संस्मरण ग़ालिब छुटी शराब रवींद्र कालिया ( पिछले अंक से जारी…) अगर यह कहानी धनराज को केन्द्र में रखकर लिखी गयी थी तो धनराज सचमुच उ...
संस्मरण
ग़ालिब छुटी शराब
रवींद्र कालिया
अगर यह कहानी धनराज को केन्द्र में रखकर लिखी गयी थी तो धनराज सचमुच उतना लापरवाह नहीं था, जितना मैं समझता था। मैं जब दिल्ली से मुम्बई जाने की तैयारी कर रहा था कि जालंधर से सुरेश सेठ का पत्र मिला कि ‘धनराज इस दुनिया से चुपचाप कूच कर गया। शाम को दोस्तों के साथ शराब पीने के बाद वह हस्बेमामूल दोस्तों से हमेशा के लिए विदा लेकर कम्पनी बाग की एक बेंच पर जा बैठा और नींद की कुछ गोलियां फांक लीं। जाडे़ के दिन थे, बेंच पर बैठे-बैठे उसका शरीर अकड़ गया। कयामत के रोज़ वह दिन में हर दोस्त के घर पर भी गया था, तुम्हारे यहाँ भी सुरेश सेठ ने यह नयी सूचना दी थी कि कपिल भी धनराज के रास्ते पर चल निकला है। सुबह-सुबह उसकी जुबान पर एक दो गोली न रख दी जाएँ तो वह हिलडुल भी नहीं सकता, उसके मुँह से फेन निकलने लगता है।
इस तरह नींद की गोलियों ने हमारे पहले दोस्त की बलि ले ली थी। यह एक बुरी शुरुआत थी। काल कपिल के मुँह पर काला चोगा पहना रहा था। बहुत दिन नहीं बीते थे कि कपिल के निधन का भी समाचार मिल गया। दोस्तों में शोक मनाने के लिए विमल, हमदम, सुरेश और मैं रह गये थे। काल को अब अगले शिकार की तलाश थी। उसने शायद तभी शिनाख्त कर कर ली थी। अब तक हम लोगों में हमदम ही ऐसा शख्स था जो नशे से आज़ाद रहता था। वक्त का ऐसा झोंका आया कि हम सब लोग अलग-अलग हो गये। कपिल और विमल रिसर्च के सिलसिले में चण्डीगढ़ चले गये और मुझे डी0 ए0 वी0 कालिज हिसार में नौकरी मिल गयी थी। हमदम का मन भी जालंधर से उचट गया। उसने मुझे पत्र लिखा कि वह जालंधर में नहीं रह सकता, उसने तय किया है कि अब दिल्ली में ही रहेगा, मैं दिल्ली में उसके आवास आदि की व्यवस्था कर दूं। जब तक मैं उसे पत्र लिखता कि एकाएक कुछ नहीं किया जा सकता, वह अपना बोरिया-बिस्तर उठाकर हिसार चला आया। मैं एकदम स्तब्ध रह गया। दिल्ली में उसका कोई परिचित भी न था, पैसे भी किराये लायक थे।
मुझे अभी पहला वेतन भी न मिला था। हमदम को यों लौटाया भी न जा सकता था। मेरी भी कोई ऐसी स्थिति न थी कि उसे दिल्ली में नौकरी दिलवा दूँ या उसके आवास की व्यवस्था कर दूँ। मैं उसका दिल भी नहीं तोड़ना चाहता था। हिसार में वह जल्द ही ऊबने लगा। तब तक हरियाणा का गठन नहीं हुआ था और हिसार एक अत्यन्त पिछड़ा हुआ इलाका था। शहर में रामलीला के अलावा कोई सांस्कृतिक गतिविधि न होती थी। बासी अखबार मिलते थे पढ़ने कि लिए, जबकि दिल्ली से हिसार पहुँचने में सिर्फ़ चार घंटे लगते थे। दम तो मेरा भी घुट रहा था, मगर मेरे पास नौकरी थी। मुझे चण्डीगढ़ बुला रहा था, मैं इस इंतज़ार में था कि विश्वविद्यालय से रिसर्च फेलोशिप मिल जाए तो मैं भी कपिल और विमल से जा मिलूँ। मदान साहब ने आश्वासन दे रखा था।
हमदम ने दिल्ली जाने के चाव में अपना सामान भी न खोला था। कुछ ही दिनों में वह हिसार की रेतीली ज़िन्दगी से इतना बेज़ार हो गया कि उसे जालंधर की याद सताने लगी। जालंधर लौटना अब उसके लिए मुमकिन नहीं था, वह जान पहचान के तमाम लोगों से अन्तिम विदा ले आया था। मेरे कालिज से लौटते ही वह बच्चों की तरह एक ही सवाल बार-बार पूछता, ‘दिल्ली कब चलोगे?'
‘दिल्ली मैं अभी चल सकता हूँ, मगर दिल्ली जाकर खाओगे क्या, रहोगे कहाँ?' मेरी बात सुनते ही उसका चेहरा उतर जाता। दरअसल वह वर्षों से दिल्ली जा बसने का राग अलाप रहा था, मगर मुझे ऐसी आशा नहीं थी कि वह एक दिन अचानक सारा सामान उठाकर यों दिल्ली जाने के लिए हिसार चला आयेगा। बिना पर्याप्त धन और तैयारी के एक बार दिल्ली जाने का खामियाजा मैं भुगत चुका था।
एम0 ए0 की परीक्षा से फ़ारिग होकर मैंने और पृथ्वीराज ने आगरा जाकर ताजमहल देखने की योजना बनायी थी। हम लोग आकाशवाणी के स्टूडियो में बैठकर इस पर चर्चा कर रहे थे कि छुटि्टयों में कहीं घूमने जाना चाहिये। विश्वप्रकाश दीक्षित ‘बटुक' उन दिनों आकाशवाणी में हिन्दी प्रोड्यूसर थे। वह हम लोगों को बीच-बीच में बुक करते रहते थे, कभी वार्ता, कभी कहानी, कभी परिचर्चा में शामिल कर लेते। मुझ पर वह इतने मेहरबान रहते थे कि एक बार सानुरोध मुझसे एक नाटक भी लिखवाया था। उन्हीं दिनों आकाशवाणी के राष्ट्रीय कार्यक्रम में वसंत पर एक कार्यक्रम प्रसारित हुआ था और उस कार्यक्रम के लिए पंजाब के वसन्त पर उन्होंने मुझ से लिखवाया था। उसका अच्छा खासा पारिश्रमिक मिला था।
बटुकजी ने हमारी बात सुनी तो पर्यटन के लिए खूब प्रोत्साहित किया। उन्होंने आगाह किया कि जालंधर में पड़े रहोगे तो कूपमंडूक बन जाओगे। जालंधर में ऐसे लोगों की पहले ही बहुतायात है। शहर से बाहर निकलो, घूमो फिरो, दुनिया देखो, तभी तो लेखक बन पाओगे वर्ना प्रोफेसर सेठी के लौंडे की तरह माई हीराँ दरवाजे को ले कर कहानियां और बर्लटन पार्क को लेकर कविताएं लिखते रहोगे। लेखक के लिए ‘एक्सपोजर' बहुत ज़रूरी है। मोहन राकेश यों ही नहीं भ्रमण करते रहते। तुम लोग दूर नहीं जा सकते तो कम से कम दिल्ली तो देख आओ। ताजमहल न देखा हो तो आगरा घूम आओ। आगरा जाओ तो मेरा भी एक काम करते आना। वहाँ एक रिश्तेदार के यहाँ मेरे दो ट्रंक पड़े हैं, तुम नौजवान लोग हो, वापसी में लेते आना।
अब पर्यटन और ताजमहल देखना हमारी दूसरी प्राथमिकता पर आ गया, पहली प्राथमिकता यह हो गयी कि किसी तरह आगरा से बटुकजी के ट्रंक लाकर उनका विश्वास अर्जित किया जाए। उसी दिन हम लोगों को आकाशवाणी से पचीस-पचीस रुपये के चैक मिले थे। हम लोगो ने तय किया कि इस राशि का बटुकजी को पटाने में निवेश कर दिया जाए और अगले रोज़ घरवालों से किसी तरह इजाजत ले कर हम आगरा के लिए रवाना हो गये। उन दिनों हमारा एक साथी अमृतलाल दिल्ली के स्कूल में अध्यापक हो गया था। उसका पता हमारे पास था। हम लोगों ने तय किया कि दो एक दिन उसके पास रहेंगे, फिर आगरा निकल जाएँगे।
सुबह दिल्ली स्टेशन पर उतरे तो पता चला अमृतलाल स्टेशन से करीब बीस-पचीस किलोमीटर दूर रहता है और वहाँ सीधे कोई बस नहीं जाती। बहुत दौड़ भाग और माथापच्ची करने पर भी बसों का हिसाब किताब समझ में न आया। आखिर ऑटो की मदद लेनी पड़ी। ऑटोवाले ने हमें जी भर कर दिल्ली दिखायी और इतने पैसे झटक लिये कि हमारी सारी अर्थव्यवस्था चरमरा गयी। अमृतलाल मिला मगर वह स्कूल जाने की तैयारी में था। हमें यह भी खबर न थी कि इस बीच उसकी शादी हो चुकी है। उसकी बीवी के पांव भारी थे और वह हम लोगों को देखकर हतप्रभ रह गयी। उसकी सूरत देख कर लग रहा था कि उससे चाय के लिए कहना भी उस पर जुल्म ढाना है। पसीने से उसके माथे की बिंदिया पुँछ गयी थी और एक अपशकुन की तरह लग रही थी। अमृतलाल ने हम लोगों को पानी पिलाया और खुद ही चाय बनाने में जुट गया। पत्नी के लिए भी उसी ने चाय बनायी और पीते हुए उसने दिल्ली की मसरूफ़ ज़िन्दगी को जी भर कर गालियां दी। हमें भी समझते देर न लगी कि हम गलत जगह आ गये हैं। हमें उसकी और उसे हमारी सीमाओं का एहसास हो गया। हम लोगों ने रविवार को फुर्सत से मिलने का वादा कर अमृत लाल ‘अमृत' से विदा ली। उसने जल्दी-जल्दी से बालों पर कंघी की और हमें स्टेशन की तरफ़ जाने वाली बस की कतार में खड़ा करके खुद भी दूसरी बस के इंतज़ार में लाइन में लग गया।
स्टेशन पहुँचकर हम लोग आगरा जाने वाली गाड़ी की खोज खबर में लग गये। हम लोगों ने आगरा पहुँचकर इत्मीनान से ताजमहल देखा। ताज के लान में देर तक हम लोग लेटे रहे। सैलानियों की उम्दा भीड़ थी। लग रहा था, कई ताजमहल ताजमहल देखने आये हुए हैं। देश विदेश के सौन्दर्य की नुमाइश लगी हुई थी। हम कभी चलते फिरते ताजमहल देखते और कभी प्रेम के उस अमर स्मारक को। आगरा में रुकने का कोई ठौर नहीं था। कोई अमृतलाल भी न था वहाँ। बटुकजी ने आगरा का पेठा और नमकीन खरीदने के लिए कुछ पैसे दिये थे और दुकान विशेष से ही ये चीज़ें खरीदने की हिदायत दी थी। हम लोगों ने उनकी हिदायत का पालन किया, उनके रिश्तेदार के यहाँ से दो भारी भरकम सन्दूक उठाये और पहली उपलब्ध गाड़ी से दिल्ली के लिए रवाना हो गये। पूरा दिन-अफरा तफरी में निकल गया था, गाड़ी चलते ही जम कर भूख लगी। जेब में किराये लायक पैसे बचे थे। आखिर हम लोगों ने धीरे-धीरे पेठा और नमकीन खाना शुरू किया। दिल्ली पहुँचते पहुँचते दोनों डिब्बे देने लायक नहीं रह गये। तीन चौथायी पेठा उदरस्थ हो चुका था। पेट में चूहे कूद रहे हों और पास में आगरा का पेठा हो तो भूखे रहना बेवकूफी ही कहा जा सकता था।
वापिस दिल्ली पहुँचे तो हमारे पास सिर्फ़ खाली डिब्बे बचे थे। डिब्बे सुबूत पेश करने के लिए रख लिए ताकि बटुकजी को विश्वास दिलाया जा सके कि हम लोगों ने आगरा से पेठा खरीदा ज़रूर था, मगर पापी पेट की मजबूरी के कारण उन तक नहीं पहुँच सका। टिकट खरीदने की खिड़की पर गये तो पता चला छह सात रुपये कम हैं। हम लोग किसी तरह बगैर टिकट लौट जाते मगर बटुकजी के भारी सन्दूकों के साथ बेटिकट यात्रा में जोखिम दिखायी दे रहा था। प्यास से कंठ सूख रहा था, पृथ्वी ने आठ आने में दो कोकाकोला खरीद लिए। उसके पिता रेलवे में थे, बगैर टिकट यात्रा करने में उसे कोई एतराज न था। उसके चेहरे पर कोई शिकन नहीं था, मेरी हालत पतली हो रही थी। आये दिन अखबारों में पढ़ने को मिलता था कि इतने बेटिकट रेलयात्री जेल भेजे गये। मैं यह जोखिम उठाने को तैयार न था।
दो एक महीने पहले उर्दू मासिक ‘शमा' में मेरी एक कहानी छपी थी। उर्दू में अनुवाद किया था उर्दू के जाने माने कथाकार सत्यपाल आनंद ने। मेरी वह कहानी हिन्दी की तमाम पत्रिकाओं से लौट चुकी थी, सत्यपाल आनंद ने इतना अच्छा अनुवाद किया था कि वह उर्दू में छप गयी। अपनी उस कहानी का कर्ज़ चुकाने के लिए मुझे आनंद की अनेक उर्दू कहानियों का हिन्दी में अनुवाद करना पड़ा। संयोग से वह इधर उधर छप भी गयीं। मैंने उसकी इतनी कहानियों का अनुवाद कर डाला कि लाहौर बुक शाप से, जहाँ आनन्द सम्पादक के रूप में काम करता था, उसका एक कथा संकलन भी छप गया- पेंटर बावरी। शमा से मूल लेखक के रूप में मेरे पास पचास रुपये का मनीआर्डर आया था, जिसकी रसीद मैंने महीनों सम्भाल कर रखी थी। मेरे पास एक कहानी थी, मैंने सोचा अगर ‘शमा' में स्वीकृत हो गयी तो कुछ पैसा मिल सकता है।
बहुत सोच विचार के बाद हम लोग स्टेशन से पैदल ही आसिफ़ अली रोड की तरफ़ चल दिये। अजमेरी गेट से आसिफ़ अली रोड दूर रहीं था। उन दिनों आसिफ़ अली रोड के सामने की पट्टी पर ढाबों की लम्बी कतार थी। हम लोगों ने काग़ज़ कलम खरीदा और ढाबे पर बैठ कर कहानी का उर्दू अनुवाद करने में जुट गये। पृथ्वी धीरे-धीरे कहानी पढ़ रहा था और मैं उर्दू में अनुवाद करता जा रहा था। दो ढाई घंटे की मशक्कत के बाद कहानी पूरी हुई। उस समय तीन बज चुके थे। भूख फिर सताने लगी थी। मन ही मन मैंने तय कर लिया था कि पृथ्वी को बगैर टिकट जाना हो तो जाये, मैं टिकट लेकर ही गाड़ी में बैठूँगा।
हमारे ठीक सामने ‘शमा' का कार्यालय था। किसी तरह साहस जुटा कर हम कार्यालय में घुसे। यूनुस देहलवी ‘शमा' के सम्पादक थ। उनके पास अपने नाम की चिट भिजवायी। माहौल देखकर लग रहा था कि उनसे मुलाकात संभव न होगी। उनके केबिन के बाहर सोफ़े पर बहुत से मिलने वाले इंतज़ार में बैठे थे। मगर आश्चर्य, सबसे पहले हमारा ही बुलावा आ गया। दरबान ने अदब से अन्दर जाने के लिए दरवाज़ा खोल दिया। हम लोगों ने दुआ सलाम की और सामने रखी कुर्सियों पर बैठ गये। मैंने अपना तआरुफ़ दिया कि ‘शमा' में कहानी छप चुकी है, वैसे हिन्दी में लिखता हूँ। उन्होने बताया कि वह हिन्दी में भी ‘शमा' निकालने पर ग़ौर कर रहे हैं। मैंने ‘शमा' की तारीफ़ की। उन दिनो उर्दू के तमाम चोटी के अफ़सानानिगार उस फिल्मी पत्रिका में छपते थे। अब्बास, कृष्णचन्दर, मन्टो, बेदी आदि तमाम लोगों का सहयोग ‘शमा' को प्राप्त था। सत्यपाल आनंद से वह बखूबी परिचित थे। मैंने उन्हें बताया कि हम लोगों को एम0 ए0 का इम्तिहान देने के बाद पहली मर्तबा दिल्ली आने का मौका मिला है, सोचा कि आप का न्याज़ भी हासिल कर लें। उनके यह पूछने पर कि कोई नयी तखलीक लाये हैं, मैंने झट से कहानी उनके हवाले कर दी। यह भी बता दिया कि चूंकि अनुवाद खुद ही किया, रस्मुलख़त की गलतियां हो सकती हैं। वह इतने समझदार सम्पादक और इन्सान थे कि खुद ही कहने लगे, आप लोग दिल्ली आये हैं, कुछ पैसों की ज़रूरत होगी और एकाउंटेंट को बुलवाकर बाइज़्ज़त बतौर पेशगी मुआवजे़ के सौ रुपये दिलवा दिये। हमने शुक्रिया अदा किया और लगभग कूदते हुए नीचे आ गये। तुरन्त चाँदनी चौक के लिए टू ह्नीलर किया। बहुत तेज़ भूख लगी थी, डट कर खाना खाया, बटुकजी के लिए पेठा खरीद कर आगरे वाले डिब्बे में भर दिया और वहीं पुरानी दिल्ली से गाड़ी पकड़ कर जालंधर लौट आये। दिल्ली से जालंधर तक का दो टिकट का किराया बीस रुपये से भी कम था। बटुकजी के सन्दूक नयी दिल्ली स्टेशन के ‘क्लाक रूम' में पड़े थे, वहीं पड़े रह गये। पृथ्वी को विश्वास था कि वह रेलवे के ही किसी कर्मचारी को भेज कर सामान मँगवा लेगा।
जालंधर पहुँचकर हम लोगों ने बटुकजी को चाँदनी चौक वाला पेठा दिया, जिसे चखकर उन्होंने मुँह बिचकाया और बोले कि अब आगरे के पेठे में भी मिलावट होने लगी है। उन्हें यह भी बता दिया कि उनका सामान दिल्ली तक पहुँच गया है और क्लाक रूम में सुरक्षित रखा है। गाड़ी के समय क्लाक रूम बंद था इसलिए ला नहीं पाये, अब पृथ्वी जल्द ही दिल्ली से उठा लायेगा। बाद में बटुकजी के वे दो सन्दूक बवाले जान बन गये। वह जब भी मिलते अपने सामान का रोना ले बैठते। हम लोगों ने आकाशवाणी की तरफ़ रुख करना ही छोड़ दिया। कार्यक्रम मिलता तो मजबूरी में चले जाते और बटुकजी से ज़लील होकर लौटते। उन्हें विश्वास हो चुका था कि उनका सामान हम लोगों से खो चुका है। हम लोग अभी और कोताही करते कि इस बीच उत्तर रेलवे से एक रजिस्टर्ड पत्र चला आया कि अगर अमुक तारीख तक क्लाक रूम से सामान न उठाया गया तो वह नीलाम कर दिया जाएगा। अब दिल्ली जाकर सामान लाने के अतिरिक्त और कोई चारा न था। हम लोगों ने चन्दा किया, जो पता चला डेमरेज में चला गया और पृथ्वी बिला टिकट दिल्ली के लिए रवाना हो गया और एक दिन दिल्ली से बटुकजी के दोनों सन्दूक लेकर अपने पिता के नाम की दुहाई देता हुआ बिला टिकट विजयी मुद्रा में जालंधर लौट आया। जेब में दो प्लेटफार्म टिकट लिए मैं उसकी आगवानी करने के लिए जालंधर स्टेशन पर मौजूद था। हम लोगों ने मिलकर वे दोनों भारी भरकम सन्दूक ताँगे पर लादे और बटुकजी की अमानत उन्हें सौंप कर राहत की साँस ली। यह थी मेरी दिल्ली की प्रथम यात्रा।
अब हमदम दूसरी दुर्गम यात्रा के लिए दबाव बना रहा था। सवाल यात्रा का नहीं, उसे दिल्ली में स्थानांतरित और स्थापित करने का था। मुझे एक बार फिर यूनुस साहब की याद आयी। वह रहमदिल इन्सान थे। सोचा, हमदम को उनसे मिलवा दूँ, हो सकता है कोई सूरत निकल आये। शनिवार को मैंने हमदम को साथ लिया और हम लोग दिल्ली की बस में बैठ गये। यूनुस साहब ने हमदम के कुछ रेखांकन पसंद किये, लगातार काम देने का वादा किया । मैंने हमदम की दास्तान सुनायी तो उन्होंने तुरन्त डेढ़ सौ रुपये दिलवा दिये। उन दिनों दरियागंज से उर्दू की एक और पत्रिका निकलती थी- ‘बीसवीं सदी।' उसके सम्पादक खुश्तर गिरामी साहब से भी थोड़ा बहुत परिचय था। मैंने उनसे भी हमदम को मिला दिया। उन्हें उन दिनों आर्टिस्ट की सख्त ज़रूरत थी। उन्होने न केवल उसे काम पर रख लिया, वहीं दरियागंज में दफ्तर के ऊपर की बरसाती भी रहने के लिए दे दी। बड़े चमत्कारिक ढंग से दिल्ली में हमदम की व्यवस्था हो गयी। मुझे भी दिल्ली में ठहरने के लिए ठौर मिल गया। मैं जब दिल्ली आता हमदम के यहाँ ही ठहरता। बहुत जल्द अपने को दिल्ली के रंग-ढंग में ढाल लिया। ‘बीसवीं सदी' के अलावा वह ‘शमा' के लिए भी रेखांकन बनाने का काम करने लगा। शाम को फुटबाल का मैच देखता और उसके बाद काफ़ी हाउस में जा बैठता। मेरे तमाम लेखक मित्र उसके भी मित्र बन गये थे। उसकी जान पहचान का दायरा बढ़ने लगा।
भारत-चीन युद्ध चल रहा था जब मुझे डी0 ए0 वी0 कालिज, हिसार में लेक्चररशिप मिली थी। कुछ युद्ध के कारण और कुछ बाढ़ के कारण यातायात प्रभावित था। तब तक हरियाणा का गठन नहीं हुआ था और हिसार पंजाब का एक बहुत पिछड़ा हुआ क्षेत्र माना जाता था। धूल उड़ाती टूटी फूटी सड़कें, बंजर धरती और हड्डी पसली तोड़ने वाली बस सेवाएँ सबसे पहले आतंकित करतीं। कहने को हिसार में दो डिग्री कालिज थे, मगर शहर देख कर लगता था यहाँ कोई हाईस्कूल भी न होगा। मैं कुछ दिनों तक शहर के एकमात्र होटल का एकमात्र मेहमान था। बाद में कालिज के पड़ोस में ही आसानी से कमरा मिल गया। रात को जंगली जानवरों के रोने की आवाजें आतीं। रात के टिकते ही सियारों का सामूहिक रोदन शुरू हो जाता और भोर तक चलता। उन सियारों के साथ-साथ अगर वहाँ के लोग भी विलाप करते तो मुझे आश्चर्य न होता। रुदालियों की परम्परा कुछ ऐसे ही माहौल में शुरू हुई होगी। विलाप करने के लिए वह आदर्श स्थान था। मुझे ऐसा शायद इसलिए लग रहा था कि मैं पंजाब के एक अत्यन्त समृद्ध और गुलज़ार इलाके से आया था। मुझे लगता अंडमान निकोबार में भी इतना ही सन्नाटा रहता होगा, जो उसे काला पानी के नाम से पुकार जाता था। हरियाणा का विकास तो तब हुआ जब उसे पंजाब से काट कर एक अलग राज्य का दर्जा मिला। इस प्रदेश को नया जीवन मिल गया। विकास की गति इतनी तेज़ हो गयी कि कुछ ही वर्षों में वह पंजाब के कंधे से कंधा मिला कर चलने लगा।
कथाकार मोहन चोपड़ा डी0 ए0 वी0 कालिज में ही अंग्रेजी के अध्यापक थे और हिन्दी में कहानियां लिखते थे। बाद में मालूम हुआ, मोहन राकेश से उनके अत्यन्त आत्मीय सम्बन्ध थे। कालान्तर में ये सम्बन्ध इतने तिक्त हो गये कि दोनों में संवाद का सूत्र भी टूट गया। पहली पत्नी से तलाक के बाद राकेशजी ने मोहन चोपड़ा की छोटी बहन पुष्पा से शादी कर ली थी। पुष्पा एक अल्हड़ किस्म की शोख पंजाबी लड़की थी। वह देखने में अत्यन्त सुन्दर थी मगर उसका लिखने पढ़ने से कोई ताल्लुक नहीं था। उम्र में भी वह राकेशजी से बहुत छोटी और उसी अनुपात में कमअक्ल थी। उन्हें साथ-साथ देखकर कोई भी कह सकता था कि वे दोनों एक दूसरे के लिए बने ही न थे। शुरू-शुरू में तो राकेशजी को उसकी नादानियाँ भा गयीं, मगर बाद में बदज़न रहने लगे। बहुत जल्द मियाँ बीवी का एक दूसरे से मोह भंग हो गया।
हिसार में पढ़ने लिखने का माहौल नहीं था। हिन्दी की कोई भी ज़रूरी पत्रिका वहाँ दिखायी न देती थी। साहित्यिक अथवा लघु पत्रिकाओं की बात तो दूर वहाँ व्यावसायिक पत्रिकाओं की खपत भी बहुत कम थी। वह ऐसा शहर था जहाँ न कोई पढ़ने लिखने का शौकीन था, न पीने पिलाने का। यहाँ मेरी दोस्ती अंग्रेज़ी के प्रवक्ता पाल और शारीरिक प्रशिक्षक धर्मवीर से हो गयी। सादा जीवन उच्च विचार उन दोनों के जीवन का आदर्श था। पाल होस्टल का सुपरिन्टेंडेंट भी था और हॉस्टल परिसर में ही उसका डी-लक्स कमरा था। वह काफी सुरुचि सम्पन्न व्यक्ति था। उसकी भी न पढ़ने में रुचि थी, न पढ़ाने में। वह अच्छे रहन सहन तथा भोजन का शौकीन था। धर्मवीर अपने गाँव से देशी घी का कनस्तर उठा लाता और छात्रों के भोजन के बाद हम लोगों का अलग से खाना बनता। गर्म-गर्म खाना आता तो घी की छौंक से कमरा महक उठता। हिसार में शराब की नहीं, लस्सी की नदियाँ बहती थीं। चाय भी दोनों में से कोई नहीं पीता था। शाम को हम लोग जी भर कर टेबल टेनिस खेलते। पाल से मेरी इतनी छनने लगी कि मैं अपने कमरे में कभी कभार ही जाता। खेलने कूदने से रात को नींद भी अच्छी आती। यहाँ किसी को शराब की ज़रूरत पड़ती थी, न नींद की गोली की। दिन का वक्त कालिज में और शाम का कामन रूम में बीत जाता। एक थके हारे मज़दूर की तरह ऐसे सोते कि सुबह-सुबह नींद खुलती।
कालिज की एक बात बहुत अच्छी थी कि सहशिक्षा का प्रावधान था। लड़के उजड्ड किस्म के थे जबकि लड़कियां सुसंस्कृत और शालीन थीं। पाल हमेशा कोट पतलून और टाई में लैस रहता और लड़कियों से घिरा रहता। लड़कियाँ जाड़े में उसके लिए स्वेटर बुनतीं, घर से, परांठे बनाकर लातीं, गर्ज़ यह कि उसका बाज़ार गर्म था। मुझे पाल के साथ देख लड़कियाँ उस से बिना बात किये लौट जातीं। कुछ लड़कियाँ उसे पत्र भी लिखती थीं, वह मुझे दे देता कि पढ़कर सुनाओ। खाना खाते हुए हम लोग पत्रों का विश्लेषण करते। मगर पाल छिछोरे किस्म का आदमी नहीं था, एक सीमा तक ही खेल खेलता वह एक कुशल नट की तरह लड़कियों को लक्ष्मण रेखा के उस तरफ़ ही रखता। एक बार एक लड़की ने उसे लिखा कि वह उसके बगैर ज़िन्दा नहीं रह सकती, पाल का व्यवहार उसके प्रति ऐसा ही रहा तो वह आत्महत्या कर लेगी। पाल ने उसे अपने कमरे में बुलाया और कहा जिस दिन आत्महत्या का इरादा हो, बता देना, वह ज़हर ला देगा। लड़की रोती हुई कमरे से बाहर चली गयी। पाल हर सत्र में कई लड़कियों के दिल तोड़ा करता था। वह पहले लड़कियों को आकर्षित करता था फिर उनका दिल तोड़ देता था। कुछ ही दिनों बाद मैं उसे ‘सैडिस्ट' कहने लगा। जाने क्यों यही उसका सब से प्रिय शगल था। मैं उस कालिज में ज़्यादा दिन नहीं रहा, मगर उस वक्फ़े में किसी लड़की ने मुझ में कोई दिलचस्पी जाहिर न की। मैंने पाल से कई बार जानना चाहता कि मुझ में ऐसी कौन सी खामी है कि लड़कियाँ दूर से दुआ सलाम करके चली जाती हैं।
पाल ने मुझे गुरुमंत्र दिया कि लड़कियों के सामने स्मार्ट दिखो, लेकिन बातचीत में उन्हें लगना चाहिये कि आप भोंदू हैं, ज़्यादा मीन मेख नहीं निकालते, इधर की बात उधर नहीं करते। लड़की का चुम्बन ले लेंगे तो इस बात को सात तालों में बंद रखेंगे। लड़कियाँ अभिव्यंजना में बात करती हैं और जवाब अमिधा में सुनना चाहती हैं। लड़कियों की जी खोल कर प्रशंसा करनी चाहिए, वे तारीफ़ सुनने को तरस जाती हैं। घर में भी माँ बाप उपेक्षा करते हैं और बेटों की गैरमुनासिब प्रशंसा किया करते हैं। पाल ने मुझे आगाह किया कि लड़कियाँ कभी तुम्हें तरजीह न देंगी क्योंकि तुम अपनी जुमलेबाज़ी से लड़कियों को घायल कर देते हो। पाल के ये तमाम फार्मूले मेरी फितरत से मेल न खाते थे। मुझे लगा यह क्षेत्र मेरे लिए निषिद्ध है और मैं कोशिश भी करुँगा तो मुँह के बल गिरुँगा। इस झमेले से दूर रहने में ही मुझे अपनी भलाई नज़र आई। मैं प्रत्येक शनिवार को क्लास से सीधा बस अड्डे की तरफ़ रवाना हो जाता और दिल्ली जाने वाली पहली उपलब्ध बस में बैठ जाता। दरियागंज में ‘बीसवीं सदी' के कार्यालय के ऊपर हमदम का गरीबखाना और स्टूडियो था। दो एक शामें काफी हाउस में बिता कर सोमवार की सुबह को पहली बस से मैं हिसार लौट आता। बस अड्डे से भागम-भाग क्लास रूम तक पहुँचता। दिल्ली के काफी हाउस में खूब गहमा-गहमी रहती ।
एक दिन काफी हाउस से पता चला कि मोहन राकेश ‘सारिका' के सम्पादक होकर मुम्बई जा चुके हैं। हिसार लौटकर मैंने अपनी बहु-अस्वीकृत कहानियों का पुलिन्दा निकाला। खूब मन लगाकर एक कहानी को नये काग़ज़ों पर उतारा और वह राकेशजी के पास भेज दी। राकेशजी ने कहानी मिलते ही जवाब दिया। उन्होंने न केवल कहानी स्वीकृत कर ली बल्कि यह सूचना भी दी कि वह शीघ्र ही ‘सारिका' का नवलेखन अंक प्रकाशित करने जा रहे हैं और यह कहानी उस विशेषांक में प्रकाशित करेंगे। आगामी शनिवार को मैं एक सर्टिफिकेट की तरह राकेशजी का पत्र लेकर दिल्ली पहुँचा। हमदम ने मेरे जनसम्पर्क अधिकारी की तरह प्रत्येक जान पहचान के लेखक को गर्व से यह सूचना दी। अगले ही महीने ‘सारिका' का नवलेखन अंक प्रकाशित हुआ और उसमें वह कहानी ‘सिर्फ एक दिन' प्रमुखता के साथ प्रकाशित हुई थी। अपना परिचय भी मैंने नये अन्दाज में लिखा था-रवीन्द्र कालिया, कद छह फुट, अविवाहित और चेनस्मोकर। कहानी से ज़्यादा मेरा परिचय चर्चा में रहा। उसने एक तरह से वैवाहिक विज्ञापन का काम किया। दिल्ली विश्वविद्यालय की एक कश्मीरी लड़की ने पत्र लिखा कि मैं इतनी सिगरेट क्यों पीता हूँ। उसने मिलने की इच्छा भी प्रकट की थी और अपनी पसंद भी बता दी थी कि उसे लम्बे लोग हमेशा आकर्षित करते हैं। उसके छोटे से पत्र में हिज्जे की कई गलतियाँ थीं। यह कहानी मैंने अपनी बेरोज़गारी के दिनों में लिखी थी। अनेक संघर्षशील नवयुवकों के पत्र भी प्राप्त हुए और उस कहानी की याद दिलाते हए लगभग चालीस बरस बाद एक पत्र अभी हाल में ‘हंस' में ‘ग़ालिब छुटी शराब' का एक अंश पढ़कर मध्यप्रदेश से एक पाठक ने लिखा है।
हिसार मेरी कहानी के प्रति उदासीन बना रहा। वहाँ चिरई के पूत को भी खबर न लगी कि हिसार में हिन्दी का एक कहानीकार जन्म ले चुका है। जालंधर में होता तो अब तक दोस्तों ने कन्धे पर उठा लिया होता, बियर की बोतलें खुल जातीं, काफी हाउस में हंगामा हो जाता और एक यह शहर था, जहाँ उसी प्रकार सियार रो रहे थे। मेरी आत्मा बेचैन रहने लगी। अगले सप्ताह दिल्ली के बजाय मैं चण्डीगढ़ की बस में बैठ गया। कपिल, विमल, परेश, कुमार के साथ बाइस सैक्टर में जमकर मटरगश्ती की, विश्वविद्यालय परिसर की हरी घास पर लेट कर भविष्य के लेखन पर विचार विमर्श किया। डाक्टर मदान से गुज़ारिश की कि वह अपने शिष्य को किसी तरह हिसार के रेगिस्तान से मुक्ति दिला कर चण्डीगढ़ बुलायें। मदान साहब ने रिसर्च के कई विषय सुझाये। बहरहाल सिर्फ एक कहानी छपने से दोस्तों के बीच मेरी धाक जम गयी। मैं मजबूरी और बेमन से हिसार लौट आया। वही कालिज की उबाऊ दिनचर्या, टेबल टेनिस और देशी घी के भरवां पराँठे। मुझे लगा, यह शहर मेरे लिए नहीं।
जालंधर से बेकारी के दिनों में मैंने अनेक जगह आवेदन कर रखा था, जबकि सही मायने में मैं एक भी दिन बेकार नहीं रहा था। एम0 ए0 की परीक्षा समाप्त होते ही मैं दैनिक हिन्दी ‘मिलाप' के सम्पादकीय विभाग से सम्बद्ध हो गया था- कुल जमा एक सौ बीस रुपये पर। पहली तनख्वाह में मुझे एक-एक रुपये के एक सौ बीस नोट मिले थे। मेरा काम भी आसान था। उन दिनों फिक्र तौंसवी का उर्दू ‘मिलाप' में ‘प्याज़ के छिलके' नाम से एक कालम रोज़ प्रकाशित होता था। हिन्दी ‘मिलाप' के लिए मुझे उसका अनुवाद करना होता था, जो मैं एकाध घण्टे में निपटा देता। उसके बाद अपने को बेकार यानी बेरोज़गार पाता। दफ़्तर में दिल्ली के तमाम अखबार आते थे। मैं बहुत विस्तार से उनका अध्ययन करता। मिलाप के लायक कोई समाचार लगता तो उसे टीप देता। मेरा बाकी समय अपने लिए उपयुक्त ‘रिक्त स्थान' ढूँढने में लगता। दफ़्तर में बैठे-बैठे ही मैं आवेदन पत्र लिखता और डाक के हवाले कर देता। उन दिनों फार्म वार्म भरने और आवेदन पत्र के साथ फीस भेजने का प्रचलन नहीं के बराबर था। एम0 ए0 का परीक्षफल आने से पहले ही मुझे इण्टरव्यू के लिए पत्र मिलने लगे थे। मार्ग व्यय मिलने की व्यवस्था रहती तो मैं इण्टरव्यू दे भी आता। इण्टरव्यू पत्रों का यह क्रम हिसार में नौकरी मिलने के बाद भी जारी रहा। मेरे पिता जालंधर से उन पत्रों को हिसार के पते पर अनुप्रेषित कर देते थे।
हिसार में मुझे इण्टरव्यू के लिए दो पत्र मिले। दोनों दिल्ली से थे और जालंधर से मार्ग व्यय का प्रावधान था। एक पत्र आकाशवाणी से था और दूसरा केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय से। आकाशवाणी में समचार वाचक के पद के लिए इण्टरव्यू था। इण्टरव्यू देने वालों में मैं उम्र में सबसे छोटा था। कई लोग तो अनियमित रूप से पहले ही इस पद पर तैनात थे, अब विनियमन के लिए इण्टरव्यू दे रहे थे। वहीं सत सोनी से मेरी मुलाकात हो गयी सत सोनी दिल्ली जाने से पूर्व जालंधर में हिन्दी मिलाप में वरिष्ठ उप सम्पादक थे और फीचर के पन्ने देखते थे। मेरा उनसे बहुत पुराना परिचय था। यह कहना भी गलत न होगा कि मुझे बचपन से लेखन के लिए उन्होंने ही प्रोत्साहित किया था। हिन्दी मिलाप में बच्चों के पृष्ठ ‘शिशु संसार' का सम्पादन वही करते थे और स्कूल के दिनों से ही मेरी रचनाएँ उस पृष्ठ पर छपा करती थीं। छात्र जीवन में कच्चा पक्का जो कुछ लिखता, वह सुधार कर छाप देते। मेरा नाम तब से अखबार में छपने लगा था जब मुझे शुद्ध रूप से अपना नाम लिखने की तमीज़ भी न थी। पहली रचना मैंने रविन्दर कालीया के नाम से प्रेषित की थी और रचना के साथ मेरा नाम छपा रवीन्द्र कालिया। तब से मैं रवीन्द्र कालिया हूँ। सत सोनी शुरू से ही बहुत प्रखर और महत्वाकांक्षी थे। जालंधर में ज़्यादा गुंजाइश नज़र न आई तो वह नौकरी छोड़ कर उपयुक्त नौकरी की तलाश में दिल्ली चले आये। माँ थी और वह थे। माँ बेटा एक कमरा लेकर दिल्ली में रहने लगे। मुझे यह सूचना तो थी कि वह दिल्ली में हैं, उनसे यों अकस्मात मुलाकात हो जायेगी, यह न सोचा था। समाचार वाचक की नौकरी में मुझे कोई दिलचस्पी न थी, सिर्फ मार्ग व्यय के लालच में चला आया था। पढ़ने के लिए जो समाचार मिले वे बहुत क्लिष्ट हिन्दी में थे। मुझे अपने पंजाबी उच्चारण की सीमाएँ मालूम थीं। इसके बावजूद मैंने इण्टरव्यू दिया। स्टूडियो के बीचोंबीच एक काँच की दीवार थी और दीवार के दूसरी ओर विशेषज्ञों का पैनल बैठा था। उन में भगवतीचरण वर्मा भी थे। मैंने उनकी तस्वीर कहीं देख रखी थी और उन्हें देखते ही मैं पहचान गया। मेरा इण्टरव्यू बहुत खराब हुआ, इतना खराब कि मैंने खुद ही अपने को ‘रिजेक्ट' कर दिया। अनेक ऐसे शब्द थे, जिनका उच्चारण मैं कर ही नहीं सकता था।
इण्टरव्यू के बाद मैं सत सोनी के साथ उनके घर चला गया। एक मुद्दत के बाद मुलाकात हुई थी। उन्होंने हालचाल पूछा, खाना खिलाया और बताया कि शीघ्र ही नवभारत टाइम्स में उनकी नियुक्ति होने जा रही है। बाद में वह एक लम्बे अर्से तक ‘सांध्य टाइम्स' का सम्पादन करते रहे। उनके तमाम संगी साथी रिटायर हो गये मगर वह अपने पद पर कायम रहे, अभी हाल तक थे, हो सकता है अब भी हों। वह अखबार बेचने के बहुत से लटके झटके जानते थे। एक बार जालंधर में पहली अप्रैल को सत सोनी ने दैनिक मिलाप में एक अनूठी पुरस्कार योजना घोषित की। उन्होंने प्रथम पृष्ठ पर एक तस्वीर प्रकाशित की और लिखा कि यह व्यक्ति शाम को पांच से आठ के बीच अमुक-अमुक बाज़ारों से गुजरेगा। जो पाठक इन्हें पहचान लें वह मिलाप के अन्तिम पृष्ठ पर प्रकाशित कूपन भर कर चुपचाप इन्हें सौंप दें, इनसे बात करने की कोशिश न करें। पहचानने वाले पाठक को एक हज़ार का नकद पुरस्कार सप्ताह भर के भीतर भेज दिया जाएगा। पहली अप्रैल को सारा शहर बगल में मिलाप की प्रतियाँ लिए उस शख्स को खोज रहा था। सत सोनी भी भीड़ में नज़र आये, उन्होंने पाठकों को ‘अप्रैल फूल' बनाने का भरपूर आनंद उठाया। कहने की ज़रूरत नहीं, उस रोज़ शहर में ‘मिलाप' की प्रतियां अन्य तमाम समाचार पत्रों से कहीं अधिक बिकी थीं। ‘सांध्य समाचार' में उन्होंने ऐसे-ऐसे शीर्षक प्रकाशित किये कि कंजूस से कंजूस आदमी भी अखबार खरीदने को मजबूर हो जाता था। जैसे ‘सुमन अपने जीजा के साथ भाग गयी' या ‘रंजीत ने अपनी मां के प्रेमी की हत्या की।' राजधानी के तमाम समाचार पत्रों ने नेहरूजी के निधन का समाचार प्रकाशित किया और सोनी ने नेहरूजी की अन्त्येष्टि का कार्यक्रम प्रकाशित किया। उनका मत था कि नेहरूजी के निधन का समाचार तो अखबार छपने से पूर्व ही सब लोग जान चुके थे।
बाद में मैं जब तक दिल्ली में रहा, सत सोनी मेरे स्थानीय अभिभावक की तरह रहे। जब कभी पैसे की जरूरत पड़ती, मैं उनसे निःसंकोच माँग लेता। दिल्ली में पहला मकान (कमरा) भी, उन्होंने माडल टाउन में अपने पड़ोस में दिलवाया था। उनका दृष्टिकोण हमेशा अग्रगामी रहता था, रूढ़ियों और ढकोसलों से वह हमेशा दूर रहे। मेरे जानने वालों में सबसे पहले सत सोनी ने ही प्रेम विवाह किया था। उनकी पत्नी उर्मिला भी उन्हीं की तरह धाकड़ महिला थीं और कनाट प्लेस में स्टेट्समैन चौराहे के निकट एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी के दफ्तर में काम करती थीं। सुबह दोनों मियाँ-बीवी नौ नम्बर की बस से दफ़्तर के लिए साथ-साथ निकलते और शाम को साथ-साथ लौटते। साहित्य में उनका सीधा दखल नहीं था, मगर वह नये से नये साहित्य की जानकारी रखते। शादी से पहले मैं और ममता छुट्टी के रोज़ अक्सर उनके यहाँ चले जाया करते थे।
सत सोनी के मिलाप छोड़ने पर जो स्थान रिक्त हुआ, उस पर कृष्ण भाटिया की नियुक्ति हुई। भाटिया उन दिनों एम0 ए0 (हिन्दी) कर रहे थे और कालिज के बाद दफ़्तर करते थे। इसे संयोग ही कहा जाएगा कि कुछ वर्षोंे बाद उनकी नियुक्ति भी नवभारत टाइम्स में हो गयी और वह भी दिल्ली चले आये। सत सोनी के बाद जालंधर में मैं भाटियाजी के निकट सम्पर्क में रहा। उन्होंने भी मिलाप में मेरी बहुत सी बाल रचनाएँ प्रकाशित की थीं। वैसे भाटिया सोनी के विलोम थे। सोनी जितने ही तेज़ थे, भाटिया उसी अनुपात में मंथर। उन्हें मैंने कभी जल्दबाज़ी में नहीं देखा। वह सब काम इत्मीनान से खरामा-खरामा करने के अभ्यस्त थे। विभाजन के बाद वह पश्चिमी पंजाब से शरणार्थी के रूप में आए थे, अपनी मा और बहन इन्दिरा के साथ। छात्र जीवन में मैं अक्सर उनके यहाँ जाया करता था और मेरे लिए उनका घर अपने घर की तरह था। अम्मा भाटिया के मित्रों की बहुत खातिरदारी करतीं। भाटिया साहब का ख़याल आते ही दो तीन बातें मुझे हमेशा याद आतीं है।
एक बात जालंधर की है। एक दिन शाम को मैं भाटिया साहब के घर गया तो माताजी ने बताया कि कृष्ण एक घंटे पहले कटोरी लेकर दही लेने निकला था, अभी तक नहीं लौटा। मैंने भी आधा घंटा तक उन की प्रतीक्षा की और लौट गया। अगले रोज़ सुबह उनके यहाँ गया तो घर में अड़ोस पड़ोस और भाटिया के मित्रों की भीड़ लगी थी और अफरा-तफरी मची थी। मालूम हुआ कि भाटिया साहब अभी तक दही लेकर नहीं लौटे। सब लोग परेशान थे। कार्यालय में भी खबर कर दी गयी थी। उनके तमाम अड्डों और ठिकानों से भी कोई सूचना न मिल पा रही थी। दोपहर तक तमाम लोग निराश हो गये और घर में जैसे मातम बिछ गया। दोस्तों ने शहर का कोना-कोना छान मारा, मगर कृष्ण भाटिया का कहीं कोई सुराग न मिला। ऐसे नाज़ुक मौकों पर कुछ लोग अपनी सृजनात्मकता का कुछ ज़्यादा ही परिचय देते हैं। किसी ने कहा, आज दिन में नहर में एक लाश मिली है, किसी ने रेल की पटरी पर किसी के कट मरने की सूचना दी। जितने मुँह उतनी बातें।
शाम को सूरज ढलने के बाद भाटिया साहब हाथ में दही की कटोरी लिए खारामा-खरामा अपने घर की तरफ़ बढ़ते दिखाई दिये। वह हमेशा की तरह हाथी की चाल से इत्मीनान से चल रहे थे, जैसे अभी-अभी बाज़ार से दही लेकर लौटे हों। अपने घर के सामने भीड़ देखकर उन्होंने किसी से पूछा कि क्या बात है, घर में सब खैरियत तो है? भाटिया साहब के आने की खबर सुनकर माँ और बहन रोते हुए बाहर लपकीं। मालूम हुआ भाटिया साहब अपने एक मित्र के साथ इस आश्वासन में हमीरा चले गये थे कि घंटे भर में लौट आएँगे। उस मित्र का ट्रांसपोर्ट का कारोबार था और वह ट्रक में गन्ना लदवा कर हमीरा जा रहा था, जहाँ एक चीनी मिल थी शायद एरिस्ट्रोक्रेट नाम के लोकप्रिय ब्राण्ड की विस्की बनाने वाली जगजीत इण्डस्ट्रीज की। हमीरा जालंधर से पंद्रह-बीस किलोमीटर के फासले पर था। भाटिया साहब मुरव्वत में अपने मित्र के ट्रक में सवार हो गये और गन्ना चूसते हुए हमीरा पहुँच गये। जब तक ट्रक हमीरा पहुँचता गन्ने के लदे हुए बीसियों ट्रक उनके ट्रक के आगे पीछे लग गये। चींटी की गति से ट्रकों की लम्बी कतार सरकने लगी। आधी रात को जंगल में वापिस लौटने का कोई दूसरा साधन भी न मिला। दूसरे दिन दोपहर बाद उनके ट्रक से गन्ना उतरा। उसके बाद जाम से बाहर आने में घंटों लग गये। इस घटना का सबसे दिलचस्प पहलू यह था कि भाटिया साहब कटोरी में दही लाना नहीं भूले थे।
जब तक मैं कपूरथला और हिसार में वनवास काटकर दिल्ली पहुँचा, भाटिया साहब दिल्ली में स्थापित हो चुके थे। सत सोनी और भाटिया दोनों माडल टाउन में रहते थे और सोनी साहब ने मेरी व्यवस्था भी माडल टाउन में करवा दी थी। सोनी की नज़र हमेशा आगे रहती और भाटिया पीछे मुड़कर देखने के आदी थे। सोनी एकदम सींक सिलाई थे और भाटिया ऊन के गोले की तरह। जो बात सोनी एक वाक्य में कह जाते भाटिया उसकी तफ़सील में जाते। दोनों बी-ब्लाक में रहते थे। सोनी की शादी हो चुकी थी, भाटिया साहब तब तक शादी के बारे में सोचते भी न थे। भाटिया का घर नया और बड़ा था। इतना खूबसूरत, विशाल और आधुनिक किस्म का घर उन्हें एक शर्त पर मिला था। मालिक मकान की एक मौलिक और अनूठी शर्त थी, जो भाटिया साहब ने तुरन्त स्वीकार कर ली थी। वह शर्त कुछ ऐसी थी कि सामान्यतः कोई गृहस्थ उस हिस्से को किराये पर नहीं लेता था। सुबह जब तक मालिक मकान स्नान न कर ले किरायेदार बाथरूम का इस्तेमाल नहीं कर सकता था। मालिक मकान को अकेले नहाने की आदत नहीं थी, वह सपत्नीक स्नान करता था। नहाते हुए वे लोग बच्चों की तरह शोर मचाते थे। भाटिया साहब को इस पर कोई आपत्ति न थी, वह इस बारे में सोचते भी न थे। सुबह-सुबह कभी मैं उनके यहाँ चला जाता तो मेरा ध्यान बाथरूम में ही लगा रहता, भाटिया साहब से बात करने में भी मन न लगता। सच तो यह है कि मेरी कल्पनाएँ भी पति-पत्नी के साथ बाथरूम में घुस जातीं। बाथरूम के पिछवाड़े एक छोटा सा वातायन था। मेरी इच्छा होती कि सीढ़ी लगाकर बायेस्कोप की तरह भीतर का जायज़ा लूँ। भाटिया के स्थान पर मैं किरायेदार होता तो मेरा जीवन ही नष्ट हो जाता। अपनी कमीनगी और बदतमीजी़ पर मुझे बहुत शर्म आती, मगर मैं अपनी फितरत से मजबूर था। भाटिया साहब इस विषय पर बात करना भी पसन्द न करते, जबकि मुझे दफ़्तर में भी बाथरूम के दिवास्वप्न आते रहते। मुझे बाथरूम का स्वप्नदोष होने लगा, इसे मेरी बदनसीबी ही कहा जा सकता है। भाटिया साहब इस स्थिति के प्रति पूरी तरह बेन्याज़ थे, सज्जन आदमी की यही पहचान होती है। शायद यही वजह थी कि भाटिया साहब को कोई लत न थी। वह सिगरेट पीते थे न शराब। तम्बाकू, गांजा और सुरती तो दूर की बात है, जबकि सोनी साहब का किसी प्रकार के निषेध में विश्वास नहीं था। वह कभी-कभार स्कॉच वगैरह का एकाध पैग भी नोश फरमा लेते और पेश भी कर देते थे। भाटिया साहब ने काफ़ी देर से शादी की। उनकी बहन इन्दिरा भी मां की तरह छोटी आयु में विधवा हो गयी थी, उसका पति दफ़्तर जाने के लिए घर से सही सलामत निकला और एक सड़क दुर्घटना में उसकी मौत हो गयी। परिवार के लिए यह बड़ा सदमा था।
मैं मुम्बई चला गया और मुम्बई से इलाहाबाद, भाटिया साहब से कई वर्षों सम्पर्क नहीं हुआ। सत सोनी से दिन में टाइम्स हाउस में कई बार भेंट हो जाती। ‘दिनमान' के बाद नन्दन ‘नवभारत टाइम्स' के फीचर सम्पादक हो गये तो मेरा अक्सर दफ़्तर जाना होता, मगर भाटिया साहब से भेंट न हो पाती। वह वर्षों रात की ड्यूटी ही करते रहे। एकबार मैं इलाहाबाद से तय करके चला कि इस बार दिल्ली में भाटिया साहब से ज़रूर मिलूँगा। शाम को फोन किया तो वह दफ़्तर में मिल गये। तय हुआ कि रात एक बजे उनकी ड्यूटी खत्म होगी, मैं दफ़्तर चला आऊँ और रात को साथ-साथ घर चलेंगे। तब तक उन्होंने भी दिल्ली में घर बनवा लिया था। शादी हो चुकी थी, बच्चे स्कूल जाने लायक हो गये थे, मा उनके साथ ही रहती थीं। मेरी माजी से भी मिलने की बहुत इच्छा थी।
रात के बारह के बाद मैं भाटिया साहब के पास बहादुरशाह ज़फर मार्ग पहुँचा। उस समय वह काम समेट रहे थे। वह हमेशा की तरह बहुत तपाक और गर्मजोशी से मिले। कनपटी के बाल सफेद हो गये थे, मगर चेहरे पर वही बाल सुलभ सरलता और पारदर्शिता थी। हम लोग दफ़्तर की गाड़ी में उनके घर के लिए रवाना हुए। मैं दसियों बरस के लम्बे अन्तराल के बाद भाटिया साहब से मिला था। उनके बारे में बहुत कुछ जानने की जिज्ञासा और अपने बारे में बताने की उत्सुकता थी। मैंने सोचा, खूब गुजरेगी जब मिल बैठेंगे दीवाने दो। मुझे खबर लगी थी कि भाटिया साहब पत्रकारिता के साथ समाज सेवा के कार्यों में भी रुचि ले रहे हैं और उन्होंने दृष्टिहीनों के आवास और पुनर्वास की दिशा में बहुत काम किया है। मगर गाड़ी में बैठते ही भाटिया साहब ने पत्रकारिता पर बात शुरू की, न समाज सेवा पर। गाड़ी में बैठते ही मुझसे पूछा, ‘कभी वैष्णव देवी गये हो?'
‘न, कभी जाने का मौका नहीं मिला।' मैंने बताया।
‘तुम फिर ज़िन्दगी के एक बहुत बड़े अनुभव से वंचित रह गये हो। ऐसी गफ़लत तुम से कैसे हो गयी? तुम भी क्या कर सकते हो, दरअसल मां का बुलौआ आता है, तभी आदमी उनके दरबार में हाज़िर होता है। वर्ना लाखों लोग चाहकर भी उनका दर्शन नहीं कर सकते।'
‘लगता है कुछ ऐसा ही हादसा मेरे साथ हुआ है।' मैंने कहा।
‘मुझे यही खतरा था कि तुम कहीं ज़िन्दगी में झख मारते न रह जाओ।'
‘मेरी तो ज़िन्दगी ही झख मारते बीत गयी भाटिया साहब। आपकी शरण में आ गया हूँ, अब आप ही कुम्भीपाक से बाहर निकालें।'
‘कुछ न कुछ किया जाएगा तुम्हारे लिए। एक न एक दिन मां तुम्हें अपने दरबार में अवश्य बुलायेंगी और दर्शन देंगी।'
मैंने शाम को मित्रों के साथ प्रेस क्लब में तबीयत से दारू पी थी, भरपेट भोजन किया था। मैंने भाटिया साहब से कहा कि मेरे जैसे पापियों को यही सज़ा मिलनी चाहिए थी। मां सब की रग-रग पहचानती हैं।
‘भई यह तो है। माँस मछली तो नहीं खाने लगे?'
‘भाटिया साहब मेरा बहुत पतन हो चुका है। दारू की लत लग चुकी है। सिगरेट की लत दूर नहीं हुई थी कि यह दूसरी लत लग गयी। आप तो जानते ही हैं, लिखने पढ़ने का व्यसन तो बचपन से लग गया था। कालिया की नैया अब कैसे पार लगेगी?'
‘धैर्य रखो। मां ने बहुत से भटके हुए लोगों को राह दिखाई है, तुम भी जी छोटा न करो।'
दरअसल भाटिया साहब अभी हाल में सपरिवार वैष्णव देवी का दर्शन करके लौटे थे। उन्होंने अत्यन्त विस्तार से इस अविस्मरणीय यात्रा का वर्णन करना शुरू किया। तफसीलवार छोटी से छोटी घटना बतायी। पहले तो दफ़्तर से छुट्टी लेने में बहुत परेशानी हुई, रात की ड्यूटी कोई करना ही नहीं चाहता था। अब पत्रकारिता में वह पहले सी मिशन की भावना भी नहीं रही। समाज में एक अंधी दौड़ शुरू हो चुकी है। हर आदमी दौड़ रहा है और उसे कुछ पता नहीं कि वह कहाँ पहुँचना चाहता है, उसके जीवन का लक्ष्य क्या है? माँ ने जाने उसे इस धरती पर क्यों भेजा है? खैर, यह गहरी बात है, अभी तुम्हारी समझ में नहीं आयेगी। मैंने समाज से सोना नहीं माँगा था, चाँदी नहीं मांगी थी, फकत छुट्टी माँगी थी, उसे मिलने में भी सौ-सौ बाधाएँ आन खड़ी हुई इसे मां का प्रताप ही कहा जाएगा कि आखिर पंद्रह दिन की छुट्टी स्वीकृत हो गयी। मुझे छुट्टी मिल गयी तो पत्नी को छ्ट्टी मिलने में अड़चनें आने लगीं। मगर जब काम होना होता है तो सब अड़चनें अपने आप दूर होने लगती हैं। यही हुआ। किस्मत अच्छी थी कि पूरे परिवार को ट्रेन में आरक्षण मिल गया। किसी सिफ़ारिश की ज़रूरत ही न पड़ी। वर्ना पत्रकार आए दिन आरक्षण के लिए रेलवे बोर्ड में टिप्पस भिड़ाते रहते हैं। मेरे सब काम होते चले गये।
हम लोग भाटिया साहब के घर पहुँच गये मगर उनकी ट्रेन अभी दिल्ली से ही न खुली थीं। घर में सब लोग तब तक सो चुके थे, मगर उनकी पत्नी जग रही थीं। उन्होंने खाना परोसा और बिस्तर लगा कर चली गयीं। भाटिया साहब ने भोजन करना शुरू किया और ट्रेन में कुछ गति आयी। अब ट्रेन सरपट पठानकोट की तरफ़ दौड़ रही थी। हम लोग अगल-बगल के बिस्तरों पर लेटे। सोचा, सुबह माजी और बच्चों से भेंट करूँगा। मेरी आँखों पर नशे और नींद का खुमार छाया हुआ था। बिस्तर पर लेटते ही आँख लग गयी। मेरी आँखों के सामने कटरा था। कटरा में आगे-आगे बच्चे दौड़ रहे थे और पीछे-पीछे भाटिया साहब। न बच्चों को थकान महसूस हो रही थी और न इस उम्र में माँ को। मालूम नहीं मैं नींद में ऐसा सोच रहा था या भाटिया साहब के सुनाने का असर था कि मुझे लगा मैं भी उनके साथ-साथ चल रहा हूँ।
‘लगता है तुम थक गये हो।' अचानक भाटिया साहब की आवाज़ कानों में पड़ी। वह मुझे रजाई ओढ़ा रहे थे और कह रहे थे, ‘अब सो जाओ। सुबह उठ कर बताऊँगा कैसे हुए माँ के दिव्य दर्शन। मुझे तो शाम को दफ़्तर जाना है, दिन में विस्तार से बात होगी।'
मैं सचमुच सो गया। बहुत अच्छी नींद आयी, जैसे बच्चों को लोरी सुनने के बाद आती है। भाटिया साहब सुबह-सुबह बाज़ार से गर्म-गर्म जलेबी ले आये और देर तक नाश्ते के लिए मेरा इन्तज़ार करते रहे। दस बजे तक मुझे होटल पहुँचना था, कुछ मित्रों को बुला रखा था। नाश्ते के तुरन्त बाद मुझे चल देना पड़ा।
शायद कृष्ण भाटिया से मेरी यह मेरी अन्तिम मुलाकात थी। अब भी दिल्ली जाता हूँ तो भाटिया साहब का नम्बर ले जाना नहीं भूलता। वैसे अब तक दूसरे दोस्तों की तरह उनके भी फोन का नम्बर बदल चुका होगा।
हिसार में मुझे इण्टरव्यू का दूसरा पत्र केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय से मिला। इस पद के लिए मैंने आवेदन तब किया था जब जालंधर में छटपटा रहा था। मैंने पोस्ट कार्ड पर आवेदन पत्र भेजा था। यह आठ-दस पंक्तियों में लिखा गया अत्यन्त गैरपारम्परिक पत्र था। मुझे बहुत आश्चर्य हुआ जब पिता के पत्र के साथ जालंधर से इण्टरव्यू के लिए निमंत्रण प्राप्त हुआ। पिताजी ने अपने पत्र में नसीहत दी थी कि मैं अकादमिक जगत में ही रहूँ और दिल्ली हरगिज़ न जाऊँ। उन्होंने एक पत्र कालिज के प्रिंसिपल प्रो0 डी0एन0 शर्मा के नाम भी लिखा था कि वह मुझे हिसार में रहने के लिए ही प्रेरित करें और अगर मैं इस्तीफ़ा भी दूँ तो स्वीकार न करें। प्रिंसिपल को लिखे गये पत्र की प्रतिलिपि उन्होंने मेरे पास भी भिजवायी थी। प्रो0 शर्मा हिसार में प्रिंसिपल का पद ग्रहण करने से पूर्व डी0 ए0 वी0 कालिज जालंधर में अंग्रेजी के विभागाध्यक्ष थे। वह मेरे गुरू भी थे, बी0 ए0 तक मैं उनका छात्र रहा था। वह दार्शनिक किस्म के सादालौह इन्सान थे। कुर्ते पायजामे में कालिज आने वाले वह एकमात्र अध्यापक थे। मेरे पिता जीवन भर डी0 ए0 वी0 संस्थान से ही सम्बद्ध रहे। एक तरह से पठन-पाठन ही हमारा खानदानी पेशा था। पिता जालंधर में, भाई कैनेडा में और बहन इंगलैण्ड में पढ़ाती थी। जाने क्यों मेरे पिता को अन्देशा हो गया था कि मैं लेक्चरारशिप छोड़कर दिल्ली रवाना हो जाऊँगा। हिसार में मुझे कोई परेशानी न थी, भोजन और आवास की उत्तम व्यवस्था हो गयी थी। कक्षा में दो एक अत्यन्त सुन्दर लड़कियाँ भी थीं और मैंने पाल के निर्देशन में दाना डालना भी शुरू कर दिया था। मगर हिसार का खुश्क और गैरसाहित्यिक अनुशासित जीवन मुझे रास न आ रहा था। दिल्ली में नौकरी पाने की आशा थी न अपेक्षा। मैं इण्टरव्यू पत्र पा कर ही प्रसन्न था कि मुफ़्त में एक दिल्ली यात्रा का मौका मिलेगा। हिसार में मुझे लगातार एहसास हो रहा था कि मैं अपनी जड़ों से कटता जा रहा हूँ। जालंधर के दोस्त और वहाँ का फक्कड़ जीवन याद आता। हिसार में कहानी की बात केवल दीवारों से की जा सकती थी। कालिज में कुछ-कुछ गुरुकुल कांगड़ी जैसा वातावरण था, एकदम प्रदूषण रहित, हवन के धुएँ से सुवासित और गायत्रीमंत्र से सिंचित। सिगरेट तक पीने में संकोच और अपराध बोध होता। धूम्रपान करने वाला मैं इकलौता स्टाफ मेम्बर था। लोग जंगल पानी के लिए खेतों में जाते और मैं धूम्रपान करने।
इण्टरव्यू देने गया तो पता चला, एक अनार है और दर्जन भर बीमार। इण्टरव्यू देने वालों की लम्बी कतार थी। ज़्यादातर बेरोज़गार युवक इण्टरव्यू देने आये थे, शायद मैं एकमात्र बारोज़गार यानी नौकरीशुदा था। सब लोग नये-नये कपड़े पहन कर और बाल संवार कर आए थे। साफ़ पता चल रहा था, किसी विशेष अवसर के लिए तैयार हो कर घर से निकले हैं। सब के हाथों में प्रमाण पत्रों का पुलिन्दा था। मेरा इण्टरव्यू बहुत दिलचस्प रहा। मुझसे पूछा गया कि मैंने लापरवाह तरीके से पोस्टकार्ड पर आवेदन क्यों किया था? मैंने जवाब दिया कि मैंने बेरोज़गारी के दिनों में आवेदन किया था और उन दिनों मैं पोस्टकार्ड का खर्च ही वहन कर सकता था। एक सज्जन साहित्यिक रुचि के थे, उन्होंने ‘सारिका' में मेरी कहानी पढ़ रखी थी, उन्होंने कहा कि वह बेरोज़गारी पर मेरी कहानी ‘सिर्फ़ एक दिन' पढ़ चुके हैं। इस बात से मैं बहुत प्रभावित हुआ और अपने बारे में मेरी राय कुछ बदली। एक कहानीकार की ऐंठ से मैंने जवाब दिया कि मैं बेरोज़गार नहीं हूँ। इस सवाल का कि नौकरी क्यों छोड़ना चाहते हैं, मेरे पास जवाब था कि मैं नौकरी नहीं, शहर छोड़ना चाहता हूँ। जितनी लापरवाही से मैंने आवेदन किया था, उस से भी ज़्यादा बेफ़िक्री से इण्टरव्यू दिया। इण्टरव्यू दरियागंज में हुआ था, इण्टरव्यू के बाद मैं पैदल ही ‘बीसवीं सदी' के कार्यालय की तरफ़ चल दिया, हमदम के पास। दिल्ली में सिर्फ़ साप्ताहिक छुट्टी बिताने के इरादे से आया था। दफ़्तर में मैंने अपना हिसार का पता छोड़ दिया था।
कोई दो महीने के बाद मुझे केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय से एक रजिस्टर्ड पत्र प्राप्त हुआ, खोलकर देखा, नियुक्ति पत्र था। उसी डाक से ‘सारिका' से कहानी का पारिश्रमिक प्राप्त हुआ था-सौ रुपये का चेक। नियुक्तिपत्र से कहीं ज़्यादा मुझे पारिश्रमिक मिलने की खुशी हुई। मुझे लगा, अब हिसार मेरे लायक नहीं रहा। मेरे रहने के लिए सही जगह दिल्ली है। मैं दोनों पत्र लेकर प्रिंसिपल के कमरे में घुस गया। नियुक्ति पत्र दिखाने का साहस न हुआ, मैं प्रिंसिपल को चैक दिखाकर लौट आया। उन दिनों सौ रुपये का काफी महत्व था। एक तोला सोना खरीदा जा सकता था। प्रिंसिपल साहब भी प्रभावित हुए कि एक प्रतिभाशाली नवयुवक उनके स्टाफ पर है, जिसे कहानी लिखने का सौ रुपया मिल सकता है। मुझे लगा, नियुक्तिपत्र दिखाया तो वह बिगड़ जाएँगे और मेरे पिता को सूचित कर देंगे। शनिवार को मैं दिल्ली गया और दफ़्तर में जगदीश चतुर्वेदी और कृष्णमोहन श्रीवास्तव (अब दिवंगत) से भेंट की। मेरे साथ-साथ दो और लोगों की नियुक्ति हुई थी। वे थे शेरजंग गर्ग और रमेश गौड़। दोनों पदभार ग्रहण कर चुके थे और ऐसा लग रहा था जैसे युगों-युगों से इस कार्यालय में काम कर रहे हों। हिसार लौटकर भी मैं इस्तीफा देने का साहस न बटोर सका। आखिर मैंने तय किया कि बग़ैर इस्तीफा दिये ही हिसार से निकल जाना बेहतर होगा। पहली तारीख को मैंने वेतन लिया और बग़ैर किसी को बताए अटैची केस उठा कर दिल्ली जाने वाली पहली बस में सवार हो गया। तब तक जालंधर से आकर तीन लोग दिल्ली बस चुके थे-सत सोनी, कृष्ण भाटिया और हमदम यानी मेरे पास दिल्ली में रहने के लिए तीन ठौर थे। मुझे खबर लगी थी कि मोहन राकेश भी ‘सारिका' से इस्तीफ़ा देकर जल्द ही दिल्ली लौट रहे हैं।
दिल्ली में पैर जमाने में मुझे बहुत ज़्यादा संघर्ष नहीं करना पड़ा। मुझे लगा, जैसे मैं बिरादरी बाहर कर दिया गया था औेर अब मेरा वनवास कट चुका है। मैं जैसे अपने घर लौट आया। दफ़्तर में डा0 सुरेश अवस्थी, कृष्णमोहन श्रीवास्तव, डा0 रणवीर रांग्रा, ख्वाजा बदीउज़्ज़मा, जगदीश चतुर्वेदी, शेरजंग गर्ग, रमेश गौड़, एम0एल0ओबेराय, के खोसा आदि थे और बाहर मोहन राकेश, सत सोनी, कृष्ण भाटिया, और गंगाप्रसाद विमल, हमदम। बहुत तेज़ी से दोस्तों की संख्या में इज़ाफा हो रहा था। काफी हाउस में नित नये रचनाकारों से भेंट होती।
उन दिनों केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय द्वारा ‘भाषा' त्रैमासिक का प्रकाशन होता था, शायद आज भी होता है। कुछ दिनों बाद मुझे भी भाषा के सम्पादकीय विभाग से सम्बद्ध कर दिया गया। मिसेज़ तारा तिक्कू ‘भाषा' की सम्पादक थीं और जगदीश चतुर्वेदी उन के सहायक। एम0 एल0 ओबेराय कलाकार थे और ‘भाषा' की साज सज्जा देखते थे। बाद में उनके साथ के0 खोसा की भी नियुक्ति हो गयी। ओबेराय साहब को स्टूडियो के लिए अलग कमरा मिला हुआ था। एक कमरे में जगदीश और मैं साथ-साथ बैठते थे। मिसेज़ तिक्कू के पास अलग कमरा था। दरियागंज में गोलचा के सामने दफ़्तर था, वहाँ से उठ कर दफ़्तर कुछ दिनों के लिए आसफ़ अली रोड चला गया और उस के बाद प्रगति मैदान में। हम लोग धीरे-धीरे कनाट-प्लेस की तरफ़ सरक रहे थे। मिसेज़ तारा तिक्कू अद्भुत महिला थीं। अद्भुत इसलिए कि यह जगदीश चतुर्वेदी का तकिया कलाम था। हम पीठ पीछे उसे ‘अद्भुतजी' कहते थे। उस के निकट महिला, कविता, ताजमहल, कुतुबमीनार, अकविता सब कुछ अद्भुत था। तार सप्तक के बाद ‘प्रारम्भ' अद्भुत था। मिसेज़ तारा तिक्कू में अफसरी बू नहीं थी, वह एक खुशबूदार महिला थीं और उन दिनों ‘इंटीमेसी' नाम का आयातित परफ़्यूम इस्तेमाल करती थीं। उनका परफ़्यूम दिल्ली में न मिलता था तो बम्बई से मँगवाती थीं। वह बहुत नफासतपसंद महिला थीं। एक बार मैंने आलस में दो तीन दिन शेव नहीं बनवायी, यों ही लापरवाही से दफ़्तर चला जाता, किसी काम से उनके कमरे में जाना हुआ तो उन्होंने बात करने से मना कर दिया। ड्राइवर को बुला कर कहा इन्हें किसी नाई के यहाँ ले जाइए। एक बार मिसेज़ तिक्कू कुछ दिन कार्यालय नहीं आयीं, मालूम हुआ बीमार चल रही हैं। मैं, जगदीश और ओबेराय मिजाज़पुर्सी के लिए उनके बंगले पर गये। वह पीठ पर तकिया लगा कर लेटी हुई थीं। बीमारी की हालत में भी उन्होंने सब का जायजा़ लिया। मैंने हफ़्तों से जूते पालिश नहीं किये थे। सच तो यह है कि मैंने जीवन में कभी जूते पालिश नहीं किये और न करवाए। जब पहनने लायक नहीं रहे तो फेंक दिये। अचानक उन की निगाह मेरे जूतों पर चली गयी। उन्होंने तुरन्त वहाँ से जूते पालिश करवाने रवाना कर दिया और मोची का ठिकाना भी बता दिया। जूते पालिश करवा कर आओ तब इत्मीनान से बैठ कर मिजाज़पुर्सी करना। मुझे लगा था, वह फकीरों को तमीज़ सिखा रही हैं। यह तो मुझे भी मालूम था कि जूते पालिश करवाये जाते हैं, मगर मैंने कभी उसकी ज़रूरत महसूस न की थी। सच तो यह है कि मैं मिसेज़ तिक्कू के सम्पर्क में न आया होता तो अपने मित्रों काशी, दूधनाथ और ज्ञानरंजन की तरह दाढ़ी बढ़ा लेता। वैसे इस का श्रेय ममता को भी जाता है। उसने कभी मूँछें रखने दीं न दाढ़ी। इस लिहाज़ से वह मिसेज़ तिक्कू से भी ज्यादा सख्त थी। मैं भी खुशी-खुशी उस की बात पर राज़ी हो गया कि पत्नी की ऐसी आसान ख्वाहिशें ज़रूर पूरी की जा सकती हैं ।
(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)
i am son of late janab khushtar girami ji editor'biswin sadi'.and son in law of late yash ji editor 'milap'.
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