संस्मरण ग़ालिब छुटी शराब रवींद्र कालिया “…मगर मैं तय कर चुका था कि, अब और नहीं पिऊंगा । इस जिन्दगी में छककर पी ली है । अपने हिस्से की त...
संस्मरण
‘ग़ालिब छुटी शराब' रवीन्द्र कालिया के धारावाहिक, धाराप्रवाह संस्मरण ही नहीं आत्मस्वीकार और आत्म विस्तार भी है। यह रचना जीवनधर्मिता का आलोक देने के साथ-साथ अपने पाठक को समृद्ध भी करती है। स्मृति सामर्थ्य और साहस का दस्तावेज है ग़ालिब छुटी शराब। जिगर की गम्भीर बीमारी से जूझते हुए कोई मामूली रचनाकार जहाँ टूट कर बिखर जाता कालिया ने उसी संघर्ष को अपना पाथेय बना कर बड़ी बेबाकी से अपने को तार-तार कर देखा है। इसमें जहाँ उनके मित्रों, सहकर्मियों और परिचितों की आत्मीय तस्वीर है वहीं कालिया के सुरा-सुरंग में भटकने और उसमें से निकलने की छटपटाहट भी व्यक्त हुई है।
रवीन्द्र कालिया उन विरल रचनाकारों में से हैं जिन्होंने पिछले अरसे में कहानी में शिल्प, शैली और संवेदना के स्तर पर लगातार महत्वपूर्ण परिवर्तन किये हैं। एकाकी दुनिया से निकल परिवेश में प्रवेश, जीने की रोज़मर्रा जद्दोजहद, व्यवस्था के कुटिल, जटिल हिस्सों से टकराव, प्रतिपल सम्बन्धों का विरोधाभास, रूढ़िगत मूल्यों का मौलिक विरोध इन संस्मरणों के आधारस्तम्भ हैं।
ऐसी बेबाक बयानी, अपनी नादानियों का उन्मुक्त स्वीकार कोई महाकाय रचनाकार ही कर सकता है जो खुला घर, दिल और दिमाग रखने वाला हो। पुस्तक पढ़ने से अंदाज़ा लगता है कि लेखक ने अपनी साफगोई की भारी कीमत चुकाई है पर उसे कोई मलाल नहीं। कालिया की शख्सीयत में तल्खियों की खराश की जगह मुहब्बत की मिठास है। पुस्तक में एक ओर कथा-कहानी से गुज़रने का सुख है तो दूसरी ओर लेखक को करीब से जानने का अवसर।
रवीन्द्र कालिया ने अब तक की अपनी ज़िन्दगी में चित्र-विचित्र बहुत से रंग देखे हैं। हर हाल में मस्त रहें हैं। उनकी बाईस तेईस प्रकाशित मौलिक पुस्तकें इसकी भरपूर मिसाल हैं। ज़िन्दगी से लबालब इन संस्मरणों को लिखने में उन्होंने पिछला एक साल लम्हा-लम्हा लगाया है, कुछ ऐसी शिद्दत से कि गालिब के शब्दों में यही लगता है,
‘मगर लिखवाये कोई उनको खत तो हमसे लिखवाये
हुई सुबह, और घर से कान पर रख कर कलम निकले।'
कालिया ने शराब से तौबा कर ली है लेकिन जिन्दगी के नशे से वे आज भी लबरेज हैं,
‘है हवा में शराब की तासीर,
बादः-नोशी है बादः-पैमाई।'
रवीन्द्र कालिया की अन्य पुस्तकें
कथा संग्रह
नौ साल छोटी पत्नी
काला रजिस्टर
गरीबी हटाओ (हिन्दी संस्थान द्वारा पुरस्कृत)
बाँके लाल
गली कूचे
चकैया नीम सत्ताइस साल की उमर तक
संस्मरण
स्मृतियों की जन्मपत्री (निबन्ध)
कामरेड मोनालिज़ा (संस्मरण)
सृजन के सहयात्री (संस्मरण)
उपन्यास
खुदा सही सलामत है (भाग 1 और 2)
(टोक्यो और ओसाका विश्वविद्यालय के हिन्दी पाठ्यक्रम में निर्धारित)
अनेक भारतीय और विदेशी भाषाओं में रचनाओं का अनुवाद, अनुसंधान। अभी हाल में कहानी के अन्तराष्ट्रीय कथा सम्मेलन में Theo Damsteegi (Kan Institute Hindi,Netherland) द्वारा Absurdism in Ravindra Kalia’s short stories का पाठन।
शीघ्र प्रकाश्य
रवीन्द्र कालिया की सम्पूर्ण कहानियाँ
रानाडे रोड (उपन्यास)
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‘हंस' में प्रकाशित ‘ग़ालिब छुटी शराब' के अंश पढ़ गया। बहुत पसंद आये, खासतौर से अपने गद्य के लिए। मुझे ऐसा लगता है कि अपनी पीढ़ी के सर्वश्रेष्ठ गद्यकार आप ही हैं। मोहन राकेश जैसे सधे हुए और अनुशासित गद्यकार के शिष्य के यह योग्य ही है।
-नंदकिशोर नवल
रवीन्द्र कालिया के संस्मरणों में पाठक जो इतना रस ले रहे हैं, वह केवल उपभोक्तावाद के कारण नहीं है, वह एक मर्यादित प्रच्छन्न के निर्मम उद्घाटन के कारण भी है। आत्मभर्त्सना के भी अपने निहितार्थ और सन्देश हैं।
-डॉ0 परमानन्द श्रीवास्तव
(कथा विमर्श ः कहानी की शताब्दी)
संस्मरण लेखन में रवीन्द्र कालिया का कोई सानी नहीं। यह बात कई लोगों ने मुझसे कही है। कथ्य जब अच्छा होता है, तब रचना अच्छी बनती है।
-डॉ0 कन्हैयालाल नन्दन (हंस)
‘ग़ालिब छुटी शराब' बेजोड़ संस्मरण लगा। जिस विधा को हम उर्दू वालों की जागीर समझते चले आ रहे थे, उसको रवीन्द्र कालिया ने वहम सिद्ध कर दिया है। पेचीदा और बहुत महीन स्थितियों को जिस बेलौस ढंग से सामने रखा है, वह हमारी पीढ़ी में इन बूते की ही बात है।
-से0 रा0 यात्री (हंस)
‘ग़ालिब छुटी शराब' पढ़कर लग रहा है, कालियाजी ने शराब छोड़ी है, मगर शराफत नहीं छोड़ी। वह जिस मर्यादा के साथ सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं, वह काबिले तारीफ़ है। हिन्दी में इस तरह का शरारती गद्य कम लिखा गया है, जिस में जीवन की साँसे प्रवहमान दिखीं। ‘ग़ालिब छुटी शराब' का प्रकाशन एक सुखद परिघटना है।
-यश मालवीय (हंस)
‘खुदा सही सलामत है' इतना सहज और यथार्थ ढंग से लिखा गया है कि एक तस्वीर बनती है। मुझे तो नया अनुभव हो रहा है, जैसे सिमसिम का दरवाज़ा खुल रहा हो। शराबी के व्यक्तित्व का अक्खड़पन, खुलापन और साथ ही भावुक मन स्पष्ट हुआ है। रवि ने परिस्थितियों को ज्यों का त्यों पकड़कर बड़े ही सहज और चित्रात्मक ढंग से व्यक्त किया है। ये संस्मरण इतिहास का काम भी करते हैं। सच में ही मुझे ऐसा लगता है ये संस्मरण क्लासिक बन जाएँगे।
-डॉ0 बिन्दु अग्रवाल
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मगर आज की शाम, 1997 की बैसाखी की शाम कुछ अलग थी। सूरज ढलते ही सागरो मीना मेरे सामने हाज़िर थे। आज दोस्तों का हुजूम भी नहीं था-सब निमंत्रण टाल गया और खुद भी किसी को आमन्त्रित नहीं किया। पिछले साल इलाहाबाद से दस पंद्रह किलोमीटर दूर इलाहाबाद-रीवा मार्ग पर बाबा ढाबे में महफ़िल सजी थी और रात दो बजे घर लौटे थे। आज माहौल में अजीब तरह की दहशत और मनहूसियत थी। जाम बनाने की बजाए मैं मुंह में थर्मामीटर लगाता हूं। धड़कते दिल से तापमान देखता हूं- वही 99.3। यह भी भला कोई बुखार हुआ। एक शर्मनाक बुखार। न कम होता है, न बढ़ता है। बदन में अजीब तरह की टूटन है। यह शरीर का स्थायी भाव हो गया है- चौबीसों घण्टे यही आलम रहता है। भूख कब की मर चुकी है, मगर पीने को जी मचलता है। पीने से तनहाई दूर होती है, मनहूसियत से पिण्ड छूटता है, रगों में जैसे नया खून दौड़ने लगता है। शरीर की टूटन गायब हो जाती है और नस नस में स्फूर्ति आ जाती है। एक लम्बे अरसे से मैंने ज़िन्दगी का हर दिन शाम के इन्तज़ार में गुजारा है, भोजन के इन्तजार में नहीं। अपनी सुविधा के लिए मैंने एक मुहावरा भी गढ़ लिया था-शराबी दो तरह के होते हैंः एक खाते पीते और दूसरे पीते पीते। मैं खाता पीता नहीं, पीता पीता शख्स था। मगर ज़िन्दगी की हकीकत को जुमलों की गोद में नहीं सुलाया जा सकता। वास्तविकता जुमलों से कहीं अधिक वज़नदार होती है । मेरे जुमले भारी होते जा रहे थे और वज़न हल्का। छह फिट का शरीर छप्पन किलो में सिमट कर रह गया था। इसकी जानकारी भी आज सुबह ही मिली थी। दिन में डाक्टर ने पूछा था- पहले कितना वज़न था? मैं दिमाग पर ज़ोर डाल कर सोचता हूँ, कुछ याद नहीं आता। यकायक मुझे एहसास होता है, मैंने दसियों बरसों से अपना वज़न नहीं लिया, कभी जरूरत ही महसूस न हुई थी। डाक्टर की जिज्ञासा से यह बात मेरी समझ में आ रही थी कि छह फुटे बदन के लिए छप्पन किलो काफी शर्मनाक वज़न है। जब कभी कोई दोस्त मेरे दुबले होते जा रहे बदन की ओर इशारा करता तो मैं टके-सा जवाब जड़ देता--बुढ़ापा आ रहा है।
मैं एक लम्बे अरसे से बीमार नहीं पड़ा था। यह कहना भी ग़लत न होगा कि मैं बीमार पड़ना भूल चुका था। याद नहीं पड़ रहा था कि कभी सर दर्द की दवा भी ली हो। मेरे तमाम रोगों का निदान दारू थी, दवा नहीं। कभी खाट नही पकड़ी थी, वक्त ज़रूरत दोस्तों की तीमारदारी अवश्य की थी। मगर इधर जाने कैसे दिन आ गये थे, जो मुझे देखता मेरे स्वास्थ्य पर टिप्पणी अवश्य कर देता। दोस्त-अहबाब यह भी बता रहे थे कि मेरे हाथ कांपने लगे हैं। होम्योपैथी की किताब पढ़ कर मैं जैलसीमियम खाने लगा। अपने डाक्टर मित्रों के हस्तक्षेप से मैं आजिज़ आ रहा था। डा0 नरेन्द्र खोपरजी और अभिलाषा चतुर्वेदी जब भी मिलते क्लीनिक पर आने को कहते। मैं हँसकर उनकी बात टाल जाता। वेे लोग मेरा अल्ट्रासाउन्ड करना चाहते थे और इस बात से बहुत चिन्तित हो जाते थे कि मैं भोजन में रुचि नहीं लेता। मैं महीनों डाक्टर मित्रों के मश्वरों को नज़रअंदाज करता रहा। उन लोगों ने नया नया ‘डाप्लर' अल्ट्रासाउन्ड खरीदा था-मेरी भ्रष्ट बुद्धि में यह विचार आता कि ये लोग अपने पचीस तीस लाख के ‘डाप्लर' का रोब गालिब करना चाहते हैं। बाहर के तमाम डाक्टर मेरे हमप्याला और हमनिवाला थे। मगर कितने बुरे दिन आ गये थे कि जो भी डाक्टर मिलता, अपने क्लिनिक में आमन्त्रित करता। जो पैथालोजिस्ट था, वह लैब में बुला रहा था और जो नर्सिंगहोम का मालिक था, वह चैकअप के लिए बुला रहा था। डाक्टरों से मेरा तकरार एक अर्से तक चलता रहा। लुका-छिपी के इस खेल में मैंने महारत हासिल कर ली थी। डाक्टर मित्र आते तो मैं उन्हें अपनी मां के मुआइने में लगा देता। मां का रक्तचाप लिया जाता, तो वह निहाल हो जातीं कि बेटा उनका कितना ख्याल कर रहा है। बगैर मेरी मां की खैरियत जाने कोई डाक्टर मित्र मेरे कमरे की सीढ़ियां नहीं चढ़ सकता था। मां दिन भर हिन्दी में गीता और रामायण पढ़तीं मगर हिन्दी बोल न पातीं, मगर क्या मजाल कि मेरा कोई भी मित्र उनका हालचाल लिए बगैर सीढ़ियां चढ़ जाए; वह जिलाधिकारी हो या पुलिस अधीक्षक अथवा आयुक्त। वह टूटी फूटी पंजाबी मिश्रित हिन्दी में ही संवाद स्थापित कर लेतीं। धीरे धीरे मेरे हमप्याला हमनिवाला दोस्तों का दायरा इतना वसीह हो गया था कि उसमें वकील भी थे और जज भी। प्राशासनिक अधिकारी थे तो उद्यमी भी, प्रोफेसर थे तो छात्र भी। ये सब दिन ढले के बाद के दोस्त थे। कहा जा सकता है कि पीने पिलाने वाले दोस्तों का एक अच्छा खासा कुनबा बन गया था। शाम को किसी न किसी मित्र का ड्राईवर वाहन लेकर हाज़िर रहता अथवा हमारे ही घर के बाहर वाहनों का ताँता लग जाता। सब दोस्तों से घरेलू रिश्ते कायम हो चुके थे। सुभाष कुमार इलाहाबाद के आयुक्त थे तो इस कुनबे को गिरोह के नाम से पुकारा करते थे। आज भी फोन करेंगे तो पूछेंगे गिरोह का क्या हालचाल है।
आज बैसाखी का दिन था और बैसाखी की महफ़िल उसूलन हमारे यहाँ ही जमनी चाहिए थी। मगर सुबह सुबह ममता और मन्नू घेर घार कर मुझे डा0 निगम के यहाँ ले जाने में सफल हो गये थे। दिन भर टेस्ट होते रहे थे। खून की जांच हुई, अल्ट्रासाउंड हुआ, एक्सरे हुआ, गर्ज़ यह कि जितने भी टेस्ट संभव हो सकते थे, सब करा लिए गये। रिपोर्ट वही थी, जिस का खतरा था- यानी लिवर (यकृत) बढ़ गया था। दिमागी तौर पर मैं इस खबर के लिए तैयार था, कोई खास सदमा नहीं लगा।
‘आप कब से पी रहे हैं?' डाक्टर ने तमाम काग़ज़ात देखने के बाद पूछा।
‘यही कोई चालीस बरस से।' मैंने डाक्टर को बताया, ‘पिछले बीस बरस से तो लगभग नियमित रूप से।'
‘रोज़ कितने पैग लेते हैं?
मैंने कभी इस पर ग़ौर नहीं किया था। इतना जरूर याद है कि एक बोतल शुरू में चार पांच दिन में खाली होती थी, बाद में दो तीन दिन में और इधर दाे एक दिन में। कम पीने में यकीन नहीं था। कोशिश यही थी कि भविष्य में और भी अच्छी ब्राण्ड नसीब हो। शराब के मामले में मैं किसी का मोहताज न ही रहना चाहता था, न कभी रहा। इसके लिए मैं कितना भी श्रम कर सकता था। भविष्य में रोटी नहीं, अच्छी शराब की चिन्ता थी।
‘आप जीना चाहते हैं तो अपनी आदतें बदलनी होंगी।' डाक्टर ने दो टूक शब्दों में आगाह किया, ‘जिन्दगी या मौत में से आप को एक का चुनाव करना होगा।'
डाक्टर की बात सुनकर मुझे हंसी आ गयी। मूर्ख से मूर्ख आदमी भी ज़िन्दगी या मौत में से ज़िन्दगी का चुनाव करेगा।
‘आप हंस रहे हैं, जबकि मौत आप के सर पर मंडरा रही है।' डाक्टर को मेरी मुस्कराहट बहुत नागवार गुजरी।
‘सॉरी डाक्टर! मैं अपनी बेबसी पर हंस रहा था। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि यह दिन भी देखना पड़ेगा।'
‘आप यकायक पीना नहीं छोड़ पायेंगे। इतने बरसों बाद कोई भी नहीं छोड़ सकता। शाम को एकाध, हद से हद दो पैग ले सकते हैं। डाक्टर साहब ने बताया कि मैं ‘विदड्राल सिम्पटम्स' (मदिरापान न करने से उत्पन्न होने वाले लक्षण) झेल न पाऊंगा।'
इस वक्त मेरे सामने नयी बोतल रखी थी और कानों में डाक्टर निगम के शब्द कौंध रहे थे। मुझे जलियांवाला बाग की खूनी बैसाखी की याद आ रही थी। लग रहा था कि रास्ते बंद हैं सब, कूचा-ए-कातिल के सिवा। चालीस बरस पहले मैंने अपना वतन छोड़ दिया था और एक यही बैसाखी का दिन होता था कि वतन की याद ताज़ा कर जाता था।
बचपन में ननिहाल में देखी बैसाखी की ‘छिंज' याद आ जाती। चारों तरफ उत्सव का माहौल, भांगड़ा और नगाड़े । मस्ती के इस आलम में कभी कभार खूनी फसाद हो जाते, रंजिश में खून तक हो जाते। हम सब लोग हवेली की छत से सारा दृश्य देखते। नीचे उतरने की मनाही थी। अक्सर मामा लोग आंखे तरेरते हुए छत पर आते और मां और मौसी तथा मामियों को भी मुंडेर से हट जाने के लिए कहते। बैसाखी पर जैसे पूरे पंजाब का खून खौल उठता था। जालन्धर, हिसार, दिल्ली, मुम्बई और इलाहाबाद में मैंने बचपन की ऐसी ही अनेक यादों को सहेज कर रखा हुआ था । आज थर्मामीटर मुझे चिढ़ा रहा था। गिलास, बोतल और बर्फ की बकट मेरे सामने जैसे मुर्दा पड़ी थीं।
मैने सिगरेट सुलगाया और एक झटके से बोतल की सील तोड़ दी।
‘आखिर कितना पिओगे रवीन्द्र कालिया?' सहसा मेरे भीतर से आवाज़ उठी।
‘बस यही एक या दो पैग।' मैंने मन ही मन डाक्टर की बात दोहरायी।
‘तुम अपने को धोखा दे रहे हो।' मैं अपने आप से बातचीत करने लगा, ‘शराब के मामले में तुम निहायत लालची इन्सान हो। दूसरे से तीसरे पैग तक पहुँचने में तुम्हें देर न लगेगी। धीरे धीरे वही सिलसिला फिर शुरू हो जाएगा।'
मैंने गिलास में बर्फ के दो टुकड़ डाल दिये, जबकि बर्फ मदिरा ढालने के बाद डाला करता था । बर्फ के टुकड़े देर तक गिलास में पिघलते रहे । बोतल छूने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। भीतर एक वैराग्य भाव उठ रहा था, वैराग्य, निःसारता और दहशत का मिला-जुला भाव। कुछ वैसा आभास भी हो रहा था जो भरपेट खाने के बाद भोजन को देखकर होता है। एक तृप्ति का भी एहसास हुआ। क्षण भर के लिए लगा कि अब तक जम कर पी चुका हूँ, पंजाबी में जिसे छक कर पीना कहते हैं। आज तक कभी तिशना-लब न रहा था। आखिर यह प्यास कब बुझेगी? जी भर चुका है, फकत एक लालच शेष है।
मेरे लिए यह निर्णय की घड़ी थी। नीचे मेरी बूढ़ी मां थीं- पचासी वर्षीया। जब से पिता का देहान्त हुआ था, वह मेरे पास थीं। बडे़ भाई कैनेडा में थे और बहन इंगलैण्ड में। पिता जीवित थे तो वह उनके साथ दो बार कैनेडा हो आई थीं। एक बार तो दोनों ने माइग्रेशन ही कर लिया था, मन नहीं लगा तो लौट आए। दो एक बरस पहले भाभी भाई तीसरी बार कैनेडा ले जाना चाहते थे, मगर वय को देखते हुए वीज़ा न मिला।
मेरे नाना की ज्योतिष में गहरी दिलचस्पी थी। मां के जन्म लेते ही उनकी कुंडली देखकर उन्होंने भविष्यवाणी कर दी थी कि बिटिया लम्बी उम्र पायेगी और किसी तीर्थ स्थान पर ब्रह्यलीन होगी। हालात जब मुझे प्रयाग ले आये और मां साथ में रहने लगीं तो अक्सर नाना की बात याद कर मन को धुकधुकी होती। पिछले ग्यारह बरसों से मां मेरे साथ थीं। बहुत स्वाभिमानी थीं और नाजुकमिजाज़। आत्मनिर्भर। ज़रा सी बात से रूठ जातीं, बच्चों की तरह। मुझे से ज्यादा उनका संवाद ममता से था। मगर सास बहू का रिश्ता ही ऐसा है कि सब कुछ सामान्य होते हुए भी असामान्य हो जाता है। मैं दोनों के बीच संतुलन बनाये रख्ाता। मां को कोई बात खल जाती तो तुरंत सामान बांधने लगतीं यह तय करके कि अब शेष जीवन हरिद्वार में बितायेंगी। चलने फिरने से मजबूर हो गईं तो मेहरी से कहतीं- मेरे लिए कोई कमरा तलाश दो, अलग रहूंगी, यहां कोई मेरी नहीं सुनता। अचानक मुझे लगा कि अगर मैं न रहा तो इस उम्र में मां की बहुत फजीहत हो जायगी। वह जब तक जीं अपने अंदाज से जीं। अन्तिम दिन भी स्नान किया और दान पुण्य करती रहीं, यहाँ तक कि डाक्टर का अन्तिम बिल भी वह चुका गयीं, यह भी बता गयीं कि उनकी अन्तिम क्रिया के लिए पैसा कहाँ रखा है। मुझे स्वस्थ होने की दुआएं दे गईं और खुद चल बसीं।
गिलास में बर्फ के टुकड़े पिघल कर पानी हो गये थे। मुझे अचानक मां पर बहुत प्यार उमड़ा । मैं गिलास और बोतल का जैसे तिरस्कार करते हुए सीढ़ियाँ उतर गया। मां लेटी थीं। वह एम.एस. सुब्बलक्ष्मी के स्वर में विष्णुसहस्रनाम का पाठ सुनते-सुनते सो जातीं। कमरे में बहुत धीमे स्वर में विष्णुसहस्रनाम का पाठ गूंज रहा था और मां आंखें बन्द किये बिस्तर पर लेटी थीं। मैंने उनकी गोद में बच्चों की तरह सिर रख दिया। वह मेरे माथे पर हाथ फेरने लगीं, फिर डरते डरते बोलीं- ‘किसी भी चीज़ की अति बुरी होती है।' मैं मां की बात समझ रहा था कि किस चीज़ की अति बुरी होती है। न उन्होंने बताया न मैंने पूछा। मद्यपान तो दूर, मैंने मां के सामने कभी सिगरेट तक नहीं पी थी। किसी ने सच की कहा है कि मां से पेट नहीं छिपाया जा सकता। मैं मां की बात का मर्म समझ रहा था, मगर समझ कर भी शांत था। आज तक मैंने किसी को भी अपने जीवन में हस्तक्षेप करने की छूट नहीं दी थी, मगर मां आज यह छूट ले रही थीं, और मैं शांत था। आज मेरा दिमाग सही काम कर रहा था, वरना मैं अब तक भड़क गया होता । मुझे लग रहा था, मां ठीक ही तो कह रही हैं । कितने वर्षों से मैं अपने को छलता आ रहा हूँ। मां की गोद में लेटे लेटे मैं अपने से सवाल करने लगा-और कितनी पिओगे रवीन्द्र कालिया? यह रोज़ की मयगुसारी एक तमाशा बन कर रह गयी है, इसका कोई अंत नहीं है। अब तक तुम इसे पी रहे थे, अब यह तुम्हें पी रही है।
मां एकदम खामोश थीं। वह अत्यन्त स्नेह से मेरे माथे को, मेरे गर्म माथे को सहला रही थीं। मुझे लग रहा था जैसे जिन्दगी मौत को सहला रही है। लग रहा था यह मां की गोद नहीं है, मैं जिन्दगी की गोद में लेटा हूँ। कितना अच्छा है, इस समय मां बोल नहीं रहीं। उन्हें जो कुछ कहना है, उनका हाथ कह रहा है। उनके स्पर्श में अपूर्व वात्सल्य तो था ही, शिकवा भी था, शिकायत भी, क्षमा भी, विवशता और करुणा भी। एक मूक प्रार्थना। यही सब भाषा में अनूदित हो जाता तो मुझे अपार कष्ट होता। अश्लील हो जाता। शायद मेरे लिए असहनीय भी। मां की गोद में लेटे लेटे मैं केसेट की तरह रिवाइन्ड होता चला गया, जैसे नवजात शिशु में तब्दील हो गया। मां जैसे मुझे जीवन में पहली बार महसूस कर रही थीं और मैं भी बन्द मुटि्ठयां कसे बंद आँखों से जैसे अभी अभी कोख से बाहर आ कर जीवन की पहली सांस ले रहा था। मैं बहुत देर तक मां के आगोश में पड़ा रहा। लगा जैसे संकट की घड़ी टल गयी है। अब मैं पूरी तरह सुरक्षित हूं। मां शायद नींद की गोली खा चुकी थीं। उनके मीठे मीठे खर्राटे सुनाई देने लगे। मैं उठा, पंखा तेज़ किया और किसी तरह हांफते हुए सीढ़ियाँ चढ़ गया।
ममता मेरे अल्ट्रासाउण्ड, खून की जांच की रिपोर्टों और डाक्टर के पर्चों में उलझी हुई थी। मैंने उससे कहा कि वह यह गिलास, यह बोतल नमकीन और बर्फ उठवा ले। आलमारी में आठ दस बोतलें और पड़ी थीं। इच्छा हुई अभी उठूँ और बाल्कनी में खड़ा हो कर एक एक कर सब बोतलें फोड़ दूँ। एक दो का ज़िक्र क्या सारी की सारी फोड़ दूं, ऐ ग़मे दिल क्या करूं? मेरे ज़ेहन में एक खामोश तूफान उठ रहा था, लग रहा था जैसे शख्सीयत में यकायक कोई बदलाव आ रहा है। मैं बिस्तर पर लेट गया। शरीर एकदम निढाल हो रहा था। वह निर्णय का क्षण था, यह कहना भी गलत न होगा कि वह निर्णय की बैसाखी थी।
किसी शायर ने सही फ़रमाया था कि छुटती नहीं यह काफिर मुँह को लगी हुई। मैं रात भर करवटें बदलता रहा। पीने की ललक तो नहीं थी, शरीर में अल्कोहल की कमी ज़रूर खल रही थी। बार बार डाक्टर की सलाह दस्तक दे रही थी कि यकायक न छोड़ूँ कतरा कतरा कम करूं। मैं अपनी सीमाओं को पहचानता था। शराब के मामले में मैं महालालची रहा हूं। एक से दो, दो से ढाई और ढाई से तीन पर उतरते मुझे देर न लगेगी। मैं अपने कुतर्कों की ताकत से अवगत था। तर्कों-कुतर्कों के बीच कब नींद लग गयी, पता ही नहीं चला। शायद यह ‘ट्रायका' का कमाल था। सुबह नींद खुली तो अपने को एकदम तरोताज़ा पाया। लगा, जैसे अब एकदम स्वस्थ हूं। तुरन्त थर्मामीटर जीभ के नीचे दाब लिया। बुखार देखा-वही निन्यानबे दशमलव तीन। पानी में चार चम्मच ग्लूकोज घोलकर पी गया। जब तक ग्लूकोज़ का असर रहता है, यकृत को आराम मिलता है।
बाद के दिन ज्यादा तकलीफदेह थे। अपना ही शरीर दुश्मनों की तरह पेश आने लगा। कभी लगता कि छाती एकदम जकड़ गयी है, सांस लेने पर फेफड़े का रेशा रेशा दर्द करता, महसूस होता सांस नहीं ले रहा, कोई जर्जर बांसुरी बजा रहा हूं। निमोनिया का रोगी जितना कष्ट पाता होगा, उतना मैं पा रहा था। कष्ट से मुक्ति पाने के लिए मैं दर्शन का सहारा लेता-रवीन्द्र कालिया यह सब माया है, सुख याद रहता है न दुःख। लोग उमस भरी काल कोठरी में जीवन काट आते हैं और भूल जाते है। अस्पतालों में लोग मर्मांतक पीड़ा पाते हैं, अगर स्वस्थ हो जाते हैं तो सब भूल जाते हैं। चालीस बरस नशा किया, कल तक का सरूर याद नहीं। क्या फायदा ऐसे क्षण भंगुर सुख का। मुझे अश्कजी का तकियाकलाम याद आता है-दुनिया फ़ानी है। दुनिया फ़ानी है तो मयनोशी भी फ़ानी है।
एक दिन बहुत तकलीफ में था कि डाक्टर अभिलाषा चतुर्वेदी और डा0 नरेन्द्र खोपरजी आये। मैंने अपनी दर्द भरी कहानी बयान की। अभिलाषाजी ने कहा, ‘यह सब सामान्य है। ये विदड्राअल सिम्पटम्स हैं, आप को कुछ न होगा, जी कड़ा करके एक बार झेल जाइए। मैं आप को एक कतरा भी पीने की सलाह न दुँगी। मेरी मानिये, अपने इरादे पर कायम रहिए।' डा0 खोपरजी घर से अपना कोटा लेकर चले थे, और महक रहे थे, मेरे नथुनों में मदिरा की चिरपरिचित गंध समा रही थी। मुझे गंध बहुत परायी लगी, जैसे सड़े हुए गुड़ की गंध हो। मुझे उस महक से वितृष्णा होने लगी। डाक्टर लोग विदा हुए तो मैंने ग़ालिब उग्र मंगवाया और पढ़ने लगा। पढ़ने में श्रम पड़ने लगा तो बेगम अख्तर की आवाज़ में ग़ालिब सुनने लगा। ग़ालिब का दीवान, पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र की टीका और बेगम अख्तर की आवाज़। शाम जैसे उत्सवधर्मी हो गयी। मैं अपने फेफड़े को भूल गया, दर्द को भूल गया। लेकिन यह वक्ती राहत थी, शरीर ने विद्रोह करना जारी रखा।
एक रोज़ में मेरी दुनिया बदल गयी थी। एक दिन पहले तक मैं दफ्तर जा रहा था। डाक्टर को दिखाने और परीक्षणों के बाद मैं जैसे अचानक बीमार पड़ गया। डाक्टरों ने जी भर कर हिदायतें दी थीं। हिदायतों के अलावा उन के पास कोई प्रभावी उपचार नहीं था-ले देकर वही ग्लूकोज़। दिन भर में दो ढाई सौ ग्राम ग्लूकोज़ मुझे पिला दिया जाता। कुछ रोज़ पहले तक जिस रोग को मैं मामूली हरारत का दर्जा दे रहा था, उसे लेकर सब चिंतित रहने लगे। मालूम नहीं यह शारीरिक प्रक्रिया थी अथवा मनोवैज्ञानिक कि मैं सचमुच अशक्त, बीमार, निरीह और कमज़ोर होता चला गया। करवट तक बदलने में थकान आ जाती। डाक्टरों ने हिदायत दी थी कि बाथरूम तक भी जाऊं तो उठने से पहले एक गिलास ग्लूकोज़ पी लूं, लौट कर पुनः ग्लूकोज का सेवन करूं। डाक्टरों ने यह भी खोज निकाला था कि मेरा रक्तचाप बढ़ा हुआ है। मैं सोचा करता था कि मेरा रक्तचाप मन्द है, शायद बीसियों बरस पहले कभी नपवाया था। दवा के नाम पर केवल ग्लूकोज़, ट्रायका(ट्रांक्यूलाइज़र) और लिव 52 (आयुर्वेदिक)।
एक दिन बाल शैम्पू करते समय लगा कि सांस उखड़ रही है। बालों पर शैम्पू की गाढ़ी झाग बनते ही सांस उखड़ने लगी। बाथरूम में मैं अकेला था, हाथ-पांव फूल गये। हाथों में बाल धोने कि कुव्वत न रही। किसी तरह खुली हवा में बाल्कनी तक पहुँचा और वहां रखी कुर्सी पर निढाल हो गया। देर तक बैठा रहा। किसी को आवाज़ देने की न इच्छा थी न ताकत। सांस लेने पर महसूस हो रहा था, फेफड़ों में जैसे ज़ख़्म हो गये हैं।
शरीर के साथ अनहोनी घटनाओं का यह सिलसिला जारी रहा। डाक्टरों का मत था कि यह सब मनोवैज्ञानिक है। एक दिन मैं दांत साफ कर रहा था कि क्या देखता हूं कि मुंह का स्वाद कसैला-सा हो रहा है। पानी से कुल्ला किया तो देखा मुंह से जैसे खून जा रहा हो। अचानक मसूढ़ों से रक्त बहने लगा। मुझे यह शिकायत कभी नहीं रही थी। मैंने सोचा मुंह का कैंसर हो गया है। घबराहट में जल्दी जल्दी कुल्ला करता रहा, दो चार कुल्लों के बाद सब सामान्य हो गया। अब आप ही बताए, यह भी क्या मनोविज्ञान का खेल था? अगर यह खेल था तो एक और दिलचस्प खेल शुरू हो गया। सोते सोते अचानक अपने आप टाँग ऊपर उठती और एक झटके के साथ नीचे गिरती। तुरन्त नींद खुल जाती। दोनों टांगों ने जैसे तय कर लिया था कि मुझे सोने नहीं देंगी। रात भर टांगों की उठा-पटक चलती रहती और मेरा उन पर नियंत्रण नहीं रह गया था। डाक्टरों से अपनी तकलीफ बतलाता तो वे ‘मनोविज्ञान' कह कर टाल जाते अथवा इन्हें फकत ‘विद्ड्राअल सिम्पटम्स' कह कर रफ़ा दफ़ा कर देते। एक दिन पत्रकार मित्र प्रताप सोमवंशी ने फोन पर पूछा कि क्या मैं जाड़े में च्यवनप्राश का सेवन करता हूँ? ‘हाँ तो' मैंने बताया कि जाड़े में सुबह दो एक चम्मच दूध के साथ च्यवनप्राश ज़रूर ले लेता था कि भूख न लगे न सही, इसी बहाने कुछ पौष्टिक आहार हो जाता था। देखते देखते मुझे भोजन से इतनी अरुचि हो गयी थी कि एक कौर तक तोड़ने की इच्छा न होती। किसी तरह पानी से दो एक चपाती निगल लेता था। अन्न से जैसे एलर्जी हो गयी थी। बाद में मां ने दलिया खाने का सुझाव दिया। मेरे लिये दूध में दलिया पकाया जाता और सुबह नाश्ते के तौर पर मैं वही खाता। आज भी खाता हूँ।
प्रताप ने बताया कि नेपाल से एक बुजुर्ग वैद्यजी आए हुए थे, उन्होंने बताया कि ज़्यादातर लोगों को इस उम्र में यकृत बढ़ने से पक्षाघात हो जाया करता है, च्यवनप्राश का सेवन करने वाले इस प्रकोप से बच जाते हैं। मैंने राहत की सांस ली वरना जिस कद्र मेरी टांगों को झटके लग रहे थे उस से यही आशंका होती थी कि अब अन्तिम झटका लगने ही वाला है।
जब से मां मेरे साथ थीं, होम्योपैथी का अध्ययन करने लगा था। अच्छी खासी लायब्रेरी हो गयी थी। मां का वृद्ध शरीर था, कभी भी कोई तकलीफ उभर आती। कभी कंधे में दर्द, कभी पेट में अफारा। घुटनों के दर्द से तो वह अक्सर परेशान रहतीं। कभी कब्ज और कभी दस्त। रात बिरात डाक्टरों से सम्पर्क करने में कठिनाई होती। मैंने खुद इलाज करने की ठान ली और बाजार से होम्योपैथी की ढेरों पुस्तकें खरीद लाया। मैडिकल की पारिभाषिक शब्दावली समझने के लिए कई कोश खरीद लाया था। होम्योपैथी के अध्ययन में मेरा मन भी रमने लगा। केस हिस्ट्रीज का अध्ययन करते हुए उपन्यास पढ़ने जैसा आनन्द मिलता। कुछ ही दिनों में मैं मां का आपातकालीन इलाज स्वयं ही करने लगा। शहर के विख्यात होम्योपैथ डाक्टरों से दोस्ती हो गयी। उनका भी परामर्श ले लेता। कुछ ही दिनों में मां का मेरी दवाओं में विश्वास जमने लगा। होम्योपैथी पढ़ने का अप्रत्यक्ष लाभ मुझे भी मिला। बीमार पड़ने से पूर्व ही मैं स्नायविक दुर्बलता पर एक कोर्स कर चुका था। शायद यही कारण था कि टांग के झटकों से मुझे ज्यादा घबराहट नहीं हो रही थी। मैं खामोशी से अपना समानांतर इलाज करता रहा। बीच-बीच में डाक्टर शांगलू से परामर्श ले लेता। यकृत के इलाज के लिए दो औषधियां मैंने ढूँढ निकाली थीं। आयुर्वेदिक पुनर्नवा के बारे में मुझे डाक्टर हरदेव बाहरी ने बताया था और होम्योपैथिक कैलिडोनियम के बारे में मुझे पहले से जानकारी थी। इन दवाओं से आश्चर्यजनक रूप से लाभ होने लगा। अब मैं अपनी तकलीफ के प्रत्येक लक्षण को होम्योपैथी के ग्रन्थों में खोजता। होम्योपैथी में लक्षणों से ही रोग को टटोला जाता है। कई बार किसी औषधि के बारे में पढ़ते हुए लगता जैसे उपन्यास पढ़ रहा हूं। होम्योपैथी में झूठ बोलना भी एक लक्षण है, शक करना भी। पढ़ते पढ़ते अचानक मन में चरित्र उभरने लगते। मैंने तय कर रखा था कि स्वस्थ होने पर शुद्ध होम्योपैथिक कहानी लिखूंगा-शीर्षक अभी से सोच रखा है। जितना पुराना साथ शराब का था उससे कम साथ अपनी पीढ़ी के कथाकारों का नहीं था। अपने साथियों की मैं रग रग पहचानने का दंभ भर सकता हूँ। शायद यही कारण है कि मैंने दूधनाथ सिंह, ज्ञानरंजन और काशी के लिए उपयुक्त होम्योपैथिक औषधियां खोज रखी हैं। कई बार तो किसी महिला मित्र से बात करते करते अचानक यह विचार कौंधता है कि इसे पल्सटिला-200 की ज़रूरत है।
अपनी बीमारी के दौरान डाक्टरों का मनोविज्ञान समझने में खूब मदद मिली। शहर के अधिसंख्य डाक्टर मुझ से फीस नहीं लेते थे। घर आकर देख भी जाते थे। उनके क्लीनिक में जाता तो ‘आउट आफ टर्न' तुरन्त बुलवा लेते। पत्रकार लेखक होने के फायदे थे, जिनका मैंने भरपूर लाभ उठाया। कुछ डाक्टर ऐसे भी थे, जो फीस नहीं लेते थे मगर हजारों रुपये के टेस्ट लिख देते थे। डाक्टर विशेष से ही अल्ट्रासाउण्ड कराने पर जोर देते। मुझे लगता है, वह फीस ले लेते तो सस्ता पड़ता। कमीशन ही उनकी फीस थी।
इसी क्रम में और भी कई दिलचस्प अनुभव हुए। एक दिन डाक्टर निगम के यहां वज़न लिया तो साठ किलो था, रास्ते में रक्तचाप नपवाने के लिए दूसरे डाक्टर के यहां रुका तो उसकी मशीन ने 58 किलो वज़न बताया। सचाई जानने के लिए कालोनी के एक नर्सिंग होम में वज़न लिया तो 56 किलो रह गया। तीन डाक्टरों की मशीनें अलग अलग वज़न बता रही थीं। यही हाल रक्तचाप का था। हर डाक्टर अलग रक्तचाप बताता। करोड़ों रुपयों की लागत से बने नर्सिंग होम्स में भी वज़न और रक्तचाप के मानक उपकरण नहीं थे। इनके अभाव में कितना सही उपचार हो सकता है, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। आखिर मैंने तंग आकर रक्तचाप और वज़न लेने के उपलब्ध सर्वोत्तम उपकरण खरीद लिए। एक ही मशीन पर भरोसा करना ज़्यादा मुनासिब लगा। एक मशीन गलत हो सकती है मगर धोखा नहीं दे सकती। वज़न बढ़ रहा है या कम हो रहा है, मशीन इतनी प्रामाणिक जानकारी तो दे ही सकती है।
खाट पर लेटे लेटे मैं कुछ ही दिनों में अपने दफ़्तर का भी संचालन करने लगा। हिम्मत होती तो जी भर कर समाचार पत्र, पत्रिकाएं, साहित्य पढ़ता, टेलीविजन देखता और सोता। सुबह शाम मिजाज़पुर्सी करने वालों का तांता लगा रहता। दिल्ली से ममता का एक प्रकाशक आया तो मुझे बातचीत करते देख बहुत हैरान हुआ। उसने बताया कि दिल्ली में तो सुना था कि आप अचेत पड़े हैं और कुछ ही दिनों के मेहमान हैं। शहर में भी ऐसी कुछ अफवाहें थीं। मुझे मालूम है कि जिसको आप जितना चाहते हैं, उसके बारे में उतनी ही आशंकाए उठती हैं। कई बार आदमी अपने को अनुशासन में बांधने के लिए स्थितियों की भयावह परिणति की कल्पना कर लेता है। मगर मैं अभी मरना नहीं चाहता था -स्वस्थ होकर मरना चाहता था। मुझे लगता था कि इस बीच चल बसा तो लोग यही सोचेंगें कि एक लेखक नहीं, एक शराबी चल बसा। अभी हाल में इन्दौर में श्रीलाल शुक्ल ने भी ऐसी ही आशंका प्रकट की थी। वह बहुत सादगी से बोले, ‘देखो रवीन्द्र, मैं चौहत्तर बरस का हो गया हूँ। अब अगर मर भी गया तो लोग यह नहीं कहेंगे कि एक शराबी मर गया-मरने के लिए यह एक प्रतिष्ठाजनक उम्र है, क्यों?'
चिड़चिड़ेपन से मुझे हमेशा सख्त नफरत है। जिन लोगों के चेहरे में चिड़चिडा़पन देखता हूँ, उनसे हमेशा दूर ही भागता हूँ। बीमारी के दौरान मैं यह भी महसूस कर रहा था कि मैं भी किचकिची होता जा रहा हूँ। छोटी सी बात पर किचाइन करने लगता। मेरे पास एक सुविधाजनक जवाब था। अपनी तमाम खामियों को मैं ‘विद्ड्राअल सिम्पटम्स' के खाते में डाल कर निश्चिंत हो जाता। एक दिन वाराणसी से काशीनाथ सिंह मुझे देखने आया। बहुत अच्छा लगा कि शहर के बाहर भी कोई खैरख्वाह है।
‘अब जीवन में कभी दारू मत छूना।' काशी ने भोलेपन से हिदायत दी। काशी हम चारों में सबसे अधिक सरल व्यक्ति हैं, मगर मैं उसकी इस बात पर अचानक ऐंठ गया।
‘देखो काशी, मैंने पीना छोड़ा है, इसका निर्णय खुद लिया है। किसी के कहने से पीना छोड़ा है, न शुरू करूंगा।'
काशी स्तब्ध। उसे लगा होगा, मेरा दिमाग भी चल निकला है। सद्भावना में कही गयी बात भी मेरे हलक के नीचे नहीं उतर रही थी। जाने दिमाग में क्या फितूर सवार हो गया कि मैं देर तक काशी से इसी बात पर जिरह करता रहा। काशी लौट गया। मुझे बहुत ग्लानि हुई। आपका कोई भी हितैषी आप को यही राय देता यह दूसरी बात है कि बहुत से मित्र मुझे बहलाने के लिए यह भी कह देते थे कि जिगर बहुत जल्दी ठीक होता है, आश्चर्यजनक रूप से ‘रिकूप' करता है, महीने दो महीने में पीने लायक हो जाओगे।
मगर मैं तय कर चुका था कि, अब और नहीं पिऊंगा । इस जिन्दगी में छककर पी ली है । अपने हिस्से की तो पी ही, अपने पिता के हिस्से की भी पी डाली। यही नहीं, बच्चों के भविष्य की चिन्ता में उनके हिस्से की भी पी गया। दरअसल मेरे ऊपर कुछ ज्यादा ही जिम्मेदारियां थीं।
मैंने अत्यन्त ईमानदारी से इन जिम्मेदारियों का निर्वाह किया था। भूले भटके कहीं से फोकट की आमदनी हो जाती, मेरा मतलब है रायल्टी आ जाती या पारिश्रमिक तो मैं केवल दारू खरीदने की सोचता। यहां दारू शब्द का इस्तेमाल इसलिए कर रहा हूँ कि यह एक बहुआयामी शब्द है, इसके अर्न्तगत सब कुछ आ जाता है जैसे विस्की, रम, जिन, वाइन, बियर आदि। इस पक्ष की तरफ मैंने कभी ध्यान नहीं दिया कि मेरे पास जूते हैं या नहीं, बच्चों के कपड़े छोटे हो रहे हैं या उन्हें किसी खिलौने की जरूरत हो सकती है। यह विभाग ममता के जिम्मे था। वह अपने विभाग का सही संचालन कर रही थी। मैं पहली फुर्सत में दारू का स्टाक खरीद कर कुछ दिनों के लिए निश्चिंत हो जाता। घर मे दारू का अभाव मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता था। मुझे सोना आकर्षित करता था, न चांदी। फिल्म में मेरा मन न लगता था, नाटक तो मुझे और भी बेहूदा लगता था । संगीत में मन ज़रूर रम जाता था। देखा जाए तो मद्यपान ही मेरे जीवन की एकमात्र सच्चाई थी। मद्यपान एक सामाजिक कर्म है, समाज से कट कर मद्यपान नहीं किया जा सकता। जो लोग ऐसा करते हैं वह आत्मरति करते हैं। वे पद्य की रचना तो कर सकते हैं, गद्य की नहीं । मद्यपान से मुझे अनेक शिक्षाएँ मिली थीं। सबसे बड़ी शिक्षा तो यही कि सादा जीवन उच्च विचार। यानी सादी पोशाक और सादःलौह जीवन। बहुत से लोगों को भ्रम हो जाता था कि मैं सादःलौह नहीं सादःपुरकार (देखने में भोले हो पर हो बड़े चंचल) हूँ। कुर्ता पायजामा मेरा प्रिय परिधान रहा है। गाँधी जयन्ती पर जब खादी भवन में खादी पर तीस पैंतीस प्रतिशत छूट मिलती तो ममता साल भर के कुर्ते पायजामें सिलवा देती। उसे कपड़े खरीदने का जुनून रहता है । अपने लिए साड़ियां खरीदती तो मेरे लिए भी बड़े चाव से शर्ट वगैरह खरीद लाती। मेरी डिब्बा खोलकर शर्ट देखने की इच्छा न होती। वह चाव से दिखाती, मैं अफसुर्दगी से देखता और पहला मौका मिलते ही आलमारी में ठूंस देता। आज भी दर्जनों कमीजें और अफ़गान सूट मेरी आलमारी की शोभा बढ़ा रहे हैं। मुझे खुशी होती जब बच्चे मेरा कोई कपड़ा इस्तेमाल कर लेते। अन्नू काम करने लगे तो वह भी मां के नक्शेकदम पर मेरे लिए कपड़े खरीदने लगा। वे कपड़े उसके ही काम आये होंगे या आयेंगे या मेरी वार्डरोब में पड़े रहेंगे।
विद्ड्राअल सिम्पटम्स के वापिस लौटने से तबीयत में सुधार आने लगा। सब से अच्छा यह लगा कि मुझे दारू की गंध से ही वितृष्णा होने लगी। शराबी से बात करने पर उलझन होने लगी। शराब किसी धूर्त प्रेमिका की तरह मन से पूरी तरह उतर गयी। शराब देख कर लार टपकना बंद हो गया। मैं आज़ाद पंछी की तरह अपने को मुक्त महसूस करने लगा। शारीरिक और मानसिक नहीं, आर्थिक स्थिति में भी सुधार दिखायी देने लगा। एक ज़माना था, शराब के चक्कर में जीवन बीमा तक के चैक ‘बाऊंस' हो जाते थे। कोई बीस साल पहले मैंने खेल ही खेल में गंगा तट पर आवास विकास परिषद से किस्तों पर एक भवन लिया था। उन दिनों मुझे गंगा स्नान का चस्का लग गया था। मैं और ममता सुबह सुबह रानीमंडी से रसूलाबाद घाट पर स्नान करने आया करते थे। रानीमंडी से रसूलाबाद घाट नौ दस किलोमीटर दूर था, सुबह सुबह मुँह अँधेरे स्कूटर पर आना बहुत अच्छा लगता। घाट के पास ही मेहदौरी कालोनी थी। उन दिनों फूलपुर में इफ्को के एशिया के सबसे बड़े खाद कारखाने का निर्माण चल रहा था। विदेशों से आये विशेषज्ञ मेहदौरी कालोनी में ही ठहराये गये थे। दो एक बरस में ये विशेषज्ञ लौट गये तो सरकार ने इन भवनों का आवंटन प्रारम्भ कर दिया। शहर की चहल पहल और हलचल से दूर एकांत स्थान पर जा बसने का जोखिम बहुत कम लोगो ने उठाया। मैंने एक हसीन सपना देखा कि गंगा तट पर बैठ कर अनवरत लेखन करूँगा। मन ही मन मैंने सम्पूर्ण जीवन साहित्य के नाम दर्ज़ कर दिया और नागार्जुन की पंक्तियां जेहन में कौंधने लगीः
चन्दू, मैंने सपना देखा, फैल गया है सुजश तुम्हारा,
चन्दू मैंने सपना देखा, तुम्हें जानता भारत सारा।
मैंने मन्त्री के नाम एक पत्र प्रेषित किया कि हमारे ऋषि मुनि सदियों से पावन नदियों के तट पर बैठ कर साधना आराधना करते रहे हें, मैं भी इसी परम्परा में गंगा तट पर साहित्य सेवा करना चाहता हूं, मेरा यह संकल्प तभी पूरा होगा यदि मेहदौरी कालोनी का एक भवन किस्तों पर मेरे नाम आवंटित कर दिया जाय। उन दिनों समाज में लेखकों के प्रति आज जैसा उदासीनता का भाव न था। मेरे आश्चर्य की सीमा न रही जब शीघ्र ही भवन के आबंटन का पत्र मुझे प्राप्त हो गया। केवल पांच हजार रुपये का भुगतान करने पर भवन का कब्जा़ भी मिल गया। शुरू में मैंने साल छह महीने तक निष्ठापूर्वक किस्तों का भुगतान किया, उसके बाद नियमित रूप से किस्तें भरने का उत्साह भंग हो गया। ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न थी। बकाया राशि और सूद बढ़ने लगा। लिखना पढ़ना तो दरकिनार, सप्ताहांत पर मदिरापान करने के लिए एक रंगभवन आकार लेने लगा। मौज मस्ती का एक नया अड्डा मिल गया। हम लोग शनिवार को आते और सोमवार सुबह गंगा स्नान करते हुए रानीमंडी लौट जाते। ब्याज और दण्ड ब्याज की राशि पचास हज़ार के आसपास हो गयी। यह भवन हाथ से निकल जाता अगर मेरे हमप्याला वकील दोस्त उमेशनारायण शर्मा, जो बाद में वर्षों तक इलाहाबाद उच्च न्यायालय में भारत सरकार के वरिष्ठ स्थायी अधिवक्ता रहे, मुझे कानूनी मदद न पहुँचाते। मयपरस्ती ने ज़िन्दगी में बहुत गुल खिलाए। अपने इस इकलौते शौक के कारण बहुत तकलीफें झेलीं, बहुत सी यंत्रणाओं से गुज़रना पड़ा, बकायेदारी के चक्कर में कुर्की के आदेशों को निरस्त करवाना पड़ा। मगर ज़िन्दगी की गाड़ी सरकती रही, एक पैसेंजर गाड़ी की तरह रफ्तः रफ्तः, हर स्टेशन पर रुकते हुए। कई बार तो एहसास होता कि मैं बग़ैर टिकट के इस गाड़ी में यात्रा कर रहा हूँ।
(क्रमशः अगले अंकों में जारी….)
ग़ालिब छुटी शराब
रवींद्र कालिया
“…मगर मैं तय कर चुका था कि, अब और नहीं पिऊंगा । इस जिन्दगी में छककर पी ली है । अपने हिस्से की तो पी ही, अपने पिता के हिस्से की भी पी डाली। यही नहीं, बच्चों के भविष्य की चिन्ता में उनके हिस्से की भी पी गया।…” इसी किताब सेरवींद्र कालिया की बहुचर्चित और बहुपठित किताब – “ग़ालिब छुटी शराब” का प्रकाशन ऑनलाइन हिन्दी पत्रिका निरंतर के अंतर्गत किया जाना था. किन्हीं वजहों से निरंतर का प्रकाशन निरंतर जारी नहीं रह पाया, और अब वह पुनर्जीवित होकर सामयिकी के रूप में ढल गया है जिसका फ़ॉर्मेट ‘साहित्यिक’ नहीं है. अत: “ग़ालिब छुटी शराब” को रचनाकार के माध्यम से पाठकों के सामने प्रस्तुत कर निरंतर की टूटी कड़ी को जोड़ने का एक छोटा सा प्रयास किया जा रहा है.---
‘ग़ालिब छुटी शराब' रवीन्द्र कालिया के धारावाहिक, धाराप्रवाह संस्मरण ही नहीं आत्मस्वीकार और आत्म विस्तार भी है। यह रचना जीवनधर्मिता का आलोक देने के साथ-साथ अपने पाठक को समृद्ध भी करती है। स्मृति सामर्थ्य और साहस का दस्तावेज है ग़ालिब छुटी शराब। जिगर की गम्भीर बीमारी से जूझते हुए कोई मामूली रचनाकार जहाँ टूट कर बिखर जाता कालिया ने उसी संघर्ष को अपना पाथेय बना कर बड़ी बेबाकी से अपने को तार-तार कर देखा है। इसमें जहाँ उनके मित्रों, सहकर्मियों और परिचितों की आत्मीय तस्वीर है वहीं कालिया के सुरा-सुरंग में भटकने और उसमें से निकलने की छटपटाहट भी व्यक्त हुई है।
रवीन्द्र कालिया उन विरल रचनाकारों में से हैं जिन्होंने पिछले अरसे में कहानी में शिल्प, शैली और संवेदना के स्तर पर लगातार महत्वपूर्ण परिवर्तन किये हैं। एकाकी दुनिया से निकल परिवेश में प्रवेश, जीने की रोज़मर्रा जद्दोजहद, व्यवस्था के कुटिल, जटिल हिस्सों से टकराव, प्रतिपल सम्बन्धों का विरोधाभास, रूढ़िगत मूल्यों का मौलिक विरोध इन संस्मरणों के आधारस्तम्भ हैं।
ऐसी बेबाक बयानी, अपनी नादानियों का उन्मुक्त स्वीकार कोई महाकाय रचनाकार ही कर सकता है जो खुला घर, दिल और दिमाग रखने वाला हो। पुस्तक पढ़ने से अंदाज़ा लगता है कि लेखक ने अपनी साफगोई की भारी कीमत चुकाई है पर उसे कोई मलाल नहीं। कालिया की शख्सीयत में तल्खियों की खराश की जगह मुहब्बत की मिठास है। पुस्तक में एक ओर कथा-कहानी से गुज़रने का सुख है तो दूसरी ओर लेखक को करीब से जानने का अवसर।
रवीन्द्र कालिया ने अब तक की अपनी ज़िन्दगी में चित्र-विचित्र बहुत से रंग देखे हैं। हर हाल में मस्त रहें हैं। उनकी बाईस तेईस प्रकाशित मौलिक पुस्तकें इसकी भरपूर मिसाल हैं। ज़िन्दगी से लबालब इन संस्मरणों को लिखने में उन्होंने पिछला एक साल लम्हा-लम्हा लगाया है, कुछ ऐसी शिद्दत से कि गालिब के शब्दों में यही लगता है,
‘मगर लिखवाये कोई उनको खत तो हमसे लिखवाये
हुई सुबह, और घर से कान पर रख कर कलम निकले।'
कालिया ने शराब से तौबा कर ली है लेकिन जिन्दगी के नशे से वे आज भी लबरेज हैं,
‘है हवा में शराब की तासीर,
बादः-नोशी है बादः-पैमाई।'
रवीन्द्र कालिया की अन्य पुस्तकें
कथा संग्रह
नौ साल छोटी पत्नी
काला रजिस्टर
गरीबी हटाओ (हिन्दी संस्थान द्वारा पुरस्कृत)
बाँके लाल
गली कूचे
चकैया नीम सत्ताइस साल की उमर तक
संस्मरण
स्मृतियों की जन्मपत्री (निबन्ध)
कामरेड मोनालिज़ा (संस्मरण)
सृजन के सहयात्री (संस्मरण)
उपन्यास
खुदा सही सलामत है (भाग 1 और 2)
(टोक्यो और ओसाका विश्वविद्यालय के हिन्दी पाठ्यक्रम में निर्धारित)
अनेक भारतीय और विदेशी भाषाओं में रचनाओं का अनुवाद, अनुसंधान। अभी हाल में कहानी के अन्तराष्ट्रीय कथा सम्मेलन में Theo Damsteegi (Kan Institute Hindi,Netherland) द्वारा Absurdism in Ravindra Kalia’s short stories का पाठन।
शीघ्र प्रकाश्य
रवीन्द्र कालिया की सम्पूर्ण कहानियाँ
रानाडे रोड (उपन्यास)
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‘हंस' में प्रकाशित ‘ग़ालिब छुटी शराब' के अंश पढ़ गया। बहुत पसंद आये, खासतौर से अपने गद्य के लिए। मुझे ऐसा लगता है कि अपनी पीढ़ी के सर्वश्रेष्ठ गद्यकार आप ही हैं। मोहन राकेश जैसे सधे हुए और अनुशासित गद्यकार के शिष्य के यह योग्य ही है।
-नंदकिशोर नवल
रवीन्द्र कालिया के संस्मरणों में पाठक जो इतना रस ले रहे हैं, वह केवल उपभोक्तावाद के कारण नहीं है, वह एक मर्यादित प्रच्छन्न के निर्मम उद्घाटन के कारण भी है। आत्मभर्त्सना के भी अपने निहितार्थ और सन्देश हैं।
-डॉ0 परमानन्द श्रीवास्तव
(कथा विमर्श ः कहानी की शताब्दी)
संस्मरण लेखन में रवीन्द्र कालिया का कोई सानी नहीं। यह बात कई लोगों ने मुझसे कही है। कथ्य जब अच्छा होता है, तब रचना अच्छी बनती है।
-डॉ0 कन्हैयालाल नन्दन (हंस)
‘ग़ालिब छुटी शराब' बेजोड़ संस्मरण लगा। जिस विधा को हम उर्दू वालों की जागीर समझते चले आ रहे थे, उसको रवीन्द्र कालिया ने वहम सिद्ध कर दिया है। पेचीदा और बहुत महीन स्थितियों को जिस बेलौस ढंग से सामने रखा है, वह हमारी पीढ़ी में इन बूते की ही बात है।
-से0 रा0 यात्री (हंस)
‘ग़ालिब छुटी शराब' पढ़कर लग रहा है, कालियाजी ने शराब छोड़ी है, मगर शराफत नहीं छोड़ी। वह जिस मर्यादा के साथ सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं, वह काबिले तारीफ़ है। हिन्दी में इस तरह का शरारती गद्य कम लिखा गया है, जिस में जीवन की साँसे प्रवहमान दिखीं। ‘ग़ालिब छुटी शराब' का प्रकाशन एक सुखद परिघटना है।
-यश मालवीय (हंस)
‘खुदा सही सलामत है' इतना सहज और यथार्थ ढंग से लिखा गया है कि एक तस्वीर बनती है। मुझे तो नया अनुभव हो रहा है, जैसे सिमसिम का दरवाज़ा खुल रहा हो। शराबी के व्यक्तित्व का अक्खड़पन, खुलापन और साथ ही भावुक मन स्पष्ट हुआ है। रवि ने परिस्थितियों को ज्यों का त्यों पकड़कर बड़े ही सहज और चित्रात्मक ढंग से व्यक्त किया है। ये संस्मरण इतिहास का काम भी करते हैं। सच में ही मुझे ऐसा लगता है ये संस्मरण क्लासिक बन जाएँगे।
-डॉ0 बिन्दु अग्रवाल
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ग़ालिब छुटी शराब
13 अप्रैल 1997। बैसाखी का पर्व। पिछले चालीस बरसों से बैसाखी मनाता आ रहा था। वैसे तो हर शब बैसाखी की शब होती थी, मगर तेरह अप्रैल को कुछ ज़्यादा ही हो जाती थी। दोपहर को बियर अथवा जिन और शाम को मित्रों के बीच का दौर। मस्ती में कभी कभार भांगड़ा भी हो जाता और अन्त में किसी पंजाबी ढाबे में भोजन, ड्राइवरों के बीच। जेब ने इजाज़त दी तो किसी पाँच सितारा होटल में सरसों का साग और मकई की रोटी। इस रोज़ दोस्तों के यहाँ भी दावतें कम न हुई होंगी और ममता ने भी व्यंजन पुस्तिका पढ़ कर छोले बटूरे कम न बनाये होंगे।मगर आज की शाम, 1997 की बैसाखी की शाम कुछ अलग थी। सूरज ढलते ही सागरो मीना मेरे सामने हाज़िर थे। आज दोस्तों का हुजूम भी नहीं था-सब निमंत्रण टाल गया और खुद भी किसी को आमन्त्रित नहीं किया। पिछले साल इलाहाबाद से दस पंद्रह किलोमीटर दूर इलाहाबाद-रीवा मार्ग पर बाबा ढाबे में महफ़िल सजी थी और रात दो बजे घर लौटे थे। आज माहौल में अजीब तरह की दहशत और मनहूसियत थी। जाम बनाने की बजाए मैं मुंह में थर्मामीटर लगाता हूं। धड़कते दिल से तापमान देखता हूं- वही 99.3। यह भी भला कोई बुखार हुआ। एक शर्मनाक बुखार। न कम होता है, न बढ़ता है। बदन में अजीब तरह की टूटन है। यह शरीर का स्थायी भाव हो गया है- चौबीसों घण्टे यही आलम रहता है। भूख कब की मर चुकी है, मगर पीने को जी मचलता है। पीने से तनहाई दूर होती है, मनहूसियत से पिण्ड छूटता है, रगों में जैसे नया खून दौड़ने लगता है। शरीर की टूटन गायब हो जाती है और नस नस में स्फूर्ति आ जाती है। एक लम्बे अरसे से मैंने ज़िन्दगी का हर दिन शाम के इन्तज़ार में गुजारा है, भोजन के इन्तजार में नहीं। अपनी सुविधा के लिए मैंने एक मुहावरा भी गढ़ लिया था-शराबी दो तरह के होते हैंः एक खाते पीते और दूसरे पीते पीते। मैं खाता पीता नहीं, पीता पीता शख्स था। मगर ज़िन्दगी की हकीकत को जुमलों की गोद में नहीं सुलाया जा सकता। वास्तविकता जुमलों से कहीं अधिक वज़नदार होती है । मेरे जुमले भारी होते जा रहे थे और वज़न हल्का। छह फिट का शरीर छप्पन किलो में सिमट कर रह गया था। इसकी जानकारी भी आज सुबह ही मिली थी। दिन में डाक्टर ने पूछा था- पहले कितना वज़न था? मैं दिमाग पर ज़ोर डाल कर सोचता हूँ, कुछ याद नहीं आता। यकायक मुझे एहसास होता है, मैंने दसियों बरसों से अपना वज़न नहीं लिया, कभी जरूरत ही महसूस न हुई थी। डाक्टर की जिज्ञासा से यह बात मेरी समझ में आ रही थी कि छह फुटे बदन के लिए छप्पन किलो काफी शर्मनाक वज़न है। जब कभी कोई दोस्त मेरे दुबले होते जा रहे बदन की ओर इशारा करता तो मैं टके-सा जवाब जड़ देता--बुढ़ापा आ रहा है।
मैं एक लम्बे अरसे से बीमार नहीं पड़ा था। यह कहना भी ग़लत न होगा कि मैं बीमार पड़ना भूल चुका था। याद नहीं पड़ रहा था कि कभी सर दर्द की दवा भी ली हो। मेरे तमाम रोगों का निदान दारू थी, दवा नहीं। कभी खाट नही पकड़ी थी, वक्त ज़रूरत दोस्तों की तीमारदारी अवश्य की थी। मगर इधर जाने कैसे दिन आ गये थे, जो मुझे देखता मेरे स्वास्थ्य पर टिप्पणी अवश्य कर देता। दोस्त-अहबाब यह भी बता रहे थे कि मेरे हाथ कांपने लगे हैं। होम्योपैथी की किताब पढ़ कर मैं जैलसीमियम खाने लगा। अपने डाक्टर मित्रों के हस्तक्षेप से मैं आजिज़ आ रहा था। डा0 नरेन्द्र खोपरजी और अभिलाषा चतुर्वेदी जब भी मिलते क्लीनिक पर आने को कहते। मैं हँसकर उनकी बात टाल जाता। वेे लोग मेरा अल्ट्रासाउन्ड करना चाहते थे और इस बात से बहुत चिन्तित हो जाते थे कि मैं भोजन में रुचि नहीं लेता। मैं महीनों डाक्टर मित्रों के मश्वरों को नज़रअंदाज करता रहा। उन लोगों ने नया नया ‘डाप्लर' अल्ट्रासाउन्ड खरीदा था-मेरी भ्रष्ट बुद्धि में यह विचार आता कि ये लोग अपने पचीस तीस लाख के ‘डाप्लर' का रोब गालिब करना चाहते हैं। बाहर के तमाम डाक्टर मेरे हमप्याला और हमनिवाला थे। मगर कितने बुरे दिन आ गये थे कि जो भी डाक्टर मिलता, अपने क्लिनिक में आमन्त्रित करता। जो पैथालोजिस्ट था, वह लैब में बुला रहा था और जो नर्सिंगहोम का मालिक था, वह चैकअप के लिए बुला रहा था। डाक्टरों से मेरा तकरार एक अर्से तक चलता रहा। लुका-छिपी के इस खेल में मैंने महारत हासिल कर ली थी। डाक्टर मित्र आते तो मैं उन्हें अपनी मां के मुआइने में लगा देता। मां का रक्तचाप लिया जाता, तो वह निहाल हो जातीं कि बेटा उनका कितना ख्याल कर रहा है। बगैर मेरी मां की खैरियत जाने कोई डाक्टर मित्र मेरे कमरे की सीढ़ियां नहीं चढ़ सकता था। मां दिन भर हिन्दी में गीता और रामायण पढ़तीं मगर हिन्दी बोल न पातीं, मगर क्या मजाल कि मेरा कोई भी मित्र उनका हालचाल लिए बगैर सीढ़ियां चढ़ जाए; वह जिलाधिकारी हो या पुलिस अधीक्षक अथवा आयुक्त। वह टूटी फूटी पंजाबी मिश्रित हिन्दी में ही संवाद स्थापित कर लेतीं। धीरे धीरे मेरे हमप्याला हमनिवाला दोस्तों का दायरा इतना वसीह हो गया था कि उसमें वकील भी थे और जज भी। प्राशासनिक अधिकारी थे तो उद्यमी भी, प्रोफेसर थे तो छात्र भी। ये सब दिन ढले के बाद के दोस्त थे। कहा जा सकता है कि पीने पिलाने वाले दोस्तों का एक अच्छा खासा कुनबा बन गया था। शाम को किसी न किसी मित्र का ड्राईवर वाहन लेकर हाज़िर रहता अथवा हमारे ही घर के बाहर वाहनों का ताँता लग जाता। सब दोस्तों से घरेलू रिश्ते कायम हो चुके थे। सुभाष कुमार इलाहाबाद के आयुक्त थे तो इस कुनबे को गिरोह के नाम से पुकारा करते थे। आज भी फोन करेंगे तो पूछेंगे गिरोह का क्या हालचाल है।
आज बैसाखी का दिन था और बैसाखी की महफ़िल उसूलन हमारे यहाँ ही जमनी चाहिए थी। मगर सुबह सुबह ममता और मन्नू घेर घार कर मुझे डा0 निगम के यहाँ ले जाने में सफल हो गये थे। दिन भर टेस्ट होते रहे थे। खून की जांच हुई, अल्ट्रासाउंड हुआ, एक्सरे हुआ, गर्ज़ यह कि जितने भी टेस्ट संभव हो सकते थे, सब करा लिए गये। रिपोर्ट वही थी, जिस का खतरा था- यानी लिवर (यकृत) बढ़ गया था। दिमागी तौर पर मैं इस खबर के लिए तैयार था, कोई खास सदमा नहीं लगा।
‘आप कब से पी रहे हैं?' डाक्टर ने तमाम काग़ज़ात देखने के बाद पूछा।
‘यही कोई चालीस बरस से।' मैंने डाक्टर को बताया, ‘पिछले बीस बरस से तो लगभग नियमित रूप से।'
‘रोज़ कितने पैग लेते हैं?
मैंने कभी इस पर ग़ौर नहीं किया था। इतना जरूर याद है कि एक बोतल शुरू में चार पांच दिन में खाली होती थी, बाद में दो तीन दिन में और इधर दाे एक दिन में। कम पीने में यकीन नहीं था। कोशिश यही थी कि भविष्य में और भी अच्छी ब्राण्ड नसीब हो। शराब के मामले में मैं किसी का मोहताज न ही रहना चाहता था, न कभी रहा। इसके लिए मैं कितना भी श्रम कर सकता था। भविष्य में रोटी नहीं, अच्छी शराब की चिन्ता थी।
‘आप जीना चाहते हैं तो अपनी आदतें बदलनी होंगी।' डाक्टर ने दो टूक शब्दों में आगाह किया, ‘जिन्दगी या मौत में से आप को एक का चुनाव करना होगा।'
डाक्टर की बात सुनकर मुझे हंसी आ गयी। मूर्ख से मूर्ख आदमी भी ज़िन्दगी या मौत में से ज़िन्दगी का चुनाव करेगा।
‘आप हंस रहे हैं, जबकि मौत आप के सर पर मंडरा रही है।' डाक्टर को मेरी मुस्कराहट बहुत नागवार गुजरी।
‘सॉरी डाक्टर! मैं अपनी बेबसी पर हंस रहा था। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि यह दिन भी देखना पड़ेगा।'
‘आप यकायक पीना नहीं छोड़ पायेंगे। इतने बरसों बाद कोई भी नहीं छोड़ सकता। शाम को एकाध, हद से हद दो पैग ले सकते हैं। डाक्टर साहब ने बताया कि मैं ‘विदड्राल सिम्पटम्स' (मदिरापान न करने से उत्पन्न होने वाले लक्षण) झेल न पाऊंगा।'
इस वक्त मेरे सामने नयी बोतल रखी थी और कानों में डाक्टर निगम के शब्द कौंध रहे थे। मुझे जलियांवाला बाग की खूनी बैसाखी की याद आ रही थी। लग रहा था कि रास्ते बंद हैं सब, कूचा-ए-कातिल के सिवा। चालीस बरस पहले मैंने अपना वतन छोड़ दिया था और एक यही बैसाखी का दिन होता था कि वतन की याद ताज़ा कर जाता था।
बचपन में ननिहाल में देखी बैसाखी की ‘छिंज' याद आ जाती। चारों तरफ उत्सव का माहौल, भांगड़ा और नगाड़े । मस्ती के इस आलम में कभी कभार खूनी फसाद हो जाते, रंजिश में खून तक हो जाते। हम सब लोग हवेली की छत से सारा दृश्य देखते। नीचे उतरने की मनाही थी। अक्सर मामा लोग आंखे तरेरते हुए छत पर आते और मां और मौसी तथा मामियों को भी मुंडेर से हट जाने के लिए कहते। बैसाखी पर जैसे पूरे पंजाब का खून खौल उठता था। जालन्धर, हिसार, दिल्ली, मुम्बई और इलाहाबाद में मैंने बचपन की ऐसी ही अनेक यादों को सहेज कर रखा हुआ था । आज थर्मामीटर मुझे चिढ़ा रहा था। गिलास, बोतल और बर्फ की बकट मेरे सामने जैसे मुर्दा पड़ी थीं।
मैने सिगरेट सुलगाया और एक झटके से बोतल की सील तोड़ दी।
‘आखिर कितना पिओगे रवीन्द्र कालिया?' सहसा मेरे भीतर से आवाज़ उठी।
‘बस यही एक या दो पैग।' मैंने मन ही मन डाक्टर की बात दोहरायी।
‘तुम अपने को धोखा दे रहे हो।' मैं अपने आप से बातचीत करने लगा, ‘शराब के मामले में तुम निहायत लालची इन्सान हो। दूसरे से तीसरे पैग तक पहुँचने में तुम्हें देर न लगेगी। धीरे धीरे वही सिलसिला फिर शुरू हो जाएगा।'
मैंने गिलास में बर्फ के दो टुकड़ डाल दिये, जबकि बर्फ मदिरा ढालने के बाद डाला करता था । बर्फ के टुकड़े देर तक गिलास में पिघलते रहे । बोतल छूने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। भीतर एक वैराग्य भाव उठ रहा था, वैराग्य, निःसारता और दहशत का मिला-जुला भाव। कुछ वैसा आभास भी हो रहा था जो भरपेट खाने के बाद भोजन को देखकर होता है। एक तृप्ति का भी एहसास हुआ। क्षण भर के लिए लगा कि अब तक जम कर पी चुका हूँ, पंजाबी में जिसे छक कर पीना कहते हैं। आज तक कभी तिशना-लब न रहा था। आखिर यह प्यास कब बुझेगी? जी भर चुका है, फकत एक लालच शेष है।
मेरे लिए यह निर्णय की घड़ी थी। नीचे मेरी बूढ़ी मां थीं- पचासी वर्षीया। जब से पिता का देहान्त हुआ था, वह मेरे पास थीं। बडे़ भाई कैनेडा में थे और बहन इंगलैण्ड में। पिता जीवित थे तो वह उनके साथ दो बार कैनेडा हो आई थीं। एक बार तो दोनों ने माइग्रेशन ही कर लिया था, मन नहीं लगा तो लौट आए। दो एक बरस पहले भाभी भाई तीसरी बार कैनेडा ले जाना चाहते थे, मगर वय को देखते हुए वीज़ा न मिला।
मेरे नाना की ज्योतिष में गहरी दिलचस्पी थी। मां के जन्म लेते ही उनकी कुंडली देखकर उन्होंने भविष्यवाणी कर दी थी कि बिटिया लम्बी उम्र पायेगी और किसी तीर्थ स्थान पर ब्रह्यलीन होगी। हालात जब मुझे प्रयाग ले आये और मां साथ में रहने लगीं तो अक्सर नाना की बात याद कर मन को धुकधुकी होती। पिछले ग्यारह बरसों से मां मेरे साथ थीं। बहुत स्वाभिमानी थीं और नाजुकमिजाज़। आत्मनिर्भर। ज़रा सी बात से रूठ जातीं, बच्चों की तरह। मुझे से ज्यादा उनका संवाद ममता से था। मगर सास बहू का रिश्ता ही ऐसा है कि सब कुछ सामान्य होते हुए भी असामान्य हो जाता है। मैं दोनों के बीच संतुलन बनाये रख्ाता। मां को कोई बात खल जाती तो तुरंत सामान बांधने लगतीं यह तय करके कि अब शेष जीवन हरिद्वार में बितायेंगी। चलने फिरने से मजबूर हो गईं तो मेहरी से कहतीं- मेरे लिए कोई कमरा तलाश दो, अलग रहूंगी, यहां कोई मेरी नहीं सुनता। अचानक मुझे लगा कि अगर मैं न रहा तो इस उम्र में मां की बहुत फजीहत हो जायगी। वह जब तक जीं अपने अंदाज से जीं। अन्तिम दिन भी स्नान किया और दान पुण्य करती रहीं, यहाँ तक कि डाक्टर का अन्तिम बिल भी वह चुका गयीं, यह भी बता गयीं कि उनकी अन्तिम क्रिया के लिए पैसा कहाँ रखा है। मुझे स्वस्थ होने की दुआएं दे गईं और खुद चल बसीं।
गिलास में बर्फ के टुकड़े पिघल कर पानी हो गये थे। मुझे अचानक मां पर बहुत प्यार उमड़ा । मैं गिलास और बोतल का जैसे तिरस्कार करते हुए सीढ़ियाँ उतर गया। मां लेटी थीं। वह एम.एस. सुब्बलक्ष्मी के स्वर में विष्णुसहस्रनाम का पाठ सुनते-सुनते सो जातीं। कमरे में बहुत धीमे स्वर में विष्णुसहस्रनाम का पाठ गूंज रहा था और मां आंखें बन्द किये बिस्तर पर लेटी थीं। मैंने उनकी गोद में बच्चों की तरह सिर रख दिया। वह मेरे माथे पर हाथ फेरने लगीं, फिर डरते डरते बोलीं- ‘किसी भी चीज़ की अति बुरी होती है।' मैं मां की बात समझ रहा था कि किस चीज़ की अति बुरी होती है। न उन्होंने बताया न मैंने पूछा। मद्यपान तो दूर, मैंने मां के सामने कभी सिगरेट तक नहीं पी थी। किसी ने सच की कहा है कि मां से पेट नहीं छिपाया जा सकता। मैं मां की बात का मर्म समझ रहा था, मगर समझ कर भी शांत था। आज तक मैंने किसी को भी अपने जीवन में हस्तक्षेप करने की छूट नहीं दी थी, मगर मां आज यह छूट ले रही थीं, और मैं शांत था। आज मेरा दिमाग सही काम कर रहा था, वरना मैं अब तक भड़क गया होता । मुझे लग रहा था, मां ठीक ही तो कह रही हैं । कितने वर्षों से मैं अपने को छलता आ रहा हूँ। मां की गोद में लेटे लेटे मैं अपने से सवाल करने लगा-और कितनी पिओगे रवीन्द्र कालिया? यह रोज़ की मयगुसारी एक तमाशा बन कर रह गयी है, इसका कोई अंत नहीं है। अब तक तुम इसे पी रहे थे, अब यह तुम्हें पी रही है।
मां एकदम खामोश थीं। वह अत्यन्त स्नेह से मेरे माथे को, मेरे गर्म माथे को सहला रही थीं। मुझे लग रहा था जैसे जिन्दगी मौत को सहला रही है। लग रहा था यह मां की गोद नहीं है, मैं जिन्दगी की गोद में लेटा हूँ। कितना अच्छा है, इस समय मां बोल नहीं रहीं। उन्हें जो कुछ कहना है, उनका हाथ कह रहा है। उनके स्पर्श में अपूर्व वात्सल्य तो था ही, शिकवा भी था, शिकायत भी, क्षमा भी, विवशता और करुणा भी। एक मूक प्रार्थना। यही सब भाषा में अनूदित हो जाता तो मुझे अपार कष्ट होता। अश्लील हो जाता। शायद मेरे लिए असहनीय भी। मां की गोद में लेटे लेटे मैं केसेट की तरह रिवाइन्ड होता चला गया, जैसे नवजात शिशु में तब्दील हो गया। मां जैसे मुझे जीवन में पहली बार महसूस कर रही थीं और मैं भी बन्द मुटि्ठयां कसे बंद आँखों से जैसे अभी अभी कोख से बाहर आ कर जीवन की पहली सांस ले रहा था। मैं बहुत देर तक मां के आगोश में पड़ा रहा। लगा जैसे संकट की घड़ी टल गयी है। अब मैं पूरी तरह सुरक्षित हूं। मां शायद नींद की गोली खा चुकी थीं। उनके मीठे मीठे खर्राटे सुनाई देने लगे। मैं उठा, पंखा तेज़ किया और किसी तरह हांफते हुए सीढ़ियाँ चढ़ गया।
ममता मेरे अल्ट्रासाउण्ड, खून की जांच की रिपोर्टों और डाक्टर के पर्चों में उलझी हुई थी। मैंने उससे कहा कि वह यह गिलास, यह बोतल नमकीन और बर्फ उठवा ले। आलमारी में आठ दस बोतलें और पड़ी थीं। इच्छा हुई अभी उठूँ और बाल्कनी में खड़ा हो कर एक एक कर सब बोतलें फोड़ दूँ। एक दो का ज़िक्र क्या सारी की सारी फोड़ दूं, ऐ ग़मे दिल क्या करूं? मेरे ज़ेहन में एक खामोश तूफान उठ रहा था, लग रहा था जैसे शख्सीयत में यकायक कोई बदलाव आ रहा है। मैं बिस्तर पर लेट गया। शरीर एकदम निढाल हो रहा था। वह निर्णय का क्षण था, यह कहना भी गलत न होगा कि वह निर्णय की बैसाखी थी।
किसी शायर ने सही फ़रमाया था कि छुटती नहीं यह काफिर मुँह को लगी हुई। मैं रात भर करवटें बदलता रहा। पीने की ललक तो नहीं थी, शरीर में अल्कोहल की कमी ज़रूर खल रही थी। बार बार डाक्टर की सलाह दस्तक दे रही थी कि यकायक न छोड़ूँ कतरा कतरा कम करूं। मैं अपनी सीमाओं को पहचानता था। शराब के मामले में मैं महालालची रहा हूं। एक से दो, दो से ढाई और ढाई से तीन पर उतरते मुझे देर न लगेगी। मैं अपने कुतर्कों की ताकत से अवगत था। तर्कों-कुतर्कों के बीच कब नींद लग गयी, पता ही नहीं चला। शायद यह ‘ट्रायका' का कमाल था। सुबह नींद खुली तो अपने को एकदम तरोताज़ा पाया। लगा, जैसे अब एकदम स्वस्थ हूं। तुरन्त थर्मामीटर जीभ के नीचे दाब लिया। बुखार देखा-वही निन्यानबे दशमलव तीन। पानी में चार चम्मच ग्लूकोज घोलकर पी गया। जब तक ग्लूकोज़ का असर रहता है, यकृत को आराम मिलता है।
बाद के दिन ज्यादा तकलीफदेह थे। अपना ही शरीर दुश्मनों की तरह पेश आने लगा। कभी लगता कि छाती एकदम जकड़ गयी है, सांस लेने पर फेफड़े का रेशा रेशा दर्द करता, महसूस होता सांस नहीं ले रहा, कोई जर्जर बांसुरी बजा रहा हूं। निमोनिया का रोगी जितना कष्ट पाता होगा, उतना मैं पा रहा था। कष्ट से मुक्ति पाने के लिए मैं दर्शन का सहारा लेता-रवीन्द्र कालिया यह सब माया है, सुख याद रहता है न दुःख। लोग उमस भरी काल कोठरी में जीवन काट आते हैं और भूल जाते है। अस्पतालों में लोग मर्मांतक पीड़ा पाते हैं, अगर स्वस्थ हो जाते हैं तो सब भूल जाते हैं। चालीस बरस नशा किया, कल तक का सरूर याद नहीं। क्या फायदा ऐसे क्षण भंगुर सुख का। मुझे अश्कजी का तकियाकलाम याद आता है-दुनिया फ़ानी है। दुनिया फ़ानी है तो मयनोशी भी फ़ानी है।
एक दिन बहुत तकलीफ में था कि डाक्टर अभिलाषा चतुर्वेदी और डा0 नरेन्द्र खोपरजी आये। मैंने अपनी दर्द भरी कहानी बयान की। अभिलाषाजी ने कहा, ‘यह सब सामान्य है। ये विदड्राअल सिम्पटम्स हैं, आप को कुछ न होगा, जी कड़ा करके एक बार झेल जाइए। मैं आप को एक कतरा भी पीने की सलाह न दुँगी। मेरी मानिये, अपने इरादे पर कायम रहिए।' डा0 खोपरजी घर से अपना कोटा लेकर चले थे, और महक रहे थे, मेरे नथुनों में मदिरा की चिरपरिचित गंध समा रही थी। मुझे गंध बहुत परायी लगी, जैसे सड़े हुए गुड़ की गंध हो। मुझे उस महक से वितृष्णा होने लगी। डाक्टर लोग विदा हुए तो मैंने ग़ालिब उग्र मंगवाया और पढ़ने लगा। पढ़ने में श्रम पड़ने लगा तो बेगम अख्तर की आवाज़ में ग़ालिब सुनने लगा। ग़ालिब का दीवान, पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र की टीका और बेगम अख्तर की आवाज़। शाम जैसे उत्सवधर्मी हो गयी। मैं अपने फेफड़े को भूल गया, दर्द को भूल गया। लेकिन यह वक्ती राहत थी, शरीर ने विद्रोह करना जारी रखा।
एक रोज़ में मेरी दुनिया बदल गयी थी। एक दिन पहले तक मैं दफ्तर जा रहा था। डाक्टर को दिखाने और परीक्षणों के बाद मैं जैसे अचानक बीमार पड़ गया। डाक्टरों ने जी भर कर हिदायतें दी थीं। हिदायतों के अलावा उन के पास कोई प्रभावी उपचार नहीं था-ले देकर वही ग्लूकोज़। दिन भर में दो ढाई सौ ग्राम ग्लूकोज़ मुझे पिला दिया जाता। कुछ रोज़ पहले तक जिस रोग को मैं मामूली हरारत का दर्जा दे रहा था, उसे लेकर सब चिंतित रहने लगे। मालूम नहीं यह शारीरिक प्रक्रिया थी अथवा मनोवैज्ञानिक कि मैं सचमुच अशक्त, बीमार, निरीह और कमज़ोर होता चला गया। करवट तक बदलने में थकान आ जाती। डाक्टरों ने हिदायत दी थी कि बाथरूम तक भी जाऊं तो उठने से पहले एक गिलास ग्लूकोज़ पी लूं, लौट कर पुनः ग्लूकोज का सेवन करूं। डाक्टरों ने यह भी खोज निकाला था कि मेरा रक्तचाप बढ़ा हुआ है। मैं सोचा करता था कि मेरा रक्तचाप मन्द है, शायद बीसियों बरस पहले कभी नपवाया था। दवा के नाम पर केवल ग्लूकोज़, ट्रायका(ट्रांक्यूलाइज़र) और लिव 52 (आयुर्वेदिक)।
एक दिन बाल शैम्पू करते समय लगा कि सांस उखड़ रही है। बालों पर शैम्पू की गाढ़ी झाग बनते ही सांस उखड़ने लगी। बाथरूम में मैं अकेला था, हाथ-पांव फूल गये। हाथों में बाल धोने कि कुव्वत न रही। किसी तरह खुली हवा में बाल्कनी तक पहुँचा और वहां रखी कुर्सी पर निढाल हो गया। देर तक बैठा रहा। किसी को आवाज़ देने की न इच्छा थी न ताकत। सांस लेने पर महसूस हो रहा था, फेफड़ों में जैसे ज़ख़्म हो गये हैं।
शरीर के साथ अनहोनी घटनाओं का यह सिलसिला जारी रहा। डाक्टरों का मत था कि यह सब मनोवैज्ञानिक है। एक दिन मैं दांत साफ कर रहा था कि क्या देखता हूं कि मुंह का स्वाद कसैला-सा हो रहा है। पानी से कुल्ला किया तो देखा मुंह से जैसे खून जा रहा हो। अचानक मसूढ़ों से रक्त बहने लगा। मुझे यह शिकायत कभी नहीं रही थी। मैंने सोचा मुंह का कैंसर हो गया है। घबराहट में जल्दी जल्दी कुल्ला करता रहा, दो चार कुल्लों के बाद सब सामान्य हो गया। अब आप ही बताए, यह भी क्या मनोविज्ञान का खेल था? अगर यह खेल था तो एक और दिलचस्प खेल शुरू हो गया। सोते सोते अचानक अपने आप टाँग ऊपर उठती और एक झटके के साथ नीचे गिरती। तुरन्त नींद खुल जाती। दोनों टांगों ने जैसे तय कर लिया था कि मुझे सोने नहीं देंगी। रात भर टांगों की उठा-पटक चलती रहती और मेरा उन पर नियंत्रण नहीं रह गया था। डाक्टरों से अपनी तकलीफ बतलाता तो वे ‘मनोविज्ञान' कह कर टाल जाते अथवा इन्हें फकत ‘विद्ड्राअल सिम्पटम्स' कह कर रफ़ा दफ़ा कर देते। एक दिन पत्रकार मित्र प्रताप सोमवंशी ने फोन पर पूछा कि क्या मैं जाड़े में च्यवनप्राश का सेवन करता हूँ? ‘हाँ तो' मैंने बताया कि जाड़े में सुबह दो एक चम्मच दूध के साथ च्यवनप्राश ज़रूर ले लेता था कि भूख न लगे न सही, इसी बहाने कुछ पौष्टिक आहार हो जाता था। देखते देखते मुझे भोजन से इतनी अरुचि हो गयी थी कि एक कौर तक तोड़ने की इच्छा न होती। किसी तरह पानी से दो एक चपाती निगल लेता था। अन्न से जैसे एलर्जी हो गयी थी। बाद में मां ने दलिया खाने का सुझाव दिया। मेरे लिये दूध में दलिया पकाया जाता और सुबह नाश्ते के तौर पर मैं वही खाता। आज भी खाता हूँ।
प्रताप ने बताया कि नेपाल से एक बुजुर्ग वैद्यजी आए हुए थे, उन्होंने बताया कि ज़्यादातर लोगों को इस उम्र में यकृत बढ़ने से पक्षाघात हो जाया करता है, च्यवनप्राश का सेवन करने वाले इस प्रकोप से बच जाते हैं। मैंने राहत की सांस ली वरना जिस कद्र मेरी टांगों को झटके लग रहे थे उस से यही आशंका होती थी कि अब अन्तिम झटका लगने ही वाला है।
जब से मां मेरे साथ थीं, होम्योपैथी का अध्ययन करने लगा था। अच्छी खासी लायब्रेरी हो गयी थी। मां का वृद्ध शरीर था, कभी भी कोई तकलीफ उभर आती। कभी कंधे में दर्द, कभी पेट में अफारा। घुटनों के दर्द से तो वह अक्सर परेशान रहतीं। कभी कब्ज और कभी दस्त। रात बिरात डाक्टरों से सम्पर्क करने में कठिनाई होती। मैंने खुद इलाज करने की ठान ली और बाजार से होम्योपैथी की ढेरों पुस्तकें खरीद लाया। मैडिकल की पारिभाषिक शब्दावली समझने के लिए कई कोश खरीद लाया था। होम्योपैथी के अध्ययन में मेरा मन भी रमने लगा। केस हिस्ट्रीज का अध्ययन करते हुए उपन्यास पढ़ने जैसा आनन्द मिलता। कुछ ही दिनों में मैं मां का आपातकालीन इलाज स्वयं ही करने लगा। शहर के विख्यात होम्योपैथ डाक्टरों से दोस्ती हो गयी। उनका भी परामर्श ले लेता। कुछ ही दिनों में मां का मेरी दवाओं में विश्वास जमने लगा। होम्योपैथी पढ़ने का अप्रत्यक्ष लाभ मुझे भी मिला। बीमार पड़ने से पूर्व ही मैं स्नायविक दुर्बलता पर एक कोर्स कर चुका था। शायद यही कारण था कि टांग के झटकों से मुझे ज्यादा घबराहट नहीं हो रही थी। मैं खामोशी से अपना समानांतर इलाज करता रहा। बीच-बीच में डाक्टर शांगलू से परामर्श ले लेता। यकृत के इलाज के लिए दो औषधियां मैंने ढूँढ निकाली थीं। आयुर्वेदिक पुनर्नवा के बारे में मुझे डाक्टर हरदेव बाहरी ने बताया था और होम्योपैथिक कैलिडोनियम के बारे में मुझे पहले से जानकारी थी। इन दवाओं से आश्चर्यजनक रूप से लाभ होने लगा। अब मैं अपनी तकलीफ के प्रत्येक लक्षण को होम्योपैथी के ग्रन्थों में खोजता। होम्योपैथी में लक्षणों से ही रोग को टटोला जाता है। कई बार किसी औषधि के बारे में पढ़ते हुए लगता जैसे उपन्यास पढ़ रहा हूं। होम्योपैथी में झूठ बोलना भी एक लक्षण है, शक करना भी। पढ़ते पढ़ते अचानक मन में चरित्र उभरने लगते। मैंने तय कर रखा था कि स्वस्थ होने पर शुद्ध होम्योपैथिक कहानी लिखूंगा-शीर्षक अभी से सोच रखा है। जितना पुराना साथ शराब का था उससे कम साथ अपनी पीढ़ी के कथाकारों का नहीं था। अपने साथियों की मैं रग रग पहचानने का दंभ भर सकता हूँ। शायद यही कारण है कि मैंने दूधनाथ सिंह, ज्ञानरंजन और काशी के लिए उपयुक्त होम्योपैथिक औषधियां खोज रखी हैं। कई बार तो किसी महिला मित्र से बात करते करते अचानक यह विचार कौंधता है कि इसे पल्सटिला-200 की ज़रूरत है।
अपनी बीमारी के दौरान डाक्टरों का मनोविज्ञान समझने में खूब मदद मिली। शहर के अधिसंख्य डाक्टर मुझ से फीस नहीं लेते थे। घर आकर देख भी जाते थे। उनके क्लीनिक में जाता तो ‘आउट आफ टर्न' तुरन्त बुलवा लेते। पत्रकार लेखक होने के फायदे थे, जिनका मैंने भरपूर लाभ उठाया। कुछ डाक्टर ऐसे भी थे, जो फीस नहीं लेते थे मगर हजारों रुपये के टेस्ट लिख देते थे। डाक्टर विशेष से ही अल्ट्रासाउण्ड कराने पर जोर देते। मुझे लगता है, वह फीस ले लेते तो सस्ता पड़ता। कमीशन ही उनकी फीस थी।
इसी क्रम में और भी कई दिलचस्प अनुभव हुए। एक दिन डाक्टर निगम के यहां वज़न लिया तो साठ किलो था, रास्ते में रक्तचाप नपवाने के लिए दूसरे डाक्टर के यहां रुका तो उसकी मशीन ने 58 किलो वज़न बताया। सचाई जानने के लिए कालोनी के एक नर्सिंग होम में वज़न लिया तो 56 किलो रह गया। तीन डाक्टरों की मशीनें अलग अलग वज़न बता रही थीं। यही हाल रक्तचाप का था। हर डाक्टर अलग रक्तचाप बताता। करोड़ों रुपयों की लागत से बने नर्सिंग होम्स में भी वज़न और रक्तचाप के मानक उपकरण नहीं थे। इनके अभाव में कितना सही उपचार हो सकता है, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। आखिर मैंने तंग आकर रक्तचाप और वज़न लेने के उपलब्ध सर्वोत्तम उपकरण खरीद लिए। एक ही मशीन पर भरोसा करना ज़्यादा मुनासिब लगा। एक मशीन गलत हो सकती है मगर धोखा नहीं दे सकती। वज़न बढ़ रहा है या कम हो रहा है, मशीन इतनी प्रामाणिक जानकारी तो दे ही सकती है।
खाट पर लेटे लेटे मैं कुछ ही दिनों में अपने दफ़्तर का भी संचालन करने लगा। हिम्मत होती तो जी भर कर समाचार पत्र, पत्रिकाएं, साहित्य पढ़ता, टेलीविजन देखता और सोता। सुबह शाम मिजाज़पुर्सी करने वालों का तांता लगा रहता। दिल्ली से ममता का एक प्रकाशक आया तो मुझे बातचीत करते देख बहुत हैरान हुआ। उसने बताया कि दिल्ली में तो सुना था कि आप अचेत पड़े हैं और कुछ ही दिनों के मेहमान हैं। शहर में भी ऐसी कुछ अफवाहें थीं। मुझे मालूम है कि जिसको आप जितना चाहते हैं, उसके बारे में उतनी ही आशंकाए उठती हैं। कई बार आदमी अपने को अनुशासन में बांधने के लिए स्थितियों की भयावह परिणति की कल्पना कर लेता है। मगर मैं अभी मरना नहीं चाहता था -स्वस्थ होकर मरना चाहता था। मुझे लगता था कि इस बीच चल बसा तो लोग यही सोचेंगें कि एक लेखक नहीं, एक शराबी चल बसा। अभी हाल में इन्दौर में श्रीलाल शुक्ल ने भी ऐसी ही आशंका प्रकट की थी। वह बहुत सादगी से बोले, ‘देखो रवीन्द्र, मैं चौहत्तर बरस का हो गया हूँ। अब अगर मर भी गया तो लोग यह नहीं कहेंगे कि एक शराबी मर गया-मरने के लिए यह एक प्रतिष्ठाजनक उम्र है, क्यों?'
चिड़चिड़ेपन से मुझे हमेशा सख्त नफरत है। जिन लोगों के चेहरे में चिड़चिडा़पन देखता हूँ, उनसे हमेशा दूर ही भागता हूँ। बीमारी के दौरान मैं यह भी महसूस कर रहा था कि मैं भी किचकिची होता जा रहा हूँ। छोटी सी बात पर किचाइन करने लगता। मेरे पास एक सुविधाजनक जवाब था। अपनी तमाम खामियों को मैं ‘विद्ड्राअल सिम्पटम्स' के खाते में डाल कर निश्चिंत हो जाता। एक दिन वाराणसी से काशीनाथ सिंह मुझे देखने आया। बहुत अच्छा लगा कि शहर के बाहर भी कोई खैरख्वाह है।
‘अब जीवन में कभी दारू मत छूना।' काशी ने भोलेपन से हिदायत दी। काशी हम चारों में सबसे अधिक सरल व्यक्ति हैं, मगर मैं उसकी इस बात पर अचानक ऐंठ गया।
‘देखो काशी, मैंने पीना छोड़ा है, इसका निर्णय खुद लिया है। किसी के कहने से पीना छोड़ा है, न शुरू करूंगा।'
काशी स्तब्ध। उसे लगा होगा, मेरा दिमाग भी चल निकला है। सद्भावना में कही गयी बात भी मेरे हलक के नीचे नहीं उतर रही थी। जाने दिमाग में क्या फितूर सवार हो गया कि मैं देर तक काशी से इसी बात पर जिरह करता रहा। काशी लौट गया। मुझे बहुत ग्लानि हुई। आपका कोई भी हितैषी आप को यही राय देता यह दूसरी बात है कि बहुत से मित्र मुझे बहलाने के लिए यह भी कह देते थे कि जिगर बहुत जल्दी ठीक होता है, आश्चर्यजनक रूप से ‘रिकूप' करता है, महीने दो महीने में पीने लायक हो जाओगे।
मगर मैं तय कर चुका था कि, अब और नहीं पिऊंगा । इस जिन्दगी में छककर पी ली है । अपने हिस्से की तो पी ही, अपने पिता के हिस्से की भी पी डाली। यही नहीं, बच्चों के भविष्य की चिन्ता में उनके हिस्से की भी पी गया। दरअसल मेरे ऊपर कुछ ज्यादा ही जिम्मेदारियां थीं।
मैंने अत्यन्त ईमानदारी से इन जिम्मेदारियों का निर्वाह किया था। भूले भटके कहीं से फोकट की आमदनी हो जाती, मेरा मतलब है रायल्टी आ जाती या पारिश्रमिक तो मैं केवल दारू खरीदने की सोचता। यहां दारू शब्द का इस्तेमाल इसलिए कर रहा हूँ कि यह एक बहुआयामी शब्द है, इसके अर्न्तगत सब कुछ आ जाता है जैसे विस्की, रम, जिन, वाइन, बियर आदि। इस पक्ष की तरफ मैंने कभी ध्यान नहीं दिया कि मेरे पास जूते हैं या नहीं, बच्चों के कपड़े छोटे हो रहे हैं या उन्हें किसी खिलौने की जरूरत हो सकती है। यह विभाग ममता के जिम्मे था। वह अपने विभाग का सही संचालन कर रही थी। मैं पहली फुर्सत में दारू का स्टाक खरीद कर कुछ दिनों के लिए निश्चिंत हो जाता। घर मे दारू का अभाव मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता था। मुझे सोना आकर्षित करता था, न चांदी। फिल्म में मेरा मन न लगता था, नाटक तो मुझे और भी बेहूदा लगता था । संगीत में मन ज़रूर रम जाता था। देखा जाए तो मद्यपान ही मेरे जीवन की एकमात्र सच्चाई थी। मद्यपान एक सामाजिक कर्म है, समाज से कट कर मद्यपान नहीं किया जा सकता। जो लोग ऐसा करते हैं वह आत्मरति करते हैं। वे पद्य की रचना तो कर सकते हैं, गद्य की नहीं । मद्यपान से मुझे अनेक शिक्षाएँ मिली थीं। सबसे बड़ी शिक्षा तो यही कि सादा जीवन उच्च विचार। यानी सादी पोशाक और सादःलौह जीवन। बहुत से लोगों को भ्रम हो जाता था कि मैं सादःलौह नहीं सादःपुरकार (देखने में भोले हो पर हो बड़े चंचल) हूँ। कुर्ता पायजामा मेरा प्रिय परिधान रहा है। गाँधी जयन्ती पर जब खादी भवन में खादी पर तीस पैंतीस प्रतिशत छूट मिलती तो ममता साल भर के कुर्ते पायजामें सिलवा देती। उसे कपड़े खरीदने का जुनून रहता है । अपने लिए साड़ियां खरीदती तो मेरे लिए भी बड़े चाव से शर्ट वगैरह खरीद लाती। मेरी डिब्बा खोलकर शर्ट देखने की इच्छा न होती। वह चाव से दिखाती, मैं अफसुर्दगी से देखता और पहला मौका मिलते ही आलमारी में ठूंस देता। आज भी दर्जनों कमीजें और अफ़गान सूट मेरी आलमारी की शोभा बढ़ा रहे हैं। मुझे खुशी होती जब बच्चे मेरा कोई कपड़ा इस्तेमाल कर लेते। अन्नू काम करने लगे तो वह भी मां के नक्शेकदम पर मेरे लिए कपड़े खरीदने लगा। वे कपड़े उसके ही काम आये होंगे या आयेंगे या मेरी वार्डरोब में पड़े रहेंगे।
विद्ड्राअल सिम्पटम्स के वापिस लौटने से तबीयत में सुधार आने लगा। सब से अच्छा यह लगा कि मुझे दारू की गंध से ही वितृष्णा होने लगी। शराबी से बात करने पर उलझन होने लगी। शराब किसी धूर्त प्रेमिका की तरह मन से पूरी तरह उतर गयी। शराब देख कर लार टपकना बंद हो गया। मैं आज़ाद पंछी की तरह अपने को मुक्त महसूस करने लगा। शारीरिक और मानसिक नहीं, आर्थिक स्थिति में भी सुधार दिखायी देने लगा। एक ज़माना था, शराब के चक्कर में जीवन बीमा तक के चैक ‘बाऊंस' हो जाते थे। कोई बीस साल पहले मैंने खेल ही खेल में गंगा तट पर आवास विकास परिषद से किस्तों पर एक भवन लिया था। उन दिनों मुझे गंगा स्नान का चस्का लग गया था। मैं और ममता सुबह सुबह रानीमंडी से रसूलाबाद घाट पर स्नान करने आया करते थे। रानीमंडी से रसूलाबाद घाट नौ दस किलोमीटर दूर था, सुबह सुबह मुँह अँधेरे स्कूटर पर आना बहुत अच्छा लगता। घाट के पास ही मेहदौरी कालोनी थी। उन दिनों फूलपुर में इफ्को के एशिया के सबसे बड़े खाद कारखाने का निर्माण चल रहा था। विदेशों से आये विशेषज्ञ मेहदौरी कालोनी में ही ठहराये गये थे। दो एक बरस में ये विशेषज्ञ लौट गये तो सरकार ने इन भवनों का आवंटन प्रारम्भ कर दिया। शहर की चहल पहल और हलचल से दूर एकांत स्थान पर जा बसने का जोखिम बहुत कम लोगो ने उठाया। मैंने एक हसीन सपना देखा कि गंगा तट पर बैठ कर अनवरत लेखन करूँगा। मन ही मन मैंने सम्पूर्ण जीवन साहित्य के नाम दर्ज़ कर दिया और नागार्जुन की पंक्तियां जेहन में कौंधने लगीः
चन्दू, मैंने सपना देखा, फैल गया है सुजश तुम्हारा,
चन्दू मैंने सपना देखा, तुम्हें जानता भारत सारा।
मैंने मन्त्री के नाम एक पत्र प्रेषित किया कि हमारे ऋषि मुनि सदियों से पावन नदियों के तट पर बैठ कर साधना आराधना करते रहे हें, मैं भी इसी परम्परा में गंगा तट पर साहित्य सेवा करना चाहता हूं, मेरा यह संकल्प तभी पूरा होगा यदि मेहदौरी कालोनी का एक भवन किस्तों पर मेरे नाम आवंटित कर दिया जाय। उन दिनों समाज में लेखकों के प्रति आज जैसा उदासीनता का भाव न था। मेरे आश्चर्य की सीमा न रही जब शीघ्र ही भवन के आबंटन का पत्र मुझे प्राप्त हो गया। केवल पांच हजार रुपये का भुगतान करने पर भवन का कब्जा़ भी मिल गया। शुरू में मैंने साल छह महीने तक निष्ठापूर्वक किस्तों का भुगतान किया, उसके बाद नियमित रूप से किस्तें भरने का उत्साह भंग हो गया। ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न थी। बकाया राशि और सूद बढ़ने लगा। लिखना पढ़ना तो दरकिनार, सप्ताहांत पर मदिरापान करने के लिए एक रंगभवन आकार लेने लगा। मौज मस्ती का एक नया अड्डा मिल गया। हम लोग शनिवार को आते और सोमवार सुबह गंगा स्नान करते हुए रानीमंडी लौट जाते। ब्याज और दण्ड ब्याज की राशि पचास हज़ार के आसपास हो गयी। यह भवन हाथ से निकल जाता अगर मेरे हमप्याला वकील दोस्त उमेशनारायण शर्मा, जो बाद में वर्षों तक इलाहाबाद उच्च न्यायालय में भारत सरकार के वरिष्ठ स्थायी अधिवक्ता रहे, मुझे कानूनी मदद न पहुँचाते। मयपरस्ती ने ज़िन्दगी में बहुत गुल खिलाए। अपने इस इकलौते शौक के कारण बहुत तकलीफें झेलीं, बहुत सी यंत्रणाओं से गुज़रना पड़ा, बकायेदारी के चक्कर में कुर्की के आदेशों को निरस्त करवाना पड़ा। मगर ज़िन्दगी की गाड़ी सरकती रही, एक पैसेंजर गाड़ी की तरह रफ्तः रफ्तः, हर स्टेशन पर रुकते हुए। कई बार तो एहसास होता कि मैं बग़ैर टिकट के इस गाड़ी में यात्रा कर रहा हूँ।
(क्रमशः अगले अंकों में जारी….)
mindblowing composition
जवाब देंहटाएंलगभग आठ दस वर्ष पूर्व पढ़ी ये किताब फ़िर से एक दम ताजा हो गई...मुझे याद है मैं इसे एक साँस में ही पढ़ गया था ...इतने rochak संस्मरण हैं की क्या कहूँ...बहुत से कवि शायर और साहित्यकारों के बारे में भी पढने को मिला इस किताब में...आप का आभार इसे प्रस्तुत करने का...
जवाब देंहटाएंनीरज
इस किताब को एक सफर के दौरान टुकडो में पढ़ा था .बाद में जिस दोस्त के घर गया था उसी को भेट कर आया था .निरंतर में काफी दिनों तक इसके आने का इंतज़ार किया ....आज यहाँ देखकर भला लगा....शुक्रिया.....इसे यहाँ पढ़वाने के लिए
जवाब देंहटाएंइसे फिर पढ़वाने का शुक्रिया रतलामी जी. हम तो आपके पहले से ही प्रशंसक है. आप तो हिन्दी ब्लॉग जगत के तकनीकी पुरोधाओं में से एक हैं. आप टिप्पणियों और दाद की परवाह न किया करें. आप लोगों की सलाहें मानते-मानते अपना ब्लॉग जैसा दिख सकता था वैसा दिख रहा है. आगे की तकनीकी कवायद से प्राण सूखते हैं. वैसे कोशिश की जाएगी.
जवाब देंहटाएंकालिया जी के ये संस्मरण 'हंस' में पहले ही छपे और बृहद पैमाने पर सराहे जा चुके हैं. पुस्तक भी आ गयी थी. ब्लॉग जगत में पढ़वाने के लिए आभार!
आपके इरादों से लगता है कि आप पूरी कड़ियाँ पढ़वाएंगे. कॉपीराइट वगैरह का मसला देख लीजिएगा. बकिया हम तो पढ़ने के लिए सन्नद्ध हैं.
विजयशंकर जी,
जवाब देंहटाएंआपने सही कहा. पूरी किताब यहाँ प्रकाशित होगी और इसकी ई-बुक भी.
रहा सवाल कॉपीराइट का तो, रवींद्र कालिया जी ने पहले ही इंटरनेट पर ऑनलाइन पत्रिका में इसके पूरे प्रकाशन की सहमति दे दी थी.