना, विमल, परेश, ममता, नेमिचन्द्र जैन, अनामिका, नरेश सक्सेना, गोपाल उपाध्याय, हरिवंश कश्यप, लल्ला, शेरजंग गर्ग, आदि बहुत से लेखक घंटों टी-हाउस में बैठे हैं। संसद के अधिवेशन के दिनों में लोहिया को भी टी-हाउस में देखा जा सकता है।
यह थी दिल्ली के साठोत्तरी साहित्यिक परिदृश्य की एक झलक। अब न कनाट-प्लेस में टी-हाउस रहा है और न वह साहित्यिक माहौल। अनेक रचनाकार भी इस जहान में नहीं रहे।
केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय में अनेक साहित्यिक थे- सुरेश अवस्थी, कुलभूषण, श्याममोहन श्रीवास्तव (दिवंगत), जगदीश चतुर्वेदी, शेरजंग गर्ग, रमेश गौड़, ख्वाजा बदीउज़्ज़मा (दिवंगत) आदि आदि। कुछ ही दिनों में मैंने महसूस किया, आदि आदि लोग छपने-छपाने वाले साहित्यकारों से बहुत जलते थे। दिल्ली में पूरा दिन दफ़्तर और टी-हाउस में बीतता। उन दिनों टी-हाउस जानदार था।
टी-हाउस का उन्मुक्त वातावरण कई बार दफ़्तरी जीवन में उलझनें पैदा कर देता था। दफ़्तर के अफसर लेखक यह मानकर चलते थे कि साहित्य में भी हम उनके मातहत हैं। उन दिनों ‘ज्ञानोदय' के किसी अंक में हिन्दी रंगमंच के सम्बन्ध में ‘अश्क' का एक लेख छपा था, जिसमें एक अधिकारी के लेख की कड़ी आलोचना की गयी थी। जगदीश चतुर्वेदी, श्याममोहन श्रीवास्तव, शेरजंग गर्ग तथा मैंने उस लेख की प्रशंसा करते हुए अश्कजी को एक संयुक्त बधाई पत्र भेजा। अश्कजी ने हम लोगों के पत्र का खूब प्रचार किया और हर मिलने वाले से उन्होंने हमारे संयुक्त पत्र का इतना ज़िक्र किया कि एक दिन शाम को साढ़े चार बजे के करीब अधिकारी के कमरे में हमारा संयुक्त पत्र उपस्थित हो गया। नरेश मेहता ‘इति नमस्कारन्ते' करके अधिकारी के कमरे से निकले ही थे कि उनका चपरासी यमदूत की तरह मेरे सिर पर खड़ा हो गया। साहब का बुलौआ आया था। अधिकारी महोदय प्रायः कुरसी पर बैठने का इशारा किया करते थे। उस दिन वे खुद तो रिवाल्विंग चेयर पर और अधिक पसर गये और मुझे खड़ा रखा।
‘अश्क जैसे बेहूदा आदमी के पास आप हमारी ‘कान्फिडेन्शल रिपोर्ट' लिखते हैं। मुझे तो दफ़्तर में ही लिखनी हैं।
बात समझने में मुझे देर न लगी। जब से कहानियां छपने लगी थीं, नौकरी को हम कोई बहुमूल्य वस्तु नहीं समझते थे। एक औसत अफ़सर की तरह सुरेश अधिकारी को इसका आभास तक न था। मैंने कहा, ‘दफ़्तर के बारे में तो किसी ने अश्कजी को कोई बात नहीं लिखी।'
‘मैं क्या दफ़्तर में नहीं हूँ?'
‘दफ़्तर में आप लेखक की हैसियत से तो नहीं हैं।'
‘मुझे लेखक की हैसियत से ही घर पर फोन मिला है।' अधिकारी ने कहा, ‘आप रोज़ टी-हाउस क्यों जाते हैं?'
‘दफ़्तर के बाद ही जाता हूँ।' मैंने कहा।
‘मगर मुझे पसन्द नहीं। आप वहाँ भी मेरे बारे में रिमार्क पास करते होंगे।'
मुझे लगा निहायत बेवकूफ अफसर से पाला पड़ गया है।
‘आप मुझे टी-हाउस जाने से नहीं रोक सकते।' मैंने कहा और उनकी बुद्धि पर हैरान होने लगा। उनके तमाम मित्र मेरे भी अग्रज मित्र थे। राकेश, नामवर, नेमिचन्द्र जैन, कमलेश्वर, यादव। वे मेरे प्रति ऐसा रवैया कैसे अपना सकते हैं। मुझे अपनी कान्फडेन्शल रिपोर्ट की ज़रा भी चिन्ता न थी। नया खून था, कोई भी जोखिम उठाने को तैयार था। अधिकारी महोदय दफ़्तरी स्तर पर एक मातहत को जितना भी परेशान कर सकते थे, उन्होंने किया। मैं तो उनकी चंगुल से निकल गया, मगर बेचारा श्याममोहन ठीक उनके यूनिट में होने के कारण ज़्यादा तकलीफ पा गया। मुझे आज लगता है, श्याममोहन की अकाल मृत्यु के लिए कहीं-न-कहीं ऐसे दफ़्तरी राक्षसों का नपा-तुला योगदान जरूर है। अफसरों की ऐसी ही कुण्ठाएं मुझे लेखकीय स्तर पर हमेशा पे्ररित करतीं।
एक-दो बार मुझे अधिकारी महोदय के साथ कन्द्रीय सचिवालय में जाने का अवसर मिला और मैंने पाया कि सचिव (श्री आर0 पी0 नायक) के सामने अधिकारी महोदय कितने दयनीय, कितने चापलूस, कितने निरीह हो जाते थे। मगर यह वही अधिकारी थे, जो मेरे ‘धर्मयुग' में पहुँचने पर बम्बई आये तो अपने सब कुकर्मों का प्रायश्चित-सा करते हुए मेरी किसी कहानी का नाम याद न आने पर मेरी नयी बुश्शर्ट की ही तारीफ़ करने लगे। उन्हें शायद आभास नहीं था कि ‘धर्मयुग' के उपसम्पादक की हैसियत भारतीजी ने प्रूफरीडर से भी कमजोर कर रखी थी। उनको इसका एहसास होता तो शायद मुझे पहचानने की भी कोशिश न करते। उस रोज़ उन्हें सत्यदेव दुबे आदि कुछ रंगकर्मियों से मिलने जाना था तो मुझे भारतीजी से छुट्टी दिलवा कर अपने साथ ले गये। बाद में उन्होंने बहुत अच्छा भोजन भी कराया।
मैंने उसी दफ़्तर में रहते हुए अफसरों की कुण्ठित मनोवृत्तियों पर ‘दफ़्तर', ‘इतवार नहीं', ‘थके हुए', आदि कहानियाँ लिखीं और आश्चर्य की बात तो यह है कि वे कहानियाँ न केवल निदेशालय में बल्कि सचिवालय में भी चाव से पढ़ी गयीं।
उन दिनों ‘नई कहानी' आन्दोलन अपने शबाब पर था। राकेश, कमलेश्वर और यादव हिन्दी कहानी के महानायक थे। मेरा हमदम, मेरा दोस्त का ज़माना थ। यह तो बाद में स्पष्ट हुआ, कुछ राकेश की डायरियों से कुछ और वक्त की करवटों से कि कोई किसी का हमदम था, न दोस्त। न नयी कहानी के स्वानामधन्य महानायक। बहरहाल उन दिनों उस त्रयी की ही तूती बोलती थी। दिल्ली की तेज़ रफ़्तार जिन्दगी, टी-हाउस का चस्का, कहानी में जुनून की हद तक दिलचस्पी, कभी-कभार किसी सम्पन्न लेखक अथवा किसी साहित्यानुरागी रईस की दिल्ली आमद पर मयनोशी का उत्तेजक दौर, बहुत जल्द मैं इस नये माहौल में घुलमिल गया। लिखने का ऐसा जुनून था कि कितना भी थका हारा कमरे में लौटता, लिखे बगैर नींद न आती। कई कहानियाँ तो मैंने दफ़्तर और टी-हाउस से थके हारे लौट कर लिखीं। ‘बड़े शहर का आदमी', ‘त्रास', अकहानी आदि ऐसी ही लिखी कहानियाँ हैं। मदिरापान तीज त्योहार पर ही होता था, इस लत के बगैर भी ज़िन्दगी मज़े में कट रही थी। उन दिनों राजकमल चौधरी ने भी अपने स्तर पर धूम मचा रखी थी। वह लगातार गद्य और पद्य की रूढ़ियाँ तोड़ रहा था। लेसिबियनिज़्म पर शायद उसने हिन्दी में प्रथम उपन्यास लिखा था। वह बहुत बेबाक भाषा में लिखता था। दिल्ली आता तो हमारे साथ दफ़्तर और टी-हाउस में काफी समय बिताता। उसकी छवि एक आवारा, शराबी-कबाबी और गैरज़िम्मेदार शख्स की बन गयी थी, जबकि वह बातचीत में अत्यन्त शालीन और सौम्य लगता था। हिन्दी में गिंज़बर्ग आदि के प्रभाव में वह भूखी पीढ़ी के रचनाकार के रूप में विख्यात था, जबकि मैं उसे प्यासी पीढ़ी का रचनाकार कहा करता था। वह सुबह से ही दारू के जुगाड़ में लग जाता और शाम तक कोई न कोई आसामी पटा लेता। इसी सिलसिले में उसकी दोस्ती उर्दू के अदीबों और शायरों से हो गयी थी। उर्दू के शायरों को आसानी से कद्रदाँ मिल जाते थे। एक दिन शाम को सलाम मछलीशहरी का एक ऐसा कद्रदाँ मिला कि वह टैक्सी भर रचनाकारों को पिलाने अपने होटल में ले गया। मुझे भी उस टैक्सी में राजकमल की सिफ़ारिश से स्थान मिल गया। मगर रास्ते में मैंने रवीन्द्रनाथ टैगोर पर कोई ऐसी टिप्पणी कर जो कि राजकमल को बहुत नागवार गुज़री और वह तिलमिला गया। उसने बहस में न पड़ कर सरदार पटेल मार्ग की एक सुनसान सड़क पर टैक्सी रुकवायी और मुझे जंगल में उतार दिया। उस समय मुझे इससे बड़ी सज़ा नहीं दी सकती थी। टी-हाउस तक पैदल लौटते हुए मेरी टाँगे अकड़ गयीं। मुझे जानकर बहुत हैरत हुई कि वह रवीन्द्रनाथ टैगोर का अनन्य भक्त था, जबकि लोग उसे परम्परा से कटा हुआ मूल्यविहीन लेखक मानते थे। लोग क्या, मैं खुद भी ऐसा ही सोचता था।
दिल्ली में शराब के ही चक्कर में एक बार मैं कुमार विकल से भी पिटा था। कुमार पर संस्मरण लिखते समय मैंने इस प्रसंग का ज़िक्र किया है। जिन दिनों कुमार का विवाह हुआ, मेरी कहानी ‘नौ साल छोटी पत्नी' प्रकाशित हुई थी। किसी दिलजले ने कुमार के मन में यह भ्रम पैदा कर दिया कि यह कहानी मैंने उसके दाम्पत्य जीवन पर लिखी है, जबकि सच तो यह है, मुझे आज तक मालूम नहीं हुआ कि कुमार की पत्नी उससे कितने साल छोटी थी। कुमार ने आव देखा न ताव, यह सुनते ही हिसाब चुकाने दिल्ली की तरफ़ चल पड़ा। दिल्ली में मुझे खोज निकालना बहुत आसान काम था, क्योंकि सब मित्रों को मालूम था कि दफ़्तर से छूटते ही हम लोग- जगदीश चतुर्वेदी, रमेश गौड़, शेरजंग गर्ग- सीधे टी-हाउस जाते थे । हम लोग ‘टी-हाउस' में इत्मीनान से काफी पी रहे थे कि अचानक कुमार विकल प्रकट हुआ। हम सब लोगों ने उसे विवाह की शुभकामनाएँ दीं। कुछ देर बाद वह मुझ अलग ले गया और बोला ‘मेरी शादी हुई है, तुम्हारी कहानी छपी है, चलो आज जश्न हो जाये, मैंने बहुत अच्छा प्रबन्ध किया है।' उसके साथ नरेन्द्र धीर थे। मैं तुरन्त राज़ी हो गया। अभी हम लोग ‘टी-हाउस' के बाहर मैदान में पहुँचे ही थे कि अचानक उसने मेरे मुँह पर एक जानदार झापड़ रसीद किया। मैंने जीवन में पहली बार पहला और आखिरी झापड़ खाया था, उसका आनन्द ही न्यारा था, यानी मेरी आँखों के सामने अँधेरा छा गया। एक ही झापड़ में कई काम हो गये। चश्मा टूटकर नीचे गिर गया, होंठ कई जगह से कट गया, नाक से खून बहने लगा।
‘यह कहानी लिखने का मुआवज़ा है।' कुमार ने कहा। मैं कुमार की आशंकाओं से बेखबर था। मेरे कपड़े खून से लथपथ हो गये थे। कुमार अपना काम करके चलता बना। मैं किसी तरह ‘टी-हाउस' पहुँचा। बाहर उर्दू के अफसानानिगार सुरेन्द्र प्रकाश मिल गये। सुरेन्द्र प्रकाश को अभी दो-चार बरस पहले साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला है। उसने मेरी हालत देखी तो मुझे बलराज मेनरा के हवाले कर कुमार की तलाश में निकल गया। वह कुमार से इतना ख़फा था कि अगर कुमार मिल जाता तो ग़ज़ब हो जाता। यह अच्छा ही हुआ कि उसे कुमार नहीं मिला। वह सब सम्भावित पर उसकी तलाश कर आया था। दोस्तों ने अस्पताल में मेरी प्राथमिक चिकित्सा करायी। वहीं अस्पताल में ‘टाइम्स ऑफ इण्डिया' के ‘क्राइम रिपोर्टर' से भेंट हो गयी ।उसने बहुत आग्रह किया कि मैं पुलिस में प्राथमिकी दर्ज़ कराऊँ और वह एक चटपटा समाचार जारी करे ः ‘पात्र द्वारा लेखक की पिटाई, लेखक अस्पताल में' मैंने मना कर दिया, क्योंकि मैं जानता था, कुमार ने किसी के उकसावे में आकर ही यह कार्यवाही की होगी। अगले रोज़ दोस्तों ने बताया, इस घटना के बाद वह रातभर फूट-फूटकर रोता रहा था।
वास्तव में वह आवारगी, मयनोशी, उद्देश्यहीनता, उदासी और नैराश्य का दौर था। इसी सब के बीच एक कहानीकार के तौर पर पहचान बन रही थी। राकेश मुम्बई से दिल्ली आ गये थे, उस बीच दिल्ली में मैंने कभी राकेश को मदिरापान करते नहीं देखा। शायद उन्होंने मयनोशी से तौबा कर ली थी, उस बीच मैंने उन्हें बियर तक पीते नहीं देखा। कई बार यह भी लगता था कि उन्होंने मुझ से एक दूरी बना ली है। शाम को कई बार उनके यहाँ जाना हुआ, उन्हें चाय की चुस्कियाँ लेते ही पाया। वह उन दिनों डब्ल्यू0 ई0 ए0 करोलबाग में रहने लगे थे। ऊपर के फ़्लैट में, जिसे दिल्ली की भाषा में बरसाती कहा जाता है, कमलेश्वर रहते थे। राकेशजी की जीवन शैली में मैं गुणात्मक परिवर्तन देख रहा था। दूसरी पत्नी से मुक्ति पाकर वह अनिता औलक के साथ रहने लगे थे। उन दिनों वह जमकर लिख रहे थे, शायद अपने उपन्यास ‘अंधेरे बंद कमरे' पर काम कर रहे थे। वह नियमित रूप से लेखन करते और उनसे समय लेकर ही मिला जा सकता था। उनका कॉफ़ी हाउस जाना भी कम हो गया था। वह दिल्ली के मेरी पहचान के अकेले रचनाकार थे जो कभी बस में यात्रा नहीं करते थे, मैंने उन्हें हमेशा टैक्सी या स्कूटर से ही उतरते देखा। उनके घर पर फोन लग गया था। आप का जाने का समय होता तो वह टैक्सी स्टैण्ड फोन करके टैक्सी मंगवा देते, बगैर इस बात पर ध्यान दिये कि आप की जेब टैक्सी की इजाज़त दे रही है या नहीं। दो एक बार तो मुझे अजमलखाँ रोड पर ही टैक्सी छोड़कर बस की कतार में लग जाना पड़ा। मालूम नहीं वह ऐसा क्यों करते थे। सहज रूप से करते थे या दण्ड देने के लिए। वैसे दण्ड देना उनके स्वभाव में नहीं था। एक बार तो ऐसा अवसर आया कि उनकी उपस्थिति में मुझे अकेले ही पीनी पड़ी। उम्मीद थी कि वह साथ देंगे, मगर उन्होंने मना कर दिया। अब सोचता हूँ तो याद नहीं पड़ता कि मैंने कभी दिल्ली में उनके साथ मदिरापान किया हो। वह अध्याय जालंधर में ही समाप्त हो गया था।
मोहन राकेश की अंगुली पकड़ कर मैंने साहित्य में पदार्पण किया था। उन्हीं मोहन राकेश से समय के अन्तराल के साथ इतनी दूरियाँ आ जाएँगी, इसकी मैंने कल्पना भी न की थी। राकेश पर लम्बा संस्मरण लिखते समय भी मैंने सम्बन्धों की काफ़ी पड़ताल की थी, आत्मविश्लेषण भी किया था, उनसे आमने-सामने बातचीत भी की थी। अब मुझे लगता है कुछ बातें ऐसी होती हैं, जिन पर किसी भी संवेदनशील आदमी के लिए बात करना सम्भव ही नहीं होता। आज सोचता हूँ तो लगता है यह उनका बड़प्पन था। उस समय मुझे उन बातों की गम्भीरता का एहसास भी न था। मुझे लगता है, उनके स्थान पर अगर मैं होता तो शायद ज़्यादा आहत महसूस करता। मेरा इरादा उन्हें आघात पहुँचाने का नहीं था, शायद यही वजह थी कि कोई अपराध बोध नहीं था। आज भी नहीं है। अफसोस यही है कि वह हमारे बीच नहीं हैं वरना उनके आमने सामने गुब्बार निकाल सकता था। यहाँ मैं उन चंद घटनाओं का खुलासा करना चाहता हूँ, जिनके बारे में वह मेरा स्पष्टीकरण भी नहीं मांग सकते थे। सिर्फ़ देखी-अनदेखी कर सकते थे।
उन्हीं दिनों मेरी एक कहानी प्रकाशित हुई थी- ‘पचास सौ पचपन'। वह कहानी दिल्ली के संघर्षशील रंगकर्मियों को केन्द्र में रखकर लिखी गयी थी और उसमें उनके संघर्षमय जीवन का चित्रण था, जो ऊपर से देखने पर ‘कामिक' लगता था, मगर भीतर कहीं करूणा उपजाता था। कहानी में एक आर्टिस्ट था, एक फ्री लांसर और एक प्रोफेसर फ्रीलांसर नेशनल स्कूल आफ ड्रामा में प्रवेश पाने के लिए प्रयत्नशील है। प्रोफेसर फ्री लांसर की तैयारी करवाने में जुट जाता है। विश्व के नाट्यांदोलनों के बारे में जानकारी देता है और उसे ‘आषाढ़ का एक दिन' का एक लम्बा संवाद याद करवाता है। चुन लिए जाने पर फ्री लांसर को दो सौ रुपये प्रतिमाह की छात्रवृत्ति मिल सकती थी। आर्टिस्ट और प्रोफ़ेसर चाहते थे कि उस का चयन हो जाये ताकि कम से कम अपने हिस्से का मकान भाड़ा तो दे सके। उसका चयन हो गया तो वह शराब पीकर चला आया। कहानी में वह कालिदास के संवाद की कुछ ऐसी पैरोडी कर देता है ः
जिस दिन फ्री लांसर को ड्रामा के स्कूल में दाखिला मिला, वह शराब के नशे में धुत लौटा। आते ही उसने प्रोफ़ेसर की नयी बेडशीट पर कै कर दी और देवदास के अन्दाज़ में कालिदास का संवाद दुहराने लगा- ‘लगता है, तुमने अपनी आँखों से इन कोरे पृष्ठों पर बहुत कुछ लिखा है। ये पृष्ठ अब कोरे कहाँ हैं मल्लिका? इनपर एक महाकाव्य की रचना हो चुकी है। अनंत सर्गों के एक महाकाव्य की.....। कैसा संवाद है प्रोफेसर, है कि नहीं एकदम फर्स्ट क्लास। प्रोफ़ेसर, क्या अब समय नहीं आ गया है कि हम तीनों अपनी अपनी प्रेमिकाओं को लेकर बुद्धजयंती पार्क चलें और टैक्सी में चलें।'
संवाद यहीं खत्म नहीं होता, उसे कहानी में और आगे बढ़ाया गया था, ‘घबरा क्यों रहे हो दोस्त, तुम्हारी शीट खराब हो गयी? तुम नहीं जानते, इस पर महाकाव्य की रचना हो चुकी है..... अनंत सर्गों के महाकाव्य की....बोलो कब चलोगे बुद्धजयंती पार्क?' फ्री लांसर नशे में बुदबुदाता है।
यह कहानी मैंने उन दिनों लिखी थी जब राकेशजी से मेरे मधुरतम सम्बन्ध थे। यकीनन मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी होगी, जो मैंने ‘आषाढ़ का एक दिन' से संवाद उद्धृत कर दिया था। दरअसल मेरे पास नाटक की दूसरी पुस्तकें उस समय उपलब्ध नहीं थीं, ‘आषाढ़ का एक दिन' सहज उपलब्ध था, मैंने उसी से संवाद उठा लिया। इसके पीछे कोई सुनिश्चित सोच, दुर्भावना अथवा विद्वेष नहीं था, महज़ मासूमियत और नादानी थी। कहानी में स्थितियाँ ऐसी थीं कि यह संवाद व्यंजनार्थ देने लगा। परोक्ष रूप से भावनात्मक भाषा पर भी कटाक्ष के रूप में उभरने लगा। उस वक्त मैंने इस पक्ष पर ध्यान नहीं दिया और कहानी छप गयी। ‘आषाढ़ का एक दिन' अपने भाषा संस्कारों के लिए बहुत प्रंशसित हुआ था, मैं खुद मुरीद था उसकी भाषा का, मगर मेरी कहानी में यह भाषा बहुत हास्यास्पद बन कर उभर आई। पात्र ही कुछ इस रूप में विकसित हो गया था। बहुत बार ऐसा होता है कि पात्र आपके हाथ से निकल जाता है और खुद अपनी मंजिलें तय करने लगता है। मुझे नहीं मालूम, राकेशजी की इस पर क्या प्रतिक्रिया हुई होगी। उन्होंने कभी इस का ज़िक्र भी न किया। उनकी इसी शाइस्तगी का मैं कायल था।
ऐसी ही एक अन्य पेचीदा परिस्थति में भी मैं अनायास उलझ गया था। बगैर पृष्ठभूमि जाने इसे समझना मुश्किल होगा। उन दिनों हमारा कार्यालय दरियागंज में ‘गोलचा' के सामने वाली इमारत की पहली मंजिल पर था। आजकल उसके नीचे होम्योपैथिक दवाओं और पत्र-पत्रिकाओं की दुकानें हैं। माडल टाउन से दफ़्तर जाने के लिए मैं सुबह नौ नम्बर की बस पकड़ता था। दफ़्तर जाने वाले हर व्यक्ति की बस तय होती थी। बस की कतार में रोज़ जाने पहचाने चेहरे दिखाई देते थे। चेहरे से हर कोई एक-दूसरे को पहचानता था। बस आज़ादपुर से बन कर आती थी, माडल टाउन की सवारियों को आराम से बैठने की जगह मिल जाती थी। अक्सर सीट भी निश्चित रहती थी। मैं खिड़की के पास वाली सीट पर बैठना पसंद करता था, बाहर देखते हुए यात्रा आसानी से कट जाती थी। एक दुनिया बस के भीतर होती थी और एक बाहर। जिस दिन खिड़की वाली सीट न मिलती थी, बस के भीतर की दुनिया से परिचय हो जाता था। नौजवान आदमी सबसे पहले महिला यात्रियों का जायज़ा लेता है। कोई खूबसूरत चेहरा दिख गया तो यात्रा सफल हो जाती थी। किंग्जवे कैम्प से एक लड़की रोज़ बस पकड़ती थी। कहाँ जाती थी, नहीं मालूम। मैं दरियागंज उतरता तो उसे मेरी सीट मिल जाती। वह एक खुशनुमा चेहरा था। उसके बालों पर अक्सर स्कार्फ बंधा रहता, जिससे उसका चेहरा और खिल जाता। वह एक ऐसा चेहरा था, जो आपको याद रह जाए। ऐसी लड़कियों के बारे में यही सोचा जा सकता था कि वह आपके पहलू में बैठ जाए तो कितना अच्छा हो। मुझे प्रायः ऐसा मनहूस सहयात्री नसीब होता था जो दरियागंज से भी आगे जाता था। वह लड़की सट कर हमारी सीट के पास खड़ी हो जाती। वह क्या करती है , कहाँ जाती है, मुझे मालूम नहीं था, मगर इतना मालूम हो चुका था, उसके पास कई स्कार्फ हैं। जिस दिन वह दिखाई न पड़ती तो बस यात्रा नीरस हो जाती। दो एक बार ऐसा भी हुआ कि वह कतार में लगी है मगर उसे बस में जगह न मिली। मुझे बहुत अफ़सोस होता और मैं सोचता कि यह बेवकूफ लड़की वक्त पर घर से क्यों नहीं निकलती। एक दिन बस ने ऐसा झटका लिया कि वह लड़की गिरते-गिरते बची। मैं खड़ा हो गया और अपनी सीट उसे पेश कर दी। मुझे दफ़्तर में दिन भर बैठे-बैठे सरकारी कुर्सी ही तोड़नी थी। दफ़्तर में बहुत से लोगों ने मेज़ के साथ जंजीर से अपनी कुर्सी बाँध रखी थी। दिन भर लेखकों रचनाकारों का आना जाना लगा रहता था। हाल में जो कुर्सी खाली होती, हम लोग चपरासी से मंगवा लेते। जब से कुर्सी बाँधने का चलन हुआ हमारे लेखकों को बहुत असुविधा होने लगी। जब कोई लेखक बंधु आता, जगदीश चुतुर्वेदी और मैं रचनाएं हटाकर मेज़ पर बैठ जाते और मेहमान को कुर्सी पर यानी सिर आँखों पर बैठाते। दो से ज़्यादा आगन्तुक हो जाते तो हमलोग कुर्सी के पीछे अपना कोट टांग कर कैंटीन में जा बैठते। तब तक कोट हम लोगों की उपस्थिति दर्ज करवाता रहता।
स्कार्फ वाली महिला ने कृतज्ञता से मेरी तरफ देखा और मेरी सीट पर बैठ गयी। उसका चेहरा एकदम तनाव मुक्त हो गया। मैंने सोचा यह छोटी से खुशी तो मैं इस महिला को रोज़ प्रदान कर सकता हूँ। मेरी समस्या का भी निदान हो जायगा, दिन भर दफ़्तर में बैठे-बैठे टाँगें अकड़ जाती थीं। स्कार्फ वाली महिला के उदास और क्लांत चेहरे को देख कर मैं अक्सर अपनी सीट से उठ जाता।
एक दिन सुबह-सुबह स्कार्फ वाली वह महिला मेरे घर पर चली आई। जाड़े के दिन थे। सुबह-सुबह चाय का भी कोई इन्तज़ाम न था। छुट्टी के रोज तो मैं बी ब्लॉक में ही सत सोनी अथवा कृष्ण भाटिया के यहाँ चाय पी आता, दफ़्तर वाले दिन यह सम्भव नहीं था। प्रायः पहला कप मैं दफ़्तर जाकर ही पीता। मकान मालिक कुछ इस अन्दाज़ से आकाशवाणी के समाचार सुनता कि लगता कोई मुनादी हो रही है। अभी समाचारों का प्रसारण शुरू नहीं हुआ था कि मेरे कमरे पर किसी ने दस्तक दी। मैं रजाई में दुबका हुआ था, दस्तक को अनसुनी कर गया। अक्सर मकान मालिक अखबार में अपराध की कोई घटना पढ़कर इतना उत्तेजित हो जाता था कि मुझे जगा देता। जाने क्यों उसे लगता कि अगली आपराधिक घटना उसी के साथ होने वाली है। मैं उस का इकलौता किरायेदार था, मगर किरायेदारों के बारे में उसकी राय बहुत खराब थी। वह अक्सर शंका प्रकट करता कि अगर कोई किरायदार अचानक एक दिन का आकस्मिक अवकाश लेकर मालिक मकान की पत्नी के साथ गुलछर्रे उड़ाता रहे तो मालिक मकान को इसकी कानों-कान खबर न होगी। उसका दृढ़ विश्वास था कि किसी का कोई भरोसा नहीं रहा है । मैं उसे बीच-बीच में आश्वस्त करता रहता कि मैं एक निहायत शरीफ इन्सान हूँ और उसके दफ़्तर जाने से पहले ही दफ़्तर चला जाता हूँ और रात को अन्तिम बस से लौटता हूँ।
‘आकस्मिक अवकाश तो कोई भी ले सकता है' वह कहता, ‘जमाना बहुत खराब है।'
‘यह तो है।' पीछा छुड़ाने के लिए मैं उसकी हाँ में हाँ मिलाता।
दरवाजे पर थोड़ी देर बाद फिर दस्तक हुई। मैं अनिच्छापूर्वक रजाई से निकला और दरवाजा खोला।
सामने स्कार्फ वाली युवती खड़ी थी। सहसा मुझे विश्वास न हुआ, लगा कोई सपना देख रहा हूँ। आँखे मलते हुए मैंने दुबारा उसकी तरफ देखा। वही थी। पश्मीने के सफे़द शॉल में लिपटी हुई, सिर पर स्याह रंग का स्कार्फ था।
‘मैं अन्दर आ सकती हूँ?' उसने अत्यन्त शालीनता से पूछा। ‘आइये-आइये।' मैंने कहा और कमरे की एकमात्र कुर्सी से कपड़े लत्ते, पत्र पत्रिकाएँ उठा कर उसके लिए जगह बनायी, ‘तशरीफ रखें।'
वह महिला बैठ गयी। मैं भी खाट पर बैठ गया।
‘मुझे रवीन्द्र कालिया से मिलना है।'
‘कहिए।'
‘आप ही रवीन्द्रजी हैं।'
‘जी।' मैंने पूछा, मैं आपकी क्या खिदमत कर सकता हूँ?'
मुझे लगा, सुबह-सुबह अपने यहाँ इस महिला को देखकर जितना आश्चर्य मुझे हो रहा था, उससे ज़्यादा ही उस महिला को हो रहा था। शकल सूरत से वह मुझे पहचान रही थी मगर नाम से नहीं।
‘मैं मोहन राकेश की पत्नी हूँ।' उसने कहा।
मैं जैसे आसमान से गिरा। मैंने कल्पना भी न की थी कि वह महिला शादीशुदा होगी। माँग में सिन्दूर देखा था न पैर में बिछिया। मुझे हिसार में ही खबर लग गयी थी कि मोहन राकेश का अपनी पत्नी से तालमेल नहीं बैठा था और सम्बन्ध विच्छेद की नौबत आ चुकी थी। दोनो अलग-अलग रह रहे थे। तब तक राकेशजी के जीवन में तीसरी लड़की आ चुकी थी और वह जल्द से जल्द तलाक लेकर इस रिश्ते से मुक्त हो जाना चाहते थे। राकेश उन दिनों मानसिक यन्त्रणा के निकृष्टतम दौर से गुज़र रहे थे। उनसे कभी-कभार टी-हाउस में मुलाकात हो जाती थी और उनकी परेशानियों को देखते हुए माजी से भी मिलने न जा पाता था । वह अपनी सुरक्षा को लेकर भी चिन्तित रहते थे। कुछ ही दिन पहले करोल बाग में कुछ अराजक तत्वों द्वारा उन पर आक्रमण भी हुआ था, जिसके सम्बन्ध में ओप्रकाश जी के नेतृत्व में लेखकों का एक प्रतिनिधि मंडल तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री से भी मिला था। मैं भी उस शिष्टमंडल में शामिल हुआ था। कॉफ़ी हाउस में उस समय जितने लेखक बैठे थे, ओमप्रकाशजी (राजकमल प्रकाशन) सब को टैक्सी में भर कर प्रधानमंत्री आवास पर ले गये थे। शास्त्रीजी ने अपने बंगले के मैदान में टहलते हुए लेखकों की बात सुनी थी और आवश्यक निर्देश दिये थे। वह बार-बार एक ही सवाल पूछ रहे थे कि एक लेखक पर कोई हमला क्यों करेगा? राकेशजी को शक था कि उनके साले लोग यह काम करवा सकते हैं। मोहन चोपड़ा से यह तवक्को नहीं की जा सकती थी, वह राकेश के परम मित्र रहे थे। संयोग से दयानंद कालिज हिसार में वह मेरे सहकर्मी रहे थे। वह अंग्रेजी विभाग के शायद अध्यक्ष थे और मैं हिन्दी विभाग में था। यह जानते हुए भी कि मैं मोहन राकेश का छात्र रहा हूँ और हिन्दी कहानी में मेरी गहरी दिलचस्पी है, मोहन चोपड़ा ने कभी दोस्ती को हाथ नहीं बढ़ाया था। सिलसिला दुआ सलाम से आगे नहीं बढ़ा। मोहन चोपड़ा की विशेषता यह थी कि उन की कहानियाँ सिर्फ़ ‘कहानी' में छपती थीं और उनकी पुस्तकों का प्रकाशन भी एक ही प्रकाशन विशेष से होता था। मैंने कभी उनकी पुस्तक की समीक्षा भी न पढ़ी थी। जितनी बार मैंने उनसे राकेश की बात करनी चाही, उन्होंने दिलचस्पी न दिखाई।
‘राकेश मेरे गुरू हैं, दिल्ली में तो वही मेरे लोकल गार्जिन हैं। मैंने एक ही सांस में उस महिला से कहा,' ‘इस पूर्व मैं हिसार में था। डी0 ए0 वी0 कालिज में मोहन चोपड़ा भी मेरे कोलीग थे।'
वह सहसा खड़ी हो गयी, ‘चलती हूँ।'
‘नहीं,आप चाय पीकर जाइए।' मैंने केतली उठाई और बगैर उसके उत्तर की प्रतीक्षा या अपेक्षा किये कमरे से बाहर निकल गया। ऐसे मौकों के लिए मैंने अल्युमिनियम की एक केतली खरीद रखी थी ताकि घर आये पाहुन को कम से कम बाज़ार से लाकर चाय पिलायी जा सके। उस महिला को अचानक कमरे में देखकर जो रोमांच हुआ था, वह दहशत में बदल गया। राकेशजी ने मुझे अपनी पत्नी के असामान्य व्यवहार के बारे में बहुत सी बातें बता रखी थीं। यहाँ उन बातों का उल्लेख करना मुनासिब न होगा, मगर इतना बताना गैरज़रूरी न होगा कि बाहर आकाश मैं आकर मुझे लगा जैसे मैं किसी आतंकवादी को चकमा देकर भागने में सफल हो गया हूँ। मुझे विश्वास था, कि जब तक मैं कमरे में वापिस लौटूँगा, मेरा मालिक मकान सूँघते हुए कमरे में पहुँच चुका होगा। बाहर अखबार वाला बड़ी फुर्ती से घरों में अखबार वितरित कर रहा था। यह भी एक अच्छा शगुन था। अखबार आते ही मेरा मालिक मकान बाहर बरामदे में कुर्सी डाल कर अखबार पढ़ा करता था। उस समय चाय वाला खुद ही चाय पी रहा था और ढाबे के आसपास कुछ अवकाश प्राप्त बुजु़र्ग सुबह की सैर से लौट कर अखबार का एक-एक पन्ना लेकर अखबार पढ़ रहे थे। जब तक चाय तैयार होती मैं कामना करता रहा कि मेरे कमरे में लौटने से पहले ही वह महिला जा चुकी हो। मेरे दिमाग में लगातार उस महिला की छवि बदल रही थी, जैसे आजकल कम्प्यूटर से एनीमेशन होता है, आदमी अचानक भालू बन जाता है या शेर से फिर आदमी, आदमी से डायनासोर । राकेश की बातों से जितने बिम्ब बन सकते थे मेरे दिमाग में वे, तमाम कौंध कौंध गये।
मैं चाय लेकर पहुँचा तो मकान मालिक सचमुच बरामदे में अखबार पढ़ रहा था, कमरे में वह युवती कुर्सी का हत्था पकड़े अस्त-व्यस्त सी खड़ी थी। मुझे देखते ही उसने कहा, ‘चाय नहीं पिऊँगी। मैं जाऊँगी।' मैंने भी अनुरोध करना उचित न समझा। उसे गेट तक छोड़ आया। आकर दुबारा रजाई में दुबक गया। आधे घंटे की नींद बाकी रह गयी थी। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि कि वह मेरे कमरे में क्यों आई थी, अगर उसे मेरा नाम मालूम नहीं था तो उसने मेरे घर का पता कैसे लगाया। लेटे-लेटे मैंने इतना ज़रूर तय कर लिया कि अब उस बस से दफ़्तर नहीं जाया करूँगा। सत सोनी दम्पती पहले स्टाप पर जाकर एक्सप्रेस बस पकड़ा करते थे, मैंने भी भविष्य में उसी बस से दफ़्तर जाने का निश्चय कर लिया।
शाम को राकेशजी से भेंट हुई तो मैंने शुरू से आखिर तक सारा किस्सा बयान किया। राकेश ने थोड़ा सिर झुका कर चश्मे के भीतर से मर्मभेदी निगाहों से मेरी तरफ देखते हुए सारी बात तफ़सील से सुनी। यह उनका ख़ास अन्दाज़ था।
‘अव्वल तो वह अब दुबारा नहीं आयेगी।' राकेशजी ने कहा, ‘अगर आये तो गेट से बाहर ही मना कर देना। पिछले दिनों वह ओम्प्रकाश (राजकमल प्रकाशन) से भी मिलने गयी थी, उसे उनके चरित्र पर कीचड़ उछालने का मौका मिल गया था।'
मैंने सहमति से सिर हिलाया।
‘मेरे बारे में कुछ कह रही थी?'
‘उसने किसी के बारे में कुछ भी नहीं कहा। कोई शिकायत की न शिकवा। मुझे देखते ही बोली, मैं अब जाऊँगी।' मैंने बताया।
बात आई गयी हो गयी। उसके बाद वह मुझे दो-एक बार अलग-अलग जगहों पर दिखायी दी। छुट्टी के एक दिन वह चाँदनी चौक में दिखाई दी थी। मैं दोस्तों के साथ एक ढाबे पर छोले भटूरे का नाश्ता चल रहा था कि वह बगल की मेज़ पर आकर बैठ गयी। हम दोनों की निगाहें मिलीं, मगर दोनों में किसी के भी चेहरे पर पहचान का भाव न आया। उसने पहले पानी पिया, उसके बाद कोक और चली गयी। वह पहले से दुबली लग रही थी और उदास। आँखें ऐसी वीरान जैसे अभी-अभी सारा जहान हार के चाँदनी चौक चली आई हो। राकेश तब तक सामान्य हो चुके थे और अनीता के साथ रहने लगे थे। एक बार वह कनाट प्लेस में दिखायी दी। जाड़े के दिन थे, वह ‘वोल्गा' से निकली थी। उसने कोई गर्म कपड़ा नहीं पहन रखा था, सिर से स्कार्फ भी गायब था। माँग के दोनों ओर के बाल पक गये थे। छाती पर दोनों बाहें कसे वह कांपती हुई पास से निकल गयी।
मुझे बहुत खराब लगा। समझ में नहीं आ रहा था कि वह गर्मकपड़े पहन कर घर से क्यों नहीं निकली। मुझे लगा, वह ‘मैसोकिस्ट' है, अपने को पीड़ा दे रही है या राकेश से सम्बन्ध विच्छेद के बाद प्रायश्चित कर रही है। कुछ दिनों से दिल्ली में शीत लहर चल रही थी, हर कोई गर्म कपड़ों से लदा फदा घर से निकलता था। रात को मैं कमरे में पहुँचा तो उसकी ठिठुरन मेरे भीतर कंपकपी पैदा करती रही। सोने से पहले मैंने एक कहानी लिख डाली-‘कोज़ी कार्नर'। वह एक तलाकशुदा पत्नी के अकेलेपन की कहानी थी, देवर के माध्यम से कही गयी :
‘मैंने उसकी तरफ देखा, उसने कोई गर्म कपड़ा नहीं पहना था। वायॅल की सफ़ेद साड़ी उसने अपनी देह पर उतनी ही लापरवाही से लपेट रखी थी, जिस लापरवाही से बाल बाँधे थे और उनका जूड़ा बनाया था। वह माँग नहीं निकालती थी, माँग की जगह के दो तीन बाल पक गये थे। दो साल पहले, जनवरी में वह गहरे पीले रंग का इटैलियन स्कार्फ़ पहना करती थी, जिस से आजकल भाई साहब जूते साफ़ किया करते हैं......' वह देवर से भाई साहब की गर्लफ्रेंड के बारे में पूछताछ करते हुए अचानक जिज्ञासा प्रकट करती है, ‘तुम्हारे भाई साहब कभी मेरी बात करते हैं?'
‘नहीं ।' मैंने(देवर ने) कहा।'
वह अस्त व्यस्त हो गयी, मुझे लगा, वह रोने लगेगी। बोली, ‘पिछली बार तो तुमने कहा था, वह मेरा नाम सुनकर उदास हो जाते हैं।'
‘मैंने झूठ कहा था।' मैंने कहा, ‘मुझे अफसोस है, मैंने झूठ कहा था। मैंने आप को खुश करने के लिए ऐसा कहा होगा। मैं दूसरों को खुश करने के लिए अक्सर झूठ बोला करता हूँ। मैं शर्मिन्दा हूँ।'
उसने बहुत जल्द अपने को समेट लिया। किसी भी तनाव में उसके ऊपर के होंठ पर पसीना उभरने लगता है। वह स्याही चूस की तरह अपने मैले रूमाल से होंठ थपथपाने लगी।'
कहानी में धीरे-धीरे उसका अकेलापन उभरता है - ‘तम्हें पता है, मैं रात को चिटखनी लगाकर नहीं सोती। मैं दिल के बीट्स गिनती रहती हूँ। मुझे लगता है एक सौ पचासवीं धड़कन पर मेरा हार्ट फेल हो जायगा। मैं डरते हुए एक सौ पचासवीं धड़कन का इन्तज़ार करती हूँ और मुझे अपनी मां की बहुत याद आती है। मुझे लगता है, अगर मेरी मौत हो गयी तो किसी को पता भी न चलेगा और मेरा शव कमरे में ही सड़ जाएगा। मेरे कमरे में बहुत चींटियाँ हैं।'
कहानी लिखकर अगले रोज़ मैंने एक जाहिल की तरह वह कहानी राकेशजी को सौंप दी। वह ‘नयी कहानियाँ' का कोई अंक सम्पादित करने जा रहे थे और उस अंक में मेरी कहानी भी प्रकाशित करना चाहते थे। ज़ाहिर है कहानी की स्थितियाँ उन के जीवन से बहुत साम्य रखती थीं, मुझे आशंका थी, राकेश कहीं नाराज़ न हो जाएँ । मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। एक दिन उन्होंने मुस्कराते हुए बताया कि उन्होंने कहानी पढ़ ली है और वह अपने अंक में उसे स्थान देंगे। इसी बीच मैं मुम्बई चला गया और जहाँ तक मुझे याद पड़ रहा है वह कहानी उस अंक में नहीं छप पायी थी। मेरे पास कहानी की प्रतिलिपि थी, मैंने ‘ज्ञानोदय' में भिजवा दी। अगले ही अंक में वह कहानी प्रकाशित हो गयी। दिल्ली गया तो राकेशजी से कहानी की मूल प्रति भी मिल गयी। उन्होंने प्रेस कापी तैयार कर रखी थी और कहानी का शीर्षक ‘कोज़ी कार्नर' के स्थान पर ‘अंधेरे के इस तरफ़' कर दिया था। सचमुच वह अंधेरे के एक तरफ़ की कहानी थी, वह शायद यह कहना चाहते हों कि अंधेरे की दूसरी तरफ़ भी अंधेरा है।
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)
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