संस्मरण ग़ालिब छुटी शराब रवींद्र कालिया (पिछले अंक से जारी…) बीमारी के दौरान मुझे आत्म-अन्वेषण के लिए काफी समय मिला। यादों की राख...
संस्मरण
ग़ालिब छुटी शराब
रवींद्र कालिया
बीमारी के दौरान मुझे आत्म-अन्वेषण के लिए काफी समय मिला। यादों की राख टटोलने के अलावा कोई दूसरा काम भी न था। अपनी खामियों और कमीनगियों पर ध्यान गया। मुझे लगा, मैं काफी स्वार्थी किस्म का इन्सान हूँ। ममता ने मुझे घर की जिम्मेदारियों से मुक्त कर रखा था। यह मेरी चिन्ता का विषय नहीं था कि घर में राशन है या नहीं, बच्चों की फीस वक्त पर जा रही है या नहीं, मुझे अगर कोई चिन्ता रहती थी तो केवल अपने दारू के स्टाक की, प्रेस कर्मियों के वेतन की, कर्ज़ के किस्तों के भुगतान की, बिजली टेलीफ़ोन और स्याही के बिल की। मेरे अपने निजी अखराज़ात इतने ज़्यादा बढ़ गये थे कि मैं घर गृहस्थी के बारे में सोच भी न सकता था।
चालीस पचास रुपये रोज़ तो मेरे सिगरेट का खर्च था, दारू का खर्च इससे कहीं ज़्यादा। ज़ाहिर है, हर वक्त तंगदस्ती में रहता। मद्यपान के अलावा मैं हर चीज़ में कटौती कर सकता था। मेरी सारी ऊर्जा इन्हीं चीज़ों की व्यवस्था करने में शेष हो जाती। सुबह से शाम तक मैं बैल की तरह प्रेस के कोल्हू में जुता रहता, फिर भी पूरा न पड़ता तो बेईमानी पर उतर आता। यह सोच कर आज भी ग्लानि में आकंठ डूब जाता हूँ कि माँ अपनी दवा के लिए पैसा देतीं तो मैं निःसंकोच ले लेता। वक्त ज़रूरत उनके हिसाब किताब में गड़बड़ी भी कर लेता। कहना गलत न होगा, बड़ी तेजी से मेरा नैतिक पतन हो रहा था। अपनी बूढ़ी मां के झुर्रियों भरे चेहरे के बीच अपनी बीमारी की रेखाएं देखता तो करवट बदल लेता। जबसे बीमार पड़ा था, रात को उनके पास सोता था। सुबह उठता तो वह कहतीं, कितने कमज़ोर हो गये हो, रात भर में एक भी बार करवट नहीं बदलते। जिस करवट सोते हो, रात भर उसी करवट पड़े रहते हो। मुझे नहीं मालूम अब स्वस्थ होने के बाद रात में करवट बदलता हूँ या नहीं। अब मा भी नहीं हैं, यह बताने के लिए। वैसे मुझेे लगता है कि करवटें बदलने की भी एक उम्र होती है। एक उम्र ऐसी भी आती है कि किसी करवट आराम नहीं मिलता। बीमारी के दौरान मेरी मां की पूरी चेतना मुझ पर केन्द्रित थी, वह अपनी तकलीफ़ों को भूल गयी थीं। आज भी यह बार बार एहसास होता है कि यह उनका आशीर्वाद था कि मैं मौत के मुंह से लौट आया। देखते देखते मेरी दुनिया बदल गयी। मेरा सूरज बदल गया, चाँद और सितारे बदल गये। दिनचर्या बदल गयी। मैं एक ऐसा पंछी था जो सूरज ढलते ही चहकने लगता था, धीरे धीरे वह चहचहाहट बंद हो गयी। मेरी फितरत बदल गयी, दोस्त बदल गये, प्रेमिकाएं बदल गयीं। मेरे डिनर के दोस्त लंच या नाश्ते के दोस्त बन गये। हरामुद्दहर किस्म के दोस्तों से मेरी ज्यादा पटती थी, अब राजा बेटे किस्म के दोस्तों में ज़्यादा समय बीतने लगा। शरीफ, ईमानदार और वफ़ादार किस्म के दोस्तों के बीच जाने क्यों मेरा दम घुटता है। हमप्याला दोस्तों के बीच जो बेतकल्लुफ़ी और घनिष्ठता विकसित हो जाती है, वह हमनिवाला दोस्तों के बीच संभव ही नहीं। एक औपचारिकता, एक बेगानापन, एक फासला बना रहता है। सच तो यह है आज भी मेरा मन शराबियों के बीच ज़्यादा लगता है।
छह महीने में मैं इस लायक हो गया कि शहर से बाहर भी निकलने लगा। सबसे पहले लखनऊ जाना हुआ। कथाक्रम 1997 में। देश भर से साथी रचनाकार आये हुए थे, सब से मुलाकात हो गयी। मैं एक बदला हुआ रवीन्द्र कालिया था। सागरे मये तो मेरे हाथ में था, मगर मयगुसार की हैसियत से नहीं। साक़ी की हैसियत से। गोष्ठियों के बाद मैंने साथी कथाकारों की पेशेवर तरीके से खिदमत की। किसी का गिलास खाली न रहने दिया। सब के प्याले पर मेरी निगरानी थी। मेरे लिए यह एक नया अनुभव था। गेस्ट हाउस का कमरा लेखकों से ठसाठस भरा था। हर कोई मेरा मोहताज था। वह श्रीलाल शुक्ल हों या राजेन्द्र यादव, दूधनाथ सिंह हों या कामतानाथ। विभूतिनारायण राय, सृंजन, संजय खाती, वीरेन्द्र यादव, अखिलेश आदि नयी पीढ़ी के तमाम कथाकार वहाँ मौजूद थे।
नशे में कोई तो ऐसी विशेषता अथवा शक्ति होगी कि लोग इसके मोहपाश में गिरफ्तार होकर इसके लिए अपना सब कुछ न्योछावर करते देखे गये हैं-घर परिवार, सुख चैन, वर्तमान और भविष्य। यहां तक कि अपने स्वास्थ्य और प्राणों की भी बाज़ी लगा देते हैं। दोनों जहान हार जाते हैं इसका दीवाना होकर। जोगी बन जाते हैं। कोई क्यों हो जाता है यकायक नशे का दीवाना। नशे का गुलाम। कठपुतली बन कर रह जाते हैं नशे की। हर शराबी कभी न कभी इन प्रश्नों से दो चार होता है। क्यों हो जाता है, वह पराधीन, विवश और सम्मोहित? बगर्ज़े सरूर या बगज़ेर् ग़म? कला कला की तर्ज़ पर नशा नशे के लिए या इसके पीछे कोई आंतरिक, मनोवैज्ञानिक और भौतिक विवशता है? यह जानना ज़रूरी है कि आदमी यथार्थ से कन्नी काटने के लिए पीता है या यथार्थ से मुठभेड़ करने के लिए। पलायन के लिए या आत्मविश्वास जगाने के लिए। वास्तव में अलग अलग लोग अलग अलग कारणों से पीते हैं, जबकि समान कारणों से मदिरापान के गुलाम हो जाते हैं। ऐसा फँसते हैं इसकी चंगुल में कि फिर जीते जी निकल नहीं पाते इस अंधे कुएँ से। कुछ लोग इसलिए पीते हैं कि उनके पास पीने के अलावा कोई दूसरा काम ही नहीं होता। यह पीने का एक सामंती तर्क है। कुछ लोग ऊब से मुक्ति पाने के लिए पीते हैं। बहुत से लोग सोहबत में पीने लगते हैं। कोई बंधन से मुक्त होने के लिए पीता है तो कोई बंधन के आकर्षण में। बहुत से लोग शुद्धतावादी जीवन शैली की प्रतिक्रिया में नशे के आगोश में चले जाते हैं। गरीबी भी मदिरापान के लिए उकसाती है और सम्पन्नता भी। सुख प्रेरित करता है तो दुख भी पुकारता है। आदमी उल्लास में पीता है, विलास में पीता है, शोक में पीता है, संताप में पीता है, परिताप में पीता है। मदिरापान ‘स्टेटस सिम्बल' भी है और तोहमत भी। व्यवसाय के लिए अभिशाप भी और वरदान भी। कभी कभी मदिरापान के दौरान बड़े बड़े कांट्रेक्ट हो जाते हैं, वारे न्यारे हो जाते हैं, मगर इसी मदिरा से लोगों को कुर्क होते देखा है, दिवालिया होते देखा है, बर्बाद होते देखा है। आसमान छूते देखा है तो धूल चाटते भी देखा है। जो सही मायने में रिंद हो जाता है, उसे फिर इस दुनियावी पेचोख़म की चिन्ता नहीं रहती। सच तो यह है कि पीने वाले को पीने का बहाना चाहिये और जिसे पीने का चस्का लग जाता है, उसे पीने का बहाना मिल ही जाता है।
दरअसल शराब के बहाने मैं अपना ही अन्वेषण विश्लेषण कर रहा हूँ। अपने बारे में सोचता हूँ तो लगता है कि मेरी जिन्दगी में पीने का मंच बहुत पहले तैयार हो गया था यानी स्टेज वाज़ सेट। पुआल को आग भर दिखाने की कसर थी। घर का वातावरण अत्यन्त शुद्धतावादी था। समय समय पर सनातन धर्म, आर्य समाज और जैन धर्म का प्रभाव रहा। घर में किसी ने शराब तो क्या सिगरेट तक न फूँकी थी। भाई की वैचारिक यात्रा वामपंथ से शुरू हुई थी और कैनेडा जा कर उस की परिणति अध्यात्म में हुई। वह आज तक मांस मछली मदिरा से छत्तीस का रिश्ता कायम किये हुए हैं, तापमान चाहे शून्य से कितना भी नीचे चला जाए। मेरे नाना और मामा लोग कर्मकाण्डी ब्राह्मण थे, ननिहाल में प्याज़ तक से परहेज किया जाता था। मुझे क्या हो गया कि मसें भीगते ही मैं सीगरेट फूँकने लगा और बीयर से दोस्ती कर ली। यह शुद्धतावादी वातावरण के प्रति शुद्ध विद्रोह था या वक्त या उम्र का तकाज़ा। माहौल में कोई न कोई ज़हर अवश्य घुल गया था कि सपने देखने वाली आँखें अंधी हो गयी थीं। योग्यता पर सिफ़ारिश हावी हो चुकी थी। लाईसेंस परमिट की बंदर बाँट ने समाज में असमानता और विषमता की दीवारें खड़ी कर दी थीं। कल के स्वाधीनता सेनानी त्याग और बलिदान की कीमत वसूलने में व्यस्त हो गये थे। आज़ादी के दीवाने सत्ता के दीवाने हो रहे थे। आजादी ने जो सपने बुने थे, वे आँखों के सामने चकनाचूर हो रहे थे। वह भ्रष्टाचार का प्रसव काल था। समाज में इतनी विषमता, इतना बेगानापन, इतनी अबनियत और स्वार्थता-लोलुपता पहले तो न थी। सत्ता, पूंजी, स्वार्थपरता और लोलुपता की मैराथन रेस शुरू हो चुकी थी। पुराने मूल्य तेज़ी से ध्वस्त हो रहे थे और नयी मूल्यधर्मिता आकार नहीं ले पा रही थी।
पचपन छप्पन के आस पास कुछ ऐसे ही माहौल में मेरा परिचय मोहन राकेश से हुआ। उन दिनों उपेन्द्रनाथ अश्क के छोटे भाई नरेन्द्र शर्मा कम्युनिस्ट पार्टी की जालंधर शाखा के सचिव थे। मेरे बड़े भाई पार्टी के कार्ड होल्डर हो गये तो नरेन्द्र शर्मा का हमारे यहाँ आना जाना शुरु हो गया। मेरे पिता भाई की राजनीतिक सक्रियता से परेशान रहते थे। वह कम्युनिस्ट आन्दोलन के दमन का दौर था। नरेन्द्र शर्मा के जाने के बाद अक्सर घर मे कलह होती। नरेन्द्र शर्मा पर प्रशासन की कड़ी नज़र थी और खुफिया तंत्र ने भाई को भी चिन्हित कर लिया था। खुफिया विभाग में तैनात पिता के एक पूर्व छात्र ने इस की सूचना दी तो वह आग बबूला हो गये। मेरी नरेन्द्र शर्मा में इसलिए दिलचस्पी थी कि वह अश्कजी के भाई थे। अश्कजी के कथा साहित्य में जालंधर की गलियां गूँजती थीं, उन के कथा साहित्य की दुनिया मुझे अत्यन्त आत्मीय और परिचित लगती थी। एक दिन नरेन्द्र ने बताया कि अश्कजी कश्मीर से लौटते हुए कुछ रोज़ जालन्धर में मोहन राकेश के यहाँ रुकेंगे। मोहन राकेश से मेरा एक गायबाना सा परिचय था। उन्हीं दिनों उनकी ‘मवाली' शीर्षक कहानी पढ़ी थी। जालन्धर में भारत सरकार का एक सूचना केन्द्र था, जिसके वाचनालय में देश भर की पत्रिकाएँ उपलब्ध रहती थीं। शमशेरसिंह नरूला उन दिनों वहाँ सूचना अधिकारी थे। जालन्धर में सूचना केन्द्र ही एकमात्र ऐसा स्थान था जहाँ हिन्दी की कुछ साहित्यिक पत्रिकाएं पढ़ने को मिल जाया करती थीं। सिविल लाइन्स में जब काफी हाउस में मित्र लोग न मिलते तो मैं सूचना केन्द्र में जा बैठता। ‘कल्पना' और ‘कहानी' जैसी पत्रिकाएं सब से पहले मैंने वहीं पढ़ी थीं। कल्पना के ही किसी अंक में मैंने इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली कथा पत्रिका ‘कहानी' के वृहत विशेषांक की समीक्षा पढ़ी और मैं उस अंक को प्राप्त करने में जुट गया। किसी तरह मैंने छुट्टियों के बाद कलकत्ता से लौटने वाले अपने एक सहपाठी अमृतलाल ‘अमृत' के माध्यम से वह अंक प्राप्त कर लिया। ‘मवाली' मैंने उसी अंक में पढ़ी थी और उसी पत्रिका से जानकारी मिली थी कि मोहन राकेश जालन्धर में रहते हैं। यह जानकर मैं काफी चमत्कृत हुआ था कि जालन्धर में भी ऐसा कोई रचनाकार रहता है, जिस की कहानी इलाहाबाद की पत्रिका में प्रकाशित होती है।
जिस दिन अश्कजी जालन्धर पहुँचे, मैं भी उन की आगवानी के लिए स्टेशन पर मौजूद था। स्टेशन पर नरेन्द्र भी दिख गये, जो एक खूबसूरत से नाटे आदमी के साथ स्टाल पर चाय पी रहे थे। नरेन्द्र ने मोहन राकेश से मेरा परिचय करवाया।
‘आपकी कहानी मवाली मुझे बहुत अच्छी लगी।' मैंने छूटते ही कहा। राकेशजी ने अपने मोटे चश्मे के भीतर से बहुत गहरी निगाह से मेरी तरफ़ देखा और बोले ‘मवाली तुम्हें कहाँ से पढ़ने कों मिल गयी?'
मैंने बताया।
‘क्या करते हो? ' उन्होंने पूछा।
‘पढ़ता है।' नरेन्द्र ने बताया।
‘कौन सी क्लास में पढ़ते हो?'
‘इण्टर में।'
‘किस कालिज में?'
‘डी0 ए0 वी0 कालिज में।'
‘डी0 ए0 वी0 में ?' राकेश ने उत्सुकता से पूछा,' ‘मुझे कभी देखा है वहाँ?'
नया नया सत्र शुरू हुआ था। मैंने अनभिज्ञता ज़ाहिर की। अगले रोज़ मैं अश्कजी से मिलने के राकेश के यहाँ माडल टाउन गया। अश्कजी का इंटरव्यू लेने का चाव था, मगर कोई प्रश्न सूझ ही न रहा था। अश्कजी ने समस्या हल कर दी। प्रश्न भी लिखा दिये और उत्तर भी, बल्कि खुद ही लिख दिये। बाद में वह इण्टरव्यू ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान' में छप भी गया। स्टेशन पर हुआ राकेशजी से वह परिचय धीरे धीरे प्रगाढ़ होता चला गया। उन्हें जालन्धर जैसे शहर में नयी उम्र का पाठक मिल गया था। मैं उनके यहाँ आने जाने लगा। उनके पास हिन्दी की तमाम पत्रिकाएं आती थीं, उनका पुस्तकालय भी बहुत समृद्ध था। मैं उन दिनों खूब कहानियां पढ़ता। उस दौर की कहानियां मैंने राकेशजी के यहाँ ही पढ़ीं। राकेश अपने समकालीन कथाकारों के बारे में कुछ बताते तो मैं बहुत ग़ौर से सुनता। मैंने इण्टर की परीक्षा पास की तो एक दिन राकेशजी तांगे में बैठ कर हमारे घर चले आये। मैं उस समय गली में पतंग उड़ा रहा था। मुझे देखकर वह मुस्कराये। उन्होंने सुझाव दिया, बी0 ए0 में मुझे ‘आनर्स' के साथ हिन्दी लेनी चाहिये। मैंने बताया कि हमारे घर में हिन्दी का कोई माहौल नहीं है। भाई ने राजनीतिशास्त्र में एम0 ए0 किया था और छोटी बहन भी यही सोच रही है। राकेशजी ने कहा कि वही पढ़ना चाहिये जिसमें रुचि हो।
बहरहाल, घर के विरोध के बावजूद मैंने हिन्दी में दाखिला ले लिया। आनर्स में मेरे अलावा कोई छात्र नहीं था। दो-एक ने मेरी देखा देखी ‘आनर्स' ले ली, मगर राकेश ने उन्हे डांट डपटकर भगा दिया। वास्तव में आनर्स पढ़ाने में राकेशजी को सुविधा थी। आनर्स के चार लेक्चर सात के बराबर माने जाते थे। देखते देखते आनर्स में मैं उनका इकलौता छात्र रह गया।
राकेश उन दिनों परेशान थे। पत्नी से। कालिज से। शहर से। अध्यक्ष से। बाद में उनके निकट आने पर मैंने पाया कि वे एक बेचैन रूह के परिन्दे हैं। हमारी क्लासें बीयर शाप में लगने लगीं। एक-आध गिलास से शुरू करके कुछ ही दिनों में मैं पूरी की पूरी बोतल पीने लगा। बाद में तो ऐसा भी हुआ कि वे क्लास में मेरी प्रतीक्षा करते रहते और मैं बीयर शाप में। शाम को काफी हाउस में भेंट होती तो मैं उनसे कहता, ‘आप आज क्लास में नहीं आये?'
पूरे सत्र में वे आनर्स की क्लास दो-चार दिन ही ले पाये होंगे। उन्हे मेरी पढ़ाई की चिन्ता होती तो रिक्शे में, ‘बियर शाप' में, किसी रेस्तराँ में, तुलसीदास या प्रेमचन्द पर एक संक्षिप्त-सा भाषण दे देते। कृष्ण काव्य के सौन्दर्य बोध पर वे रिसर्च कर रहे थे, मगर सूर पर उन्होंने कभी लेक्चर नहीं दिया। तिमाही छमाही परीक्षा यों ही बीत गयी। वे क्या तो पेपर सैट करते और क्या मैं उत्तर लिखता। काग़जों पर ही परीक्षाएं हो गयीं। राकेश के आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब मैंने प्रथम श्रेणी में आनर्स किया।
उन दिनों राकेश जो भी लिखना चाहते या लिखते, मुझे, उसके बारे में बताते, मगर मैं चीजों को उतनी गहराई से न समझता था, समझने की कोशिश ज़रूर करता था। यहां तक कि ‘आषाढ़ का एक दिन' सबसे पहले उन्होंने मुझे और नरेन्द्र शर्मा को ही सुनाया था। बिल्क प्रसारण के समय हरिकृष्ण प्रेमी ने, जो उन दिनों आकाशवाणी जालन्धर में हिन्दी प्रोड्यूसर थे, नाटक पढ़ना शुरू किया तो राकेश ने कहा, ‘अच्छा तो प्रेमीजी आप नाटक पढ़कर ही प्रसारित करेंगे।' प्रेमीजी ने अत्यन्त सरलता से कहा, ‘भाई मैं तो यह देख रहा था, तुम कितना अच्छा टाइप कर लेते हो।' बाद में वह नाटक जालन्धर केन्द्र द्वारा प्रसारित हुआ और मोहन राकेश ने स्वयं उसमें कालिदास का अभिनय किया था।
इसी बीच मैं उर्दू कहानियों का हिन्दी अनुवाद करने लगा। ‘माया', ‘कहानी' आदि पत्रिकाओं में मेरे अनुवाद छपने लगे और पारिश्रमिक भी मिलने लगा। उन्हीं दिनों उर्दू अफसानानिगारों में सत्यपाल आनन्द की कहानियों की बहुत धूम थी। वह उन दिनों लुधियाना में ‘लाहौर बुक शाप' में काम करते थे, कुमार विकल भी वहीं छोटी मोटी नौकरी करता था। उन दिनों पंजाब के उर्दू हिन्दी के तमाम दैनिक समाचारपत्र जालन्धर से ही प्रकाशित होते थे। पंजाब में आकाशवाणी का केन्द्र भी जालन्धर में ही था। विभाजन के बाद लाहौर के स्थान पर जालन्धर पूर्वी पंजाब की सांस्कृतिक राजधानी के रूप में विकसित हो रहा था। अखबारों के कारण उर्दू, हिन्दी, पंजाबी के तमाम नामी गिरामी रचनाकार जालन्धर आते रहते थे। इन समाचार पत्रों से सम्बद्ध पत्रकारों और आकाशवाणी के माध्यम से मेरा परिचय उस दौर के तमाम लेखकों से हो गया। सत्यपाल आनन्द चाहते थे कि मैं उनकी कहानियों का हिन्दी में अनुवाद करुँ। इसी क्रम में उन्होंने भी मेरी प्रारम्भिक कहानियों का उर्दू में अनुवाद किया और वे ‘शमा' और ‘बीसवीं सदी' आदि उर्दू की लोकप्रिय पत्रिकाओं में छपीं। इस प्रकार हिन्दी से पूर्व मेरी कहानियाँ उर्दू में छपने लगीं। मैं भी सत्यपाल आनन्द की कहानियों को हिन्दी की कुछ पत्रिकाओं में छपवाने में सफल हो गया। उस समय के उर्दू के तमाम अफसानानिगारों और शायरों से आनन्द के माध्यम मेरी भी मित्रता हो गयी। उर्दू में शायरी और शराब का अटूट रिश्ता रहा है। दो चार अफसानानिगार और शायर इकठ्ठा हो जाते तो मयनोशी का दौर शुरू हो जाता। तब तक मैं बियर के आगे नहीं बढ़ा था। इन लेखकों में सिर्फ सत्यपाल आनन्द ही मोहन राकेश के नाम और महत्व से परिचित था। उसने मोहन राकेश से मिलने की ख्वाहिश ज़ाहिर की। पहली मुलाकात बियर शाप में ही हुई। (मोहन राकेश ने अपनी डायरी में भी सत्यपाल आनन्द की इस मुलाकात का ज़िक्र किया है)
सत्यपाल आनन्द की शादी तय हुई तो उसने मोहन राकेश और मुझे शादी पर आमंत्रित किया। मोहन राकेश और मैं साथ साथ बस में शादी में शिरकत करने लुधियाना गये। वहाँ बहुत से अदीबों से मुलाकात हुई। कुछ नाम तो मुझे आज तक याद हैं-नरेश कुमार ‘शाद', हीरानंद ‘सोज', शाकिर पुरुषार्थी, प्रेम बारबरटनी, कृष्ण अदीब, कुमार विकल आदि। राकेश उन दिनों चूँकि एक डिग्री कालिज में प्राध्यापक थे, उनका मिज़ाज अलग था। वह उर्दू के अदीबों के इस शायराना, फकीराना और शराबपरस्त माहौल से नितांत अपरिचित थे। उन लोगों के बीच वह बहुत अटपटा महसूस कर रहे थे। मैं राकेश का छात्र था, इसलिए मुझे भी बहुत उलझन हो रही थी। राकेश कमरे के बीचों बीच मुख्य अतिथि के लिए रखी एक बूढ़ी कुर्सी पर बैठे थे, उनकी बगल में मैं एक छोटे से लंगड़े स्टूल पर बैठ अपने को सन्तुलित कर रहा था । शायर लोग खटिया और खिड़कियों पर बैठे थे। तभी कमरे में कुमार विकल नमूदार हुआ। उसके दोनों हाथों में नारंगी रंग की दो बोतलें थीं। वह बोतलों को बारी बारी से चूम रहा था। बोतलें देखते ही शायरों के चेहरे निहाल हो गये। कुमार बगल के कमरे से एक मोढ़ा उठा लाया और उसपर बैठ कर अपनी भारी आवाज में नरेश कुमार ‘शाद' की किसी ग़़ज़ल की पैरोडी तरन्नुम में सुनाने लगा। पैरोडी बहुत अश्लील थी। मोहन राकेश तभी वाकआउट कर गये। उनके साथ साथ मैं भी खड़ा हो गया। कुमार और दूसरे शायरों पर इसका कोई असर न हुआ।
दालान में हमें सत्यपाल आनन्द मिला। वह आटा गूंथने वाली थाली में अलग अलग आकार प्रकार के कांच और विभिन्न धातुओं के गिलास सजा कर कमरे की तरफ बढ़ रहा था। राकेशजी ने अत्यन्त विनम्रतापूर्वक आनन्द से विदा ली। आनन्द उनके पधारने मात्र से उपकृत हो गया था और समझ रहा था राकेश की उपस्थिति में हुड़दंग सम्भव नहीं। राकेश शायद कोई फिल्म देखने का बहाना कर गये थे। अगर मैं गलत नहीं हूं तो उन दिनों ‘मदर इंडिया' चल रही थी। मेरा ख्याल था मोहन राकेश तौबा तौबा करते हुए अगली बस से जालन्धर लौट गये होंगे। हम लोग उन्हें नीचे तक छोड़ आये थे। राकेशजी ने मुझे साथ चलने के लिए नहीं कहा और कूद कर रिक्शा में बैठ गये। माहौल मेरे लिए भी अजनबी था, मगर मैं उससे बहिर्गमन नहीं कर पाया।
आनन्द के कमरे में लौटते ही पीने पिलाने का दौर शुरू हो गया। अलग अलग आकार प्रकार के गिलास एक साथ टकराये-चीयर्स! मेरे लाख मना करने के बावजूद चाय के एक प्याले में मेरा जाम भी तैयार कर दिया गया। मैंने तब तक बियर तो पी थी मगर शराब कभी न चखी थी। शराब तो दूर कमरे में फैले सिगरेट बीड़ी के धुएँ से मेरा दम घुट रहा था। लग रहा था किसी गैस चैम्बर में बैठा हूँ। सामने एक पीढ़े पर उबले अंडे, टमाटर और प्याज़ का सलाद रखा था। मुझे लग रहा था मैं शायरों के नहीं उठाईगीरों के गिरोह के बीच आ फंसा हूँ। इच्छा तो यही हो रही थी कि किसी तरह पिंड छुड़ा कर यहाँ से भाग निकलूं या खिड़की से कूद जाऊँ मगर आनन्द और कुमार की मुरव्वत में बैठा रहा। दोनों ने वादा कर रखा था कि वह मेरी उर्दू से अनूदित कहानियों की किताब ‘लाहौर बुक डिपो' से छपवा देंगे। बाद में उन्होंने शौकत थानवी की कहानियों के अनुवाद की पुस्तक न सिफऱ् छपवा दी, मुझे ढाई सौ रुपये भी दिलवा दिये। मैंने पीने में आनाकानी की तो तमाम शायर मेरा ही नहीं हिन्दी का भी मज़ाक उड़़ाने लगे। तमाम शायरों ने अपनी अश्लील से अश्लील ग़ज़लों का पाठ शुरू कर दिया। कुछ शेर तो मुझे आज तक याद हैं, मगर आज भी लिखने नहीं, सुनाने लायक ही हैं। मैंने जब देखा कि तमाम लोगों के गिलास खाली हो रहे हैं तो मैंने आँख बचा कर अपना कप चुपके से स्टूल के नीचे खाट की तरफ़ उँड़ेल दिया। जाम फिर तैयार हुए। इस बार मेरा लिहाज़ कर कम मात्रा में शराब परोसी गयी । मैंने वह जाम भी धरती माता की नज़र कर दिया। तौबा तौबा के बीच वह शाम किसी तरह अंजाम पर पहुंची। अंजाम और भी गैर-शायराना था। कोई कै कर रहा था, कोई बेसुध पड़ा था, कोई पागलों की तरह प्रलाप कर रहा था। आनन्द और कुमार शायरों के उपचार में व्यस्त थे। किसी को आम का अचार चटाया जा रहा था, किसी के मुँह पर ठंडे पानी के छींटे मारे जा रहे थे, किसी के जूते उतारे जा रहे थे।
मौका मिलते ही मैं वहाँ से खिसक लिया। वहाँ से सीधा बस अड्डे पर पहुँचा। और बस में सवार हो गया। मालूम नहीं बारात कितने बजे उठी और कैसे उठी। वह अपने ढंग की यादगार बारात रही, होगी लुधियाना के इतिहास में। बस चलने से ज़रा पहले एक सवारी बस में दाखिल हुई। मैंने देखा, वह सवारी कोई और नहीं, मोहन राकेश ही थे। मुझे देखकर उन्होंने एक ठहाका बुलंद किया और महफ़िल के बारे में जानकारी हासिल करने में दिलचस्पी दिखायी। मैंने नमक मिर्च लगा कर वहाँ के माहौल का कामिक नक्शा पेश किया। राकेश सुनते सुनते लोट पोट हो गये। वे शायद शायरों और फकीरों के डेरे पर पहली बार गये थे।
जब तक मैं एम0ए0 (हिन्दी) में प्रवेश लेता राकेशजी ने नौकरी छोड़कर, पत्नी छोड़कर, जालंधर छोड़कर दिल्ली जा बसने का मन बना लिया था और एक शाम उन्होंने अम्मा को गाड़ी में बैठाया और खुद सामान के साथ ट्रक में बैठ कर दिल्ली के लिए रवाना हो गये। उन दिनों तमाम ट्रांसपोर्ट कम्पनियां हमारे घर के पास पटेल चौक में हुआ करती थीं, जब तक ट्रक रवाना नहीं हुआ, मैं राकेशजी के साथ रहा। उनके जालंधर छोड़ने से मैं काफी अकेला और निरुपाय अनुभव कर रहा था। उनकी नगर में उपस्थिति मेरे लिए एक वातायन के समान थी।
राकेश चले गये, मगर मेरा बियर शाप जाना जारी रहा। हरिकृष्ण प्रेमी से अक्सर बियर शाप में मुलाकात हो जाती थी। उन्होंने अपने से आधी उम्र की रेडियो कलाकार से शादी कर ली थी। हिन्दी प्रोड्यूसर बटुकजी मुझे छात्र जीवन से ही आकाशवाणी बुलाते थे, उन दिनों पंद्रह या पच्चीस रुपये मिलते थे एक कार्यक्रम के। बियर की बोतल मात्र ढाई रुपये में आती थी। उन दिनों बियर छोटी बोतल भी उपलब्ध थी, मात्र, सवा रुपये में। जेब में पैसे होते तो मैं किसी साथी के साथ दिन में एकाध बोतल पी आता।
एम0 ए0 (हिन्दी) क्लास में हम दो-तीन लड़के थे और दो दर्जन लड़कियां। चढ़ती उम्र थी और ऊपर से पंजाबी लड़कियों का सौंदर्य और आकर्षण। जीना हराम हो गया। ऐसे माहौल में प्यार तो होना ही था। मैं एक साथ कई लड़कियों के इकतरफा प्रेम में गिरफ्तार हो गया। बियर की खपत बढ़ गयी। मेरी कुसंगति का असर क्लास के दूसरे छात्रों पर भी पड़ा। केवल एक लड़का हम लोगों की कुसंगति का शिकार होने से बच गया। उसका नाम कृष्णलाल शर्मा था और वह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का पूर्णकालिक स्वयं सेवक था। (हो सकता है ये स्वर्गीय कृष्णलाल शर्मा ही रहे हों जो सांसद और भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष थे)। कृष्णलाल शर्मा हम लोगों से ही नहीं, लड़कियों के प्रति भी निःसंग रहता। बहरहाल, लड़कियां बर्दाश्त न होतीं तो हम बीयर शाप की तरफ भागते, जेब में पैसे न होते तो ‘हिन्दी भवन' का सहारा लिया जाता। ‘हिंदी भवन' से पैसा तो नहीं, पुस्तकें अवश्य उधार मिल जाती थीं। उन दिनों यशपाल साहित्य अत्यंत किफायती दाम पर मिलता था, दो रुपये में एक कथा संकलन मिल जाता था। दो-दो, तीन-तीन रुपये की पुस्तकें खरीदकर ही मैंने ‘हिन्दी भवन' की विश्वसनीयता अर्जित की थी। एम0 ए0 तक पहुंचते-पहुंचते मैं महंगी से महंगी पुस्तक उधार लेने की स्थिति में पहुंच गया था। वक्त जरूरत मैं ‘हिंदी भवन' से उधार किताब खरीदता और बगल में ‘संस्किृत भवन' में आधे दाम पर बेच देता। ‘संस्कृति भवन' के पंडितजी की एक बहुत बुरी आदत थी। खरीदने से पहले वह पुस्तक पर दस्तख्त करवा लेते थे। कुछ ही महीनों में मेरी हस्ताक्षरयुक्त पुस्तकें कक्षा की अधिसंख्य छात्राओं की ‘प्राउड पज़ेशन' बन गयीं।
लड़कियां मुझे किसी-न-किसी बहाने मेरे हस्ताक्षरों की झलक दिखा देतीं और खिलखिलाकर हँस देतीं। उन दिनों प्रत्येक कक्षा का एक प्रतिनिधि चुना जाता था और तमाम कक्षाओं के प्रतिनिधि कालिज के अध्यक्ष का चुनाव करते थे। डी0 ए0 वी0 कालिज, जालंधर पंजाब का सबसे बड़ा महाविद्यालय था। दूसरे विषयों के छात्र अध्यक्ष चुने जाते थे, हिन्दी के छात्र में चुनाव लड़ने का नैतिक साहस ही नहीं हुआ था। एक दिन बीयर शाप में कक्षा के अन्य दो छात्रों ने कक्षा के प्रतिनिधि के रूप में मेरा नाम प्रस्तावित कर दिया। मैं भी तैयार हो गया, मगर कक्षा के चौथे लड़के ने मेरे विरुद्ध पर्चा भर दिया। चुनाव हुआ। मेरे खिलाफ खड़े छात्र को केवल दो मत मिले। इसका सीधा-सादा एक ही अर्थ निकला कि कक्षा की तमाम छात्राओं ने सामूहिक रूप से मेरे पक्ष में मतदान किया था। इससे मेरी गलतफहमियाँ और बढ़ गयीं। मैं प्रेम की महामारी का शिकार हो गया। ‘हिन्दी भवन' का कर्ज़ और बीयर की खपत बढ़ती चली गयी। मुझे बर्बाद करने में एक उपलब्धि ने और योगदान दिया। मैं कालिज का अध्यक्ष चुन लिया गया। कोई छात्रा बात कर लेती तो मेरा दिन सार्थक हो जाता। यूथ फेस्टिवल में कालिज का नेतृत्व करने का इच्छुक छात्र समुदाय मेरे आगे पीछे नज़र आता। जगजीत सिंह से मेरी मित्रता उन्हीं दिनों हुई थी। छात्र यूनियन का बजट मेरे अधिकार में आ गया। मैं किसी भी छात्र-छात्रा को चंडीगढ़, दिल्ली, पटियाला, अथवा अमृतसर भेज सकता था। छात्र नेताओें में जो उद्दंडता आ जाती है, मैं भी उसका शिकार हो गया। एक दिन मिसेज कक्कड़ की कक्षा में पहुँचने में मुझे देर हो गयी, उन्होंने कक्षा से बाहर जाने का आदेश दे दिया। मेरे साथ मेरे साथी भी कक्षा से बाहर आ गये और हम लोगों ने बाहर से कक्षा का दरवाज़ लॉक कर दिया और साइकिलों पर सवार होकर बीयर शाप रवाना हो गये। बाद में बहुत हंगामा हुआ। डा0 इंद्रनाथ मदान विभागाध्यक्ष थे, उनसे शिकायत हुई, मगर डा0 मदान ने मामला रफ़ा-दफ़ा करने में ही खैरियत समझी।
वास्तव में डा0 मदान भी प्रत्यक्ष तो नहीं, परोक्ष रूप से मेरे हमप्याला अध्यापक थे। उनके गिलास से गिलास टकराकर पीने का अवसर तो बहुत बाद में मिला, वह अंत तक मुझे अपना छात्र ही मानते रहे और उनकी झिझक तब टूटी जब वह अपनी दत्तक पुत्री के साथ इलाहाबाद आये और मुझे उनकी मेज़बानी करने का अवसर मिला। जालंधर में डाक्टर मदान माडल टाउन में ही रहते थे, राकेश के घर के पास ही। दोनों एक दूसरे को सनकी समझते थे। डाक्टर मदान आजीवन अविवाहित रहे और वह उतने ही सनकी थे, जितना कोई भी चिरकुमार हो सकता है। उनकी एक सनक का तो मैंने भरपूर लाभ उठाया। डाक्टर मदान किसी के सामने मद्यपान नहीं करते थे, उनका बाथरूम ही उनकी मधुशाला थी। बाथरूम में ही उनका बार सजता था, उसका कोई दूसरा उपयोग नहीं होता था। उनके बाथरूम में एक टूटी सी खूबसूरत मेज़ थी, जिस पर करीने से जिन, लाइम कार्डियल, बर्फ, बकट स्वच्छ शीतल पानी की बोतल और सिर्फ एक गिलास पड़ा रहता था। इन तमाम चीजों को वह एक तौलिये से ढांप देते थे। बात करते-करते वह अचानक उठते और बाथरूम में घुस जाते। वहीं उन्होंने एक आराम कुर्सी भी डाल रखी थी। बाद में वह चंडीगढ़ चले गये तो उनके बाथरूम की खिड़की से शिवालिक की पहाड़यों का मनोरम दृश्य दिखाई देता और रात के समय सोलन अथवा शिमला की टिमटिमाती रोशनियाँ दिखायी देतीं। नयी पुस्तकें भी वह इसी बाथरूम में रखते थे। एक छोटा-सा खूबसूरत रैक बाथरूम की दीवार पर जड़ा था। वह देर तक के लिए बाथरूम में घुस जाते और इत्मीनान से अपना पैग खत्म करते। उसके बाद वह मुँह में पान का बीड़ा दबाकर बाहर निकलते। एक बार मैं उनके मना करते-करते बाथरूम में घुस गया, गोया बाथरूम के रंगमहल में पहुँच गया। किसी छात्र को वह बाथरूम इस्तेमाल करने की इजाज़त नहीं थी। मैंने तुरंत अपना पैग बनाया और एक ही घूंट में समाप्त कर गिलास धोकर उसी प्रकार तौलिए के नीचे रख दिया। शुरू-शुरू में उन्हें मेरी हरकत बहुत नागवार गुज़री, वह मेरे उठते ही दूसरे बाथरूम की तरफ इशारा करते, मगर मैं उनके संकेत को नज़रअंदाज़ कर जाता। बाद में उन्होंने इस स्थिति से समझौता कर लिया। धीरे-धीरे इतनी समझदारी पैदा हो गयी कि दोनों को कोई असुविधा न होती। जिस पुस्तक का वह बाथरूम में अध्ययन करते मैं भी वही किताब पढ़ता, उनका बुकमार्क जहां तक पहुँचा होता, मैं उस पृष्ठ को छूकर ही उठता। आराम कुर्सी का मैंने भरपूर उपयोग किया। बाथरूम से लौटकर मैं उसी पुस्तक पर चर्चा शुरू कर देता। इससे बातचीत में आसानी रहती। महीनों निर्बाध गति से मेरा कारोबार चलता रहा। एक दिन मैंने अपने पैर पर खुद ही कुल्हाड़ी मार ली। यानी मुझसे एक गलती हो गयी। कुमार विकल शराब की तलाश में मारा-मारा फिर रहा था। मूर्खतावश मैंने उसे अपनी गोपनीय बार के बारे में बता दिया। वह मेरे साथ मदान साहब के यहाँ चला आया। उसने अपनी भर्रायी आवाज़ में अपनी दो-एक नयी कविताएं सुनायीं और मेरी वाहवाही पर बाथरूम में घुस गया। उस दिन से कुमार विकल की डाक्टर मदान के यहाँ आमोदरफ़्त बढ़ गयी। वह मेरे बगैर भी जाने लगा। बाथरूम में घुस जाता तो निकलने का नाम न लेता। डाक्टर मदान बहुत कायदे से पीने वाले व्यक्ति थे और कुमार विकल युगों-युगों से प्यासे कवि की तरह हचककर पीने लगा। आखिर तंग आकर एक दिन मदान साहब ने हाथ जोड़ ‘दिये, पीना हो तो अपनी बोतल साथ लेकर आया करो।'
डाक्टर मदान के चंडीगढ़ जाने से मेरा बहुत नुकसान हुआ। नतीजा यह निकला कि मेरे ऊपर ‘हिन्दी भवन' का कर्ज़ बढ़ने लगा और एक दिन पता चला कि मैं चार-पांच सौ का देनदार हो चुका हूँ। मुझसे ज्यादा ‘हिन्दी भवन' के संचालक श्री धर्मचंद्र नारंग को मेरी नौकरी की चिंता सताने लगी। पंजाब भर के हिन्दी अध्यापक ‘हिन्दी भवन' आते-जाते रहते थे। वह हर किसी से मेरी नौकरी की सिफ़ारिश करते। सच तो यह है कि जो दौड़ धूप मुझे करनी चाहिये थी, वह नारंगजी करने लगे। उन्हें शायद आभास हो गया था कि मेरी नौकरी न लगी तो उनका पैसा डूब जायेगा। गवर्नमेंट कालिज कपूरथला के विभागाध्यक्ष रोशनलाल सिंहल ‘हिन्दी भवन' के लिए छात्रोपयोगी पुस्तकें लिखा करते थे। उन्हीं दिनों उनका एक निबंध संग्रह छपकर आया था। उनका एक सहयोगी ‘डेपुटेशन' पर छह महीने के लिए नेपाल जा रहा था और उनके कालिज में हिंदी अध्यापक का एक अस्थायी पद रिक्त हो गया था। धर्मचन्द्रजी को इसकी भनक लगी तो उन्होंने तुरंत मेरा नाम सुझा दिया। सिंहल साहब को देखते ही नारंगजी को मेरी याद आ जाती। आखिर वह मुझे नौकरी दिलाने में सफल हो ही गये। औपचारिकताएँ पूरी हुईं और मुझे छह महीने के लिए लेक्चरारशिप मिल गयी। अपने ‘बैच' में मुझे ही सब से पहले नौकरी मिली।
कपूरथला जालंधर से महज़ ग्यारह मील दूर था। वह एक छोटी सी खूबसूरत रियासत थी। वहाँ का माहौल जालंधर के वातावरण से एकदम भिन्न था। कालिज का विशाल परिसर था। उसका निर्माण वहाँ के राजपरिवार ने करवाया था और बाद में सरकार ने उसका अधिग्रहण कर लिया था। कालिज का रख रखाव उन दिनों भी सरकारी नहीं सामंती था। बडे़-बड़े लान थे और ऊँची छतों वाले कमरे। इतने साफ़ सुथरे कालिज पंजाब में कम ही होंगे। मालूम नहीं अब उस कालिज की क्या दशा है। कई मायनों में कपूरथला जालंधर से अधिक प्रगतिशील था। जालंधर में स्नातकोत्तर स्तर पर सह शिक्षा का प्रावधान था, जबकि कपूरथला मेंं स्नातक स्तर पर ही छात्र-छात्राएं एक साथ पढ़ते थे। इस छोटे से कस्बे में एक अधुनातन क्लब था। कभी यह क्लब अंग्रेजों का प्रिय क्लब रहा होगा। क्लब के पूरे माहौल पर अंग्रेज़ अपनी छाप छोड़ गये थे। क्लब का अनुशासन बहुत से पश्चिमी रस्मोरिवाज से चालित होता था। बैरे बहुत अदब से पेश आते थे और हमेशा चुस्त दुरुस्त नज़र आते थे। क्लब में मद्यपान का तो इन्तजाम था ही, साथ में बिलियर्ड खेलने की भी व्यवस्था थी। वहाँ मेरी मित्रता जैन दम्पति से हो गयी। मियां बीवी दोनों कालिज में पढ़ाते थे और नियमित रूप से क्लब जाते थे। मुझ जैसे मध्यवर्गीय फक्कड़ के लिए यह सब एक नयी संस्कृति थी। मैं कभी अपनी पोशाक वगैरह पर ध्यान नहीं देता था। जूते रोज़ पालिश किये जाते हैं, इसका भी एहसास नहीं था। कालिज में पंजाबी तक का लेक्चरार टाई सूट में लैस रहता था। मुझे भी अपनी वेशभूषा पर ध्यान देना पड़ा। मुझे टाई वगैरह में देखकर मेरे जालंधर के दोस्त मेरा मज़ाक उड़ाते। मैं उन्हें कैसे समझाता कि यह मेरी व्यावसायिक मजबूरी है। कालिज से लौट कर मैं सब से पहले अपने पुराने हुलिए में आ जाता। जूते मोजे उतार कर चप्पल पहन लेता। अंग्रेज़ी विभाग के अमरीक सिंह से भी मेरी मित्रता हो गयी थी। मित्रों के अनुरोध पर मैं कभी-कभार कपूरथला में ही रुक जाता। शाम को बड़ी शाइस्तगी से क्लब में बढ़िया किस्म कि विस्की पी जाती। यहाँ किसी को गिलास खाली करने की जल्दी न होती, जबकि मैं हड़बड़ी में पीने का आदी था। जालंधर में हम लोग हड़बड़ी में इसलिए पीते थे ताकि कोई परिचित मदिरापान करते न देख ले। मेरा अब तक चोरी छिपे पीने का ही अनुभव था, यानी दो-चार घूंट में ही गिलास खाली करने का, मगर यहाँ का दस्तूर एकदम अलहिदा था। यहाँ लोग कतरा-कतरा पीते थे। किसी को किसी का डर नहीं था, जैसे कह रहे हों कि हंगामा है क्यों बरपा, थोड़ी सी जो पी ली है। डाका तो नहीं डाला, चोरी तो नहीं की है। लोग एक पैग पीने में इतना समय लगा देते कि मुझे बहुत कोफ़्त होती। धीरे-धीरे मैं संस्कारित होने लगा। कहने का मतलब यह कि मैं भी काले साहबों की तरह धीरे-धीरे घूँट भरना सीख गया, बिलियर्ड भी खेलने लगा और ‘रीडर्स डायजेस्ट' के ताज़े अंक पर विचार विमर्श भी करना पड़ता। मुझे यह ज़िन्दगी बहुत मस्नूई लग रही थी। इन लोगों के लिए रीडर्स डायजेस्ट, टाइम्स, लाइफ, न्यूज़वीक आदि पत्रिकाएं ही ‘सरस्वती' थीं, ‘विशालभारत' था, ‘निकष' था। ये लोग सामंतों और अंग्रेजों के विलासपूर्ण जीवन के किस्से चटखारे लेकर सुनाया करते थे। राजकुमारों, राजकुमारियों, अँग्रेज़ अफसरों और उनकी प्रेमिकाओं की अदृश्य छाया मेज़ों के आसपास मंडराती रहती। कालिज में जब कोई छात्रा बताती कि उसके बड़े भाई या पिता मुझ से क्लब में मिले थे तो मैं इस वाक्य का निहितार्थ समझने की कोशिश करता। जैन दम्पति से भी कई लोगों ने मेरे बारे में जानकारी हासिल की थी। मुझे मालूम था कि मैं इस दुनियां का बाशिन्दा नहीं हूँ, मैं अपनी फकीर मंडली में ज्यादा मुक्त और आज़ाद महसूस करता था। क्लब में दारू के अलावा मेरा किसी भी क्रिया अथवा बातचीत में मन न लगता। क्लब में देर हो जाती तो कभी-कभी जैन दम्पति के यहाँ रुक जाता। उनकी जीवन शैली पश्चिम पद्धति से प्रभावित थी। घर लौटते ही जैन साहब नाइट सूट पहन लेते और श्रीमती जैन नाइटी। मैं उन्हीं कपड़ों में सो जाता। उनके यहाँ सुबह-सुबह चाय भी रेस्तरां की तरह परोसी जाती। नाश्ते में वे लोग बटर टोस्ट खाते और मुसम्बी का रस पीते, जबकि मैं नाश्ते में भरवां पराठा खाने वाला इन्सान था। टोस्ट वगैरह से मेरा पेट ही न भरता। छुरी कांटे से मुझे उलझन होती, हँसी भी आती। जालंधर लौट कर मैं चैन की सांस लेता।
कालिज में मेरा मन लगता था। मेरी कक्षा में सब छात्राएं उपस्थित रहतीं। मैं खूब चटखारेदार लेक्चर देता। मैं बहुत जल्द सीख गया कि लड़कियां किन बातों से खुश होती हैं। मैं कालिज के माहौल में पूरी तरह रच बस गया था कि एक दिन खबर लगी कि ‘डेपुटेशन' पर नेपाल गया हिन्दी प्राध्यापक वापिस लौट आया है । छह महीने का समय जैसे चुटकियों में बीत गया था। कालिज में छोटा सा विदाई समारोह हुआ और मेरी छुट्टी हो गयी। कुछ लड़कियां दुपट्टे से आंसू पोंछ रहीं थीं, हो सकता है मेरे प्यार में पड़ गयी हों। बाद में कुछ लड़कियों ने जाने कैसी जालंधर में मेरी बहन से से दोस्ती कर ली और घर आने जाने लगीं, मगर मैं घर में बैठता ही कब था।
मैं अपनी दुनिया में लौट गया था। मेरे दोस्तों को मेरी नौकरी छूटने का बहुत सदमा लगा, क्योंकि यारों के बीच मैं ही एक मात्र कमाऊ दोस्त था। सब को मालूम था, मेरा जलवा भी मेरी नौकरी की तरह अस्थायी है। मैं अपनी बेरोज़गार चौकड़ी के बीच सही सलामत लौट आया था। मेरी शख्सीयत का कोई खास क्षरण नहीं हुआ था। कपूरथला से विदायी लेकर मैं घर नहीं गया, सीधा सुदर्शन फाकिर के कमरे की सीढ़ियां चढ़ गया और संतरे का एक पैग पीकर नौकरी के ‘हैंग ओवर' से मुक्त हो गया।
फाकिर का कमरा एक मुसाफिरखाने की तरह था। सुदर्शन फाकिर इश्क में नाकाम होकर सदा के लिए फीरोजपुर छोड़कर जालंधर चला आया था और उसने एम0ए0 (राजनीति शास्त्र) में दाखिला ले लिया था। बाद में, बहुत बाद में अपने अन्तिम समय में बेगम अख्तर ने फाकिर की ही सबसे अधिक गज़लें गायीं। उसकी एक गज़ल ‘आयी बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया' गज़ल प्रेमियों में बहुत लोकप्रिय हुई। बेगम जब पाकिस्तान गयीं तो फैज अहमद ‘फैज' ने फाकिर की लिखी हुई ठुमरी ‘देखा देखी बलम होई जाय' उनसे दसियों बार सुनी थी। मगर मैं तो उस फाकिर की बात कर रहा हूँ, जो इश्क में नाकाम होकर जालंधर चला आया था और शायरी और शराब में आकंठ डूब गया था। जालंधर आकर वह फकीरों की तरह रहने लगा। उसने दाढ़ी बढ़ा ली थी और शायरों का लिबास पहन लिया था। उसका कमरा भी देखने लायक था। एक बड़ा हालनुमा कमरा था, उसमें फर्नीचर के नाम पर सिर्फ दरी बिछी हुई थी। बीच-बीच में कई जगह दरी सिगरेट से जली हुई थी। अलग-अलग आकार की शराब की खाली बोतलें पूरे कमरे में बिखरी पड़ी थीं, पूरा कमरा जैसे ऐशट्रे में तब्दील हो गया था। फाकिर का कोई शागिर्द हफ्ते में एकाध बार झाड़ू लगा देता था। कमरे के ठीक नीचे एक ढाबा था। कोई भी घंटी बजाकर कुछ भी मंगवा सकता था। देखते-देखते फ़ाकिर का यह दौलतखाना पंजाब के उर्दू, हिन्दी और पंजाबी लेखकों का मरकज़ बन गया। अगर कोई काफी हाउस में न मिलता तो यहाँ अवश्य मिल जाता। दिन भर चाय के दौर चलते और मूँगफली का नाश्ता। अव्वल तो फ़ाकिर को एकांत नहीं मिलता था, मिलता तो ‘दीवाने गालिब' में रखे अपनी प्रेमिका के विवाह के निमंत्रण को टकटकी लगाकर घूरता रहता। इस एक पत्र ने उसकी ज़िन्दगी का रुख पलट दिया था।
फाकिर का यह चैम्बर पंजाब की साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का स्नायु केन्द्र था। विभाजन के बाद जालंधर ही पंजाब की सांस्कृतिक राजधानी के रूप में विकसित हुआ था। आकाशवाणी और दूरदर्शन के केन्द्रों के अलावा पंजाब में हिन्दी के समाचार पत्र केवल जालंधर से प्रकाशित होते थे। पंजाब विश्वविद्यालय का हिन्दी विभाग भी जालंधर में ही था। शास्त्रीय संगीत का वार्षिक कार्यक्रम हरिवल्लभ भी जालंधर में आज तक आयोजित होता है। आकाशवाणी के कार्यक्रमों के सिलसिले में हिन्दी, पंजाबी अथवा उर्दू का कोई रचनाकार जालंधर आता तो वह फ़ाकिर के कमरे में चरणमृत प्राप्त करने ज़रूर चला आता। चौबारे के नीचे ही होटल था। चाय, भोजन की अहर्निश व्यवस्था रहती। फ़ाकिर का कमरा रेलवे रोड पर था, रात भर कोई न कोई ढाबा अवश्य खुला रहता। फाकिर के होटल का बिल ही काफ़ी हो जाता होगा, मगर उसके चेहरे पर मेहमान को देखकर कभी शिकन नहीं आई। मैंने कभी किसी होटल या ढाबे वाले को उसके यहाँ पैसे के लिए हुज्जत करते नहीं देखा था।
राकेशजी चले गये थे, मगर काफी हाउस आबाद था। हिन्दी, उर्दू और पंजाबी के कवियों-कथाकारों का अच्छा-खासा जमावड़ा लगा रहता। राष्ट्रीय स्तर पर केवल राकेशजी की पहचान बन पायी थी, बाकी लोग अभी रियाज़ कर रहे थे यानी संघर्ष कर रहे थे। उन दिनों साथी लेखकों, कलाकारों में कुमार विकल, सुदर्शन फाकिर, कृष्ण अदीब, सत्यपाल आनंद, नरेश कुमार ‘शाद', प्रेम बारबरटनी, रवीन्द्र रवि, जसवंत सिंह विरदी, मीशा, सुरेश सेठ, जगजीत सिंह, (सुप्रसिद्ध ग़ज़ल गायक) हमदम आदि लोग उल्लेखनीय हैं। फ़ाकिर के चौबारे के अलावा हम लोगों का एक और ठिकाना था। वह था कलाकार हमदम का गरीबखाना। हमदम का हृदय फाकिर की ही तरह विशाल था, मगर उस के साधन सीमित थे। चाय वगैरह का प्याऊ उसके यहाँ भी चलता था। हमदम का कमरा भी फ़ाकिर के कमरे का प्रतिरूप था। वह सिविल लाइन्स में एक कमरा लेकर रहता था। वह एक शापिंग काम्पलेक्स की पहली मंज़िल पर रहता था, कम्पनी बाग और काफी हाऊस के नजदीक। काफी हाउस में कोई न मिलता तो लोग हमदम के कमरे में चले आते। हमदम सूफी आदमी था, यानी दारू नहीं पीता था, सिगरेट नहीं छूता था, मगर गिलास और बर्फ उपलब्ध करा देता था। वह पेंटर था। साइन बोर्ड लिख कर गुज़ारा चलाता था। लेखकों, कवियों के सम्पर्क में आया तो पुस्तकों के डस्ट कवर भी बनाने लगा। वह ज़्यादा पढ़ा-लिखा नहीं था, मगर पिकासो की कला पर विचार व्यक्त कर सकता था। वह इस दुनिया में निपट अकेला था। मां बाप नहीं थे, एक बहन थी, बहन की शादी के बाद से उससे भी उसका कोई सम्पर्क न था। दोस्त अहबाब ही उसकी दुनिया थे। वह आधुनिक चित्रकला पर अधिक से अधिक जानकारी हासिल करता रहता था। हुसेन का नाम सबसे पहले मैंने उसी से सुना था। बाद में दिल्ली के कई नामी कलाकारों के बीच वह उठने बैठने लगा था। इन्दरजीत के बाद वह ‘शमा' का कलाकार भी नियुक्त हो गया था। जालंधर में उसका कमरा साहित्य, संस्कृति और कला का दूसरा उपकेन्द्र था। दिन भर जिन गिलासों से नीचे होटल से चाय आती थी, वह शाम तक जाम में तब्दील हो जाते। हमदम हमेशा कर्ज़ में रहता था। सच तो यह है, वह कर्ज़ में जीने का आदी हो चुका था। वह किसी का पैसा दबाना भी नहीं चाहता था, मगर कोई ढाबेवाला बदतमीजी़ से तकाजा़ करता तो वह उसे पीट देता।
उन दिनों जालंधर में ऐसा वातावरण था कि हम लोग साहित्य में ही जीते थे। साहित्य पढ़ते, सुनते और ओढ़ते । हमारे लिए मनोरंजन और जीवन का यही एक साधन और उद्देश्य था। शेर सुनते, कहानी पर बातचीत करते, मार्क्सवाद और अस्तित्ववाद की गुत्थियां सुलझाते। कहानियां लिखते और नामी पत्रिकाओं में प्रकाशनार्थ भेजते। रचनाएँ सधन्यवाद लौट आतीं, हम सम्पादकों की बुद्धि पर तरस खाते और अपनी रचनाएँ दैनिक पत्रों में छपवा कर आह भर लेते, ज़्यादा से ज़्यादा आकाशवाणी पर प्रसारित कर आते।
सन् साठ के आसपास हम लोगों को शराब का एक सस्ता ओर टिकाऊ विकल्प मिल गया- यानी नींद की गोलियां। इसके दो लाभ थे, एक तो यह नशा बहुत क़िफायती था। चवन्नी की गोली खाकर अच्छा खासा नशा हो जाता था और दूसरे सांस से शराब की बदबू नहीं आती थी। आप सीना तानकर समाज का मुकाबला कर सकते थे। नशे के रूप में नींद की गोलियों के उपयोग की जानकारी युवा शायर सुदर्शन फ़ाकिर के संपर्क में आने पर मिली थी। उसके पिता फीरोजपुर में सिविल सर्जन थे और फाकिर को दवाओं वगैरह की बहुत जानकारी रहती थी। ज़िन्दगी जब नाकाबिले बर्दाश्त लगती, वह चने की तरह दो एक गोलियां फाँक लेता और देखते ही देखते शांत हो जाता। यह एक सस्ता नशा था, देखते-देखते तमाम कवि-कथाकार इसकी चपेट में आते चले गये। कपिल को यह नशा बहुत भा गया। उसे शराब की गंध से नफ़रत थी और यह एक गंधहीन नशा था। विमल और कपिल की खूब छनती थी, मगर विमल ने अपने को बचाये रखा। मैं भी कैसे बाल-बाल बचा, इसकी रोमांचक कहानी है।
कपिल मल्होत्रा हम लोगों में सब से होशियार और पढ़ाकू था। बी0 ए0 तक पहुँचते पहुँचते उसने बहुत सा साहित्य पढ़ लिया था। हेमिंग्वे, फाकनर, माम दास्ताएवस्की, चेखव, गोर्की, तालस्ताए आदि के मोटे-मोटे उपन्यास वह कालिज की पढ़ाई के समानान्तर पढ़ता रहता। वह ‘रामाकृष्णा' से ढूँढ़-ढूँढ़ कर पुस्तकें खरीदता। ‘शेखर एक जीवनी' सब से पहले उसी ने पढ़ा था। कुंवर नारायण की तमाम कवितायें उसे कंठस्थ थीं। वह इलाहाबाद जाकर कमलेश्वर वगैरह से मिल आया था। उन दिनों कमलेश्वर ने अपना प्रकाशन शुरू किया था। कपिल ने इलाहाबाद से लौटकर वहाँ के साहित्यिक माहौल की जानकारी दी। उसकी एक कहानी ‘वीपिंग हैमिंग्वे' भीष्म साहनी के संपादन में ‘नयी कहानियाँ' में प्रकाशित हुई थी। वह कहानी कभी साठोत्तरी कहानी के एतिहासिक दस्तावेज के रूप में याद की जायेगी। हिन्दी के समकालीन लेखन के प्रति वह अत्यन्त सजग और जागरूक था। नयी कविता से भी उसी ने सबसे पहले हम लोगों का साक्षात्कार करवाया था। ‘नयी कविता' के कुछ अंक भी उस ने उपलब्ध कर लिए थे। मुझे नींद की गोलियां खाने की लत पड़ जाती, अगर एक भयावह नीम बेहोशी के खतरनाक अनुभव से न गुज़रता। वह एक ऐसा खौफनाक और तबाहकार तजरुबा था कि मैंने हमेशा के लिए नींद की गोलियों से तौबा कर ली।
हमारे सहपाठी ईश्वरदयाल गुप्त की लुधियाना में नौकरी लगी तो उसने हम सब को लुधियाना आमंत्रित किया। पृथ्वीराज कालिया उन दिनों खूब कविताएं लिखा करता था। उसके पिता रेलवे में उच्चाधिकारी थे। उसने हम लोग़ों को बगैर टिकट लुधियाना ले चलने की जिम्मेदारी उठा ली। गाड़ी अभी फिल्लौर तक भी नही पहुँची थी कि हम लोग बगैर टिकट पकड़े गये। पृथ्वीराज ने अत्यंत विश्वासपूर्वक अपने पिता का हवाला दिया। पृथ्वीराज के पिता का नाम सुनकर टिकटचेकर चौंका, मगर वह टस से मस न हुआ। विभाग में पृथ्वी के पिता की छवि एक ईमानदार अफसर की थी, टिकटचेकर ने बताया कि अगर उसने हमें छोड़ दिया और पृथ्वी के पिता को इसकी भनक लग गयी तो वह उसे सस्पैंड करा देंगे। हम चार पांच लड़के थे, टिकट तो खरीदा जा सकता था, मगर जुर्माना भरने लायक पैसे न थे। आखिर पृथ्वीराज ने लुधियाना स्टेशन मास्टर से रुपये उधार लेकर हम लोगों को मुक्त कराया।
ईश्वरदयाल के यहाँ पहुंचकर हम सब लोगों ने ‘डारीडन' नाम की एक-एक गोली खा ली। ईश्वरदयाल हम लोगों के भोजन का प्रबन्ध्ा करने में जुट गया। गोली तेज़ थी, खाना खाते ही हम लोग सो गये। दिन भर सोते रहे, रात भर सोते रहे, अगले रोज़ जब शाम को छह-सात बजे नींद खुली तो देखा, सब दोस्त आँखें मल रहे हैं। जाने कहाँ से एक कुत्ता घुस आया था, वह तमाम खाना चट करके मुग्ध भाव से हम लोगों को ताक रहा था।
वह आखिरी मौका था, जब मैंने साथियों के साथ नींद की गोली खायी। कपिल को गोली जंच गयी, वह नित्य एक चौथाई गोली खाने लगा। बाद में उसने कदरे कम ताकत की ‘सोनरिल' नामक गोली खोज निकाली। शुरू में उसने एक गोली खानी शुरू की। एक से दो, दो से तीन, तीन से चार गोली तक उसकी क्षमता बढ़ गयी। उत्तरोत्तर बढ़ती ही चली गयी। जितनी गोली खाने से एक औसत स्वस्थ आदमी हमेशा कि लिये सो सकता था, कपिल अर्द्धचेतनावस्था में कुँवर नारायण की पंक्तियां गुनगुनाता रहता ः
क्या यही हूँ मैं
अंधेरे में किसी संकेत को पहचानता-सा
चेतना के पूर्व सम्बंद्धित किसी उद्देश्य को
भावी किसी संभावना से बाँधता-सा
हम लोगों ने हरचंद कोशिश की थी कि किसी तरह कपिल इस अभिशाप से मुक्त हो जाये, मगर एकदम असफल रहे। उसने मौत की तरफ जो कदम बढ़ाये तो पीछे मुड़कर नहीं देखा।
कपिल मूलतः एक भावप्रवण अन्तर्मुखी व्यक्ति था। अपने बारे में बहुत कम बात करता था, बल्कि करता ही नहीं था। बहुत बाद में पता चला कि उसकी कुंठा और परेशानी बेसबब नहीं थी। कपिल की आर्थिक पृष्ठभूमि हम लोगों से कहीं बेहतर थी। पिता कानूनी किताबों का कारोबार करते थे और चाचा का जालंधर में एक विशाल कारखाना था। उसकी मां हमेशा गुड़िया की तरह सजी रहतीं, हमारी माताओं की तरह घर में भी पेटीकोट ब्लाउज में नज़र न आतीं। वह ऐसे लकदक रहतीं जैसे अभी-अभी किसी समारोह में भाग लेने जा रही हों। दोनों बहनें भी हमेशा तैयार मिलती, जैसे स्कूल जा रही हों। एक खास तरह का अभिजात्य घर के वातावरण पर तारी रहता। मगर इस अभिजात्य के पीछे एक बहुत बड़ी पारिवारिक विडम्बना छिपी हुई थी। हम लोगों को बहुत बाद में भनक लगी कि उसके पिता ने लखनऊ में एक और औरत को रखा हुआ था और वह औरत कोई और नहीं कपिल के घर की नौकरानी की बिटिया थी। उम्र में वह कपिल की हमउम्र होगी। यह एक ऐसा बिन्दु था, जिस पर कपिल बात कर सकता था, न मैं। यह दूसरी बात है कि कपिल और मैं वर्षों से सहपाठी थे। स्कूल के बाद भी हम लोगों का समय साथ-साथ बीतता था। गुल्ली डंडा से लेकर हाकी और क्रिकेट साथ-साथ खेलते थे। वह कक्षा में हमेशा प्रथम आता था और मैं अन्तिम। वह मेरे बारे में सब कुछ जानता था, मैं उसके बारे में बहुत सीमित जानकारी रखता था। एक बार उसने मुझसे पूछा कि क्या मैंने कभी ‘काऊ डंग केक' खाया है तो मैंने डींग हांकते हुए न सिर्फ ‘हाँ' में सिर हिलाया बल्कि उसके स्वाद की भी लार टपकाने वाली तफ़सील पेश कर दी। उसने जब मुझे ताली पीटते हुए बताया कि अंग्रेजी में उपले को ‘काऊ डंग केक' कहते हैं तो मेरी बहुत फजीहत हुई। इस बीच उसका एक संक्षिप्त सा प्रेम प्रसंग भी चला। सरमिष्टा था उस लड़की का नाम । वह दिलोजान से उसपर फिदा हो गया। कपिल की जो स्थिति थी, उसमें लड़की को अपना कोई भविष्य नज़र नहीं आ रहा था। कपिल पूरी तन्मयता और तीव्रता से उसे चाहने लगा था। प्रेम से उसे राहत न मिली। प्रेम ने उसकी यंत्रणा और बढ़ा दी, जबकि प्रेम ही उसे यातना संत्रास और विडम्बना के अंधे कुएँ से निकाल सकता था। प्रेम में बेरुखी और बेन्याज़ी उससे बर्दाश्त न होती। वह गोलियाँ खाकर अर्द्धचेतना में तलत महमूद की गज़लें सुनता रहता। इस बीच उसने तलत महमूद को लम्बे-लम्बे पत्र भेजना शुरू किये, जिन्हें पढ़कर तलत महमूद इतना बेज़ार हो गये कि उन्होंने उससे मुआफ़ी मांगते हुए लिखा कि वह भविष्य में उन्हें ख़त न लिखे। उसके पत्र अत्यन्त तीखे, पैने और झकझोर देने वाले रहे होंगे कि तलत महमूद ने उसके तमाम पत्र चिन्दी-चिन्दी करके एक लिफाफे में डालकर उसे लौटा दिये थे। कपिल ने अत्यन्त पीड़ा के साथ यह बात मुझे बतायी थी। मैं दिल्ली से मुम्बई पहुँच गया तो अक्सर उसके पत्र मिलते थे। उसका सिर्फ़ एक पत्र बचा रह गया, जो मेरी पुस्तक ‘स्मृतियों की जन्मपत्री' में संकलित है। पुस्तक के परिशिष्ट में मैंने मोहन राकेश, देवीशंकर अवस्थी, राजकमल चौधरी, ओमप्रकाश दीपक, सुदर्शन चोपड़ा और कपिल आदि मरहूम दोस्तों के खतूत भी शामिल किये थे। 21-5-65 को उसने चण्डीगढ़ से लिखा था ः
कालिया भाई,
एक और पत्र डाल रहा हूं-उम्मीद है पहला मिल गया होगा। वैसे कमलेश्वर साहब को भी लिख चुका हूं लेकिन ख़त में कुछ पुख्तगी नहीं ला पाया। वैसे भी छोटा सा था। अभी कुछ दिनों से दिमाग को अच्छी ‘अनरेस्ट' मिल रही है और यह सोचकर और कुछ हद तक जानकर कि शायद मैं अपना ‘थीसिस' न लिख सकूँ। कोई ‘रेलेवेंट' किताब तो बरतरफ़, कोई अच्छा ख़्याल भी नहीं आ रहा। वैसे 6 महीने रह गये हैं। शायद तुम कुछ कहो।
कालिया मेरी मानो, मुम्बई में कुछ समय सुविधा असुविधा से बिताकर लौट आओ। तुम बहुत दूर हो। तुम्हारे पिछले पत्र को पढ़कर सच मानों मुझे खुशी नहीं हुई। दोस्त, लिखना कि नयी पोस्ट कैसी है? तुमने बहुत जोश व तेज़ी दिखाई-अब कहीं इकट्ठे रहें। मेरा मन उदास रहता है। तुम्हें लिखने को क्या नहीं है?
वैसे याद आया, मेरी शादी एक अफवाह है-अलबत्ता तुम करो तो शायद कहीं सार्थकता हो। पत्र लिखा करो।
-कपिल मल्होत्रा
कपिल के इस अवसाद को महज़ उसकी निजी समस्याओं से जोड़कर देखना शायद मुनासिब न होगा। अगर ऐसा होता तो इस कुंभीपाक में वह अकेला होता। दूसरे लोग भी इस महामारी के शिकार हो रहे थे। वक्त के समुद्र ने जैसे सारी झाग तट पर एक जगह एकत्रित कर दी थी। फ़ाकिर, हमदम, कपिल और बाद में एक और नाम जुड़ गया-धनराज। वह सत्यपाल आनन्द और कुमार विकल के हवाले से जालंधर आया था। जालंधर उन दिनों पंजाब के बुद्धिजीवियों का काबा हुआ करता था। गिंज़बर्ग कलकत्ता में आया था, मगर उसकी छाया जालंधर पर भी पड़ रही थी। जालंधर में युवा पीढ़ी ने मारिजुआना का सस्ता विकल्प तलाश लिया था- सोनरिल, डारीडन। स्वाधीनता संघर्ष के दौरान पश्चिमी विचारधारा का सर्वथा निषेध था, सिर्फ देश को आज़ाद कराने की धुन थी। देश आज़ाद हो गया तो समाज में जैसे शून्यता भर गयी। इस शून्यता को पश्चिम की चिन्तन पद्धति भरने लगी।
धनराज जब पहली बार प्रकट हुआ, उसकी बगल में कामू का ‘प्लेग' था। वह लम्बा फौजी ओवरकोट पहने हुए था। मिलते ही उसने अस्तित्व आदि ज़िन्दगी के बुनियादी सवालों पर चर्चा शुरू कर दी। उसे विश्वास था कि जालंधर में ही उसकी जिज्ञासाओं और चिन्ताओं का समाधान होगा। अपनी बात स्पष्ट करने के लिए वह बीच-बीच में किर्केगार्ड, सार्त्र, कामू, बैकेट, सल्वदार डाली, पिकासो के उद्धरण पेश करता। गलत सलत ‘अंग्रेजी' में वह अपनी बात समझाने की चेष्टा करता। शाम को धनराज ने सभी को चौंका दिया जब उसने काफी हाउस में पूरी चौकड़ी का बिल अदा कर दिया। यही नहीं साथ में मदिरापान की दावत भी दे डाली। वह स्टेशन रोड पर किसी सस्ते से होटल में ठहरा हुआ था। बातचीत के दौरान पता चला कि वह फौज में हवलदार वगैरह के पद पर कार्यरत था, मगर फौज का जीवन उसे रास नहीं आ रहा था, काफी जद्दोजहद के बाद उसे फौज से निजात मिली थी। यह भी पता चला कि दुनिया में उसका कोई नहीं है। उसकी बीवी थी वह उसे छोड़ चुकी थी। चाचा लोगों ने उसकी ज़मीन जायदाद पर कब्ज़ा कर रखा था और अब उसकी जान के प्यासे थे। ज़र, जोरू और ज़मीन का उसे लालच भी नहीं था। वह ज़िन्दगी के बुनियादी सवालों से ज़्यादा जूझ रहा था, जीवन क्या है, उसका लक्ष्य क्या है जैसे, सनातन प्रश्नों से वह घिरा रहता, जिन प्रश्नों को लेकर कभी गौतम बुद्ध परेशान रहे होंगे। उस की विडम्बना बुद्ध से भी जटिल थी। वह निर्वाण की तलाश में भी नहीं था। वह ज़्यादा पढ़ा लिखा नहीं था, मगर दिन भर किसी न किसी शब्द से माथा-पच्ची करता रहता, शब्दकोश देखता, दोस्तों से पूछता और जब तक कायल न हो जाता, उसी के बारे में सोचता रहता। कई बार उसपर तरस भी आता कि एक सीधा-सादा इन्सान किस भूल-भलैया में भटक गया है। वह कभी फाकिर के यहां पड़ा रहता और कभी हमदम के यहां। उसके पास होल्डाल, एक सूटकेस और कुछ किताबें थीं। इनके अलावा उसके पास कुछ भी नहीं था। न अतीत था, न भविष्य। अपने बारे में वह बहुत कम, न के बराबर बात करता था, अगर करता भी था तो लगता था, झूठ बोल रहा है। बीच-बीच में वह कुछ दिनों के लिए गायब हो जाता, जहाज़ के पंछी की तरह फिर लौट आता। दिन भर वह ‘चार मीनार' के सिगरेट फूँकता। दो एक कश में ही उस की सिगरेट गीली हो जाती। उसके पास कितने पैसे थे कहाँ रखता था या उसकी आय का क्या स्रोत था, किसी को मालूम नहीं था। वह न तो फिजूलखर्ची करता। न किसी के आगे हाथ फैलाता। शाम को दारू के नशे में वह अक्सर घोषणा कर देता कि इस ज़िन्दगी का कोई मतलब नहीं है और वह फौरन से पेश्तर इस बेहूदा चीज़ से निजात पाना चाहता है। उसने यह बात इतनी बार दोहरायी थी कि कोई उसकी बात गम्भीरता से नहीं लेता था। ये वाक्य उसका तकियाकलाम बन चुके थे। वह एक ऐसा मुसाफ़िर था, जहाँ रात होती, वहीं ठहर जाता। कई बार वह हमारे यहाँ भी ठहर गया, कपिल के यहाँ भी या सुरेश सेठ के यहाँ। कहीं ठौर न मिलता तो हमदम या फ़ाकिर का चौबारा तो था ही।
एक बार वह मेरे पास दिल्ली चला आया। उसने बताया कि इस देश में आत्महत्या करने के लिए दिल्ली से बेहतर कोई दूसरी जगह नहीं है। जितनी अजनबियत और परायापन, बेगानापन इस शहर में है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। ऐसी अनजान जगह पर प्राण त्यागने का कुछ अर्थ ही और है। मैं उससे मज़ाक में यही कहता रहा कि उसे आत्महत्या करनी ही है तो कोई दूसरी जगह तलाश ले। ऐसी बातें वह मालिक मकान और उसकी पत्नी से भी करता था। मालिक मकान की पत्नी से उसने दोस्ती कर ली थी। उसके लिए बाजार से सामान वगैरह भी ला देता। वह बेचारी एक सीधी सादी गृहिणी थी, उसकी बातों से विचलित हो जाती और उसे समझाती कि भगवान ने जीवन दिया है तो उसका आदर करना चाहिए। उसका पति दफ़्तर और बच्चे स्कूल चले जाते तो वह धूप में कुर्सी निकाल कर बैठ जाता। वह कपड़े धोती तो धनराज कपड़े फैला देता। दिल्ली से लौटते हुए अपना कुछ सामान उसे भेंट कर गया-एक टार्च, ट्रांजिस्टर और कुछ कपड़े लत्ते। वह अक्सर चिन्ता प्रकट करती कि कहीं धनराज प्राणों की बाज़ी न लगा दे। कुछ ही दिनों बाद मैंने वह घर छोड़ दिया था। एक दिन दिन अचानक वह महिला पागल हो गयी थी। पागलपन में वह धनराज का नाम भी ले रही थी। उन्हीं दिनों मैंने एक कहानी लिखी थी, ‘बड़े शहर का आदमी'। पेश है उसका एक छोटा सा अंश ः
‘तुम अन्यथा न लो, प्रोग्राम तय करके भी कहीं आत्महत्या की जा सकती है, और फिर ये लोग।' पी0 के0 ने जैसे गाली दी, ‘सारे शहर में चींटियों की तरह फैले हुए हैं। मैंने कर्ज़न रोड के पास एक बस के नीचे आने की कोशिश की थी, लोगों ने मुझे पकड़ लिया और पीटा। खून से भरा रूमाल मेरी चारपाई के नीचे पड़ा है। मैंने सोचा था, तुम दफ्तर जाओगे तो धोऊँगा या जला दूँगा।'
‘तुम्हें पुलिस स्टेशन नहीं ले गये?'
‘ले जा रहे थे, लेकिन लोग जल्दी में थे।' पी0के0 ने खुश होते हुए कहा, ‘कितनी अच्छी बात है लोग जल्दी में रहते हैं।'
वह जड़ सा पी0 के0 की तरफ देखता रहा। उसने बात शुरू की तो लगा वह फिज़ूल सी बात कर रहा है, मगर जल्दी में वह यही कह पाया, ‘देखो अगर तुम्हें आत्महत्या करनी ही है तो मेरे कमरे में न करना, मुझे सुविधा रहेगी अगर तुम इस शहर में न करोगे और जेब में मेरा नाम पता भी न रखोगे।'
‘मैं इतना लापरवाह नहीं।' पी0 के0 ने कहा।'
क्रमशः अगले अंक में जारी…
रवीन्द्र जी का संस्मरण संजीदगी का आईना लग रहा है, रविरतलामी जी जी ने यहाँ प्रस्तुत करके हमें भी रवि जी की बारीकियों से परिचय कराया है.
जवाब देंहटाएंउनके लेखन को तो मैंने अनुभव किया है, उनसे मिल नहीं पाया, परन्तु ममता जी के साथ जबलपुर में पूरा एक दिन रहने का सौभाग्य मुझे मिला है, ये वो समय था जब जबलपुर में प्रसिद्ध "संजीव जी " को "पहल सम्मान " दिया जा रहा था. मैं, संजीव जी, श्रीमती संजीव, ओमा शर्मा जी, और साथ में थीं श्रीमती ममता कालिया जी, ममता जी की सरलता और अपनापन आज भी याद है, उस वक्त रवींद्र जी को भी आना था परन्तु वो नही आए,
- विजय