रवींद्र कालिया का संस्मरण : ग़ालिब छुटी शराब (13)

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संस्मरण ग़ालिब छुटी शराब रवींद्र कालिया (पिछले अंक से जारी…) नशे में कुछ भी हो सकता है, आप क्षुद्रताओं से मुक्‍त हो सकते हैं अथवा ...

संस्मरण

ग़ालिब छुटी शराब

ravindra kalia

रवींद्र कालिया

(पिछले अंक से जारी…)

नशे में कुछ भी हो सकता है, आप क्षुद्रताओं से मुक्‍त हो सकते हैं अथवा क्षुद्रता के शिखर पर आसीन हो सकते हैं। नशे में मैं दोनों स्‍थितियों से गुज़रा हूँ। एक बार जाड़े के मौसम में मैं पटना से लौट रहा था। शराब के नशे में मैंने पटना रेलवे स्‍टेशन पर वातानुकूलित यान में घुसने से पहले एक परिचित के कंधों पर अपना कीमती पशमीने का शॉल डाल दिया था। ऐसी ठंड भी नहीं थी और दोस्‍त को शॉल की ज़रुरत भी न थी। वह ठंड में मुझे विदा करने आया था इसी बात से प्रभावित होकर मैं अपने कीमती शॉल से वंचित हो गया। ऐसा भी नहीं है कि नशे में मैंने अपनी क्षुद्रताओं का परिचय न दिया हो। पीने के बाद मेरे ऊपर क्षुद्रताओं के भी दौरे पड़े हैं। उन्‍हें लिखने बैठूँ तो लिखता चला जाऊँ। दूधनाथ सिंह भी इसका भुक्‍तभोगी है। मेरे अनेक आत्‍मीय जनों ने मेरी बदलगामी का स्‍वाद चखा है, किसी ने कम किसी ने ज़्‍यादा। इसका प्रसाद सब को मिला है, यह दूसरी बात है हर बार उसकी भारी कीमत मुझे खुद ही चुकानी पड़ी है, कभी पछतावे के रूप में और कभी अवसाद के लम्‍बे दौर से गुज़र कर। अक्‍सर मैं पीकर जितना उत्‍फुल्‍ल हो जाता था, उसके बाद उतना ही उदास, तन्‍हा और निस्‍पन्‍द। बिन पिए भी मन की बात ज़ुबान पर लाने में मैंने कभी कोताही न की थी और पीने के बाद तो मैं एकदम निरंकुश और स्‍वच्‍छंद हो जाता था। इससे बड़ा कोई तात्‍कालिक सुख नज़र नहीं आता था। दो शराबियों के बीच ऐसा व्‍यवहार खप जाता है, मगर समस्‍या वहाँ खड़ी हो जाती थी जहाँ दूसरा पक्ष होशोहवास में है। एक बार मेरी होने वाली बहू भी मेरी इस सनक की ज़द में आ गयी थी। उसे देर रात बेटे ने अहमदाबाद से फ़ोन पर खुशखबर दी थी कि हम लोगों ने इस शादी को हरी झंडी दिखा दी है।

 

बेटे ने नौकरी पाने के कुछ माह बाद अत्‍यन्‍त तर्कपूर्ण ढंग से अपना पक्ष रखा था कि वह अब अपने पाँव पर खड़ा हो गया है और अपनी मनपसंद लड़की से ही शादी करने का मन बना चुका है। हम लोग एक लम्‍बे अर्से से उसके इस आशय के पत्र की प्रतीक्षा कर रहे थे। हम लोग इस बात से प्रसन्‍न थे कि बेटे ने बाप की परम्‍परा का बखूबी निर्वाह किया और हमें दुनियादारी की ज़हमतों से बचा लिया। वह अगर शादी करने के बाद भी सूचित करता तो ज़्‍यादा हैरानी न होती। हम दोनों मानसिक रूप से इसके लिए भी तैयार बैठे थे। बेटे ने अत्‍यन्‍त संकोच से पत्र लिखा था और पत्र पढ़कर उस पर लाड़ भी बहुत आया। वह तब तक सोच रहा था कि हम लोग निहायत बुद्धू किस्‍म के मां-बाप हैं और उसके प्रेम प्रसंग के बारे में कुछ नहीं जानते। यह उसका भ्रम था। प्‍यार की एक खुशबू होती है, जो छिपाये नहीं छिपती। वह अभी विश्‍वविद्यालय में ही था कि सारे घर में यह खुशबू फैल गयी थी। जाने यह कैसा संकोच था कि बेटे को हम लोगों पर कम अपनी दादीमां और मेरे बड़े भाई भाभी पर ज़्‍यादा विश्‍वास था, जबकि उनमें से किसी ने प्रेम विवाह नहीं किया था। मुझे तो बरसों पहले विश्‍वास हो गया था कि मेरा बेटा प्रेम में पड़ चुका है, जब एक बार लड़की बीमार पड़ी तो वह अपनी मां से खिचड़ी बनवाकर या जूस निकलवा कर उसके हास्‍टल पहुँचाया करता था।

 

मेरे लिए यह संतोष का विषय था कि मेरा बेटा प्रेम के मामले में मुझ से दो कदम आगे ही रहा है। वह अभी स्‍कूल में ही था कि मुझे लगने लगा था कि बेटा बाप से आगे निकल चुका है। हाईस्‍कूल में ही वह पड़ोस की एक लड़की के प्रेम में पड़ गया। वह ही नहीं, लड़की भी उसके प्रेम की दीवानी हो गयी थी। रात-रात भर दोनों की फोन पर गुफ़्‍तगू चलती।

हम लोगों को यह सब नागवार गुज़रा तो उसके कमरे से फोन का एक्‍सटेंशन हटा लिया। उसने घर में तूफान बरपा कर दिया। ऐसा तूफ़ान तो मैंने शराब के नशे में भी न खड़ा किया होगा। वह अनशन पर बैठ गया। कई दिनों तक उसका होमवर्क ममता को करना पड़ा। छमाही परीक्षा में बैठने से पूर्व वह एक दिन अपनी दादी मां से बोला-‘दादी मां, मैं सोचता हूँ, अब शादी कर ही लूँ।'

 

उसकी बात सुनकर मेरी मां हत्‍प्रभ रह गयीं। उस समय उसकी उम्र मुश्‍किल से पंद्रह बरस की होगी। उन्‍होंने उसे प्‍यार से समझाने की कोशिश की-‘पढ़ लिखकर काबिल बन जाओ और जब अपने पाँव पर खड़े हो जाओ तो शादी भी कर लेना।'

‘दादी मां, मैं तुरन्‍त शादी करना चाहता हूँ, ताकि हम दोनों मन लगाकर पढ़ाई कर सकें। इधर हम दानों का मन पढ़ाई में नहीं लग रहा। आप मम्‍मी-पापा को राज़ी कर लें। प्‍लीज़।'

‘शादी के लिए अभी तुम दोनों बहुत छोटे हो। पहले कुछ बन कर तो दिखाओ।'

‘आप जो भी कहेंगी, बनकर दिखा दूँगा, कलक्टर, एस0पी0, डाक्टर, जो भी आप कहेंगी।'

‘मगर सोचो बेटा तुम्‍हारी दुल्‍हन का खर्चा कौन उठायेगा?'

‘उसका ज़्‍यादा खर्च नहीं है दादी मां। शादी के बाद मैं पाकिट मनी लेना भी बंद कर दूंगा। इससे भी तो बचत होगी।'

‘मगर कल तुम्‍हें आगे की पढ़ाई करनी है, ज्‍यों-ज्‍यों बड़ी क्‍लास में जाओगे, पढ़ाई का खर्च भी बढ़ेगा। हो सकता है तुम्‍हें होस्‍टल में रहकर पढ़ना पड़े।'

‘दादीमां, आप फिजूल के बहाने कर रही हैं। आप चाह लेंगी तो सब राज़ी हो जाएँगे।'

‘मगर बेटा मैं तो वही चाहूँगी, जिस में तुम्‍हारा भला हो।' दादीमां ने उसे समझाने की कोशिश की।

मेरा बेटा ज़िद ठान चुका था। दादीमां के किसी तर्क से वह प्रभावित नहीं हो रहा था। उसका विचार था कि जहाँ इतने लोगों का खाना बनता है, उसकी ‘स्‍वीटहार्ट' का भी बन जाएगा। घर में इतनी जगह है, एक कोने में वह भी पड़ी रहेगी। उसके अपने कमरे में ही उसके लिए पर्याप्‍त जगह थी।

 

बाद में पता चला, हमारे बेटे ने ही नहीं, लड़की ने भी अपने घर वालों का जीना हराम कर रखा था। एक दिन जब बच्‍चे स्‍कूल गये हुए थे तो लड़की की मां हमारे यहाँ आईं। वह अपनी बेटी को लेकर बहुत चिन्‍तित थीं। उन की चिन्‍ता जायज़ भी थी। आखिर उन्‍होंने रानी मंडी का घर बेच दिया और शहर के दूसरे छोर पर जाकर बस गये। हमारा बेटा कुछ दिन गुमसुम रहा, फिर पूरे जोश से क्रिकेट खेलने लगा। मेरे बेटे की इस प्रथम प्रेम कहानी का अंत भी अत्‍यंत नाटकीय रहा।

जिस रोज़ बेटे की शादी थी और हम लोग विवाहोत्‍सव में जाने के लिए घर से निकल ही रहे थे कि अचानक टेलीफोन की घंटी बजी। मैंने लपकर फोन उठाया तो वह फोन जो था, लड़के की पहली प्रेमिका का था। वह बंगलौर में एम0बी0ए0 कर रही थी और उसी रोज़ इम्‍तिहान से फारिग होकर लौटी थी। मैं जल्‍दी में था, मगर वह फुर्सत में थी। बरसों बाद मैंने उसकी आवाज़ सुनी थी। यह वही आवाज़ थी जिसे सुनकर मैं अक्‍सर क्षुब्‍ध हो जाया करता था। लड़की यह सोचकर फोन किया था कि हो सकता है अन्‍नू भी छुट्टियों में घर आया हो। वह लगातार बोले जा रही थी और मैं कान पर फोन धरे उसकी आवाज़ में एक नया आत्‍मविश्‍वास लक्षित कर रहा था। वर्षों से उसकी अन्‍नू से बात नहीं हुई थी और वह शायद सोच रही थी कि बीते हुए दिन पूरे वेग के साथ अब दोबारा लौट आयेंगे। माता-पिता भी अब वैसी आपित्‍तयाँ दर्ज नहीं करेंगे। आगामी फरवरी में ही वह एक बहुराष्‍ट्रीय कम्‍पनी में नियुक्‍त होकर मुम्‍बई जा रही थी। मुझे असमंजस में देख और अपना नाम सुनकर अन्‍नू ने मेरे हाथ से फोन ले लिया। उसी ने लड़की को समाचार दिया कि वह अभी-अभी शादी के लिए रवाना हो रहा है। लड़की ने उसकी पत्‍नी का नाम पूछा और बधाई दी और साथ ही गलत समय पर फोन करने के लिए उससे मुआफ़ी माँगी।

 

अन्‍नू से हम लोगों की सहमति का फोन मिलने पर प्रज्ञा की जिम्‍मेदारियाँ बढ़ गयी थीं। अब उसे अपने माता-पिता की सहमति हासिल करनी थी। घर में यह प्रस्‍ताव रखने से पूर्व प्रज्ञा हम लोगों से बात कर आश्‍वस्‍त हो जाना चाहती थी। अन्‍नू से यह समाचार मिलते ही प्रज्ञा ने यह सोच कर हमारा नम्‍बर घुमा दिया कि हम लोग देर रात तक जगा करते हैं। उसने ठीक ही सोचा था। उसका फोन मिला तो उस समय मैं ज़मीन से दो इंच ऊपर था। दो क्‍या ढाई इंच ही कहना चाहिए। कुछ ही समय पूर्व बेटे से फोन पर लाड़प्‍यार से बातें हुई थीं। मैं फ़ोन पर उसका ध्‍यान ई मेल से प्राप्‍त उसके पत्र के एक वाक्‍य की तरफ़ दिलाना चाहता था, जो मेरे मर्म को छू गया था और कई बार ऐसा एहसास दे गया था, जो चोट पर ठोकर लगने से बार-बार होता है। बेटे ने पत्र में चलते-चलते नासूर पर नश्तर लगा दिया था और वह ज़ख्‍म अभी हरा था। अपने पत्र में उसने मेरी मयनोशी पर टिप्‍पणी कर दी थी और लिखा था - रिमेम्‍बर फादर, ह्नाट माई मदर नेवर आब्‍जेक्‍टिड टु, माई वाइफ़ मे। यानी आप की जिन आदतों पर मेरी मां ने कभी आपत्‍ति नहीं की, मेरी पत्‍नी कर सकती है। हर पैग के साथ यह वाक्‍य मेरे भीतर सुलग रहा था और जब प्रज्ञा का फोन मिला यह वाक्‍य लपट में तब्‍दील हो चुका था। मैंने प्रज्ञा के अभिवादन का उत्‍तर देना भी ज़रूरी नहीं समझा और बेटे के पत्र पर अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए संघर्ष करने लगा। मेरी जु़बान लटपटा रही थी। मैंने किसी तरह बहुत कोशिश करके एक वाक्‍य पूरा किया--तुम कब छोड़ोगी मेरे बेटे का पीछा? मेरी बात और बात करने के अन्‍दाज़ से प्रज्ञा सहम गयी होगी, उसने तुरन्‍त फोन काट दिया।

 

प्रज्ञा ने फोन काटकर समझदारी का परिचय दिया था। मेरी जु़बान भी साथ नहीं दे रही थी। मैं उस समय कुछ भी कह सकता था, सुबह उठकर चाहे कितना भी पश्‍चाताप कर लेता। अपनी बात से मेरी आत्‍मा पूरी तरह तृप्‍त न हुई थी। मैं अभी और भड़ास निकालना चाहता था कि यू हैव नो राईट टु आब्‍जेक्‍ट टु माई स्‍टाइल आफ लिविंग। कैसे दिन आ गये थे, मैं लगभग रोज़ ही सुबह उठकर शर्मसार होता रहता था। उस समय भी यह एहसास न हुआ कि मैंने बेवकूफी में अपने बेटे के हिस्‍से की डाँट अपनी होने वाली बहू को पिला दी थी। थोड़ी देर बाद बेटे ने अपनी मां से शिकायत की, पापा ने मेरी बरसों की मेहनत पर पानी फेर दिया। उसकी चिन्‍ता जायज़ थी कि प्रज्ञा क्‍या सोचेगी कि, वह कैसे घर में जा रही है। मैंने उसे अत्‍यन्‍त विडम्‍बनापूर्ण स्‍थिति में डाल दिया था। रोज़ ही मुझे इस पराजय से दोचार होना पड़ता था। मैं एक गहरे अपराधबोध में जकड़ गया। वहाँ से हट जाना ही मैंने बेहतर समझा। ममता बेटे की हाँ में हाँ मिला रही थी। मैं दूसरे कमरे में चला गया और सिगरेट सुलगा ली। ऐसे में मैं अक्‍सर धूम्रपान की शरण में ही जाता था। धुआंधार सिगरेट फूँकता और खांसता। इस समय मुझे सिगरेट से भी नफरत हो गयी थी। सच पूछिए तो मैं सिगरेट से भी आजिज़ आ चुका था। सिगरेट पी पी कर मेरे फेफड़े थक चुके थे।

 

एक दिन दूधनाथ सिंह ने मुझे ताबड़तोड़ सिगरेट फूँकते देखा तो एक दोस्‍ताना मश्‍वरा दिया- कालिया, अब वक्‍त आ गया है, तुम सिगरेट भी छोड़ दो।

‘देखो दूधनाथ! तुम्‍हारे कहने से मैंने दारू छोड़ दी, कोठे पर जाना छोड़ दिया, स्‍मगलिंग छोड़ दी, जुआ छोड़ दिया, यहाँ तक कि तमाम प्रेमिकाओं से भी कन्‍नी काट ली। अब तुम क्‍या चाहते हो? जीने के लिए कुछ तो मेरे पास रहने दो भाई।' मैंने हँसकर उसकी बात टाल दी।

दूधनाथ की बात ग़लत नहीं थी। वह गैरजिम्‍मेदार दिखने की कोशिश ज़रूर करता रहता है, जबकि भीतर से वह बहुत ही ज़िम्‍मेदास शख्‍स है। पति मालूम नहीं कैसा रहा है, मगर पिता की जिम्‍मेदारियाँ उसने हम सब लोगों से कहीं बेहतर निभायी हैं। हमारी पीढ़ी के लेखकों में दूधनाथ सिंह ने सबसे ज़्‍यादा अपने बच्‍चों की परवरिश की तरफ़ ध्‍यान दिया था। दूधनाथ सिंह का वश चलता तो वह अपने बच्‍चों को छाती से चिपका कर उन्‍हें दूध भी पिलाता। वह बच्‍चों की मां भी था और बाप भी। सही मायने में माई-बाप था। यह सुनकर निर्मला आहत हो जाती हैं और नाक भौं सिकोड़ा करती हैं। मेरा अभिप्राय उनके मातृत्‍व को चुनौती देने का कभी नहीं रहा, मगर मेरा निजी अनुभव कुछ ऐसा था कि मैं कामकाजी महिलाओं को माता कम जननी ज़्‍यादा माना करता हूँ। कामकाजी महिलाओं का पूरा समय (फुल टाइम) नौकरी में निकल जाता है और शायद यही वजह थी कि मैं उन्‍हें पार्टटाइम मा कहा करता था।

 

ममता कालिज चली जाती थी और मैं बच्‍चों को गोद में लिए प्रूफ पढ़ा करता था। बच्‍चा कितना भी रो रहा हो, मेरी गोद में आते ही चुप हो जाता था। गोद में अजीब जादू होता है, बच्‍चों की बात छोड़िये मैंने बड़े-बड़ों को गोद में चुप होते देखा है। वास्‍तव में दूधनाथ सिंह फुल टाइम पिता था, बाकी सब कुछ पार्टटाइमर। पति। प्रेमी। अध्‍यापक। लेखक। मित्र। अमित्र। छिनरा। जब तक दूधनाथ सिंह के बच्‍चे छोटे थे, उसके यहाँ बहुत कम महफिल सजती, बच्‍चे सयाने हो गये तो उसने एक जगह प्रेम की नौकरी कर ली। उसने बरसों यह नौकरी बजायी, मगर कोई नहीं जानता वह अचानक प्रेम की इस नौकरी से निलम्‍बित कर दिया गया था या उसने स्‍वैच्‍छिक अवकाश ग्रहण कर लिया था। उसकी बाद की कहानियों से यह आभास ज़रूर मिलता है कि दाल में कुछ काला ज़रूर था। उसकी कहानियों पर अन्‍धेरा छा गया।

दूधनाथ बहुत विषम परिस्‍थितियों में ही मित्रों को घर पर आमंत्रित करता था। हम लोग इसका एक ही अर्थ निकालते थे, वह आप से प्रसन्‍न है या आपको प्रसन्‍न करना चाहता है। अश्‍कजी कहा करते थे, दूधनाथ सिंह परम पटाऊ शख्‍स है। आप उससे कितना ही खफ़ा हों, अगर दूधनाथ तय कर लेगा तो आप पटे बगैर रह ही नहीं सकते। यह मैंने भी महसूस किया है, यह दूसरी बात है कि मुझे पटाना बहुत आसान होता है। दूधनाथ सिंह तो नामी लेखक है, नये से नये लेखक मुझे आसानी से पटा लेते हैं। मगर अश्‍कजी कठिन आदमी थे, वह भी दूधनाथ के सामने आसानी से हथियार डाल देते थे। बाद में इस बात का खूब प्रचार करते थे। अपनी इस कमज़ोरी से वह अंत तक लड़ते रहे। जब अश्‍कजी की यह औकात थी तो मेरी क्‍या बिसात। मैं भी कई बार दूधनाथ के सामने लाचार हुआ हूँ, जाने वह क्‍या जादू डरता था।

काशी का किस्‍सा साढ़ेचार छपा तो दूधनाथ अपनी तस्‍वीर से बेहद नाखुश हुआ। काशी की दाद देनी पड़ेगी कि वह अपनी बेटी के ससुर की भी खबर ले सकता है। मैं अब सोचता हूँ कि काशी का उद्देश्‍य किसी की छवि को धूमिल करने का नहीं था, वह जाने कहाँ चूक गया कि उसके चारों यार आहत हो गये। कई बार अपनी सरलता की भी कीमत चुकानी पड़ती है, काशी ने वह कीमत चुकायी। काशी को देखकर मुझ हर बार यह एहसास होता है कि वह लेखक कम गाँव का एक सीधा-सादा किसान ज़्‍यादा है, उर्दू में उसे सादःलौह इनसान कहा जा सकता है। काशी की तुलना में हम लोगों को यानी ज्ञान, दूधनाथ और मुझे शातिर कहा जा सकता है।

 

जिन दिनों मैं अपने साथियों पर संस्‍मरण लिख रहा था, अचानक दूधनाथ सिंह मेरे बहुत करीब आ गया। वह विश्‍वविद्यालय से सीधा हमारे यहाँ चला आता। वह अपने झोले से जिन की बोतल निकालता और मैं फ्रिज से गाजर और अदरख का रस। हम लोग जिन पीते और ममता का इंतज़ार करते। ममता कालिज से लौटती ते वह कहता-ममता, पेट में चूहे दौड़ रहे हैं, जल्‍दी से खाना लगाओ। ममता गद्‌गद् हो जाती कि दूधनाथ कितनी आत्‍मीयता से खाने की फरमाइश कर रहा है। मैं महसूस करता कि दुनिया में अगर कोई सच्‍चा दोस्‍त है तो वह दूधनाथ सिंह है, बाकी-सब ज्ञानरंजन और काशीनाथ सिंह हैं। दूधनाथ मुझे विस्‍तारपूर्वक अपने संघर्षों के बारे में बताता, उस की आवाज़ कांपने लगती, उसकी आँखें नम हो जातीं। इसे संयोग ही कहा जाएगा कि मैंने दूधनाथ पर संस्‍मरण पूरा किया कि अचानक काशी इलाहाबाद में प्रकट हो गया। उस रोज़ वह और दूधनाथ दोनों रानी मंडी आए। दोपहर में जिन पी गयी और दूधनाथ पर लिखे संस्‍मरण का पाठ हुआ। संस्‍मरण सुनाने का एक उद्देश्‍य यह भी था कि काशी को एहसास कराया जाए कि एक उसने अपने दोस्‍तों का खाका खींचा है और एक खाका यह है। संस्‍मरण में दूधनाथ के बारे में जितनी भी झूठी सच्‍ची जानकारी थी, दूधनाथ की ही दी हुई थी। कुछ-कुछ दिल अपना और प्रीत परायी जैसा था।

 

संस्‍मरण लिखते समय एक खतरा हमेशा बना रहता है कि किसी मित्र पर लिखते समय आप अपने पर ज़्‍यादा लिख जाते है मित्र पर कम। अश्‍कजी के संस्‍मरणों में प्रायः ऐसा ही हो जाता था। वह मंटो पर कम अपने पर ज़्‍यादा लिख जाते थे निष्‍कर्ष यही निकलता था कि बेदी (राजेन्‍द्र सिंह) मूर्ख हैं और वह बुद्धिमान। वह अपने समकालीन लेखकों की खामियाँ कुछ ज़्‍यादा ही उजागर कर देते थे। अश्‍कजी से मैंने यही शिक्षा ली थी कि इन दोनों प्रवृत्‍तियों से बचना चाहिए। अपने बारे में भी मेरी राय कभी उतनी अच्‍छी न रही थी। ज़िन्‍दगी में इतनी बार शिकस्‍त का सामना हुआ था कि कभी अपने को मुकद्दर का सिकंदर नहीं समझ पाया, हमेशा अपने को मुकद्दर का पोरस ही पाया। मुझे हर दूसरा शख्‍स सिकंदर नज़र आता था। उन दिनों दूधनाथ मेरा सिकंदर था। मैं उत्‍साहपूर्वक अपना संस्‍मरण सुना रहा था। दूधनाथ की अधिसंख्‍य कहानियों में एक विजेता ज़रूर बैठा रहता है। इस संस्‍मरण में भी एक सिकंदर विराजमान था। इसके विपरीत काशी के संस्‍मरण में दूधनाथ सिंह सिकंदर तो क्‍या, पोरस का पट्‌टीदार भी नहीं लगता था। काशी के और मेरे संस्‍मरण में दूधनाथ सिंह के अलग-अलग चेहरे उभरे थे। वैसे किसी भी शख्‍स का एक चेहरा नहीं होता-चेहरे अनेक होते हो। मगर यहाँ तो दोनों चेहरे एक दूसरे के विलोम थे। मेरा संस्‍मरण सुनकर काशी भी भावुक और विह्‌वल हो गया। कुछ जिन का भी चमत्‍कार था कि काशी की आँखे पहले सुर्ख हुईं और बाद में डबडबा आईं। उसने मुझे और दूधनाथ को अपनी दोनों बाहों में भर लिया। अब हम तीनों पर ‘जिन' सवार थी। उस एक क्षण में हम तीनों अपनी-अपनी क्षुद्रताओं से काफ़ी ऊपर उठ गये। होता है, शराब पीकर ऐसा अक्‍सर होता है।

 

सच तो यह है, सिगरेट छोड़ने के बारे में मैं वर्षों से सोच रहा था। इस विषय में अनेक लेख और पुस्‍तकें पढ़ चुका था कहीं यह भी पढ़ा था कि अंगुलियों को सिगरेट थामने का अभ्‍यास हो जाता है और होंठों को सिगरेट दबाने का। होंठ और अंगुलियाँ उस आत्‍मीय स्‍पर्श के लिए बेकरार रहने लगती हैं। इस विश्‍लेषण को मैंने दुरुस्‍त पाया था। आज स्‍थिति यह है कि मैं घण्‍टों अंगुलियों या होंठों में सिगरेट थाम कर बैठ सकता हूँ, बगैर सुलगाये या धुआँ छोड़े। इसी मुद्रा में मैं बाज़ार का चक्‍कर भी लगा आता हूँ। ऐसा भी हुआ कि राह चलते लोगों ने माचिस पेश कर दी कि सिगरेट सुलगा लूँ। कुछ लोग यह भी सोचते होंगे कि यह कोई फिलासफर अपनी धुन में चला जा रहा है और सिगरेट सुलगाना भूल गया है। अब लोगों को कौन समझाए मैं फिलासफर विलासफर कुछ नहीं, निहायत पाजी किस्‍म का बिगड़ा हुआ लेखक हूँ, जो अपने को सुधारना चाहता है।

 

मैं इण्‍टर में पढ़ता था जब पहली बार सिगरेट का कश खींचा था। गर्मी की छुट्टियाँ मनाने अपने चाचा के यहाँ शिमला गया हुआ था। वह सुबह पहली चाय के साथ सिगरेट सुलगा लेते। एक दिन शाम को मैं माल पर टहल रहा था कि कुछ लड़के-लड़कियों को आज़ादी से सिगरेट फूँकते हुए देखा। लड़कियों की इस अदा पर मैं फिदा हो गया। मैं कुछ दूर तक उनके पीछे चलता रहा। बगल में सिगरेट की दुकान देखकर एक सिगरेट खरीद ली, दुकान के बाहर बिजली का लाइटर टंगा था, बटन दबा कर लोग सिगरेट सुलगा रहे थे, मैंने भी सुलगा ली। पहला कश बहुत नागवार गुज़रा, हलक में धुआँ कहीं ऐसी जगह छू गया कि मैं आगे चलती लड़कियों को भूल गया और सड़क किनारे एक पत्‍थर पर बैठकर देर तक खाँसता रहा। तौबा-तौबा करके किसी तरह आधी चौथाई सिगरेट खत्‍म की और लड़कियों को कोसते हुए घर लौट आया। चाचा को लगा, मैं ठंड खा गया हूँ, उन्‍होंने कफ़ सिरप पिलाया और हीटर खोल दिया। पहली सिगरेट का अनुभव बहुत खराब रहा था, उर्दू में इसी तरह के अनुभव को गुनाह बेलज़्‍ज़त कहा जाता है। मगर मैं इतनी आसानी से हथियार डालने वाला नहीं था। अगले रोज़ मैंने एक और सिगरेट खरीदी। कोई सप्‍ताह भर के संघर्ष के बाद मैं सिगरेट पीने में पारंगत हो गया। बाद में जालंधर लौट कर मैंने अपने अनेक सहपाठियों को सिगरेट पीना सिखाया। कुछ ही दिनों में हम लोग कालिज परिसर में ही खुलेआम सिगरेट फूँकने लगे। बाकी लड़के कौतुक से लड़कियों की तरह हमारी तरफ देखते।

 

सिगरेट पीते-पीते जब कई बरस बीत गये तो यह बात मेरी समझ में आई की सिगरेट एक बुरी चीज़ है। इसे मेरा दुर्भाग्‍य की कहा जाएगा कि बहुत सी बातें बहुत देर बाद मेरी समझ में आती हैं। किसी ने ठीक ही कहा था कि लम्‍बे आदमी की अक्‍ल टखनों में होती है। मुझे बहुत सी चीज़ों की समझ तब आई जब आसानी से यह कह कर उन्‍हें खारिज किया जा सकता था कि आखिरी उम्र में क्‍या खाक मुसलमान होंगे।

वास्‍तव में सिगरेट के प्रति जो आपका रवैया होता है, वही जीवन के प्रति होता है। यह कोई सूक्‍त वाक्‍य नहीं है, मैं कई हज़ार सिगरेट फूँककर इस नतीजे पर पहुँचा हूँ। एक बार मैं कालिज परिसर में सिगरेट फूँकते हुए चला जा रहा था कि अचानक ठीक सामने डॉ0 इन्‍द्रनाथ मदान पड़ गये। तब तक मैं उनका विद्यार्थी नहीं था, मगर उन्‍हें देखते ही मैंने सिगरेट फेंक दी। मदान साहब मेरे पास आकर रुके और कंधा थपथपाते हुए बोले, ‘नौजवान, माना सिगरेट बुरी चीज़ है, मगर चीजों को यों बरबाद नहीं करते। ज़ाया मत करो, उठा लो।' मदान साहब यह कहकर आगे बढ़ गये और मैंने गिरी हुई सिगरेट उठा ली। डॉ0 मदान की बात मैं लगभग भूल चुका था कि बरसों बाद अचानक एक दिन उनकी बात एक दिन दिमाग में ताज़ा हो गयी।

 

मोहन राकेश की एक आदत बहुत अच्‍छी लगती थी, वह जब सिगरेट पीते थे, सामने बैठे व्‍यक्‍ति को ज़रूर पेश करते थे। यह सामने वाले व्‍यक्‍ति पर मुनहसिर था कि वह कबूल कर ले या न करे। मैं तो हमेशा कबूल कर लेता था। मुझे उनका यह शिष्‍टाचार बहुत शाही लगता था। एक बार मैं उनके साथ कॉफी हाउस जा रहा था। उन दिनों कनाट प्‍लेस में कॉफी हाउस उस स्‍थान पर था, जिसके नीचे आजकल भूमिगत वातानुकूलित मार्केट है। चलते-चलते अचानक उन्‍हें सिगरेट की तलब हुई। हस्‍बेमामूल उन्‍होंने खुद भी सिगरेट सुलगायी और मुझे भी पेश की। मैंने अभी दो-चार कश भी न लिए होंगे कि सिगरेट मेरे हाथ से छूट गयी। इससे पहले कि मैं झुककर सिगरेट उठाता, राकेशजी ने अपने कदमों के नीचे रोंद दी और जेब से पैकट निकालकर नयी सिगरेट पेश कर दी। वह उन दिनों ‘फोर स्‍क्‍वायर' नाम की सिगरेट पिया करते थे। अपनी ऐसी ही अदाओं से राकेश मेरे लिए वही बन गये, जिसे अंग्रेजी में फ्रेंड, फिलासफर एन्‍ड गाइड कहा जाता है। मगर समय का चक्‍का कुछ ऐसे घूमा कि फ्रेंड फ्रेंड न रहा, गाइड गाइड न रहा, उनके फिलासफर ने ज़रूर आज तक साथ निभाया, वक्‍त ज़रूरत आज भी साथ देता है। मोहन राकेश जब तक जीवित रहे, शाही तरीके से रहे। जिन दिनों हिन्‍दी के लेखक चप्‍पल चटखाते हुए चला करते थे, राकेश टैक्‍सी से नीचे कदम नहीं रखते थे, बहुत सुरुचिपूर्ण जीवन शैली थी उनकी।

 

सिगरेट या विस्‍की के ब्राण्‍ड से पता चल जाता है कि आदमी की आर्थिक, सामाजिक और मानसिक स्‍थिति कैसी है। हैसियत की कलई न खुल जाए यह सोचकर मैंने हमेशा हैसियत से बेहतर सिगरेट फूँके और हैसियत से कहीं बेहतर दारू पी। इस मध्‍यवर्गीय कुण्‍ठा में ज़िन्‍दगी में कुछ ज़्यादा ही मेहनत पड़ गयी। कुंभनदास के शब्‍दों में कहूँ तो जाको मुख देखे दुख लागे, ताको करन परी परनाम। सिगरेट ने और भी बहुत से सबक सिखाये। सब से बड़ा सबक तो यही सीखा कि सिगरेट पीने का आनंद सिगरेट पीने वालों के बीच ही है, दूसरों के बीच सिगरेट फूँककर आप सिर्फ़ ज़ुल्‍म ढा सकते हैं। इस का एहसास भी अचानक हो गया था।

 

जब से नन्‍दनजी मुम्‍बई से दिल्‍ली आए थे मैं दिल्‍ली में उनके यहाँ ही रुकता था। नन्‍दनजी घर में राजा बेटे की तरह रहते थे, न सिगरेट पिएँ न शराब। रात देर तक हम लोग दुनिया जहान की बातें करते। इतनी बातें करते कि उनका वातानुकूलित कमरा धुएँ से भर जाता। मुरव्‍वत में वह मना भी न कर पाते। मैं धुएँ में जीने का आदी था। अपनी मूर्खता का एहसास तब हुआ जब मियाँ-बीबी रात भर खाँसी की जुगलबंदी करते रहे। वह दिन था और आज का दिन, मेरे भीतर नन्‍दनजी के यहाँ जाने का नैतिक साहस न हुआ। ऐसे ही कुछ ठोस कारण रहे होंगे कि मैंने बुढ़ापे की जो रोमांटिक परिकल्‍पना की थी, उसमें सिगरेट के लिए कोई स्‍थान नहीं था। मेरी कल्‍पना के बुढ़ापे में धूम्रपान निषेध था। यह ज़रूर सोचा था कि अवकाश ग्रहण करके घर में एक उम्‍दा बार ज़रूर बनवाऊँगा। मैंने जितनी देशी-विदेशी शराबों के नाम सुने थे या निर्मल वर्मा और श्रीकांत वर्मा जैसे लोगोें की पुस्‍तकों में पढ़ रखे थे, बहुत पहले उनका संग्रह करने में जुट गया था। मेरे भाई-भाभी, बहन-बहनोई विदेश से आते तो मेरी फरमाइश की शराब ज़रूर लाते। अमरकांत जी मेरे लिए रूस से वोद्‌मा लाये थे। शराब को महक और विशिष्‍टता प्रदान करने के लिए मैंने विशेष काष्‍ठ पात्र जुटा लिए थे। मेरी तमाम योजनाएँ धरी की धरी रह गयीं, जब मेरे जिगर ने मेरा साथ छोड़ दिया और टकसाली भाषा में अब सिर्फ़ यही कहा जा सकता है कि मैं मन मसोस कर रह गया। सिगरेट छोड़ने के लिए अपने को तैयार कर रहा था कि मद्यपान छूट गया। जीवन में यह नौबत न आती अगर इस आदर्श वाक्‍य ने प्रभावित न किया होता--इफ यू लाइक ए थिंग ओवरडू इट।

 

मेरी मां की चिता जब धू-धू कर जल रही थी, तो मेरी प्रबल हुई कि मैं जेब से सिगरेट का नया पैकेट जला कर राख कर दूँ, जो मैं श्‍मशानघाट पर जाने से ज़रा पहले मँगवाया था। सिगरेट मँगवाते समय भी मुझे बहुत ग्‍लानि और गहरा अपराधबोध हुआ था। अवसाद के उन मर्मांतक क्षणों में भी मैं अपनी क्षुद्र लालसाओं से ऊपर नहीं उठ पाया था। श्‍मशान घाट पर मेरा हाथ बार-बार उस पैकेट को छू रहा था मगर मेरी इच्‍छा शक्‍ति मेरा साथ नहीं दे रही थी। मुझे लग रहा था, आज मुझे इसी की सबसे ज़्‍यादा ज़रूरत है। वह दिन था और आज का दिन, मैं धूम्रपान से लगातार जूझ रहा हूँ।

 

मेरी मा जाने क्‍यों पंडितजी से बहुत डरतीं थीं। उन्‍हें लगता था पण्‍डितजी को जैसे उनकी मौत की तारीख मालूम है ठीक उसी तरह जैसे चन्‍द्रभानु गुप्‍त बरेली के गुप्‍तजी से डरते होंगे। मौत से दो रोज़ पहले तक वह सही सलामत थीं। एक लम्‍बे अर्से से पंडितजी नहीं आये थे। वे अपनी परेशानियों में थे। पेट्रोलियम मन्‍त्री कैप्‍टन सतीश शर्मा ने पंडितजी को दक्षिणा स्‍वरूप एक पैट्रोलपम्‍प आबंटित कर दिया था, जो पंडितजी के लिए बवालेजान बन गया था। उच्‍चतम न्‍यायालय ने अन्‍य आबंटियों के साथ-साथ पंडितजी का एलाटमेंट भी निरस्‍त कर दिया था। इस बीच वह भारी कर्ज़ उठाकर पम्‍प की स्‍थापना कर चुके थे। एक-एक कर तमाम पूर्व आबंटित पम्‍प नीलाम हो चुके थे, पंडितजी का पम्‍प किसी तरह बच गया था और उन्‍हें उच्‍च न्‍यायालय से कुछ राहत मिल गयी थी। वह कोर्ट कचहरी की सांसारिक औपचारिकताओं में ऐसा उलझे कि उनकी एकाग्रता भंग होने लगी। उच्‍च न्‍यायालय से उन्‍हें बरसों की दौड़धूप के बाद कुछ राहत मिली तो वह समय निकाल कर मिलने चले आये थे। जाड़े के दिन थे। माताजी उस समय धूप में बैठी थीं। पैरों में थोड़ी सूजन थी और वह गर्म पानी से सिकाई कर रही थीं। पंडितजी बहुत विस्‍तार से अपनी परेशानियों का खुलासा कर रहे थे कि मेरा छोटा बेटा घबराहट में ऊपर आया। उसने बताया कि दादी मा को बहुत तेज़ कंपकपी छिड़ी है और कम्‍बल रजाइयाँ ओढ़ाने के बावजूद वह बुरी तरह काँप रही हैं। हम सब लोग नीचे आये। हीटर चलाया, मगर उनके दाँत उसी तरह किटकिटा रहे थे। डाक्‍टर को फोन किया। उन्‍होंने एक इंजेक्‍शन बताया, जो मन्‍नू के ही एक दोस्‍त ने तुरंत लगा दिया। जब तक डाक्‍टर आते उनकी तबीयत कुछ संभल गयी थी। सामान्‍य होते ही उन्‍होंने कहा, वह अब नहीं बचेंगी। पंडितजी देर तक उनकी खाट के पास खड़े रहे। उस नाजुक स्‍थिति में भी वह उन्‍हें भेंट देना नहीं भूलीं। मुझे लग रहा था कि वह ठीक हो जाएँगी, मगर उनके जीवन की उल्‍टी गिनती शुरू हो चुकी थी। रातभर वह बहुत परेशान रहीं, मैं रातभर उनकी देखभाल में लगा रहा। बीच-बीच में वह टायलट जाने की ज़िद करतीं, मगर उनकी साँस उखड़ रही थी। बैठतीं तो सन्‍तुलन न रख पातीं। मेरे थामने के बावजूद लुढ़क जातीं। घर में इनहेलर था, मगर मुझे वह इस्‍तेमाल करना नहीं आता था। ममता को जगाया और उससे इस्‍तेमाल करने की विध पूछी। सुबह तक वह कुछ सामान्‍य हुईं। मुझ से बोलीं, ‘तुझे बहुत तंग करती हूँ न, रात को भी सोने नहीं देती।'

 

‘नहीं।' मैंने कहा, ‘ममता आपसे कहीं ज़्‍यादा तंग करती है।' उन्‍होंने मेरी बात की ताईद नहीं की। कुछ इस तरह मुस्‍करायीं जैसे समझ रहीं हों मैं उन्‍हें खुश करने की कोशिश कर रहा हूँ।

दोपहर बाद वह मूर्च्‍छा में चली गयीं, रात होते-होते उन्‍हें नर्सिंग होम में भर्ती कराना पड़ा और अगले रोज़ दोपहर को मूर्च्‍छावस्‍था में ही वह चल बसीं।

जिन दिनों मैं बीमार था वह भोर में उठकर मेरे लिए प्रार्थना किया करतीं। मेरी इतनी देखभाल तो उन्‍होंने मेरे शैशव में भी न की होगी। मैं जब स्‍वस्‍थ हो गया तो वह विदा हो गयीं। उनके अन्‍तिम संस्‍कार के समय मैं अपनी एक साध पूरी न कर सका, उनकी याद में सिगरेट का परित्‍याग करने की साध।

मां की मृत्‍यु हुई, तब तक मैं शराब से तौबा कर चुका था। पिता की मृत्‍यु के सदमे से तो मैं शराब पीकर ही उबर पाया था। उस दिन भी एसी ही ग्‍लानि और अपराधबोध हुआ था। यह एक ऐसा ग़म है जिसे शराब से ही ग़लत किया जा सकता है।

 

ममता कालिज के किसी काम से लखनऊ गयी हुई थी। मैंने सुबह जल्‍दी उठकर बच्‍चों को स्‍कूल रवाना किया और खुद प्रेस के काम में जुट गया। मशीनमैन दो दिन से छुट्‌टी पर था और भरोसा नहीं था कि उस दिन भी काम पर आयेगा या नहीं। एक ज़रूरी किताब छप रही थी, जिसे उसी दिन खरेजी को देने का वादा किया था। उन दिनों नर्मदाप्रसाद खरे जबलपुर से आकर इलाहाबाद में अपनी कुछ पाठ्‌यपुस्‍तकों का मुद्रण करवाया करते थे। जबलपुर में उनका अपना प्रेस था मगर उनके प्रकाशन का काम इतना अधिक था कि उन्‍हें वर्ष में एक बार इलाहाबाद आकर दूसरे प्रेसों से पुस्‍तकें छपवानी पड़ती थीं। मेरे ज़्‍यादातर ग्राहक साहित्‍यिक अभिरुचि के प्रकाशक थे। कुछ प्रकाशक तो ऐसे थे, जो दो-चार सौ रीम काग़ज़ डलवा कर दौरे पर निकल जाते थे और मैं अपने विवेक से मित्रों की पुस्‍तकें छापता रहता था। मेरा वृहत कथा संग्रह ‘गली कूचे', ज्ञानरंजन का ‘सपना नही' दूधनाथ सिंह का ‘पहला कदम', काशीनाथ सिंह का ‘अपना मोर्चा' आदि पुस्‍तकें इसी क्रम में प्रकाशित हो गयी थीं। खरेजी से भी मेरे अत्‍यन्‍त आत्‍मीय सम्‍बन्‍ध विकसित हो गये थे। वे जबलपुर से फोन कर के पुस्‍तक छपवा लेते थे, उनके हिसाब में काग़ज़ भी मिला जाता। वह अपनी बात के धनी थे और उन्‍होंने मुझे अनेक बार संकटों से उबारा था। उनसे पैसा मिल जाता था, मगर तयशुदा शर्तों पर ही। शर्तों का उल्‍लंघन करके उनसे एक पैसे की मदद नहीं मिल सकती थी। उस रोज़ खरेजी आने वाले थे और उनके आने से पूर्व मुझे उनकी एक पाठ्‌यपुस्तक के मुद्रण का काम पूरा करना था। उनका काम निपटाने के लिए मैं खुद मशीन पर जुटा था। श्रमिकों को साप्‍ताहिक भुगतान करना था और घर में एक बूँद दारू न थी। दारू के इन्‍तज़ाम का आश्‍वासन हो तो मैं दिन-रात बैल की तरह प्रेस के कोल्‍हू में जुत सकता था।

 

बच्‍चों को स्‍कूल के लिए रवाना करते ही मैं भूखे पेट काम में जुट गया। उन दिनों मालती रसोई का काम देखती थी। उसने आकर मशीन पर चाय दी। नाश्‍ता कराया। दोपहर का काम निपटा कर ही मैं मशीन पर से हटा। अभी बाथरूम में ही था कि कई बार टेलीफोन की घंटी बजी। उन दिनों टेलीफोन उठाने में रूह कांपती थी कि जाने स्‍याही वाले का तकाजा हो या काग़ज़ वाले का। काग़ज़िए बहुत सख्‍ती से वसूली करते थे, वक्‍त पर भुगतान न करने पर काग़ज़ की आपूर्ति रोक देते थे। बैंक में पैसे का जुगाड़ न हो तो मैं अनिच्‍छापूर्वक ही फोन उठाता था। दूसरों को भी फोन उठाने की मनाही थी। उस दिन फोन की कर्कश घंटी इत्‍मीनान से नहाने का भी अवसर न दे रही थी। कभी ब्‍लाक मेकर का ध्‍यान आता, कभी फाउंड्री के मालिक और कभी काग़ज़िए का। मैं चाहता था खरेजी आ जाएँ तो विश्‍वासपूर्वक बात करूँ। स्‍याही वगैरह प्रेस की सामग्री की नगर में अनेक दुकानें थीं, एक का उधार चढ़ जाता तो दूसरे के यहाँ से आपूर्ति हो जाती थी, मगर कागज़िए सभी सिड़ी किस्‍म के लोग थे। वे कुछ ऐसे दिन थे, पानी के लिए रोज़ कुआँ खोदना पड़ता था। उस दिन का कुआँ मैं खोद चुका था, इसलिए इत्‍मीनान से खरामः खरामः नहा रहा था। नहा धोकर मैं खरेजी और बच्‍चों के स्‍कूल से लौटने का इन्‍तज़ार कर रहा था कि फोन दुबारा सक्रिय हो गया। मैंने भी जिद ठान ली थी, जब तक खरेजी नहीं आयेंगे, फोन नहीं उठाऊँगा। कुछ देर प्रतिरोध के बाद मैंने रिसीवर उठा ही लिया।

 

फ़ोन जालंधर से था, हमारे पड़ोसी तारासिंह के बेटे का, जो जालंधर में टेलीफोन विभाग में काम करता था और अक्‍सर फोन पर कुशल क्षेम पूछ लिया करता था। तारा सिंह के बेटे ने एक आपरेटर की पेशेवर आवाज़ में बताया कि वह सुबह से यह खबर देने के लिए फोन मिला-मिला कर थक चुका है कि मास्‍टर सॉब यानी मेरे पिता नहीं रहे। यह शोक समाचार देकर उसने पेशेवर तरीके से ही फोन काट दिया।

पिता की बीमारी की मुझे कोई जानकारी न थी। उस आकस्‍मिक खबर के लिए मैं ज़रा भी तैयार न था। सच तो यह है अपने संघर्षों में इस बात को लगभग भूल ही गया था कि मेरे कोई माता-पिता भी हैं। उनसे पत्रों के आदान प्रदान तक रिश्‍ता सीमित रह गया था। हम लोग आपस में राज़ी खुशी के समाचारों का विनिमय करते रहते थे। गर्मियों की छुटि्‌टयों में वह कुछ माह हमारे साथ बिताकर पंजाब लौट जाते। इलाहाबाद ही उनके लिए हिल स्‍टेशन था। डी0ए0वी0 संस्‍थान से अवकाश ग्रहण करने के बाद उन्‍होंने पार्वती जैन स्‍कूल की स्‍थापना में सक्रिय योगदान दिया था और अपनी मृत्‍यु के समय तक वह उसके प्रिंसिपल थे। उनका आकस्‍मिक निधन स्‍कूल की कुर्सी पर बैठे-बैठे ही स्‍कूल परिसर में हुआ था। बगैर किसी पीड़ा अथवा पूर्व सूचना के। उस समय भी उनके हाथ में कलम थी। स्‍टाफ उन्‍हें इसी मुद्रा में बैठे देखता रहा और बहुत देर बाद पता चला कि उन का निधन हो चुका है।

 

उनके निध्‍ान का यों अचानक समाचार पाकर मैं भौंचक रह गया। मुझे अपने माता-पिता की बहुत तेज़ याद आई। यह सोचकर तो मेरी रुलाई फूट गयी कि अब मैं अपने पिता से कभी बात न कर सकूँगा और मेरी बूढ़ी मां संकट की इस घड़ी में नितांत अकेली होंगी। वह बहुत जल्‍द नर्वस हो जाया करती थीं। इस वक्‍त न जाने वह किस हालत में होंगी। मैं उड़कर किसी तरह इसी समय उनके पास पहुँच जाना चाहता था। मैं उड़कर तो पहुँचा मगर सिर्फ़ दिल्‍ली तक। बच्‍चों को मालती के हवाले कर मैंने किसी तरह बमरौली पहुँचकर दिल्‍ली का विमान पकड़ लिया था। दिल्‍ली से जालंधर पहुँचते-पहुँचते सुबह हो गयी। बीसियों बरस बाद एक ऐसी शाम आई थी कि मुझे शराब का ख्‍़याल भी न आया। मैं अजीब गनूदगी में रातभर यात्रा करते हुए जालंधर पहुँचा था, लगभग नीम बेहोशी की हालत में। मा के अकेलेपन की मैं सहज ही कल्‍पना कर सकता था। उनका जीवन साथी बीच सफर में उन्‍हें अकेला छोड़ कर चल बसा था। उनका पचास वर्ष से भी अधिक समय का साथ था।

 

जालंधर स्‍टेशन से रिक्‍शा में चिरपरिचित रास्‍तों से घर की तरफ़ बढ़ते हुए पिता की अनेक छवियाँ मन में कौंध-कौंध जातीं। कभी इन्‍हीं रास्‍तों पर उनके सायकिल के आगे की सीट पर बैठकर मैं बचपन में अनेक बार ग़ुज़रा था। वही सड़कें थीं और वही रास्‍ते, वैसे ही लोग, वैसी ही सुबह, सिर्फ़ मेरे पिता नहीं थे। एक किसान परिवार में जन्‍म लेकर उन्‍होंने अपने पाँव पर खड़े होकर ग्रेजुएशन किया था। शादी बचपन में ही हो गयी थी और वह घर से विद्रोह करके शहर चले आये थे। अनेक कठिनाइयों के बीच ट्‌यूशन करके और लैम्‍पपोस्‍ट के नीचे रात-रात भर पढ़ाई करके उन्‍होंने अपने को इस काबिल बनाया था। अपने सीमित साधनों और अथक परिश्रम से उन्‍होंने हम दोनों भाइयों और बहन को पोस्‍ट ग्रेजुएशन तक शिक्षा दिलवायी थी। मुझे याद आ रहा था, बचपन में जब हम भाई बहन जाड़े की सर्द रातों को रजाई में दुबके पड़े रहते, वह भोर पाँच बजे उठ कर ट्‌यूशन पढ़ाने निकल जाते। जब तक उनके लौटने का समय होता, हम स्‍कूल में होते। दिन भर स्‍कूल में पढ़ाने के बाद उन की ट्‌यूशनों की दूसरी पारी शुरू हो जाती। हमारे सोने के बाद ही वह लौटते। उन्‍हें देखे कई-कई दिन हो जाते। अपनी इसी खून पसीने की कमाई से उन्‍होंने जालंधर में मकान बनवाया था। अब उसी मकान में उनका पार्थिव शरीर पड़ा होगा। मुझे रिक्‍शे में घर लौटते हुए जीवन में पहली बार उनके संघर्षों की एक-एक शाम याद आने लगी।

घर पहुँचा तो रिश्‍तेदारों, पिता के शिष्‍यों, मित्रों की अच्‍छी-खासी भीड़ थी। मैं सीधा उस कमरे में पहुँचा जहाँ उनका पार्थिव शरीर रखा था। उन्‍हें देखते ही दिल में एक हूक सी उठी और रुलाई रोक न पाया। मां एक कोने में चुपचाप बैठी थीं। मुझे देखकर वह उसी प्रकार जड़वत बैठी रहीं। मेरी आशा के विपरीत वह अपेक्षाकृत संयत दिखायी पड़ रही थीं। लग रहा था उन्‍होंने इस कटु सत्‍य का घूँट पीकर हालात से समझौता कर लिया था। उनकी आँखें सूजी हुई लग रही थीं। मैं उनके पास सिर झुकाकर देर तक बैठा रहा।

दिन भर कुहराम मचा रहा। जब भी कोई रिश्‍तेदार परिवार आता, गली के बाहर से विलाप शुरू हो जाता। यशपालजी के उपन्‍यासों में मातम के जैसे दृश्‍य हैं, लगभग वैसा ही वातावरण निर्मित हो जाता। इस विलाप में टीस कम चीत्‍कार ज़्‍यादा लक्षित होता। मेरी मां ने कुछ ही घण्‍टों में ऐसे माहौल में सुस्‍थिर रहना सीख लिया था। यह शोकसभा का कर्मकाण्‍ड था। शोक का रिश्‍ता अन्‍तरात्‍मा से होता है, वह जितना मुखर होता है, उसी अनुपात में फूहड़ और हास्‍यास्पद हो जाता है। शोक के प्रदर्शन का यह सब से आसान और आदर्श तरीका था। शिक्षा के प्रसार के साथ मातम करने के तरीके में भी परिवर्तन आया है।

 

कमरे में पिता का पार्थिव शरीर रखा था और मुझे लग रहा था, उनको शान्‍ति की ज़रूरत है और ये लोग जैसे उनकी नींद में खलल डाल रहे थे। हम इस माहौल के लिए अभिशप्‍त थे। यह सब अपरिहार्य था। पुश्‍त दर पुश्‍त से चली आ रही इस परिपाटी का निर्वाह करना ही था।

मुझे अधिक समय तक इस यंत्रणा से न गुज़रना पड़ा। इस बीच पिता के शिष्‍यों, भाइयों, मित्रों ने उनकी अन्‍तिम यात्रा का प्रबन्‍ध कर लिया था। पिता की वह अन्‍तिम यात्रा अपूर्व थी। उनकी शवयात्रा के साथ एक अपार भीड़ चल रही थी। मुझे इसका एहसास ही नहीं था कि मेरे पिता शहर में इतने लोकप्रिय रहे हैं। मुझे धोती पहनायी गयी थी, जोे मैंने जीवन में पहली और अन्‍तिम बार पहनी थी। मैंने आत्‍मसमर्पण कर दिया था। समाज जैसा चाहता था, मेरा इस्‍तेमाल कर रहा था। मुखाग्‍नि मैंने ही दी। पिता की चिता की परिक्रमा करते हुए जाने कैसे मेरे कपड़ों ने आग पकड़ ली। मेरी धोती धू-धू जलने लगी। क्षण भर के लिए मुझे लगा, जैसे मेरे नहीं किसी दूसरे के कपड़े जल रहे हों। लोगों ने तत्‍परता से आग बुझाई। कई बाल्‍टी पानी मेरे ऊपर डाल दिया गया। मुझे ताज्‍जुब हो रहा था, मुझे उस आग से न दहशत हो रही थी और न ही मैंने आग बुझाने का कोई उपक्रम किया। पिता की चिता धू-धू कर जल रही थी और मेरे कपड़ों से पानी चू रहा था। मैं भीड़ से हट कर एक चबूतरे पर बैठकर पिता का अन्‍तिम संस्‍कार देखता रहा। मुझे लग रहा था, जैसे पिता की चिता के साथ-साथ मेरा बचपन, मेरी स्‍मृतियाँ, मेरा समूचा अतीत आज जलकर राख हो जाएगा। मैं जैसे मन ही मन एक-एक कर पिता की स्‍मृतियों की आहुति दे रहा था।

 

पिता से मेरा बहुत कम संवाद रहा था, पत्राचार तो और भी कम हुआ था। मुझे उर्दू में खत लिखने में कोफ़्‍त होती थी और त्रुटिपूर्ण अंग्रेजी में पत्र लिखना नहीं चाहता था। पिता से इन्‍हीं दो भाषाओं से पत्राचार किया जा सकता था। मैं जब अपने पिता के न चाहते हुए भी हिसार से लेक्‍चरारशिप छोड़ कर और दिल्‍ली से अचानक सरकारी नौकरी को धता बताकर मुम्‍बई रवाना हो गया तो अपने पिता को प्रभावित करने के लिए टाइम्‍स ऑफ इण्‍डिया के लैटर हैड पर उन्‍हें अंग्रजी में एक लम्‍बा पत्र लिखा। जवाब में उन्‍होंने मुझे अपने हिज्‍जे सुधारने की नेक सलाह दी और उन शब्‍दों के सही हिज्‍जे लिखकर भेजे जिन का मैंने ग़लत इस्‍तेमाल किया था। पत्र के साथ उन्‍होंने एक सफ़ेद काग़ज पर शब्‍दों के सही स्‍पेलिंग लिखे और उन्‍हें बीस-बीस बार लिख कर अभ्‍यास करने का मश्‍वरा दिया। उन्‍होंने यह भी सलाह दी कि मैं लोकल में यात्रा करते समय हिज्‍जे रटा करूँ। अब बताइए, वह मेरी हिज्‍जे याद करने की नहीं, शादी करने की उम्र थी और उस उम्र में मैं खाक़ हिज्‍जे रटता।

 

मेरे पिता एक जन्‍मजात अध्‍यापक थे, अगले कई पत्रें में वह सिर्फ़ हिज्‍जे याद करने की ताकीद करते रहे। नतीजा यह निकला की मैंने उन्‍हें पत्र लिखना ही छोड़ दिया और कभी ख़त लिखना ज़रूरी हो गया तो बार-बार शब्‍दकोश की मदद लेनी पड़ती। उनके आखिरी दिनों में मैंने उन्‍हें मुसीबत में एक पत्र लिखा, जब मकान की किस्‍तें समय पर अदा न करने के दण्‍ड स्‍वरूप आवास विकास परिषद ने जिलाधिकारी के माध्‍यम से मेरे नाम कुर्की के आदेश जारी करवा दिये थे। कुछ गफलत और कुछ तंगदस्‍ती की वजह से मैंने मकान की किस्‍तें वक्‍त पर जमा न की थीं। उन दिनों मेरे ऊपर प्रेस और मशीनों की किस्‍तों का इतना वज़न था कि उन्‍हें अदा करने में ही पसीने छूट जाते। दूसरे, मकान की किस्‍तें अदा करने से कहीं अधिक तस्‍कीन मुझे शराब से हासिल होती थी।

 

मकान मैंने खेल-खेल में ले लिया था। उन दिनों मैं सुबह-सुबह गंगा स्‍नान करने जाया करता था और गंगा तट पर बसी यह कालोनी मुझे बहुत आकर्षित करती थी और बगैर किसी खास तरद्‌दुद के एक भवन आबंटित हो गया था। उन्‍हीं दिनों कमलेश्‍वर ने भी इस कालोनी में एक भवन लिया था, मार्कण्‍डेय और शैलेश मटियानी को भी मैंने भवन आबंटित कराने के लिए प्रेरित किया। उमाकांत मालवीय ने भी कालोनी में मकान बनवा लिया था। सप्‍ताहांत पर विश्राम करने के लिए यह एक आदर्श स्‍थान था। सरकार मकान दे कर जैसे भूल चुकी थी, कभी कभार खानापूर्ति के नाम पर स्‍मरण पत्र चला आता था, जिसे मैंने कभी गम्‍भीरता से नहीं लिया था। सरकार की भी दाद देनी पड़ेगी कि जब तक आध पौन लाख रुपये का बकाया न हो गया, सरकार सोती रही और जब जागी तो कुर्की जारी कर दी।

इस दुष्‍चक्र से बाहर आने के लिए कोई रास्‍ता न सूझा तो मैंने पिता से मदद माँगी। उन्‍होंने पैसा तो भिजवा दिया मगर साथ में बहुत दर्दनाक पत्र भेजा। उन्‍हीं दिनों उन्‍होंने नौकरी से अवकाश ग्रहण किया था और उन्‍हें अपने संचित कोष से यह राशि भेजनी पड़ी थी। उनका पत्र पाकर मेरी तात्‍कालिक समस्‍या तो हल हो गयी, मगर मुझे बहुत ग्लानि हुई। उन्‍होंने अपने पत्र में अनेक शेर लिखे थे जो मेरी नालायकियों और गैरजिम्‍मेदारियों का भरपूर खुलासा करते थे। वह पत्र आज मेरे पास नहीं है वरना यहाँ उद्‌धृत करता। उस पत्र से मुझे दहशत होती थी, मैंने उसे मूल रूप में ही अपने आयकर रिटर्न के साथ दाखिल कर दिया, ताकि आयकर अधिकारी को भी मेरा कच्‍चा चिट्‌ठा मालूम हो जाए। जब-जब मैं वह पत्र पढ़ता था, मेरा कलेजा मुँह को आ जाता था और मैं एक दो पैग ज़्‍यादा पी जाता था। इसे मेरा दुर्भाग्‍य ही कहा जाएगा कि मेरे पिता का मेरे नाम वह अन्‍तिम पत्र था। उसके बाद उनकी मौत की ही खबर आयी थी।

 

अगले रोज़ घर में बहुत भीड़-भाड़ थी, मगर घर सूना हो चुका था। पिता का पार्थिव शरीर भी घर से उठ चुका था। घर में जगह-जगह उनकी चीज़ें बिखरी पड़ी थीं। खूँटियों पर कपड़े टंगे थे। बाथरूम में उनका शेविंग सेट पड़ा था। उनके जूते थे, मोजे थे, सिर्फ़ वह कहीं नहीं थे। मैं एक अजनबी की तरह घर में मौजूद था। मैं अपने चाचा लोगों और चाचियों को भी ठीक से न पहचानता था, अपने चचेरे भाइयों को पहचानना तो दूर की बात थी। मेरी दादी ने सात बेटे पैदा किये थे। एक चाचा मेरे बड़े भाई से और एक मुझ से छोटे थे। सबकी शादियाँ हम दोनों भाइयों की अनुपस्‍थिति में हो गयी थीं। मेरी घर में मौजूदगी भी अनुपस्‍थिति के बराबर थी। मैं ही अपने रिश्‍तेदारों से मुँह छिपाता घूम रहा था। सबसे मेरा परिचय करवाया जा चुका था, मगर संवाद के सूत्र न जुड़ पा रहे थे। मुझे लग रहा था हम लोग दो अलग-अलग ध्रुवों के लोग हैं। इन वर्षों में मेरी भाषा बदल चुकी थी, मेरा लिबास बदल चुका था। मैं एक ऐसा पेड़ था जिसकी जड़ें गायब हो चुकी थीं। एक जड़विहीन वृक्ष की तरह मैं सिर्फ़ काठ का पुतला बन कर रह गया था।

 

शाम तक मेरे लिए सब कुछ असहाय हो गया। मैं चुपके से घर से निकला और जाकर एक जिन का अद्धा खरीद लाया। उसे मैं कमीज़ के भीतर खोंसकर ले आया था। अब मुझे ऐसे कोने की तलाश थी, जहाँ बैठकर मैं अपने संसार में लौट सकूँ। एक दिन पहले श्‍मशान के जिस कोने में मैं देर तक बैठा था, उस जगह का बार-बार ख्‍़याल आ रहा था। घर के तमाम कमरे मेहमानों से भरे थे, कहीं औरतें बैठी थीं और कहीं बच्‍चों का साम्राज्‍य था। बुज़ुर्ग लोग ड्राइंग रूम में पसरे हुए थे। आसपास कोई ऐसा स्‍थान नहीं दिखायी दे रहा था जहाँ कुछ देर एकान्‍त में अपने भीतर की ज्‍वाला शान्‍त कर सकूँ। अपरिचय के इस माहौल में मेरी एल्‍कोहल की तलब यकायक बहुत प्रबल हो गयी थी। कुछ और न सूझता तो मैं टायलेट में जाकर अपनी हवस मिटा आता। जेठ के प्‍यासे की तरह मैं एक बूंद जल के लिए तड़प रहा था। अचानक मैंने पाया, घर में सब से ज़्‍यादा एकान्‍त रसोईघर में था। आज चूल्‍हा नहीं जला था। मैं रसोईघर में घुस गया और अन्‍दर से चिटखनी लगा ली। एक पटरा पड़ा था जिस पर बैठकर मेरी मां रोटियाँ सेंका करती थीं। मैं अपना गिलास थाम कर उसी पटरे पर बैठ गया। मैंने बिजली नहीं जलाई, रोशनदान से रोशनी का एक शहतीर दीवार पर गिर रहा था, मैंने उसी से काम चला लिया। पटरे पर बैठकर मैंने इत्‍मीनान से कारसेवा की। यहाँ किसी का दख़ल न था। उस मातमी माहौल में चूल्‍हा-चौका जैसे रो रहा था।

 

अचानक मुझे अपनी बहन की बहुत तेज़ याद आयी। वह इंगलैण्‍ड में थी और पिता से बेहद लगाव महसूस करती थी। माता-पिता दो एक बार इंगलैण्‍ड का दौरा कर आये थे। दोनों बाद लौट कर झेंपते हुए पिता मुझे एक बार दिल्‍ली में और दूसरी बार मुम्‍बई में ब्रांडी की एक बोतल दी थी। उनके सामान में सिगरेट का एक कारटन भी था, जो मैंने चुपके से निकाल लिया। मेरी बहन मेरे लिए यही दो चीज़ें भेजा करती थी। वह टाइयाँ भी भेजती थीं, जिन्‍हें मैं राखी की तरह इस्‍तेमाल कर लेता था या दोस्‍तों में बाँट देता था। टाई के फंदे से मैंने अपने को भरसक बचा कर ही रखा था। बहन का ख्‍़याल आते ही मैं रोने लगा। हो सकता है, उस समय मुझे रोने के किसी बहाने की तलाश थी। मैं जिन पीता जा रहा था और रो रहा था। कुछ जिन से और कुछ रोने से मेरा मन कुछ हल्‍का हुआ। मैंने वाशबेसिन पर अपना चेहरा धोया, आँखों पर पानी के छींटे डाले और रसोई में सौंफ ढूँढ़ने लगा। मुझे एक डिबिया में बड़ी इलायची और लौंग मिल गये। मैंने दो तीन लौंग इलायची मुँह में रख लीं और ड्राइंगरूम में बुज़ुर्गों से ज़रा हट कर एक कोने में बैठ गय। इस वक्‍त चाचा लोग नहीं थे, हो सकता हो वह भी कहीं एकान्‍त में कारसेवा कर रहे हों। कुछ समय वहाँ बिताकर मैंने दुबारा अपने को रसोईघर में बंद कर लिया।

(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)

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रचनाकार: रवींद्र कालिया का संस्मरण : ग़ालिब छुटी शराब (13)
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