संस्मरण ग़ालिब छुटी शराब रवींद्र कालिया (पिछले अंक से जारी…) जि़न्दगी तमाम लोगों के साथ धूप-छाँह का खेल खेला करती है। मैं भी अपवा...
संस्मरण
ग़ालिब छुटी शराब
रवींद्र कालिया
जि़न्दगी तमाम लोगों के साथ धूप-छाँह का खेल खेला करती है। मैं भी अपवाद नहीं था। बहुत बार ऐसा हुआ कि जी तोड़ मेहनत करने के बावजूद स्थितियाँ नहीं बदलीं और ऐसा भी हुआ कि टाँग पर टाँग धरे बैठे रहे और स्थितियाँ अनुकूल होती चली गयीं। महीने की पहली तारीख मेरे लिए सब से ज़्यादा तंगदस्ती का पैगाम लेकर आती। श्रमिकों का वेतन, प्रेस की किस्तें और दूसरी देनदारियों का इन्तज़ाम करते-करते पसीने छूट जाते। कर्ज़ का ज़रा सा बोझ कम हो जाता, मगर जेब और पेट में चूहे दौड़ते। ऐसी एक शाम थी। चूहों ने इतना उत्पात मचा रखा था कि जेब में मूँगफली खाने तक के लिए पैसे न थे। अचानक कालबेल सुनायी दी। बेमन से दरवाज़ा खोला। सामने एक नयी उम्र का लड़का खड़ा था, हाथ में ब्रीफकेस लिए।
‘रवीन्द्र कालिया यहीं रहते हैं?' उसने पूछा।
‘अन्दर तशरीफ लाइए।' मैंने कहा, ‘खाकसार को ही रवीन्द्र कालिया कहते हैं।'
उसने बताया कि वह मेरी कहानियों का प्रशंसक है और उसे खबर लगी थी कि मैं इलाहाबाद में प्रेस का कारोबार कर रहा हूँ। वह मध्य प्रदेश के किसी मेडिकल कालिज का साहित्यानुरागी छात्र था। कालिज की रजत जयंती के अवसर पर एक भव्य स्मारिका प्रकाशित कराने का दायित्व उसे सौंपा गया था। उसने ब्रीफकेस खोल कर नमूने के तौर पर अन्य कालिजों की कुछ स्मारिकाएँ एवं पत्रिकाएँ दिखायीं। वे सब दिल्ली बम्बई के प्रेसों में छपी हुई थीं। ब्रीफकेस में मुझे पीटर स्कॉट की बोतल भी अपनी झलक दिखा गयी। बोतल देखते ही मेरी चेहरे की मनहूसियत गायब हो गयी। मुझे विश्वास हो गया कि स्मारिका का काम मिले न मिले, आज की शाम ज़रूर गुलज़ार हो जाएगी। उसने बताया कि स्मारिका की मद में कालिज पंद्रह हज़ार रूपये तक खर्च करना चाहता है। वह इसी समय मेरे प्रेस का कोटेशन चाहता है और मुझे काम दिला कर ही दम लेगा। वह बहुत भटकते और पता लगाते हुए मुझ तक पहुँचा है और चौक मीरगंज में ही कथाकार बलवन्त सिंह के होटल में ठहरा है।
उन दिनों पंद्रह हज़ार रुपये एक बड़ी रकम थी। उन दिनों जो काग़ज़ चालीस पचास रुपये रीम मिलता था आज पाँच सौ रुपये रीम में भी उपलब्ध न होगा।
‘इलाहाबाद में छपाई की दरें मध्य प्रदेश से आधी हैं। इलाहाबाद के हिसाब से यह पाँच छह हज़ार का काम है, मगर मैं आपको पंद्रह हज़ार रुपये दिलवाँऊगा। मुझे उनमें से सिर्फ़ चार हज़ार रुपये चाहिएँ। दो हज़ार रुपये नकद और दो हज़ार में आप एक कथा संकलन तैयार करवा दीजिए, जिसमें मेरी तथा मेरे दो एक मित्रों की कहानियाँ भी रहें।' उसने दो टूक शब्दों में अपनी शर्तें रखीं।
‘लेकिन मेरे पास तो आपको देने के लिए फूटी कौड़ी भी नहीं है।' मैंने उसे बताया कि हमारे यहाँ हिन्दी का काम होता है, अंग्रजी का टाईप ही नहीं है प्रेस में।'
‘अंग्रेजी ‘टाइप नहीं' है तो खरीद लीजिए। अंग्रेजी का टाइप होगा तो और काम भी मिलेगा। प्रेस के लिए यह एक अच्छा निवेश है। नये टाईप से छपाई भी अच्छी होगी' उसने कहा।
‘मैं शहर में नया हूँ, मुझे कौन उधार देगा, पहले ही कर्ज़ से दबा हूँ।'
‘चिन्ता मत कीजिए, कुछ राशि अग्रिम दिलवा दूँगा।' लगा वह मेरी कोई समस्या सुनना ही नहीं चाहता, उसने सुझाव दिया, ‘चलिए होटल चलते हैं। खाने पीने की भी सुविधा रहेगी। मैं मीरगंज में ठहरा हूँ। बलवंत सिंह आपको कैसे लेखक लगते हैं। मैं तो फिदा हूँ ‘कालेकोस' पर। सोचा था, बलवंत सिंह के होटल में रुकूँगा और रवीन्द्र कालिया के प्रेस में पत्रिका छपवाऊँगा।'
मैंने ताला ठोंका और उसके साथ चल दिया। हम लोग होटल पहुँचे। मामूली-सा होटल था जैसे उस रेड लाइट क्षेत्र में हो सकता थ। चादर पर दाग धब्बे। उसने बताया कि वह अनेक चादरें बदलवा चुका है, मगर हर चादर पर न मिटने वाले अश्लील दाग धब्बे हैं। उसने अपने ब्रीफकेस से एक नयी चादर निकाली और बिछा दी। बगल की इमारत से सारंगी तबले के स्वर उठ रहे थे। ‘कोई अच्छी नाचने गाले वाली हो तो दारू पीकर सुना जाए।' उसने सुझाव रखा और अपना मयखाना सजाने लगा। वह उम्र में मुझे से आठ-दस बरस छोटा था, मगर पीने में तेज़। जब तक मैं एक पैग समाप्त करता वह दूसरा भी हलक में उतार लेता।
‘मेरे पास दो कोटेशन्स हैं। एक सोलह हज़ार का और एक अठारह हज़ार का। आप चौदह हज़ार का कोटेशन भरिए। मैं सप्ताह भर में पाँच हज़ार अग्रिम दिलवा दूँगा। मेरे दो हज़ार आपको उसी में से देने होंगे।'
मेरी उसके काम में दिलचस्पी ही न थी। प्रेस में हिन्दी भवन का ही इतना काम था कि बाहर के काम की ज़रूरत ही महसूस न होती थी। मुझे उसका प्रस्ताव भी हवाई लग रहा था। शराब जितनी बढ़िया थी, माहौल उतना ही मनहूस। मुझे घुटन महसूस हो रही थी। उसने बताया कि वह भोजन करके रात की गाड़ी से लौट जाएगा। मैंने उसे प्रेस का कोटेशन दिया और उसे अपने साथ ‘नानकिंग' ले गया। कई दिनों से ‘नानकिंग' के भोजन की तारीफ़ सुन रहा था, आज आकस्मिक रूप से वहाँ का भोजन चखने का भी अवसर मिल गया। भोजन करते हुए वह सहसा भावुक हो गया और अपनी प्रेमिका पर लिखी कविताएँ सुनाने लगा। उसने वादा किया कि अगली बार वह अपनी प्रेमिका को लेकर आएगा और इलाहाबाद के सब से बढ़िया होटल में ठहरेगा।
लौटते समय मैं चौक में ही उसके रिक्शे से उतर गया और पैदल रानीमंडी की ओर चल दिया। सुबह तक मैं इस प्रसंग को भूल चुका था। मेरी शाम अच्छी कट गयी थी, बढ़िया दारू नसीब हो गयी थी और ‘नानकिंग' का भोजन।
जिन्दगी हस्बेमामूल चलने लगी। गाड़ी पुरानी पटरी पर दौड़ने लगी। मेरी स्थिति कोल्हू के बैल जैसी थी। सुबह-सुबह काम में जुट जाता और रोज़मर्रा के झंझटों में उलझ जाता। कोई कर्मचारी अग्रिम माँग लेता तो मेरा सार गणित बिगड़ जाता। काम चलाने भर की पूँजी थी। कोई सप्ताह भर बाद वही नवयुवक सिगरेट का धुआँ उगलते हुए दफ़्तर में प्रकट हुआ। उसने तुरन्त ब्रीफकेस खोला और पाँच हज़ार का ड्राफ़्ट मेरे हवाले कर दिया।
मैंने ड्राफ़्ट भरकर तुरन्त आदमी बैंक दौड़ा दिया।
‘आज दारू आप पिलायेंगे, मगर मेरे हिसाब से।' उसने कहा, ‘बैंक मैनेजर से बात करते हैं।'
आश्चर्यजनक रूप से बैंक के मैनेजर ने ड्राफ़्ट के एवज में दो हज़ार रुपये नकद दे दिये। दो हज़ार रुपये का मतलब आप इस तरह से लगा सकते हैं कि आज उतने पैसों से एकाध लाख का सामान खरीदा जा सकता है।
दो हज़ार रुपये मैंने उस युवक को सौंप दिये। वह मुझे सीधे ‘नानकिंग' ही ले गया। वहाँ हम लोगों ने जमकर बियर पी और पेट कर भर भोजन किया। अग्रिम धनराशि मिलने से मेरी कई तात्कालिक समस्याएँ हल हो गयीं। काम पूरे होने पर शेष धनराशि का भी निर्विघ्न भुगतान हो गया। मेरे लिए आज तक यह कौतुक का विषय बना हुआ है कि उस युवक ने बहुत परिश्रम और रुचि ले कर जो कहानी संग्रह सम्पादित कर छपवाया था, वह आज की तारीख तक उसे लेने ही नहीं आया। इस घटना को तीस बरस हो चुके हैं, कई बार उस लड़के का ध्यान आया है। उसकी पुस्तक की प्रतियाँ तो बरसों पहले दफ़्तरी ने रद्दी में बेच दी थीं। कई बार जानने की जिज्ञासा होती है कि क्या वह डॉक्टर बन पाया, उसके प्रेम का क्या हश्र हुआ? वह कहाँ चला गया? मेरे लिए तो वह देवदूत बनकर आया था। ऐसा मेरे जीवन में बार-बार हुआ है। संकट की घड़ी में अचानक किसी ने कंधे पर हाथ धर दिया है। क्या यह मात्र एक संयोग है, विश्वास ही नहीं होता?
इसे विरोधाभास ही कहा जाएगा कि इलाहाबाद में नयी कविता के तमाम कवि और प्रवक्ता शराब नहीं कॉफी पीते थे। ज़्यादातर लेखक तो इस स्थिति में ही न थे कि मद्यपान की एय्याशी कर सकें। दो एक क्रान्तिकारी कवि ठर्रा पीते-पीते भाँग पर उतर आये थे। तम्बाकू का सेवन कोई-कोई रचनाकार कर लेता था, पाइप में, सिगरेट रोल करके या बीड़ी फूँककर। फिराक साहब के यहाँ ज़रूर रम बहती थी। मैं दो एक बार गुड्डे (नीलाभ) के साथ उनके यहाँ गया। हमेशा बोतल सामने थी और पायजामा ढीला। वह शायद नाड़ा बाँधने में आलस करते थे। फिराक साहब की शख्सीयत जितनी बुलन्द थी वह उतनी ही बुलन्दी से बात करते। एक बार उन्होंने नीलाभ से कहा, तुम्हारा बाप कब तक घटिया अफ़साने लिखता रहेगा? फिराक साहब की किसी बात का कोई बुरा नहीं मानता था। उनकी मयनोशी उनके व्यक्तित्व का हिस्सा बन चुकी थी, वर्ना हिन्दी में दारू पीने वाले को आवारा, चरित्रहीन, ग़ैर जिम्मेदार और भ्रष्ट लेखक समझा जाता था। जैसा राजकमल चौधरी के साथ हुआ था।
बुध की महादशा चलती है तो लेखक प्रकाशक बनने का हसीन सपना देखने लगता है। वह जैनेंद्र, यशपाल और अश्क बनना चाहता है। मगर ज्यादातर लेखकों को यह धंधा रास नहीं आता। वे शहर में प्रेस मालिकों, दफ़्तरियों और कागजियों से आँख चुराते घूमते हैं। इसी चक्कर में अनेक लेखकों का लेखन चौपट हो जाता। कमलेश्वर जैसे चतुर लेखक समय रहते अपना पलड़ा झाड़ कर इस व्यवसाय से अलग हो गये। सतीश जमाली उन दिनों ‘कहानी' के सहायक संपादक थे। सिविल लाइंस में ‘सरस्वती प्रेस' का कार्यालय था, ‘कहानी' का संपादकीय कार्यालय भी वहीं था। सतीश जमाली ने भी नौकरी के साथ-साथ अपने प्रकाशन की बुनियाद रख दी थी। उनकी पुस्तक का एकाध संस्करण तो नये, उदीयमान और यशःप्रार्थी कथाकारों में खप जाता था।
दोपहर को जब वीपीपी से भेजी गयी पुस्तकों का पैसा लेकर डाकिया सरस्वती प्रेस में नमूदार होता तो जमाली के इर्द-गिर्द बैठे चिरपिपासु लेखकों की आँखों में अलौकिक चमक आ जाती। पुस्तक अथवा प्रकाशन व्यवसाय की यह विशेषता है कि पुस्तक बिक जाए तो सोना है, न बिके तो रद्दी। उन दिनों जमाली के प्रकाशन पर सोने की बूँदाबाँदी होने लगी थी और वह इसी में टुन्न रहने लगा। किसी दिन जमकर बरसात हो जाती तो लेखकों को दावत दे देता। जमाली की मेज़बानी में पीने के दो लाभ थे। उसके यहाँ दारू के साथ-साथ माँस मछली के लज़ीज़ व्यंजनों की भी व्यवस्था रहती। उसकी पत्नी के हाथ में ऐसा जादू था कि लोग अंगुलियाँ चाटते हुए खाने पर से उठते।
जमाली की शादी में मैंने जमाली के बड़े भाई की भूमिका अदा की थी। ज्ञानरंजन, दूधनाथ, नीलाभ और मैंने जमकर रम पी थी और यह सोचकर आज भी शर्मिंदगी का एहसास होता है कि खाने के समय जब मैंने जमाली की साली से पानी मँगवाया तो गिलास की जगह उसका हाथ थाम लिया था। गिलास छन्न से फर्श पर फूट गया। वह शरीफ लड़की थी, हाथ छुड़ाकर भीड़ में खो गई। कथाकारों के बारे में उसके मन में बहुत आवारा छवि बनी होगी और उसने सोचा होगा, उसके जीजाजी भी ऐसे ही निकेलेंगे। अब वही जाने, उसके जीजाजी कैसे निकले।
जिन दिनों जमाली का तन और प्रकाशन शबाब पर था, उसने अपने यहाँ एक बढ़िया दावत का आयोजन किया। उन दिनों भैरवप्रसाद गुप्त, मार्कण्डेय और शेखर जोशी इस गिरोह के स्थायी सदस्य थे। यह उन दिनों की बात है जब अमरकांत हिंदी कहानी की प्रत्येक त्रयी को कहानी के कफ, पित्त और वात के नाम से पुकारा करते थे। अमरकांत सूफी महात्माओं की तरह सब व्यसनों से दूर थे, इसलिए अपने मित्रों की डार (पंक्ति) से बिछुड़ गये थे। शराब-कबाब की पार्टियों में न वह जाते थे न कोई उन्हें कोई बुलाता था। जमाली की दोस्ती फुरसत पसन्द बुजुर्गों से ज़्यादा थी। बलवंत सिंह ‘सरस्वती प्रेस' में अक्सर दिखाई देते, मगर सूरज ढलने के बाद परिन्दों के साथ-साथ घर लौट जाते।
जमाली से मेरा बहुत पुराना परिचय था। मैं उसे उन दिनों से जानता था, जब वह प्रिंस सतीश के नाम से कविताएँ लिखा करता था। बाद में वह सोनीपत में एटलस साइकिल फैक्टरी में काम करने लगा और बीच-बीच में दिल्ली आया करता था। साइकिल बनाने वाली कम्पनी से वह अचानक ‘कहानी' में कैसे पहुँच गया, इसकी जानकारी मुझे आज तक नहीं है। यकायक उसने अपना चोला बदल लिया और प्रिंस सतीश से सतीश जमाली हो गया। भैरवजी की सोहबत का उस पर इतना असर हुआ कि अपनी एक कहानी में उसने छात्रों द्वारा पूरी सिविल लाइंस जलवा कर राख कर दी थी। इस दंगे-फसाद में ‘सरस्वती प्रेस' का कार्यालय बच गया था या उसने किसी युक्ति से बचा लिया था। भला अपनी रोजी-रोटी पर कौन लात मारता है। जेठ की दुपहरी में वह ‘सरस्वती प्रेस' के कार्यालय में मक्खी की तरह प्रूफ की गलतियाँ मारा करता था। वक्त जरूरत वह अनुवाद का काम भी करता था। उन दिनों उसने उर्दू के अनेक महत्वपूर्ण उपन्यासों का हिंदी में अनुवाद किया था। वह प्रकाशक की हैसियत देखकर अनुवाद कर पारिश्रमिक तय करता था। पारिश्रमिक के अनुरूप अनुवाद का स्तर रहता। एक बार किसी प्रकाशक ने उससे आठ आने प्रति पृष्ठ की दर से अनुवाद कराया, जमाली ने अनुवाद भी अठन्नी छाप किया। उसकी एक बानगी देखिए : अहमद की आँखों से आँसू बहने लगे का उसने अनुवाद किया-अहमद के नयनों से अश्रु बहने लगे। कुत्ते के पिल्ले का उसने तर्जुमा किया, कुत्ते का पुत्र।
उस दिन जमाली के यहाँ अच्छा-खासा जमघट था। पोलित ब्यूरो के सभी स्थायी सदस्य तो उपस्थित थे ही, मुझ जैसे दो-एक कथाकार विशेष अतिथि के रूप में आमंत्रित थे। आमंत्रित सदस्यों को देखकर पोलित ब्यूरो बहुत नाखुश हुआ। ले-देकर रम की एक ठो बोतल थी और प्यासों की संख्या बढ़ती जा रही थी। गनीमत यही थी कि मैं घर से खाली पेट नहीं निकला था। मेरी मां ने मुझे बचपन से ही सिखाया था कि किसी के भी घर खाली पेट और खाली जेब नहीं जाना चाहिए। उनकी नसीहत में मैंने सुविधानुसार थोड़ी तरमीम कर ली थी। मैं दावत में भी खाली पेट नहीं जाता था, उसमें अन्न के स्थान पर दारू ही क्यों न हो। मैं पहुँचा, तो महफिल उरूज पर थी।
उन दिनों भैरवजी का बहुत दबदबा था। अभी हाल में डॉ0 विश्वनाथ त्रिपाठी ने उन्हें ‘सोंटा गुरू' के नाम से याद किया है। भैरवजी नयी कहानी आंदोलन के प्रमुख संपादक रहे थे और नये कथाकारों की एक समर्थ पीढ़ी उन्होंने तैयार की थी। भैरवजी कथाकारों के बीच उठते बैठते तो उनकी क्लास ले लेते। विश्वनाथ त्रिपाठी ने ठीक ही लिखा है कि ‘सोंटा गुरू की बात का कोई बुरा नहीं मानता था, और पलटकर जवाब या तो नहीं देता था या जवाब देते समय खिसियानी मुद्रा बना लेता था- ‘भैरवजी आप हैं, अब क्या कहूँ कोई दूसरा होता तो जवाब देता।'
सच तो यह है कि साठोत्तरी पीढ़ी ही एक ऐसी पीढ़ी थी, जो भैरव न केवल पलट कर जवाब दे देती थी बल्कि वक्त आने पर उनका विरोध भी दर्ज कराती रहती थी। वास्तव में साठोत्तरी पीढ़ी के प्रति भैरवजी एक विमाता की तरह व्यवहार करते थे। भैरवजी साठोत्तरी पीढ़ी को उच्छृंखल, व्यक्तिनिष्ठ और आधुनिकता से त्रस्त कुंठित एवं अमूर्त्त रचनाकारों की पीढ़ी मानते थे। हम लोगों ने भी भैरवजी के सामने कभी घुटने नहीं टेके। उन का डटकर मुकाबला किया। एक बार तो हम लोगों ने रातभर उनके घर के सामने धरना दिया था। इस घटना का मैंने ज्ञानरंजन पर संस्मरण लिखते हुए ज़िक्र किया था :
मैं और ज्ञान सिविल लाइन्स में टहल रहे थे कि अचानक दूधनाथ नमूदार हुआ। भैरवजी ने साठोत्तरी पीढ़ी के कथाकारों का हरामियों की पीढ़ी कह दिया था और वह इस बात पर उत्तेजित था। वह गुस्से में पत्ते की तरह काँप रहा था। उसने बताया कि अभी अमरकांत, शेखर जोशी और मार्कण्डेय के साथ टहलते हुए भैरवप्रसाद गुप्त ने यह घोषणा की है।
‘हम लोगों को फौरन से पेश्तर इस बात का माकूल जवाब देना चाहिए।' दूधनाथ ने कहा, ‘पूरी पीढ़ी का स्वाभिमान और अस्मिता दाँव पर लग गयी है। मैं अकेला पड़ गया वरना वहीं गिरेबान पकड़ लेता।'
ज्ञान हँसा, उसने कहा, ‘दूधनाथ तुम संघर्ष करो हम तुम्हारे साथ हैं।'
दूधनाथ इस प्रतिक्रिया से सन्तुष्ट नहीं हुआ। उसने कहा, ‘इसका मुँहतोड़ जवाब देना चाहिए। आप लोग इस बात की गम्भीरता को नहीं समझ रहे हैं।'
‘क्या करना चाहिए?' ज्ञान ने पूछा।
‘फ़ासिस्ट शक्तियों का डटकर मुकाबला करना चाहिए।' गुस्से में दूधनाथ का खून खौल रहा था।
‘क्या करना चाहिए?' ज्ञान ने पूछा।
‘माकूल जवाब देना चाहिए।'
ज्ञान ने दूधनाथ की शोचनीय स्थिति देखी तो तुरंत नेतृत्व संभाल लिया और बोला, ‘चलो, ढूँढ़ते हैं उन लोगों को, अभी निपट लेते हैं।'
हम लोगों ने सिविल लाइन्स की तमाम सड़कें छान मारीं, लेकिन भैरव एण्ड पार्टी कहीं नज़र न आई।
‘मैं तो रातभर सो न पाऊँगा, अपमान की ज्वाला में जलकर राख हो जाऊँगा।' दूधनाथ ने कहा।
‘चलो भैरव का घिराव करते हैं।' ज्ञान ने अपना फैसला सुनाया, ‘उन्हें अपने शब्द वापिस लेने होंगे।
तय पाया गया कि वहीं सिविल लाइन्स में भोजन किया जाए, उसके बाद हम तीन यानी ज्ञान, दूधनाथ और मैं भैरव का घेराव करें। रात के लगभग दस बज चुके थे जब हम लोग लूकरगंज स्थित भैरव दादा के निवास पर पहुँचे।
‘कहानी के स्तालिन को जगाओ। कुछ हरामी उनसे मिलने आये हैं।' ज्ञान ने ललकारा।
जवाब में घर की सारी बत्तियाँ गुल हो गयीं। हम लोग बाहर मैदान में घास पर बैठ गये और तय किया कि रात भर न सोयेंगे न भैरव दादा को सोने देंगे। बीच बीच में हम तीनों में से कोई न कोई पुकार उठता, ‘भैरव प्रसाद गुप्त बाहर आओ।' या ‘हिम्मत हो तो बाहर आओ।'
लेकिन भैरवजी बाहर नहीं निकले। उनकी नींद में खलल ज़रूर पड़ा होगा। सुबह जब पेड़ों पर परिन्दे चहचहाने लगे तो हम लोगों ने अपना विरोध दर्ज कराते हुए धरना उठा लिया। मुझे याद नहीं, उस रात हम लोगों ने धरना देने से पहले मद्यपान किया था या नहीं। नहीं किया होगा, क्योंकि उन दिनों एक दिन पीकर कई दिनों तक नशा रहता था। भैरवजी के लूकरगंज वाले घर की आज भी याद है। कुछ-कुछ मुम्बई के वर्सोवा और जुहू की तटवर्ती झुग्गी झोपड़ियाँ जैसा जहाँ देशी शराब की भट्टियाँ पाई जाती थीं। जाने मेरे दिमाग में घर की ऐसी छवि क्यों बनी हुई है, जबिक लूकरगंज में समुद्र था न नारियल के ऊँचे-ऊँचे पेड़।
जब मैं जमाली के यहाँ दावत में पहुँचा तो भैरवजी का प्रवचन चल रहा था। मेरे पहुँचने पर बातचीत में खलल पैदा हो गया। भैरवजी ने हिकारत से मेरी तरफ देखा, जैसे कट्टर मार्क्सवादी किसी घोर प्रतिक्रियावादी की तरफ देखता है। उन्होंने एक लंबा घूँट भरा और मेज़ पर गिलास रखकर क्षणभर के लिए आँखें मूँद लीं। मेरा परिचय तो वह अपनी निगाहों से ही दे चुके थे। उसमें जो कसर रह गयी थी, उसकी भी क्षतिपूर्ति कर दी, ‘देखो जी, यह हैं रवीन्द्र कालिया। मैं जब तक संपादक रहा, इनकी एक कहानी न छपने दी। मैं इनका नाम देखते ही कहानी लौटा देता था।'
भैरवजी की बात सही थी। मैंने पंजाब से उनके पास अपनी दो-तीन कहानियाँ भिजवाई थीं। कहानी लौटने में उतना ही समय लगता था, जितना डाक को आने-जाने में लगता है। जब तक भैरवजी संपादक रहे, मेरी कहानियां नॉटी बाल (रबर का गेंद जो फेंकने पर दुगुने वेग से लौटता है) की तरह वापिस आ जातीं। बाद में जब मैं अपनी उन्हीं दो-तीन अस्वीकृत कहानियों की पूँजी के साथ दिल्ली पहुँचा तो भैरवजी ‘नयी कहानियां' से अलविदा होकर इलाहाबाद लौट चुके थे। भैरवजी के स्थान पर कमलेश्वर ने ‘नई कहानियां' की बागडोर संभाल ली थी। मैंने अपनी तमाम अस्वीकृत कहानियाँ कमलेश्वर को सौंप दीं। कमलेश्वर ने सबसे पहले भैरवजी द्वारा अस्वीकृत मेरी कहानी ‘नौ साल छोटी पत्नी' प्रकाशित की। वह ‘नयी कहानियाँ' के उस अंक की प्रथम कहानी थी। उस कहानी के छपते ही मैं रातों-रात नये कथाकार के रूप में स्थापित हो गया। देखते-ही-देखते अनेक भाषाओं में उसका अनुवाद हो गया। मैं उन दिनों ‘भाषा' के संपादकीय विभाग से संबद्ध था, दरियागंज में दफ़्तर था। राजकमल प्रकाशन का कार्यालय भी वहीं दफ़्तर के पास था। अक्सर कमलेश्वर बुलवा भेजते कि भोपाल से दुष्यंत कुमार आये हैं या इलाहाबाद से लक्ष्मीनारायण लाल या गाज़ियाबाद से से0रा0 यात्री लोग कहानी की चर्चा करते तो मुझे विश्वास न होता। भैरवजी की अस्वीकृति के सदमे से मैं जल्द ही उबर गया। सबसे अधिक आश्चर्य तो तब हुआ जब रविवार की एक सुबह डॉ0 देवीशंकर अवस्थी, अजित कुमार, विश्वनाथ त्रिपाठी, मलयज आदि ‘नयी कहानियाँ' में छपा मेरा माडल टाउन का पता देखकर मिलने चले आये। मैं कभी उनको और कभी अपने को देखता। मालूम हुआ, विश्वनाथ त्रिपाठी पड़ोस में ही रहते हैं, उनकी और हमारे घर की दीवार मिली हुई थी। मेरे लिए वे अविस्मरणीय क्षण थे। सबसे ज्यादा तो मार्कण्डेय के पत्र ने अचम्भे में डाल दिया जो उन्होंने ‘माया' के वृहत कथा विशेषांक के लिए कहानी आमंत्रित करते हुए लिखा था। मुझे मालूम था मार्कण्डेय भैरवजी के गिरोह के सिपहसालार है। आज के कथाकार उस माहौल की कल्पना ही नहीं कर सकते। वह तो जैसे कहानी का स्वर्णयुग था। ज्ञान, दूधनाथ, काशी और मैंने दो-एक कहानियों से पहचान बना ली थी।
इलाहाबाद आने से पूर्व ही साठोत्तरी कथाकार के रूप में मेरी पहचान बन चुकी थी। मगर भैरवजी इतने वर्षों बाद भी मुझे कथाकार के रूप में स्वीकार न कर रहे थे। जमाली ने जल्दी से उनके लिए पैग तैयार किया कि कहीं बातचीत में कोई व्यवधान न आ जाए। भैरव जी ने अपनी बात जारी रखी-‘यह महाशय, उन दिनों लुधियाना से कहानी भेजा करते थे।'
‘लुधियाना से नहीं, जालंधर से।' मैंने उन्हें बीच में टोका।
‘मोहन राकेश भी उन दिनों वहीं था। मैंने सोचा, यह उसी का कोई दुमछल्ला है।' भैरवजी ने प्रश्नवाचक दृष्टि से मेरी ओर देखते हुए पूछा, ‘कहोजी, मैं गलत कह रहा हूँ?'
‘आप एकदम सही फ़रमा रहे हैं।' मैंने जमाली से अपना पैग थामते हुए कहा, ‘आप मेरी कहानियाँ लौटा देते थे, क्योंकि आप तब तक अप्रासंगिक हो चुके थे। मुआफ़ कीजिएगा, इसी वजह से आपकी नौकरी छूट गयी थी'
महफ़िल में सन्नाटा खिँच गया। भैरवजी को चुनौती देने का साहस किसी में नहीं था और न ही भैरवजी ऐसा जवाब सुनने के अभ्यस्त थे। इलाहाबाद में अपनी लेखकीय उपस्थिति दर्ज कराने के लिए मुझे इलाहाबादी तेवर में इस नाजुक स्थिति से निपटना था। मुझे आशा थी कि मेरी बात सुनकर भैरवजी के झण्डाबरदार मुझे दबोच लेंगे। मगर मार्कण्डेय ने मुँह पर हाथ रख लिया और बीच-बीच में कनखियों से मेरी तरफ देख लेते। शेखर जोशी की नाज़ुक मौकों पर भारी पलड़े का साथ देने की पुरानी आदत है। बाकी लोग ‘मज़ा तत्व' का रसपान कर रहे थे।
माहौल को अपने अनुकूल पाकर मैंने अपना हमला ज़ारी रखा, ‘आप अपने-आपको बहुत बड़े प्रगतिशील चिंतक, रचनाकार और संपादक मानते हैं, मगर आप की कथनी और करनी में ज़मीन-आसमान का फर्क है। आप राशन का अमरीकी गेहूँ खाते हैं और कहानी लिखते हैं-‘मैं पी0 एल0 480 नहीं खाऊँगा', ख़ुद भरपेट खाते हैं और अपने पात्रों को भूखा मार रहे हैं।'
मैंने देखा, मेरी बातों से लोगों का काफी मनोरंजन हो रहा था। भैरवजी भी इस आकस्मिक विस्फोट के लिए तैयार नहीं थे। वह सिगरेट का लम्बा कश भरते हुए बोले, ‘रुक क्यों गयेजी, बकते जाइए।' जमाली ने फौरन भैरवजी का पैग तैयार किया और उन्हें थमा दिया। भाई लोगों की कोशिश थी कि संवाद जारी रहना चाहिए। मैंने भी मन-ही-मन तय कर लिया था कि आज भीतर की सारी भड़ास निकाल दूँगा। मैंने अपना लक्ष्य निर्धारित किया-‘न डरौ अरि सौं, जब जाए लरौं, निश्चय कर अपनी जीत करो।'
भैरवजी घूँट भर रहे थे और शेर की तरह गुरार् रहे थे। उन्होंने सोचा होगा, उनके सिपहसालार थोड़ी ही देर में मुझे घेर लेंगे और मैं दुम हिलाने लगूंगा। मगर सिपहसालार खामोश थे, मेरी स्थिति भिन्न थी। मुझे इलाहाबाद में रहना था और इसी बिरादरी में रहना था और स्वाभिमानपूर्वक रहना था। मैंने मेज़ पर से रम की बोतल उठा ली और रैपर पढ़ते हुए बोला-‘किसी भी जिम्मेदार नागरिक का सिर शर्म से झुक जाएगा, जब उसे पता चलेगा कि हिंदी कहानी का स्वनामधन्य शीर्ष संपादक मिलेट्री की कैंटीन से स्मगल की हुई ‘रम' पीता है। ‘गंगा मैया' का प्रगतिशील लेखक देश की बफीर्ली सीमाओं पर तैनात जवानों के हिस्से की ‘रम' पियेगा, मैं तो इसकी कल्पना भी नहीं कर सकता।'
मुझ पर झक सवार हो गयी थी। शराब मेरे सिर पर चढ़कर बोलने लगी थी। यह इलाहाबाद की खासियत है कि यहाँ सबको सबके बारे में सब कुछ मालूम रहता है। बतरस यहाँ का मूल रस है। विश्वनाथ त्रिपाठी के शब्दों में इस बात को यों कहा जा सकता है कि ‘जैसे घर में छोटे भाई की बहुत दिनों के बाद औलाद होने पर मनोरंजक बातें, खुसुर-पुसुर होती है, वैसे ही इलाहाबादी मित्र करते थे।' इसी खुसुर-पुसुर से मुझे पता चला था कि भैरवजी जितने प्रगतिशील हैं, उससे बड़े स्वर्ण प्रेमी हैं। वह हर माह सोना ज़रूर खरीदते हैं, चाहे एक ग्राम ही क्यों न खरीदें। भैरवजी के स्वर्ण प्रेम के बारे में स्वर्गीय वाचस्पति पाठक बहुत विस्तार से बताया करते थे। सुनारों के यहाँ मंडराते हुए उन्हें मैंने भी देखा था। रानी मंडी इलाहाबाद का झावेरी बाज़ार है, यहाँ छोटे-बड़े ज्वैलर्स के दसियों शो रूम हैं और रानी मंडी में सोने के जे़वर बनाने वाले कारीगरों की दसियों दुकानें हैं। वे दिनभर राख फूँकते, जेवर बनाते और शाम को राख तक बेच देते। सुबह-सुबह बहुत से जमादार रानी मंडी की नालियों में स्वर्णकण ढूँढते हुए मिल जाएँगे। चलनी मे राख बीनने का काम दिन चढ़े तक चलता है। भैरवजी जब ‘माया' के संपादक थे तो मुट्ठीगंज से सीधे साइकिल पर रानीमंडी की ओर चल देते। साइकिल पर ताला ठोंकते और किसी सुनार के स्टूल पर बैठकर घण्टों बतियाते।
कई बार हम दोनों की देखा-देखी हो जाती, मगर दोनों देखकर भी अनदेखा कर देते। वे सुनारों के यहाँ इतना छिपकर जाते, जैसे किसी तवायफ के यहाँ जा रहे हों। हमारी दुआ-सलाम भी न होती। कोठे का यही दस्तूर होता है। मुझे लगता है कि लगातार संघर्ष करते-करते असुरक्षा की भावना ने उन्हें स्वर्ण प्रेमी बना दिया था। शायद इसी असुरक्षा की भावना के तहत वह छद्म नाम से ‘उसकी अंगड़ाई' जैसे फुटपाथी उपन्यास भी लिख दिया करते थे। ये तमाम बातें मुझे भैरवजी की शिष्यमंडली ने ही बताई थीं, मगर भैरवजी के सामने इन बातों का खुलासा करने का साहस किसी में नहीं था। अगर कभी भैरवजी रायल्टी के प्रश्न पर अपने प्रकाशक से भिड़ जाते तो उनके रवाना होते ही उनका प्रकाशक अत्यंत रस लेकर वह किस्सा बयान करने लगता तब भारत-चीन युद्ध के दौरान भैरवजी ने अपना तमाम सोना उसके लाकर में रखवा दिया था। इस बात की भनक पाठकजी को लगी तो उन्होंने प्रकाशक को सुझाव दिया कि जब शांति स्थापित होने पर भैरवजी अपना सोना माँगें तो मुकर जाना।
इस बात का इतना प्रचार हो गया कि यह नाटक देखने के लिए प्रकाशक के यहाँ लेखकों की भीड़ जमी रहती। भैरवजी आते और लेखकों के सामने अपनी पोटली न माँग पाते। बैंक बंद होने का समय होता तो लौट जाते। एक दिन वह घर से तय करके आये कि आज तो अमानत वापिस लेकर ही लौटेंगे। वह प्रकाशक को अलग ले गए। योजना के अनुसार प्रकाशक ने वही किया जो पाठकजी के साथ तय था-‘भैरवजी आप क्या कह रहे हैं, कौन सा सोना? कैसा सोना?' भैरवजी लाल पीला होते रहे और भीतर लेखक बंधु इसका आनंद लेते रहे।
शराब के नशे में मैंने यह प्रसंग भी खोलना शुरू कर दिया, मार-पिटाई शुरू हो, इससे पहले ही सतीश जमाली ने फौरन खाना परोस दिया। बोतल पहले ही दम तोड़ चुकी थी। हस्बेमामूल जमाली की पत्नी ने बहुत लज़ीज भोजन तैयार किया था कमरे में देशी घी की सुगंध चुगली खा रही थी कि आज दिन में वीपीपी से काफी रकम घर में आई है। साहित्य चर्चा और चख-चख पर विराम लग गया। भैरवजी चुपचाप खाना खाते रहे। कमरे में खामोशी थी।
दूसरे दिन सुबह-सुबह भैरवजी ने ममता को फोन किया कि कालिया पर कुछ लगाम लगाओ, वह बहुत पीने लगा है। यह अच्छा लक्षण नहीं है। इसका सेहत पर बुरा असर पड़ेगा। सबसे बुरी बात तो यह है कि वह पीकर बदतमीज़ी पर उतर आता है और छोटे-बड़े का भी लिहाज़ नहीं करता।
आज सोचता हूँ, भैरवजी ने सही सलाह दी थी। पीने के बाद मैं किसी गुस्सैल साँड की तरह बेकाबू हो जाता था। किसी से कुछ भी कह देता। लोग मेरी इस कमजोरी का फायदा उठाने लगे। किसी दूसरे लेखक को सबक सिखाना होता तो मुझे मोहरा बना लेते। मैं बखूबी अपना फर्ज सरअंजाम देता।
इसी दौर में अमरकांतजी के सम्पर्क में आया। यह कहना ग़लत न होगा कि गहन सम्पर्क में। वह उन दिनों ‘मनोरमा' के संयुक्त सम्पादक थे और मित्र प्रकाशन का कार्यालय रानी मंडी से ज़्यादा दूर नहीं था। वह दफ़्तर से सीधे हमारे यहाँ चले आते और उनके साथ घण्टों की निशस्त होती। ममता और मैं इन्तज़ार करते कि अमरकांतजी आएँ और हम लोग चाय पियें। सूर्यास्त के बाद मैं चाय नहीं पीता था। अमरकांतजी टीटोटलर थे। पीते नहीं थे, मगर पीने वालों के बीच सब से ज़्यादा में नशे में नज़र आते थे। धीरे-धीरे ये सम्बन्ध प्रगाढ़ होते चले गये। मैं सार्त्र, कामू, बैकेट आदि के प्रभाव में इलाहाबाद आया था, मैं अस्तित्व के बुनियादी दार्शनिक पहलू के बारे में ज़्यादा चिन्तित रहता था, अमरकांतजी ने धीरे-धीरे मेरे हवाई किलों को ध्वस्त करना शुरू किया और मेरा विमान ज़मीन पर उतारने लगे। प्रगतिशील जीवन मूल्यों के प्रति उन की गहरी आस्था थी, मगर मैं यह भी देख रहा था, कि उनके इन कामरेड साथियों ने संकट में कभी उनका साथ नहीं दिया था, उन लोगों ने भी नहीं, जिन्होंने उनकी प्रारम्भिक पुस्तकें प्रकाशित की थीं। अमरकांतजी में सन्तोष और धैर्य का समुद्र ठाठें मारा करता है। वे उन लोगों के बारे में भी कोई टिप्पणी नहीं करते थे, जिन्होंने उनकी पुस्तकें प्रकाशित की थीं और कभी रायल्टी नहीं दी थी। यहाँ तक की पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस ने भी, जो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का मुख्य प्रकाशन गृह था, उनके प्रथम उपन्यास ‘सूखा पत्ता' की रायल्टी न दी थी, प्रगतिशील मित्रों की बात तो दरकिनार। उन्हीं दिनों मैंने उन पर एक ग्रन्थ सम्पादित किया-अमरकांत। वह इतना ‘लो' की में रहते थे कि उनको हाशिए में डाल दिया गया था। अमरकांत को लेकर अक्सर मेरा अश्कजी से विवाद हो जाता। अश्कजी का मत था कि अमरकांत संकोची, संकुल, संकुचित और संशयालु व्यक्तित्व के स्वामी हैं, मगर वह उनकी कहानियों के मुरीद थे। मुझे अमरकांत हमेशा एक संत की तरह लगते-न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर। रानीमंडी चौक में था, कोई लेखक चौक आता तो हमारे यहाँ ज़रूर चला आता । शाम को अक्सर महफिलें सजतीं। बाहर से कोई लेखक आता तो वह भी रानी मंडी में ज़रूर दिखायी देता।
इसी प्रकार एक बार राजेन्द्र यादव अपनी किसी महिला मित्र के साथ इलाहाबाद पधारे। वह कुछ इस अंदाज़ में आये थे जैसे इस क्षेत्र में भी उन्होंने मोहन राकेश और कमलेश्वर को मात दे दी है। अमरकांत ने बातचीत के केन्द्र में केवल मन्नू भण्डारी को ही रखा और राजेन्द्र को किसी दूसरे विषय पर आने ही नहीं दिया। इलाहाबाद के तौर तरीके धीरे-धीरे मेरी समझ में भी आने लगे थे। अगर शाम को कोई लेखक रानी मंडी में नमूदार हो जाता तो अमरकांत की वाग्विदग्धता का प्रमाण ज़रूर मिल जाता। इलाहाबाद की एक और खासियत थी। बड़े से बड़ा लेखक भी निरभिमान रूप से नये लेखकों के यहाँ आने जाने में संकोच न करता। अश्कजी तो अक्सर हमारे यहाँ या दूधनाथ सिंह के यहाँ दिखायी देते। अश्कजी खुसरो बाग से पैदल ही चले आते। नरेश मेहता भी कभी कभार आते। उन्होंने मार्क्सवादी चोला उतार फेंका था और वैष्णवी रंग में अपना चोला रंग लिया था। इसके बावजूद उन्हें मदिरापान में संकोच नहीं था। हम लोग कई बार पूरी शाम उनकी कविताएँ सुनते। प्रेम का ऐन्द्रिक स्पर्श भी उनकी कविताओं में रहता। दो एक पैग के बाद तो नरेशजी का व्यक्तित्व प्रेम में सिक्त हो जाता। उनकी कविताओं से प्रेम की अनुभूतियाँ चूने लगतीं-टप टप। एक बार नन्दनजी ने ‘सारिका' के लिए उनका इण्टरव्यू लेने को कहा। मैंने उन्हें आमन्त्रित किया विस्की की चुस्कियों के बीच उन से बातचीत टेप कर ली गयी। उस शाम भी अमरकांत उपस्थित थे। वह भी बीच-बीच में प्रश्न दाग देते। ‘सारिका' में वह इण्टरव्यू छपा तो उसकी व्यापक प्रतिक्रिया हुई। उस इण्टरव्यू से नरेशजी के कोमल शांत व्यक्तित्व की कई पर्तें अपने आप खुलती चली गयीं। कई लोग आहत भी हुए, क्योंकि नरेशजी की वैष्णव छवि कहीं कहीं खंडित होती थी।
यहाँ उस नशीले इण्टरव्यू की एक बानगी पेश करना अप्रासंगिक न होगा :
: नरेशजी, यह बताइए, इस उम्र में आपने जो प्रेम
कविताएँ लिखीं हैं, इसके पीछे क्या राज़ है?
नरेश मेहता : कोई राज़ नहीं, (हँसते हुए) वैसे एक राज़ है इसमें। जैसे मरने से पहले या बुझने से पहले दिया भभकता है...
: इतनी इंटेस प्रेम कविताएँ तो आपने युवावस्था में भी नहीं लिखी थीं।
नरेश मेहता : युवावास्था में आदमी प्रेम करता है, प्रेम लिखता नहीं।
: इन कविताओं को पढ़कर एक खूबसूरत बंगाली महिला का चेहरा उभरता है।
नरेश मेहता : मेरे सम्पूर्ण लेखन में एक बंगाली गंध ही तो है। और क्या है?
: मत्स्यगंधा?
नरेश मेहता : हाँ, यह ठीक है। मत्स्यगंधा। मैं एक बात बताता हूँ। देयर वाज़ ए लेडी। शी वाज़ बंगाली। मेरा दुर्भाग्य यह है कि.....
: कि बंगाल ही आकर्षित करता है।
नरेश मेहता : ज़रूर, नॉन बंगाली शायद ही कोई महिला मेरे सम्पर्क में आई हो।
: आपकी पत्नी भी बंगाली है?
नरेश मेहता : नहीं।
: यह बताइए, पहला प्रेम आपने कब किया? उस का आपके साहित्य पर क्या प्रभाव पड़ा? ,
(एक लम्बी आह भरते हैं।)
: संकोच मत कीजिए। इस उम्र में आप उत्तर देंगे तो आपकी पत्नी नाराज़ नहीं होंगी।
नरेश मेहता : मैं इस प्रश्न को यों कहना चाहूँगा कि पहला दूसरा कुछ नहीं होता। बस, सम लेडीज़ डिड ओब्लाइज मी। दे रियली एन्रिच्ड मी आलसो।
: कविताएँ पढ़कर यही लगता है कि कोई महिला है जो आज भी आपको उसी प्रकार हाँट करती है।
नरेश मेहता : आप स्वयं ही सोचिये, यदि आपने प्रेम के संगीत को समस्त इन्द्रियों के साथ जिया है, तो क्या वह हाँट नहीं करेगा?
: प्रेम को सेक्स से आप कितना अलग मानते हैं?
नरेश मेहता : मैं बिलकुल अलग नहीं मानता। अगर सेक्स नहीं है तो प्रेम नहीं है।
: लेकिन शादी के बाद तो कठिनाई आ जाती है। सेक्स का ऐसा इस्तेमाल जो आप कह रहे हैं, क्या संभव है?
नरेश मेहता : शादी के बाद अगर आप सेक्स के लिए किसी के पास जाते हैं तो आपसे बड़ा मूर्ख कोई नहीं, क्योंकि सेक्स का सुख स्त्री में नहीं है, आपमें ही।
: अच्छा?
नरेश मेहता : प्यारे सेक्स के स्तर पर वोमन से मीनिंगलेस।
: स्त्री अर्थहीन है। तब तो आत्मरति ही कहा जाएगा।
नरेश मेहता : तुम कुछ भी कहो, मुझे कोई आपत्ति नहीं, लेकिन यह सच है कि आई हैव टू वीकनेसेज़। वन इज़ म्यूज़िक एंड द अदर इज़ बंगाली।...
: हाँ तो आप एक बंगाली महिला के बारे में बता रहे थे।
नरेश मेहता : शी वाज़ रीयली एक नाइस वोमन। शी वाज़ ए फ्रेंड ऑफ माई वाइफ़। बल्कि एक ज़माना तो यह था कि मैं और मेरी पत्नी अक्सर उसके यहाँ जाते थे। मगर बाद में जब कभी मैं कलकत्ता गया, उसके यहाँ नहीं गया (थोड़ा रुककर) उस फूल को देखकर जो आनन्द प्राप्त होना था, हो गया। अब उसे क्यों तोड़ा जाए।
: अब तो वह फूल मुर्झा चुका होगा। तोड़ने से आपका क्या अभिप्राय है?
नरेश मेहता : टु प्लक द वुमन इज़ सेक्स, हु रिसपेक्ट द वोमन इज़ लव। स्त्री को आप आदर नहीं देते तो आपका सेक्स मैथुन होगा, संभोग नहीं।
: संभोग से भी तो प्रेम उत्पन्न हो सकता है।
नरेश मेहता : संभोग, प्रेम, कला, साहित्य, संस्कृति अगर आप को किसी तरीके से उदात्त नहीं बनाते, विराट नहीं बनाता, तो बकवास है। मेरी पत्नी ने एक चीज़ को छोड़कर -संगीत को- मेरी समस्त लालसाएँ पूरी की हैं। फार मी वोमेन एज़ सेक्स हैज़ नो मीनिंग। मेरे बारे में मेरी पत्नी जानती है कि मैं कई लोगों के सम्पर्क में आता हूँ। बट शी नेवर डाउटिड मी। अब तो यह स्थिति आ गयी है कि...
: कि आप सुरक्षित रूप से प्रेम कविताएँ लिख सकते हैं
नरेश मेहता : शी नोज़ एवरीथिंग।
: लेकिन यह बहुत खतरनाक स्थिति है कि आप एक ओर पत्नी को पूरा आदर देते रहें, दूसरी ओर किसी अन्य महिला के बारे में भी अत्यन्त भावुकता से सोचते रहें और उसकी स्मृति में कविताएँ लिखते रहें।
नरेश मेहता : मेरी पत्नी मुझपर पूरा विश्वास करती है। (अपूर्ण)
नरेशजी के बारे में यह बताना भी ज़रूरी है कि वह अत्यन्त सात्विक जीवन जीते थे। लूकरगंज में उनका छोटा सा आश्रमनुमा घर था। महिमाजी घर की इतनी साफ़ सफ़ाई रखती थीं कि वहाँ सिगरेट तक फूँकने में संकोच होता था। कुछ-कुछ ऐसा माहौल था जैसे किसी मन्दिर का होता है-उनके घर का नाम ही होना चाहिए था ‘घर एक मन्दिर'। उनके यहाँ जाने पर लगता जैसे अभी-अभी नरेशजी पूजा से उठे हैं। उस माहौल में मद्यपान की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती थी, जबकि लूकरगंज में ही भैरवजी का भी घर था। उनका घर भी सुव्यवस्थित था, मगर वहाँ अध्यात्म की धूपबत्ती नहीं जलती थी।
इस बीच मेरी पहचान और व्यवसाय का दायरा अप्रत्याशित रूप से बढ़ने लगा। देश के दूरवर्ती इलाकों से साहित्यप्रेमी प्रकाशक इलाहाबाद प्रेस में काम करवाने इलाहाबाद आने लगे। उन दिनों इलाहाबाद उत्तर भारत में मुद्रण का सबसे बड़ा केन्द्र था। इलाहाबाद में गृह उद्योग की तरह प्रेस व्यवसाय विकसित हुआ था। गली-गली में प्रेस थे या कम्पोज़िंग यूनिट। छपाई की दरें भी देश में सबसे कम थीं। हमारे यहाँ महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, बिहार, हिमाचल यहाँ तक कि दिल्ली तक से काम आने लगा। मुम्बई से हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर के मोदी, जबलपुर से नर्मदाप्रसाद खरे, भोपाल से हिन्दी ग्रन्थ अकादमी अपने अपने प्रकाशनों का मुद्रण कार्य देने लगे। मुझे ‘हिन्दी भवन' के काम से ही फुर्सत न थी। लिहाज़ा प्रेस का विस्तार करने की सोची, जबकि अभी नारंगजी की किस्तें बाकी थीं। मैंने एन0 एस0 एस0 ई0 से मशीन खरीदने के लिए ऋण के लिए प्रार्थना पत्र दिया, वहाँ से सन्तोषजनक उत्तर न मिला तो बैंक से ऋण लेकर स्वचालित मशीन किस्तों पर ले ली। अभी दो कर्ज़े सर पर थे कि अचानक चुनाव की घोषणा हो गयी और एन0 एस0 एस0 ई0 ने भी ऋण मंजूर कर लिया। मैंने एक और मशीन ले ली। अब पाँच हज़ार रुपये महीने की देनदारी हो गयी। उस समय सत्तर के दशक में यह एक बड़ी रकम थी। इस ऋण के दबाव में मैं कथा कहानी की दुनिया से भटकने लगा। श्रम, तनाव और कार्यभार से राहत पाने के लिए सूरज डूबते ही गिलास लेकर बैठ जाता। स्टीरियो पर अपनी पसंद का संगीत सुनता। उन दिनों बेगम अख्तर का मैं इतना दीवाना हो गया था कि उनका शायद ही कोई एल0 पी0 होगा जो मेरे पास न हो। बेगम अख्तर ने अपने जीवन के अन्तिम दिनों में मेरे मित्र सुदर्शन फाकिर की ग़ज़लें सबसे ज़्यादा गायी थीं। दूसरी तरफ हमारा पुराना साथी जगजीत सिंह भी ग़ज़ल की दुनिया में तेज़ी से उभर रहा था। इसी प्रकार सहगल के तमाम उपलब्ध रिकार्ड मैंने खरीद लिए। सहगल भी जालंधर के थे। वतन को याद करने का यह भी एक तरीका था।
मुद्रण कार्य के सिलसिले में ही जगदीश पीयूष से परिचय हुआ। वह जायसी की मजार पर एक भव्य आयोजन कराना चाहते थे और इस अवसर पर अवध की लोक संस्कृति एक स्मारिका प्रकाशित करना चाहते थे। मेरे यहाँ लोग इसलिए भी आते थे कि मुद्रण के अलावा सम्पादन, संयोजन, प्रोडक्शन, ले आउट, साज-सज्जा की मुझे अच्छी जानकारी थी। प्रकाशकों को जगह-जगह भटकना नहीं पड़ता था। पांडुलिपि देकर वह निश्चिंत हो जाते थे। पीयूषजी की स्मारिका और आयोजन के लिए वित्तीय सहायता का आश्वासन अमेठी के राजकुमार संजय सिंह ने दिया था। अमेठी के राजा रणंजय सिंह भी साहित्यनुरागी थे मगर जायसी के प्रति उतने सहिष्णु नहीं थे जितने कि राजकुमार संजय सिंह। पीयूष ने संजय सिंह को किसी प्रकार इस सहयोग के लिए राजी कर लिया था। पीयूष ने आयोजन की जिम्मेदारी भी मुझे सौंप दी और इलाहाबाद के अनेक लेखक अमेठी चलने को राजी हो गये, मार्कण्डेय, सत्यप्रकाश मिश्र, मटियानी आदि। मार्ग व्यय के नाम पर सौ-सौ रुपये भी मिल रहे थे, जबकि वाहन की व्यवस्था पीयूषजी ने कर दी थी। जायसी की मजार पर एक भव्य समारोह का आयोजन हुआ। चित्र भी खींचे गये, लेखकों का आदर-सत्कार भी हुआ।
इस आयोजन के दो नतीजे निकले। पहला तो यही कि संजय सिंह से मेरी मित्रता हो गयी। स्मारिका के बिल का भुगतान भी उन्होंने पीयूषजी को न देकर इलाहाबाद आकर स्वयं मुझे दिया। पूरी शाम हम लोगों ने जी भर कर ग़ज़लें सुनीं। संजय सिंह के पिता ने उन्हें घोर अनुशासन में रखा था। कुश्ती, वैदिक साहित्य के अध्ययन तथा घुड़सवारी वगैरह पर ज़्यादा तवज्जो दी थी। सामंती संस्कार कूट-कूट कर भरे जा रहे थे, उर्दू ग़ज़ल से उनका यह प्रथम साक्षात्कार था। मुझे ताज्जुब तो इस बात पर हुआ कि यह कैसा राजकुमार है जो ‘हम तो समझे थे कि बरसात में बरसेगी शराब, आई बरसात तो बरसात ने दम तोड़ दिया' सुन कर भी बियर तक पीने को प्रेरित नहीं हुआ। इस शाम के बाद हमारी कुछ ऐसी मित्रता हो गयी कि संजय सिंह जब-जब इलाहाबाद आये हमारे यहाँ ज़रूर आये। हमारे संबंध प्रगाढ़ होते चले गये। वह घुड़सवारी करते-करते अचानक कारों में दिलचस्पी लेने लगे। उन दिनों नवयुवकों में यकायक ‘मेटाडोर' लोकप्रिय हो गयी थी। एक बार हम लोग इलाहाबाद से मात्र ढाई घण्टे में लखनऊ पहुँच गये, मैटाडोर में। दो सौ किलोमीटर की इस यात्रा के दौरान रायबरेली में चाय भी पी। बाद में संजय सिंह को पायलेट बनने का शौक चर्राया तो किसी भी समय छोटे से विमान में इलाहाबाद चले आते। इलाहाबाद में थोड़ी गप्पबाज़ी होती और सूर्यास्त से पूर्व उसी विमान में लखनऊ लौट जाते। एक बार तो अपने साथ अपने छोटे से बेटे को भी साथ में ले आये थे। उनके साथ मैंने भी अनेक बार आकाशभ्रमण किया। खासतौर पर हैलीकाप्टर से लखनऊ, अमेठी और इलाहाबाद की कई यात्राएँ की थीं। पहली बार जब मैं लखनऊ से इलाहाबाद के लिए हैलीकाप्टर से उड़ा तो मेरी घिग्घी बंध गयी। ज्यों-ज्यों हैलीकाप्टर आकाश में उठ रहा था, मेरा दिल बैठ रहा था। मेरी घबराहट देख कर उनके इशारे से पायलेट ने आकाश में कई करतब दिखा दिये। कुछ देर बाद मैं संयत हो गया और प्रकृति की छटा देखने लगा। नीचे धान की फसल और सड़कों का जाल बिछा था। इलाहाबाद अत्यन्त सुरम्य नज़र आया, गंगा और यमुना का मिलन स्पष्ट नज़र आ रहा था। एक शहर हरियाली से ढका हुआ।
एक दिन लखनऊ से अचानक उनका फोन आया कि शाम आठ बजे अमेठी से चलकर दस बजे तक इलाहाबाद पहुँचेंगे। दो पत्रकार भी साथ होंगे, भोजन, हमारे यहाँ होगा। करीब दस बजे ये लोग पहुँचे। लखनऊ के दो पत्रकार थे-ओसामाँ तलहा और जगत वाजपेयी। दोनों के साथ उनकी बार भी चल रही थी। उन्होंने बैग से बोतल निकाली और हम लोग चालू हो गये। हम लोग ठुमरी, दादरा और दारू में गर्क होते चले गये। सामंती पृष्ठभूमि के बावजूद संजय सिंह की तीनों में दिलचस्पी न थी- न दारू में, न ठुमरी में, न दादरा में। आधी रात को संजय सिंह अपने दोनों मित्रों को मेरे हवाले छोड़कर अपनी ससुराल चले गये।
हम लोग रात भर सुरा और संगीत में धुत्त रहे। मालूम हुआ वे लोग संजय सिंह के साथ शिकार खेलने जा रहे हैं। बात-बात में उन पत्रकारों ने बताया कि अच्छा हुआ आपसे भेंट हो गयी, वरना हम किसी को संजय सिंह के नज़दीक नहीं होने देते। राज़ की ऐसी बात कोई शराबी ही दूसरे शराबी को बता सकता है। और रात भर में शराबियों की इतनी मित्रता हो गयी जैसे जन्म जन्मांतरों का साथ हो। सुबह जब संजय सिंह अपने मेहमानों को लेने आये तो उन्होंने घोषणा कर दी, अगर कालियाजी शिकार पर नहीं जाएँगे तो वह भी नहीं जाएँगे। बाद में तीनों का ऐसा दबाव पड़ा कि मुझे अपना पूरा काम अधूरा छोड़कर ममता को कालिज से छुट्टी दिलवाकर ज़िन्दगी की पहली और अन्तिम शिकार यात्रा पर निकलना पड़ा। चलने से पहले बियर, रम और विस्की के क्रेट गाड़ियों में रखवाये गये, थोक में नमकीन खरीदा गया, येरा के गिलास और आइस बकेट से लैस होकर हम लोग शिकार अभियान पर निकल पड़े।
रात हम लोगों ने जंगल में टेंट लगाकर बितायी। सुबह उठे तो पानी का दूर-दूर तक नामोनिशान तक नहीं था। जाड़े के दिन थे, दाँत किटकिटा रहे थे। आखिर तलहा ने ब्रश करने के लिए एक नायाब तरीका निकाला। उसने बियर की एक बोतल खोली और हम लोगों ने बीयर से ब्रश किया, बियर के कुल्ले किये। किसी को ध्यान ही न आया कि गाड़ी मे मिनरल वाटर का क्रेट भी रखा है। हम लोग जितने दिन शिकार पर रहे, यही क्रम चलता रहा। रात जहाँ कहीं भी पड़ाव पड़ता, पुआल के गद्दे बिछा कर सो जाते या बाहर खुले में अलाव जला कर अग्नि उत्सव मनाया जाता। रात को दो-तीन तेज़ हेडलाइट वाली जीपों के काफिले के शिकार पर निकलते। हिरण-हिरणियों और हिरन शावकों के झुण्ड के झुण्ड दिखायी देते। तेज़ रोशनी में वे ठगे से चित्रलिखित से ठिठककर खड़े हो जाते। कई जोड़ा स्वर्णजटित बिल्लौरी आँखें नन्हे-नन्हे हीरों की तरह जगमगातीं। कौन करता होगा प्रकृति के इस अनोखे चमत्कार का हनन, इन दिव्य आँखों का शिकार? हम तीनों अनाड़ी थे। जब भी किसी ने निशान साधा, चूक गया। हिरणों का समूह सरपट भाग निकलता, जीप से भी तेज़ रफ़्तार से, कुलाँचे भरते हुए। शिकार संभव न हुआ, संभव ही नहीं था। उस रूप राशि को देखने में ज़्यादा सुख था। वे हिरन हमारे दोस्त हो गये थे। रात को कई बार मुलाकात हो जाती।
तय पाया गया कि हिरन का शिकार कायर लोग यानी संवेदनहीन शिकारी ही कर सकते हैं। हम लोग चीते का शिकार करेंगे। चीते के शिकार के लिए ऊपर पहाड़ी पर जाना था। अगले दिन हमारा लाव लश्कर हथियारों और दारू से लैस होकर पहाड़ी पर पहुँचा। गाँव वालों की मदद से ‘हाँका' का इन्तज़ाम किया गया। गाँव वालों ने चारों ओर से पहाड़ी को घेर रखा था और ‘ढोल,' कनस्तर, मंजीरा बजाते हुए पहाड़ी की घेराबंदी कर ली गयी। हम लोगों ने शिकारियों की देखरेख में हथियारों से लैस होकर मोर्चा संभाल लिया था। शोर सुनकर पेड़ों पर कुहराम मच गया। परिन्दे जंगल में सन्नाटे की जगह कोलाहल सुनकर आकाश में भटकने लगे। पहाड़ी के बीचों बीच एक चश्मा था। खबर थी कि दोपहर को जंगल का राजा यहाँ पानी पीने आता है। आज जंगल के राजा का घिराव कर लिया गया था, वह न जाने कहाँ छिपकर बैठा था। मालूम नहीं पहाड़ी पर शेर था भी कि नहीं, थ्ाा तो उस शान्तिप्रिय राजा ने उस रोज़ अपनी खोह में हुक्का गुड़गुड़ाना ही बेहतर समझा। थक हार कर हम लोग अपने टेंट में लौट आये और बियर पीकर शिकार की क्षतिपूर्ति की।
सूर्यास्त से पूर्व हम लोग जब खरामा-खरामा पहाड़ी से उतर रहे थे कि तो ऊपर से शेर की दहाड़ सुनाई दी, जैसे चुनौती दे रहा हो। हवा में दो एक फायर किये गये। मगर शिकार का जोश ठण्डा पड़ चुका था। शेर को प्राणदान देकर हम लोग उतर आये। अगले रोज़ फिर यही क्रम शुरू हुआ। शेर और हम लोगों के बीच लुकाछिपी का खेल चलता रहा। हफ़्ता दस दिन हम जंगलों में भटकते रहे। जमकर तफरीह की। हम लोगों का स्कोर सिफर रहा, जबकि शिकारियों ने इस बीच कुछ हिरन और अन्य जंगली जानवरों का शिकार कर डाला था। हम लोगों के सूरमाओं ने मात्र एक साही का शिकार किया था। उसे तड़पता देख हत पश्चाताप करते रहे।
तमाम लोग फुर्सत में निकले थे, मुझे एक-एक दिन भारी पड़ रहा था। मुझे अपनी किस्तों की चिन्ता थी, कर्मचारियों के वेतन का जुगाड़ करना था। ये लोग थे कि मुझे छोड़ ही नहीं रहे थे। एक दिन मैंने तय कर लिया कि आज तो ज़रूर ही लौट जाऊँगा। शाम को सिर्फ़ एक बस जाती थी, जिस से जंगल से निकल कर मुख्यालय तक जाया जा सकता था। आठ-दस किलोमीटर की दूरी पर बस स्टॉप था। मेरे बहुत चिरौरी करने पर ये लोग मुझे बस स्टॉप पर छोड़ आये। बस स्टॉप भी क्या था, जंगल के एक छोर पर एक छोटी सी पान तम्बाकू की दुकान थी, जिसमें मद्धिम सी ढिबरी जल रही थी। भीतर एक बूढ़ा कम्बल ओढ़े अलाव ताप रहा था। उसने भी बस की प्रतीक्षा में दुकान खोल रखी थी। दुकान क्या थी, पान, बीड़ी, सिगरेट, कुछ नमकीन और गुड़ के मिष्ठान। रात हो गयी, मगर बस नहीं आयी।
‘लगता है आज बस नहीं आयेगी।' अचानक बूढ़े ने सामान समेटना शुरू कर दिया और ताला ठोंक कर लाठी टेकते हुए अंधेरे में विलीन हो गया। अब उस निबिड़ अंधकार और सांय-सांय करते जंगल में मैं अकेला खड़ा था। वहाँ खड़ा रहना मुझे बहुत असुरक्षित लगा। मैंने अपना अटैची उठाया और बूढ़े के पीछे-पीछे चल दिया। अभी एकाध फर्लांग ही तय किया होगा कि अचानक किसी वाहन की तेज़ रोशनी दिखायी दी। मेरी जान में जान आई कि बस तो आई। मगर वह बस नहीं, जीप थी। अगली सीट पर तीनों यार बैठे थे-कहिए मान्यवर, कहाँ की तैयारी है? तलहा ने अपने सुपरिचित अन्दाज़ में पूछा। मैंने जीप में अपनी अटैची फेंकी और उनके साथ हो लिया। पता चला, आज कोई सवारी ही नहीं थी, बस कैंसिल हो गयी।
‘हमारी इजाज़त के बगैर आप जंगल नहीं छोड़ सकते। साथ आये थे और साथ ही लौटेंगे।' संजय सिंह ने कहा।
अगले रोज़ फिर वहीं क्रम शुरू हुआ। बियर से मंजन और जिन से नाश्ता। शेरो-शायरी, गाना बजाना, लतीफ़े और छींटाकशी। राजकुमार के सम्पर्क में राजयोग चल रहा था। अभी तक नपी तुली दारू पी थी, यहाँ कोई बंधन, कोई अभाव, कोई सीमा न थी। न बच्चों की शर्म, न बीवी का भय।
इसी यात्रा में हम लोगों को संजय सिंह के साथ उनकी ससुराल के फार्म पर जाने का इत्तिफाक हुआ। रीवा और मिर्ज़ापुर की पहाड़ियों को छूता इलाहाबाद जिले का ही एक रम्य क्षेत्र। मुझे इस से पूर्व एहसास नहीं था, बहुत से लोगों को आज भी न होगा, कि इलाहाबाद में मेजा-पसना की तरफ़ ऐसा इलाका भी है जहाँ प्राकृतिक निर्झर बहते हैं, चश्मे फूटते हैं। वहाँ फार्म हाउस पर हम लोगों ने डेरा डाला था। जाड़े के दिन थे। विशाल फार्म हाउस, पुआल के आठ इंची गद्दे। वहाँ पहुँचते ही हम लोगों ने साथियों से बचा पुआल गद्दों के नीचे कर कुछ बोतलें आड़े वक्त के लिए छिपा दीं।
एक दिन संजय सिंह के ससुर भी आ गये। फार्म हाउस में एक बड़ा सा तालाब था। तालाब में मछलियाँ थीं। एक खास प्रजाति की। उस दिन डिनर में वह विशिष्ट अतिथियों के लिए अपने तालाब की मछलियों के कुछ व्यंजन बनवाना चाहते थे। उनका आदेश मिलते ही दो तीन सेवक उस कड़ाके की ठंड में तालाब में उतर गये। उन्हें नंगे बदन तालाब में जाल बिछाते देख हम लोगों की कंपकपी छूट रही थी। उस दिन मछलियाँ ऐसे गायब हुईं जैसे शादी में दामाद के जूते गायब होते हैं। बहुत जुगत लगाने पर भी जाल में एक मछली भी न फंसी। ठाकुर साहब को लगा, मछलियाँ उनके आदेश की अवहेलना कर रही है, उनकी भृकुटी तनने लगी। उन्होंने आदेश दिया कि पंप से तालाब का सारा पानी निकाल दिया जाए। हम लोग तालाब के किनारे अलाव सेंक रहे थे। देखते देखते तालाब खाली होने लगा। जब पानी एकदम कम रह गया तो देखा दर्जनों मछलियाँ पानी में उछल रही थीं। मनपसंद मछलियाँ पकड़ ली गयीं, जो हाथों से छिटक छिटक जा रही थीं। भोजन में उनका सालन परोसा गया। मुझ से खाया न गया। एक बेवकूफ भावुक ब्राह्मण की तरह दिमाग में तड़पती हुई मछलियाँ कूद फाँद करती रहीं। दिन भर तो हम लोग पिकनिक में बिता देते, शाम को जब बावर्ची से पूछा जाता कि क्या बना है तो वह भी टके सा जवाब देता, ‘सिकार बा।' तीतर बटेर जो भी पक्षी फार्म हाउस की सरहद में घुसता, दुश्मन के विमान की तरह मार गिराया जाता।
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