अशोक कुमार पाण्डेय की कविताएँ

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काले कपोत किसी शांतिदूत की सुरक्षित हथेलियों में उन्मुक्त आकाश की अनंत ऊँचाइयों की निस्सीम उडान को आतुर शरारती बच्चों से चहचहात...

काले कपोत

किसी शांतिदूत की सुरक्षित हथेलियों में
उन्मुक्त आकाश की अनंत ऊँचाइयों
की निस्सीम उडान को आतुर
शरारती बच्चों से चहचहाते
धवल कपोत नही हैं ये
न किसी दमयंती का संदेशा लिए
नल की तलाश में भटकते धूसर प्रेमपाखी
किसी उदास भग्नावशेष के अन्तःपुर की
शमशानी शान्ति में जीवन बिखेरते पखेरू भी नही
न किसी बुजुर्ग गिर्हथिन के
स्नेहिल दाने चुगते चुरगुन
मंदिरों के शिखरों से मस्जिदों के कंगूरों तक
उड़ते निशंक
शायरों की आंखों के तारे
बेमज़हब परिंदे भी नही ये
भयाकुल शहर के घायल चिकित्सागृह की
मृत्युशैया सी दग्ध हरीतिमा पर
निःशक्त परों के सहारे पड़े निःशब्द
विदीर्ण ह्रदय के डूबते स्पंदनों में
अँधेरी आंखों से ताकते आसमान
गाते कोई खामोश शोकगीत
बारूद की भभकती गंध में लिपटे
ये काले कपोत !
कहाँ -कहाँ से पहुंचे थे यहाँ बचते बचाते
बल्लीमारान की छतों से
बामियान के बुद्ध का सहारा छिन जाने के बाद
गोधरा की उस अभागी आग से निकल
बडौदा की बेस्ट बेकरी की छतों से हो बेघर
एहसान जाफरी के आँगन से झुलसे हुए पंखों से
उस हस्पताल के प्रांगन में
ढूँढते एक सुरक्षित सहारा
शिकारी आएगा - जाल बिछायेगा - नहीं फंसेंगे
का अरण्यरोदन करते
तलाश रहें हो ज्यों प्रलय में नीरू की डोंगी
पर किसी डोंगी में नहीं बची जगह उनके लिए
या शायद डोंगी ही नहीं बची कोई
उड़ते - चुगते- चहचहाते - जीवन बिखेरते
उजाले प्रतीकों का समय नहीं है यह
हर तरफ बस
निःशब्द- निष्पंद- निराश
काले कपोत !

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कहाँ होंगी जगन की अम्मा

सतरंगे प्लास्टिक में सिमटे सौ ग्राम अंकल चिप्स के लिये
ठुनकती बिटिया के सामने थोड़ा ’शर्मिन्दा सा जेबें टटोलते
अचानक पहुंच जाता हूं
बचपन के उस छोटे से कस्बे में
जहां भूजे की सोंधी सी महक से बैचैन हो ठुनकता था मैं
और मां बांस की रंगीन सी डलिया में
दो मुठ्ठी चने डाल भेज देती थीं भड़भूजे पर
जहां इंतज़ार में होती थीं
सुलगती हुई हांड़ियों के बीच जगन की अम्मा.
तमाम दूसरी औरतों की तरह कोई अपना निजी नाम नहीं था उनका
प्रेम या क्रोध के नितांत निजी क्षणों में भी
बस जगन की अम्मा थीं वह
हालांकि पांच बेटियां भी थीं उनकीं
एक पति भी रहा होगा जरूर
पर कभी जरूरत ही नहीं महसूस हुई
उसे जानने की
हमारे लिये बस हंड़िया में दहकता बालू
और उसमे खदकता भूजा था उनकी पहचान.
हालांकि उन दिनों दूरदर्शन के इकलौते चैनल पर
नहीं था कहीं उसका विज्ञापन
हमारी अपनी नंदन, पराग या चंपक में भी नहीं
अव्वल तो थी हीं नहीं इतनी होर्दिंगे
और जो थीं उन पर कहीं नहीं था इनका जिक्र
पर मां के दूध और रक्त से मिला था मानो इसका स्वाद
तमाम खुशबुओं में सबसे सम्मोहक थी इसकी खुशबू
और तमाम दृश्यों में सबसे खूबसूरत था वह दृश्य .
मुट्ठियाँ भर-भर कर फांकते हुए इसे
हमने खेले बचपन के तमाम खेल
उंघती आँखों से हल किये गणित के प्रमेय
रिश्तेदारों के घर रस के साथ यही मिला अक्सर
एक डलिया में बांटकर खाते बने हमारे पहले दोस्त
फ्राक में छुपा हमारी पहली प्रेमिकाओं ने
यही दिया उपहार की तरह
यही खाते-खाते पहले पहल पढ़े
डिब्बाबंद खाने और शीतल पेयों के विज्ञापन!
और फिर जब सपने तलाशते पहुँचे
महानगरों की अनजान गलियों के उदास कमरों में
आतीं रहीं अक्सर जगन की अम्मा
मां के साथ पिता के थके हुए कंधो पर
पर धीरे-धीरे घटने लगा उस खुशबू का सम्मोहन
और फिर खो गया समय की धुंध में तमाम दूसरी चीजों की तरह.
बरसों हुए अब तो उस गली से गुजरे
पता ही नहीं चला कब बदल गयी
बांस की डलिया प्लास्टिक की प्लेटों में
और रस भूजा - चाय नमकीन में!
अब कहाँ होंगी जगन की अम्मा?
बुझे चूल्हे की कब्र पर तो कबके बन गये होंगे मकान
और उस कस्बे में अब तक नहीं खुली चिप्स की फैक्ट्री
और खुल भी जाती तो कहाँ होती जगह जगन की अम्मा के लिए?
क्या कर रहे होंगे आजकल
मुहल्ले भर के बच्चों की डलिया में मुस्कान भर देने वाले हाथ?
आत्महत्या के आखिरी विकल्प के पहले
होती हैं अनेक भयावह संभावनायें....
जेबें टटोलते मेरे ’शर्मिन्दा हाथों को देखते हुए गौर से
दुकानदार ने बिटिया को पकड़ा दिये है- अंकल चिप्स!

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सबसे बुरे दिन

सबसे बुरे दिन नहीं थे वे
जब घर के नाम पर
चौकी थी एक छह बाई चार की
बमुश्किलन समा पाते थे जिसमे दो जि+स्म
लेकिन मन चातक सा उड़ता रहता था अबाध!
बुरे नहीं वे दिन भी
जब ज़रूरतों ने कर दिया था इतना मजबूर
कि लटपटा जाती थी जबान बार बार
और वे भी नहीं
जब दोस्तों की चाय में
दूध की जगह मिलानी होती थी मज+बूरियां.
कतई बुरे नहीं थे वे दिन
जब नहीं थी दरवाजे पर कोई नेमप्लेट
और नेमप्लेटों वाले तमाम दरवाजे
बन्द थे हमारे लिये.
इतने बुरे तो खैर नहीं हैं ये भी दिन
तमाम समझौतों और मजबूरियों के बावजूद
आ ही जाती है सात-आठ घण्टों की गहरी नींद
और नींद में वही अजीब अजीब सपने
सुबह अखबार पढ़कर अब भी खीजता है मन
और फाइलों पर टिप्पणियाँ लिखकर ऊबी कलम
अब भी हुलस कर लिखती है कविता.
बुरे होंगे वे दिन
अगर रहना पड़ा सुविधाओं के जंगल में निपट अकेला
दोस्तों की शक्लें हो गई बिल्कुल ग्राहकों सीं
नेमप्लेट के आतंक में दुबक गया मेरा नाम
नींद सपनों की जगह गोलियों की हो गई गुलाम
और कविता लिखी गई फाईलों की टिप्पणियांे सी.
बहुत बुरे होंगे वे दिन
जब रात की होगी बिल्कुल देह जैसी
और उम्मीद की चेकबुक जैसी
वि’वास होगा किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी का विज्ञापन
खुशी घर का कोई नया सामान
और समझौते मजबूरी नहीं बन जायेंगे आदत.
लेकिन सबसे बुरे होंगे वे दिन
जब आने लगेगें इन दिनों के सपने!

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सैनिक की मौत

 

तीन रंगो के
लगभग सम्मानित से कपड़े में लिपटा
लौट आया है मेरा दोस्त
अखबारों के पन्नों
और दूरदर्शन के रूपहले परदों पर
भरपूर गौरवान्वित होने के बाद
उदास बैठै हैं पिता
थककर स्वरहीन हो गया है मां का रूदन

सूनी मांग और बच्चों की निरीह भूख के बीच
बार-बार फूट पड़ती है पत्नी
कभी-कभी
एक किस्से का अंत
कितनी अंतहीन कहानियों का आरंभ होता है
और किस्सा भी क्या?
किसी बेनाम से शहर में बेरौनक सा बचपन
फिर सपनीली उम्र आते-आते
सिमट जाना सारे सपनो का
इर्द-गिर्द एक अदद नौकरी के
अब इसे संयोग कहिये या दुर्योग

या फिर केवल योग
कि देशभक्ति नौकरी की मजबूरी थी
और नौकरी जिंदगी की
इसीलिये
भरती की भगदड़ में दब जाना
महज हादसा है
और फंस जाना बारूदी सुरंगो में
’शहादत!
बचपन में कुत्तों के डर से
रास्ते बदल देने वाला मेरा दोस्त
आठ को मार कर मरा था
बारह दुश्मनों के बीच फंसे आदमी के पास
बहादुरी के अलावा और चारा भी क्या है?
वैसे कोई युद्ध नहीं था वहाँ
जहाँ शहीद हुआ था मेरा दोस्त
दरअसल उस दिन
अखबारों के पहले पन्ने पर
दोनो राष्ट्राध्यक्षों का आलिंगनबद्ध चित्र था
और उसी दिन ठीक उसी वक्त
देश के सबसे तेज चैनल पर
चल रही थी
क्रिकेट के दोस्ताना संघर्षों पर चर्चा
एक दूसरे चैनल पर
दोनों देशों के मशहूर शायर
एक सी भाषा में कह रहे थे
लगभग एक सी गजलें
तीसरे पर छूट रहे थे
हंसी के बेतहाशा फव्वारे
सीमाओं को तोड़कर
और तीनों पर अनवरत प्रवाहित
सैकड़ों नियमित खबरों की भीड़ मे
दबी थीं
अलग-अलग वर्दियों में
एक ही कंपनी की गोलियों से बिंधी
नौ बेनाम लाशों
.
.
.
अजीब खेल है
कि वजीरों की दोस्ती
प्यादों की लाशों पर पनपती है
और
जंग तो जंग
शाति भी लहू पीती है!

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तुम्हे कैसे याद करूँ भगत सिंह?


जिन खेतों में तुमने बोई थी बंदूकें
उनमे उगी हैं नीली पड़ चुकी लाशें
जिन कारखानों में उगता था
तुम्हारी उम्मीद का लाल सूरज
वहां दिन को रोशनी
रात के अंधेरों से मिलती है
ज़िन्दगी से ऐसी थी तुम्हारी मोहब्बत
कि कांपी तक नही जबान
सू ऐ दार पर
इंक़लाब जिंदाबाद कहते
अभी एक सदी भी नही गुज़री
और ज़िन्दगी हो गयी है इतनी बेमानी
कि पूरी एक पीढी जी रही है
ज़हर के सहारे
तुमने देखना चाहा था
जिन हाथों में सुर्ख परचम
कुछ करने की नपुंसक सी तुष्टि में
रोज़ भरे जा रहे हैं
अख़बारों के पन्ने
तुम जिन्हें दे गए थे
एक मुडे हुए पन्ने वाले किताब
सजाकर रख दी है उन्होंने
घर की सबसे खुफिया आलमारी मैं
तुम्हारी तस्वीर ज़रूर निकल आयी है
इस साल जुलूसों में रंग-बिरंगे झंडों के साथ
सब बैचेन हैं
तुम्हारी सवाल करती आंखों पर
अपने अपने चश्मे सजाने को
तुम्हारी घूरती आँखें डरती हैं उन्हें
और तुम्हारी बातें गुज़रे ज़माने की लगती हैं
अवतार बनने की होड़ में
तुम्हारी तकरीरों में मनचाहे रंग
रंग-बिरंगे त्यौहारों के इस देश में
तुम्हारा जन्म भी एक उत्सव है
मै किस भीड़ में हो जाऊँ शामिल
तुम्हे कैसे याद करुँ भगत सिंह
जबकि जानता हूँ की तुम्हे याद करना
अपनी आत्मा को केंचुलों से निकल लाना है
कौन सा ख्वाब दूँ मै
अपनी बेटी की आंखों में
कौन सी मिट्टी लाकर रख दूँ
उसके सिरहाने
जलियांवाला बाग़ फैलते-फैलते
... हिन्दुस्तान बन गया है

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दे जाना चाहता हूँ तुम्हें


(अपनी पुत्री की पाँचवीं वर्षगाँठ पर )

ऊब और उदासी से भरी इस दुनिया में

पांच हंसते हुए सालों के लिए
देना तो चाहता था तुम्हें बहुत कुछ

प्रकृति का सारा सौंदर्य
शब्दों का सारा वैभव
और भावों की सारी गहराई 

लेकिन कुछ भी नहीं बच्चा मेरे पास तुम्हें देने के लिए

फूलों के पत्तों तक अब नहीं पहुंचती ओस
और पहुँच भी जाए किसी तरह
बिलकुल नहीं लगती मोतियों सी

समंदर है तो अभी भी उतने ही
अद्भुत और उद्दाम
पर हर लहर लिख दी गयी है किसी और के नाम

पह्दों के विशाल सीने पर
अब कविता नहीं
विज्ञापनों के जिंगल सजे हैं  

खेतों में अब नहीं उगते स्वप्न
और न बंदूकें ...
बस बिखरी हैं यहाँ-वहां
नीली पद चुकीं लाशें

 

सच मनो
इस सपनीले बाज़ार में
नहीं बचा कोई दृश्य इतना मनोहारी
जिसे दे सकूँ तुम्हारी मासूम  आँखों को
नहीं बचा कोई भी स्पर्श इतना पवित्र
जिसे दे सकूँ तुम्हें पहचान की तरह

 

बस
समझौतों और समर्पण के इस अँधेरे समय में
जितना भी बचा है संघर्षों का उजाला
समेटकर भर लेना चाहता हूँ अपनी कविता में
और दे जाना चाहता हूँ तुम्हें उम्मीद की तरह
जिसकी शक्ल
मुझे बिलकुल तुम्हारी आँखों सी लगती है

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वैश्विक गांव के पंच परमेश्वर

 

पहला
कुछ नहीं खरीदता
न कुछ बेचता है
बनाना तो दूर की बात है
बिगाड़ने तक का शऊर नहीं है उसे
पर तय वही करता है
कि क्या बनेगा- कितना बनेगा- कब बनेगा
खरीदेगा कौन- कौन बेचेगा

 

दूसरा
कुछ नहीं पढ़ता
न कुछ लिखता है
परीक्षायें और डिग्रियाँ तो खैर जाने दें
किताबों से रहा नहीं कभी उसका वास्ता
पर तय वही करता है
कि कौन पढ़ेगा- क्या पढ़ेगा- कैसे पढ़ेगा
पास कौन होगा- कौन फेल

 

तीसरा
कुछ नहीं खेलता
जोर से चल दे भर
तो बढ़ जाता है रक्तचाप
धूल तक से बचना होता है उसे
पर तय वही करता है
कि कौन खेलेगा- क्या खेलेगा- कब खेलेगा
जीतेगा कौन- कौन हारेगा

 

चौथा
किसी से नहीं लड़ता
दरअसल ’शुद्ध ’शाकाहारी है
बंदूक की ट्रिगर चलाना तो दूर की बात है
गुलेल तक चलाने में कांप जाता है
पर तय वही करता है
कि कौन लड़ेगा -किससे लड़ेगा - कब लड़ेगा
मारेगा कौन - कौन मरेगा

 

और
पाँचवां
सिर्फ चारों का नाम तय करता है।

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मैं चाहता हूं

मैं चाहता हूं
एक दिन आओ तुम
इस तरह
कि जैसे यूं ही आ जाती है ओस की बूंद
किसी उदास पीले पत्ते पर
और थिरकती रहती है देर तक

मैं चाहता हूं
एक दिन आओ तुम
जैसे यूं ही
किसी सुबह की पहली अंगड़ाइ के साथ
होठों पर आ जाता है
वर्षों पहले सुना कोई सादा सा गीत
और पहले चुम्बन के स्वाद सा

मैं चाहता हूं
एक दिन यूं ही
पुकारो तुम मेरा नाम
जैसे शब्दों से खेलते-खेलते
कोई बच्चा रच देता है पहली कविता
और फिर
गुनगुनाता रहता है बेखयाली में

मैं चाहता हूं
यूं ही किसी दिन
ढूंढते हुए कुछ और तुम ढूंढ लो मेरे कोई पुराना सा ख़त
और उदास होने से पहले देर तक मुस्कराती रहो

मै चाहता हूँ यूँ ही कभी आ बैठो तुम
उस पुराने रेस्तरां की पुरानी वाली सीट पर
और सिर्फ एक काफी मंगाकर
दोनों हाथों से पियो बारी बारी

मैं चाहता हूँ इस तेजी से भागती समय की गाड़ी के लिए कुछ मासूम से
कस्बाई स्टेशन  

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अशोक कुमार पाण्डेय की अन्य रचनाएँ उनके ब्लॉग पर यहाँ पढ़ें:

असुविधा

युवा दखल

COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. 'जबकि जानता हूँ की तुम्हे याद करना
    अपनी आत्मा को केंचुलों से निकल लाना है'

    मुझे अंदाज़ा नहीं था कि खालिस ब्लॉगर लोग इतनी अच्छी कवितायें लिखते है. भाई अशोक पाण्डेय तो बहुत उम्दा कवि हैं. अगर एकाध कविता बहुत अच्छी न होना कहने की इजाजत चाहूँ तो दावे से कहना चाहूंगा कि उनमें एक समझ और गहरी संवेदना है. बधाई और रवि तकनीकी गुरु को धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  2. शुक्रिया…।
    वैसे खालिस ब्लागर तो नही है हम
    भगत सिह वाली कविता उदभावना के विशेषान्क मे छ्पी थी,वैश्विक गाव वसुधा मे,जगन की अम्मा कथन,एक सैनिक की मॉत परिकथा और शेष साक्षात्कार मे।

    जवाब देंहटाएं
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श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: अशोक कुमार पाण्डेय की कविताएँ
अशोक कुमार पाण्डेय की कविताएँ
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