नन्दलाल भारती 1-श्रमवीर ॥ अपनी ही जहां में घाव डंस रही पुरानी शोषित संग दुत्कार भरपूर हुई मनमानी लपटों की नही रूकी है शै...
नन्दलाल भारती
1-श्रमवीर ॥
अपनी ही जहां में घाव डंस रही पुरानी
शोषित संग दुत्कार भरपूर हुई मनमानी
लपटों की नही रूकी है शैतानी
शोषित भी खूंटा गाड़. खड़ा हो जायेगा ।
ढह जायगी दीवारें रूक जायेगी मनमानी
तिलतिल जलता जैसे तवा पर पानी
अंगारों मे जलता,कंचन हो गया है राख
हाड़. फोड़. नित नित पेट की बुझाता आग
रोटी और जरूरतें नहीं वह चाहे सम्मान
जीवन में झरता पतझर निरन्तर उसके
बूढे अम्बर को ताकता कहता बश्खो पानी
मेरे अंगना अब कब बसन्त आएगा ।
शोषित जग को गति देता
वंचित की गति को विषमतावादी करता बाधित
खेत खलिहान या कोई हो निर्माण का काम
पसीने के गारे पर थमता शोषित के
द्वार दहाड़ता मातमी गीत हरदम
भूख,अशिक्षा,भेदभाव की बीमारी बेरोजगारी और भूमिहीनता
ढकेलती रहती दलदल में सदा
मुसीबतों का बोझ ढोता,तथाकथित श्रेष्ठ समाज को खुशी देता
ना चिन्ता उसकी ना कोई सुधि है लेता
श्रेष्ठता का दम भरने वालों हाथ बढाओ
शोषित की चौखट सावन आ जायेगा ।
ऋतुओं की तकदीर संवारता,खुद जीता वीरानों में
दिल पर वंचित के घाव होता नित हरा
नई घाव से नहीं घबराता
क्योंकि चट्टान उसके सीने को कहते हैं
थाम लिया समता की मशाल डंटकर तो शोषक घबरा जायेगा ।
शोषित दलित श्रमवीर उसके कंधे पर दुनिया का भार
तकदीर में लिख दिया आदमी अंधियारे का आतंक
थम गये हाथ अगर तो होंठ पर नाचेगी स्याह
समानता के द्वार खोलो,ना दो शोषित श्रमवीर को कराह
मिटा दो लकीरें वरना वक्त धिक्कारता जायेगा ।
2- मशाल ॥
समता का पथ ना हो वीरान कभी
मानव है सच्चे समता की राह चल सभी
विषमता की कब्र पर समता के पांव बढ़े निरन्तर
ना रूके कभी इसलिये कि मसीहा थक गये कई
जहां वे रूके वहीं से तुम चलो․․․․․․․․․․․
दिल पर चोट है शीश पर आसमान
जातिभेद की राह में समता की छांव
चल रहा रातदिन जातिभेद का षड्यन्त्र
मौन धरती पर समता का रंग पोत दो
कराह रहे दर्द से जो उन्हे साथ ले लो․․․․․․․․
ना ताको पीछे, वहां भयावह निशान है
समता की राह नित जा चलता
कब मिलेगी बराबरी नहीं थाह
आखिरी सांस तक चलते रहें
थमती है सांस तो थमने दो,
विषमता की गोद ना मन बहलाओ
मुस्कराओगे मौन धरती पर एक दिन
क्योंकि समता की राह थे चले
जीवन पुष्प झरे उससे पहले और पुष्प खिलने का अवसर दो
तुमने जो जहर पीया आने वाले तक मत पहुंचने दो
कर्मवीर श्रमवीर, शूरवीर समता की राह बढे चलो․․․․․․․․․․․․
ना किया समता स्वर ऊंचा तो
रह जायेगी कराहती शोषितों की बस्ती
समता का पुष्प नही खिला तो
विषमता क झलकता रहेगा जाम
संविधान से सम्भावना है
समता की राह सच्ची सद्भावना है
भेद का पिशाच अधिकारों को न डंसे
थामकर हक की लाठी निकल पड़ो
आदमी हो आदमी का हक तो मांग लो․․․․․․․․․․․․
समता का नही मिला मान तो
वंचित का जीवन रह जाएगा श्मशान
मरकर जीना आदमियत का है अपमान
स्वाभिमान से जीना है ,दिन बीते या बरस ढले
समता की राह पर बढ़े चलो․․․․․․․․․․
छल कर किसी युग आदमी अंधियारा दिया
संघर्षरत् जल रहा जीवन का दीया
कांटों की नोंक पग पग पर जला
इंसानियत का दुश्मन पल पल छला
वंचित का रो रोकर ही जहर पीया
ना पीओ भेद का जहर ना पीने दो
हे समता के पथिक बढ़े चलो․․․․․․․․․․
जाग चुका है जज्बा स्वाभिमान से जीने का
अंधियारे के आगे उजियारा हारेगा नही
आंधी कोई सद्भावना को रौंद नही पायेगी
समता का पथिक धुव्रतारा की तरह चमकेगा
चले थे बुद्ध समता की राह तुम भी चलो
जले थे अम्बेडकर दीये की तरह
मानवता का ऊंचा रहे भाल तुम भी जलो
समता की राह न हो वीरान
वक्त है पुकारता, तुम भी चलो․․․․․․․․․․․
भेद की तूफान नित कर रहा अत्याचार
तड़प रहा आदमी समता की प्यास से
जातिपांति का बवण्डर थम जाये
जुल्म झेल रहा आदमी विहस जाये
समता की जंग को मत रूकने दो
जलती रहे समता की मशाल
लगे थका थम रहा कोई सिपाही,
समता की मशाल थाम बढ़े चलो․․․
3-दिल से बाहर करके तो देखा․․․․․․․․․․․․․․․․
जातीय नफरत का बारूद ना सुलगाओ
समता का गंगाजल अब द्वार-द्वार पहुंचाओ
जातिभेद शीतयुद्ध है,इस युद्ध को अब बन्द करो
जातिभेद तोड़ो मानवता को स्वच्छन्द करो ।
ना डंसे भेद समभाव की बयार बह जाने दो
नफरत नही स्नेह का स्पर्श दे दो
भारतभूमि ना बने जातिभेद की मरघट अब
तोड़ बंधन सारे समता का दीया जला दो ।
धरती सद्भाव से होगी पावन
शान्ति भेद से नहीं एकता में बरसता है
आदमी जाति से नही कर्म से श्रेष्ठ बनता हैं
ऊंचनीच से नही सद्भाव से सद् प्यार फैलता है ।
जाति के नाम पर ना अत्याचार करो अब
आगे बढ शोषित वंचित को गले लगाओ
पतवार समता की बन बुद्ध की राह हो जाओ
दंश ढो रहे जो उन्हे समता का अमृत चखाओ ।
जिसके हृदय में मानवता बसी है
वही जातीय भेदभाव को धिक्कारता है
जिसके सीने में दर्द है वंचित के प्रति
तोड़ बाधायें सारी वंचित से हाथ मिलाता है ।
घाव है शोषित के हृदय पर विकराल
वह समानता की छांव में हर दर्द भूल सकता है
कर्म और फर्ज पर मिटने वाला उत्पीड़न झेल रहा
रिसते जख्मों का एहसास उद्धार का सकता है ।
जातिपांति का किला मजबूत अब तोड़ना होगा
विषमता जब समता का रूप धर लेगा
जातीयभेद का अंधियारा खत्म हो जायेगा
भारतभूमि पर समता का दीप जल जायेगा ।
हाथ जोड़कर बार बार कहता हूं
जहां गरजे भेद वहां स्नेह लुटाओ
जब जब हो भेद का वार तुम पर फूल चढाओ
बोये भेद के बीज जो सद्भाव सीखाओ ।
नफरत से सुखशान्ति नही आ सकती धरा पर
जातिभेद का सच्चे मन से त्याग करके देखो
आदमी हुए देव कई बहुजन हिताय की राह चलकर
सच मानो विषमता हारेगी विजय होगी तुम्हारी
जातिपांति को दिल से बाहर करके तो देखो।
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नन्दलाल भारती
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