रवींद्र कालिया का संस्मरण : ग़ालिब छुटी शराब (11)

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“ जिन्‍होंने जीवन भर स्‍वीट डिश के नाम पर केवल गुड़ खाया हो उन के लिए उम्‍दा साज-सज्‍जा के साथ कस्‍टर्ड की भव्‍य उपस्‍थिति केवल कौतुक जगा सक...

जिन्‍होंने जीवन भर स्‍वीट डिश के नाम पर केवल गुड़ खाया हो उन के लिए उम्‍दा साज-सज्‍जा के साथ कस्‍टर्ड की भव्‍य उपस्‍थिति केवल कौतुक जगा सकती है। रश्‍मिजी ने एक बार कस्‍टर्ड को नन्‍हीं बच्‍ची तरह सजाया था। उसके ऊपर सुर्ख चैरी की टोपी रिबन की तरह आकर्षित कर रही थी। मैं कस्‍टर्ड के रूप लावण्‍य पर मुग्‍ध हो गया। इसे संयोग ही कहा जाएगा कि सब से पहले मुझे ही स्‍वीट डिश पेश की गयी। मैंने कस्‍टर्ड तो लिया ही, तश्‍तरी में इठला रही चैरी का भी हरण कर लिया। कस्‍टर्ड की तश्‍तरी एकदम बेरौनक हो गयी। रश्‍मिजी का चेहरा उतर गया। मुझे बहुत अफसोस हुआ। अब मैं अपनी तश्‍तरी से उठा कर उसे दुबारा ट्रे में भी नहीं रख सकता था।...”

-- इसी संस्मरण से

संस्मरण

ग़ालिब छुटी शराब

ravindra kalia

रवींद्र कालिया

(पिछले अंक से जारी…)

जब भी लखनऊ जाता, तलहा और जगत से भेंट होती। हम लोग प्रेस क्‍लब में बैठ कर इन दिनों की याद किया करते। कुछ ही वर्षों बाद खुशवंत सिंह के कालम में अचानक पढ़ा कि तलहा नहीं रहा। मेरे हाथ से गिलास छूट गया। वह पीलिया से चल बसा, उसका लिवर जवाब दे गया। मुझे भी खतरे की घंटी सुनायी दी। तलहा की तरह मेरी भूख भी मर चुकी थी। भूख न लगती तो तलहा कोई न कोई दवा तजवीज़ कर देता था और बेशर्मी से हँसा करता था कि आगे खतरा है। वह खतरे को जानते बूझते भी उसकी चपेट में आ गया। यही हश्र जगत वाजपेयी का हुआ। दो वर्ष पहले ‘कथाक्रम' के कार्यक्रम में गया था-लिवर बढ़ जाने की लंबी यंत्रणा झेल कर- कि खबर मिली जगत भी इस जगत से विदा हो चुका है। मेरे दो साथी शराब की नदी में बह गये थे। मैं भी बह गया होता मगर जैसे बहते को तिनके का सहारा मिल जाता है, किसी तरह बच गया। मरहूम दोस्‍तों की सूची में दो नामों का और इज़ाफा हो गया। शराब से मैं वैसे ही भय खाने लगा जैसे रैबीज़ का रोगी पानी से भय खाता है।

मुझे लगता था अब मेरी बारी है। मेरे ज़ेहन में एक शेर कौंध-कौंध जाता ः

 

इक सवारी आयेगी, इक सवारी जाएगी,

बारी-बारी सबकी बारी आयेगी।

 

सचमुच आखिर मेरी बारी भी आ गयी-और मौत दरवाज़ा खटखटाने लगी। उसकी आहट मैं स्‍पष्‍ट सुन रहा था। मेरी बूढ़ी मा जब निरीह भाव से मेरे सूखते जा रहे बदन को देखती तो रीढ़ की हड्‌डी के नीचे सिरहन सी दौड़ जाती।

मैंने अपनी आँखों से बहुत लोगों को शराब से तबाह होते देखा था, तिल तिल कर मरते देखा था, मेरे तो बहुत से मित्र शराब में बह गये थे, बहुत से दोस्‍त नशे की गोलियाँ खाकर मौत की आगोश में सो चुके थे। इन मित्रों में लेखकों-पत्रकारों की संख्‍या अधिक थी। रचनाकारों को अगर शराब ने तबाह किया तो पत्रकारों को फोकट (मुफ़्त) की शराब ने। फोकट की शराब ज़्‍यादा खतरनाक होती है, बेफिक्र करती है, निःसीम बनाती है। प्रशासन, राजनीति और उद्योग जगत पत्रकारों के लिए ऐसी कारा बन जाता है कि वह इसी कैद में घुटकर रह जाते हैं। प्रशासन राजनीतिज्ञ और उधोगपति पत्रकारों के आगे शराब का चारा परोसते रहते हैं। एक से एक प्रखर और प्रतिभासम्‍पन्‍न युवा पत्रकारों को मैंने इसका शिकार होते देखा है। लेखकों, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों को धनपशुओं का आतिथ्‍य भी आसानी से उपलब्‍ध हो जाता है।

 

मुझे पत्रकारिता ने ही नहीं, साहित्‍य ने भी जंगल भ्रमण करवाया। अशोक वाजपेयी से आप सहमत हों या नहीं, मगर यह सच है कि उन्‍होंने बीच-बीच में जंगलों में भी साहित्‍य की धूमी रमाई है। सिविल सेवा के प्रारम्‍भिक वर्षों में उनकी तैनाती मध्‍यप्रदेश के दूर दराज इलाकों में होती रही। आज से लगभग तीस बरस पूर्व उन्‍होंने लेखकों की प्रथम गोष्‍ठी सीधी के जंगलों में आयोजित की थी। वह उन दिनों सीधी के कलेक्‍टर थे। किसी अफ़सर को वनवास लेना हो तो इससे बढ़िया जगह नहीं हो सकती। मध्‍य प्रदेश के बहुत से इलाके आज भी रेलमार्ग से कटे हुए हैं। राष्‍ट्र की मुख्‍यधारा से अलग थलग पड़े हैं। सीधी भी ऐसी ही एक वन्‍य स्‍थली थी। सीधी रीवाँ से लगा है और रीवाँ इलाहाबाद का पड़ोसी मगर मध्‍य प्रदेश का नगर है। अशोक वाजपेयी की जंगल से निकलने की इच्‍छा होती तो वह इलाहाबाद चले आते। मेरा अशोक से कौटुम्‍बिक रिश्‍ता कभी नहीं रहा, साहित्‍यिक सम्‍बन्‍ध शुरू से था। हालांकि हम लोगों की दिशाएँ अलग-अलग थीं। वह आलोचना और काव्‍य के वृत्‍त से ताल्‍लुक रखते थे और मैं कहानी तक सीमित था। उन दिनों साहित्‍य में वैचारिक मतभेद ज़रूर थे, मगर इस तरह की खेमेबाज़ी न थी। उन दिनों दिल्‍ली में तमाम लेखक वैचारिक मतभेद के बावजूद आपस में मेलजोल रखते थे। अशोक ज्‍यादातर श्रीकांत वर्मा, निर्मल, अशोक सेक्‍सरिया, महेन्‍द्र भल्‍ला, प्रयाग के साथ नज़र आते। ये लोग पढ़ाकू किस्‍म के अर्न्‍तमुखी लोग थे और मेरी आमदोरफ़्‍त राकेश, कमलेश्‍वर के यहाँ ज़्‍यादा थी। नामवर भी रूपवादियों के बीच ज़्‍यादा राहत महसूस करते थे। नेमिजी, सुरेश अवस्‍थी, नामवर सिंह में मित्रता थी।

 

उन दिनों निर्मल वर्मा, श्रीकांत वर्मा, महेन्‍द्र भल्‍ला, प्रयाग शुक्‍ल आदि लड़कियों के झुण्‍ड की तरह सटकर चलते और बिरादरी से अलग थलग रहने की कोशिश करते। निर्मल वर्मा की दुनिया बहुत वायवी थी, वह राकेश कमलेश्‍वर के गद्य के भिन्‍न एक जादुई संगीतमयी भाषा और हिन्‍दी के लिए नितांत नया सिंटेक्‍स विकसित कर रहे थे। श्रीकांत वर्मा और महेन्‍द्र भल्‍ला भी प्रचलित रूढ़ियों से हट कर लिख रहे थे। महेन्‍द्र भल्‍ला की कहानी ‘एक पति के नोट्स' उन दिनों खूब चर्चित हुई थी। राकेश, कमलेश्‍वर को इन लेखकों की एकांतिक दुनिया से सख्‍त एतराज था, उनका मत था कि ये लेखक वृहत्‍तर सामाजिक सन्‍दर्भों की अवहेलना कर जीवन से असम्‍पृक्‍त लेखन कर रहे हैं, जिनकी रचनाओं में सामाजिक सरोकार नहीं के बराबर है। उन दिनों अशोक अधिक लचीले थे, उतने पूर्वग्रही भी नहीं थे।

अशोक इलाहाबाद आते तो हम लोगों की भेंट, होती मिलकर मौज-मस्‍ती करते। बाद के वर्षों में अशोक वाजपेयी ने जम कर साहित्‍यिक राजनीति और खेमेबाज़ी की। मैं कभी उनके खेमे में नहीं रहा, कहानी अथवा कथा साहित्‍य कभी उनकी चिन्‍ता का विषय नहीं रहा था, मगर इसके बावजूद हम दोनों के बीच कुछ ऐसा अदृश्‍य रिश्‍ता रहा कि कभी संवादहीनता की स्‍थिति नहीं आई। सन् साठ के बाद हमारी दिल्‍ली में भेंट हुई थी और आज लगभग चालीस बरस के बाद भी हम पहले की तरह ही गर्मजोशी से मिलते हैं। सीधी में जब उन्‍होंने प्रथम आयोजन किया तो मुझे उनका निमन्‍त्रित करना अत्‍यन्‍त स्‍वाभाविक लगा। ममता उन दिनों मुम्‍बई में थी, उसे भी निमंत्रण मिला। वह उन दिनों एस0 एन0 डी0 टी0 विश्‍वविद्यालय में पढ़ाती थी। होस्‍टल में रहती थी और खूब ऊबती थी। अशोक की गोष्‍ठी का निमंत्रण मिला तो बोरिया बिस्‍तर उठाकर हमेशा के लिए इलाहाबाद चली आई। तय हुआ था कि वह बम्‍बई से सतना आयेगी, सतना स्‍टेशन पर मैं उसे मिलूँगा और हम दोनों को लेकर एक जीप सीधी पहुँचेगी।

अलग-अलग रमणीक स्‍थानों पर गोष्‍ठियों का आयोजन किया गया था। कहीं इन्तज़ाम में कोई त्रुटि न थी। कहा जा सकता है कि अशोक वाजपेयी शुरू से ही इन्‍तज़ाम अली थे। कहीं नाश्‍ता, कहीं बियर, कहीं लंच, कहीं मदिरापान तो कहीं डिनर। हम लोग जहां भी जाते, साये की तरह साहित्‍य साथ-साथ चलता। इस मंडली में नामवर सिंह, भारतभूषण अग्रवाल, नेमिचन्‍द्र जैन, श्रीकान्‍त वर्मा, कमलेश, धूमिल, काशीनाथ सरीखे लेखक थे। कहीं भी उबाऊ किस्‍म के लम्‍बे चौड़े लेख नहीं पढ़े गये। अत्‍यन्‍त अनौपचारिक रूप में बातचीत चलती रही, साहित्‍य में विकसित हो रही नयी संवेदनाओं को रेखांकित किया गया। इसी शिविर में नये कवियों की रचनाओं के छोटे-छोटे संकलन प्रकाशित करने की योजना बनी। इस श्रृंखला का नाम खोजने में ही कई दर्जन बियर की बोतलें खाली हो गयीं। अंततः ‘पहचान' नाम पर सब की सहमति हो गयी। अगर मैं गलत नहीं हूँ तो यह नाम मैंने ही सुझाया था। बाद में सीरीज़ ने सप्‍तक श्रृंखला की तरह ध्‍यान आकर्षित किया था, और अनेक कवि इस श्रृंखला में शामिल होने के लिए लालायित रहते थे।

इसी शिविर में कमलेशजी से परिचय हुआ। एक गायबाना परिचय पहले से था। कमलेश जी लोहियाजी के निकटतम सहयोगियों में से रहे थे। कहीं-कहीं तो हम लोगों का काफिला रोककर लोहियावादी समाजवादी युवजन उनका अभिनन्‍दन व माल्‍यार्पण करते थे। पूरे क्षेत्र में उनके आने की खबर फैल चुकी थी। कमलेश अत्‍यंत साधारण रूप से रहते थे, लगभग फकीराना अंदाज़ में चप्‍पल चटखाते हुए। एक दिन शाम को टहलते हुए मैंने उनसे पूछा, ‘चिति की लीला में प्रतीक का प्रकार्य' क्‍या होता है?

‘यह क्‍या है?' कमलेशजी ने पूछा। मैंने बताया कि यह ‘आलोचना' में प्रकाशित डॉ0 रमेशकुन्‍तल मेघ के लेख का शीर्षक है। यह सुन कर कमलेश ने जो हँसना शुरू किया कि हम दोनों के पेट में बल पड़ गये। हम लोगों की जब भी आँखें मिलतीं हँसी फूट निकलती। धूमिल से भी इस शिविर में पहली बार मुलाकात हुई, काशीनाथ सिंह से मैं इससे पूर्व मिल चुका था। भारतजी तो मेरे चचिया ससुर थे, मगर हम दोनों एक दूसरे के सामने निःसंकोच धूम्रपान और मद्यपान करते। इस शिविर के दौरान हम लोगों ने जंगल का चप्‍पा चप्‍पा छान मारा। कहीं किसी भटकी हुई नदी के किनारे बैठक हुई और कहीं किसी दूर दराज के डाक बंगले में। हर तरह पहले से प्रबंधकों का अग्रिम दल मौजूद रहता।

उन दिनों अशोक वाजपेयी ‘जंगल-जंगल पर्वत-पर्वत गाता जाए बनजारा' की स्‍थिति में थे। जब-जब प्रशासनिक स्‍तर पर उन्‍होंने यथास्‍थितिवाद और अनियमितताओं से लोहा लिया, स्‍थानांतरण हो गया। उन दिनों अशोक प्रशासनिक अधिकारी के अकेलेपन की बात किया करते थे। एक सीमा तक व्‍यवस्‍था साथ देती, बाद में अकेला छोड़ देती जूझ मरने के लिए। इसी क्रम में वह सीधी से टेढ़ी यानी सरगुजा भेज दिये गये। इस उठापटक में साहित्‍य से उनका अनुराग और भी गहरा हो गया था।

सरगुजा पहुँचते ही उन्‍होंने ‘सन्तन' को सरगुजा आमंत्रित किया। लगभग वही टीम वहाँ पहुँची। सरगुजा और भी दूरवर्ती क्षेत्र था। रेल की पहुँच वहाँ तक भी नहीं थी। एक लिहाज़ से अच्‍छा ही था। कच्‍चा जीवन यानी प्रकृति का आत्मीय साहचर्य। यह सन् सत्‍तर के आस-पास की बात है। सरगुजा अत्‍यन्‍त दुर्गम स्‍थान था। किसी तरह हम लोग अम्‍बिकापुर पहुँचे। पहुँचने के बाद कोई समस्‍या नहीं। खाने पीने और साहित्‍यिक जुगाली की उत्‍तम व्‍यवस्‍था। सरगुजा में उन दिनों छोटा-मोटा तिब्‍बत भी बसा था। तिब्‍बती शरणर्थियों के बीच भी हम लोगों ने एक भरपूर दिन बिताया।

उस शिविर में नेमिजी भी थे। उन के मुकाबले भारतजी कहीं अधिक देशज थे। नेमिजी विशिष्‍ट अतिथि थे, साहित्‍यिक और पारिवारिक दोनों दृष्‍टियों से। यहाँ वे रचनाकार के साथ-साथ मेज़बान के ससुर भी थे। उन दिनों निर्मल वर्मा का भाषा का जादू सिर चढ़ कर बोलता था। निर्मल ने हिन्‍दी को एक नया गद्य दिया था, नया मुहावरा दिया था, रागात्‍मकता की नयी परिभाषा प्रस्‍तुत की थी। भाषा और गद्य के स्‍तर पर जितना परिष्‍कार और तोड़फोड़ निर्मल और श्रीकान्‍त वर्मा ने की थी, उससे गद्य में एक ताज़गी आ गयी थी। भाषा और संवेदना के स्‍तर पर एक नये संस्‍कार की सृष्‍टि हो रही थी। हिन्‍दी के पहले कथाकार थे जिन की कहानियों के कई अंश मुझे लड़कपन में ग़ज़ल की तरह कण्‍ठस्‍थ थे। श्रीकान्‍त तो चलते फिरते ज्‍वालामुखी थे, उनके भीतर से लावा की तरह कविता फूटती थी। वह देखने में जितने चुप्‍पे और अन्‍तर्मुखी लगते थे, अभिव्‍यक्‍ति में उतने ही प्रखर, बल्‍कि कभी-कभी उद्दण्‍ड हो जाते थे।

उन दिनों श्रीकान्‍त वर्मा ‘दिनमान' के सम्‍पादकीय विभाग से सम्‍बद्ध थे और मैं भी उसी प्रतिष्‍ठान से लौटा था। एक गोष्‍ठी में श्रीकान्‍तजी ने बगावती किस्‍म का वक्‍तव्‍य दिया। उन्‍होंने धर्मवीर भारती पर भी कुछ आक्षेय किये। जब तक मैं ‘धर्मयुग' में रहा साहित्‍य और कला के पृष्‍ठ मैं ही देखा करता था। रचनाओं के साथ लेखकों के पत्र पढ़ने का अवसर भी अनायास मिल जाता था। श्रीकान्‍त ने अत्‍यन्‍त सधे ढंग से समकालीन परिदृश्‍य पर अपने विचार रखे थे, मगर मुझे उनके वक्‍तव्‍य और उनके भारती के नाम लिखे पत्रों में स्‍पष्‍ट विरोधाभास दिखायी दिया। नशे की झोंक में उनके वक्‍तव्‍य के बाद मैंने कह दिया कि श्रीकान्‍तजी की कथनी और करनी में बड़ा अन्‍तर है। लेखक से एक विषयगत ईमानदारी की अपेक्षा तो करनी ही चाहिए। श्रीकान्‍तजी ने गोष्‍ठी में जो विचार व्‍यक्‍त किये हैं वह उनके उन विचारों से भिन्‍न हैं जो वह भारतीजी को लिखते रहे हैं। गोष्‍ठी में सन्‍नाटा खिंच गया। भद्र समाज में जैसे मुझ जैसा कोई मूढ़ और गंवार अनाधिकृत रूप से प्रवेश पा गया हो। श्रीकान्‍त का बहुत दबदबा था। श्रीकान्‍तजी ने मेरी बात का कोई उत्‍तर नहीं दिया, नेमिजी उनके बचाव के लिए सामने आये और उन्‍होंने मेरी स्‍थापना पर गंभीर असहमति दर्ज कराते हुए इसे अत्‍यन्‍त दुर्भाग्‍यपूर्ण कहा। श्रीकान्‍त ऐसे श्रीहीन हो गये जैसे किसी ने छुई मुई का पौधा छू दिया हो। अचानक वह उठे और बहिर्गमन कर गये, उससे अभिजात वर्ग के लेखकों के बीच मेरी स्‍थिति और भी दयनीय हो गयी। श्रीकान्‍तजी अपने कमरे में बंद हो गये और अन्‍दर से सिटकनी भी लगा ली। कमरे की बत्‍ती भी बुझा दी। मुझे नेमिजी का हस्‍तक्षेप नागवार गुज़रा। बाद में इलाहाबाद लौटकर मैंने पत्र में अशोक से अपनी असहमति और नाराज़गी भी व्‍यक्‍त की। अशोक ने लिखा था कि मेरी शिकायत उन्‍होंने नेमिजी तक पहुँचा दी है।

कमलेश और श्रीकान्‍त एक ही कमरे में ठहरे थे। कमलेश भी श्रीकान्‍तजी से ऐसे व्‍यवहार की अपेक्षा न कर रहे थे। मेरी तरह वह भी हत्‍प्रभ थे। मुझे बहुत ग्‍लानि हुई कि मैंने बेवजह माहौल को बेमज़ा कर दिया। श्रीकान्‍तजी से मेरा पुराना रिश्‍ता था। कई बार मैं उनके यहाँ नार्थ ब्‍लॉक में भी गया था। ये स्‍वयं बहुत तीखी टिप्‍पणियाँ करते थे। एक बार मैंने डॉ0 मदान के हवाले से कहीं लिख दिया था कि श्रीकान्‍त बहुत अच्‍छे रचनाकार हैं, मगर बालों में इतना तेल क्‍यों चुपड़ लेते हैं। तब उन्‍होंने बुरा नहीं माना था। उनसे हल्‍की-हल्‍की छूट न मिली होती तो मैं अनौपचारिक रूप से कुछ भी कहने में संकोच करता।

श्रीकान्‍तजी के कमरे की बगल में ही हमारा कमरा था। कमलेश हमारे यहाँ बैठे रहे। उन दिनों कमलेश को पीने में संकोच नहीं था, बाद में तो सुना अत्‍यन्‍त शुचितावादी हो गये थे, खाना तक खुद बनाने लगे थे। पहली ही मुलाकात में हमारी दोस्‍ती हो गयी थी। जब खाने की मेज़ पर भी श्रीकान्‍त न आये तो मुझे बहुत अपराधबोध हुआ। मैंने कमलेश से अनुरोध किया कि श्रीकान्‍तजी को खाने पर ले आयें, मगर उन्‍होंने कहा कि वह जोखिम नहीं उठा सकते। हाथ में गिलास थामे मैं अपने को काफ़ी अटपटी स्थिति में पा रहा था, श्रीकान्‍तजी ठीक बच्‍चों की तरह रूठ गये थे। रूठे हुए बीवी-बच्‍चों को मनाना मुझे आज तक नहीं आया। आखिर मैंने तय किया कि स्‍वयं जाकर उनसे भोजन करने का अनुरोध करूँगा। मैंने गिलास से ही उनका दरवाज़ा खटखटाया। भीतर कोई हलचल न हुई। मैंने दुबारा दरवाज़ा खटखटाया। इस बार अन्‍दर की बत्‍ती जली। कुछ देर बार श्रीकान्‍तजी ने दरवाज़ा खोला। वह शायद मुँह धोकर आये थे और तौलिये से पोंछ रहे थे। बिस्‍तर के पास ही उनका गिलास पड़ा था, जस का तस। मैं बिस्‍तर के पास पड़ी कुर्सी पर बैठ गया।

‘मुझे अफ़सोस है कि मेरी बात से आपको तकलीफ़ हुई।' मैंने कहा।

श्रीकान्‍तजी ने अपनी उनींदी आँखों से मेरी ओर देखा। मैंने गिलास उठाते हुए उन्‍हें चियर अप किया- ‘चियर्स।' उन्‍होंने बेमन से गिलास उठाया और दो एक घूँट लेकर रख दिया।

‘चलिए, बाहर सब लोग भोजन पर आपकी प्रतीक्षा कर रहें हैं। मैंने कहा।

‘चलिए।' श्रीकान्‍तजी ने कहा और हम लोग खाने के कमरे में पहुँचे। तमाम लोग हम दोनों को सामान्‍य और साथ-साथ देखकर हैरान रह गये। मैंने श्रीकान्‍तजी को उनके मित्रों के हवाले किया और खुद अपनी थाली लेकर वहाँ से हट गया। मुझे श्रीकान्‍तजी से कोई गिला नहीं था मगर नेमिजी का हस्‍तक्षेप बहुत खल गया था। दरअसल मैं दो एक पैग के बाद प्रायः उन्‍मुक्‍त हो जाया करता था और ज़ुबान पर कभी सेंसर नहीं लगया था। मगर किसी प्रकार का दुर्भाव मन में नहीं रहता था, शराबी के मन में रहता भी नहीं। वह मुक्‍त हो जाता है- बेफिक्र। मैंने इस स्‍थिति का सदैव आनंद ही उठाया, अगर तीर छोड़े तो सीने पर बर्दाश्‍त भी किये। मगर इस भद्र समाज का दस्‍तूर दूसरा था। जो मेरी फ़कीर तबीयत को रास नहीं आ रहा था। शायद यही कारण है कि मैंने अपने जैसे फक्‍कड़ और मलंग दोस्‍तों के साथ ही अच्‍छी शामें बितायी हैं। बातचीत में कोई ऊँच-नीच हो गयी तो सुबह तक स्‍लेट साफ़। पिछली शाम का कोई हैंगओवर नहीं।

मैंने पाया था इन जंगल गोष्‍ठियों में मैं, काशी और धूमिल अपने को काफ़ी कटा हुआ महसूस करते थे। अवकाश मिलते ही हम लोगों की अलग अंतरंग बैठकें होतीं थीं। धूमिल से मेरा प्रथम परिचय इन्‍हीं जंगलों में हुआ था। उसके स्‍वभाव में भी एक फक्‍कड़पन था, जो बहुत अपना लगता था। बहुत सलीके के बीच मैं रह ही नहीं सकता, बेचैन होने लगता हूँ। अक्‍सर जब भी मैं किसी पाँच सितारा होटल में गया हूँ सब से पहले मेज़ पर से छुरी काँटे ही हटवाये हैं और वह भी इस अन्‍दाज़ में कि आसपास की मेज़ों पर डटे सम्‍भ्रान्‍त लोग भी छुरी काँटे का उपयोग करने में संकोच करने लगें। मेरी हरकतों से कई बार तो मेरा मेज़बान भी परेशान हो उठा है। यहाँ पर अपनी अरुचियों और विकषर्णों यानी नादानियों का ज़िक्र करना अप्रासंगिक न होगा। इस की मेरे पास ढेरों मिसालें हैं, मगर दो एक की झलक पेश करने में हर्ज़ न होगा। कायदे कानून, सलीके और शिष्‍ट किस्‍म के लोगों से मेरी अन्‍तरंग मित्रता कम ही हो पाती है, अशोक वाजपेयी जैसे धाकड़ मित्र अपवाद हैं। उनमें राजा बेटा के ज़्‍यादा गुण नहीं, कुछ दुर्गुण भी हैं यानी वह डाइनिंग टेबिल पर भोजन करवायेंगे तो दरी पर बैठ कर दारू भी पिला सकते हैं। रश्‍मिजी बहुत सुरुचिपूर्वक भोजन परोसती थीं। उनकी कोशिश रहती थी, खाने में कोई कमी न रह जाए। बगैर किसी चूक के स्‍वीट डिश की भी व्‍यवस्‍था रहती। जिन्‍होंने जीवन भर स्‍वीट डिश के नाम पर केवल गुड़ खाया हो उन के लिए उम्‍दा साज-सज्‍जा के साथ कस्‍टर्ड की भव्‍य उपस्‍थिति केवल कौतुक जगा सकती है। रश्‍मिजी ने एक बार कस्‍टर्ड को नन्‍हीं बच्‍ची तरह सजाया था। उसके ऊपर सुर्ख चैरी की टोपी रिबन की तरह आकर्षित कर रही थी। मैं कस्‍टर्ड के रूप लावण्‍य पर मुग्‍ध हो गया। इसे संयोग ही कहा जाएगा कि सब से पहले मुझे ही स्‍वीट डिश पेश की गयी। मैंने कस्‍टर्ड तो लिया ही, तश्‍तरी में इठला रही चैरी का भी हरण कर लिया। कस्‍टर्ड की तश्‍तरी एकदम बेरौनक हो गयी। रश्‍मिजी का चेहरा उतर गया। मुझे बहुत अफसोस हुआ। अब मैं अपनी तश्‍तरी से उठा कर उसे दुबारा ट्रे में भी नहीं रख सकता था।

श्रीकान्‍त अपने लेखन में जितना दबंग और आक्रामक लगते थे, उनसे मिलकर विपरीत प्रभाव पड़ता था। मैंने उन्‍हें हमेशा अत्‍यन्‍त संकोचशील, दब्‍बू और विनम्र ही पाया। उत्‍तेजित होते तो बच्‍चों की तरह उनके गाल सुर्ख हो जाते। शुरू में मैं दिल्‍ली गया तो नार्थ ब्‍लॉक में उनकी बरसाती में बहुत समय बिताया करता था। उनकी रचना में उनका जो तेवर नज़र आता, वह मिलने पर दूर-दूर तक दिखायी न देता। अक्‍सर वह अपने से ही जूझते दिखायी देते। मेरा उनसे गहन सम्‍पर्क कभी नहीं रहा, मगर मैंने जब-जब संवाद किया, वह गर्मजोशी से मिले। आपात्‍काल में मैं ज्ञान की सलामती को लेकर चिंतित था। मध्‍यप्रदेश का एक वर्ग इस कोशिश में था कि किसी तरह ज्ञान आपात्‍काल की चपेट में आ जाए। उसके खिलाफ़ सरकार के पास आए दिन अभियोग पत्र भेजे जा रहे थे। मैं दिल्‍ली गया तो हिमांशु जोशी से श्रीकान्‍त का फ़ोन नम्‍बर ले कर मिलाया। उन्‍होंने मश्‍वरा दिया कि ‘पहल' का प्रकाशन स्‍थगित रखा जाए, क्‍योंकि दुश्‍मनों की निगाहें नये अंक पर टिकी हैं। ‘पहल' उन दिनों मेरे प्रेस से ही मुद्रित होता था। सामग्री में ऐसा कुछ नहीं था, जो सत्‍ता की नज़र में आपत्‍तिजनक हो, मगर मैंने श्रीकान्‍तजी की राय मानकर ‘पहल' का मुद्रण स्‍थगित कर दिया। ज्ञान ज़रूर भड़क गया, मगर मैंने इसकी चिन्‍ता न की। सुनयनाजी को मैंने सारी स्‍थिति से ज़रूर अवगत करा दिया था।

इसके बाद मेरी श्रीकान्‍तजी से दो मुलाकातें हुईं। तब तक वह राजनीति के शिखर पर पहुँच चुके थे। इन्‍दिराजी उन्‍हें पसन्‍द करती थीं और वह उन्‍हें राज्‍यसभा ले गयी थीं। वह मन्‍त्रिपरिषद में भी शामिल हो गये होते, अगर एक ग़लतफ़हमी न पैदा हो गयी होती। इस बात को मेरे अलावा बहुत कम साहित्‍यिक बन्‍धु जानते होंगे। श्रीकान्‍तजी को भी इस की जानकारी न होगी कि उन से क्‍या ख़ता हो गयी कि उनको मन्‍त्रिपरिषद में स्‍थान न मिला। वह पर्यटन और संस्‍कृति विभाग में राज्‍यमंत्री होना चाहते थे। हो भी गये होते, मगर इस बीच किसी ने संजय गाँधी को ग़लत सूचना दे दी कि श्रीकान्‍त वर्मा न्‍यायमूर्ति जगमोहन सिन्‍हा के जाति भाई हैं। जब से इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय के न्‍यायमूर्ति जगमोहन सिन्‍हा ने इन्‍दिराजी के खिलाफ फैसला सुनाया था, संजय गाँधी उनके समूचे समाज के विरुद्ध हो गये थे और इसके पीछे एक गहरा षड्‌यंत्र देख रहे थे। मुझे इस बात की भनक जे0 एन0 मिश्र से लगी थी, जो उन दिनों संजय गाँधी के सबसे विश्‍वस्‍त व्‍यक्‍ति थे।

ए0 आई0 सी0 सी0 में श्रीकान्‍त के निजी सचिव ओझा मेरे अज़ीज़ थे। उन्‍हीं दिनों कमलेशजी के माध्‍यम से श्रीकान्‍तजी ने मुझे बुलवाया था। उनसे मिलने के लिए मैंने ओझा को फोन किया तो उसने बताया कि श्रीकान्‍त ने उसे पहले से ही आगाह कर रखा था कि मुझे इन्‍तज़ार न कराया जाए कि बहुत पिनकू किस्‍म का आदमी हूँ। वह मीटिंग में भी हों तो मुझे भीतर भिजवा दें। मैं पहुँचा तो ओझा ने मुझे ठीक मीटिंग में भेज दिया। उस समय वह प्रेस को ब्रीफ़ कर रहे थे। सीताराम केसरी उनकी बगल में बैठे थे। संयोग से ज्‍यादातर संवाददाता मेरे मित्र निकले और प्रेस क्‍लब में मेरे हमप्‍याला रहे थे। मुझे देखते ही तमाम पत्रकारों ने मेरा गर्मजोशी से स्‍वागत किया। श्रीकान्‍त थोड़ा सकते में आ गये कि मैं इन तमाम पत्रकारों को इतने अभिन्‍न और आत्‍मीय रूप से कैसे जानता हूँ। वह मुझे अलग ले जाकर बात करना चाहते थे, उन्‍होंने दूसरे कमरे में चलने को भी कहा, मैंने उन्‍हें चिढ़ाने के लिए वहीं बैठना मुनासिब समझा। मैं जानता था, वह मुझ से क्‍या बात करना चाहते हैं। यह अन्‍दर की बात है। इसका खुलासा फिर कभी।

अपने सम्‍पर्कों की दुहाई देने से भी आदमी कभी-कभी कीचड़ और दलदल में फँस जाता है। मैं तो कई बार फँसा हूँ, डीपीटी मुझ से भी ज़्‍यादा। डीपीटी तो ऐसी स्‍थितियों को भुना भी लेता था। एक बार एक अत्‍यन्‍त वरिष्‍ठ एवं विशिष्‍ट अधिकारी ने मुझे और डीपीटी को डिनर पर आमंत्रित किया। उसे खबर लगी थी कि उनके विभाग के मन्‍त्री से हम लोगों की दोस्‍ती है। उन लोगों के यहाँ हमारा बहुत आदर-सत्‍कार हुआ। विश्‍व की उम्‍दा शराब पीने को मिली। वहाँ का माहौल बहुत औपचारिक और छुरी-काँटे वाला था। अफ़सरों की सुन्‍दर खुशबूदार बीवियाँ अंग्रेजी हाँक रहीं थीं। इस माहौल में मुझे अपनी मौजूदगी अटपटी और सर्कस के जानवरों सरीखी लग रही थी। किसी से हँसी मज़ाक भी नहीं किया जा सकता था। हम लोगों ने छककर मद्यपान किया, मगर सरूर का दूर-दूर तक अता-पता न चल रहा था, इससे ज़्‍यादा आनंद तो किसी ढाबे पर हिन्‍दुस्‍तानी शराब पीने से आ जाता था। स्‍कॉच के नशे के थर्मामीटर का पारा बहुत मंद गति से ऊपर चढ़ता है और उसी गति से नीचे आता है। तमाम अफ़सरान दो-दो तीन-तीन पैग पी कर डाइनिंग टेबिल के आसपास मंडराने लगे। मैंने सरूर महसूस होते ही उन लोगों को अपने मित्र नरेश कुमार शाद का शेर सुनाया ः

शाद वो लोग मय नहीं पीते

जो बग़र्ज़े सरूर पीते हैं

हम तो पीते हैं अपने अश्‍कों को

जामे मय तो हुज़ूर पीते हैं।

कुछ अफसरानियों ने शेर में दिलचस्‍पी दिखायी तो डीपीटी ने शेरों के ढेर लगा दिये। मेज़बान विचलित हो रहे थे कि भोजन के लिए विलम्‍ब हो रहा है। हम लोगों को बार-बार भोजन के लिए आमंत्रित किया जा रहा था। डीपीटी झुँझला गया। उसने कहा, ‘आप लोगों को शायद मालूम नहीं, हम खाते पीते लोग नहीं, पीते-पीते लोग हैं।'

‘आप भोजन करें, हमें अभी पीने दें।' मैंने डीपीटी की हाँ मे हाँ मिलायी।

मेज़बान हत्‍प्रभ। रात के ग्‍यारह बज रहे थे। मेस के बंद होने का समय हो रहा था। डीपीटी गाने लगा ः

ले उठ रहा हूँ बज़्‍म से मैं तिश्‍नगी के साथ

साक़ी मगर ये ज़ुल्‍म न हो अब किसी के साथ

लोगों ने घड़ी देखी और सब्र कर लिया। डीपीटी ने एक लोक धुन छेड़ दी, जिसे मैं सुन रहा था और भरपूर दाद दे रहा था। महिलाएँ बेचैन हो रही थीं, किसी की दिलचस्‍पी उस लोकगीत में न थी। किसी तरह हम लोगों को डाईनिंग टेबिल पर जाने के लिए तैयार किया गया।

‘आप खाना खिलाना चाहते हैं तो पहले छुरी काँटे उठवा दीजिए।' डीपीटी न कहा, ‘कालियाजी को छुरी काँटे से नफ़रत है।'

सफ़ेदपोश बैरों ने हाथों में दस्‍ताने पहन रखे थे। वे जल्‍दी-जल्‍दी छुरी काँटे उठाने लगे। तमाम लोग कौतुक से हम लोगों को देख रहे थे। डीपीटी कुर्सी पर पसर गये थे मगर हाथों से नियंत्रण छूट चुका था। उनकी हालत देखकर मेज़बान के बेटे ने उनके लिए खाना परोसा और अपने हाथ से खिलाने लगा। डीपीटी को भोजन स्‍वादिष्‍ट लगा। वह सर हिलाते हुए भोजन का आनंद लेने लगा। मेज़ पर दसियों पकवान लगे थे। मैंने एक तश्‍तरी में थोड़ी सी सब्‍ज़ी ली, सलाद उठाया और एक कुर्सी पर बैठ कर खाने लगा। हम लोगों ने जी भर स्‍कॉच पी ली थी और स्‍कॉच का नशा मुझे हमेशा सुस्‍त छोड़ जाता था। मेरी तश्‍तरी देखकर मेज़बान की पत्‍नी सक्रिय हो गयीं, ‘आप और क्‍या लीजिएगा?'

और कुछ नहीं लूंगा।' मैंने कहा, ‘मैं एक गरीब मास्‍टर का बेटा हूँ एक सब्‍ज़ी से ही खाना खाता हूँ। हमारे घर में बचपन से एक सब्‍ज़ी ही बनती थी।'

डीपीटी ने मेरी बात सुनी तो उसने भी घोषणा कर दी, ‘मेरा बाप भी बहुत ग़रीब था। कलकत्‍ता में चाय का ढाबा चलाता था। मैंने बरसों सिर्फ़ अचार से ही खाना खाया है। भई मुझे अचार से ही खाना खिलाओ। यह चिकेन-विकेन हम नहीं खायेंगे।'

वहाँ उपस्‍थित तमाम अधिकारी गण हत्‍प्रभ होकर हमारी तरफ देखने लगे। उन्‍होंने लारेल हार्डी की ऐसी जोड़ी सिर्फ़ फिल्‍मों में देखी थी। महिलाएँ खी-खी कर हँसने लगीं।

‘मेरा बचपन बहुत गुरबत में बीता है। हमारा और आप का क्‍या रिश्‍ता? डीपीटी बोला।

‘ये महफिलें आप को मुबारक।' मैंने कहा।

अचानक डीपीटी अपनी आँखें पोंछने लगा। उसे किसी बात पर रुलाई आ गयी थी।

‘क्‍या हुआ ? वाट मेक्‍स यू क्राई।' एक सुन्‍दरी द्रवित हो गयी।

‘मुझे अपनी बहन की याद आ रही है। मेरी बदकिस्‍मत बहन। उसकी आँखें भी मेरी तरह बुझ चुकी हैं।'

मुझे भी पहली बार पता चला था कि डीपीटी की कोई बहन है और उसकी तरह आँखों से लाचार है। जाने डीपीटी को क्‍या सूझा कि अचानक अंग्रजी पर उतर आया और ज़ार-ज़ोर से एज़रा पाउंड की कविता का पाठ करने लगाः

 

वॉट दाउ लवेस्ट, वैल रिमेन्स,

द रेस्‍ट इज़ ड्रास,

वॉट दाउ लवेस्‍ट वैल

इज़ दाई ट्रू हेरिटेज

वॉट दाई लवेस्‍ट वैल

कैन नॉट बी बिरेफ़्‍ट फ्राम दी।

(जो कुछ चाहा, भलि भाँति

बस वही रहेगा,

शेष व्‍यर्थ है,

जो भी चाहा भली भाँति

बस वही विरासत

जो कुछ चाहा भली भांति

वह चाव तुम्‍हारा चुरा नहीं सकता कोई।

---- एज़रा पाउंड)

उस अधिकारी ने ज़िन्‍दगी में दुबारा ऐसे मेहमान न देखे होंगे। हम लोग कब और कैसे घर पहुँचे इसका कोई इल्‍म नहीं। सुबह उठकर मैं ने अपने को और डीपीटी को खूब फटकारा कि हम लोग इस तरह की मेज़बानी के लायक नहीं हैं और कसम खायी कि अपने सम्‍पर्कों की डुगडुगी नहीं बजानी चाहिए। न चाहते हुए भी लोग आप को अपने फंदे में फाँस लेते हैं। मगर किसी ने ठीक ही कहा है कि आदतों से छुटकारा पाना आसान नहीं होता।

मैं खुद ही अपने जाल में कई बार फँसा हूँ। जाल भी खुद ही बुन लेता था। मेरी कुव्‍वते हज़्‍म यानी हाज़मा शुरू से ही कमज़ोर रहा है। गरिष्‍ठ से गरिष्‍ठ भोजन तो पच भी जाता था, मगर बात नहीं पचती थी। आज भी नहीं पचती। ममता इस लिहाज़ से शुरू से कहीं अधिक चुप्‍पी है। मैं मूर्खता की हद तक पारदर्शी हूँ। जब-जब बात पचाने की कोशिश की तो कब्‍ज़ हो गयी, जी मिचलाने लगा। जो मेरे दिल में है, उसे ज़ुबान पर आने में देर नहीं लगती। बहुत कोशिश करने पर एकाध घंटा ही बात पचा सकता हूँ और जब कोई बात नाकाबिले बर्दाश्‍त होने लगती है तो ममता से छुप कर किसी को फोन घुमा देता हूँ। प्रायः सब को मालूम रहता है, मैं किस का मित्र हूँ और किसका अमित्र। यहीं जगजीत सिंह का प्रसंग याद आ रहा है।

इलाहाबाद में पहली बार जगजीत सिंह (सुप्रसिद्ध ग़ज़ल गायक) को आमंत्रित किया गया था। सारा शहर आन्‍दोलित था। कार्यक्रम का पास प्राप्‍त करने की होड़ मची थी। कार्यक्रम का आयोजन ‘प्रयाग महोत्सव' के नाम पर प्रशासन की तरफ़ से हो रहा था। लगता है अफ़सरों की बीवियों के अनुरोध पर कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। तमाम पास प्रशासनिक और पुलिस अधिकारियों के बीच बँट गये थे। इलाहाबाद में पुलिस मुख्‍यालय, उच्‍च न्‍यायालय, शिक्षा निदेशालय आदि अनेक महत्‍वपूर्ण कार्यालय हैं, शहर में अधिकारियों की भरमार है। ऐसे में किसी भी महत्‍वपूर्ण कार्यक्रम के लिए प्रवेश पत्र प्राप्‍त करने की मारा-मारी मची रहती। कार्यक्रम का आयोजन मेहता संगीत समिति के हाल में किया गया था। हाल की क्षमता सीमित थी, मगर जगजीत के प्रशंसकों की संख्‍या असीमित थी। कार्यक्रम घोषित होते ही जगजीत के रिकार्डों और कैसेटों की बिक्री अचानक बढ़ गयी थी। वह ग़ज़ल गायकी की लोकप्रियता का प्रथम दौर था। हर कोई इस जुगाड़ में था कि किसी तरह जगजीत सिंह को रूबरू सुनने का अवसर प्राप्‍त हो जाए। जिन्‍होंने कभी ज़िन्‍दगी में ग़ज़ल न सुनी थी वह भी जगजीत को सुनने व देखने को आतुर थे। मेरे तमाम मित्र मेरे यहाँ जगजीत की ग़ज़लें और पंजाबी गीत सुन चुके थे। और मैं भी जगजीत के प्रति लोगों का अतिरिक्‍त उत्‍साह देखकर अपनी मित्रता की दुहाई देने लगा था। इलाहाबाद में जगजीत का कार्यक्रम घोषित हुआ तो सिर्फ़ दोस्‍त नहीं उन की पत्‍नियाँ, प्रेमिकाएँ और भौजाइयाँ भी समारोह में प्रवेश पाने के लिए मुझ से सम्‍पर्क करने लगीं। अब मैं किसी को क्‍या बताता कि जब से इलाहाबाद आया हूँ, मेरा जगजीत से सम्‍पर्क नहीं है। जगजीत का सब से अधिक आग्रह साउंड सिस्‍टम पर रहता है, उसके प्रति आश्‍वस्‍त होने के बाद ही वह कार्यक्रम स्‍वीकार करता था। कुछ ऐसी ही तकनीकी विवशताओं के कारण कार्यक्रम हाल में रखा गया था, वर्ना श्रोताओं में इतना उत्‍साह था कि संगीत समिति का मुक्‍तांगन भर जाता, जिस में हज़ारों लोग समा सकते थे। प्रवेश केवल आमंत्रित लोगों के लिए खुला था और शहर के बहुत से रईसज़ादे पैसे खर्च करके भी प्रवेशपत्र प्राप्‍त नहीं कर सकते थे। ज़्‍यादातर पास प्रशासन, पुलिस और पत्रकारों और उनके चहेतों में ही बँट गये थे।

जगजीत मेरा कालिज के दिनों का साथी था। मुझ से एक दो बरस जूनियर ही रहा होगा, मगर मैं तमाम लोगों को यही बताता था कि मेरा सहपाठी था। संगीत का शौक उसे कालिज के दिनों से था। मैं डी0 ए0 वी0 कालिज स्‍टूडेंट्‌स कांउसिल का अध्‍यक्ष निर्वाचित हो गया तो अक्‍सर अन्‍तर्विश्‍वविद्यालीय संगीत प्रतियोगिताओं में भाग लेने के लिए वह मुझ से सम्‍पर्क करता। वह दूर-दूर से कालिज के लिए संगीत प्रतियोगिताओं से ट्राफी जीतकर लाता। अर्द्धशास्‍त्रीय संगीत के क्षेत्र में उसने प्रदेश के तमाम संस्‍थानों पर अपने और कालिज के झण्‍डे फहरा दिये थे। कालिज के दिनों से ही वह संगीत को समर्पित हो गया था। शहर के पत्रकारों, और कवियों, शायरों से उसकी मित्रता होना स्‍वाभाविक था। शाम को सब लोग कॉफी हाउस में इक्‍ट्‌ठा होते। पंजाबी कवियों और शायरों की कोशिश रहती कि जगजीत उनका कोई गीत और ग़ज़ल गा दे। सुदर्शन फाकिर भी डी0 ए0 वी0 कालिज का ही छात्र था। कृष्‍ण अदीब, शिवकुमार बटालवी, कुमार विकल, नरेश कुमार शाद, प्रेम बारबरटनी वगैरह जालंधर आते तो शाम को कॉफी हाउस में महफिल जमती। बाद में सुदर्शन फाकिर और कृष्‍ण अदीब की कई ग़ज़लें बेगम अख्तर, रफी आदि विख्‍यात कलाकारों ने भी गायीं। प्रेम बारबरटनी ने फिल्‍मों के लिए भी गीत लिखे। बेगम अख्‍़तर ने तो अपने अन्‍तिम दिनों में ज़्‍यादातर फ़ाकिर की ही ग़ज़लें गायीं। ये तमाम लोग काफ़ी हाउस जालंधर की ही पैदावार थे। तब किसी ने कल्‍पना न की होगी कि ये लोग इतनी ऊँची उड़ान भरेंगे। उन दिनों तो हम सभी लोग साथ-साथ चप्‍पल चटखाते हुए आवारगी करते थे। फाकिर का कमरा एक मुसाफ़िरखाने की तरह था, बाहर से आने वाले शायर लोग भी उसी में पनाह लेते थे। वहाँ हर वक्‍त लंगर खुला रहता था, नीचे ढाबा था, कोई भी सीढ़ियाँ चढ़ने से पहले मनमुआफ़िक भोजन का आदेश कर आता था।

 

बाद में जब कई बरस बाद मैं मुम्‍बई से शादी के बाद जालंधर पहुँचा तो पाया फ़ाकिर की जीवन शैली में ज़्‍यादा परिवर्तन नहीं आया था। वह आकाशवाणी जालंधर से स्‍क्रिप्‍ट राइटर के रूप में सम्‍बद्ध हो गया था। वह राजनीति शास्‍त्र का विद्यार्थी था, मगर उसकी दिलचस्‍पी सिर्फ़ साहित्‍य में थी, साहित्‍य में कम सिर्फ़ ग़ज़ल में। उन्‍हीं दिनों हिन्‍दी के विख्‍यात कवि गिरिजाकुमार माथुर आकाशवाणी के केन्‍द्र निदेशक हो कर जालंध्‍ार आ गये थे। जिन दिनों मैं जालंधर पहुँचा माथुर साहब और फाकिर में ऐसी ठन गयी थी कि दोनों एक दूसरे के खून से प्‍यासे हो गये थे। माथुर केन्‍द्र निदेशक थे और फाकिर फकत स्‍क्रिप्‍ट राइटर। दोनों ने एक दूसरे का जीना हराम कर रखा था। फाकिर से ही मालूम पड़ा कि केन्‍द्र निदेशक उसे नौकरी से निकलवाने पर आमादा हैं। गिरिजाकुमार माथुर की भारतीजी से बहुत पटती थी और भारतीजी ने मुझे उनसे मिलकर आने को कहा था। मैंने फोन पर उनसे समय लिया। माथुर साहब ने उसी शाम मिलने की इच्‍छा प्रकट की, डिनर पर। मैं और ममता उनके यहाँ पहुँचे। सोचा, वक्‍त मिलते ही फाकिर की बात करूँगा और दोनों में सुलह सफ़ाई करवा दूँगा। हम लोग पहुँचे तो उनके बँगले की बत्‍ती गुल थी। उन्‍होंने बाहर लॉन में कुर्सियाँ डलवायीं और हम लोग बाहर आ बैठे। इस बीच उन्‍होंने कुछ कविताएँ लिखी थीं और वह एक नवोदित कवि की तरह कविताएँ सुनाने को मचलने लगे। उन्‍होनें अत्‍यंत स्‍नेहपूर्वक शकुन्‍तला माथुर को बाहर मेज पर मोमबत्‍ती जलाने को कहा और वह टार्च की रोशनी में भीतर गयीं और मोमबत्‍ती का स्‍टैण्‍ड उठा लाईं। साथ में वह अपनी कविताओं की भी कापी उठा लायीं। मुझे मच्‍छर बहुत काटते हैं, अभी काव्‍यपाठ शुरू नहीं हुआ था कि मुझे मच्‍छरों ने सताना शुरू कर दिया। कभी बाँह पर काट जाए और कभी पैरों पर। माथुरजी अत्‍यन्‍त तन्‍मयता से काव्‍य पाठ करने लगे मगर मेरे कान में मच्‍छर भिनभिना रहे थे। मैं कभी बाँह पर हाथ मारता, कभी पैर पर, कभी कान पर से मच्‍छर उड़ाता। उस दिन मच्‍छर भी जैसे मेरे पीछे पड़ गये थे। माथुरजी को इस की परवाह नहीं थी, वह धाराप्रवाह एक के बाद दूसरी कविता सुनाते रहे। कैंडिल लाइट जब मद्धम पड़ने लगी माथुरजी ने टॉर्च जला कर कवितायें पढ़ना जारी रखा। हम लोगों ने जी भर कर कविताएँ सुनी। माथुर साहब ने इतनी कविता सुना दीं कि शकुन्‍तलाजी ने अपनी कविताएँ सुनाने का इरादा तर्क कर दिया। अच्‍छा ही किया। मैंने मन ही मन उनके निर्णय की दाद दी। इस बीच बत्‍ती आ गयी थी और वह डाइनिंग टेबिल पर भोजन परोसने लगीं। मुझे लगा, वह गृहिणी पहले हैं और कवयित्री बाद में। हो सकता है उन्‍होंने लक्षित कर लिया हो कि मेरा ध्‍यान कविताओं पर कम मच्‍छरों पर ज़्‍यादा था। माथुर साहब तरंग में थे। काव्‍य पाठ के बाद वह सस्‍वर गीत सुनाने लगे। इस बीच मोमबत्‍ती जमकर मोम हो चुकी थी, मगर माथुर साहब की कविताओं का क्रम भंग न हुआ।

 

बीच में मौका पाते ही मैंने फाकिर का ज़िक्र किया तो वह तमाम शायरी भूलकर उसका कच्‍चा चिट्‌ठा खोलने लगे कि वह तो शराब पीकर स्‍टूडियो में चला जाता है। उसने और उसके कुछ आवारा साथियों ने आकाशवाणी का माहौल दूषित कर रखा है, मगर वह भी उसे सबक सिखा कर ही रहेंगे। तभी उन्‍हें अपनी कुछ भूली बिसरी पंक्‍तियाँ याद आ जातीं हैं तो वह फाकिर को भूल जाते है। मैंने अनेक बार कोशिश की कि उन्‍हें फ़ाकिर के बारे में बताऊँ कि वह एक फकीर आदमी है, नौकरी भी उसके लिए महज़ शगल है। नौकरी उसकी प्राथमिकता रही है न आवश्‍यकता। वह एक अत्‍यन्‍त समृद्ध परिवार से ताल्‍लुक रखता था। जालंधर में ही उसकी बहन की आलीशान कोठी थी, पिक्‍चर हाउस था, फार्म हाउस था। उसके पिता फीरोज़पुर के जाने माने डाक्‍टर थे और सिविल सर्जन थे। समूचा परिवार उसकी शायरी से परेशान रहता था, मगर माथुर साहब की निगाह में वह फकत एक स्‍क्रिप्‍ट राइटर था। उन्‍हें शायद यह भी मालूम नहीं था कि वह उर्दू का एक उभरता हुआ शायर था। शायर भी ऐसा जो न अपनी रचनाएँ कहीं छपने भेजता था और न किसी मुशायरे में जाता था, मगर पंजाब भर के शायरों का वह चहेता शायर था। उन्‍होंने भी उस समय कल्‍पना न की होगी कि एक दिन देश के मूर्द्धन्‍य गायक उसकी ग़ज़लों को अपनी आवाज़ देंगे। मैंने खाने की टेबिल पर भी दो एक बार फाकिर का ज़िक्र किया, मगर माथुर साहब उसका नाम सुनते ही भड़क जाते। अन्‍त में शायद उन्‍होंने फ़ाकिर को नौकरी से निलम्‍बित भी करा दिया था। एक लिहाज़ से यह फ़ाकिर के लिए अच्‍छा ही हुआ और वह आकाशवाणी की टुच्‍ची राजनीति और संकीर्ण दुनिया से बदज़न हो कर बम्‍बई रवाना हो गया। जब तक फाकिर बम्‍बई पहुँचता मैं वहाँ से इलाहाबाद के लिए रवाना हो चुका था। वह दिन और आज का दिन फाकिर की मुझसे फिर भेंट न हुई।

 

मुम्‍बई में मेरी जगजीत से अक्‍सर कहीं न कहीं भेंट हो जाती। वह उसके संघर्ष का दौर था। मुम्‍बई में रोज़ देश भर से सैकड़ों कलाकार आते हैं, मगर सफलता कुछ एक को ही हासिल होती है। ज़्‍यादातर लोग बर्बाद होकर या टूटकर वापिस लौट जाते हैं या वहीं संघर्ष करते हुए तबाह हो जाते हैं। जगजीत सिंह के लिए वे परीक्षा के दिन थे। एक दिन लोकल में उससे भेंट हो गयी। वह बहुत परेशान दिखायी दे रहा था। उसके पास आवास की सन्‍तोषजनक व्‍यवस्‍था न थी। उसने कहा कि मैं किसी लॉज में उसे जगह दिलवा दूँ। तब तक मुम्‍बई मे मेरे पैर जम चुके थे। शिवाजी पार्क में रानाडे रोड पर हमारे घर के सामने ही एक लॉज थी। मेरे दोस्‍त ओबी का उस लॉज के मालिक से दोस्‍ताना था। मैंने वादा किया कि उसके आवास की व्‍यवस्‍था कर दूँगा। ओबी ने चुटकियों में उसकी समस्‍या हल कर दी। तब तक न मुझे और न ओबी और न उस लॉज मालिक को एहसास था कि यही जगजीत एक दिन बम्‍बई क्‍या पूरे देश का लाडला बन जाएगा। बम्‍बई में ट्रेन मे ही उससे कभी-कभार मुलाकात हो जाती और उसकी खैरियत मिल जाती।

इलाहाबाद में जगजीत का कोई नया रिकार्ड आता तो रेखी साहब फोन पर मुझे इसकी सूचना देते। मैं उसी समय सब कामकाज बीच में छोड़कर जान्‍सनगंज ‘रेखी ब्रदर्स' के शो रूम में पहुँच जाता। रेखी साहब ने मुझे अनेक दुर्लभ रिकार्ड उपलब्‍ध करवाये थे, उनमें फैज़ अहमद ‘फैज़' के भी रिकार्ड थे। वह शहर के सब से प्रतिष्‍ठित संगीत विक्रेता थे। सन् चौरासी के दंगों में दंगाइयों ने उनकी दुकान को आग लगा दी और दुकान पर लूट-पाट भी हो गयी। मैं उन दिनों दिल्‍ली में था, लौटकर आया तो ग्‍लानि हुई और सदमा लगा कि साम्‍प्रदायिकता की आग में संगीत के एक पारखी को भी साम्‍प्रदयिक जुनून का शिकार होना पड़ा। रेखी साहब का मन इस धंधे से उचट गया और उन्‍होंने इस व्‍यवसाय को ही छोड़ दिया। रेखी साहब की मदद से मैंने बेग़म अख्तर, सहगल, जगजीत सिंह वगैरह के तमाम रिकार्ड हासिल कर लिऐ थे। उन दिनों स्‍टीरियो सिस्‍टम नया-नया बाज़ार में आया था। रेखी साहब ने मुझे ‘गेरर्ड' का चेंजर और ‘सोनोडाइन' के स्‍पीकर दिलवाये थे। जगजीत का रिकार्ड बजता तो तमाम कमरे में धुएँ की तरह उसकी आवाज़ भर जाती। मैं हर मिलने जुलने वाले को ध्‍वनि का यह अद्‌भुत चमत्‍कार दिखाता। एक स्‍पीकर पर आवाज़ आती और दूसरे से वाद्ययंत्रों की धुनें उठतीं। उन दिनों स्‍टीरियो पर ग़ज़ल सुनने का आनंद ही दूसरा था। अब तो खैर वह सिस्‍टम पुराना पड़ चुका है, लुप्‍तप्राय हो चुका है, उसका स्‍थान सीडी सिस्‍टम ने ले लिया है, और मेरी मेहनत से तैयार की गयी संगीत की लायब्रेरी अप्रासंगिक हो चुकी है और वे रिकार्ड आलमारी में धूल चाट रहे हैं, जिन्‍हें मैं किसी को छूने भी न देता था। अब डिजिटल रिकार्डिंग का ज़माना है।

शहर में जगजीत सिंह के कार्यक्रम का प्रवेश पत्र प्राप्‍त करने की होड़ मची थी, मगर मेरे मित्र आश्‍वस्‍त थे कि मेरे रहते उन्‍हें कार्यक्रम में प्रवेश पाने में कोई दिक्‍कत न होगी। अब तक मैं अपने और जगजीत के सम्‍बंधों की इतनी डुगडुगी पीट चुका था कि मेरे लिए भी हामी भरने के अलावा कोई चारा न था। एक सोये हुए सुप्‍त निश्‍चेष्‍ट सम्‍बन्‍ध को यकायक सक्रिय करना मुझे अटपटा व दुःसाध्‍य कार्य लग रहा था, मगर मेरे सामने कोई दूसरा विकल्‍प न बचा था। मैंने खुद ही अपना सर ओखली में दिया था।

मैंने अपने पत्रकार मित्रों को ताकीद कर दी कि वह जगजीत के शहर में उतरते ही सूचना दें कि वह किस होटल में रुका है। दोपहर बाद सूचना मिली कि उसके ठहरने की व्‍यवस्‍था हाईकोर्ट के सामने एक होटल में की गयी है। उसके दल-बल सहित होटल में पहुँचते ही मैंने अधिकारपूर्वक होटल का फोन मिलाया। होटल के जितने नम्‍बर थे, सब व्‍यस्‍त हो गये थे। फ़ोन घुमाते-घुमाते अंगुलियाँ थक गयीं। घण्‍टी जाती भी तो पता चलता ग़लत नम्‍बर मिल गया है। कोई आध घंटे के संघर्ष के बाद होटल का फ़ोन मिला।

‘हैलो, होटल विश्रांत।'

‘जगजीत सिंह यहीं ठहरें हैं?' मैंने पूछा।

‘हाँ, अभी आराम फरमा रहे हैं।'

‘मैं रवीन्‍द्र कालिया बोल रहा हूँ, उनका दोस्‍त। उन्‍हें फोन दीजिए।'

‘इस समय मुमकिन नहीं।' उधर से बेरुखी से किसी ने कहा।

मुझे बहुत तेज़ गुस्‍सा आया, ‘आप समझ नहीं रहे हैं, मैं उनका बचपन का दोस्‍त हूँ। उसे फोन दीजिए।'

‘सॉरी सर।' उसने कहा और फोन रख दिया।

मैं दुबारा फोन मिलाने में जुट गया। इस बार बहुत आसानी से फोन मिल गया। देर तक घंटी जाती रही, किसी ने फोन नहीं उठाया। बहुत देर बाद किसी ने जैसे अनिच्‍छापूर्वक फोन उठाया-‘होटल विश्रांत।'

‘फोन पर आने के लिए शुक्रिया।' मैंने कहा, ‘जरा जगजीत सिंह को फोन दीजिए।'

‘आफ कौन साहब बोल रहे हैं।' किसी ने तमीज़ से पूछा।

‘रवीन्‍द्र कालिया।' मैंने संक्षिप्‍त जवाब दिया, जैसे यह किसी तोप का नाम हो, जो इसे नहीं जानता वह महामूर्ख है।

‘उनसे क्‍या कहना होगा?'

‘नाम बताना काफी होगा।'

‘मुआफ़ कीजिए आप कौन हैं?'

मैं उनका दोस्‍त हूँ।'

‘अब तक उनके बीसियों दोस्‍तों, अंकलों, आंटियों के फोन आ चुके हैं। शहर में उनकी कोई रिश्‍तेदारी नहीं।'

‘मैं रिश्‍तेदार नहीं, दोस्‍त हूँ, उन्‍हें फोन दीजिए, वर्ना..।

‘वर्ना क्‍या?'

‘अपना नाम बताइए।'

‘क्‍या कर लेंगे आप। कह दिया न कि वह किसी से बात न करेंगे। मेरा जवाब सुने बगैर उसने फोन रख दिया।

मैंने बहुत बेबसी से ममता की तरफ़ देखा। वह भी मेरी विडम्‍बना समझ रही थी।

‘बोतल लाओ।' मैंने कहा। हर शिकस्‍त के बाद मुझे बोतल ही सहारा देती थी। जब तक मैं पैग ढालता फोन बजता रहा। मेरे मित्र लोग मुझसे ज़्‍यादा बेचैन हो रहे थे। हर कोई यह पूछता, ‘कब चलेंगे?'

 

मेरी स्‍थिति अत्‍यन्‍त हास्‍यास्पद होती जा रही थी। सूरज डूब चुका था। वैसे भी यह मेरी कारसेवा का समय होता है। ऐसे में मैं किसी भी बाह्य हस्‍तक्षेप से गुरेज़ करता था। लग रहा था, आज की शाम बर्बाद हो जाएगी। मैंने ममता से कहा, सब से संगीत समिति के गेट पर मिलने को कहो। दूसरों की बात दरकिनार वह खुद चलने के लिए बेकरार हो रही थी। मैंने जल्‍दी से दो एक पैग चढ़ाये और ममता से कहा, ‘वहीं होटल में जा कर मिलते हैं।'

होटल पहुँचे तो बाहर लोगों का भारी हूजूम था। पुलिस लग गयी थी और भीड़ को नियंत्रित कर रही थी। गेट के पास ही पुलिस की एक जीप खड़ी थी। संयोग से उप नगर अधीक्षक उसमें बैठे थे, जो मेरी पहचान के निकल आये। उन्‍होंने एक सिपाही साथ कर दिया, जिसने होटल का गेट खुलवा कर हमें भीतर कर दिया। भीतर भी लोगों की अच्‍छी-खासी भीड़ थी। भीतर पहुँचकर लगा जैसे कोई किला फतेह करके यहाँ तक पहुँचे हैं। भीतर लड़के लड़कियों और शहर के प्रभावशाली लोगों की भीड़ थी। अफसरों की बीवियाँ, उनके चमचे और अखबारों के संवाददाता और छायाकार मुस्‍तैद नज़र आ रहे थे। एक कमरे के सामने छायाकारों की भीड़ देखकर सहज की अनुमान हो गया कि वी0 आई0 पी0 उसी कमरे में हैं। कमरे के किवाड़ बंद थे। मुझे एक प्रशंसक की तरह वहाँ लाइन में लगना बहुत अपमानजनक लग रहा था। मगर इसके अलावा और कोई चारा भी न था। मुझे यह एहसास होते देर न लगी कि वह अब पुराना जगजीत सिंह नहीं रहा, वह एक स्‍टार बन चुका है। उसके कमरे के किवाड़ ऐसे बंद थे कि वह कभी खुलेंगे ही नहीं और वह छत फाड़कर संगीत समिति पहुँच जाएगा। दीवानों की इस भीड़ में मैं अपने को बहुत निरुपाय, अटपटा और अनुपयुक्‍त अनुभव कर रहा था कि अचानक दरवाज़ा खुला। कमरे से कुछ साज़िन्‍दे निकले और पोर्च में खड़ी कार मैं बैठ गये। एक बैरा ट्रे में मिनरल वाटर की बोतलें और गिलास लिए कमरे में घुस गया। उसके वापिस आते ही किवाड़ फिर बंद हो गये। दरवाज़े पर एक सिपाही तैनात हो गया।

 

अँधेरा घिरने लगा था और मेरा हलक सूख रहा था। एक बार तो जी में आया, चुपचाप घर लौट चलूँ, यह खेल तमाशा मेरे वश का नहीं है, मगर मैंने अपने गले में खुद ही एक फंदा लगा लिया था और अब उससे मुक्‍ति संभव न थी। जाने कितने मित्र संगीत समिति के बाहर जगजीत सिंह से ज़्‍यादा मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। तभी एक लाल बत्‍ती वाली एम्‍बेसडर पोर्च में आकर रुकी। ए0 डी0 एम0 सिटी कैप्‍टन द्विवेदी उसमें से उतरे। संयोग से वह भी मेरे मित्र थे। गाड़ी से उतरकर उन्‍होंने चारों तरफ़ नज़र दौड़ायी। मुझे देखकर हाथ हिलाया और जगजीत सिंह के कमरे में घुस गये। मैं दूर खड़ा था, वर्ना उनके साथ हो लेता। कमरे के किवाड़ एक बार फिर खुले। इस बार जगजीत सिंह और चित्रा नमूदार हुए। लोगों में हलचल मच गयी। ऑटोग्राफ लेने वालों की भीड़ आगे बढ़ी। जगजीत और चित्रा गाड़ी की तरफ कदम बढ़ाते हुए ऑटोग्राफ़ देने लगे। मैंने यही वक्‍त मुनासिब समझा और वहीं खड़े-खड़े पंजाबी की एक भारी भरकम गाली के साथ चिल्‍लाते हुए आवाज़ दी, ‘जगजीत।' जगजीत ने मेरी तरफ़ देखा और मुस्‍कुराते हुए हाथ हिलाया। मैं और ममता भीड़ को चीरते हुए गाड़ी तक पहुँचे। जगजीत ने हम दोनों को गाड़ी में घुसने का इशारा किया और चित्रा के साथ हम लोगों के साथ बैठ गया। अगली सीट पर गार्ड को पीछे की गाड़ी में आने का संकेत देते हुए कैप्‍टन द्विवेदी बैठ गये। गाड़ी भीड़ को चीरती हुई फुर्र से संगीत समिति की तरफ़ दौड़ने लगी। समय बहुत कम था, फिज़ूल की औपचारिकता में पड़ने के बजाए मैंने जगजीत को अपने विडम्‍बना बतायी। उसने तुरन्‍त आशवासन दिया कि इन्‍तज़ाम हो जाएगा। जगजीत ने कन्‍सर्ट के बाद साथ चलने और साथ में भोजन करने का निमंत्रण भी दिया। मेरी जान में जान आई। किसी तरह लाज बची। संगीत समिति के गेट पर ही हम लोग उतर गये। मेरे दोस्‍तों के चेहरे पर छायी निराशा मुझे जगजीत के साथ उतरते देख आशा में तब्‍दील हो गयी। मैं तमाम दोस्‍तों को भीतर ले जाने में सफल हो गया, मगर इस दौरान जिस तनाव, यंत्रणा और पीड़ा से गुज़रा था, उसे देखते हुए एक बार फिर तीसरी कसम खायी कि मेरा कोई मित्र कभी गलती से प्रधानमंत्री भी हो गया तो कानों कान किसी को इसकी भनक न लगने दूँगा। मैंने कहाँ तक इस कसम का पालन किया, कह नहीं सकता, मगर इतना ज़रूर हुआ कि अपने अतिरिक्‍त उत्‍साह पर अंकुश लगाना सीख गया। इस सारी दौड़भाग में मैं इतना निढाल हो गया था कि जगजीत ने क्‍या सुनाया, कुछ याद नहीं रहा।

 

होटल लौटकर हम लोगों ने साथ-साथ भोजन किया। जगजीत ने विधिवत चित्रा व साज़िन्‍दों से हमारा परिचय करवाया। नशे में मैंने जाने किस झोंक में चित्रा को सलाह दे डाली कि वह ग़ज़ल गाना बंद कर दे और रवीन्‍द्र संगीत गाया करे। मेरी बात से चित्रा तो मुस्‍कराने लगीं, मगर साजिन्‍दे मुझ से खफ़ा हो गये। उन्‍हें जानते देर न लगी होगी कि यह मेरी अनाधिकार चेष्‍टा थी। हम लोग खुशी-खुशी घर लौटे, खुशी की एक वजह यह भी थी कि मैं पीकर इससे भी ज़्‍यादा गुस्‍ताखी कर सकता था। ममता सन्‍तुष्‍ट थी कि मैं ज़्‍यादा अनियंत्रित नहीं हुआ।

बाहर से हमारे गोत्र का कोई रचनाकार इलाहाबाद आता तो यकायक माहौल बदल जाता। छोटा-मोटा साहित्‍यिक समारोह हो जाता। देश के अनेक नामी-गिरामी रचनाकारों ने इन महफिलों की शोभा बढ़ायी है। कुछ शामें तो दिमाग़ में गहरे नक्‍श छोड़ गयी हैं। पंजाबी के कथाकार हरनाम दास सहराई शहर में नमूदार होता तो शाम का हुलिया बिगड़ जाता। वह ‘बहूशों' की तरह पीता था। पंजाबी साहित्‍य में उसका क्‍या स्‍थान था, इसे हम लोगों में से सही-सही कोई नहीं जानता था, इतना ज़रूर मालूम था कि उस के दर्ज़नों उपन्‍यास छप चुके थे। कुछ उपन्‍यासों का हिन्‍दी व अन्‍य भारतीय भाषाओं में भी अनुवाद हो चुका। एक ऐतिहासिक उपन्‍यास ‘सभराँव' का तो मैंने ही गाढ़े दिनों में अनुवाद किया था। सहराई से मेरा परिचय पंजाब में उतना नहीं था, जितना मुम्‍बई और इलाहाबाद में हुआ। पंजाब में तो मात्र दुआ-सलाम का रिश्‍ता था। उस समय हमारी साहित्‍य में कोई भी स्‍थिति नहीं थी, मगर हम लोग उन दिनों भी सहराई को सेटते नहीं थे। वह ठर्रा चढ़ाकर कभी-कभी कॉफी हाउस में नमूदार होता था और गाली गलौज करने के बाद लौट जाता। उम्र में वह हम लोगों से दसेक वर्ष बड़ा होगा। सहराई के साथ मेरी पीने की कई स्‍मृतियाँ जुड़ी हुई हैं।

 

पीते-पीते अचानक सो जाने वाले बहुत कम लोग होंगे। उन में से एक तो उमेशनारायण शर्मा ही हैं। महफिल के दौरान वह आराम से बाकायदा एक छोटी सी नींद ले सकते हैं। वह रात को कितनी भी देर से सोयें सुबह साढ़े चार-पाँच तक उनकी आँख ज़रूर खुल जाती है और वह अपने कुत्‍तों को दौड़ाते हुए सैर पर निकल जाते हैं। उनके घर पर पार्टी हो तो उनकी कोशिश रहती है कि दस बजे तक खाना लग जाए। वह समय शराबियों के लिए बड़ा नाज़ुक समय होता है, चरमोत्‍कर्ष जैसा। असमय ही खाना सिर पर तलवार की तरह लटकने लगता है। मजबूरी में तमाम शराबी हाथ में जाम लिए या एक घूँट में खेल खत्‍म कर डाइनिंग टेबिल की ओर सरकने को मजबूर हो जाते हैं। जो उठने में आनाकानी करते हैं, उनके लिए खाना खुद ही प्‍लेट में सजकर चला आता है। जिन लोगों को खाना रास नहीं आता था, खाने की रस्‍म अदायगी के बाद घर लौट कर दुबारा मद्यपान में जुट जाते। साथ देने वाला कोई न कोई ज़रूर मिल ही जाता। यह जोखिम कोई पत्रकार या लेखक ही उठा सकता था।

 

कुछ लोग ऐसे भी मिले, जो पीकर बीच में सो जाते थे। पुस्‍तक का यह अध्‍याय उन्‍हीं मित्रों को समर्पित है। यहीं मस्त-मस्‍त नींद का एक दिलचस्‍प प्रसंग याद आ रहा है। मैं नया-नया मुम्‍बई गया था। दिल्‍ली मुम्‍बई में गाहे ब गाहे विदेशी दूतावास पत्रकारों को आमंत्रित करते रहते हैं। वे कोई न कोई बहाना तलाश ही लेते हैं। कभी किसी साहित्‍यिक सांस्‍कृतिक समारोह का आयोजन तो कभी किसी फिल्‍म की स्‍क्रीनिंग का अवसर तो कभी यों ही चिटचैट यानी गपशप। ‘धर्मयुग' में सब सूफ़ी और आज्ञाकारी उपसम्‍पादक एवं पति थे। पाँच बजे के बाद तमाम लोग छोटे बच्‍चों की तरह छुट्टी होते ही घर की ओर भागते थे। दूतावास से आये निमंत्रण पत्र अस्‍वीकृत और लावारिस रचनाओं या देश भर से आई समीक्षार्थ पुस्‍तकों की तरह दर दर की ठोकरें खाते रहते थे। दूसरे विभागों में इन निमंत्रण पत्रों की बहुत माँग रहती थी। दूसरी पत्रिकाओं के सम्‍पादकीय कर्मी कुछ इस प्रकार ‘धर्मयुग' की रद्दी टटोलते जैसे सुनारों के कार्यस्‍थलों के बाहर बहने वाली नालियों में लोग सुबह-सुबह तसले में स्‍वर्णकणों की तलाश में कीचड़ छाना करते हैं। पत्रकार दिन भर इसी प्रकार के निमंत्रणों की टोह में रहते थे। इस मामले में सिने पत्रिकाओं के पत्रकारों की चाँदी रहती थी। उन की शामें प्रायः किसी पाँच सितारा होटल में गुज़रती थी। फिल्‍मी सितारों के जनसम्‍पर्क अधिकारी सानुरोघ इन लोगों को आमंत्रित करते। अंधे के हाथ जैसे बटेर लगता है, एक दिन ऐसे ही मेरे हाथ चैक दूतावास का निमंत्रण लग गया दूतावास की ओर से अन्तराष्ट्रीय ख्‍यातिप्राप्‍त किसी चैक फिल्‍म के प्रदर्शन का निमंत्रण था। साथ में कॉकटेल की व्‍यवस्‍था थी। मैंने फोन कर के ममता को भी बुलवा लिया और दफ़्‍तर के बाद पैडर रोड पर हम दोनों फिल्म देखने पहुँच गये। बहुत चुनिन्‍दा लोग आमंत्रित थे। उस समूह में हिन्‍दी का मैं अकेला पत्रकार था।

 

उस दिन पंजाबी के उपन्‍यासकार हरनामदास सहराई भी मुम्‍बई आए हुए थे। जालंधर में उनका नल की टोंटियाँ वगैरह बनाने का कारखाना था। वह देश भर में घूम-घूम कर टोंटियों का आर्डर लिया करते थे और कारखाने का कारोबार परिवार के अन्‍य लोग देखते थे। वह जब भी मिलते अपनी नयी किताब ज़रूर भेंट करते। उनके अधिसंख्‍य उपन्‍यास सिख इतिहास पर केन्‍द्रित थे। वह जिस भी शहर में होते शाम को अपने काम से फुर्सत पाकर स्‍थानीय लेखकों से सम्‍पर्क करते। व्‍हिस्‍की की बोतल हमेशा उनके ब्रीफ़केस में रहती। वह ढीला-ढाला कुर्ता पायजामा पहनते थे और पंजाबी तलफ़्‍फुज़ में पंजाबी साहित्‍य में अपने मूल्‍यवान योगदान पर धाराप्रवाह बोला करते थे। उनके बोलने की टोंटी खुल जाती तो आसानी से बंद न होती। उन्‍हें कहीं से खबर लग गयी थी कि उनका एक हमवतनी ‘धर्मयुग' में पहुँच गया है। वह अगली बार मुम्‍बई आये तो मुझसे मिलने दफ़्‍तर चले आये। मिलते ही वह बगलगीर हुए और चाय की फरमाइश की। उन्‍होंने बताया कि मेरे मुम्‍बई आने की खुशी में उन्‍होंने एरिस्‍टोक्रेट की बोतल खरीद ली है, जिसका सेवन शाम को दफ़्‍तर के बाद किया जाएगा। फिलहाल उनका इरादा धर्मवीर भारती से मिलने का था।

 

‘भारती को पता चला कि मैं बगैर मिले लौट गया तो नाराज़ होगा। सहराई ने अपनी समस्‍या बतायी।‘क्‍या आप धर्मवीर भारती से परिचित हैं?' मैंने पूछा।

‘बल्‍ली, कैसी बच्‍चों जैसी बात करते हो। वह ‘धर्मयुग' का सम्‍पादक है। यह हो ही नहीं सकता कि वह मेरे नाम से परिचित न हो।'

‘तुम नहीं जानते सहराई, वह बहुत घमण्‍डी हैं।' मैंने धीरे से उसके कान में कहा। मैं चाहता था वह भारतीजी से भेंट करने का इरादा फौरन तर्क कर दे। मैं आश्‍वस्‍त नहीं था कि भारती उससे मिलेंगे भी या नहीं। देश के कोने-कोने से आए अनेक लेखक अपने नाम की चिट भिजवाकर घण्‍टों चातक की तरह प्रतीक्षा किया करते थे। भारतीजी का मन होता या फुर्सत में होते तो बुलाते वर्ना चुप्‍पी साध लेते, अगर शिष्‍टाचार का तकाज़ा होता तो कहलवा देते आज व्‍यस्‍त हैं, मिलना संभव न होगा। कब संभव होगा, यह कोई नहीं जानता था। ऐसे यशःप्रार्थी लेखक नंदन सरल अथवा स्‍टाफ़ के किसी अन्‍य सदस्‍य के साथ थोड़ा समय बिता कर लौट जाते। सहराई का भी यही हश्र होता, मैं उस को इस जिल्‍लत से बचाना चाहता था और टाल मटोल करता रहा। मेरा रुख देखकर उसने हिन्‍दी वालों को एक भारी भरकम गाली दी और धड़धड़ाते हुए खुशवंत सिंह के कैबिन में घुस गया, जो नये-नये इलेस्‍ट्रेटेड वीकली के सम्‍पादक होकर आये थे।

 

ठीक पाँच बजे वह खुशवंत सिंह के कंधे पर हाथ रखे हुए उनके कमरे से निकला। दोनों किसी बात पर ठहाका लगा रहे थे, लग रहा था वे जैसे युगों-युगों से एक दूसरे के दोस्‍त हों। खुशवंत सिंह से विदा लेकर वह मेरे पास चला आया। खुशवंत सिंह से मिलकर मेरे सहकर्मियों की नज़र में उसका कद बढ़ गया था। खुशवंत सिंह से बेतकल्‍लुफी से बतिया कर उसने अनायास ही विश्‍वसनीयता अर्जित कर ली थी। मैंने नन्‍दनजी, मनमोहन सरल, गणेशमंत्री आदि अपने सहकर्मियों से उसका परिचय करवाया। सहराई ने सब लोगों को शराब का निमंत्रण दिया, जिसे किसी ने कुबूल नहीं किया। मैंने अत्‍यन्‍त कठोर परिश्रम करके लोगों को चाय पीने का चस्‍का लगाया था, वह अभी तक इसी अपराधबोध से न उबरे थे। सहराई हिन्‍दी पत्रकारों के इस शाकाहारी रवैये से बहुत क्षुब्‍ध हो गया, यह तो गनीमत थी कि उसने तैश में आकर मां बहन एक न कर दी। उसने कहा कि अब उसकी समझ में आ रहा है कि हिन्‍दी में अब तक कोई बड़ा लेखक क्‍यों नहीं पैदा हुआ। उसने ब्रीफ़केस से दारू की बोतल निकाल कर मेरी मेज़ पर रख दी और खुली चुनौती दे डाली है कोई माई का लाल, जो उसका साथ दे सके। सहराई की बातचीत से सबका मनोरंजन हो रहा था। उन्‍होंने सपने में भी ऐसा धाकड़ लेखक न देखा था। मनमोहन सरल कभी कभार चख लिया करते थे, मगर एक अनजान उपन्‍यासकार की चुनौती स्‍वीकार करने में उन्‍हें संकोच हो रहा था। मनमोहन सरल ने उन से वादा किया कि आज तो पाँच बज चुके हैं, वह अगले रोज़ उन्‍हें भारतीजी से अवश्‍य मिला देंगे। सहराई ने हामी भरी और अगले रोज़ चार बजे आने का वादा करके लौट गया। अगले दिन ठीक चार बजे वह मुझे नहीं मनमोहन सरल को ढूँढ रहा था। मुझ से वह एकदम निराश हो चुका था।

 

‘कहाँ है सर्ल का पुत्तर?' उसने विभाग में कदम रखते ही दरियाफ़्‍त किया, ‘भूतनी का भारती से मिलवाने का वादा करके कहाँ जा छिपा?'

मनमोहन सरल भारती के कमरे में ही थे। उन्‍होंने लौट कर अपनी सीट पर सहराई को पसरे देखा तो उनका माथा ठनका। सहराई आज आक्रामक मूड में था। उसके तेवर देखकर मनमोहन सरल भी टालमटोल करने लगे।

‘तुम साले सब नपुंसक हो।' सहराई ने पूछा, ‘कहाँ बैठता है वह धर्मवीर का पुत्तर? प्रीत लड़ी के सम्‍पादक नवतेज सिंह का नाम सुना है तुम लोगों ने? वह जालंधर आता है और घर आकर मुझ से मिलता है।'

हरनाम दास सहराई अचानक उठा, जैसे उसका धैर्य जवाब दे गया हो। वह देखते ही देखते भारतीजी के कैबिन की तरफ़ बढ़ गया। रामजी ने उससे विज़िटिंग कार्ड माँगा तो उसने जेब से टोंटी निकाल कर दिखा दी और उसके रोकते-रोकते भारतीजी के कैबिन में घुस गया। मेरा चिन्‍तित होना स्‍वाभाविक था। चूँकि वह मेरा मित्र था और यों बगैर किसी पूर्व सूचना भारतीजी के कैबिन में घुस गया था,। मैं भी उसके पीछे लपककर कैबिन में घुस गया। सहराई ने तब तक भारतीजी को खड़ा होने को मजबूर कर दिया था और मैं पहुँचा तो वह उनसे गले मिल रहा था। भारतीजी का चेहरा मेरी तरफ था। उनकी खिसियाहट से साफ़ झलक रहा था कि वह मजबूरी में ही बगलगीर हो रहें हैं।

‘वाह भारती, तूने ‘गुनाहों का देवता' लिख के कलम तोड़ दी। मैंने सोचा था, तू हिन्‍दी को और उपनियास देगा, तेरी तो एक ही उपनियास से टैं बोल गयी। ज़रा फिर से मैदान में उतरो तो मुकाबला हो। यह भूतनींदा रविन्‍दर मुझे तुमसे मिलाने में हिचकिचा रहा था, मैंनूँ बिचौलिए दी की लोड़, मैं खुद ही चला आया। चाय वाय पिलवाओगे या यों ही बिज्‍जू की माफ़िक देखते रहोगे?'

 

भारती हत्‍प्रभ थे। ऐसा अजूबा लेखक आजतक उन से न मिला था। मैं भारतीजी की उलझन समझ रहा था। मैंने सहराई से कहा कि भारतीजी इस समय व्‍यस्‍त हैं, आओ बाहर जाकर चाय पीते हैं, मगर सहराई ने भारतीजी के सामने ही बाहर चलने का प्रस्‍ताव रख दिया, ‘आज शाम का क्‍या परोगराम है। दारू-शारू पीते हो या अभी तक दूध पर ही चल रहे हो? आज शाम को हो जाए कुछ जशन, मैं गुलाबदास बरोकर को भी बुलवा लूँगा। भागता हुआ चला आयेगा मेरा नाम सुनकर।'

सहराई मराठी, गुजराती, उर्दू, तमिल, तेलुगु, कन्‍नड़, गर्ज़ यह कि देशभर की भाषाओं के प्रमुख उपन्‍यासकारों का नाम कुछ इस अंदाज़ से ले रहा था जैसे सब उसके हमप्‍याला और हमनिवाला दोस्‍त हों। उसके सामान्‍य ज्ञान से मैं भी प्रभावित हो रहा था। मुझे लगा, उसकी टोंटियों का कारोबार पूरे देश में फैल चुका है। वह एस0 के0 पोट्टेकाटु और विमल मित्र के नाम ऐसे ले रहा था जैसे बचपन में उनके साथ पतंग उड़ा चुका हो। भारतीजी ने इस बीच सिगार सुलगा लिया था और कौतूहल से उसकी तरफ़ देख रहे थे।

‘आज का दिन अच्‍छा था, बम्‍बई से बहुत सी रुकी हुई रकम वसूल हो गयी, आर्डर भी खूब मिले। चलो आज की दावत मेरी तरफ़ से ताज में। हमसे दोस्‍ती करके तो देखो, बाशशाओ सब कुछ लुटा देयाँगे तुहाडे उप्पर।'

‘आज तो मुमकिन न होगा।' भारतीजी ने खड़े होकर हाथ जोड़ दिये, ‘अच्‍छा नमस्‍कार।'

‘तुम्‍हारी किस्मत।' सहराई उठा, ‘कल किसने देखा है।'

 

मैं सहराई को किसी तरह पकड़कर भारतीजी के कैबिन से बाहर लाया। कैबिन से बाहर निकलते ही भारतीजी के कैबिन के दरवाज़े बंद हो गये। सहराई का मूड बिगड़ गया था, उसने मुँह बिचकाया, ऐ तां जनाना किस्‍म का आदमी निकलिया। मुझ से नहीं निभ सकती ऐसे लोगों की। बहुत नाम सुनते थे इसका। समरेश बसु की इससे कम हैसियत नहीं, मैं कहूँ तो मेरे साथ सोना गाछी भी चल पड़े और यह भूतनी दा गरूर नाल मरया जा रिया है।' उसने वहीं बरामदे में थूक दिया। मुझे उसके साथ चलना बहुत नागवार लग रहा था, आखिर यह दफ़्‍तर था, कोई हार्डवेयर की दुकान नहीं।

 

जब तक मैं मुम्‍बई में रहा, सहराई ने मुझे कई झटके दिये। हम लोग उन दिनों शीतलादेवी रोड पर रहते थे। छुट्टी के एक दिन सहराई अपने दोनों हाथों में बीयर की दो बोतलें थामे अचानक नमूदार हुआ। उसके साथ सुप्रसिद्ध कथाकार गुलाबदास ब्रोकर। उसने यह जानने की भी ज़हमत न उठायी कि मैं अग्रज रचनाकार की उपस्‍थिति में बीयर पीने की गुस्‍ताखी करना चाहता हूँ अथवा नहीं। अभिवादन की प्रक्रिया खत्म होती, इससे पहले ही वह रसोईघर से जैसे भी गिलास मिले उठा लाया और चियर्स बोल दिया। उसने छोटे से कमरे का मुआयना किया और बोला, ‘इस दड़बे में रहते हुए तुम्‍हारा दम नहीं घुटता? चलो, पंजाब लौट चलो। वहाँ न सही ‘धर्मयुग' तुम्‍हारे बाप का खुला हवादार मकान तो है। कितनी तनख्‍वाह पाते हो, उससे ज़्‍यादा तो टोंटियाँ बेचकर पैदा कर लोगे। और कुछ नहीं तो पंजाब में बैठ कर मेरे उपन्‍यासों का अनुवाद करना। मैं लिखता रहूँगा तुम अनुवाद करते जाना। आज ही वोरा एण्‍ड कम्‍पनी ने मेरा उपन्‍यास हिन्‍दी में छापने का अनुबंध किया है। उसका हिन्‍दी में अनुवाद करोगे, बोलो क्‍या लोगे? कल ही तुम्‍हें अग्रिम मुआवजा दिलवा देता हूँ।'

 

मैंने सोचा, उसे दारू चढ़ गयी है। वोरा एण्‍ड कम्‍पनी बम्‍बई का एक प्रतिष्‍ठित प्रकाशन-प्रतिष्‍ठान था। वह लोग ज़्‍यादातर गुजराती पुस्‍तकों का ही प्रकाशन करते थे। जब से इलाहाबाद में शाखा खोली थी, हिन्‍दी पुस्‍तकों का प्रकाशन भी प्रारम्‍भ कर दिया था। उन्‍होंने हिन्‍दी में कई प्रतिष्‍ठित लेखकों के उपन्‍यासों का प्रकाशन किया था।

‘कल दोपहर को वोरा साहब से मिलवा दूँगा। तुम्‍हारी नयी-नयी शादी हुई है, कुछ रकम एडवांस दिलवा दूँगा। एक हज़ार चलेगा?'

उन दिनों एकहज़ार एक बड़ी रकम थी। टैक्‍सी का न्‍यूनतम भाड़ा मात्र साठ पैसे था। एक कमरे के फ़्‍लैट का किराया माहिम जैसी जगह में मात्र डेढ़ सौ रुपये था। आज पाँच हज़ार में वैसा फ़्‍लैट न मिलेगा। मैंने उसकी बात पर विशेष ग़ौर नहीं किया। वह बात बात पर ब्रोकरजी के कंधे पर धौल जमा देता, मुझे बहुत अटपटा लगता। वह भारतीजी की तरह शांत थे। सहराई उनके बहू बेटों और बच्‍चों का ज़िक्र जिस आत्‍मीयता और अनौपचारिकता से कर रहा था, उससे लगता था उसका उनसे गहरा आत्‍मीय रिश्‍ता है।

अगले रोज़ वह लंच के समय दफ़्तर आया और मुझे लिवाकर वोरा साहब से मिलवा दिया। अनुबंध पत्र तैयार रखा था, मैंने हस्‍ताक्षर किये और अग्रिम पारिश्रमिक तुरन्‍त मिल गया। मेरे पास सूट लैंग्‍थ रखी थी, मगर सिलाई के पैसे का जुगाड़ नहीं हो रहा था। मेरी कई तात्‍कालिक समस्‍याएँ क्षण भर में दूर हो गयीं।

 

दूतावास के टैरेस पर अन्‍तर्राष्‍ट्रीय ख्‍याति प्राप्‍त फिल्‍म के प्रदर्शन का आयोजन था। पास ही एक लम्‍बी सी मेज पर बार सजी थी। छोटे-छोटे गिलासों में मोमबत्‍तियों की तरह स्‍कॉच के पैग कतार में जगमगा रहे थे। आमंत्रित अतिथियों ने वहीं खड़े-खड़े एक-एक पैग लिया और दूसरा पैग थामकर कुर्सियों पर बैठकर स्‍कॉच की चुस्‍कियों के बीच फिल्‍म का आनन्‍द लेने लगे। फिल्‍म अत्‍यन्‍त भावप्रवण लम्‍हों से गुज़र रही थी और आसपास सन्‍नाटा खिंचा था। कि लिफ़्‍ट के पास एक आकृति प्रकट हुई और उस सन्‍नाटे में किसी आहत परिंदे की तरह गश्‍त करने लगी-‘ओ कालिया, कहाँ हो भई। कालिया भाई......... कालिया।' मेरा माथा ठनका। मुझे समझते एक पल न लगा कि यह सहराई की आवाज़ है। मैंने ममता को आसन्‍न संकट की जानकारी दी। शान्‍त सरोवर में जैसे किसी ने कंकड़ फेंक दिया था। दर्शकों में मुम्‍बई के तमाम सिने समीक्षक और सिने जगत के प्रतिष्‍ठित लोग थे। दूतावास का स्‍टाफ़ लिफ़्‍ट की तरफ़ लपका। सहराई इस सबसे बेखबर प्‍यासे कौवे की तरह चिल्‍ला रहा था---ओ कालिये दे पुत्‍तर कहाँ बैठे हो?

 

मैं हड़बड़ा कर उठा और पास जाकर देखा सहराई अंधेरे में मुझे ही टटोल रहा था। मैंने उस चुप रहने को कहा और टैरेस के एक कोने में ले गया। उसने बताया कि वह मनमोहन सरल से जानकारी लेकर बड़ी मुश्‍किलों से यहाँ तक पहुँचा है। मैं उस क्षण को कोसने लगा, जब मैंने मनमोहन सरल को अपनी शाम का कार्यक्रम बताकर यह मुसीबत मोल ले ली थी। सहराई ने मेज़ पर करीने से लगे स्‍कॉच के गिलास देखे तो उसकी बाछें खिल गयीं, वह अपनी तमाम परेशानियाँ, शिकायतें और टोंटियाँ भूल गया। मुझे वहीं छोड़कर वह किसी स्‍वचालित खिलौने की तरह मेज़ की तरफ़ बढ़ा। उसने एक-एक घूँट में यके बाद दीगरे कई गिलास उदरस्‍थ कर लिए। वह एक गिलास खत्म करते न करते दूसरा उठा लेता। वह कुछ इस रफ़्‍तार से पी रहा था जैसे युगों-युगों के प्‍यासे किसी राहगीर को रेगिस्‍तान में अचानक पानी का झरना मिल गया हो। जब उसने पाँच छह गिलास गटक लिये तो मैंने उसकी बांह थामकर उसे कुर्सी की ओर ले जाना चाहा। उसने मेरा हाथ झटक दिया-तुम्‍हें जाना हो जाओ, मुझे डिस्‍टर्ब मत करो।

‘मुझपर रहम करो मेरे बाप।' मैंने धीरे से सहराई से कहा, ‘कोई नया तमाशा न खड़ा कर देना।'

 

‘यहाँ से हट जाओ, वर्ना मुझ से बुरा कोई न होगा।' सहराई ने गिलास उठाया और मुझ से पिंड छुड़ाने की गर्ज़ से अंधेरे में कहीं अप्रकट हो गया। मैं सशंकित मन से अपनी सीट पर आ बैठा। मेरी निगाहें उसी को अंधेरे में तलाश रही थीं। फिल्‍म देखने का सारा आनंद काफूर हो गया। मुझे लग रहा था, यहाँ से ग़ायब हो जाने में ही भलाई है, मगर ममता पूरी संलग्‍नता के साथ फिल्‍म देख रही थी। मुझे इसकी भी आशंका थी कि कहीं ममता ही न भड़क जाए कि मेरे कैसे-कैसे फूहड़ दोस्‍त हैं। मैं मन ही मन ‘जल तू जलाल तू आई बला को टाल तू' का अनवरत स्‍मरण करता रहा।

 

फिल्‍म डेढ़ घण्‍टे में समाप्‍त हो गयी। लाइट्‌स ऑन हो गयीं। सब लोग फिल्‍म पर बातचीत करते हुए मेज़ की तरफ़ बढ़े। मैंने चारों ओर नज़र दौड़ायी, सहराई दूर-दूर तक दिखायी न दे रहा था। जाने दर्जनों गिलास खाली करके कहाँ गायब हो गया था। अचानक एक तरफ लोगों की भीड़ दिखायी दी। हम लोग भी उधर बढ़े। छत के एक कोने में सहराई लेटा हुआ था, नंगे फर्श पर, खुली छत पर। वह गहरी नींद में था। वह दीन-दुनिया से बेखबर एक लय में खुर्राटे भर रहा था। किसी ने आगे बढ़कर उसकी नब्‍ज़ टटोली-‘ही इज़ डैड ड्रंक।' मेहमान विदा होने लगे। दूतावास के वरिष्‍ठ अधिकारी भी विदा हो गये। अब मैं था, ममता थी और दूतावास के कुछ कनिष्‍ठ अधिकारी। चाँदनी रात थी, आसमान में चाँद दौड़ रहा था और दर्जन भर उपन्‍यासों का रचनाकार पैडर रोड की एक इमारत की चौदहवीं मंजिल की छत पर फकीरों की तरह बेफिक्र और निश्‍चिंत सो रहा था।

(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)

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रचनाकार: रवींद्र कालिया का संस्मरण : ग़ालिब छुटी शराब (11)
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