क्षितिज के उस पार हाँ वो शिला ही थी!! कैसे भूल कर सकती थी मैं पहचान ने में उसे, जिसे बरसों देखा, साथ गुजारा, पल पल उसके बारे में ...
क्षितिज के उस पार
हाँ वो शिला ही थी!! कैसे भूल कर सकती थी मैं पहचान ने में उसे, जिसे बरसों देखा, साथ गुजारा, पल पल उसके बारे में सोचा.
शिला थी ही ऐसी, जैसे किसी शिल्पकार की तराशी हुई एक सजीव आत्मा जो तन को ओढ़कर इस सँसार की सैर को निकली हो. जिस राह से वो गुजरती, गुजरने वाले थम जाते थे, जैसे जम से जाते थे. उनकी आँखे पत्थरा जाती, जैसे किसी नूर को सामने पाया हो. हाँ वही हूर शिला मेरी प्रिय सहेली आज मेरे सामने से गुजर रही है, खुद से होकर बेखबर.
बारह वर्ष कोई इतना लंबा अरसा तो नहीं होता, जहाँ इन्सान इस कदर बदल जाये, न फ़कत रँग रूप में, पर जिसके पूरे अस्तित्व की काया पलट हो जाए. वो कालेज के जमाने भी खूब हुआ करते थे, जब मैं और शिला साथ साथ रहा करते थे, एक कमरे में, एक ही क्लास में और लगभग पूरा वक्त साथ खाना, साथ पढ़ना, साथ समय बिताना. क्या ओढ़ना, क्या बिछाना ऐसी हर सोच से परे, आजाद पँछियों की तरह चहकते हुए, हर पल का लुत्फ लेते हुए, हर साल कालेज में टाप करते हुए अब हम दोनों फाइनल साल में पहुँचीं. चार साल का अरसा कोई कम तो नहीं होता, किसी को जानने के लिये, पहचानने के लिये.
"अरे शिला!" मैंने उसके करीब जाते ही अपनेपन से उसे पुकारा. अजनबी सी आँखें बिना भाव मेरी ओर उठी, उठकर फिर झुकी और वह कदम आगे बढ़ाकर चल पड़ी, ऐसे जैसे मैं कोई अजनबी थी.
"शिला, मैं तुम्हारी सहेली सवी, कैसी हो?" जैसे सुना ही न हो, या चाहकर भी सुनना न चाहती हो, कुछ ऐसा अहसास मन में उठा. ऐसा क्या हो सकता है जो इस बदलाव का कारण बने?
इठलाती, बलखाती, हर कदम पर थिरकती हुई शिला, जैसे किसी शिल्पकार की तराशी कोई छवि, दिन भर गुनगुनाती अपने आस पास एक खुशबू फैलाती, आज इतनी बेरँग, रूखी बिना अहसास क्यों? मेरी उत्सुकता बढ़ी, मैंने आगे बढ़कर उसके साथ कदम मिलाकर चलते हुए धीरे से फिर उसका हाथ थाम लिया.
" शिला, मैं तो वही सवी, सविता हूँ, पर तुम शिला होकर भी शिला नहीं हो, यह मैं नहीं मानती. कैसा है समीर?"
इस सवाल से उसके चेहरे के रंग में जो बदलाव आया वो देखने जैसा था. चेहरे पर तनाव के बादल गहरे हो गये, आँखों में उदासी के साए ज्यादा घने और तन सिमटकर छुई मुई सा, जैसे वह सिमट कर अपना अस्तित्व छुपा लेना चाहती हो. मैंने उसकी कलाई पकड़ ली. जब उसने छुड़ाने की कोशिश की तो ज्यादा पुख्त़गी से पकड़ी, और हाँ उसने भी फिर छुडाने की कोशिश नहीं की. शायद अपनेपन की गर्मी से पत्थर पिघलने लगा था. उसी प्यार की आँच में पिघलकर ही तो वह समीर के साथ चली गई, दूर बहुत दूर किसी और दुनियाँ में. पीछे छोड़ गई अपनी प्यारी सहेली सविता को, अपने अंतिम वर्ष की पढ़ाई को, अपने आने वाले उज्जल भविष्य को. शायद उस प्यार की पनाह ने उससे वह रौशनी छीन ली थी, जिस कारण उसे सिर्फ समीर, उसकी चित्रकारी, और तूलिका पर निखरे रँग आस पास दिखाई पड़ रहे थे. जाने क्या था वह, कैसे खुमार था, प्यार का जुनून ही रहा होगा, जो उसने अपना भविष्य समीर के नाम लिख दिया. और एक दिन अचानक वह उसके साथ शादी अचानक मेरे सामने आ खड़ी हुई.
" सवी, मुझे और समीर को शादी की बधाई नहीं दोगी?"
" हाँ हाँ मुबारक हो"..पर अचानक...मेरे शब्द मेरे मुँह में ही रह गए.
" हाँ अचानक ही फैसला करना पड़ा, कल समीर वापस जा रहा है अपने घर शिमला, और में भी उसके साथ जा रही हूँ." कहते हुए शिला मेरे गले लग गई.
"पर दो महीने के बाद फाइनल परीक्षा..." मैं कहना चाह रही थी पर कह ना पाई. शायद शिला जानकर अनजान बन रही थी, या वह अब किसी प्रकार की दख़ल अँदाजी नही चाहती थी, इसीलिये तो शादी का महत्व पूर्ण फैसला अकेले ही ले लिया, किसी की जरूर ही उसे महसूस नहीं हुई. हाँ एक बात साफ थी, उसके ऊपर उस प्यार का, समीर की कला का जो इँद्रधनुषी खुमार था, उस बहाव में वो बहे जा रही थी. कोई बाँध वहाँ बाँधना बेकार था, यही सोच कर मैं भी अपनी पूरी सोच के साथ अधूरे शब्दों का सहारा लेने लगी.
"सवी, तुम ज्यादा मत सोचो, मैंने सोच समझ कर यह फैसला लिया है क्योंकि मैं समीर के सिवा नहीं रह सकती और न वो मेरे सिवा. अब मैं जीवन के रँगों को ओढ़ना चाहती हूं, उनमें अपनी आशाओं को रँगना चाहती हूँ, इससे ज्यादा कुछ नहीं..हाँ चलो साथ में बैठकर आखिरी बार खाना खाएँ, कल वैसे भी सुबह की गाड़ी पकड़नी है, आओ चलें." कहते हुए उसने मेरी कलाई ठीक उसी तरह पकड़ी थी, जैसे आज मैंने उसकी पकड़ी है.
खाना खाते खाते, बातों के दौरान मैं समीर की ओर देखती रही चोरी छुपे, जैसे उसे जानने की, पहचानने की कोशिश करती रही. ऐसा क्या था उसमें जो मेरी प्रिय सहेली की जिँदगी में तूफान बनकर आया और बवंडर की तरह बहा कर ले जा रहा है. दो महीने के लिये जो आर्ट का प्रोजेक्ट उसे सौंपा गया था, उसके पूरा होने के पहले ही उसने शिला की जिंदगी पर अपना रंग चढ़ा दिया और अब साथ ले जा रहा था मेरी जान से प्यारी सहेली को, जैसे जबरदस्ती कोई मेरे तन से रूह को जुदा कर रहा था. सोचों के दाइरे से खुद को बाहर निकालते हुए मैंने समीर की ओर रुख किया.
"समीर बुरा न मानना, पर एक बात तो बताओ, क्या दो महीने शिला की खातिर और नहीं रुक सकते ताकि शिला भी अपनी पढ़ाई की जवाबदारी पूरी कर ले. जीवन भर साथ निभाने के लिये जरूरी नहीं है कि हम वक्त के साथ खिलवाड़ करें. पढ़ाई तो रौशनी का एक अंग है, उसे इस तरह अधूरा...."
"सविता जी फैसला शिला का है मेरा नहीं, और उस फैसले से मैं ज्यादा खुश तो नहीं, पर नाराज़ भी नहीं. मेरी प्रेरणा मेरा मीत बनकर मेरे साथ साये की तरह रहे, यह मेरी खुशकिस्मती है."
" पर....." इतना भी न कह पाई और शिला ने आँखों के इशारे से मूक भाषा में मुझे कुछ न कहने के लिये कहकर चुप करा दिया.
बस वह चली गई, अपनी सुनहरी दुनिया में सुँदर सपनों को लेकर और फिर सब धुँधला धुँधला सा हो गया. दिन बीते, महीने बीते, और साल भी बीतते चले गये..एक नहीं, दो नहीं, पूरे बारह बरस. सोचों का सिलसिला साथ था, पकड़ में उसकी कलाई और हमकदम हमारी चाल. आखिर एक पेड़ के नीचे खींचकर मैंने उसे बिठाया और फिर मैं भी बैठ गई उसके पास सटक कर जैसा हम अक्सर बैठा करते थे.
" अब बता शिला, तू यहाँ इस शहर में शिमला से इतनी दूर? और समीर कहां है, साथ में क्यों नहीं आया?" मैंने अनजाने में कई सवाल एक साथ पूछ लिये और उसका मुँह तकने लगी जवाब के इंतजार में !
जवाब में उसकी मृगनयनी आँखों से टपके सीप से कुछ मोती, जिन्हें चाहकर भी मैं अपने आँचल में समेट न पाई, ना ही शिला ने जतन किया उस फिसलती हुई धारा को रोकने का. बस कुछ कह न पाई और उठते हुए अपनेपन से कहा " चलो कहीं बैठकर चाय पीते है सवी."
चाय के उस दौर में उसने चाय के साथ न जाने कितने आँसुओं के साग़र पिये, अनबुझी किसी प्यास का होना जाहिर था, पर उस प्यास का रुख एक नया मोड़ ले रहा था. शिला की जुबानी उसकी आंसुओं की तरह बिखरी हुई कहानी को समेटते हुए शिला ने कहा " सवी मैं उसके लिये बस तूलिका पर बिखरे हुए रंगों का एक बिंदु थी.."
" थी..." मैंने उलझे हुए होंठों को खोलने की कोशिश की, पर शिला के मन का द्वंद्व शायद अभी बंद न हुआ था.
" हाँ थी. हूँ नहीं सवी " अपनेपन की आँच से थमा हुआ दर्द का दरिया पिघल कर आँखों से बह जाना चाह रहा था और उसी बहाव में बहते हुए शिला कहती गई, " सच मानो सवी जिस तरह उसने तूलिका पर रंग बिखेरकर मेरी तस्वीरों को सजाया, उन्हें सजीव बना दिया अपने हुनर की बारीकियों से, कई खरीदार उन पर फिदा होकर खरीदने लगे. दौलत का नशा दिन से ज्यादा समीर की रातें रंगीन करने लगा. दिन को मैं किसी पत्थर की मूर्ती की तरह उसकी प्रेरणा बनकर घंटों बैठी रहती और वह नपे तुले ढंग से मेरे हर कोण में रंग भरता रहा, बेचता रहा और खनखनाहट में खोता गया, और फिर बहाव इतना तेज़ आया उस बाढ़ में, जो वह मुझे भी बहा ले गया उसकी स्वार्थ की वेदी के उस पार जहाँ मैं तुम्हारी वह सहेली तो नहीं रही जो हर पल को तुम से बाँट लेती थी, पर हां बंटी सी, बिखरी बिखरी सी उस शिला का ज़र्रा ज़र्रा बिखरता गया. हाँ वह शिला जो अपनी आन बान के साथ जिया करती थी...वह..." और शिला फूट फूटकर रोने लगी.
बस अनकहे शब्दों ने हर खालीपन को भर दिया, आँसुओं की जुबाँ सब कह गई. मुझे यूँ लगने लगा कि शिला बिखर कर टूट चुकी है और जहां तक मेरी सोच पहुँच सकती थी, ऐसा आभास हुआ जैसे शिला मुझसे वही पुराना आश्रय माँग रही थी, उसी आँचल की नर्मी ढूँढ रही थी, वह निस्वार्थ स्पर्श माँग रही थी.
मैंने उसे आलिंगन में भरते हुए अपने साथ इस तरह जोड़ लिया जैसे वो कभी मुझ से अलग ही न हुई थी. उसका इस तरह सिमटना, बिखराव का अंत हो गया, सभी बिखरे रंग फिर से सिमट कर उस बेरंग शिला रूपी बिंदु में समाते चले गए, बूँद सागर में समा गई. आकाश के बादल छंट गए, विराटता नजर में भर गई सितारों भरा आसमान साफ दिखाई दे रहा था.
कब दुपहर से शाम, शाम से साँझ हुई पता ही नहीं पड़ा, सफर ज़ारी है, मंजिल क्षितिज के उस पार शायद......!!!
दूर ध्वनि के साथ शब्द भी भीने भीने से मन को भिगोते रहे.
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देवी नागरानी,
New Jersey, dnangrani@gmail.com,
शिला जैसे पात्र हमारे आस पास ही हैं. पश्चाताप के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है. कहानी अच्छी लगी.
जवाब देंहटाएंसवी मैं उसके लिये बस तूलिका पर बिखरे हुए रंगों का एक बिंदु थी.."
जवाब देंहटाएं"रिश्तों के नाजुक एहसास और बंधन के भावों को कोमलता से चित्रित करती ये कहानी सच मे ही भावुक कर गयी...हर शब्द जैसे जीवित हो उठा अपने बात कहने को...."
Regards
एक अच्छी कहानी है। पठनीय और बांधकर रखने वाली। देवी नागरानी जी का एक ग़ज़लकार का रूप तो देखा था, कहानीकार के रूप में भी उन्होंने प्रभावित किया।
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