सीमा सचदेव का कविता संग्रह : मेरी आवाज भाग -2

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भूमिका:- भाषा भावों की वाहिका होती है | मेरी आवाज़ भाग-२ उन भावों का संग्रह है जो समय-समय पर कहीं अंतरमन में उमड़े और लेखनी का रूप ले लिया |उ...

भूमिका:- भाषा भावों की वाहिका होती है | मेरी आवाज़ भाग-२ उन भावों का संग्रह है जो समय-समय पर कहीं अंतरमन में उमड़े और लेखनी का रूप ले लिया |उसी लेखनी को आवाज़ देने के लिए प्रस्तुत है- मेरी आवाज़ भाग-२ |

 

मेरी आवाज मेरे माता-पिता को एक छोटा सा उपहार है जिन्होंने मुझे आवाज़ दी |

 

आशा है पाठकों को मेरा यह अति लघु प्रयास पसंद आएगा |

(प्रस्तुत कविता संग्रह पीडीएफ़ ईबुक के रूप में यहाँ से डाउनलोड कर पढ़ें)

सीमा सचदेव

 

मेरी आवाज़ ६० कविताओं का संग्रह है

१.प्रणाम करूं तुझको माता

२.प्यारे पापा

३.प्रणाम तुझे भारत माता

४.हे कान्हा अब फिर से आओ

५.कविता के लिए वध

६.प्यास

७.भूख की अर्थी

८.टीस

९.असली-नकली चेहरा

१०.माँ

११आतंकवाद और आतंकवादी की माँ

१२.पीड़ पराई

१३.कलाकार

१४.घर

१५.नारी परीक्षा

१६.पापी पेट

१७.माँ का कर्ज़

१८.माँ का सौदा

१९.कठपुतली

२०.अंधेरे से उजाले तक

२१.सूर्य की इन्तजार में

२२.अज्ञात कन्या

२३.मुखौटा (क्षणिकाएँ )

२४.लोकल ट्रेन

२५.कसम से वो दर्द हम...

२६.पापा (क्षणिकाएँ )

२७.उधार की जिन्दगी

२८.कचरे वाली

२९.हम जलाने वाले नहीं

३०.मकडी

३१.गाय

३२.हाय-हाय

३३.मँहगाई

३४.सिम्बोलिक लेन्गुएज

३५.जब चेहरे से नकाब हटाया मैने

३६.जिन्दगी है तो जियो

३७.भाषा का जन्म

३८.तुकबन्दी

३९.कौन है वो....?

४०.मुझे समझ नहीं आता

४१.जेनरेशन गैप

४२.आधुनिक बच्चे

४३.आम आदमी

४४.छुअन

४५.माँ की आँखें

४६.हिन्दी दिवस का नारा(क्षणिकाएँ)

४७.माँ की परिभाषा

४८.आँखें (क्षणिकाएँ )

४९.चॉक

५०.रिश्ते

५१.रिश्ते

५२.दुश्मन को सर न उठाने देंगे

५३.आजाद भारत की समस्याएं

५४.न जाने क्यों....?

५५.जान की होली

५६.जीवन एक कैनवस

५७.जूतो की नियति

५८.भरी महफिल में नंगे पांव

५९.शहीदो के घर

६०.मृगतृष्णा

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1.प्रणाम करूँ तुझको माता

हे जननी जीवन दाता

प्रणाम करूँ तुझको माता

तू सुख समृद्धि से संपन्न

निर्मलपावन है तेरा मन

तुझसे ही तो है ये जीवन

तुझसे ही भाग्य लिखा जाता

प्रणाम करूँ तुझको माता

माँ की गोदीपावनआसन

हम वार दें जिस पर तन मन धन

तू देती है शीतल छाया

जब थक कर पास तेरे आता

प्रणाम करूँ तुझको माता

इस विशाल भू मंडल पर

माँ ही तो दिखलाती है डगर

माँ एसी माँ होती न अगर

तो मानव थक कर ढह जाता

प्रणाम करूँ तुझको माता

हर जगह नहीं आ सकता था

भगवान हमारे दुख हरने

इस लिए तो माँ को बना दिया

जगजननीजग की सुख दाता

प्रणाम करूँ तुझको माता

धरती का स्वर्ग तो माँ ही है

इस माँ की ममता के आगे

बेकूंधाम , शिव लोक तो क्या

ब्रह्म लोक भी छोटा पड़ जाता

प्रणाम करूँ तुझको माता

ऐसी पावनसरला माँ का

इक पल भी नहीं चुका सकते

माँ की ह्र्दयासीस बिना

मानव मानव नहीं रह पाता

प्रणाम करूँ तुझको माता

क्यों मातृ दिवस इस माँ के लिए

इक दिन ही नाम किया हमने

इक दिन तो क्या इस जीवन में

इक पल भी न उसका दिया जाता

प्रणाम करूँ तुझको माता

माँ बचों की बच्चे माँ के

भूषण होते हैं सदा के लिए

न कोई अलग कर सकता है

ऐसा अटूट है ये नाता

प्रणाम करूँ तुझको माता

माँ को केवल इक दिन ही दें

भारत की ये सभ्यता न थी

माँ तो देवी मन मंदिर की

हर पल उसको पूजा जाता

प्रणाम करूँ तुझको माता

बच्चों के दर्द से रोता है

इतना कोमल माँ का दिल है

बच्चों की क्षुधा शांत करके

खाती है वही जो बच जाता

प्रणाम करूँ तुझको माता

सच्चे दिल से इस माता को

इक बार नमन करके देखो

माँ के आशीष से जीवन भी

सुख समृद्धि से भर जाता

प्रणाम करूँ तुझको माता

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2.प्यारे पापा

प्यारे पापा सच्चे पापा ,

बच्चों के संग बच्चे पापा |

करते हैं पूरी हर इच्छा ,

मेरे सबसे अच्छे पापा |

पापा ने ही तो सिखलाया,

हर मुश्किल में बन कर साया |

जीवन जीना क्या होता है,

जब दुनिया में कोई आया |

उंगली को पकड़ कर सिखलाता,

जब पहला क़दम भी नहीं आता |

नन्हे प्यारे बच्चे के लिए ,

पापा ही सहारा बन जाता |

जीवन के सुख-दुख को सह कर,

पापा की छाया में रह कर |

बच्चे कब हो जाते हैं बड़े,

यह भेद नहीं कोई कह पाया |

दिन रात जो पापा करते हैं,

बच्चे के लिए जीते मरते हैं |

बस बच्चों की ख़ुशियों के लिए,

अपने सुखों को हरते हैं |

पापा हर फ़र्ज़ निभाते हैं,

जीवन भर क़र्ज़ चुकाते हैं |

बच्चे की एक ख़ुशी के लिए,

अपने सुख भूल ही जाते हैं |

फिर क्यों ऐसे पापा के लिए,

बच्चे कुछ कर ही नहीं पाते |

ऐसे सच्चे पापा को क्यों,

पापा कहने में भी सकुचाते |

पापा का आशीष बनाता है,

बच्चे का जीवन सुखदाइ ,

पर बच्चे भूल ही जाते हैं ,

यह कैसी आँधी है आई |

जिससे सब कुछ पाया है,

जिसने सब कुछ सिखलाया है |

कोटि नम्न ऐसे पापा को,

जो हर पल साथ निभाया है |

प्यारे पापा के प्यार भरे'

सीने से जो लग जाते हैं |

सच्च कहती हूँ विश्वास करो,

जीवन में सदा सुख पाते हैं |

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3.प्रणाम तुझे भारत माता

प्रणाम तुझे भारत माता

प्रणाम तुझे भारत माता

तेरे गुण सारा जग गाता

अनुपम तेरी जीवन गाथा

संघर्षरत रह कर तुमने

अपना यह नाम कमाया है

अपने ही भुजबल से तुमने

अपने को उँचा उठाया है

हम नमन् तुम्हें करते-करते

इतिहास तेरा पढ़ते-पढ़ते

मस्तक श्रद्धा से झुकता है

बस याद तुम्हें करते-करते

वैदिक युग की महारानी तुम

युग परम्परा की परवक्ता

सभय-संस्कृति का मेल तुम्हीं

स्वराज्य यहाँ राज्य करता

लौकिक युग की शहज़ादी को

पलकों पे बिठाया जाता था

दे कर सुनदर रूप तुम्हें

जब भाग्य जगाया जाता था

मध्य युग में अर्धांगिनी का

रूप तुम्हें जब दे ही दिया

तो भी तुमने चुपचाप रह

अपने उस रूप को वरण किया

पैरों की दासी बना दिया

जब भारत की महारानी को

तब कौन सहन कर सकता है

माँ की ऐसी कुर्बानी को

कोई बेटा नहीँ यह सह सकता

माँ को दासी नहीँ कह सकता

फिर तेरे बेटों ने ठान ली

माँ की ममता पहचान ली

निकले फिर माँ के रखवाले

सचमुच ही थे वो दिलवाले

बाँध लिया था कफ़न सिर पर

और उठा लिया माँ को मरकर

उन वीरों ने जो खून दिया

और इतना बड़ा बलिदान दिया

कितना वो माँ को चाहते हैं

मर करके यही सबूत दिया

माँ को आज़ाद करा ही दिया

दुश्मन को घर से भगा ही दिया

रक्षा की माँ के ताज़ की

बनी रानी भारत राज की

देश आज़ाद हुआ अपना

वर्षों से था जो इक सपना

माँ ने कितने बेटे खोए

बिन स्वारथ के जो जा सोए

अच्छे- बुरे हम जैसे भी हैं

क्या कम? हम भारतवासी हैं

सर उँचा रहता है अपना आज

क्योंकि अपना है देश आज़ाद

भारत माता है महारानी

हमें स्मरण है वीरों की कुर्बानी

जो इस पर नज़र उठाएगा

वो हमसे नहीँ बच पाएगा

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4. हे कान्हा अब फिर से आओ

हे कान्हा अब फिर से आओ

आकर भारत भू बचाओ

अपना दिया हुआ वचन निभा दो

आकर दुनिया को दिखला दो

आज तुम्हें हर आँख निहारे

हर जन की आत्मा पुकारे

एक कन्स के हेतु गिरधर

आए थे तुम भारत भू पर

राक्षसों का करके सफाया

तुमने अपना धर्म निभाया

देखो यह आतंकी रूप

कितना उसका चेहरा कुरूप

फैला रहे आतंकवाद

करने भारत भू बर्बाद

मारें निहत्थे लोग नादान

नहीं सुरक्षित किसी की जान

जिस धरती पर तुम खुद आए

गीता के उपदेश सुनाए

जिस भूमि का हर कण पावन

आ रहे वहाँ आतंकी रावण्

भरे हुए अब सबके नैन

नहीं किसी के मन में चैन

हे दाऊ के भैया आओ

दाऊद के भाई समझाओ

नहीं तो समझाओ हर अर्जुन

मार मुकाएँ हर दुर्योधन

भेजे बहुत ही शान्ति दूत

पर न माने कोई कपूत

अहंकार वश मर जाएँगे

खत्म वो कुनबा कर जाएँगे

पर न समझेंगे यह बात

सत्य तो है हमारे साथ

सच्चाई की होगी जीत

नहीं फलेगी बुरी कोई नीत

दुश्मन के घर हम जाएँगे

अपना झण्डा फहराएँगे

हम भारत माँ की सन्तान

माँ के लिए दे देंगे जान

करना कान्हा बस इतना करम

नहीं खत्म हो मानव धर्म

तुम सत्य के रथ पर रहना

हर अर्जुन को बस यह कहना

अपना सच्चा करम निभाओ

मन में आशंका न लाओ

बस तुम इतना करो उपकार

न हों हमारे बुरे विचार

बुरा नहीं कोई इन्सान

सबमें बसता है भगवान

बुराई को हम जड़ से मिटाएँ

फर्ज़ की खातिर हम मिट जाएँ

तुम बस सत्य रथ को चलाना

अपना दिया हुआ वचन निभाना

देता है इतिहास गवाही

जब भी कोई हुई तबाही

सत्यवादी तब-तब कोई आया

आकर अत्याचार मिटाया

फिर से अत्याचार मिटाओ

हे कान्हा अब फिर से आओ

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5.कविता के लिए वध

कहते हैं....?

कविता कवि की मजबूरी है

उसके लिए वध जरूरी है

जब भी होगा कोई वध

तभी मुँह से फूटेंगे शब्द

दिमाग में था बालपन से ही

कविता पढने का कीड़ा

न जाने क्यूँ उठाया

कविता लिखने का बीड़ा

किए बहुत ही प्रयास

पर न जागी ऐसी प्यास

कि हम लिख दे कोई कविता

बहा दे हम भी भावो की सरिता

कहने लगे कुछ दोस्त

कविता ए लिए तो होता है वध

कितने ही मच्छर मारे

ताकि हम भी कुछ विचारे

देखे वधिक भी जाने-माने

पर नहीं आए जजबात सामने

नहीं उठा मन में कोई ब्वाल

छोड़ा कविता लिखने का ख्याल

पर अचानक देख लिया एक नेता

बेशर्मी से गरीब के हाथों धन लेता

तो फूट पड़े जजबात

निकली मुँह से ऐसी बात

जो बन गई कविता

बह गई भावों की सरिता

सुना था जरूरी है

कविता के लिए वध

फिर आज क्यो

निकले ऐसे शब्द ?

फिर दोस्तों ने ही समझाया

कविता फूटने का राज बताया

नेता जी वधिक है साक्षात

वध किए है उसने अपने जजबात

जिनको तुम देख नहीं पाए

और वो शब्द बनकर कविता में आए

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6..प्यास

चौराहे पर खडा विचारे

बन्द मार्ग सारे के सारे

मुड जाता है उसी दिशा में

जिधर से भी कोई उसे पुकारे

न कोई समझ न सोच रही है

बन गई दिनचर्या ही यही है

जिम्मेदारी सिर पर भारी

चलता है जैसे कोई लारी

दूध के कर्ज़ की सुने दुहाई

कभी जीवन सन्गिनी भरमाई

माँगे रखते हैं कभी बच्चे

बॉस के भी है नौकर सच्चे

हाँ में हाँ मिलाता रहता

बस खुद को समझाता रहता

करता है उनसे समझौते

जो राहों के पत्थर होते

किसे देखे किसे करे अनदेखा?

कौन से करमों का देना लेखा?

बचपन से ही यही सिखाया

जिस माँ-बाप ने तुमको जाया

उनका कर्ज़ न दे पाओगे

भले जीवन में मिट जाओगे

पत्नी सँग लिए जब फेरे

कस्मे-वादों ने डाले डेरे

दफतर में बैठा है बॉस

दिखाता रहता अपनी धौंस

चाहकर भी न करे विरोध

अन्दर ही पी जाता क्रोध

समझे कोई न उसकी बात

न दिन देखे न वो रात

अपनी इच्छाओं के त्याग

नहीं है कोई जीवन अनुराग

पिसता है चक्की में ऐसे

दो पाटों में गेहूँ जैसे

सबकी इच्छा ही के कारण

कितने रूप कर लेता धारण

फिर भी खुश न माँ न बीवी

क्या करे यह बुद्धिजीवी ?

माँ तो अपना रौब दिखाए

और बीवी अधिकार जताए

एक अकेला किधर को जाए?

किसको छोड़े किसको पाए ?

साँप के मुँह ज्यों छिपकली आई

यह् कैसी दुविधा है भाई

छोड़े तो अन्धा हो जाए

खाए तो दुनिया से जाए

हर पल ही है पानी भरता

और अन्दर ही अन्दर डरता

पुरुष है नहीं वो रो सकता है

अपना दुख न धो सकता है

आँसू आँखो में जो दिखेगा

तो समाज भी पीछे पड़ेगा

....................

पुरुष है पर नहीं है पुरुषत्व

नहीं अच्छा आँसुओं से अपनत्व

बहा नहीं सकता अश्रु अपने

न देखे कोई कोमल सपने

दूसरों की प्यास बुझाता रहता

खुद को ही भरमाता रहता

स्वयम तो रहता हरदम प्यासा

जीवन में बस मिली निरासा

पाला बस झूठा विश्वास

नहीं बुझी कभी उसकी प्यास

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7.भूख की अर्थी

सफेद कपड़े से सजी अर्थी पर

पुष्प वर्षा ,ढोल नगाड़े

फिल्मी गानों की

धुन पर नाचते लोग

जा रहे मरघट की ओर

अनहोनी

सचमुच अचम्भित

करने वाली घटना

मरघट और नाच गाना

जहां होता है बस रोना-रुलाना

???????????????

होगा कोई अमीरजादा

पी होगी ज्यादा

मर गया

परिवार को आज़ाद कर गया

या फिर होगा कोई सठियाया

मरते-मरते होगा

अपना फरमान सुनाया

या फिर होगा कोई अत्याचारी

फैलाई होगी सामाजिक बीमारी

आज मर गया

लोगो को खुश कर गया

चलो जो भी था???????

धरती का बोझ कम कर गया

कौन था ?जान लेते हैं....

जिज्ञासा , शान्त कर लेते हैं

पता चला

कोई नामी किसान था

कभी उसका भी नाम था

बेटे को पढाना

उसका अरमान था

इसी चक्कर में

बन गया मजदूर

रोका था उसे

न करो यह कार्य क्रूर

पढ-लिख कर बेटा क्या कमाएगा

नहीं पढ़ेगा , तो तेरा हाथ बँटाएगा

कोई बात न मानी

बस अपनी ही जिद्द ठानी

पूरी भी की

और बेटे ने डिग्री भी ली

सारी उम्र पढाई में गाली

बाप किसान से बन गया माली

और बेटा

कागज का टुकड़ा

हाथ में थामे

दर-दर भटकता था

माँ-बाप को भी अटकता था

पेट में भूख करती थी नर्तन

बजते थे घर में खाली बर्तन

लान्घी तो थी उसने चारदीवारी

पर आगे पसरी थी बेरोजगारी

नहीं जानता था जेब काटना

और न अपना दुख बाँटना

स्वाभिमानी था

पढाई में उसका न कोई सानी था

पर न तो बची थी दौलत

न थी इतनी शौहरत

कि उसे कोई काम मिल जाता

भूखे मरते थे

बस पानी ही पीते थे

बेटा खुदकुशी कर गया

बाप भूख से मर गया

माँ , बाप के साथ होगी सती

मिल जाएगी तीनों को गति

बेटा जवान था

माँ -बाप का अरमान था

उसका ब्याह रचाएँगे

बैण्ड बाजा बजाएँगे

जीते जी तो इच्छा रही अधूरी

अब कर देते हैं पूरी

उसने मौत को गले लगाया है

उसी को दुल्हन बनाया है

अब भूखे न रहेंगे

कोई दर्द न सहेंगे

मर कर समस्या हल कर दी

यह निकल रही है भूख की अर्थी

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8.टीस

हृदयासागर पर

भावनाओं के चक्रवात को

चीरती निकलती है

विनाशकारी लहर

बह जाती

अनजान पथ पर

तेज नुकीली धार बन कर

मापती अनन्त गहराई

बिना किनारे और

मन्जिल के

चलती बेप्रवाह

कही भी तो

नहीं मिलती थाह

या फिर

चीरती है

काँटे की भांति

मन-मत्सय के सीने को

निकलती है बस

आह भरी चीस

भर जाती हृदय में टीस

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9. असली नकली चेहरा

चेहरे पे चेहरा लगाते हैं लोग

सुना था

पर आज अपना ही चेहरा

नहीं पहचान पाती मैं

जब भी जाओ

आईने के सामने

ढूँढ़ना पड़ता है अपना चेहरा

न जाने कितने चेहरों

का नकाब ओढ़ रखा है

एक-एक कर जब सम्मुख

आते हैं

अपना परिचय करवाते हैं

तो सच में ऐसे खूँखार चेहरों से

मुझे डर लगता है

कभी चाहती हूँ

मिटा दूँ इन सभी को

और ओढ़ लूँ केवल अपना

वास्त्विक चेहरा

न जाने क्यों उसी क्षण लगते हैं

सभी के सभी चेहरे अपने से

मुझे इनसे प्यार नहीं

ये सुन्दर भी नहीं

असह हैं मेरे लिए

फिर भी सहती हूँ

क्योंकि

यह मेरी कमजोरी नहीं

मजबूरी हैं

घूमने लगते हैं मेरे सम्मुख

वो सभी चेहरे

जिनको मैं जी-जान से चाहती हूँ

जिनके लिए मैंने अपनाए है

इतने सारे चेहरे

वो चेहरे, जिनकी एक मुस्कान

की खातिर

हर बार लगाया मैंने नया चेहरा

और भूलती गई

अपने चेहरे की पहचान भी

आज उस मोड़ पर हूँ

कि यह चेहरे हटा भी दूँ

असली चेहरे को अपना भी लूँ

तो वो चेहरा सबको

नकली ही लगेगा

मैं खुश तो नहीं

सन्तुष्ट हूँ

कि नकली चेहरा देखकर

मुस्कुरा देता है कोई

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10.माँ

नि:शब्द है

वो सुकून

जो मिलता है

माँ की गोद में

सर रख कर सोने में

वो अश्रु

जो बहते हैं

माँ के सीने से

चिपक कर रोने में

वो भाव

जो बह जाते हैं अपने ही आप

वो शान्ति

जब होता है ममता से मिलाप

वो सुख

जो हर लेता है

सारी पीड़ा और उलझन

वो आनन्द

जिसमे स्वच्छ

हो जाता है मन

......................................................

.......................................................

माँ

रास्तों की दूरियाँ

फिर भी तुम हरदम पास

जब भी

मैं कभी हुई उदास

न जाने कैसे?

समझे तुमने मेरे जजबात

करवाया

हर पल अपना अहसास

और

याद हर वो बात दिलाई

जब

मुझे दी थी घर से विदाई

तेरा

हर शब्द गूँजता है

कानों में सन्गीत बनकर

जब हुई

जरा सी भी दुविधा

दिया साथ तुमने मीत बनकर

दुनिया

तो बहुत देखी

पर तुम जैसा कोई न देखा

तुम

माँ हो मेरी

कितनी अच्छी मेरी भाग्य-रेखा

पर

तरस गई हूँ

तेरी

उँगलियों के स्पर्श को

जो चलती थी मेरे बालों में

तेरा

वो चुम्बन

जो अकसर करती थी

तुम मेरे गालों पे

वो

स्वादिष्ट पकवान

जिसका स्वाद

नहीं पहचाना मैने इतने सालो में

वो मीठी सी झिड़की

वो प्यारी सी लोरी

वो रूठना - मनाना

और कभी - कभी

तेरा सजा सुनाना

वो चेहरे पे झूठा गुस्सा

वो दूध का गिलास

जो लेकर आती तुम मेरे पास

मैने पिया कभी आँखें बन्द कर

कभी गिराया तेरी आँखें चुराकर

आज कोई नहीं पूछता ऐसे

???????????????????

तुम मुझे कभी प्यार से

कभी डाँट कर खिलाती थी जैसे

******************************************

11. आतंकवाद और आतंकवादी की माँ

चाँद सा सुत जन्मा

माँ खुश

गोदी में लाल की किलकारी

लगी बड़ी प्यारी

दिख गए सूनी आँखों में

न जाने कितने ही सपने

बड़ा होगा तो

सहारा बन जाएगा

उसकी सौतन भूख को भगाएगा

मेरा नाम भी चमकाएगा

पर सौतन थी कि

बदले की आग में भड़की थी

उसने भी अपनी जिद्द पकड़ी थी

सौतेली ही सही

मैं इसकी माँ कहलाऊँगी

और दुनिया को दिखाऊँगी

इसकी माँ के साथ मेरा नाम भी आएगा

सौतेला ही सही

मेरा सुत भी कहलाएगा

मेरे लिए यह खून पिएगा

दूसरों को मार के जिएगा

माँ का दूध नहीं इसके सर

खून चढ़ के बोलेगा

खुद रुलेगा दूसरों को रोलेगा

जननी की लाचारी थी

सौतन जो अत्याचारी थी

चाह कर न बचा पाई अपना ही जाया

सौतेली माँ ने ऐसा भरमाया

हाथ में हथियार थमा दिया

और सौतेले सुत को

आतंकवादी बना दिया

खुद आतंकवाद की माँ बन बैठी

न जाने कितनी ही लाशें

उसके सम्मुख लेटीं

सौतेले सुत ने नाम चमका दिया

स्वंय को आतंकवादी बना दिया

जननी का कर्ज़ ऐसा चुकाया कि

उसकी कोख पर कलंक लगा दिया

सौतेली माँ को जिता दिया

और अपनी माँ को

आतंकवादी की माँ बना दिया

****************************

12.पीड पराई

गम की लू से

सूखे पत्ते के समान

पतझड़ में डाली से टूटकर

गिरते किसी फूल की कली सी

जिसकी खुशबू नदारद

सहमी सिमटी

पहाड़ सी जिन्दगी

कुरलाती है

अपने आप में

एक व्यथा बताती है

क्या.......?

यही है जीवन

कि ........

स्वयम् को करदो अर्पण

केवल

किसी की कुछ पल की

तस्सली के लिए

जीवन भर जिल्लत का

बोझ उठा कर जिए

नहीं जाने कोई

उस पीड़ा और जिल्लत

की गहराई

जिसने बना दिया सबसे पराई

न घर मिला न चाहत

न ही मन में मिली कभी राहत

*************************************

13.कलाकार

ईश्वर से

बिछुडी आत्मा का

सुखद सँयोग ,सम्भोग

प्रकृति के सन्ग

भरता नई उमन्ग

हुआ

कोमल भावनाओं का जन्म

जो

मिल गई

हृदयासागर में बन कर तरन्ग

बहे भाव

सरिता की भांति

एकाकार ,निश्चल,निश्कपट

निरन्तर प्रवाहित सुविचार

चक्षुओं पर प्रहार

सोच पर अत्याचार

और बन गया कलाकार

****************************

14.घर

कभी

नन्हे हाथों से

बनाते थे रेत के घर

देख के उनको लगता था

जैसे हम है कोई जादूगर

सजाते

सँवारते

थपथपाते

मर्जी के मालिक

रखते थे

हर सुख-सुविधा का ध्यान

अनजाने में ही सही

कही न कही छुपा तो था

मन में

सुन्दर घर का अरमान

बनाते

बिगाड़ते

अपनी जगह नापते

छूट गया कब

उस बालु का साथ

अब हम बच्चे नहीं

हमारे हाथ भी नन्हे नहीं

समय भी खिसका

मुट्ठी से बालु की भांति

और ले ली जगह

पत्थरों नें

फिर से जगा एक बार

उसी सुन्दर घर का सपना

प्यारा सा घर हो अपना

जिसकी कभी छत पर

तो कभी आँगन में

खेले हमारे भी नन्हे बच्चे

बिल्कुल वैसे ही नन्हे हाथों से

बनाएँ वैसे ही रेत के घरौन्दे

और हमारी तरह पाले

मन में सुन्दर घर का सपना

घर मिला

बिना जमीन और छत के

न धरती न आसमान

कुछ भी तो नहीं अपना

एक बड़ी सी बिल्डिन्ग के

फिफ्थ फ्लोर पर

न जाने नीचे कौन और ऊपर कौन

कितनी बेबसी है

हम फिर भी रहते हैं मौन

********************

15.नारी-परीक्षा

मत लेना कोई परीक्षा अब

मेरे सब्र की

बहुत सह लिया

अब न सहेंगे

हम अपने आप को

सीता न कहेंगे

न ही तुम राम हो

जो तोड़ सको शिव-धनुष

या फिर डाल सको पत्थरों में जान

नहीं बन्धना अब मुझे

किसी लक्ष्मण रेखा मे

यह रेखाएँ पार कर ली थी सीता ने

भले ही गुजरी वो

अग्नि परीक्षा की ज्वाला से

भले ही भटकी वो जन्गल-जन्गल

भले ही मिला सब का तिरस्कार

पर कर दिया उसने नारी को आगाह

कि तोड़ दो सब सीमाएँ

अब नहीं देना कोई परीक्षा

अपनी पावनता की

नहीं सहना कोई अत्याचार

बदल दो अब अपने विचार

नारी नहीं है बेचारी

न ही किस्मत की मारी

वह तो आधार है इस जगत का

वह तो शक्ति है नर की

आधुनिक नारी हूँ मैं

नहीं शर्म की मारी हूँ मैं

बना ली है अब मैने अपनी सीमाएँ

जिसकी रेखा पर

कदम रखने से

हो सकता है तुम्हारा भी अपहरण

या फिर मैं भी दे सकती हूँ

तुम्हें देश-निकाला

कर सकती हूँ तुम्हारा बहिष्कार

या फिर तुम्हें भी देनी पड सकती है

कोई अग्नि परीक्षा

******************************************

पहली बार नारी की आजादी की पहल की थी तो जानकी सीता ने लक्षमण-रेखा को लाँघ कर

और कर दिया आज की नारी को आगाह कि नहीं देना कोई परीक्षा |प्रणाम है उस नारी को

जिसने आधुनिक नारी को राह दिखाई

******************************************

16.पापी पेट

अल्ला के नाम पर एक रुपैया

बच्चे की खातिर देदे बाबू

भगवान तुम्हें लाखों देगा

जैसे शब्द गूँज जाते हैं

राह चलते

कभी किसी मन्दिर ,अस्पताल के द्वार

या फिर किसी ट्रेन में सफर करते

छोटे बच्चे को पीठ पर पिट्ठु की तरह बाँधे

कोई माँ आती है हाथ फैलाती है

दो-चार दुआएँ सुनाती है

न मिलने पर मुँह में ही बुदबुदाती है

अन्दर की आग को बद-दुयाओ से दबाती है

और पीठ के पीछे बन्दरिया के बच्चे की भांति

चिपका हुआ बच्चा अभी से समझता है

माँ की जुबान , सीख रहा है उसी की भाषा

है तो अभी दीन-दुनिया से बेखबर

पर सीख गया है वो करना सब्र

दुनिया की भीड़ में भी चिल्लाता नहीं है

माँ को सताता नहीं है

नहीं माँगता कभी चॉक्लेट, आईस-क्रीम

या फिर चटपटे चिप्स

कभी- कभी सूँघ कर खुशबू

फेरता है जीभ अपने सूखे अधरों पर

और हो जाता है सन्तुष्ट

बेस्वाद जीभ का स्वाद चखकर

घूमता है माँ के साथ सारा दिन

नहीं थकता पर , यही तो कमाल है

क्या करे ? पापी पेट का सवाल है

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17.माँ का कर्ज़

सुन-सुन कर पक गए थे कान

कि इतिहास अपने आप को दोहराता है

हमारा इतिहास से गहरा नाता है

अब देखा है मैने ,उस बीते कल को वापिस आते

सच में समय का पहिया घूमते-घूमते

फिर से आ खड़ा हुआ है उसी बिन्दु पर

जहां से चला था

और फिर से चल पडा है इतिहास दोहराने

मैने देखा था अपनी माँ को

मेरे इन्त्जार में आँखें गडाए

आज मैं भी तो गडाती हूँ

सुनती थी माँ की लोरी

आज मैं भी तो सुनाती हूँ

कभी मेरा गुस्सा माँ चुप-चाप पी जाती थी

आज मैं भी पी जाती हूँ

देखा था माँ का सबको खिला कर खाना

आज मैं भी तो सबको खिला कर खाती हूँ

कभी हँसती थी माँ की भोली सी बातों पर

आज वही बातें मैं भी तो दोहराती हूँ

कभी न समझा था माँ की उस सहन शक्ति को

जिसको आज मैं सह जाती हूँ

मैं माँ से कितना मिलती-जुलती हूँ

अब लगता है मैं माँ की माँ बन जाऊँ

और माँ के हर जख्म पर मरहम लगाऊँ

फिर से लौट जाना चाहती हूँ

माँ की उसी छाया में

सच्च कहती हूँ माँ

वो समय फिर आ जाए

तो तुम्हारी यह बेटी

तुम्हें कभी न सताएगी

पर भली-भांति जानती हूँ

गया समय न आएगा

बस इतिहास अपने आप को दोहराएगा

तुमने सब सहा माँ

मैं भी सब सह जाऊँगी

तुमने हर फर्ज़ निभाया

मै भी निभाऊँगी

तुम कुछ नहीं बोली

मै भी चुप रहुँगी

शायद तभी माँ होने के

कर्ज़ से मुक्ति पाऊँगी

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18.माँ का सौदा

आज देखा लोगो को

बुढ़िया की अर्थी को कन्धा देते

और उस पर आँसू बहाते

तो रहा न गया

मन उत्सुकता से भर गया

कौन थी यह बुढ़िया

जिसकी अर्थी लोग लिए जा रहे है

और फूट-फूट कर आँसू बहा रहे है

पूछा तो पता चला.......

यह बुढ़िया बहुत महान थी

अभी तो जवान थी

बहुत इसने नाम कमाया था

पुत्रों को देश-विदेश में

सम्मान भी दिलवाया था

पालन-पोषण में....

कोई कमी न छोड़ी थी

पर पुत्रों की बुद्धि थोड़ी थी

लालच उनमे समाया था

माया-मोह ने उन्हें भरमाया था

पैसे ने उनको अन्धा कर दिया

और इसी अन्धेपन में....

माँ का सौदा कर दिया

माँ को जवानी में ही बुढ़िया बना दिया

अमीरजादों का गुलाम बना दिया

यह बुढ़िया स्वाभिमानी थी

गुलामी सह न पाई और मर गई

......................

......................

पर वो कौन थी.....?

जिसका इतन नाम था

जिसके पुत्रों को.....

पैसों से काम था

उसका नाम......

उसका नाम हॉकी था

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19.कठपुतली

न जाने कहाँ से आती है

कम्बख्त मुझे बड़ा सताती है

हर बात में पहले अपनी टाँग अड़ाती है

जब इसकी मान लो तो ठीक

नहीं तो सपनों में भी आ के डराती है

मेरे दिमाग की इसके आगे कभी न चली

है यह बड़ी ही मनचली

दबा लेती थी मुझे जब मैं बच्ची थी

मेरी उम्र भी तो कच्ची थी

मान लेती मैं इसकी हर बात

पर कभी न मिली कोई सौगात

थोड़ा होश सँभाला तो

मैं दबाने लगी उसको

डर जाती थी सपनों में देख कर जिसको

पर मैं अब उसे वश में करने लगी थी

मन मर्जी से जीने लगी थी

बहुत बार अनसुनी की मैने उसकी बकबक

फिर भी वो हटती नहीं मारने से झक

नहीं सुनती मैं ,फिर भी बोलती

मेरे अपने ही राज मेरे ही सम्मुख खोलती

पर मैने सीख लिया था उससे लड़ना

उसकी बेतुकी बातों की परवाह न करना

कैसे कर सकती थी मैं....?

उसी की बकबक सुनती

तो कैसे जी सकती थी मैं...?

कोई भी तो नहीं करता

फिर मैं भला क्यूँ करूँ उसकी परवाह ?

क्या दुनिया में मिलेगी मुझे पनाह ?

मैने उसको मार दिया

मन का बोझ उतार दिया

फिर मुझे उसकी बातें सुनाई नहीं दी

सच्च तो यह है कि

वो फिर सपने में भी दिखाई नहीं दी

क्यो दिखती......?

मैने उसे मार जो दिया

अपने आप को आज़ाद कर लिया

पर बहुत बेशर्म है यह

मर कर भी जाग पड़ी

आज फिर मेरे सामने

आकर हो गई खड़ी

रह गई मेरी आँखें फटी की फटी

और वो फिर से रही अपनी बकबक पे डटी

और मैने फिर से पाया अपने आप को

मजबूर ,लाचार , बेबस , कमजोर

बस उसी के हाथों की कठपुतली

कोई और नहीं ,

यह है मेरी आत्मा

जो लेती है हर पल मेरी इच्छाओं की बलि

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20.अन्धेरे से उजाले तक

अन्धेरे से उजाले की ओर

दूर से दिखती

एक नन्हीं सी किरण

की तरफ बढते कदम

न जाने क्यो

बढते ही जाते हैं

क्या सोच कर ,बढते हैं.....?

शायद यही

कि पकड़ लेन्गे

उस छोटी सी किरण को

भर लेन्गे

अपने आँचल में

समेट लेन्गे पहलू में

जो कही

दूर से करती है

अपनी तरफ आने का इशारा

और

चल देते हैं

सभी उसी दिशा में

आदि से

लेकर आधुनिक तक

बेपरदा से

परदा फिर नन्गेज तक

घास-फूस से

स्वादिष्ट पकवान तक

अज्ञानी से

विज्ञान तक

जन्गलों से

महलों तक

पत्थर की अग्नि से

अग्नि, पृथ्वी मिसाईल तक

असभ्य से

विदेशी सभ्यता अपनाने तक

समूह से

एकल रहने तक

वेदों से

आधुनिक शिक्षा तक

रामराज्य से

लोकतन्त्र तक

रजवाड़ों से

गुलामी ,फिर आजादी

और फिर स्वच्छन्दता तक

तीसरे

विनाशकारी युद्ध

की ओर अग्रसर होने तक

घास-फूस की

झोपड़ी से निकल कर

चाँद -तारों के पार पहुँचने तक

बन्दर से

आधुनिक इन्सान तक

वास्तविकता से

कृत्रिम तक

......

न जाने

कितने मील पत्थर तय कर डाले

इन बढते हुए कदमों ने

कितना

बदल डाला अपने-आप को

कहाँ से

कहाँ पहुँच गया मानव

लकीर के

फकीर बन कर हम भी तो

चल रहे है

उसी एक किरण की ओर

हर दिन

बढ़ाते हैं कुछ कदम

अपने आगे देखकर

और

हमारे पीछे

भी तो लम्बी पन्क्ति है

जो

देख रही है

हमारे कदमों के निशान

मृगतृष्णा

की भांति बढ़ रहे है आगे

आँखो में

पाले हुए अनन्त सपने

कही न कही

हो रहा है अनजाना बदलाव

कदम तो

अभी भी अन्धेरे में ही है

परन्तु

दिख रहा है सामने उजाला

उजाला

अपने विचारों में

उजाला

अपनी सोच में

उजाला

अपनी दृष्टि में

उजाला

अपने अधिकारों में

उजाला

जागरूकता में

और उजाला

भविष्य के सुन्दर सपनों में

शायद

पहुँचेंगे

कभी उस उजाले तक

यह बढते हुए कदम

अन्धकार को चीर कर

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21.सूर्य की इन्तज़ार मे....

सुबह का सूर्य

नई ताज़गी

नई उमन्ग

हँसती कलियाँ

ओस की बूँदों से लदे

खुशबूदार रँगदार फूल

शीतल सुनहरी

मन को लुभाती किरणें

उषा की लाली

आहिस्ता-आहिस्ता गर्माने लगी

शीतलता जाने लगी

कोमलता कठोरता दिखाने लगी

ताजगी से सुस्ती

और

उमन्ग से ख्वाहिशें टकराने लगी

ओस की बूँदे सूख गई

फूलों में खुशबू न रही

लूट लिया तेज धूप ने सबकुछ

गर्मी में सब गर्माने लगा

उसका अपना अलग ही मजा

आते ही जाने की तैयारी

फैला दी हो जैसे इसने कोई बीमारी

जाते-जाते समझाने लगी

कई रहस्य बताने लगी

फिर से दे तो गई शीतलता

परन्तु वो ताजगी न रही

फूलों से खुशबू नदारद

न ओस की बूँदें

न कोई उमन्ग

देखते ही देखते धूप छँट गई ऐसे

जैसे उठी थी कलकल करती

सरिता में कोई तरँग

महसूस किया

देखा भी

पर पकड़ न पाए

ढल गया सूरज

और फिर स्याह रात

अँधकार का राज्य

चारों तरफ पसरा सन्नाटा

चमकते हुए चाँद की चाँदनी

फिर नए सूर्य की इन्तज़ार में....

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22.अज्ञात कन्या

भिनभिनाती मक्खियाँ

कुलबुलाते कीड़े

सूँघते कुत्ते

कचरादान के गर्भ में

कीचड़ से लथपथ

फिर से पनपी

एक नासमझ जिन्दा लाश

छोटे-छोटे हाथों से

मृत्यु देवी को धकेलती

न जाने कहाँ से आया

दुबले-पतले हाथों में इतना बल

कि हो गए इतने सबल

जो रखते हैं साहस

मौत से भी जूझने का

शायद यह बल

वह अहसास है

माँ के पहले स्पर्श का

वह अहसास है

माँ की उस धड़कन का

जो कोख में सुनी थी

चीख-चीख कर कहती है

नन्हीं सी कोमल काया....

मैं जानती हूँ माँ

मैं पहचानती हूँ

तुम्हारी ममता की गहराई को

तुम्हारे स्नेह को

तुम्हारे उस अनकहे प्यार को

महसूस कर सकती हूँ मैं

भले यह दुनिया कुछ भी कहे

मै इस काबिल नहीं कि

सब को समझा सकूँ

तुम्हारी वो दर्द भरी आह बता सकूँ

जो निकली थी तेरे सीने की

अपार गहराई से

मुझे कूडादान में सबसे छुप-छुपा कर

अर्पण करते समय

यह तो सदियों से चलता आ रहा सिलसिला है

कभी कुन्ती भी रोई थी

बिल्कुल तुम्हारे ही तरह

मैं जानती हूँ माँ

तुम भी ममतामयी माँ हो

न होती

तो कैसे मिलता मुझे तुम्हारा स्पर्श

तुम तो मुझे कोख में ही मार देती

नहीं माँ ! तुम मुझे मार न सकी

और आभारी हूँ माँ

जो एक बार तो

नसीब हुआ मुझे तुम्हारा स्पर्श

उसी स्पर्श को ढाल बना कर

मैं जी लूँगी

माथे पर लगे लाँछन का

जहर भी पी लूँगी

तुम्हारे आँचल की

शीतल छाया न सही

तुम्हारे सीने से निकली

ठण्डी आह का तो अहसास है मुझे

धन्य हूँ मैं माँ

जो तुमने मुझे इतना सबल बना दिया

आँख खुलने से पहले

दुनियादारी सिखा दिया

इतना क्या कम है माँ

कि तूने मुझे जन्मा

हे जननी!

अवश्य ही तुम्हारी लाचारी रही होगी

नहीं तो कौन चाहेगी

अपनी कोख में नौ माह तक पालना

कुत्तों के लिए भोजन

इसीलिए तो दर्द नहीं सहा तुमने

कि दानवीर बन कर

कुलबुलाते कीड़ों के भोजन का

प्रबन्ध कर सको

नहीं! माँ ऐसी नहीं होती

मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं

मैं ही अभागी

तुम्हारी कोख में न आती

आई थी तो

तुम्हें देखने की चाहत न करती

बस इसी स्वार्थ से

कि माँ का स्नेह मिलेगा

जीती रही , आँसू पीती रही

एक आस लिए मन में...

स्वार्थ न होता

तो गर्भ में ही मर जाती

तुम्हें लाँछन मुक्त कर जाती

किसी का भोजन भी बन जाती

पर यह तो मेरे ही स्वार्थ का परिणाम है

कि बोझ बन गई मैं दुनिया पर

कलन्क बन गई तेरे माथे पर

कुत्तों,कीडों या चीलों का

भोजन न बन सकी

और एक अज्ञात कन्या बन गई

अज्ञात कन्या

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23.मुखौटा(चन्द क्षणिकाएँ)

१.मै जब बहुत छोटी थी

देखती थी बहुत बार

लड़कियों का विदाई समय रोना

देख कर

भर जाती थी गुस्से में

मैं न रोऊँगी

हँसते-हँसते अपने घर जाऊँगी

मैं सच्च में नहीं रोई

न ही किसी की आँखें नम देखी

देखा उस दिन

सबके चेहरे पर मुखौटा

२. रोई थी उस दिन

अन्दर से पापा की आँखें

उठी थी टीस दिल की गहराई से

किया था मैने यह सब महसूस

जब पापा ने लिया था मुझे

अपनी बाहों में

उनके होंठों पर नकली हँसी

का मुखौटा उठा दिया था

उनकी ही आँखो ने

३.अनजाने में पी जाते हैं

हम कितने ही आँसू

नहीं जानते कि यह

जल बन जाएगा ऐसी चट्टान

जिन्हे लहरों का बवण्डर भी

पिघला न सकेगा

ताउम्र हमे ओढ़ना पड़ेगा मुखौटा

४.झगडती है मेरी बहन

अब भी मुझसे

कोई न कोई शिकायत

उसकी बातों में रहती है अब भी

रो देती है फिर खुद ही

शायद मेरी जुदाई

सह नहीं पाती

और ओढ़ लेती है

गुस्से का मुखौटा

५. माँ भी तो

अपनी बात नहीं करती

सबके लिए बोलेगी

पर अपने राज न खोलेगी

समझा लेती है वो अपने दिल को

ऐसी ही बातों से

ओढ़े रखती है

दिल दिमाग और चेहरे पे मुखौटा

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24.लोकल ट्रेन

लोकल ट्रेन आती है

आ के चली जाती है

छोड़ जाती है पीछे कुछ मुसाफिर

और ले चलती है साथ में

कुछ नए मेहमान

बढती जाती है अपनी गति से

न किसी से बिछुड़ने का गम

न साथ पाने की खुशी

केवल उन्ही का साथ निभाती है

जो करते हैं इन्तजार

कुछ लेट लतीफ

भागते हैं पीछे

और कुछ

देखते रह जाते हैं

आगे बढती ट्रेन को

नहीं करती मगर यह किसी का इन्तजार

बढते हुए समय की भांति....

बढ़ जाती है आगे लोकल ट्रेन

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25.कसम से .....वो दर्द हम....

दर्द में पनपते हैं गीत ऐसा ही कुछ लोग कहते हैं

सीने में कुछ दर्द कसम से जिन्दा दफन रहते हैं

छोटे से तयखाने में उमड़ते हैं विशाल सागर

कातिल लहरों में कसम से उसकी कफन बहते हैं

कहाँ मिलता है ऐसी पीड़ा को शब्दों का सम्बल

हर पल जिसके कसम से किले बनते औ ढहते हैं

ना वक़्त ना हालात लगा सकते हैं उस पर मरहम

वो दिल सीने में कसम से कितना दर्द सहते हैं

सच्च कहते हैं दर्द की कोई सीमा नहीं होती

वो दर्द हम कसम से सीने में समेटे रहते हैं

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26. पापा

तुम्हीं तो सिखाते थे मुझे

अपने पैरो से चलना

गुस्सा होते थे माँ से

मुझे कभी रसोईघर में देखकर

मुझे कभी बेटी क्यो न समझा?

माँगती थी मैं हर चीज

आपसे माँ से चोरी

लाते थे तुम न जाने

कितने खर्चे बचाकर

या फिर अपनी जरूरतों के साथ

समझौता करके

मुझे कभी रोका क्यो नहीं ?

३.

मेरी हर बात में

हाँ में हाँ मिला देते

माँ के समझाने पर भी

केवल माँ पर ही हँस देते

क्या मैं कभी गलत न थी

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27. उधार की जिन्दगी

कांप जाती है रूह

दहल जाता है दिल

छलकते हैं आँसू

ठहर सा जाता है वक़्त

रुक जाती है साँसे

बढ़ जाती है धड़कन

उठती है टीस

किसी अनन्त गहराई से

नष्ट हो जाता है विश्वास

किसी अनश्वर सत्ता से

जब देखते हैं

मौत से भी भयानक मञ्जर

लहू-लुहान लाशें

कुरलाते बच्चे

उजड़े सुहाग

सूनी गोदयाँ

बूढे कन्धों पर

जवान अर्थी का बोझ

मौत को भी कम्पकम्पाता दृश्य

तरसती आँखें

बिन माँ के लाल

आसमान को

चीरता हुआ धमाका

और पलों में उड़ते हुए

निर्दोष हड्डियों के परखचे

तो एक बार फिर से

कराह उठता है यह मन

हे वसुधे! फिर से एक

बार इतिहास दोहराओ

और आज फिर से फट जाओ

ले लो अपनी सन्तान को

फिर से अपनी गोद में

तुम्हारे आँचल की छाया में

शायद मिल सके उधार की जिन्दगी

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28.कचरे वाली

सुबह सवेरे कचरा गाड़ी आती है

घर के बाहर पडा कूड़ेदान का

सारा कचरा उठाती है

और आगे निकल जाती है

अन्दर का कचरा पर नहीं उठाती

न ही उसे अन्दर आने की अनुमति है

क्योंकि..........

क्योंकि वो है कचरा उठाने वाली

साफ नहीं है वो

उसको कचरे से प्यार है

जिन हाथों से कचरा उठाती है

उन्ही हाथों से खाना भी खाती है

नहीं है उसे कचरे से नफरत

सुहाती है उसे कचरे की बदबू

नहीं होता उसे कोई इन्फैक्शन

न ही पनपते हैं उसके शरीर में

बीमारियों के भयानक किटाणु

जिनके डर से बुहारते हैं हम

अपने घर आँगन का द्वार

कीटाणुओं से मुक्ति हेतु

लगाते हैं फिनायल का पोंछा

लेकिन फिर भी नहीं कर पाते हम

अन्दर की साफ-सफाई

पनपते रहते हैं अन्दर ही अन्दर कीटाणु

जिस पर बेअसर होता है

फिनायल का जहर भी

और हम हो जाते हैं

अह्म ,स्वार्थ ,नफरत,क्रोध जैसी

लाइलाज बीमारियो के शिकार

यह कीटाणु कचरे उठाने वाली को

नहीं करते प्रभावित

और साफ सुथरे मन से

घर के बाहर पडा

सारा कचरा उठाती है

और आगे निकल जाती है

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29.हम जलाने वाले नहीं.......

१.हम जलाने नहीं ए दोस्त लगी बुझाने वाले है

नमक नहीं हम जख्मों पे मरहम लगाने वाले है

२.जल जाए अगर कोई तरु की शीतल छाया में

उस आग को हम सीने से लिपटाने वाले है

३.नहीं जलेगा दिल किसी को समझो जो अपना

खुशी के राज हम तो सबको ही बताने वाले है

४.उन लोगो के क्या कहने जो होते हैं बस अपने

हम तो गैरों को भी दिल में बसाने वाले है

५.नफरत नहीं हम प्यार में करते हैं बस यकीं

हम तो दुश्मन की भी हर खता भुलाने वाले है

६.कभी आओ हमारे घर मिटा कर अहम को अपने

चुनकर राह के काँटे हम फूल बिछाने वाले है

७.जो तुम इतना करो वादा करोगे मन अपना पावन

तो हम आकाश से गंगा जमी पर लाने वाले है

८.क्या करना हमे ए दोस्त दिलो में पाल कर नफरत

कल आए थे इस जहां में कल को जाने वाले है

९.सच्च है किसी सीमा में बन्धकर जी नहीं सकते

और हम नफरत की दीवारों को गिराने वाले है

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30.मकडी

बुनती है जाला

बड़ी आशा ,विश्वास के साथ

कि वह बना लेगी

एक प्यारा सा घर सन्सार

देखती है सुन्दर से सपने और

बुनती चली जाती है अपने ही गिर्द

एक ऐसा चक्रव्यूह

बन्द करती जाती है

बाहर निकलने के हर रास्ते

नहीं छोड़ती कोई भी खिड़की खुली

ताकि जमाने की बुरी निगाहें

देख न पाएँ

पर नहीं जानती कि वह खुद ही

अपने बुने हुए जाल में

फँस कर रह जाती है

नहीं निकल पाती

अपने ही बुने हुए जाल से बाहर

और उड़ जाते हैं उसके प्राण पखेरु

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31.गाय

चौराहे पर बैठी गाय

घुमाती है नज़रें इधर-उधर

आने-जाने वाले पर

ललचाई नज़रों से

देखती है

चारे की आशा में

लोग आते हैं

देखते हैं

बतियाते हैं

और आगे निकल जाते हैं

कोई भी चारा नहीं डालता

सूर्य की डूबती किरणों के साथ ही

भूखी-प्यासी गाय की

आँखो से गायब होने

आशा की किरण

इतने में ही कोई दयावान

आता है

चारा डालता है

और

गाय को दुह कर ले जाता है

और गाय शान्त मन से उठ जाती है

अगले दिन फिर से

चौराहे पर आके बैठने के लिए

ताकि कल फिर

कोई दयावान आए

उसे दुह कर ले जाए

और उसके भूखे बच्चों के

चारे का प्रबन्ध कर जाए

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32.हाय हाय

हाय हाय हर कोई पुकारे

जब भी किसी को हाय बोलो

खुश हो जाएँ मन में सारे

नहीं पूछे ,तुम कैसे हो ?

जो दिखते क्या वैसे हो ?

फिर क्यो हाय-हाय लगाई

हाय की क्यो देते हो दुहाई

नमस्कार अब हुआ पुराना

बन गया है बिल्कुल अन्जाना

जब भी हाथ जोडं कर बोलो

नमस्कार से जब मुँह खोलो

तो आदिवासी कहलाओ

अनपढ़ की उपाधि पाओ

हाय हाय कर हाय मचाई

जब भी मिले तो हाय सुनाई

हाय हाय सुन के पक गई हूँ

सच्च कहुँ तो थक गई हूँ

बन्द करो अब सब हाय-हाय

सु-विचार ही बने सहाय

हाय हाय से बस हाय ही होगी

हाय हाय तो भले रोगी

स्वस्थ तन और सुन्दर मन में

कभी न होती हाय

हाय हाय को छोड के भाई

मीठे वचन सुनाय

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33.मँहगाई..........

दिनो दिन बढती जाती है

किसी नॉन स्टॉप ट्रेन की भांति

छूती जा रही है ऊँचाई

किसी उड़ान भरते विमान की भांति

खोलती है अपना मुँह

सुरसा की भांति

नहीं है अब किसी हनुमान की हिम्मत

कि कलयुगी सुरसा के मुँह में

घुसकर सुरक्षित वापिस आ सके

रह जाता है साधारण जन लटक कर

त्रिशन्कु की भांति

एक ऐसा चक्रव्यूह जिसमे

कोई अभिमन्यु घुसता है

पर वापसी के सारे मार्ग बन्द

कर जाता है अपने आप ही

बुन लेता है जाल

अपने चारों ओर

मकड़ी की भांति और

जीवन पर्यन्त खोजता है

बाहर का रास्ता

लाख प्रयत्न भी नहीं निकाल पाते

उसे इस मकड़जाल से बाहर

घेर लेती है एक अदृश्य परछाई

न जाने कब ,कैसे

और पता भी नहीं चलता

फँस जाता है

आगे कुँआ पीछे खाई

के दोराहे पर

ज्यों पेट भरने की चाहत में

निगल जाता है साँप छिपकली को

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सिर पर कर्ज़ का बोझ लिए

ताउम्र सहता है आम जन

मँहगाई के कोड़े

और लिख जाता है वसीयत

मेँ मँहगाई..........

अपने वारिसों के नाम भी

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34.सिम्बोलिक लेन्गुएज

दुनिया बदली जमाना बदला

सन्सकृति बदली ,सभ्याचार बदला

लोग बदले सोच बदली

रहन सहन बदला

मानव का स्वभाव भी बदला

बढ़ी जनसन्ख्या

कम हुई जगह

हवेली की जगह छोटा घर

और घर की जगह फ्लैट

बहुमन्जिला इमारत में छोटे-छोटे फ्लैट

तन्ग होती जगह की साथ कम हुआ

वस्तओं का साइज भी

छोटी हुई सोच और

छोटा हुआ मानव का कद भी

बडे नाम की चाहत मे

छोटा किया नाम भी

कैसा जमाना आया

मानव ने अपना नाम भी

कोड वर्ड में बनाया

शायद सिम्बोलिक लैन्गुएज

फिर से अपना सर उठाने लगी है

समाज में अपनी जगह बनाने लगी है

निक नेम के प्रचलन से याद आती है

चित्र लिपी या फिर सूत्र लिपी

फिर से हर कोई अपने ही अर्थ निकालेगा

इन चिन्हों के प्रचलन से फिर

न जाने कितने भ्रम पालेगा

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35. जब चेहरे से नकाब हटाया मैंने

कहते हैं चेहरा दिल की जुबान होता है

दिख जाता है चेहरे पर

जो दिल में तूफान होता है

एक तूफान के बवंडर को छुपा लिया मैंने

अपने चेहरे पे एक नया चेहरा लगा लिया मैंने

फिर तूफान पे तूफान आए

मैंने भी चेहरे पे चेहरे लगाए

दिखने में खूबसूरत थे

किसी की खातिर मेरी जरूरत थे

बाहरी खूबसूरती के सम्मुख

असली खूबसूरती बेमानी थी

किसी ने भी वो खूबसूरती

नहीं पहचानी थी

मैं घिरती गई

चेहरों के चक्रवात में

जो दिखाए थे मैने

किसी को सौगात में

पर भूला नहीं मुझे

अपना असली रूप

जो सबके लिए खूबसूरत थे

वही चेहरे मुझे लगते थे कुरूप

पर क्या करती मजबूरी थी

चेहरे पे मुस्कान जो जरूरी थी

जिनको हालात की खातिर ओढा था मैंने

जिनके कारण वास्तविकता को छोड़ा था मैंने

जिनको मैंने अपनी शक्ति बनाया था

अपनों की मुस्कान हेतु जिनको अपनाया था

वही चेहरे बन बैठे मेरी कमजोरी

और दिखाने लगे सीना जोरी

हर पल मेरे सम्मुख आते

बात-बात पर

मेरी मजबूरी का अहसास कराते

रह जाती मैं आंसू पीकर

क्या करना इन चेहरों संग जीकर

डरती थी , चेहरे हटाऊंगी

तो किसी अपने को ही रुलाऊंगी

अपनों की नम आँखें

नहीं देख पाऊंगी

पर आज सहनशीलता छूट गई

चेहरों की दीवार से

एक ईंट टूट गई

हृदय में एक झरोखा बन आया

मैंने एक नकाब हटाया

जो पर्दे में कैद थीं

वो आँखें खोल दी

मानस पटल पर दबी हुई

कुछ बातें बोल दीं

थोड़ा ही सही

पर अजीब सा सुकून पाया मैंने

जब एक चेहरे से नकाब हटाया मैंने

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36.जिन्दगी है तो जियो

थक गई हूँ सुनते-सुनते

मुक्ति की परिभाषा

मुक्ति दुखोँ से ,सँसार से

जिम्मेदारियोँ से , घर-बार से

परन्तु

नहीं चाहिए मुझे मुक्ति

नहीं चाहत है मुझे

मिलने की

किसी अज्ञात से

नहीं चाहत है मुझे

बूँद की भांति

सागर में समा जाने की

चाहत है मुझे

अपने अस्तित्व की

नए रूप धरने की

सब कुछ जानने की

भले ही बनूँ मरणोपरान्त्

गली का कुत्ता

भले ही भौंकूं

राहगीरों पर

परन्तु होगा मेरा अपना अस्तित्व

होगी अपनी सोच

जिन्दगी है तो जियो

अपने लिए

अपनों के लिए

*******************************

37.भाषा का जन्म

सर्वप्रथम कैसे हुआ होगा

हमारी भाषा का जन्म

जब अनन्त एकान्त था

जब केवल शून्य था

जब केवल एक ही

सर्वसत्ता विद्यमान थी

और जब चहुँ ओर पसरा था

केवल सन्नाटा

कही न कही हुई होगी हलचल

सुना है हमारी धरती माता भी

आग का गोला थी

करोड़ो अरबों वर्षों में पाई है

इसने शीतलता

मन नहीं मानता कि सबको

सुखद अहसास कराने वाली

अपनी गोद में खिलाने वाली

धरती माता के सीने में होगी

धधकती हुई ज्वाला

और उस ज्वाला ने बदले हैं

न जाने अपने कितने रूप

सच्च है आग में जलकर ही तो

सोना खरा होता है

प्रकृति की हलचल भी तो

कारण रही होगी

किसी न किसी विकास का

शायद उस हलचल से

निकली होगी कोई ध्वनि

कही न कही पनपा होगा

कोई जीव

फूटा होगा कोई अन्कुर

और

उसकी हलचल से उत्पन्न ध्वनि

बन गई होगी

आदान-प्रदान का माध्यम

और उसी हलचल का ही

विकसित रूप होगा

हमारे सम्मुख

भाषा के माध्यम में

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38.तुकबन्दी

जिसकी चाहत में हमने गुजारा जमाना

जमाने ने हमको बताया दीवाना

दीवानों की महफिल में गाए तराने

तरानों पे बजते थे साज सुहाने

सुहाना था मौसम सुहाने नजारे

नजारे क्यो लगते थे जाने प्यारे

प्यारा था साथी प्यारी सी बातें

बातें थी लम्बी छोटी थी रातें

रातों में यादों ने हमको सताया

सताने में हमको बड़ा मजा आया

आया जो सावन तो आई बहार

बहार क्या थी वो तो रही दिन चार

चार दिन क्या बीते तो पड़ने लगा सूखा

सूखे में सूखने लगा था जो भूखा

भूखे न होए भजन सब जाने

जाने तो जाने पर कोई न माने

माने जो कोई तो कैसी हो उलझन

उलझन न होती ,तो होती न सुलझन

सुलझन जो हुई तो नया रूप आया

आया जो सम्मुख तो सबको भरमाया

भरम हमने पाले मन में हजार

हजार बार उस पर किए विचार

विचारों से कभी कोई मिली जो राहत

राहत वही फिर से बनने लगी चाहत

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39.कौन है वो......?

वो जो बैठी है चौराहे पर

वो जो ताकती है इधर-उधर

वो जिसकी भूखी है निगाहें

वो जो पी रही पीड़ा के आँसू

वो जो मिटा रही हवस की भूख

वो जो खुद हरदम भूखी

वो जिसकी मर चुकी सारी चाहते

वो जो जीती है दूसरो की खातिर

वो जिसका कोई मूल्य नहीं

वो जो अर्धनग्न है ...

शौक से नहीं मजबूरी से

वो जो देती है अल्ला का वास्ता

वो जिसकी आदत है हाथ फैलाना

वो जो बनाती है हर दिन नया बहाना

वो जो पेट के लिए पेट दिखाती है

और किसी की

भूख का शिकार हो जाती है

खुद भूखी ही सो जाती है

वो जो सडक किनारे सो जाती है

वो जो बिना बात बतियाती है

वो जो मुँह में बुदबुदाती है

वो जो भाव हीन है

वो जिसका जीवन रसहीन है

वो जो फटे कपड़े से तन ढाँपती है

वो जिससे मृत्यु भी काँपती है

वो जिसने बस में किया है अपना मन

जो नहीं कर सकता साधारण जन

वो जिसने सुखा दिया है

अपने आसुँओं का पानी

वो जिसके लिए कोई ऋतु नहीं सुहानी

सर्दी ,गर्मी,बरसात

सबमें एक सी रहती है

धूप को छाँव और सर्दी को गर्मी कहती है

कौन है वो.............?

कोई माँ ,पत्नी ,बहु या किसी की बेटी

या फिर

पता नहीं कौन .....?

*************************

40 . मुझे समझ नहीं आता

मुझे

समझ नहीं आता

कि इन्सान

अपने पापों से

इतना डरता क्यों है ?

अगर

डरना है

तो पाप करता क्यों है ?

क्यो

चाहता है

दबा कर रखना

अमिट सच्चाई को

नहीं

समझता शायद

भड़ास भी दबती है भला कभी

वो तो निकलेगी

नहीं निकली

तो पनपेगी

अन्दर ही अन्दर

और फिर

फटेगी किसी

बारूदी सुरंग की भांति

कर देगी

बहुत कुछ जलाकर राख

एक

छोटी सी चिन्गारी

शोला बन जाए

उससे भला

क्यो न

बुझा दिया जाए

*********************

41.जेनेरैशन गैप

नया जमाना नई सोच

नई खोज नए विचार

के साथ आया नया सभ्याचार

भुला दिया हमने

अपने पुरातत्व चिन्हों को

पूर्वजोँ की गहरी सोच को

नवीनता के मोह में बहे जा रहे हैं

घोर तम क ओर

रोशनी के नाम पर

रख रहे है कदम अँधकार में

आगे न जाने कितनी गहरी खाई

नवीनता के मोह में

हमे नज़र नहीं आई

फिर भी खुश है उस खाई में जाकर

सोने के बदले में पीतल पाकर

न जाने क्योँ हमें

पूर्वजोँ के विचार नहीं भाते

क्योँ हम उनको ज्योँ का त्योँ

अपना नहीं पाते

यही क्रम हर पीढी दोहराती है

तभी तो न्यू जेनरेशन कहलाती है

नहीं मिलते थे

मेरे पापा के विचार

अपने पापा के विचारों से

तँग थे वे अपने पापा के

सभ्याचारों से

बहुत बार मैं न सहमत थी

अपने पापा से

विरोध करता है मेरा बेटा

मेरे विचारों का

यही सिलसिला चलता रहता है

सभ्याचारों का

शायद यही जेनेरैशन गैब

नई सोच कहलाता है

और शायद यही बेटे को बाप से

दूर भगाता है

***************************

42.आधुनिक बच्चे

मॉड्रन लुक ,ब्राण्डेड जीँस

गोग्लस ,कन्धे पर पर्स लटकाए

काम पर जाती ,

फर्राटेदार इँग्लिश बोल

बॉस को लुभाती

काम के लिए पापा पर गुर्राती

माँ को बच्चे पसन्द करते हैं

सभ्याचारक साड़ी ,आदर्श पालक माँ को

बच्चे कडवी निगाह से देखते हैं

माँ के बनाए खाने को

घास बताते हैं

सास -ससुर के पैर छूने वाली माँ पर

बच्चे गुर्राते हैं

चोटी बान्धे माँ के साथ बच्चे

बाहर जाने से शर्माते हैं

मैचिन्ग सैन्डिल ,पर्स ,ज्वैलरी पहनी

माँ पर बच्चे गर्वाते हैं

काम-काजी माँ

बच्चों की पहली चाहत है

माँ की तनख्वाह को बच्चे

एशो-इशरत में उड़ाते हैं

माँ बच्चों को नहीं बल्कि

बच्चे तैयार करते हैं माँ को

माँ की साज-सज्जा का

सामान जुटाने में

बच्चे माँ का हाथ बँटाते हैं

माँ के लिए मैचिंग ड्रैस और

कॉस्ट्यूम सुझाते हैं

आजकल के बच्चे अपनी माँ को

बड़ी बहन बताते हैं

और आधुनिक बच्चे माँ को

माँ नहीं मॉडल बनाते हैं

***********************

43.आम आदमी

कौन सी है परिभाषा ....?

आम आदमी की

या फिर

कौन सी दी जाए सँज्ञा

आम आदमी को

....................................

....................................

बीड़ी के

लम्बे-लम्बे कश खीँचता

रिक्शा चलाता

बोझा ढोता

बैलोँ को हाँकता

बीच चौराहे भीख माँगता

बच्चोँ को खेल दिखाता

साइकिल चलाता

पेट की आग

बुझाने की खातिर

जीवन को

आग में झोँकता

या फिर

ए.सी. गाड़ी में

मजे से बैठ दुनिया ताकता

होटल के बन्द कमरे में

गुलछर्रे उड़ाता

बीयर बार में

रँग-रलियाँ मनाता

डेटिन्ग पर जाता

बीच पर बैठ

अर्ध-नग्न सुन्दरियाँ ताकता

या फिर

सुबह सवेरे ऑफिस को जाता

घर परिवार समाज ऑफिस की

जिम्मेदारियाँ निभाता

बॉस की झिड़की खाता

नीचे वालो को दोषी ठहराता

जूतों को घिसा कर चलता

या फिर............

.................

.................

कौन है आम आदमी .......?

*******************************************************

44.छुअन

माँ बार-बार देखती थी छूकर

जब भी कभी जरा सा गर्म होता

मेरा माथा

चिढ़ जाती थी मैं माँ की

ऐसी हरकत पर

गुस्सा भी करती

पर माँ

टिकती ही न थी

बार-बार छूने से

गुस्से और चिड़-चिडाहट की

प्रवाह न करती

तब तक न हटती

जब तक मेरे मस्तक को

ठण्डक न पहुँच जाती

न जाने बार-बार छुअन से

क्या तसल्ली मिलती उसे

उस छुअन का तब

कोई मूल्य न था

और

उस अमूल्य छुअन को

महसूस करती हूँ अब

जब तन क्या मन भी जलता है

मिलता है केवल

व्यवहारिक शब्दोँ का सम्बल

बहुत कुछ दिलो-दिमाग को

छू जाता है

महसूस होती है अब भी

कोई छुअन

जो देती है केवल चुभन

और भर जाती है

अन्तर्मन तक टीस

छेड़ जाती है आत्मा के सब तार

और वो कम्पन

जला जाता है सब कुछ

बिजली के झटके की भांति

अन्दर ही अन्दर

किसी को बाहर

खबर तक नहीं होती

तभी माँ की वो बचपन की छुअन

पहुँचा जाती है ठण्डक

और करवा देती है

जिम्मेदारियोँ का अहसास

कि आज जरूरत है किसी को

मेरी छुअन की

*************************

45.माँ की आँखें

आज रोई थी उस माँ की आँखें

जो पी जाती थी हर जहर

देख कर अपने सुत की सूरत

जिनको गरूर था अपने

वात्सल्यपूर्ण अश्रुओँ पर

एक उम्मीद के सहारे

छुपा लेती थी जो

अपने सीने में

उठते हर उफान को

कर जाती थी न जाने

कितने ही तूफानों का सामना

लड़ जाती थी अपनी तकदीर से भी

देती थी पहरा जाग कर रातों को

मूक रहती ,जुबान तक न खोलती

कि कही जरा सी आहट

बाधा न बन जाए

लाड़ले के आराम में

लेकिन खुश थी

कि उसके त्याग से

सो रहा है वो सुख की नींद

न जाने वो जगती आँखों में

कितने ही सपने समेट लेती

मुस्करा देती मन ही मन

हालात और वक़्त के आगे बेबस माँ

बस सही समय के इन्तजार मे

समय आया

हालात बदले, वक़्त बदला

लेकिन माँ की आँखों ने

फिर भी निद्रा का

रसास्वादन नहीं किया

आज सोया है सुत सदा की नींद

और वही माँ

रोती है चिल्लाती है

आवाजें लगाती है

झिँझोड़ कर जगाती है

आज वह सुत से

बतियाना चाहती है

उसको हर दर्द बताना चाहती है

आज वह उसे सुलाना नहीं

जगाना चाहती है

पर वह मूक खामोश सोया है

और...........

माँ .......की सूनी आँखो में सपना

......?

लाड़ले को जगाना ............

***************************

46.

1.

हिन्दी मेरा ईमान है

हिन्दी मेरी पहचान है

हिन्दी हूँ मैं वतन भी मेरा

प्यारा हिन्दुस्तान है

2.

हिन्दी की बिन्दी को

मस्तक पे सजा के रखना है

सर आँखो पे बिठाएँगे

यह भारत माँ का गहना है

3.

बढ़े चलो हिन्दी की डगर

हो अकेले फिर भी मगर

मार्ग की काँटे भी देखना

फूल बन जाएँगे पथ पर

4.

हिन्दी को आगे बढ़ाना है

उन्नति की राह ले जाना है

केवल इक दिन ही नहीं हमने

नित हिन्दी दिवस मनाना है

5.

हिन्दी से हिन्दुस्तान है

तभी तो यह देश महान है

निज भाषा की उन्नति के लिए

अपना सब कुछ कुर्बान है

6.

निज भाषा का नहीं गर्व जिसे

क्या प्रेम देश से होगा उसे

वही वीर देश का प्यारा है

हिन्दी ही जिसका नारा है

7.

राष्ट्र की पहचान है जो

भाषाओं में महान है जो

जो सरल सहज समझी जाए

उस हिन्दी को सम्मान दो

8.

अंग्रेजी का प्रसार भले

हम अपनी भाषा भूल चले

तिरस्कार माँ भाषा का

जिसकी ही गोद में हैं पले

9.

भाषा नहीं होती बुरी कोई

क्यों हमने मर्यादा खोई

क्यों जागृति के नाम पर

हमने स्व-भाषा ही डुबोई

10.

अच्छा बहु भाषा का ज्ञान

इससे ही बनते हैं महान

सीखो जी भर भाषा अनेक

पर राष्ट्र भाषा न भूलो एक

11.

इक दिन ऐसा भी आएगा

हिन्दी परचम लहराएगा

इस राष्ट्र भाषा का हर ज्ञाता

भारतवासी कहलाएगा

12.

निज भाषा का ज्ञान ही

उन्नति का आधार है

बिन निज भाषा ज्ञान के

नहीं होता सद-व्यवहार है

13.

आओ हम हिन्दी अपनाएँ

गैरों को परिचय करवाएँ

हिन्दी वैज्ञानिक भाषा है

यह बात सभी को समझाएँ

14.

नहीं छोड़ो अपना मूल कभी

होगी अपनी भी उन्नति तभी

सच्च में ज्ञानी कहलाओगे

अपनाओगे निज भाषा जभी

15.

हिन्दी ही हिन्द का नारा है

प्रवाहित हिन्दी धारा है

लाखों बाधाएँ हो फिर भी

नहीं रुकना काम हमारा है

16.

हम हिन्दी ही अपनाएँगे

इसको ऊँचा ले जाएँगे

हिन्दी भारत की भाषा है

हम दुनिया को दिखाएँगे

47. माँ की परिभाषा

माँ जो ममता की मूर्ति है

माँ जो सन्स्कारों की पूर्ति है

माँ जो धरती का स्वर्ग है

माँ जो साक्षात ईश्वर है

माँ जो मीठी मिठाई है

माँ हर दर्द की दवाई है

माँ बुराई के लिए जहर है

माँ जिसका स्पर्श ही अमृत है

माँ जिसके हाथों में शक्ति है

माँ जो प्रेम की भक्ति है

माँ जो खुली किताब है

माँ जिसके पास हर जवाब है

माँ जो सागर से भी गहरी है

माँ सूर की साहित्य लहरी है

माँ राम चरित मानस है

माँ जो सूखे में पावस है

माँ जो वेदों की वाणी है

माँ गन्गा ,यमुना,सरस्वती

की त्रिवेणी है

माँ लक्ष्मी गौरी वाग्देवी है

माँ जो स्वयम सेवी है

माँ ही सभ्याचार है

माँ ही उच्च विचार है

माँ ब्रह्मा , विष्णु ,महेश है

माँ के बाद कुछ न शेष है

माँ धरती ,माँ आकाश है

माँ फैला हुआ प्रकाश है

माँ सत्य ,शिव ,सुन्दर है

माँ ही मन मन्दिर है

माँ श्रद्धा है ,माँ विश्वास है

माँ ही एकमात्र आस है

माँ ही सबसे बड़ी आशा है

माँ की नहीं कोई परिभाषा है

माँ तुम्हारी नहीं कोई परिभाषा है

***********************************

48. १.

यह नहाई हुई गीली पलकें

कराती है अहसास कि

इनके पीछे है

विशाल सिन्धु

खारा जल

जो नहीं कर सकता तृप्त

नहीं बुझती इससे प्यास

यह तो बस बहता है

धार बन कर बेपरवाह

२.

आज तृप्त है चक्षु

पिघला कर

उस चट्टान सरीखी ग्रन्थि को

जो न जाने कब से

पड़ी थी बोझ बन कर मन पर

३.

आज जुबान बन्द है

बस बोलते हैं नयन

सारे के सारे शब्द बह गए

अश्रु बन कर

कर गए प्रदान अपार शान्ति

४.

आज से पहले आँखों में

इतनी चमक न थी

इससे पहले यह ऐसे नहाई न थी

५.

आज पहली बार

अपना स्वाद बदला है

नमकीन अश्रुजल पीने की आदत थी

इनको बहा कर अमृत रस चखा है

६.

नेत्रों में चमकते

सीप में मोती सरीखे आँसू

ओस की बूँद की भांति

गिरते सूने आँचल में

उद् जाते खुले गगन में

कर जाते कितना ही बोझ हल्का

49. चॉक

चॉक लिखता जाता है

श्यामपट्ट पर

और बढाता है उस काले स्याह रँग की

सुन्दरता को

अपने रँग से

और अपने सुन्दर ढँग से

बढ़ जाती है सुन्दरता

उस स्याह रँग की

जो कर देते हैं हम

अपनी जिन्दगी से दूर

या फिर जिसको समझते हैं

अकसर अपावन

वही जब ओढ़ लेता है

सफेद चॉक का मुलम्मा

तो करता है

न केवल ज्ञान-वर्धन

बल्कि देता है

उत्तम सोच को बढावा भी

होती है जिससे शुरुआत

किसी न किसी

सृजनात्मक शक्ति की

वह शक्ति जो

बनती है एक दिन अद्भुत शक्ति

चॉक तो चॉक है

सफेद बिल्कुल सफेद

कही ये मन भी चॉक होता

तो हम कर सकते

काले कारनामों को बेनकाब

या फिर चमका सकते

उस स्याह रँग के पीछे

छुपी सुन्दरता को

*******************************

50. रिश्ते

बनते बिगड़ते रिश्तों की कहानी

सुनते थे कभी दूसरों की जुबानी

क्या था क्या हो गया है

रिश्तों का बन्धन कही खो गया है

खून का रिश्ता भी हो गया है सफेद

आने लगा है अपने ही दिलों में भेद

लालच के मारे हम भूले सारा प्यार

बिक रह है आज तो पैसे में संसार

नहीं पलता अब दिलों में कोई रिश्ता

रिश्ते बनाना भी हुआ कितना सस्ता

मतलब से बन जाते हैं रिश्ते अनेक

स्वार्थ में बँध जाता है सारा विवेक

मतलब से बना लेते गधे को भी बाप

खुद के माँ-बाप से नहीं कोई मिलाप

झूठी भावनाएँ और झूठे बन्धन

स्वार्थ वश बँधा है हर एक जन

खून का रिश्ता भी नहीं रहा पावन

क्यों गन्दा हो गया है मानव का मन

नहीं सुरक्षित अपनों के बीच भी कोई

पर दुख में नहीं कोई आँख रोई

हर जग धोखा,फरेब ,झूठ का है डेरा

रिश्तों के नाम पर लूट का घेरा

आसानी से बन जाते हैं सारे रिश्ते

महँगाई के दौर में रिश्ते हुए कितने सस्ते

51. रिश्ते 2

जितनी जल्दी बिगड़ते हैं

उतनी ही जल्दी

बनते भी है रिश्ते आज

स्वार्थ के रिश्ते में

बँध गया है समाज

काँच की अँगूठी से

बन जाता है कोई भी रिश्ता

और मतलब निकला तो

टूट्ता है काँच की भांति ही

मोल का रिश्ता

भावनाहीन रिश्ता

बन्धन रहित रिश्ता

मँहगाई के दौर में

बहुत ही सस्ता

बिकते हैं बेटे और

बिकती है बेटी

रिश्तों की नींव भी

हो गई है खोटी

समझौते के रिश्ते

पनपने लगे है

दिखावे के रिश्तों में

आज सारे ठगे हैं

अन्दर से नफरत

और बाहर से प्यार

दिखाने का है

सबका विचार

खत्म हो गई भावनाएँ

रिश्ता बनाने से पहले

चलो आजमाएँ

कितना है पैसा

कितनी है जायदाद

बाद में नहीं चाहिए कोई विवाद

नहीं है ऐसा

तो रिश्ता कैसा....?

52. दुश्मन को सर न उठाने देंगे

आतंकी हमलों जैसे

कटु सत्य का जहर हमे पीना ही होगा

मौत के साए में भी जीना ही होगा

तभी तो यह सत्य शिव कहलाएगा

और महान भारत को सुन्दर बनाएगा

हम न हारेंगे हिम्मत

और न सर झुकाएँगे

अपने घर न किसी को घुसने देंगे

स्वयम मर जाएँगे

हमे स्मरण हैं दशम पिता के वचन

कोई भी नहीं साधारण जन

वारे जिन्होंने सुत चार

सहा कितना ही अत्याचार

दी अपने पिता की कुर्बानी

झोंक दी आग में अपनी जवानी

लेकिन छोड़ी नहीं हिम्मत

रहे करम में रत

हम उन पद-चिन्हों को अपनाएँगे

दुश्मन को सर न उठाने देंगे

स्वयम मर जाएँगे

************************

53 आज़ाद भारत की समस्याएँ

भारत की आज़ादी को वीरों ,

ने दिया है लाल रंग

वह लाल रंग क्यों बन रहा है ,

मानवता का काल रंग

आज़ादी हमने ली थी,

समस्याएँ मिटाने के लिए

सब ख़ुश रहें जी भर जियें,

जीवन है जीने के लिए

पर आज सुरसा की तरह ,

मुँह खोले समस्याएँ खड़ी

और हर तरफ़ चट्टान बन कर,

मार्ग में हैं ये अड़ी

अब कहाँ हनु शक्ति,

जो इस सुरसा का मुँह बंद करे

और वीरों की शहीदी ,

में नये वह रंग भरे

भुखमरी ,बीमारी, बेकारी ,

यहाँ घर कर रही

ये वही भारत भूमि है,

जो चिड़िया सोने की रही

विद्या की देवी भारती,

जो ज्ञान का भंडार है

अब उसी भारत धरा पर,

अनपढ़ता का प्रसार है

ज्ञान औ विज्ञान जग में,

भारत ने ही है दिया

वेदों की वाणी अमर वाणी,

को लुटा हमने दिया

वचन की खातिर जहाँ पर,

राज्य छोड़े जाते थे

प्राण बेशक त्याग दें,

पर प्रण न तोड़े जाते थे

वहीं झूठ ,लालच ,स्वार्थ का है,

राज्य फैला जा रहा

और लालची बन आदमी ,

बस वहशी बनता जा रहा

थोड़े से पैसे के लिए,

बहू को जलाया जाता है

माँ के द्वारा आज सुत का,

मोल लगाया जाता है

जहाँ बेटियों को देवियों के,

सद्रश पूजा जाता था

पुत्री धन पा कर मनुज ,

बस धन्य -धन्य हो जाता था

वहीं पुत्री को अब जन्म से,

पहले ही मारा जाता है

माँ -बाप से बेटी का वध,

कैसे सहारा जाता है ?

राजनीति भी जहाँ की,

विश्व में आदर्श थी

राम राज्य में जहाँ

जनता सदा ही हर्ष थी

ऐसा राम राज्य जिसमें,

सबसे उचित व्यवहार था

न कोई छोटा न बड़ा ,

न कोई आत्याचार था

न जाति -पांति न किसी,

कुप्रथा का बोलबाला था,

न चोरी -लाचारी , जहां पर,

रात भी उजाला था

आज उसी भारत में ,

भ्रष्टाचार का बोलबाला है

रात्रि तो क्या अब यहाँ पर,

दिन भी काला काला है

हो गई वह राजनीति ,

भी भ्रष्ट इस देश में

राज्य था जिसने किया ,

बस सत्य के ही वेश में

मज़हब ,धर्म के नाम पर,

अब सिर भी फोड़े जाते हैं

मस्जिद कहीं टूटी ,कहीं,

मंदिर ही तोड़े जाते हैं

अब धर्म के नाम पर,

आतंक फैला देश में

स्वार्थी कुछ तत्व ऐसे,

घूमते हर वेश में

आदमी ही आदमी का,

ख़ून पीता जा रहा

प्यार का बंधन यहाँ पर,

तनिक भी तो न रहा

कुदरत की संपदा का भारत,

वह अपार भंडार था

कण-कण में सुंदरता का ,

चहुँ ओर ही प्रसार था

बख़्शा नहीं है उसको भी,

हम नष्ट उसको कर रहे

स्वार्थ वश हो आज हम,

नियम प्रकृति के तोड़ते

कुदरत भी अपनी लीला अब,

दिखला रही विनाश की

ऐसा लगे ज्यों धरती पर,

चद्दर बिछी हो लाश की

कहीं बाढ़ तो कहीं पानी को भी,

तरसते फिरते हैं लोग

भूकंप,सूनामी कहीं वर्षा है,

मानवता के रोग

ये समस्याएँ तो इतनी,

कि ख़त्म होती नहीं

पर दुख तो है इस बात का,

इक आँख भी रोती नहीं

हम ढूंढते उस शक्ति को,

जो भारत का उधार करे

और भारतीय ख़ुशहाल हों,

भारत के बन कर ही रहें

भारत के बन कर ही रहें

*******************************************

54. न जाने क्यों......?

मन आहत है

आँखें नम

कितना पिया जाए गम

नहीं देखा जाता

बिछी हुईं लाशों का ढेर

नहीं सहन होती माँ की चीख

नहीं देखा जाता

छन-छनाती चूड़ियों का टूटना

नहीं देखा जाता

बच्चों के सर से उठता

माँ-बाप का साया

नहीं देखी जाती

माँ की सूनी गोद

नहीं देखी जाती

किसी बहन की कुरलाहट

न जाने कब थमेगा

यह मृत्यु का नर्तन

यह भयंकर विनाशकारी ताण्डव

न जाने कितनी

मासूम जाने लील लेगा

और भर जाएगा

पीछे वालों की जिन्दगी में अन्धेरा

मजबूर कर देगा जिन्दा लाश बनकर

साँस लेने को

न जाने क्यों......

*********************************************************

55. जान की होली

बम धमाकों की आवाज को

मुनिया

दीवाली के पटाखों का

शोर समझी

और

जिज्ञासु भाव से माँ के

गिर्द मँडराते हुए बोली....

यह कौन सा त्योहार है माँ

दीवाली तो नहीं.....?

माँ , खामोश निरुत्तर

आँचल में छुपाती मुनिया की

जिज्ञासा नहीं शान्त कर पाई

बस

गमगीन हो आँसू पी गई

और मुनिया

माँ के भाव तो नहीं समझी

बस दुबक गई

माँ के आँचल में

और फिर बाल-स्वभाव वश

बोलो न माँ.....

यह किसका धर्म है

जो हमारा नहीं....?

माँ खामोश

एक्टक देखती नन्हीं मुनिया को

चिपका लेती है सीने से

पर मुनिया है कि मानती ही नहीं

बोलो न माँ

इन पटाखों से

सब डरते क्यों हैं...?

माँ खामोश....

झर-झर झरते आँसू

खामोश इन्तजार में

मुनिया के प्रश्न तीर की भांति चुभ गए

सीने की अनन्त गहराई में

................

................

और अब

इन्तजार खत्म

सदा-सदा के लिए खत्म

तीन रँगों में लिपटा

चार जवानों के कन्धे पर ताबूज

और माँ

जो अब तक खामोश थी

बरस पड़ी नन्हीं मुनिया पर

मिल गई तुम्हें शान्ति

हो गई तसल्ली....

देख....

देख इसको

और पूछ इससे....

कौन सा त्योहार मनाया इसने

अब मुनिया खामोश

जैसे समझ गई बिन बताए

सारी ही बातें

कि

यह मौत का त्योहार है

आतंकवाद का धर्म है

हम नहीं मनाते यह त्योहार

क्योंकि......

यह दीवाली नहीं....

होली है .....

जान की होली

****************************************************************

56. जीवन एक कैनवस

दिन -रात,सुख-दुख ,खुशी -गम

निरन्तर

भरते रहते अपने रंग

बनती -बिगड़ती

उभरती-मिटती तस्वीरों में

समय के साथ

परिपक्व होती लकीरो में

स्याह बालों मे

गहराई आँखो में

अनुभव से

परिपूर्ण विचारो में

बदलते

वक़्त के साथ

कभी निखरते

जिसमे

स्माए हो

रंग बिरंगे फूल

कभी

धुँधला जाते

जिस पर

जमी हो हालात की धूल

यही

उभरते -मिटते

चित्रों का स्वरूप

देता है सन्देश

कि

जीवन है एक कैनवस

*************************************************************

57.जूतों की नियति

जूतों की नियति है

पैर तले रहना

अच्छे से अच्छा ब्राण्ड भी

पैरों की शोभा तो बढ़ाता है

पर जूते की नियति

नहीं बदल पाता है

कहते हैं जब बाप का जूता

बेटे के पैरों में आ जाए

तो वो बेटा नहीं रहता

दोस्त बन जाता है

और किसी गुलाम का जूता

अपनी सीमाओं को तोड़

मालिक के सर पर पड़े

तो वो गुलाम नहीं रहता

इतिहास बन जाता है

**************************************

58.भरी महफिल में नंगे पांव

अब देखना नया कानून बनाया जाएगा

भरी महफिल में नंगे पांव जाया जाएगा

भारत का इतिहास पुराना है

अब जाकर उसको पहिचाना है

भारत में कितने बडे विद्वान थे

अरे वो तो पहले से ही सावधान थे

जूते अन्दर ले जाने की मनाही थी

पर बात हमने यूँ ही उड़ाई थी

अब फिर हमारी सभ्यता को अपनाया जाएगा

देखना भरी महफिल में नंगे पांव जाया जाएगा

**********************************************************

59. शहीदों के घर..............?

शहीदों के घर कुत्ते नहीं जाते

क्योंकि वहां पावन भावनाओं की

गंगा बहती है

और बहती गंगा मे

अगर हाथ धोने जाएँ भी

तो उन्हें कोई घुसने नहीं देता

******************************************

60. मृग-तृष्णा

एक दिन

पडी थी

माँ की कोख में

अँधेरे मे

सिमटी सोई

चाह कर भी कभी न रोई

एक आशा

थी मन में

कि आगे उजाला है जीवन में

एक दिन

मिटेगा तम काला

होगा जीवन में उजाला

मिल गई

एक दिन मंजिल

धड़का उसका भी दुनिया में दिल

फिर हुआ

दुनिया से सामना

पडा फिर से स्वयं को थामना

तरसी

स्वादिष्ट खाने को भी

मर्जी से

इधर-उधर जाने को भी

मिला

पीने को केवल दूध

मिटाई

उसी से अपनी भूख

सोचा ,

एक दिन

वो भी दाँत दिखाएगी

और

मर्जी से खाएगी

जहाँ चाहेगी

वहीं पर जाएगी

दाँत भी आए

और पैरो पर भी हुई खड़ी

पर

यह दुनिया

चाबुक लेकर बढ़ी

लड़की हो

तो समझो अपनी सीमाएँ

नहीं

खुली है

तुम्हारे लिए सब राहें

फिर भी

बढती गई आगे

यह सोचकर

कि भविष्य में

रहेगी स्वयं को खोज कर

आगे भी बढ़ी

सीढ़ी पे सीढ़ी भी चढ़ी

पर

लड़की पे ही

नहीं होता किसी को विश्वास

पत्नी बनकर

लेगी सुख की साँस

एक दिन

बन भी गई पत्नी

किसी के हाथ

सौप दी जिन्दगी अपनी

पर

पत्नी बनकर भी

सुख तो नहीं पाया

जिम्मेदारियों के

बोझ ने पहरा लगाया

फिर भी

मन में यही आया

माँ बनकर

पायेगी सम्मान

और

पूरे होंगें

उसके भी अरमान

माँ बनी

और खुद को भूली

अपनी

हर इच्छा की

दे ही दी बलि

पाली

बस एक ही

चाहत मन में

कि बच्चे

सुख देंगे जीवन में

बढती गई

आगे ही आगे

वक़्त

और हालात

भी साथ ही भागे

सबने

चुन लिए

अपने-अपने रास्ते

वे भी

छोड़ गए साथ

स्वयं को छोड़ा जिनके वास्ते

और अब

आ गया वह पड़ाव

जब

फिर से हुआ

स्वयं से लगाव

पूरी जिन्दगी

उम्मीद के सहारे

आगे ही आगे रही चलती

स्वयं को

खोजने की चिन्गारी

अन्दर ही अन्दर रही जलती

भागती रही

फिर भी रही प्यासी

वक़्त ने

बना दिया

हालात की दासी

उम्मीदों से

कभी न मिली राहत

और न ही

पूरी हुई कभी चाहत

यही चाहत

मन में पाले

इक दिन दुनिया छूटी

केवल एक

मृग-तृष्णा ने

सारी ही जिन्दगी लूटी

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सीमा सचदेव की अन्य रचनाएँ पढ़ें उनके ब्लॉग पर:

संजीवनी http://sanjeevany.blogspot.com/

नन्हा मन http://nanhaman.blogspot.com/

मेरी आवाज http://meriaavaaz.blogspot.com/

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COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. बहुत खुशी हुई यह जान कर कि हम भी अपनी रचनाओं को इतनी आसानी से हज़ारों पाठकों तक पहुंचा सकते हैं. आपका यह प्रयास सराहनीय है. मैं भी अपनी कुछ चुनी हुई कविताओं को आपके पाठकों के साथ बांट्ना चाहूं गा. अपनी एक रचना - माँ - आपको भेज चुका हूं. आशा करता हूं कि आपको व आपके पाठकों को पसन्द आए गी. मैं हिन्दी में टाईपिँग भी सीख रहा हूं. हो सकता है कहीं कोई मात्रा गलत लग जाय. कृप्या संशोधन कर लें.

    धन्यवाद

    हरीश नारंग्

    जवाब देंहटाएं
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श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र 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मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ 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रचनाकार: सीमा सचदेव का कविता संग्रह : मेरी आवाज भाग -2
सीमा सचदेव का कविता संग्रह : मेरी आवाज भाग -2
रचनाकार
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