योगेन्द्र सिंह राठौर की कहानी : प्रतिबिम्ब

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वक्‍त किसी और के लिए ठहरा हो या न ठहरा हो, उसके लिए लगभग ठहर सा गया है। अब क्‍या बदल सकता है उसकी जिन्‍दगी में, जब तक कि वह अपने विचारों ...

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वक्‍त किसी और के लिए ठहरा हो या न ठहरा हो, उसके लिए लगभग ठहर सा गया है। अब क्‍या बदल सकता है उसकी जिन्‍दगी में, जब तक कि वह अपने विचारों को न बदले । बडे भाई चाहते हैं कि ,वह घर पर रहे। उनके बच्‍चें को पढाएँ, स्‍कूल छोड़ने जाए, लेकर आए, कमरा तो उस पर है ही, खाना माँ दे देती है और क्‍या चाहिए खेती बाड़ी देखे और असाधारण बनने के चक्‍कर में न पड़कर आम आदमी की तरह सलीके से रहे तो वे कहीं ना कहीं उसका विवाह भी करा ही देंगे ।

आज भी गणतंत्र दिवस पर वह भाषण दे रहा था। उस समय मंत्री जी ने उसके विचारों की प्रशंसा करनी चाही ,पर वह भाषण देकर सीधा मंच से उतरा और अपने दोस्‍तों में चला गया । वह जानता है कि मंत्री जी कलेक्‍टर से उसका नाम, उसकी शैक्षणिक योग्‍यताएँ पूछेंगे तथा कलेक्‍टर प्रिसिंपल ,विभागाध्‍यक्ष, समवेत स्‍वर में उसकी प्रशंसा करेंगें । मंत्री जी उसका नाम नोट करेंगें,आश्‍वासन देंगे और सर्किट हाउस में जाकर एक नए अध्‍याय का आरम्‍भ करेंगें । इसलिए इन आश्‍वासानों को अब वह नहीं ,उसके प्रिसिंपल, उसके पिता, उसके स्‍टूडेन्‍टस्‌ सुनते रहते हैं । वह दोस्‍तों से मिलने को कह अपनी बहन के घर चला गया जहाँ वह सिर्फ अपनी भाँजी के साथ खेलने आता था । अक्‍सर वह उन दिनों को पहचानने के साथ-साथ जीने की कोशिश करता था। जब उसकी बहन इतनी सी थी ,जितनी उसकी भाँजी है ।

बहन के घर से निकल कर जब 12 बजे के लगभग वह अपने घर में घुसा तब पिता जी घर में नहीं थे । भाभी उसे देखकर अपने कमरे में चली गयी । चिन्‍टू ने उससे उसका पेन माँगा और माँ ने उसके लिए खाना परोसना आरम्‍भ किया । उसने बाथरूम में जाकर हाथ-मुँह धोकर कुल्‍ला किया और गुटके की बची हुई तम्‍बाकू वहीं थूक दी । इसके बाद ही वह खाना खाने बैठ गया ।

उसने एक ही रोटी खाई थी ,जब पिता जी की चीख उसके कानों में पड़ी ।

‘‘जब कमाओगे तब पता चलेगा । अभी तो पिता की कमाई पर ऐश कर लो।''- दरअसल पिता जी ने आते ही जब हाथ मुँह धोना चाहा ,तब उन्‍हें बाथ रूम में पड़ी तम्‍बाकू दिखाई दे गयी ।

यही वक्‍त था जब भाभी और चिन्‍टू भी कमरे से बाहर आ गये थे । उसे इस बात का दुःख था कि, उसके पिताजी खुद तम्‍बाकू खाते थे, पर उसे ऐसा करने से रोकते थे । उसने तम्‍बाकू खाना सीखा भी पिता जी की डिबिया से । पिताजी उसे आज पहली बार नहीं डाँट रहे थे, पर पहले उनके शब्‍द कठोर होते थे, शब्‍दों की संख्‍या अधिक होती थी पर चेहरे के भाव कठोर नहीं होते थे, बल्‍कि कई बार उनकी डॉट का अन्‍त मुस्‍कराहट से होता था । अब वह बात नहीं थी ।

उसकी ओर से माँ ने जवाब दिया-‘‘ खाना तो खा लेने दो। ''

‘‘तुम्‍हीं ने बिगाड़ा है इसे ''- कहते हुए पिताजी फिर चिल्‍लाने लगे। ‘‘इतना बड़ा हो गया पर पता नहीं कब अक्‍ल आएगी ऊपर से खुद को होशियार समझता है ।''

‘‘चिन्‍टू आज से चाचा के साथ घूमने मत जाना-‘‘भाभी चिन्‍टू को कमरे में अन्‍दर खींचते हुए ले गयी थी ।

वह खाना अधूरा छोड़कर बीच में ही उठ गया । माँ उसे मनाती रह गयी। पिताजी के ठीक पास में खड़े होकर उसने हाथ मुँह धोया और शर्ट पहन कर लापरवाही से स्‍लीपर पैरों में डालकर घर के बाहर निकल पडा । गली के अंतिम छोर पर उसने शर्ट की बटन लगाई ।

वह सीधे कॉलेज की लायब्रेरी में चला गया और वहाँ से चार बजे निकल कर नदी किनारे बने गणेश मंदिर के चबूतरे पर बैठ गया । यही उसे सारे मित्र प्रोफेसर मिलते हैं। मंदिर का चबूतरा शाम को नालन्‍दा बन जाता है, और बिना किसी औपचारिकता के छात्रों को हर विषय पर विशेषज्ञों की राय प्राप्‍त करने का अवसर मिलता था ।

उसके वहाँ पहुँचने के थोड़ी देर बाद ही राजेन्‍द्र वहाँ आया और बोला-‘‘आज क्‍या बात हो गई । माँ चिन्‍ता कर रही थी। मैं आपके ही घर से आ रहा हूँ ।''

वह मुस्‍कराया-‘‘ कुछ नहीं यूँ ही आज बॉस थोड़ा गरम हैं।‘‘

मुझे भी आज डॉट पड़ी। बिजनेस अपने से हो नही सकता । वेकेन्‍सी निकल नहीं रही । अब रातों - रात क्‍या जादू कर दूँ ? आज टाईगर दहाड़ रहा था। मेरा तो दिमाग खराब हो रहा था । मुश्‍किल से अपने आप को कन्‍ट्रोल किया वरना मेरे मुँह से उल्‍टा सीधा निकलने ही वाला था ।

बेवकूफ, कभी भी अपने पिता जी को जवाब नहीं देना चाहिए । हम जीवन के सीधे सीधे दो भाग कर सकते है। एक पूर्वार्ध दूसरा उत्‍तरार्ध । पूर्वार्द्ध में जीवन के प्रारम्‍भ से ही हम सिर्फ कर्ज की जिन्‍दगी जीते हैं । हम अपने माता पिता दादा-दादी, भाई बहन, पड़ोसी साथी से पैसा ,सुख - सुविधाएँ, सिद्धान्त एवं विचार, परम्‍पराएँ सब कर्ज की तरह उधार लेते हैं । जीवन के उत्तरार्ध में हमें अपने माता- पिता को वह सब लौटाना चाहिए जो हमने उनसे लिया था, लेकिन हम में से कितने लोग अपने माता- पिता को बचपन में हमें दिये गये प्रेम को और बेहतर स्‍वरूप में लौटाते हैं। हकीकत में हम माता पिता को अपनी सुविधाओं इच्‍छाओं के पीछे प्रेम नहीं, विकृत प्रेम या घृणा लौटाते है - वह तमतमा गया था ।

पर हम माता पिता को क्‍या दे सकते है। उन पर सब कुछ तो है ?

उन पर नहीं होती है इज्‍जत, वह हम ही उन्‍हें दे सकते हैं। सारी दुनिया सिर आंखों पर बिठाए, पर अपनी ही सन्‍तान इज्‍जत न करें , तो जिन्‍दगी जुएँ में हारी प्रतीत होती है । घर महाभारत में वर्णित उस सभा सा लगता है । जहां द्रौपदी का चीर पांडव खींच रहे होते हैं । लौटाने की बात भी कई तरह से आती है । एक तो यह कि हमें 25 वर्ष तक माता पिता ने आर्थिक, सामाजिक ,मानसिक पहलुओं पर सुखी रखा । अतः हम उनके जीवन के किन्‍हीं 25 वर्षो को इन्‍हीं पहलुओं पर सुखी रखे पर यह भी सिर्फ लौटाना होगा ।

पर वे लोग भी उल्‍टी बात करते हैं, कुछ सुनना ही नहीं चाहते अपने आगे । हमारी भी तो जिन्‍दगी है-राजेन्‍द्र अब तर्क के मूड में था।

तुम पहले मेरी बात सुन लो। हम 18-20 वर्ष के होते ही उस छत को तोड़ने लगते हैं, जिन पर उनके विचारों की बेले सजी होती है अनुभवों और सम्‍बन्‍धों की चित्रकारी होती है । तात्‍कालिक सूझ- बूझ एवं आर्थिक मानसिक सामाजिक वस्‍तुओं, स्‍थितियों के प्रतिफल से घर सजा होता है। जिस घर में हमें जीवन मिला होता है । जिन्‍होंने हमें सुन्‍दर शरीर उत्‍कृष्‍ट वैचारिक धरातल बनाने में मदद की होती है । तब हम चाहते है कि वे अपनी वर्षो की सोच, मानसिकता को छोड़ हमारी 4-5 वर्षीय अबोध मासूम मानसिकता को गले लगा लें । कैसी बचकानी हरकत होती है । हमारी मानसिकता सिर्फ कल्‍पना में पली-बढ़ी होती है या हम उम्रों के मध्‍य । लेकिन यदि हम तलाश करें कि हमारी उम्र में हमारे जैसा ही सोचने वाले हमारे पिता की उम्र में पहुँचकर कैसा सोच रखते हैं । तब आश्चर्यजनक ढंग से हम यह पाते हैं कि उनकी सोच एवं हमारी पिता की मानसिकता में कोई अन्‍तर नहीं रह जाता था । हमारे पिता की कल्‍पना, विचार, सिद्धान्त, समाज के बीच अच्‍छे बुरे परिणामों का स्‍वाद चख चुकी होती है । एक तरह से उनके अपने सीमित दायरे समाज की कसौटी पर कसी जा चुकी होती है। लेकिन हम तो अपनी कल्‍पनाओं को मानसिकता का रूप देकर बिना किसी कसौटी पर कसे उन्‍हें प्रत्‍येक समाज एवं परिस्‍थितियों के लिए सर्वोत्‍तम करार दे देते हैं, बल्‍कि कई बार तो हम यह भी दावा करते हैं कि इन्‍हीं कल्‍पनाओं से सर्वोत्‍तम समाज का निर्माण सम्‍भव है। तब तक हम ठीक से यह भी नहीं जानते कि, कल्‍पना और मानसिकता में क्‍या अन्‍तर होता हैं‘‘- वह बिना रूके इतना कुछ कह गया ।

पर आज आपका झगड़ा क्‍यों हो गया बाबूजी से-अब बारी राजेन्‍द्र की थी ।

वे गलत नहीं थे। वे भी तम्‍बाकू खाते है , और सुबह वह अस्‍पताल भी गये थे । उनके मुँह में तम्‍बाखू रखने के स्‍थान पर टाँका हो गया है । कड़वा सच तो यह है कि, कैंसर की फर्स्‍ट स्‍टेज पर है ।जो रिपोर्ट डॉक्‍टर ने उन्‍हें आज सुबह बताई उसे मैं कल शाम को ही देख चुका था। इसलिए पिताजी नहीं चाहते कि मैं भी तम्‍बाकू खाता रहूँ।‘‘- वह स्‍पष्‍टीकरण दे रहा था।

-परसों क्‍या बात हो गई थी, तब भी पिता जी नाराज थे ।

-परसों मैने शादी के लिए मना कर दिया था ।

‘‘अपनी मर्जी से कर लो शादी । आज मैडम से मुलाकात हुई थी ना लायब्रेरी में।''- और राजेन्‍द्र चला गया।

तभी सामने नदी में केवट नाव ले आता दिखाई दिया । किनारे आकर केवट नाव से उतर कर उसे नाव तक जबरदस्‍ती ले गया । कुछ देर बाद ही शाम के झुरमुटे में वह नदी की सैर कर रहा था । दोनों ने मिल कर भाँग खाई। उसने केवट से कहा- डूबा तो नहीं दोगे ?

केवट ने कहा-‘‘ न डूबने का दावा टाईटैनिक करता है । हमारी नाव में पानी की बूँदें आती है, लहरें नहीं ।''

उसे यकीन ही नहीं हो रहा था जो कुछ उसने जो लायब्रेरी में सुना था उस पर ।

-‘‘मैंने तुम्‍हें चाहा ही नहीं, तुम अपनी ओर से कहते गये, मै सुनती गयी । तुम अपनी इच्‍छा से मेरी जिन्‍दगी में आए थे । मैने तुम्‍हें अतिथि की तरह स्‍वागत कर ड्राईंग रूम में बिठाया, तुमसे कुछ बातें की, कुछ पल उत्‍तम गुजारे, अपने वर्तमान और समकालीनों से, तुम्‍हारे साथ के कारण घ्‍पर पर भी उठी । लेकिन इन सबके बदले में मैं तुम्‍हें थैक्‍यू कह सकती हूँ बस।‘‘

-‘‘मैंने तुमसे थैक्‍यू भी नहीं चाहा, कहा क्‍या कभी ?''

-‘‘पर तुम्‍हारी आंखे कितना कुछ कह जाती है'' - वे बोली,

-‘‘तुम्‍हें इन आंखों में आँसू अच्‍छे लगते हैं।'' हाँ ,यदि कारण मैं न रहूँ ।

-‘‘ तुम्‍हारी उदासी में बहुत कशिश है ।

वह यह सुनकर लायब्रेरी की दीवाल पर लगी सोहनी महिवाल की तस्‍वीर देखने लगा । उसे लगा कि उसका मन घट सोहनी के कच्‍चे घड़े की तरह है, और महिवाल उसके आसुँओं के दरिया में डूबने वाला है ।

नदी के तट पर पानी की सतह पर बहुत से प्रतिबिम्‍ब बन रहे थे । केवट भाँग के नशे में उसे देखकर खिलखिला रहा था ।

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योगेन्‍द्र सिंह राठौर,

ललिता-कुन्‍ज,

अशोका होटल के पीछे,

नया बसस्‍टेन्‍ड रोड. जगदलपुर बस्‍तर

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रचनाकार: योगेन्द्र सिंह राठौर की कहानी : प्रतिबिम्ब
योगेन्द्र सिंह राठौर की कहानी : प्रतिबिम्ब
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