“ ...पंडितजी ने सहज ही संजय गांधी की मृत्यु, राजीव के सक्रिय राजनीति में आने और विश्वनाथ प्रताप सिंह के मुख्यमंत्री बनने और चन्द्रशेखर क...
“...पंडितजी ने सहज ही संजय गांधी की मृत्यु, राजीव के सक्रिय राजनीति में आने और विश्वनाथ प्रताप सिंह के मुख्यमंत्री बनने और चन्द्रशेखर के प्रधानमंत्री के पद पर आसीन होने की भविष्यवाणी कर दी थी। उन्होंने वर्षों पूर्व मुझे चन्द्रशेखर के प्रधानमन्त्री बनने की तिथि तक बता दी थी। उन्होंने शायद 12 नवम्बर की तिथि बतायी थी और चन्द्रशेखर ने 11 नवम्बर को ही शपथ ग्रहण कर ली थी। पंडितजी ने मेरी धारणाओं, विश्वासों और मान्यताओं की चूलें हिला दी थीं। वह कुंडली देखते थे न हाथ, चेहरा देखकर ही भविष्यवाणी कर देते थे। इसे ज्योतिष तो नहीं कहा जा सकता, इलहाम ही कहा जा जाएगा। एक बार मेरे मित्र ने पंडितजी से पूछा कि उसकी शादी कब होगी, पंडितजी ने उसकी तरफ़ ग़ौर से देखा और बोले, आज ही तय हो जाएगी। दोपहर तक उसकी शादी सचमुच तय हो गयी।...”
-- इसी संस्मरण से
संस्मरण
ग़ालिब छुटी शराब
रवींद्र कालिया
मैं इलाहाबाद चला आया तो सहराई ने मुझे इलाहाबाद में भी खोज निकाला। इलाहाबाद में उसके और भी दोस्त थे। उसके दो एक उपन्यास ‘लोकभारती' ने भी प्रकाशित किये। इलाहाबाद में अक्सर वह सतीश जमाली के साथ नज़र आता। कभी-कभी ‘लोकभारती' में उससे भेंट हो जाती। उन दिनों सुदीप उनके उपन्यासों का हिन्दी अनुवाद कर रहे थे। भाषा के स्तर पर ये उपन्यास मूल उपन्यासों से कहीं अधिक प्रौढ़ और पठनीय थे। सहराई टोंटियों की ही नहीं, अपनी रचनाओं की मार्केटिंग में माहिर था। अपनी गलत-सलत हिन्दी में ही वह प्रकाशक पटा लेता था। ममता सहराई के तौर तरीकों को पसन्द न करती थी। इलाहाबाद में मैं उससे कन्नी काटने लगा। पंजाबी स्पष्टवादिता और खुलापन ममता को अटपटा लगता था। दूसरे मैं अपनी व्यक्तिगत समस्याओं में इतना उलझा हुआ था कि सहराई के उपन्यास का अनुवाद करने के लिए समय नहीं निकाल पा रहा था, जिसका अग्रिम पारिश्रमिक मेरे लिए सिरदर्द बना हुआ था। मेरे ऊपर प्रेस की मशीनों का इतना कर्ज़ था कि मेरे लिए वोरा एण्ड कम्पनी का कर्ज़ कोई विशेष महत्व न रखता था, उसपर सूद भी देय न था, मगर ममता ने मेरे पीछे पड़कर अनुवाद करवा ही लिया। कर्ज़ के मामले में वह बहुत भीरू थी, जबकि मैंने ज़िन्दगी में जो कुछ हासिल किया था, कर्ज़ से ही किया था। एक कर्ज की अदायगी होते न होते मैं दूसरा कर्ज़ उठा लेता। उन दिनों इतना भ्रष्टाचार नहीं था और सरकारी एजेंसियाँ और बैंक लघु उद्योगों को प्रोत्साहित करने के लिए कर्ज़ देने के लिए मारे-मारे फिरते थे। जब तक मैंने सहराई के उपन्यास ‘सभराओं' का अनुवाद न कर लिया, मैं उसके साथ लुकाछिपी का खेल खेलता रहा। वह इलाहाबाद आता तो खबर लगते ही मैं उसके लिए अनुपलब्ध हो जाता। भूले भटके मुलाकात हो भी जाती तो उसके सामने उपन्यास नहीं शराब प्रथम प्राथमिकता पर होती। अकेले पीना उसने सीखा ही न था। जो लोग अकेले पीते थे, सहराई को उनसे चिढ़ थी, ऐसे लोगों के लिए वह कहता-साले हस्तमैथुन करते हैं।
एक दिन सुबह-सुबह खबर मिली कि सहराई गम्भीर रूप घायल हो गया है और अस्पताल में भर्ती है। इसकी जानकारी किसी को नहीं थी कि वह कैसे घायल हुआ और किस अस्पताल में भर्ती है। वह इलाहाबाद आता तो रेलवे स्टेशन के रिटायरिंग रूम मे रुकता था। उसका पता ठिकाना जानने मैं उसी समय रेलवे स्टेशन पहुँचा। डारमेट्री में उसे खोज निकालने में ज़्यादा देर न लगी। डारमेट्री का हॉल अस्पताल का वार्ड लग रहा था। हॉल में दसियों बिस्तर लगे थे, कोई दातौन कर रहा था तो कोई शेव बना रहा था। सिर्फ़ सहराई था जो चादर ओढ़े सो रहा था। चादर पर खून के धब्बे थे। मुझे समझते देर न लगी कि यही सहराई का बैड है। चादर उठाकर देखा तो सहराई ही था। उसके सिर पर पट्टी बंधी थी। पट्टी ही नहीं, उसका तिकया, कमीज़ भी खून से लथपथ थे। रातभर में खून की पपड़ियाँ जम गयीं थीं। मैंने उसके पड़ोसी यात्रियों से दरियाफ़्त किया मगर किसी को खबर न थी कि वह कब आया और कैसे घायल हुआ। मैं नीचे प्लेटफार्म से उसके लिए गर्म-गर्म चाय का कुल्हड़ लेकर आया, उसे जगाया तो वह हमेशा की तरह तपाक से मिला। वह अपनी चोट से बेखबर था। वह चाय सुड़कते हुए मुझे गालियाँ देने लगा। पंजाब में गालियों से ही आत्मीयता प्रदर्शित की जाती है। मैने उससे पूछा कि उसकी यह हालत कैसे हो गयी तो उसे कुछ याद न था। उसे यह भी याद न था कि कैसे घायल हुआ और बिस्तर तक पहुँचा। वह खून से रंगे कपड़ों का निरीक्षण कुछ इस तरह कर रहा था जैसे किसी दूसरे के कपड़े देख रहा हो।
‘लगता है, रात को कहीं पैर फिसल गया होगा।' उसने आश्चर्य प्रकट किया, ‘पर यह पट्टी किसने बाँध दी?'
इलाहाबाद अफ़सानानिगारों का शहर है। दोपहर को ‘लोकभारती' से फोन आया कि कल रात शराब के नशे में सतीश जमाली ने उसे रेलवे स्टेशन के पुल से धक्का दे दिया था और वह किसी फिल्मी नायिका की तरह लुढ़कते हुए नीचे आ गिरा था। किसी रहमदिल यात्री ने उसे ‘फर्स्टएड' दिलवायी और कमरे तक पहुँचाया। दरअसल ‘लोकभारती' इलाहाबाद के लेखकों का थाना था। प्रथम दृष्टया रिपोर्ट इसी थाने में दर्ज होती थी। थाने में यह भी खबर थी कि रात को ही फोन पर जालंधर में उसके लड़कों को सूचना दी जा चुकी है, वे उसे लेने इलाहाबाद पहुँच रहे हैं। यह भी हवा में था कि उसके लड़के सतीश जमाली से बेहद खफ़ा हैं और उसे सबक सिखा कर ही जालंधर लौटेंगे। मैंने ‘सरस्वती प्रेस' फोन मिलाया तो मालूम हुआ जमाली भी छुट्टी पर है।
सतीश जमाली की स्थिति भी सहराई से भिन्न न थी। उसे भी कुछ याद न था। दिमाग पर दबाव देकर वह सिर्फ़ इतना बता पाया कि दोनों ने एक ढाबे में गटागट पूरी बोतल खाली कर दी थी और शराब पीकर काफ़ी हाउस पहुँचे थे। वहाँ उसने भगवतीचरण वर्मा से बदतमीज़ी की थी, जो साही, लक्ष्मीकांत वर्मा और विश्वम्भर मानव के साथ कॉफी पी रहे थे। उसने भगवती बाबू को देखते ही गुस्ताखी कर दी, ‘आप यहाँ क्या कर रहे हैं? आपको कॉफी हाउस में आने की इजाज़त किसने दी? उत्तेजना में भगवती बाबू का चेहरा सुर्ख हो गया था और वह खड़े हो गये थे। साही वगैरह ने आदरपूर्वक भगवती बाबू को बैठाया और कहा ‘भगवती बाबू छोड़िये, शराबी है।' यह भी पता चला कि रात को नशे में वे लोग दारू की तलाश में दूधनाथ सिंह के यहाँ भी गये थे। दूधनाथ ने स्थिति को भाँप कर दरवाज़ा ही न खोला था। अन्तिम बात जमाली को यह याद आई कि वह सहराई को छोड़ने स्टेशन जा रहा था कि पुल पर सीढ़ियाँ उतरते हुए सहराई लड़खड़ा गया और गेंद की तरह लुढ़कते हुए नीचे जा गिरा। यहीं पर जमाली का बल्ब फ्यूज़ हो गया था। उसे भी याद न पड़ रहा था, वह भी कैसे घर पहुँचा। यह भी हो सकता है कि वह इस डर से भाग निकला हो कि कहीं पुलिस केस न हो जाए।
सहराई पर इस घटना का कोई असर नहीं हुआ। कुछ की महीनों बाद मैंने देखा दोनों दारू की जुगाड़ में साथ-साथ टहल रहे थे। एक शाम वह रानीमंडी में भी प्रकट हुआ था। उस शाम मेरा इरादा अरविन्द कृष्ण मेहरोत्रा के साथ बैठने का था। याद पड़ रहा है, उस शाम हम लोगों ने न पीना ही मुनासिब समझा था। बाद में मैंने शराब छोड़ दी तो सहराई ने मुझे छोड़ दिया। इसी तर्क से जमाली से भी उसका तर्के ताल्लुकात हो गया। मुझे उम्मीद है हम लोगों की तरह अब तक सहराई का घड़ा भी भर चुका होगा।
हमारे मित्र उमेशनारायण शर्मा के शहर में बहुत सारे दोस्त थे। जो उनका दोस्त था, वह हमारा दोस्त हो गया और जो हमारा दोस्त था, वह उनका। उन्होंने छात्र राजनीति से जीवन शुरू किया था और राजनीति के प्रारम्भिक वर्षों में शहर की दो-चार इमारतों को आग लगा दी थी और उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल चुकी थी। उनकी शिक्षा-दीक्षा इलाहाबाद में हुई थी, शहर में उनके बीसियों सहपाठी थे। कोई डाक्टर बन चुका था तो कोई इंजीनियर। यही नहीं हर राजनीतिक दल में उनके नुमायंदे थे। वह सुबह का नाश्ता लोहियावादियों के साथ करते तो लंच भाजपाइयों के संग। रात का भोजन प्रायः कांग्रेसियों के साथ ही रहता। नौजवानों में वह अत्यन्त लोकप्रिय थे। पेशे से वह वकील थे। और वकालत की सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते इलाहाबाद उच्च न्यायालय में भारत सरकार के वरिष्ठ स्थायी अधिवक्ता के पद पर आसीन हो चुके थे। यह भी एक कारण था कि उन की जान-पहचान का दायरा बहुत वसीह था। समाज के प्रत्येक वर्ग में उनका दखल था। देश के चोटी के माफिया उनके मुवक्किल थे। वह पद देखकर मित्रता नहीं करते थे, मन्त्रियों से दोस्ती थी तो संतरियों से भी। पुलिस अधिकारियों के साथ उनका उठना-बैठना था तो अधिकारियों के स्टाफ का उमेशजी के साथ। उनकी महफ़िल में शायर भी नज़र आते और पत्रकार भी। मन में आता तो तरन्नुम में ग़ज़ल भी सुना देते, गोरख पाण्डे की कविताएँ उनकी ज़ुबान पर रहतीं। उनके यहाँ कभी-कभी काव्यपाठ का ऐसा वातावरण बन जाता कि दिल का डाक्टर फै़ज़ अहमद फै़ज़ की ग़ज़ल सुनाता तो दाँत का डाक्टर फिराक गोरखपुरी की। जगजीत सिंह की गायी ग़ज़लें तो होम्योपैथ डाक्टर भी सुना देता। उच्च न्यायालय के निबंधक गिरीश वर्मा तरन्नुम में ग़ज़लों का पाठ शुरू करते तो महफ़िल देर रात तक खिंच जाती। ऐसी महफ़िलों में ही आभास मिलता कि साहित्य जनमानस से उतना दूर नहीं गया है, जितना लोग समझ बैठे हैं। उमेशजी के साथ मैं ऐसे लोगों के यहाँ दावत में शरीक हो आया, जिन से दूर-दूर तक परिचय होने के इम्कानात न थे। यह कहना भी ग़लत न होगा कि वह हमारे शाम के गिरोह के सरगना थे।
उमेशजी को अपने यहाँ पार्टियाँ फेंकने का शौक था। उनके घर की व्यवस्था इतनी चुस्त-दुरुस्त रहती कि उनके यहाँ दो तीन दर्जन लोग भी आराम से भोजन कर लेते। बाटी चोखा का स्वाद मैंने पहली बार उनके यहाँ ही चखा था। उन दिनों वह खुसरोबाग रोड पर अश्कजी के पड़ोस में रहते थे। व्यापक परिसर के बीच में उनकी छोटी सी कुटिया थी। परिसर में आम, बेल आदि के बीसियों पेड़ थे। जाड़े के दिनों में उन्हीं पेड़ों के नीचे लकड़ियाँ जलायी जातीं और कैम्पफायर के माहौल में मदिरापान होता और बाटी चोखा का डिनर। अक्सर वह बहुत कम नोटिस पर पार्टी की सूचना देते या पिकनिक की। रात को अचानक फोन मिलता कि मूरतगंज नौटंकी देखने चलना है या अमरीकी दूतावास की किसी वरिष्ठ राजनयिक के साथ शाम बिताने का कार्यक्रम है। छुट्टी के किसी रोज़ किसी पार्क का मुक्तांगन अचानक मधुशाला में तब्दील हो जाता। इलाहाबाद के तमाम क्लबों में भी उमेशजी के साथ ही मदिरापान का अवसर मिला। उन्हें जानकारी रहती कि कौन बावर्ची कबाब बनाने में पारंगत है और कौन मछली के व्यंजन खिला सकता है। यह उन दिनों की बात है जब हमारा जिगर दरुस्त था, लक्कड़ हज़म और पत्थर हज़म करने में सक्षम था। दोपहर में बियर और जिन और शाम को विस्की का वज़न बर्दाश्त कर सकता था। मायावती के तथाकथित भाई हों या मुलायम सिंह के बाल सखा, नेहरुजी के चुनाव के प्रभारी या अमिताभ बच्चन के मामा, उमेशजी किसी से भी अचानक मिला देते।
इस गिरोह में हर तरह के लोग आते और आकर चले जाते, मगर स्थायी सदस्य वही रहते। इस में डाक्टर थे, वकील थे, पत्रकार थे, प्रशासनिक अधिकारी थे, दबंग थे, ज्वैलर्स थे, ट्रेडर्स थे, चीनी मिल के मालिक थे तो शीरे के व्यापारी भी। ऐसे-ऐसे लोगों से मुलाकात हो जाती जो रात के बारह बजे मुख्यमंत्री से फोन पर बतिया लेते। ‘वर्तमान साहित्य' के महाविशेषांक की योजना उनके यहाँ ऐसी ही पार्टी में बनी थी। विभूतिनारायण राय को साहित्य का कीड़ा काटा हुआ था और वह एक वृहत विशेषांक प्रकाशित करना चाहते थे, मगर वित्त की व्यवस्था न हो पा रही थी। उमेशनारायण शर्मा ने एक लाख के विज्ञापन की जिम्मेदारी ले ली और देखते ही देखते एक पखवारे में व्यवस्था भी कर दी। हम लोगों की छोटी मोटी समस्या का यों ही चुटकियों में समाधान हो जाता। बच्चों के किसी अच्छे नामी स्कूल में दाखिले की समस्या उठती तो उमेशजी गंगा तट पर किसी स्वप्निल फार्म हाउस में पार्टी का आयोजन करते कि उस स्कूल का प्रिंसिपल ही नहीं पूरा प्रशासन चला आता। हम लोगों को बच्चों के दाखिले के लिए दर-दर भटकना न पड़ा, ऐसी ही पार्टियों में दाखिले की व्यवस्था हो गयी और उस ज़हमत से बचाव हो गया, जो इन स्कूलों में दाखिले के लिए उठानी पड़ती है। वर्ना दाखिले के लिए परेशान बड़े-बड़े लोगों को लम्बी-लम्बी कतारों की शोभा बढ़ाते देखा जा सकता है।
हमारी मंडली में होम्योपैथ डाक्टर भी थे। डॉ0 एस0एम0 सिंह। वह इलाहाबाद के सबसे महँगे और आधुनिक होम्योपैथ थे। उनके क्लिनिक में सबसे पहले कम्पयूटर लगा था। वह दोस्तों और अफसरों का इलाज मुफ़्त करते थे। अफ़सरों के इलाज में उन्हें महारत हासिल थी, अफ़सरों का इलाज करते-करते उनकी आत्मा कृतकृत्य हो जाती। तमाम अधिकारियों का रक्तचाप उन्हें जुबानी याद रहता। किसी दोस्त के घर में ‘नक्स वोमिका' देखकर सहज ही अनुमान लगा लेता कि आजकल वह डॉ0 एस0एम0 सिंह से कब्ज़ का इलाज करा रहा है।
डाक्टरों, वकीलों के अलावा इन पार्टियों में पत्रकारों और शायरों की आमदरफ़्त रहती। उनके यहाँ इंजीनियर दिखायी देते तो ठेकेदार भी। उनके यहाँ सर्वधर्म सम्भाव नहीं तो सर्वदिल सम्भाव अवश्य देखा जा सकता था। जिस प्रकार शाम को मटके का नम्बर घोषित होता है, इसी शैली में शाम को पार्टी के स्थान की घोषणा होती। आठ बजे तक एक-एक कर सब कारसेवक निर्धारित स्थान पर पहुँच जाते। इन पार्टियों में गर्मागर्म राजनीतिक चर्चाएं होतीं, शेरोशायरी होती, चुटकलेबाज़ी होती और अगली पार्टी की भूमिका तैयार हो जाती। नदी के किनारे किसी रईस की ऐशगाह में बाटी चोखा का कार्यक्रम बन जाता अथवा छुट्टी की किसी गुनगुनी दोपहर में किसी पार्क या क्लब के कोने में बियर, जिन और चाट की काकटेल हो जाती।
मेरे तो ऐसे कई मित्र बन गये, जिनके अतीत की जानकारी थी न वर्तमान की। डॉ0 सुशील यादव से भी ऐसी ही किसी पार्टी में मुलाकात हुई थी। अब यह याद नहीं पड़ है रहा कि उन्हें मैं गिरोह में ले गया था या विभूतिनारायण राय। वह मेरे पड़ोसी ‘स्वतंत्र भारत' के संवाददाता प्रदीप भटनागर के मित्र थे। शायद वह ही उन्हें मिलाने ले आये थे। डाक्टर यादव पेशे से डॉक्टर थे, मगर ऊपर से नीचे तक राजनीति में पगे थे। झूँसी में उनका नर्सिंग होम था। उनकी महत्वाकांक्षाएँ अपने पेशे में कम, राजनीति में अधिक थीं। वह एक लम्बे अरसे तक मुलायम सिंह यादव की राजनीति से जुड़े रहे। मुलायम सिंह झूँसी स्थित उनके नर्सिंग होम भी आते, मगर डॉ0 यादव सपा की इलाहाबाद इकाई से तालमेल स्थापित न कर पाये। एक बार लखनऊ में मैंने ‘गंगा यमुना' के लिए इण्टरव्यू के दौरान मुलायम सिंह यादव से डाक्टर सुशील यादव का एक से अधिक बार ज़िक्र किया, मगर मुलायम सिंह ने उनपर कोई भी टिप्पणी न की। मुझे समझते देर न लगी कि सपा में उनकी दाल न गलेगी। डॉ0 यादव को भी इसका आभास हो गया होगा। शायद यही कारण था कि कुछ दिनों बाद अजीत सिंह इलाहाबाद आये तो वह डॉ0 सुशील यादव की गाड़ी में घूम रहे थे। डॉ0 यादव का एक ही पुत्र था, उत्सव। वह स्कूल में पढ़ता था। वह रोज़ झूँसी से उसे स्कूल छोड़ने और लेने आते। उसके जन्मदिन पर अपने यहाँ तमाम मित्रों को आमंत्रित करते और देर रात तक मौजमस्ती होती। उनकी पत्नी भी डाक्टर थीं, नर्सिंगहोम उन्हीं के बल पर चलता था। डाक्टर यादव झूँसी को अपने निर्वाचन क्षेत्र के रूप में विकसित करना चाहते थे और अक्सर साधनहीन लोगों का मुफ़्त इलाज करते। चुनाव से पूर्व टिकट वितरण के समय वह लखनऊ में डेरा डाल देते मगर हर बार खाली हाथ ही लौटते।
मेरे डाक्टर मित्रों में डॉ0 नरेन्द्र खोपरजी भी एक विलक्षण व्यक्ति थे। जब मैं उनसे प्रथम बार मिला तो वह पैथोलोजिस्ट थे। कुछ दिनों बाद उन्होंने अल्ट्रासाउंड में विश्ोषज्ञता हासिल कर ली और इलाहाबाद में पहला ‘डाप्लर' सिस्टम स्थापित किया। बीच में वह कई देशों का भ्रमण आये और उन्होंने बाँझपन और पुंसत्वहीनता पर कई कार्यशालाओं में भाग लिया। जब मैं ‘गंगा यमुना' का सम्पादन कर रहा था तो वह हमारे लिए यौन रोगों पर कॉलम लिखने लगे। इधर उन्होंने कृत्रिम गर्भाधान पर व्यावहारिक प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद अपनी पत्नी के सहयोग से अभिलाषा बाँझपन उपचार एवं अनुसंधान केन्द्र की स्थापना की है।
ऐसे ग़ैरमामूली आदमी का हमारे गिरोह में शामिल होना लाज़िमी था। गिरोह में शामिल होने की तमाम अर्हताएँ उनके पास थीं। इस गिरोह के सदस्य शायद ही दिन में कभी मिले हों, मगर सूरज गुरूब होते ही टेलीफोन की घंटियाँ टनटनाने लगतीं और देखते ही देखते आठ बजे तक महफिल जम जाती।
नरेन्द्र खोपरजी और मैं अलग-अलग पेशे में थे, मगर हम लोगों में कुछ समानताएँ थीं। एक समानता तो यही थी कि दोनों मद्यप्रेमी थे। पेशे से छुट्टी मिलते ही तमाम लोग बिल्कुल दूसरे इन्सान हो जाते थे, फक्कड़, मलंग और मुँहफट। यह डॉ0 नरेन्द्र खोपरजी के लिए ही संभव था कि अपनी पत्नी की उपस्थिति में अपने प्रेम प्रसंगों का सजीव वर्णन कर सकते थे। दूसरा कोई होता तो उसकी घिग्घी बंध जाती। अभिलाषाजी हमारी तरह उतने ही कौतुक और उत्सुकता से उनकी बातें सुनतीं, खोपरजी कोई गलती करते तो सुधार देतीं, ‘अरे यह प्रभा की नहीं विभा की बात है।' अगर खोपरजी कुछ भूल जाते तो वह कहतीं--अब ‘मंजू का किस्सा भी सुना दो।' पति-पत्नी के बीच ऐसा खुला संवाद कम ही देखने को मिलता है।
एक बार खोपरजी के साथ एक सांसद की बिटिया की शादी में जाने का अवसर मिला। सांसद मेरे भी मित्र थे, खोपरजी की मित्रता उस लड़की से थी, जिसकी शादी थी। अच्छी दावत की अपेक्षा में हम घर से जीभर कर कारसेवा (मद्यपान) करके निकले। लड़की ने कभी लड़कपन में प्रेम में निराश हो कर भावुकता के आवेश में खुदकशी का प्रयास किया था और ढेरों नींद की गोलियाँ निगल ली थीं। उस आड़े वक्त में डॉ0 खोपरजी ने ही उसे बचाया था। उस मुस्लिम परिवार में वह घर के सदस्य की तरह घुल-मिल गये थे। हम लोग भीड़ में राह बनाते हुए सीधे दूल्हा-दुल्हिन के पास पहुँचे। खोपरजी ने पहुँचते ही दूल्हे पर एक धौल जमाया और बोले, ‘कसबे, हमारी दुल्हनियाँ को ही भगाये लिये जा रहे हो।' दूल्हा इस हमले के लिए तैयार नहीं था, उसका चेहरा उतर गया। मैंने तुरन्त खुलासा किया कि डाक्टर बचपन से ही हर दुल्हन को अपनी दुल्हन समझने की भूल करते आ रहे हैं, आप इत्मीनान रखें। आज तो खैर यह नशे में हैं। डाक्टर ने मेरी बात का तुरन्त प्रतिवाद किया, ‘कौन कहता है, मैं नशे में हूँ, मियाँ मैं होशो-हवास में कह रहा हूँ कि यह मेरी दुल्हन है।' परिवार के तमाम सदस्य डाक्टर की बात पर हँस रहे थे, दूल्हा भी हँसने लगा। यह सब देखकर मैंने भी एक ज़ोरदार ठहाका बुलंद किया।
एक डॉ0 गौड़ थे, हड्डी के डाक्टर। उनसे भी मेरा परिचय इन्हीं महफिलों में हुआ था। एक बार मैं नशे में सीढ़ियाँ उतरते हुए ऐसा फिसला कि पैर में चोट लग गयी और एड़ी में ऐसा दर्द बैठ गया जैसे हड्डी टूट गयी हो। कई दिनों के घरेलू इलाज से भी आराम न मिला तो एक रोज़ सुबह-सुबह मन्नू और ममता मुझे घेर कर डॉ0 गौड़ के यहाँ ले गये। घ्ोर-घार कर इसलिए कि थोड़े बहुत दर्द के साथ जीने में मुझे कोई ज़्यादा परेशानी नहीं होती। बरामदे में बहुत से मरीज़ बैठे थे, हम लोग भी कतार में लग गये। गौड़ साहब का कम्पाउंडर एक-एक कर मरीज़ों को भीतर भेज रहा था। डॉ0 गौड़ के क्लीनिक के बाहर ऊँचा सा परदा लटका था। हम लोग अभी बैठे ही थे कि डॉ0 गौड़ ने आवाज़ दी-‘कालियाजी बाहर क्यों बैठे हो, भीतर चले आइए।' हम लोग भीतर पहुँचे तो उन्होंने बताया, वह मेरी चप्पल से मुझे पहचान गये थे। उन दिनों चप्पल ही मेरा ट्रेडमार्क थी। मेरा क्या, सन् साठ के बाद की पीढ़ी का चप्पल में अटूट विश्वास था। ज्ञानरंजन चप्पल पहने रोहतांग पास तक हो आया था तो मैं चप्पल पहने ही कई मुख्यमंत्रियों का अपने साप्ताहिक के लिए इण्टरव्यू ले आता था। काशीनाथ सिंह आज भी आप को काशी की गलियों में चप्पल चटखाते मिल जाएगा। वह हमप्याला दोस्त ही क्या हुआ, जो आप को चप्पल से न पहचान ले। लक्ष्मण देवर से एक कदम आगे ही होते हैं हमप्याला दोस्त।
डॉ0 सुशील यादव की देश राजनीति में ही दिलचस्पी नहीं थी, वह देश के भविष्य, इंजीनियरों, डाक्टरों की लूटखसोट और भ्रष्टाचार के प्रश्न पर आन्दोलित रहते। खोपरजी जितने ही खुले थे, डॉ0 सुशील उतने ही बंद। उनके व्यक्तित्व की खिड़कियाँ राजनीति की तरफ़ खुलती थीं या ज्योतिष और तंत्र-मंत्र की तरफ। अपने मरीज़ों के इलाज के साथ-साथ वह उनके लिए थाना, कोर्ट, कचहरी भी करते। उन्हें विश्वास था कि झूँसी की यह महान जनता एक दिन उन्हें विधान सभा तक पहुँचा देगी। उनसे सम्पर्क होता तो लगता इस बार वह टिकट लेकर ही लौटेंगे, मगर हर बार उन्हें खाली हाथ ही लौटना पड़ता। लखनऊ से निराश लौटने के बाद वह नये सिरे से ज्योतिषियों से सम्पर्क साधते। बाहर से भी कोई ज्योतिषी आता तो डॉ0 यादव को इसकी खबर रहती। वह किसी तांत्रिक से कोई अनुष्ठान करवाते और नये सिरे से राजनीति में सक्रिय हो जाते। धीरे-धीरे वह इस निष्कर्ष पर पहुँच गये थे कि राजनीति में बुद्धिजीवियों और ईमानदार लोगों का कोई भविष्य नहीं है। महिफ़ल में राजनीति पर बात होती तो वह हिस्सा लेते, इश्क माशूक और सेक्स वैक्स में उनकी कोई दिलचस्पी न थी। मुझे वह हमेशा ‘दिल विल प्यार-व्यार मैं क्या जानू रे' किस्म के शख्स लगते थे।
एक दौर ऐसा भी आया, डॉ0 यादव की दिलचस्पी राजनीति में कम ज्योतिष और तंत्र में अधिक नज़र आने लगी। बैरहाना का एक छोटा सा कृशकाय ज्योतिषी प्रायः उनके साथ देखा जाता। वह प्रदेश और केन्द्र सरकार के भविष्य पर अटकलें लगाता रहता-‘डाक्टर साहब उन्तीस तक सरकार ज़रूर गिर जाएगी, बस ज़रा शनी में शुक्र चलने दीजिए।' वह सिगरेट पीता था न शराब। एक रोज़ हम लोग अपनी कमज़ोरियों पर चर्चा कर रहे थे, कोई अपनी शराब की लत से परेशान था तो कोई तम्बाकू की आदत से। मैंने चुटकी ली कि हम सब में द्विवेदीजी सब से सुखी आदमी हैं, इन्हें शराब की तलब होती है न तम्बाकू की। मेरी बात से द्विवेदीजी जैसे आहत हो गये, उन्होंने कहा, ऐसी बात नहीं है भाई साहब, मैं भी बहुत परेशान रहता हूँ।
‘आपकी क्या परेशानी है?' डाक्टर साहब ने पूछा। द्विवेदीजी ने झेंपते हुए कहा, ‘मुझ में भी एक कमज़ोरी है। दरअसल, मैं बहुत कामुक हूँ।' पंडितजी की बात सुनकर सब लोगों का बहुत मनोरंजन हुआ। डेढ़ पसली के उस पंडित ने बताया कि वह भी क्या करे, उसका शुक्र बारहवें पड़ा हुआ है। यह उसकी नियति है।
‘ऐसी कामुकता भी किस काम की।' डॉ0 यादव ने बताया, पंडितजी की शादी को तीन बरस हो गये हो मगर अभी तक संतान का सुख नहीं मिला। डाक्टर यादव अपनी पहचान की राजनीतिक हस्तियों से भी ज्योतिषियों को मिलाते रहते थे। इससे बड़े से बड़े नेता के यहाँ उन्हें आसानी से प्रवेश मिल जाता था। एक बार डाक्टर यादव ने एक मन्त्री से द्विवेदीजी को मिला दिया। मन्त्रीजी की पत्नी हमेशा गहरे अवसाद में रहती थीं, बहुत इलाज करने पर भी वह ठीक न हुईं, तो डाक्टर यादव ने द्विवेदीजी की सेवाएँ प्रस्तुत कीं। द्विवेदीजी ने मन्त्रीजी की कुंडली का देर तक अध्ययन किया और बोले, ‘मन्त्रीजी, आप की पत्नी को कटि के नीचे के रोग हैं।' यह सुनकर मन्त्रीजी की पत्नी आगबबूला हो गयीं और उसने द्विवेदीजी को ऐसी फटकार लगायी कि उसके बाद डाक्टर यादव का भी मन्त्री से सम्पर्क करने का दुबारा साहस न हुआ। इस प्रकरण में पण्डित द्विवेदी का अधिक दोष नहीं था। हमेशा की तरह घबराहट में उन्हें सही समय पर सही शब्द नहीं मिला था। वह कहना चाहते थे कि जातक को कब्ज़ की शिकायत है। कब्ज़ का सही इलाज हो जाएगा तो अवसाद की शिकायत भी न रहेगी। कटि के नीचे का यह प्रसंग ‘चिकुरजाल' की तरह लोकप्रिय हो गया था और उनके तमाम यजमानों को इस की खबर लग चुकी थी।
डॉ0 यादव कई बार ऐसे बीहड़ किस्म के भविष्यवक्ताओं को लेकर चले आते कि उन लोगों डर लगने लगता। ऐसा ही एक ज्योतिषी पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आया था। मैं पहली बार किसी गैरब्राह्मण ज्योतिषी से मिला था, जो जाति से गुप्ता था। ममता को देखते हुए उन्होंने बताया कि आप वृष लगन में पैदा हुई हैं। इनके शनि और वृहस्पति बारहवें में पड़े हो। देखते ही देखते उन्होंने ममता की जन्म कुंडली बना दी, जो वर्षों पहले कम्प्यूटर से बनवायी गयी कुंडली की हू-ब-हू प्रतिलिपि थी। किसी ज़माने में यह सज्जन उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री चन्द्रभानु गुप्त के पारिवारिक ज्योतिष थे। चन्द्रभानु गुप्त उनके मश्वरे से ही महत्वपूर्ण निर्णय लिया करते थे। चन्द्रभानु गुप्त बीमार पड़े तो गुप्तजी को बुलवा भेजा। गुप्ताजी ने उन्हें लेटे देखा तो बोले, ‘गुप्तजी, अपने तमाम चाहने वालों को बुलवा लीजिए, आपका आखिरी वक्त आ गया है।' यह घटना बताकर वह हो-हो कर हँसने लगे। मुझे उनसे बहुत भय लगा, जाने यह कब क्या कह दें।
बीच में एक ऐसा दौर आया था कि, मेरी भी ज्योतिष में गहरी दिलचस्पी हो गयी थी। मैंने ज्योतिष के ग्रन्थों का विपुल भण्डार इकट्ठा कर लिया था और सोलह-सोलह घंटे उनके पारायण में व्यस्त रहने लगा था। अमरकान्तजी ने मेरा जुनून देखकर मश्वरा दिया कि मैं अपने क्षेत्र में इतना समय दूँ तो ज़्यादा सार्थक होगा। लगता है यह शौक भी मुझे विरासत में ही मिला था। मेरे नाना अपने इलाके के प्रख्यात ज्योतिषी थे। ननिहाल में यजमानों का ताँता लगा रहता था। मेरे सामने एक नये जगत के द्वार अनायास खुल रहे थे। मैंने अमरकांतजी की राय पर अमल किया और इस अनुशासन से समय रहते मुक्ति पा ली। मुझे लगा, यह एक ऐसा रहस्यमय एवं गोपन संसार है, इसमें वही पारंगत हो सकता है, जो पूर्णरूप से इसी विद्या को समर्पित हो जाए। मैं जितना अध्ययन करता, उतना ही अपनी अल्पज्ञता का आभास होता। इस सागर को वही पार कर सकता था जो इसी में डूब जाए।
ज्योतिष के प्रति मेरा लगाव अचानक नहीं विकसित हो गया था। एक बार मेरे मित्र जगदीश पीयूष ने सुलतानपुर में मुझे पं0 रामचन्द्र शुक्ल से मिलवाया। पंडितजी ने अत्यन्त सहजरूप से कुछ बातें बतायीं, जो इतनी सही निकलीं कि मेरी तमाम धारणाएँ ध्वस्त हो गयीं। पंडितजी ने सहज ही संजय गांधी की मृत्यु, राजीव के सक्रिय राजनीति में आने और विश्वनाथ प्रताप सिंह के मुख्यमंत्री बनने और चन्द्रशेखर के प्रधानमंत्री के पद पर आसीन होने की भविष्यवाणी कर दी थी। उन्होंने वर्षों पूर्व मुझे चन्द्रशेखर के प्रधानमन्त्री बनने की तिथि तक बता दी थी। उन्होंने शायद 12 नवम्बर की तिथि बतायी थी और चन्द्रशेखर ने 11 नवम्बर को ही शपथ ग्रहण कर ली थी। पंडितजी ने मेरी धारणाओं, विश्वासों और मान्यताओं की चूलें हिला दी थीं। वह कुंडली देखते थे न हाथ, चेहरा देखकर ही भविष्यवाणी कर देते थे। इसे ज्योतिष तो नहीं कहा जा सकता, इलहाम ही कहा जा जाएगा। एक बार मेरे मित्र ने पंडितजी से पूछा कि उसकी शादी कब होगी, पंडितजी ने उसकी तरफ़ ग़ौर से देखा और बोले, आज ही तय हो जाएगी। दोपहर तक उसकी शादी सचमुच तय हो गयी। एक बार अमरकांतजी ने पंडितजी से कहा कि आप सब को कुछ न कुछ बताते रहते हैं, मुझे बताइए कि कुछ धन की प्राप्ति होगी कि नहीं। पंडितजी ने बताया कि बाईस तारीख को उनके पास कहीं से अचानक धन आएगा। इक्कीस तारीख तक अमरकांतजी पंडितजी की बात का उपहास उड़ाते रहे, बाईस को वह दफ़्तर से एक लिफ़ाफा लिए हुए प्रकट हुए, हिन्द पाकिट बुक की तरफ़ से उनके पास तीन हज़ार रुपये का ड्राफ़्ट आया था।
शराबी बीमार पड़ता है तो शराब की बहुत फजीहत होती है। मैं बीमार पड़ा तो शराब मुफ़्त में बदनाम होने लगी। मुझे इस बात की बहुत पीड़ा होती, कुछ-कुछ वैसी, जो आपके प्रेम में पड़ने पर आप की माशूका की होती है। जब लोग उसे आवारा समझने लगते हो। कुछ लोग पे्रम को चरित्र का दोष मान लेते हैं। शराब तो इतनी बदनाम हो चुकी है कि शराबी को मलेरिया भी हो जाए तो लोग सारा दोष शराब के मत्थे मढ़ देंगे। मेरी बीमारी का यही हश्र हुआ। लोगों की समझ में सहसा अनेक बातें स्पष्ट हो गयीं। एक तो यही कि मैं जीवन भर घटिया लेखन क्यों करता रहा हूँ या मैंने महल क्यों नहीं खड़े कर लिए, संसद में क्यों नहीं पहुँच पाया। शराबी बीमार पड़ता है तो सब से पहले वह बिरादरी बाहर हो जाता है। दरअसल वह बिरादरी के काम का ही नहीं रहता। बिरादरी को उसके चेहरे पर बहुत जल्द अपना भविष्य नज़र आने लगता है, ऐसा भविष्य जिसे कोई देखना नहीं चाहता। डाक्टर मित्रों ने भी मुझे बट्टे खाते डाल दिया। हड्डी का डाक्टर कह सकता था, मुझे फ्रेक्चर नहीं हुआ, इसलिए नहीं आया। दाँत का डाक्टर जानता था मेरे दाँत सही सलामत हो, दिल के डाक्टर ने मुझे जिगर के डाक्टर का फोन नम्बर बता दिया।
बीमारी के दौरान मैं अक्सर कहा करता था- सारियाँ बीबियाँ आइयाँ, हरनामकौर न आई। यानी सब डाक्टर मित्र आकर देख गये, हरनाम कौर देखने नहीं आई थी। मेरी एक नहीं दो हरनाम कौरें थीं- डॉ0 एस0एम0 सिंह और डॉ0 सुशील यादव। डॉ0 सिंह शहर के नामी होम्योपैथ थे, उनकी पत्नी पार्टी में नहीं होती थीं तो वह शराब भी चख लेते थे और पीकर बहुत भावुक हो जाते थे। मैं भी झोलाछाप होम्योपैथ था और वक्त ज़रूरत उनसे राय मश्वरा किया करता था। मैं चाहता था, वह आकर मुझे देख जाएँ और इसकी तस्दीक कर दें कि मैं अपना सही इलाज कर रहा हूँ। डाक्टर एस0एम0 सिंह वादा करके भी नहीं आये। मैं उनकी प्रतीक्षा करते करते स्वस्थ होने लगा। इस में डाक्टर सिंह को दोष नहीं दिया जा सकता, हो सकता है उन दिनों कोई उच्च अधिकारी बीमार पड़ा हो। जिला प्रशासन के वह सबसे चहेते डाक्टर थे। वह व्यक्ति नहीं, पद के डाक्टर थे। आयुक्त, पुलिस महानिरीक्षक और महापौर अ ओ या ब हो या स ही क्यों न हो, वह डाक्टर एस0एम0 सिंह से बच नहीं सकता। अफ़सर को बवासीर हो या कोई गुप्त रोग, हमारे डाक्टर उसे अपना मरीज़ बना ही लेते थे। कुछ दिनों बाद वह उनकी शरणागत हो जाता। आज डाक्टर एस0एम0 सिंह मिलते हैं तो यह ज़रूर पूछ लेते हैं, मैं उनसे नाराज़ तो नहीं हूँ।
मेरी दूसरी हरनाम कौर डाक्टर डॉ0 सुशील यादव थे। मैं बीमार पड़ा तो उन्होंने भी मुझसे अफ़सानानिगारी और बेनियाज़ी शुरू कर दी। वह झूँसी में रहते थे, उन दिनों झूँसी का फोन बहुत मुश्किल से मिलता था, अक्सर यही सुनने को मिलता कि इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं। खाट पर लेटे-लेटे मैं उनसे रूठ गया था। वह विभूतिनारयण राय के भी मित्र थे। विभूति उन दिनों श्रीनगर में थे, वह भी मुझे आकर देख गये थे। विभूति अक्सर डॉ0 सुशील की गाड़ी में ही आते थे, डॉ0 सुशील उपलब्ध न होते तो हरिश्चन्द्र अग्रवाल के साथ। दोनों न मिलते तो वह विनोद शुक्ल के स्कूटर के पीछे बैठकर चले आते। स्कूटर पर बैठने में भी संकोच न करने वाले वह देश के प्रथम आई0जी0 या डी0आइ0जी0 होंगे। एक भी दिन थे डॉ0 सुशील से हम लोगों का सम्पर्क न हो पाता तो, वह शाम तक सूंघते-सूंघते हम लोगों को खोज निकालते थे। वह एलोपैथी के डाक्टर थे, खुद बीमार पड़ते तो होम्योपैथी की दवाएँ लेने में भी संकोच न करते।
एक बार दिल्ली में उनसे भेंट हो गयी थी। उनकी पत्नी उन दिनों नर्सिंग होम के अलावा ‘इफ्को' में भी काम करती थीं। डॉ0 सुशील यादव पत्नी के ही किसी काम के सिलसिले में दिल्ली आये हुए थे। वह अशोक यात्री निवास में ठहरे थे और मैं बगल के एक पाँच या तीन सितारा होटल में अपने मित्र दीपक दत्ता का अतिथि था।
दीपक दत्ता इलाहाबाद का एक उभरता हुआ लधु उद्योगपति था। नैनी औद्यौगिक क्षेत्र में उसके पास एक व्यापक भूखंड था, जिसमें उसका साफ्टड्रिंक्स का प्लांट था। उन दिनों उसके पास कैम्पा कोला का फ्रेंचाइज़ था। जब तक इस देश की धरती पर कोका कोला और पेप्सी के कदम नहीं पड़े थे, उसका प्लांट तीन-तीन शिफ़्टों में चलता था और थोड़ी-थोड़ी देर के अन्तराल के बाद उसके प्लांट से कैप्पा कोला से लदे ट्रक रवाना होते रहते थे। देश के तापमान के साथ-साथ उसका टर्न ओवर बढ़ता जाता और उसे अपने व्यवसाय के सिलसिले में अक्सर दिल्ली जाना पड़ता। कभी क्राउन खत्म हो जाते और कभी कन्सेन्ट्रेट। उसके पास जितना पैसा आता उसी अनुपात में वह कर्मकाण्डी होता जाता। वह सुबह जम कर पूजा पाठ करता और उन दिनों उसने ललिता देवी के मन्दिर के जीर्णोद्धार का बीड़ा भी उठा रखा था।
वसन्त पंचमी के आसपास प्रतिवर्ष उसके प्लांट की ओवर हालिंग होती और शुभ मुहूर्त में सत्रारम्भ होता। दो एक बार मैंने उसके प्लांट का उद्घाटन किया था। मेरी उससे मित्रता हो गयी और सालभर कैम्पा और सोडा की अबाधित आपूर्ति होती रहती। सोडा मिलाकर विस्की पीने का आनंद ही दूसरा था, तब तो और भी ज़्यादा, अगर कम से कम सोडा तो मुफ़्त का मिले। कभी-कभी दीपक अनुरोध करके मुझे भी अपने साथ दिल्ली ले जाता। दिल्ली पहुँचते ही उसका कायाकल्प हो जाता। होटल में ‘चैक इन' करते ही वह सैलून में घुस जाता और दो चार सौ रुपये खर्च करके बाल कटवाता, शेव बनवाता। होटल का एक-एक कर्मचारी उससे परिचित था। सब लोग उसकी सेवा में जुट जाते और वह फराख़दिली से बख्शीश बाँटता हुआ अपने ‘स्यूट' में पहुँचता। शाम को कैम्पा कोला के अधिकारियों का जमघट लग जाता। उसके सभी काम होटल में बैठे-बैठे हो जाते। इस जनसम्पर्क से ही उसकी अनेक व्यावसायिक कठिनाइयाँ दूर हो जातीं। उसके होटल के कमरे में रात देर तक पार्टी चलती और स्कॉच बहती।
एक दिन शाम को दीपक, डॉ0 यादव और मैं होटल में बैठे कारसेवा कर रहे थे कि एक सरदारजी दीपक से मिलने आये। वह कम्पनी के वरिष्ठ मार्केटिंग अधिकारी थे। उनके साथ एक महिला थीं। वह महिला अलग थलग एक ओर सोफ़े पर बैठ गयीं। दीपक ने सरदारजी से पूछा कि यह साफ़्ट ड्रिंक लेंगी या जिन वगैरह मंगवायी जाए। सरदारजी ने कहा कि इन्हीं से क्यों नहीं पूछ लेते। दीपक पूछता इससे पहले ही उस महिला ने बताया कि वह रम ले लेंगी। दीपक ने उनके लिए एक रम का पैग बना दिया। उसने ‘चियर्स' कहा और दो चार घूँट में ही गिलास खाली कर दिया। इससे इतना स्पष्ट हो गया कि वह महिला सरदारजी की पत्नी नहीं थी। आखिर मैंने सरदारजी से पूछा कि उन्होंने अपनी महिला मित्र का परिचय नहीं करवाया। सरदारजी खीसें निपोरने लगे। पता चला सरदारजी का भी उनसे परिचय नहीं है। बाद में पता चला सरदारजी लिफ़्ट की तरफ बढ़ रहे थे कि अचानक उनकी नज़र लॉबी में बैठे लोगों पर पड़ी तो इस महिला से आँखें चार होते ही वह क्षण भर को ठिठक गये थे। सरदारजी की आँखों में निमंत्रण का एक ऐसा भाव था कि वह उठ कर कच्चे धागे से बंधी इनके साथ कमरे तक चली आयीं। उस महिला ने रम का एक और पैग लिया और इस कमरे में ज़्यादा समय नष्ट करना मुनासिब न समझा। वह शायद यह सोचकर चली आयी थी कि सरदारजी अपने कमरे में जा रहे हैं, उसे अगर यह आभास होता, वह किसी दूसरे से मिलने जा रहे हैं तो शायद उनके साथ न आतीं। उस महिला ने सरदारजी को अपना विज़टिंग कार्ड दिया और विदा लेकर खट-खट करती हुए दरवाज़ा खोलकर निकल गयीं। दरवाज़ा उनके पीछे धीरे-धीरे बंद हो गया।
हम लोग देर तक सरदारजी की पारखी निगाह की दाद देते रहे। सरदारजी ने इस तरह के कई किस्से सुनाये। हम तीनों इलाहाबादियों की इस घटना पर अलग-अलग प्रतिक्रिया थी। दीपक के लिए यह सामान्य घटना था, मैं बच्चों की तरह जिज्ञासु हो रहा था, डॉ0 यादव इस घटना के प्रति उदासीन थे। वह एक तटस्थ तमाशाबीन की तरह चुपचाप सिगरेट फूँकते रहे। हम सब लोगों ने महिला के विज़िटिंग कार्ड का सूक्ष्म निरीक्षण विश्लेषण किया, डा0 यादव ने कार्ड छूने में भी कोई दिलचस्पी न दिखायी। वह उम्र में मुझसे बीस बरस छोटे होंगे, मगर अपनी उम्र से कहीं अधिक धीर गम्भीर थे। दिल्ली में दिन भर वह अपने परिचित सांसदों और मन्त्रियों से सम्पर्क और करते। उनकी जीवन शैली से प्रभावित होकर लौटते। वह भी उनकी तरह ही जनता और सुरक्षाकर्मियों से घिरे रहना चाहते। उन्हें लगता, वह कहीं अधिक निस्वार्थ भाव से जनता की सेवा कर सकते हैं। बाद में जब इलाहाबाद में उनके पिता डॉ0 रामलाल सिंह के एक शिष्य सतीशचन्द्र यादव वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक नियुक्त हुए तो डॉ0 यादव ने सबसे पहले अपने लिए एक सुरक्षा गार्ड की माँग की, जो उन्हें मिल भी गया। उन दिनों उनका आत्मविश्वास देखने लायक था।
मेरे बीमार पड़ते ही गिरोह छिन्न-भिन्न होने लगा। गिरोह के कुछ स्थायी सदस्यों का इलाहाबाद से स्थानांतरण भी हो गया। जब तक मेरी जाँच चलती रही, मैं दफ़्तर भी जाता रहा। जाँच की रिपोर्ट आते ही मेरा मनोबल टूट गया और मैं खटिया से जा लगा। गिरोह के सदस्यों के मैं किसी काम का न रहा था। यह गिरोह का अघोषित नियम था कि, जो मतवाला महफिल से उठ गया, वह उसके लिए जैसे दुनिया से उठ गया। दोस्तों ने मेरा भी सामाजिक बहिष्कार कर दिया। वहाँ केवल स्वस्थ सदस्यों के लिए स्थान था। शराब के अतिचार से बीमार पड़ना गिरोह के लिए शर्म की बात थी। जो शख्स बीमार पड़ता, वह इसी प्रकार निर्वासन में चला जाता। गिरोह का ध्यान आकर्षित करने के लिए गम्भीर रूप से बीमार पड़ना ज़रूरी था। साल में एक बार उमेशनारायण शर्मा यह काम किया करते थे। जाने उन पर किस ग्रह की छाया थी कि हर वर्ष नवरात्रि के दिनों में गम्भीर रूप से बीमार पड़ते। यह क्रम कई वर्षों तक चला। जाने उनकी नाक से कितना खून बहा होगा। वह किसी नर्सिंग होम भरती हो जाते और बाहर दोस्तों की तांता लगा रहता। स्वास्थ्य लाभ कर वह कुछ सप्ताह बाद पहले की तरह जाम टकराते नज़र आते।
मां अभी जीवित थीं और मेरे स्वास्थ्य में लगातार सुधार हो रहा था कि एक दिन आखिर डॉ0 सुशील यादव भी रात को अचानक मुझे देखने चले आये। उस रोज़ उन्होंने मां का हालचाल भी न पूछा था, मां का रक्तचाप भी नहीं लिया, सीधा ऊपर चले आये। मैं पीठ पर तकिया लगाकर लेटा था और ‘आजतक' की प्रतीक्षा कर रहा था। ‘आजतक' के समाचार सुनकर मैं सोने चला जाता था। वर्षों बाद ऐसा हुआ था कि डाक्टर साहब आये और हम लोगों ने मदिरापान न किया। मेरी मेज़ साफ़ थी, उसपर बोतल के स्थान पर ग्लूकोज़ और दीगर दवाएँ पड़ी हुई थीं। डाक्टर ने मेरी जाँच की विभिन्न रपटें देखीं। उनका चेहरा सामान्यतया कठोर रहता था, रिपोर्ट वगैरह देखकर वह और गम्भीर हो गये। मैं ही नहीं, मेरे डाक्टर भी मेरे स्वास्थ्य लाभ से सन्तुष्ट थे, मगर डॉ0 यादव इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि मैं अभी खतरे से बाहर नहीं हूँ। उन्होंने बताया कि उनके कई मित्र लिवर सिरोसिस की चपेट में आकर प्राण गँवा चुके है, मेरी रिपोर्ट देखकर भी वह आश्वस्त नहीं लग रहे थे। उन्होंने देर तक मेरे अल्ट्रासाउण्ड का भी अध्ययन किया। तब तक अपने रोग के बारे में मैं भी पर्याप्त जानकारी हासिल कर चुका था। वह तालीमयाफ़्ता डाक्टर थे, मैं उनसे बहस में नहीं पड़ना चाहता था। मुझे लग रहा था, आज वह प्रचण्ड मनःस्थिति में हैं। मैंने देश के सूरते हाल पर चर्चा करने की कोशिश की, उन्होंने उसमें कोई रुचि न ली। वह उखड़े हुए लग रहे थे, किसी भी विषय पर जमकर चर्चा नहीं कर पा रहे थे। थोड़ी देर में मैं भी थकान महसूस करने लगा, मेरे सोने का समय भी हो गया था। उन्होंने बहुत बेमन से ‘आजतक' सुना। वह फुर्सत में आये थे, मगर कुछ उद्विग्न लग रहे थे। उन्होंने बताया कि जल्द ही उनका भी आपरेशन होने वाला है और उससे पहले वह तमाम मित्रों से मिल लेना चाहते हैं। इसी क्रम में वह मुझ से मिलने आये थे। इस प्रश्न को भी वह टाल गये कि उन्हें क्या तकलीफ़ है और उनका कैसा आपरेशन होना है। मैंने ग्लूकोज़ पिया और वह ममता से अंग्रेजी स्कूलों में व्याप्त भ्रष्टाचार पर बात करने लगे। देर तक वह अपने बेटे उत्सव की बात करते रहे कि आजकल वह अपनी गन से उड़ती चिड़िया मार गिराता है और फिर उस चिड़िया के उपचार में जुट जाता है। मैं नींद, थकान और ऊब में निष्क्रिय लेटा था। मेरी आँखें मुंदी जा रही थीं, मगर वह उठने का नाम नहीं ले रहे थे। वह जैसे अपना समय गुज़ार रहे थे। नीचे खाना लग गया था, पता चला, वह भोजन नहीं करेंगे। वह बार-बार अपनी घड़ी देखते। आखिर वह उठे। हम लोग नीचे गये। नीचे भी वह कुछ देर बैठे। माताजी तब तक नींद की गोली खाकर सो चुकी थीं। यह उन का रोज़ का नियम था। वह जाने लगे तो ममता ने कहा, आज बहुत देर हो गयी है और आप को बहुत दूर जाना है। वह फीकी सी हँसी हँसे। हम लोग उन्हें गेट तक छोड़ने गये। गेट पर भी वह कुछ देर बतियाते रहे। लग रहा था, वह जा ज़रूर रहे हैं, मगर जाने की जल्दी में नहीं हैं।
अलस्सुबह पहला फोन श्रीमती अलका यादव का था। उन्होंने बताया कि डाक्टर साहब कल रात घर ही नहीं लौटे। उनकी कार उनके टैगोर टाउन के घर पर खड़ी मिली है। उनकी घड़ी और उनका पर्स वगैरह भी कार में मिले हैं। मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा। अचानक बहुत कमज़ोरी और बेचैनी महसूस हुई। कहाँ गायब हो गये डाक्टर? चुनाव का समय भी नहीं था कि वह अचानक टिकट के जुगाड़ में लखनऊ रवाना हो जाते। उमेशनारायण शर्मा को फोन किया तो उन्होंने कार, पर्स और घड़ी वगैरह मिलने पर गहरी चिन्ता प्रकट की। वे वकील थे और कानूनी पहलू से सोच रहे थे और मैं नितान्त भावनात्मक स्तर पर सोच रहा था कि पत्नी से मनमुटाव हो गया होगा और वह रूठ कर कहीं चले गये होंगे। इसका हल्का सा आभास था कि ऐसा वह पहले भी कर चुके हैं।
दोपहर बाद खबर मिली कि डाक्टर का बेटा उत्सव, उसके चाचा और एक पुलिस इन्सपेक्टर आये हैं। मैं नीचे पहुँचा तो देखा पुलिस को देखकर मेरी मां बहुत डर गयी थीं। वह पंजाबी में ही पुलिस इन्सपेक्टर से दरख्वास्त कर रही थीं कि उनके बेटे को परेशान न किया जाए, वह बहुत बीमार और कमज़ोर है। मां बार-बार हाथ जोड़ रही थीं। यह देखकर मुझे बहुत बुरा और अटपटा लगा। मां पर लाड भी बहुत आया। मेरी भोली मां, मैंने मां को अपनी बाहों में समेट लिया, ‘मां इन्हें अपना काम करने दो।'
उस समय मेरी तबियत ऐसी नहीं थी कि ज़्यादा बोल पाता। थोड़ा उद्योग करने पर भी साँस फूलने लगती थी और अचानक बहुत कमज़ोरी महसूस होती। दिन में उमेशजी ने भी यही मश्वरा दिया था कि मुझ से जो पूछा जाए, सही-सही बता दूँ। मेरे पास बताने को कुछ ज़्यादा था भी नहीं। अगले रोज़ अखबारों में डॉ0 यादव के लापता होने की खबरें प्रमुखता से छपी थी। समाचार कुछ इस अन्दाज़ में छपे थे ः
‘संदिग्ध हालात में डॉ0 सुशील यादव लापता। अपहरण की आशंका, रवीन्द्र कालिया से मिलने के बाद लापता।' ‘रवीन्द्र कालिया के यहाँ फोन करने वाली महिला कौन है?' ‘पुलिस कहती है खुद कहीं गये होंगे, वापस लौट आएँगे।'
अगले रोज़ डी0आई0जी0 (रेंज) का फोन आया कि वह मुझसे मिलना चाहते हैं। वह दो इन्सपेक्टरों के साथ मिलने आये तो पुलिस की गाड़ियाँ हमारे घर से दूर पिछली लेन में छोड़ आये थे। उनके लिए मेरे पास कोई नयी जानकारी नहीं थी। अगले कुछ दिनों तक समाचार पत्रों में इस प्रकार के समाचार प्रकाशित होते रहे-‘सुशील का 48 घंटे बाद भी कोई अता पता नहीं।' ‘डॉ0 सुशील की गुमशदगी का रहस्य और गहराया।' ‘डॉ0 सुशील यादव को धरती लील गयी या आसमान?' ‘तांत्रिक का सहारा ले कर भी गुत्थी सुलझाने में असफल रही पुलिस।' इन तमाम समाचारों के बावजूद मुझे आशा की एक किरण दिखायी दे रही थी, शायद यह मेरी खुशफहमी थी। एक दिन शाम को ‘माया' के सम्पादक बाबूलाल शर्मा का फ़ोन मिला कि इलाहाबाद प्रतापगढ़ की सीमा पर डॉ0 सुशील यादव की लाश मिली है। पुलिस ने लावारिस समझकर उनकी अन्तेष्टि भी कर दी थी। पुलिस के अनुसार उनकी हत्या का मामला अवैध सम्बंध का था। यह समचार सुन कर मैं जैसे सुन्न हो गया। नींद की गोली खाने के बावजूद मेरी वह रात बहुत बुरी गुज़री। उम्मीद का आखिरी चिराग़ भी बुझ गया था। उमेशजी का अनुमान सही साबित हुआ कि कार, डायरी और घड़ी का बरामद होना अच्छे संकेत नहीं हैं। इस बीच अफ़वाहों का बाज़ार और गर्म हो गया, मगर मुझे पुलिस ने अनावश्यक रूप से पूछताछ करके परेशान नहीं किया। मेरे ज़ेहन में डॉ0 सुशील के साथ बितायी वह अन्तिम शाम कौंध-कौंध जाती थी। मेरे डाक्टर द्वारा लिखे गये नुस्खे पर उन्होंने पेंसिल से चिन्ह बनाया था और एकाध दवा न लेने की राय दी थी। मुझे वह दृश्य भी बार-बार याद आ रहा था, जब वह अन्तिम बार कार में बैठे थे और हाथ हिलाते हुए विदा हो गये थे।
पीने के सफर में बहुत से साथी मिलते हैं, फिल्मीभाषा में कहूँ तो मिलते हैं बिछुड़ जाने को, कई तो हमेशा के लिए बिछुड़ जाते हैं। जो बीच सफर में पीना छोड़ देता है, दूसरे शराबियों की निगाह में वह उनके लिए सिधार जाता है। इस लम्बे सफ़र में बहुत सी खाइयाँ आती हैं, किसी का यकृत यानी जिगर जवाब दे जाता है और किसी का दिल। बहुत से मित्र तय करके आते हैं कि आउट होने के बाद ही पेवेलियन लौटेंगे। उन्होंने अवकाश प्राप्त करना सीखा ही नहीं होता। वह एक ऐसी निर्णायक पारी खेलते हैं और इस दुनिया से ही कूच कर जाते हैं। मित्रों में ज्ञानरंजन ने सबसे पहले बहिर्गमन किया। उसका मेदा कुछ ऐसा गड़बडा़या कि उसकी दिलचस्पी शराब में कम अनारदाना चूर्ण में ज़्यादा हो गयी। वह कभी आयुर्वेद की शरण में जाता कभी होम्योपैथी की। अभी हाल में उसे एंजियोप्लास्टी करानी पड़ी। दूधनाथ और काशीनाथ हमेशा राजा बेटों की तरह पीते थे। दूधनाथ के स्वास्थ्य ने उसे कभी ज़्यादा छूट नहीं दी और काशी की जिम्मेदारियों ने। दोनों हमेशा अतिचार से बचते रहे। इस समय अकेले विजयमोहन सिंह मैदान में डटा है। अभी हाल में इन्दौर में उसे परमावस्था में देख कर जी बहुत खुश हुआ। अब हमारी पीढ़ी की सब उम्मीदें उसी पर टिकी हैं।
डॉ0 शुकदेव सिंह के साथ बैठने के बहुत कम अवसर मिले। पहली निशस्त में ही मैं उनका कायल हो गया था। मौका था काशीनाथ सिंह की बिटिया के विवाह का। यह तय ही नहीं हो पाया कि हम लोग बाराती थे या घराती। वर था दूधनाथ सिंह का बेटा अंशुमान और वधू काशी की बिटिया रचना। ज्ञान, सुनयना, ममता और मैं वाराणसी पहुँचे। सांझ घिरते ही नामवरजी मुझे अलग ले गये और स्कॉच की एक बोतल मुझे थमा दी, जाओ मस्ती करो। कारसेवा की व्यवस्था डॉ0 शुकदेव सिंह के यहाँ की गयी थी।
अभी बोतल की सील भी न टूटी थी कि एक हादसा हो गया। शुकदेवजी का बेटा बाँसुरी बजाते हुए घर में दौड़ रहा था कि अचानक दीवार से टकरा गया। बांसुरी तालू में धंस गयी और वह मूर्च्छित हो गया। हम सब लोग बहुत परेशान हो उठे, मगर शुकदेव सिंह शांत और नितांत संयत थे। वह ज़रा भी विचलित न हुए। उन्होंने अपनी पत्नी और शिष्यों के साथ बेटे को अस्पताल रवाना कर दिया और खुद गिलास वगैरह की व्यवस्था में मशगूल हो गये। हम लोग अपराध बोध से दबे जा रहे थे। बच्चा बुरी तरह से घायल हो गया था और शुकदेव एक अवघूत की तरह सांसारिक सम्बन्धों से निरपेक्ष होकर कारसेवा में संलग्न थे। ममता और सुनयना अस्पताल जाने की ज़िद करने लगीं तो शुकदेव सिंह ने उन्हें समझाया, ‘बच्चे गिरते पड़ते रहते हैं, यह कोई अनहोनी घटना नहीं है। मेरी पत्नी होशियार है, आप लोग चिन्ता न करें, सब ठीक हो जाएगा।'
महिलाओं का दिल न माना। ममता और सुनयना ज़िद करके नर्सिंग होम चली गयीं। मगर शुकदेव सिंह सांसारिक मोहमाया से सर्वथा उन्मुक्त थे। हम लोगों ने मदिरापान ज़रूर किया, मगर ध्यान बच्चे में ही लगा रहा। आज सोचता हूँ कि उस समय स्कॉच की बोतल सामने न होती तो हम लोगों की प्रतिक्रिया भिन्न होती। मदिरा का जुनून भी क्या जुनून होता है। आदमी औघड़ बन जाता है। बच्चे का कुशल क्षेम मिला तो जान में जान आई। सही मायने में पीने का दौर तो तभी शुरू हुआ था। यह सोचकर शर्म भी आई कि इस हादसे के बावजूद हम लोग मदिरापान करते रहे थे।
शराब से तो मैंने आखिरकार मुक्ति पा ही ली, मगर अब लगता है कि मुक्ति पराधीनता का ही दूसरा पहलू है। चार-पाँच पैग दारू पी कर जो आज़ादी महसूस होती थी, वर्जनाओं से मुक्ति का जो दिव्य अनुभव होता था, उस के लिए अब तरस जाता हूँ। भीतर ही भीतर होशोहवास का एक ऐसा सेंसर बोर्ड जन्म ले चुका है कि मुँह से बात निकलने से पहले ही दफ़्न हो जाती है। यह शराब की झोंक में संभव था कि बगैर किसी रोकटोक के बात गोली की तरह दनदनाती हुई निकलती थी। अपनी बात पर मैंनें कई दोस्तियाँ न्योछावर कर दी थीं। वैसे शराबी की कड़वी बात को लोग नज़रअन्दाज़ कर देते या हँस कर टाल देते थे, मगर होशमंद को कोई मुआफ़ नहीं करता। एक ज़माना था जहाँ कहीं भी सौंदर्य की छटा देखता था, तहेदिल से तारीफ़ करता था, निर्भय और निर्कुण्ठ भाव से।
एक बार किसी महफ़िल में मैंने अपने आगे बैठी एक ज़ुल्फेदराज़ महिला की लम्बी घनी ज़ुल्फों को पीठ से रेंगते हुए किसी अजगर की तरह घास पर अपने पाँव के पास फुफकारी छोड़ते देखा तो मेरा जी मचलने लगा। इच्छा हुई कि अंजुरी में अर्ध्य की तरह भरकर यह केशराशि उसकी स्वामिनी को लौटा दूँ। ज़ेहन में फिल्मी किस्म के संवाद कौंधने लगे--‘ज़ुल्फों को यों ज़मीन पर न रखिए, मैली हो जाएँगी।' नशे में भी मैंने इस सिनेमाई संवाद को खारिज कर दिया और देर तक अपने पाँव के पास अठखेलियाँ खा रही उस नागिन का नृत्य देखता रहा। अगले ही पैग के बाद मेरे धीरज का बाँध भरभराकर टूट गया। मैंने ज़मीन पर मोतियों की तरह बिखरी उस केशराशि को बटोरा और अपनी ओक में भर कर उसकी बगल में बैठे उस महिला के पति को सम्मानपूर्वक सौंप दिया-‘बहुत बेकद्री हो गयी हुज़ूर। अपनी दौलत सहेजकर रखा करें।' पति के हाथ में भी गिलास था। उसने कुछ बेबसी, कुछ आभार, कुछ असमंजस से मेरी तरफ़ देखा। उसने वह केश राशि अपनी गोद में रख ली और मेरे गिलास से अपना गिलास टकराया-‘चीयर्स।' इस बार मैंने ज़रा ऊँची आवाज़ में अपनी बात रखी ताकि उसकी पत्नी भी सुन ले। मैंने कहा, ‘यही है इसकी सही जगह। जब ये उठें तो आप इनकी ज़ुल्फें समेट कर पीछे-पीछे चला करें। इनके नाज़ुक कंधे कब तक ढोते रहेंगे इन ज़ुल्फों का वज़न।' उन लोगों ने मुझे अपने पास बैठा लिया और हम लोगों की दोस्ती हो गयी, जो आज तक बरकरार है। इसे मेरी खुशकिस्मती ही कहा जा सकता है, वरना मेरी हरकत ऐसी थी कि अच्छा-खासा हंगामा खड़ा हो सकता था। ऐसे नाजु़क मौकों पर दो में से एक ही काम हो सकता है-दोस्ती या पिटाई। मेरी हरकतें ऐसी थीं कि हर रोज़ मैं उसी दिशा में बढ़ रहा था जिस पर मेरे बहुत से साथी बढ़ चुके थे। पीने वाले भी उनके साथ पीने में गुरेज़ करने लगे थे। हर शहर में ऐसे दीवाने मिल जाएँगे जो पीकर सामान्य रह ही नहीं पाते, अशालीन हो जाते हैं अतिरिक्त शालीन। उनकी शालीनता बर्दाश्त होती है न अशालीनता।
मैंने ऐसे-ऐसे मित्रों को देखा था, जो पीकर महिलाओं पर फब्तियाँ कसने लगते थे, मगर कुछ देर बाद उन्हीं महिलाओं के कदमों में लोटकर फरियाद करते नज़र आते--आप तो मेरी माँ हैं। मुझे अपना बच्चा समझकर मुआफ़ कर दें। एक बार मेरे ही यहाँ एक पार्टी में कुछ दोस्त सपत्नीक आमंत्रित थे। वे साहित्य के वृत्त के बाहर के मित्र थे। मुझ से नादानी यह हो गयी कि अपने कुछ रचनाकार मित्रों को भी उस पार्टी में आमंत्रित कर लिया। एक साथी रचनाकार जो पीकर बहकने के लिए काफ़ी विख्यात हो चुके थे, उस रोज़ भी बहक गये और उन पर गाने की धुन सवार हो गयी। वह ऐसे-ऐसे फिल्मी गीत गुनगुनाने लगे जो महिलाओं की उपस्थिति में खटक रहे थे। जैसे--‘हमें तो लूट लिया मिल के हुस्न वालों ने।' मैंने किसी तरह स्थिति को नियंत्रण में रखा, वरना एकाध मित्र ने तो जूते के फीते खोलना शुरू कर दिया था। वहाँ अच्छा खासा दृश्य उपस्थित हो जाता अगर विभूतिनारायण राय अपनी गाड़ी में समय रहते लेखक मित्र को रवाना न कर देते। हमारे हमप्याला मित्र को खाली पेट ही लौट जाना पड़ा, जबकि उन्होंने ही पार्टी के लिए पूरी शाम रोग़नजोश तैयार किया था।
अपने मित्र की क्या आलोचना करूँ, मेरे अपने कदम मित्र की दिशा में ही बढ़ रहे थे। तीन चार पैग के बाद मैं भी बहक जाता। सुबह तक याद भी न रहता और अगर कुछ याद आ भी जाता तो सिवाय पछतावे के कुछ हाथ न लगता। ग़नीमत यही रही कि पीकर कभी नालियों में लोटने की नौबत न आई। मेरे मित्र प्रसिद्ध रंगकर्मी डॉ0 बालकृष्ण मालवीय पीने के बाद अक्सर खेद प्रकट किया करते थे कि उनकी एक ही इच्छा अपूर्ण रह गयी, वह यह कि पीकर नाली में नहीं लोटे। हर शराबी जानता है, मयनोशी का यही चरम बिन्दु है। कुछ बिरले ही इस तुरीय अवस्था को प्राप्त कर पाते हैं। इस अवस्था तक पहुँचने के लिए कितनी साधना, कितनी विस्मृति, कितनी निश्चिन्तता की आवश्यकता है। मालवीयजी मूलतः विज्ञान के प्राध्यापक थे, मगर रंगमंच उनका पहला प्यार था। हम लोग इलाहाबाद आये तो रंगकर्म में उनकी तूती बोलती थी। उन दिनों इलाहाबाद में ‘घासीराम कोतवाल' की धूम थी और मेहता प्रेक्षागृह में उसका मंचन हो रहा था। तब मालवीयजी से परिचय नहीं था, हम लोगों ने कतार में लगकर टिकट खरीदे थे और नाटक देखा था। इससे पूर्व मैं दिल्ली और बम्बई में भी ‘घासीराम कोतवाल' की प्रस्तुतियाँ देख चुका था, मगर इस मंचन में जो कसाव और निर्देशन का अनुशासन था, वह अन्यत्र दुर्लभ था। इतने वर्षों बाद आजतक नाटक के कई दृश्य जस के तस साकार हो जाते हैं। इस नाट्य प्रस्तुति के दसियों बरस बाद मालवीयजी से मित्रता हुई, जब हम नये घर में मेहदौरी चले आये। मालवीयजी भी इसी कालोनी में रहते थे और हमारे मित्र डॉ0 नरेन्द्र खोपरजी गाहे-बगाहे उनके यहाँ आया करते थे। ‘घासीराम कोतवाल' में डॉ0 खोपरजी ने साऊण्ड रिकार्डिस्ट के रूप में काम किया था। डॉ0 खोपरजी से भी ‘घासीराम कोतवाल' की एक अभिनेत्री शशि शर्मा ने परिचय करवाया था। भानुमति का पिटारा थी, इस नाटक की टीम। नाटक के निर्देशक बालकृष्ण मालवीय विश्वविद्यालय में बॉटनी के प्राध्यापक थे, खोपरजी पेशे से डाक्ॅटर, शशि शर्मा बैंककर्मी। एक पात्र एजी ऑफिस का तो, दूसरा शिक्षा विभाग का। जाने कैसे मालवीयजी ने यह टीम जुटाई थी।
अभिलाषा - नरेन्द्र परिवार से हम लोगों का इतना सान्निध्य था कि वे लोग घर के सदस्य की तरह हो गये थे। नरेन्द्र मेरी तरह मुँहफट और स्पष्टवादी थे, मेरी ही तरह बेलगाम हो जाते थे। औपचारिक सम्बन्ध वह स्थापित ही न कर सकते थे। कई बार तो हम लोगों को काम पर से लौटने पर मालूम पड़ता था कि आज शाम वे लोग आने वाले हैं। डॉ0 नरेन्द्र हमारे घर पहुँचने से पहले ही फ़ोन कर देते थे कि आज शाम खाना हमारे यहाँ होगा और मैनू यह होगा। हम लोग घर लौटते तो कभी घर में मछली का सालन तैयार हो रहा होता तो कभी रोग़जोश। डाक्टर को भी बहाना मिलना चाहिए था अपने यहाँ पार्टी रखने का। बच्चों के जन्मदिवस, न्यू ईयर ईव, ईद, जन्माष्टमी, किसी दोस्त की शादी की सालगिरह, कोई भी अवसर वह तलाश लेते। उनके यहाँ से अक्सर मैं धुत्त ही लौटता।
ऐसे ही किसी अवसर पर उन्होंने दावत दी थी। मालवीयजी और हम लोगों ने जीभर कर कारसेवा की। जब तक डाक्टर लोग अपने काम से फुर्सत पाते हम लोग ज़मीन से ऊपर उठ चुके थे। उस दिन उन लोगों को किसी एमरजेंसी केस में उलझ जाना पड़ा। वे लोग भोजन की व्यवस्था न कर पाये। हम लोगों ने दारू से पेट भर लिया। लौटते समय सड़क के लिए भी पैग तैयार किया गया। अभी हम लोग गाड़ी में सवार हुए ही थे कि मेरे हाथ में गिलास देखकर अभिलाषाजी कुछ असमंजस में आ गयीं। पता चला मेरे हाथ में उनके किसी बेशकीमती सैट का गिलास था। अभिलाषाजी के मुँह से बेसाख्ता निकल गया कि यह गिलास तो सैट का है। मैंने उसका मूल्य जानना चाहा, उन्होंने बता दिया कि साठ रुपये से कम का न होगा। मैंने जेबें टटोलीं। पता चला, हमेशा की तरह पर्स घर में भूल आया था। मैंने मालयवीयजी से कहा कि उनके पास पैसे हों तो तुरन्त ज़मानत राशि जमा कर दें। मालवीयजी भी घोड़े पर सवार थे, उन्होंने तुरन्त सौ का नोट थमा दिया। अभिलाषाजी की बहन ने हँसते हुए आगे बढ़कर ले लिया। बात आई गयी हो गयी। हम लोग पीते हुए घर से आये थे और पीते हुए लौट गये।
कुछ दिनों बाद मालवीयजी के यहाँ महफिल जमी। हस्बेमामूल डाक्टर लोगों को आने में देर हो गयी। तब तक हम लोग अपनी क्षमता के अनुसार कारसेवा कर चुके थे। उन लोगों के आने पर दूसरा दौर शुरू हो गया। अभिलाषाजी ने मेरी आवाज़ को लटपटाते देखा तो बोलीं, ‘कालियाजी, अब आप और न लें।' वह एक सही मश्वरा था।
‘आप तो मुझे ऐसा मश्वरा न दें। आप को यह अधिकार नहीं है। एक तो आप लोग इतनी देर से आये हैं, जब हमारा कोटा पूरा हो चुका है। दूसरे आप मुझे कैसे कोई सलाह दे सकती हैं, आपको तो मेज़बानी का तमीज़ है न मेहमानी की। आप खाने पर बुलाती हैं और खाली पेट लौटा देती हैं।'
अभिलाषाजी बेचारगी से मेरी तरफ़ देखने लगीं। मैंने अपना प्रलाप जारी रखा, ‘आप को अपने बेशकीमती गिलासों पर बहुत नाज़ है। उन्हें काँच वाली पारदर्शी आलमारी में बंद कर के शोभा के लिए सजा दें और अगली बार हम आयें तो बराय मेहरबानी हम लोगों के लिए कुल्हड़ की व्यवस्था कर दें।' मैं देख रहा था, खोपरजी का मेरी बात से बहुत मनोरंजन हो रहा था। कोई मुझे टोक भी नहीं रहा था, बीच-बीच में ममता ने ज़रूर कोशिश की, मैंने उसे भी डपट दिया। मालवीय दम्पती आतिथ्य में व्यस्त थे।
‘पिछली बार आपने घर बुलाकर हम लोगों का जो तिरस्कार किया, हम उसे कभी न भूल पायेंगे। एक तो आपने खाने पर बुला कर खाना नहीं खिलाया और दूसरे लौटते समय पठान की तरह गिलास की ज़मानत वसूल कर ली।'
जुनून में और भी जाने मैं क्या-क्या बक गया। इतना याद है कि अभिलाषाजी रुआंसी हो गयी थीं। उसके बाद का मुझे कुछ याद नहीं है, दिमाग का जैसे ब्लैक आउट हो गया। कैसे घर पहुँचा, यह भी याद नहीं कर सकता। इतना ज़रूर याद है कि सुबह उठा तो लग रहा था, रात को मैंने कोई गुल ज़रूर खिलाया है। ममता भी घर में ऐंठी हुई घूर रही थी। मुझ से बात नहीं कर रही थी। सुबह की चाय भी उस ने साथ नहीं पी। बिना बात किये कालिज चली गयी। मुझे लग रहा था, मुझसे जैसे घर की कोई कीमती चीज़ टूट गयी है। मुझ विश्वास था कि ममता लौटेगी तो घर में ज़रूर जमकर दाँताकिलकिल होगी। तूफ़ान के पहले का सन्नाटा मेरे भीतर भर गया था।
बीमार पड़ने से पहले मैं शाम को अक्सर बहकने लगा था था। यह शायद बीमारी का पहला लक्षण था। मुझे लग रहा था, लिवर ने मुझे चेतावनी देना शुरू कर दिया था। अब तो विश्वास हो चुका है कि दिमाग का सन्तुलन बनाये रखने में लिवर की अहम भूमिका रहती है। मयनोशी के अन्तिम दौर में मैं कुछ ज़्यादा ही बहकने लगा था। घर में भी मेरा व्यवहार असमान्य हो जाता। यह एक नयी बात थी। पीकर मैं जैसे बिजली का नंगा तार हो जाता।
(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)
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