जन-गण-मन द्विजेन्द्र 'द्विज' की ग़ज़लें निर्वासित है क्यूँ 'जन-गण-मन' खलनायक का क्यूँ अभिनंदन '...
जन-गण-मन
द्विजेन्द्र 'द्विज' की ग़ज़लें
निर्वासित है
क्यूँ 'जन-गण-मन'
खलनायक का
क्यूँ अभिनंदन
'द्विज' की ग़ज़लें
जय ' जन-गण-मन '.
-- इसी संग्रह से.
भूमिका
समग्र 'जन-गण-मन' की ग़ज़लें
'जन-गण-मन' सुपरिचित हिन्दी ग़ज़लकार द्विजेन्द्र 'द्विज' की छप्पन (56) ग़ज़लों का पहला संकलन है.
ग़ज़ल जैसे फ़ारसी-उर्दू के काव्य-रूप के प्रति हिन्दी में जो नया वातावरण तैयार हुआ है,निश्च्य ही इसका प्रमुख श्रेय स्वर्गीय दुष्यंत कुमार को जाता है. हालाँकि दुष्यंत कुमार के पहले, हिन्दी में ग़ज़ल रचना का शुभारंभ हो चुका था. केवल आधुनिक युग की ही बात करें तो भारतेन्दु, बद्रीनारायण चौधरी, प्रताप नारायण मिश्र,नाथू राम शर्मा 'शंकर', जय शंकर 'प्रसाद' निराला, डा. शमशेर बहादुर सिंह,त्रिलोचन,जानकी वल्लभ शास्त्री,बलबीर सिंह 'रंग' आदि ने हिन्दी ग़ज़ल के प्रति अपनी रुचि और रचना का परिचय दिया था . लेकिन, उक्त कवियों की ग़ज़लें जन-मानस में आटे में नमक की तरह का ही प्रभाव उत्पन्न कर सकीं. हिन्दी ग़ज़ल को एक युगान्तरकारी काव्य विधा के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय दुष्यंत कुमार को ही जाता है. लेकिन 1975 में दुष्यंत के अनायास देहावसान के दस वर्ष बाद तक भी कुछ लोग कहते रहे कि हिन्दी ग़ज़ल दुष्यंत-काल में ही क़दमताल कर रही है.ऐसे कथन निश्चित ही आग्रह से युक्त एवं अतिश्योक्तिपूर्ण थे. दुष्यंत कुमार के देहावसान-काल से अब तक दुनिया भी आगे बढ़ी है और हिन्दी ग़ज़ल भी . जीवन, समाज, संस्कृति,और यथार्थ के अनेक परिपेक्ष्यों का उद्घाटन हुआ है. चेतना के नये स्तरों की निर्मिति हुई है. कला-साहित्य के क्षेत्र में अभिव्यक्ति की नई चुनौतियाँ उभरी हैं. यथार्थ पहले से अधिक सघन एवं संश्लिष्ट हुआ है.
जिन संजीदा हिन्दी ग़ज़लकारों ने , मंच यानि बा्ज़ार का हिस्सा न बनते हुए, अनुशासन,एकाग्रता और आत्यंतिकता के साथ देश के भिन्न-भिन्न हिस्सों में बैठकर अच्छी ग़ज़लें कही हैं- उस फ़ेहरिस्त में ग़ज़लकार द्विजेन्द्र 'द्विज' का नाम ससम्मान शामिल किया जा सकता है.,क्योंकि वे विगत तेइस वर्षों से मारंडा (पालमपुर) ,रोहड़ू, हमीरपुर, कांगड़ा और धर्मशाला जैसे पर्वतीय क्षेत्रों में निवास करते हुए अच्छी ग़ज़लें कह रहे हैं- जहाँ वस्तुत: ग़ज़लगोई का कोई उत्साह-वर्धक माहौल नहीं. निस्संदेह,
'ये फूल सख़्त चटानों के बीच खिलते हैं
ये वो नहीं जिन्हें माली की देखभाल लगे.'
द्विजेन्द्र 'द्विज' अँग्रेज़ी के प्राध्यापक हैं-वर्ड्ज़वर्थ,कीट्स, शैली से ले कर आधुनिक आँग्ल-साहित्य के अध्येता. ग़ज़ल केवल उनकी वैचारिक- भावभूमि की ही अभिव्यक्ति नहीं, उसे कलात्मक-स्तर पर भी उन्होंने आत्मसात किया है. द्विजेन्द्र की ग़ज़लों में एक विशेष क़िस्म की आंतरिकता, समझ, सलाहियत, सूक्ष्मता और सघनता को महसूस किया जा सकता है.ये बात सच है कि द्विजेन्द्र 'द्विज' ग़ज़ल के मामले में किसी 'उस्ताद' के फेर में नहीं पड़े.फिर भी, गज़ल को ले कर उनकी जिज्ञासाएँ, उनके अन्वेषण, उनके प्रयोगों को, वे देश के गुणी ग़ज़लकारों से मिल- बाँटकर,समझते-बूझते…स्पष्ट करते रहे हैं. इसके कहने के क्षेत्र में अपने-आपको 'तालिब-ए-इल्म' (विद्यार्थी) समझते रहने की सहजता उनके रचनाकार -क़द को बढाती ही है.
भाषाई स्तर पर द्विजेन्द्र 'द्विज' दुष्यंत -कुल के ग़ज़लकार हैं.हिन्दी और उर्दू के बीच संतुलन क़ायम करने वाले. द्विजेन्द्र की ग़ज़लों का भाषाई- लहज़ा सादा और साफ़ है. दूसरे शब्दों में कहें तो ये ग़ज़लें हिन्दुस्तानी ठाठ की ग़ज़लें हैं .
जहाँ तक शे'रों में परसी गई विषय-वस्तु का सवाल है तो द्विजेंद्र 'द्विज' का 'कैन्वस' क़ाफ़ी विस्तृत है. जैसा कि ग़ज़ल-संग्रह के शीर्षक से स्पष्ट है-उनकी ग़ज़लें समग्र 'जन-गण-मन' की ग़ज़लें हैं.सामाजिक, राजनितिक,सांस्कृतिक एवं आर्थिक मोर्चों पर तमाम बेचैन सवाल उठाती हुईं. ऐसा नहीं है कि पहाड़ों में रहकर द्विजेंद्र पहाड़ों की बात नहीं करते. लेकिन उनका 'पहाड़' हिमाचल तक सीमित नहीं. जाति, मज़हब,रंग,नस्लों औए फ़िरक़ापरस्ती की सियासत के ख़िलाफ़ भी उनका ग़ज़लकार तन कर खड़ा है. पहाड़ की कठिन ज़िन्दगी में ख़ून(पसीने) से सींचे गए खेतों की उपज का बँटवारा ठीक-ठीक होने की चेतावनी भी उनके शे'रों में है. कुल मिला कर, उनकी ग़ज़लें प्रगतिशील और जनवादी चेतना से लैस जागरूक ग़ज़लें हैं .,जो कोंपलों की शैली में पल्लवित होती हैं. उनके अन्दर ग़ज़ल की काव्यात्मकता की हिफ़ाज़त करने की अविश्रांत चिन्ता भी दिखाई देती है-जो निस्संदेह स्वागत-योग्य है.
ज़हीर क़ुरेशी
14 जनवरी , 2003
(मकर संक्रांति)
समीर काटेज, बी-21 सूर्यनगर ,
शब्द प्रताप आश्रम के पास
ग्वालियर-474012(मध्य प्रदेश)
1.
ख़ुद तो ग़मों के ही रहे हैं आस्माँ पहाड़
लेकिन ज़मीन पर हैं बहुत मेहरबाँ पहाड़
हैं तो बुलन्द हौसलों के तर्जुमाँ पहाड़
पर बेबसी के भी बने हैं कारवाँ पहाड़
थी मौसमों की मार तो बेशक बडी शदीद
अब तक बने रहे हैं मगर सख़्त-जाँ पहाड़
सीने सुलग के हो रहे होंगे धुआँ-धुआँ
ज्वालामुखी तभी तो हुए बेज़बाँ पहाड़
पत्थर-सलेट में लुटा कर अस्थियाँ तमाम
मानो दधीचि-से खड़े हों जिस्मो-जाँ पहाड़
नदियों,सरोवरों का भी होता कहाँ वजूद
देते न बादलों को जो तर्ज़े-बयाँ पहाड़
वो तो रहेगा खोद कर उनकी जड़ें तमाम
बेशक रहे हैं आदमी के सायबाँ पहाड़
सीनों से इनके बिजलियाँ,सड़कें गुज़र गईं
वन,जीव,जन्तु,बर्फ़,हवा,अब कहाँ पहाड़
कचरा,कबाड़,प्लास्टिक उपहार में मिले
सैलानियों के 'द्विज', हुए हैं मेज़बाँ पहाड़
2.
अँधेरे चंद लोगों का अगर मक़सद नहीं होते
यहाँ के लोग अपने आप में सरहद नहीं होते
न भूलो, तुमने ये ऊँचाईयाँ भी हमसे छीनी हैं
हमारा क़द नहीं लेते तो आदमक़द नहीं होते
फ़रेबों की कहानी है तुम्हारे मापदण्डों में
वगरना हर जगह बौने कभी अंगद नहीं होते
तुम्हारी यह इमारत रोक पाएगी हमें कब तक
वहाँ भी तो बसेरे हैं जहाँ गुम्बद नहीं होते
चले हैं घर से तो फिर धूप से भी जूझना होगा
सफ़र में हर जगह सुन्दर- घने बरगद नही होते
3.
बंद कमरों के लिए ताज़ा हवा लिखते हैं हम
खि़ड़कियाँ हों हर तरफ़ ऐसी दुआ लिखते हैं हम
आदमी को आदमी से दूर जिसने कर दिया
ऐसी साज़िश के लिये हर बद्दुआ लिखते हैं हम
जो बिछाई जा रही हैं ज़िन्दगी की राह में
उन सुरंगों से निकलता रास्ता लिखते हैं हम
आपने बाँटे हैं जो भी रौशनी के नाम पर
उन अँधेरों को कुचलता रास्ता लिखते हैं हम
ला सके सब को बराबर मंज़िलों की राह पर
हर क़दम पर एक ऐसा क़ाफ़िला लिखते हैं हम
मंज़िलों के नाम पर है जिनको रहबर ने छला
उनके हक़ में इक मुसल्सल फ़ल्सफ़ा लिखते हैं हम
4.
बराबर चल रहे हो और फिर भी घर नहीं आता
तुम्हें यह सोचकर लोगो, कभी क्या डर नहीं आता
अगर भटकाव लेकर राह में रहबर नहीं आता,
किसी भी क़ाफ़िले की पीठ पर ख़ंजर नहीं आता
तुम्हारे ज़ेह्न में गर फ़िक्र मंज़िल की रही होती
कभी भटकाव का कोई कहीं मंज़र नहीं आता
तुम्हारी आँख गर पहचान में धोखा नहीं खाती
कोई रहज़न कभी बन कर यहाँ रहबर नहीं आता
लहू की क़ीमतें गर इस क़दर मन्दी नहीं होतीं
लहू से तर-ब-तर कोई कहीं ख़ंजर नहीं आता
अगर गलियों में बहते ख़ून का मतलब समझ लेते
तुम्हारे घर के भीतर आज यह लशकर नहीं आता
तुम्हारे दिल सुलगने का यक़ीं कैसे हो लोगों को,
अगर सीने में शोला है तो क्यों बाहर नहीं आता
5.
हर क़दम पर खौफ़ की सरदारियाँ रहने लगें
क़ाफ़िलों में जब कभी ग़द्दारियाँ रहने लगें
नीयतें बद और कुछ बदकारियाँ रहने लगें
सरहदों पर क्यों न गोलाबारियाँ रहने लगें
हर तरफ़ लाचारियाँ,दुशवारियाँ रहने लगें
सरपरस्ती में जहाँ मक्कारियाँ रहने लगें
हर तरफ़ ऐसे हक़ीमों की अजब-सी भीड़ है
चाहते हैं जो यहाँ बीमारियाँ रहने लगें
फिर खुराफ़त के ही जंगल क्यों न उग आएँ वहाँ
जेह्न में अकसर जहाँ बेकारियाँ रहने लगें
क्यों न सच आकर हलक में अटक जाए कहो
गरदनों पर जब हमेशा आरियाँ रहने लगें
उनकी बातों में है जितना झूठ सब जल जाएगा
आपकी आँखों में गर चिंगारियाँ रहने लगें
है महक मुमकिन तभी सारे ज़माने के लिए
सोच में 'द्विज', कुछ अगर फुलवारियाँ रहने लगें.
6.
यह उजाला तो नहीं 'तम' को मिटाने वाला
यह उजाला तो उजाले को है खाने वाला
आग बस्ती में था जो शख़्स लगाने वाला
रहनुमा भी है वही आज कहाने वाला
रास्ता अपने ही घर का नहीं मालूम जिसे
सबको मंज़िल है वही आज दिखाने वाला
एक बंजर-सा ही रक़्बा जो लगे है सबको
वो हथेली पे भी सरसों है जमाने वाला
जिसकी मर्ज़ी ने तबाही के ये मंज़र बाँटे
था मसीहा वो यहाँ ख़ुद को बताने वाला
जबसे काँटों की तिजारत ही फली-फूली है
कोई मिलता ही नहीं फूल उगाने वाला
रतजगों के सिवा क्या ख़्वाब की सूरत देगा
हादिसा रोज़ कोई नींद उड़ाने वाला
उँगलियाँ फिर वो उठाएँगे हमारे ऊपर
फिर से इल्ज़ाम कोई उन पे है आने वाला
जा-ब-जा उसने छुपाए हैं कई फिर कछुए
फिर से ख़रगोश को कछुआ है हराने वाला
जिन किताबों ने अँधेरों के सिवा कुछ न दिया
है कोई उनको यहाँ आग लगाने वाला
क्यों भला शब की सियाही का बनेगा वारिस
धूप हर शख़्स के क़दमों में बिछाने वाला
ख़ुद ही जल-जल के उजाले हों जुटाए जिसने
वो अँधेरों का नहीं साथ निभाने वाला
आईना ख़ुद को समझते है बहुत लोग यहाँ
आईना कौन है 'द्विज', उनको दिखाने वाला.
7.
परों को काट के क्या आसमान दीजिएगा
ज़मीन दीजिएगा या उड़ान दीजिएगा
हमारी बात को भी अपने कान दीजिएगा
हमारे हक़ में भी कोई बयान दीजिएगा
ज़बान, ज़ात या मज़हब यहाँ न टकराएँ
हमें हुज़ूर, वो हिन्दोस्तान दीजिएगा
रही हैं धूप से अब तक यहाँ जो नावाक़िफ़
अब ऐसी बस्तियों पे भी तो ध्यान दीजिएगा
है ज़लज़लों के फ़सानों का बस यही वारिस
सुख़न को आप नई -सी ज़बान दीजिएगा
कभी के भर चुके हैं सब्र के ये पैमाने
ज़रा-सा सोच-समझकर ज़बान दीजिएगा
जो छत हमारे लिए भी यहाँ दिला पाए
हमें भी ऐसा कोई संविधान दीजिएगा
नई किताब बड़ी दिलफ़रेब है लकिन
पुरानी बात को भी क़द्र्दान दीजिएगा
जुनूँ के नाम पे कट कर अगर है मर जाना
ये पूजा किसके लिए,क्यों अज़ान दीजिएगा
अजीब शह्र है शहर-ए-वजूद भी यारो
क़दम-क़दम पे जहाँ इम्तहान दीजिएगा
क़लम की नोंक पे हों तितलियाँ ख़्यालों की
क़लम के फूलों को वो बाग़बान दीजिएगा
जो हुस्नो-इश्क़ की वादी से जा सके आगे
ख़याल-ए-शायरी को वो उठान दीजिएगा
ये शायरी तो नुमाइश नहीं है ज़ख़्मों की
फिर ऐसी चीज़ को कैसे दुकान दीजिएगा
जो बचना चाहते हो टूट कर बिखरने से
'द्विज', अपने पाँवों को कुछ तो थकान दीजिएगा
8.
हमारी आँखों के ख़्वाबों से दूर ही रक्खे
सवाल ऐसे जवाबों से दूर ही रक्खे
सुलगती रेत पे चलने से कैसे कतराते
जो पाँवों बूट-जुराबों से दूर ही रक्खे
हुनर तो था ही नहीं उनमें जी-हुज़ूरी का
इसीलिए तो ख़िताबों से दूर ही रक्खे
तमाम उम्र वो ख़ुशबू से ना-शनास रहे
जो बच्चे ताज़ा गुलाबों से दूर ही रक्खे
वो ज़िन्दगी के अँधेरों से लड़ते पढ़-लिख कर
इसीलिए तो किताबों से दूर ही रक्खे
हमारा सानी कोई मयकशी में हो न सका
अगरचे सारी शराबों से दूर ही रक्खे
ये बच्चे याद क्या रखेंगे 'द्विज', बड़े हो कर
अगर न खून-ख़राबों से दूर ही रक्खे.
9.
इन्हीं हाथों ने बेशक विश्व का इतिहास लिक्खा है
इन्हीं पर चंद हाथों ने मगर संत्रास लिक्खा है
हमारे सामने पतझड़ की चादर तुमने फैलाई
तुम्हारे उपवनों में तो सदा मधुमास लिक्खा है
जहाँ तुम आजकल सम्पन्नता के गीत गाते हो
अभावों का वहाँ तो आज भी आवास लिक्खा है
फ़रेबों की कहानी पर यक़ीं कैसे हो आँतों को
तुम्हारे आश्वासन हैं, इधर उपवास लिक्खा है
अँधेरे बाँटना तो आपकी फ़ितरत में शामिल है
उजालों का हमारे गीत में उल्लास लिक्खा है
बताओ किस तरह बदलें हम उलझी भाग्य-रेखाएँ
बनाएँ घर कहाँ 'द्विज', वो जिन्हें बनवास लिक्खा है.
10.
तहज़ीब यह नई है , इसको सलाम कहिए
'रावण' जो सामने हो, उसको भी 'राम' कहिए
जो वो दिखा रहे हैं , देखें नज़र से उनकी
रातों को दिन समझिए, सुबहों को शाम कहिए
जादूगरी में उनको , अब है कमाल हासिल
उनको ही 'राम' कहिए, उनको ही 'श्याम' कहिए
मौजूद जब नहीं वो ख़ुद को खुदा समझिए
मौजूदगी में उनकी , ख़ुद को ग़ुलाम कहिए
उनका नसीब वो था, सब फल उन्होंने खाए
अपना नसीब यह है, गुठली को आम कहिए
जिन-जिन जगहों पे कोई, लीला उन्होंने की है
उन सब जगहों को चेलो, गंगा का धाम कहिए
बेकार उलझनों से गर चाहते हो बचना
वो जो बताएँ उसको अपना मुक़ाम कहिए
इस दौरे-बेबसी में गर कामयाब हैं वो
क़ुदरत का ही करिश्मा या इंतज़ाम कहिए
दस्तूर का निभाना बंदिश है मयक़दे की
जो हैं गिलास ख़ाली उनको भी जाम कहिए
बदबू हो तेज़ फिर भी, कहिए उसे न बदबू
'अब हो गया शायद, हमको ज़ुकाम' कहिए
यह मुल्क का मुक़द्दर, ये आज की सियासत
मुल्लाओं में हुई है, मुर्ग़ी हराम कहिए
'द्विज' सद्र बज़्म के हैं, वो जो कहें सो बेहतर
बासी ग़ज़ल को उनकी ताज़ा क़लाम कहिए
11.
जो पल कर आस्तीनों में हमारी हमको डसते हैं
उन्हीं की जी-हुज़ूरी है,उन्हीं क्को ही नमस्ते हैं
ये फ़स्लें पक भी जाएँगी तो देंगी क्या भला जग को
बिना मौसम ही जिन पे रात-दिन ओले बरसते हैं
कई सदियों से जिन काँटों ने उनके पंख भेदे हैं
परिन्दे हैं बहुत मासूम उन्हीं काँटों में फँसते हैं
कहीं हैं ख़ून के जोहड़ , कहीं अम्बार लाशों के
समझ अब ये नहीं आता ये किस मंज़िल के रस्ते हैं
अभागे लोग है कितने इसी सम्पन्न बस्ती में
अभावों के जिन्हें हर पल भयानक साँप डसते हैं
तुम्हारे ख़्वाब की जन्नत में मंदिर और मस्जिद हैं
हमारे ख़्वाब में 'द्विज" सिर्फ़ रोटी- दाल बसते हैं.
12.
हुज़ूर, आप तो जा पहुँचे आसमानों में
सिसक रही है अभी ज़िन्दगी ढलानों में
ढली है ऐसे यहाँ ज़िन्दगी थकानों में
यक़ीन ही न रहा अब हमें उड़ानों में
जले हैं धूप में, आँगन में, कारख़ानों में
अब और कैसे गुज़र हो भला मकानों में
हुई हैं मुद्दतें आँगन में, वो नहीं उतरी
जो धूप् रोज़ ठहरती है सायबानों में
जगह कोई जहाँ सर हम छुपा सकें अपना
हम अब भी ढूँढ फिरते हैं संविधानों में
हज़ारों हादसों से जूझ कर हैं हम ज़िन्दा
दबे हैं रेत में मलबे में या खदानों में
उसे तू लाख चुपाने की कोशिशें कर ले
वो दर तो साफ़ है ज़ाहिर तेरे बयानों में
हुए यूँ रात से वाक़िफ़ कि शौक़ ही न रहा
सहर की शोख़ बयारों की दास्तानों में
चली जो बात चिराग़ों का तेल होने की
हमारा ज़िक्र भी आएगा उन फ़सानों में.
13.
जाने कितने ही उजालों का दहन होता है
लोग कहते हैं यहाँ रोज़ हवन होता है
मंज़िलें उनको ही मिलती है कहाँ दुनिया में
रात-दिन सर पे बँधा जिनके क़फ़न होता है
जब धुआँ साँस की चौखट पे ठहर जाता है
तब हवाओं को बुलाने का जतन होता है
खोटे सिक्के कि कोई मोल नहीं था जिनका
आज के दौर में उनका भी चलन होता है
बस यही ख़्वाब फ़क़त जुर्म रहा है अपना
ऐसी धरती कि जहाँ अपना गगन होता है.
14.
कटे थे कल जो यहाँ जंगलों की भाषा में
उगे हैं आज वही चम्बलों की भाषा में
सवाल ज़िन्दगी के टालना नहीं अच्छा
दो टूक बात करो फ़ैसलों की भाषा में
जो व्यक्त होते रहे सिर्फ़ आँधियों की तरह
वो काँपते भी रहॆ ज़लज़लों की भाषा में
नदी को पी के समन्दर हुआ खमोश मगर
नदी कि बहती रही कलकलों की भाषा में
हज़ार दर्द सहो लाख सख़्तियाँ झेलो
भरो न आह मगर घायलों की भाषा में
रहे न व्यर्थ ही चुप ठूँठ सूखे पेड़ों के
सुलग उठे वही दावानलों की भाषा में
भले ही ज़िन्दगी मौसम रही हो पतझड़ का
कही है हमने ग़ज़ल कोंपलों की भाषा में.
15.
पृष्ट तो इतिहास के जन-जन को दिखलाए गए
खास जो संदर्भ थे ,ज़बरन वो झुठलाए गए
आँखों पर बाँधी गईं ऐसी अँधेरी पट्टियाँ
घाटियों के सब सुनहरे दृश्य धुँधलाए गए
घाट था सब के लिए लेकिन न जाने क्यों वहाँ
कुछ प्रतिष्ठित लोग ही चुन- चुन के नहलाए गए
साथ उनके जो गए हैं लोग उनको फिर गिनो
ख़ुद-ब-खुद कितने गए और कितने फुसलाए गए
जब कहीं ख़तरा नही था आसमाँ भी साफ़ था
फिर परिन्दे क्यों यहाँ सहमे हुए पाए गए
आदमी को आदमी से दूर करने के लिए
आदमी को काटने के दाँव सिखलाए गए
ज़िन्दगी से भागना था 'द्विज', दुबकना नीड़ में
मंज़िलों तक वो गए जो पाँव फैलाए गए
16.
बेशक बचा हुआ कोई भी उसका 'पर' न था
हिम्मत थी हौसला था परिन्दे को डर न था
धड़ से कटा के घूमते हैं आज हम जिसे
झुकता कभी ये झूठ के पैरों पे सर न था
कदमों की धूल चाट के छूना था आसमान
थे हम भी बाहुनर मगर ऐसा हुनर न था
भूला सहर का शाम को लौटा तो था मगर
जाता कहाँ वो घर में कभी मुन्तज़र न था
सूरज का एहतराम किया उसने उम्र भर
जिसका कहीं भी धूप की बस्ती में घर न था
उसने हमें मिटाने को माँगी ज़रूर थी
यह और बात है कि दुआ में असर न था
मंज़िल हमारी ख़त्म हुई उस मुक़ाम पर
सहरा की रेत थी जहाँ कोई शजर न था.
17.
देख, ऐसे सवाल रहने दे
बेघरों का ख़याल रहने दे
तेरी उनकी बराबरी कैसी
तू उन्हें तंग हाल रहने दे
उनके होने का कुछ भरम तो रहे
उनपे इतनी तो खाल रहने दे
मछलियाँ कब चढ़ी हैं पेड़ों पर
अपना नदिया में जाल रहने दे
क्या ज़रूरत यहाँ उजाले की
छोड़, अपनी मशाल रहने दे
भूल जाएँ न तेरे बिन जीना
बस्तियों में वबाल रहने दे
कात मत दे रहा है आम ये पेड़
और दो -चार साल रहने दे
जिसको चाहे ख़रीद सकता है
अपने खीसे में माल रहने दे
वो तुझे आईना दिखाएगा ?
उसकी इतनी मज़ाल, रहने दे
काम आएँगे सौदेबाज़ी में
साथ अपने दलाल रहने दे
छोड़ ख़रगोश की छलाँगों को
अपनी कछुए =सी चाल रहने दे.
18.
उनका विस्तार ही नहीं होता
तू जो आधार ही नहीं होता
बीच मँझधार ही नहीं होता
तू जो पतवार ही नहीं होता
बंद मुठ्ठी में मोम रहता तो
स्वप्न साकार ही नहीं होता
मार खाता अगर न साँचे की
मोम आकार ही नहीं होता
हर क़दम पर ठगा गया फिर भी
तू ख़बरदार ही नहीं होता
जो शरण में गुनाह करता है
वो गुनहगार ही नहीं होता
बेच डालेंगे वो तेरी दुनिया
तुझ से इनकार ही नहीं होता
जो खबर ले सके सितमगर की
अब वो अखबार ही नहीं होता
मुन्तज़िर है उधर तेरा साहिल
फिर भी तू पार ही नहीं होता
जब परिन्दे कुतर सके पिंजरा
यह चमत्कार ही नहीं होता
जो मुखौटा कोई हटा देता
तो वो अवतार ही नहीं होता
'द्विज', तू इस ज़िन्दगी की बाहों में
क्यों गिरफ़्तार ही नहीं होता
19.
किसी के पास वो तर्ज़े -बयाँ नहीं देखा
सही-सही जो कहे दास्ताँ नहीं देखा
दिखा रहे हैं अभी इसको 'सोन-चिड़िया' ही
हमारी आँख से हिन्दोस्ताँ नहीं देखा
शराफ़तों के मुक़ाबिल हज़ार शातिर हैं
अब इस से सख्त कोई इम्तेहाँ नहीं देखा
तिलिस्मी रौशनी से जूझते भी क्या पंछी
कभी जिन्होंने खुला आस्माँ नहीं देखा
रहे वो काम पर आए-गए कई मौसम
कहीं फिर उन-सा कोई सख़्त-जाँ नहीं देखा
थे उसके हुक़्म के पाबन्द कटघरे सारे
डरेगा कटघरों से हुक़्मराँ नहीं देखा
उसे तो काटना था पेड़ बस महल के लिए
टिके थे पेड़ पर भी आशियाँ नहीं देखा
वो आ गया है हमें अब तसल्लियाँ देगा
हमारा आग में जलता मकाँ नहीं देखा
खड़े थे धूप में तनकर, बने रहे बरगद
सरों पे जिन के कोई सायबाँ नहीं देखा
उन्होंने बाँट दिया, मज़हबों में दरिया को
तटों को जोड़ता पुल दरम्याँ नहीं देखा
लिपट के ख़ुद से ही रोए बहुत अकेले में
कहीं जो दिल का कोई राज़दाँ नहीं देखा
पिलाए जो हमें पानी हमारे घर आकर
अभी किसी ने भी ऐसा कुआँ नहीं देखा
ये मुल्क बढ़ रहा है पूछिए न किस जानिब
बग़ैर मंज़िलों के कारवाँ नहीं देखा नहीं देखा
खुदाया, ख़ैर हो, बस्ती में आज फिर हमने
किसी के घेर से भी उठता धुआँ नहीं देखा
बहस के मुद्दओं में मौलवी थे, पंडित थे
वहाँ 'द्विज', आदमी का ही निशाँ नहीं देखा.
20.
नींव जो भरते रहे हैं आपके आवास की
ज़िन्दगी उनकी कथा है आज भी बनवास की
जिन परिन्दों की उड़ाने कुन्द कर डाली गईं
जी रहे हैं टीस लेकर आज भी निर्वास की
तोड़कर मासूम सपने आने वाली पौध के
नींव रक्खेंगे भला वो कौन से इतिहास की
वह उगी ,काटी गई, रौंदी गई, फिर भी उगी
देवदारों की नहीं औकात है यह घास की
वह तो उनके शोर में ही डूब कर घुट्ता रहा
क़हक़हों ने कब सुनी दारुण कथा संत्रास की
तब यक़ीनन एक बेहतर आज मिल पाता हमें
पोल खुल जाती कभी जो झूठ के इतिहास की
आपके ये आश्वासन पूरे होंगे जब कभी
तब तलक तो सूख जाएगी नदी विश्वास की
अनगिनत मायूसियों, ख़ामोशियों के दौर में
देखना 'द्विज', छेड़ कर कोई ग़ज़ल उल्लास की.
21.
आपकी कश्ती में बैठे , ढूँढते साहिल रहे
सोचते हैं अब कि हम तो आज तक जाहिल रहे
बस्तियों को जो मिला है आपसे ख़ैरात में
उसमें अक्सर नफ़रतों के ज़हर ही शामिल रहे
जब गुनहगारों के सर पर आपका ही हाथ है
वो तो मुंसिफ़ ही रहेंगे, वो कहाँ क़ातिल रहे ?
ज़िन्दगी कुछ आँकड़ों का खेल बन कर रह गई
और हम इन आँकड़ों का देखते हासिल रहे
मुद्दतों से हम तो यारो ! एक भारतवर्ष हैं
आप ही पंजाब या कश्मीर या तामिल रहे
आपसे जुड़ कर चले तो मंज़िलों से दूर थे
आपसे हट कर चले तो जानिब-ए-मंज़िल रहे.
22.
उसके इरादे साफ़ थे, उसकी उठान साफ़
बेशक उसे न मिल सका ये आसमान साफ़
बेशक लगे ये आपको भी आसमान साफ़
देखी नहीं वो पाँवों के नीचे ढलान साफ़
उनको है चाहिए यहाँ सारा जहान साफ़
घर साफ़, बस्ती साफ़, मकीन-ओ-मकान साफ़
नीयत ही साफ़ और न जब थी ज़बान साफ़
होता कहाँ फ़िर उनका कोई भी बयान साफ़
सारे गुनाह क़ातिलों के फिर करे मुआफ़
फिर करें सुबूत वो गुम सब निशान साफ़
घेरे हुए हुज़ूर को हैं जी-हुज़ूर जब
कैसे सुनेंगे प्रार्थना या फिर अज़ान साफ़
उसका क़ुसूर इतना ही था वो था चश्मदीद
आँखों से रौशनी गई मुँह से ज़बान साफ़ .
23.
सामने काली अँधेरी रात गुर्राती रही
रौशनी फिर भी हमारे संग बतियाती रही
स्वार्थों की धौंकनी वो आग सुलगाती रही
गाँव की सुंदर ज़मीं पर क़हर बरपाती रही
सत्य और ईमान के सब तर्क थे हारे-थके
भूख मनमानी से अपनी बात मनवाती रही
बेसहारा झुग्गियों के सारे दीपक छीन कर
चंद फ़र्मानों की बस्ती झूमती - गाती रही
खुरदरे हाथों से लेकर पाँवों के छालों तलक
रोटियों की कामना क्या-क्या न दिखलाती रही
रास्ता पहला क़दम उठते ही तय होने लगा
रास्तों की भीड़ बेशक उसको उलझाती रही.
24.
अगर वो कारवाँ को छोड़ कर बाहर नहीं आता
किसी भी सिम्त से उस पर कोई पत्थर नहीं आता
अँधेरों से उलझ कर रौशनी लेकर नहीं आता
तो मुद्दत से कोई भटका मुसाफ़िर घर नहीं आता
यहाँ कुछ सिरफिरों ने हादिसों की धुंध बाँटी है
नज़र अब इसलिए दिलकश कोई मंज़र नहीं आता
जो सूरज हर जगह सुंदर- सुनहरी धूप लाता है
वो सूरज क्यों हमारे शहर में अक्सर नहीं आता
अगर इस देश में ही देश के दुशमन नहीं होते
लुटेरा ले के बाहर से कभी लश्कर नहीं आता
जो ख़ुद को बेचने की फ़ितरतें हावी नहीं होतीं
हमें नीलाम करने कोई भी तस्कर नहीं आता
अगर ज़ुल्मों से लड़ने की कोई कोशिश रही होती
हमारे दर पे ज़ुल्मों का कोई मंज़र नहीं आता
ग़ज़ल को जिस जगह 'द्विज', चुटकुलों-सी दाद मिलती हो
वहाँ फिर कोई भी आए मगर शायर नहीं आता .
25.
फ़स्ल सारी आप बेशक अपने घर ढुलवाइए
चंद दाने मेरे हिस्से के मुझे दे जाइए
तैर कर ख़ुद पार कर लेंगे यहाँ हम हर नदी
आप अपनी कश्तियों को दूर ही ले जाइए
रतजगे मुश्किल हुए हैं अब इन आँखों के लिए
ख़त्म कब होगी कहानी ये हमें बतलाइए
कब तलक चल पाएगी ये आपकी जादूगरी
पट्टियाँ आँखों पे जो हैं अब उन्हें खुलवाइए
ये अँधेरा बंद कमरा, आप ही की देन है
आप इसमें क़ैद हो कर चीखिए चिल्लाइए
सच बयाँ करने की हिम्मत है अगर बाक़ी बची
आँख से देखा वहाँ जो सब यहाँ लिखवाइए
फिर न जाने बादशाहत का बने क्या आपकी
नफ़रतों को दूर ले जाकर अगर दफ़नाइए.
26.
सुबह-सुबह यहाँ मुरझाई हर कली बाबा !
ये दिन में रात-सी कैसी है अब ढली बाबा !
उतार फेंकेगा अपनी वो केंचली बाबा !
वो शख़्स जिसको समझता है तू वली बाबा !
हुए थे पढ़ के जिसे तुम कभी वली बाबा !
किताब आज वो हमने भी बाँच ली बाबा !
ख़्याल तेरे पुराने , नया ज़माना है
उतार फेंक पुरानी तू कंबली बाबा !
सियाह रात को हम दिन नहीं जो कह पाए
मची है तब से ही महफ़िल में खलबली बाबा !
गुज़ार दी है यूँ काँटों पे ज़िन्दगी हमने
न रास आएगी अब राह मखमली बाबा !
उन्होंने फेंक दिया ऐसे अपने ईमाँ को
कि जैसे साँप उतारे है केंचली बाबा !
गया ज़माना जहाँ ' झूठ ' 'सच' से डरता था
बना है झूठ का अब सच तो अर्दली बाबा !
हवा चली है ये कैसी कि सब के सीनों पर
हर इक ने तानी है बन्दूक की नली बाबा !
बयान अम्न के, खेतों में आग के गोले
समझ में आई नहीं बात दोग़ली बाबा !
सबूत गुम हुए सारे गवाह बी गुम-सुम
गुनाह पालने की अब हवा चली बाबा !
ये हर क़दम पे नया इक फ़रेब देती है
निगोड़ी ज़िन्दगी है कोई मनचली बाबा !
27.
जो लड़ें जीवन की सब संभावनाओं के ख़िलाफ़
हम हमेशा ही रहे उन भूमिकाओं के ख़िलाफ़
जो ख़ताएँ कीं नहीं , उन पर सज़ाओं के ख़िलाफ़
किस अदालत में चले जाते ख़ुदाओं के ख़िलाफ़
जिनकी हमने बन्दगी की , देवता माना जिन्हें
वो रहे अक्सर हमारी आस्थाओं के ख़िलाफ़
ज़ख़्म तू अपने दिखाएगा भला किसको यहाँ
यह सदी पत्थर-सी है संवेदनाओं के ख़िलाफ़
सामने हालात की लाएँ जो काली सूरतें
हैं कई अख़बार भी उन सूचनाओं के ख़िलाफ़
ठीक भी होता नहीं मर भी नहीं पाता मरीज़
कीजिए कुछ तो दवा ऐसी दवाओं के ख़िलाफ़
आदमी से आदमी, दीपक से दीपक दूर हों
आज की ग़ज़लें हैं ऐसी वर्जनाओं के ख़िलाफ़
जो अमावस को उकेरें चाँद की तस्वीर में
थामते हैं हम क़लम उन तूलिकाओं के ख़िलाफ़
रक्तरंजित सुर्ख़ियाँ या मातमी ख़ामोशियाँ
सब गवाही दे रही हैं कुछ ख़ुदाओं के ख़िलाफ़
आख़िरी पत्ते ने बेशक चूम ली आख़िर ज़मीन
पर लड़ा वो शान से पागल हवाओं के ख़िलाफ़
'एक दिन तो मैं उड़ा ले जाऊँगी आख़िर तुम्हें'
ख़ुद हवा पैग़ाम थी काली घटाओं के ख़िलाफ़.
28.
हर घड़ी रौंदा दुखों की भीड़ ने संत्रास ने
साथ अपना पर नहीं छोड़ा सुनहरी आस ने
आश्वासन, भूख, बेकारी, घुटन , धोखाधड़ी
हाँ, यही सब तो दिया है आपके विश्वास ने
उम्र भर काँधों पे इतना काम का बोझा रहा
चाहकर भी शाहज़ादी को न देखा दास ने
उस परिंदे का इरादा है उड़ानों का मगर
पंख उसके नोंच डाले हैं सभी निर्वास ने
अपने हिस्से में तो है इन तंग गलियों की घुटन
आपको तोहफ़े दिए होंगे किसी मधुमास ने
किस तरफ़ अब रुख़ करें हम किस तरफ़ रक्खें क़दम
रास्ते सब ढँक लिए हैं संशयों की घास ने
जल रहा था ' रोम ' , ' नीरो ' था रहा बंसी बजा
हाँ मगर, उसको कभी बख़्शा नहीं इतिहास ने.
29.
अब के भी आकर वो कोई हादसा दे जाएगा
और उसके पास क्या है जो नया दे जाएगा
फिर से ख़जर थाम लेंगी हँसती-गाती बस्तियाँ
जब नए दंगों का फिर वो मुद्दआ दे जाएगा
'एकलव्यों' को रखेगा वो हमेशा ताक पर
'पाँडवों' या 'कौरवों' को दाख़िला दे जाएगा
क़त्ल कर के ख़ुद तो वो छुप जाएगा जाकर कहीं
और सारे बेगुनाहों का पता दे जाएगा
ज़िन्दगी क्या ज़िन्दगी के साये न होंगे नसीब
ऐसी मंज़िल का हमें वो रास्ता दे जाएगा.
30.
दिल-ओ-दिमाग़ को वो ताज़गी नहीं देते
हैं ऐसे फूल जो ख़ुश्बू कभी नहीं देते
जो अपने आपको कहते हैं मील के पत्थर
मुसाफ़िरों को वो रस्ता सही नहीं देते
उन्हें चिराग़ कहाने का हक़ दिया किसने
अँधेरों में जो कभी रौशनी नहीं देते
ये चाँद ख़ुद भी तो सूरज के दम से क़ायम हैं
ये अपने बल पे कभी चाँदनी नहीं देते
ये ' द्रोण ' उनसे अँगूठा तो माँग लेते हैं
ये ' एकलव्यों ' को शिक्षा कभी नहीं देते.
31.
साथियो ! वक्तव्य को निर्भीक होना चाहिए
आपका हर शब्द इक तहरीक होना चाहिए
चाहते हैं वो निरंतर साज़िशें पलती रहें
इसलिए माहौल को तारीक होना चाहिए
खेत जो अब तक हमारे ख़ून से सींचे गए
दोस्त , बँटवारा उपज का ठीक होना चाहिए
लिखने वाला जिसको पढ़ने में स्वयं लाचार है
क्या क़लम को इस क़दर बारीक होना चाहिए
शब्द मर्ज़ी से चुनें , ये आपका अधिकार है
शब्द अर्थों के मगर नज़दीक होना चाहिए.
32.
दिल की टहनी पे पत्तियों जैसी
शायरी बहती नद्दियों जैसी
याद आती है बात बाबा की
उसकी तासीर , आँवलों जैसी
बाज़ आ जा, नहीं तो टूटेगा
तेरी फ़ितरत है आईनों जैसी
ज़िन्दगी के सवाल थे मुश्किल
उनमें उलझन थी फ़लसफ़ों जैसी
जब कभी रू-ब-रू हुए ख़ुद के
अपनी सूरत थी क़ातिलों जैसी
तू भी ख़ुद से कभी मुख़ातिब हो
कर कभी बात शायरों जैसी
ख़ाली हाथों जो लौट जाना है
छोड़िए ज़िद सिकंदरों जैसी
ज़िन्दगानी कड़कती धूप भी थी
और छाया भी बरगदों जैसी
आपकी घर में ' द्विज ' करे कैसे
मेज़बानी वो होटलों जैसी.
33.
इन बस्तियों में धूल-धुआँ फाँकते हुए
बीती तमाम उम्र यूँ ही खाँसते हुए
कुछ पत्थरों के बोझ को ढोना है लाज़िमी
जी तो रहे हैं लोग मगर हाँफते हुए
ढाँपे हैं हमने पैर तो नंगे हुए हैं सर
या पैर नंगे हो गए सर ढाँपते हुए
है ज़िन्दगी कमीज़ का टूटा हुआ बटन
बिँधती हैं उँगलियाँ भी जिसे टाँकते हुए
हमको क़दम-क़दम पे वो गहराइयाँ मिलीं
चकरा रही है अक़्ल जिन्हें मापते हुए
देता नहीं ज़मीर भी कुछ ख़ौफ़ के सिवा
डर-सा लगे है इस कुएँ में झाँकते हुए
इंसान बेज़बान -सी भेड़ें नहीं जिन्हें
ले जा सके कहीं भी कोई हाँकते हुए
कहने को कह रहा था बचाएगा वो हमें
अक्सर दिखा है वो भी यहाँ काँपते हुए.
34.
उनकी आदत बुलंदियों वाली
अपनी सीरत है सीढ़ियों वाली
हमको नदियों के बीच रहना है
अपनी क़िस्मत है कश्तियों वाली
ज़िन्दगी के भँवर सुनाएँगे
अब कहानी वो साहिलों वाली
हमपे कुछ भी लिखा नहीं जाता
अपनी क़िस्मत है हाशियों वाली
भूखे बच्चे को माँ ने दी रोटी
चंदा मामा की लोरियों वाली
आज फिर खो गई है दफ़्तर में
तेरी अर्ज़ी शिकायतों वाली
तू भी फँसता है रोज़ जालों में
हाय क़िस्मत ये मछलियों वाली
तू इसे सुन सके अगर, तो सुन
यह कहानी है क़ाफ़िलों वाली
वो ज़बाँ उनको कैसे रास आती
वो ज़बाँ थी बग़ावतों वाली
भूल जाते , मगर नहीं भूले
अपनी बोली महब्बतों वाली.
35.
मत बातें दरबारी कर
सीधी चोट करारी कर
अब अपने आँसू मत पी
आहों को चिंगारी कर
काट दु:खों के सिर तू भी
अपनी हिम्मत आरी कर
अपने दिल के ज़ख़्मों -सी
काग़ज़ पर फुलकारी कर
सारी दुनिया महकेगी
अपना मन फुलवारी कर
आना है फिर जाना है
अपनी ठीक तैयारी कर
मीठी है फिर प्रेम-नदी
मत इसको यूँ खारी कर.
36.
ज़िन्दगी से उजाले गए
द्वेष जब-जब भी पाले
बाँटने जो गए रौशनी
उनपे पत्थर उछाले गए
फ़स्ल है यह वही देखिए
बीज जिसके थे डाले गए
बुत बने या खिलोने हुए
लोग साँचों में ढाले गए
लोग फ़रियाद लेकर गए
डाल कर मुँह पे ताले गए
पाँवों नंगे , सफ़र था कठिन
दूर तक साथ छाले गए
लेकर आए जो संवेदना
वो क़फ़न भी उठा ले गए
मुँह लगीं इस क़दर मछलियाँ
ताल सारे खंगाले गए
अब सफ़र है कड़ी धूप का
पेड़ सब काट डाले गए
क़ातिलों के वो सरदार थे
क़ातिलों को छुड़ा ले गए
लोग थे सीधे-सादे मगर
कैसे हाथों में भाले गए
एक भी हल नहीं हो सका
प्रश्न लाखों उछाले गए
वो समंदर हुए उनमें जब
नद्दियाँ और नाले गए.
37.
कैसी रही बहार की आमद न पूछिए
इन मौसमों के साथियो मक़सद न पूछिए
ये तो ख़ुदा के राम के बंदे हैं इनसे आप
पूजा-घरों के टूटते गुंबद न पूछिए
इस युग में हो गया है चलन ' बोनसाई ' का
यारो, किसी भी पेड़ का अब क़द न पूछिए
है आज भी वहीं का वहीं आम आदमी
किस बात पर मुखर है ये संसद न पूछिए
ये ज़िंदगी है अब तो सफ़र तेज़ धूप का
वो रास्तों के पेड़ वो बरगद न पूछिए.
38.
अँधेरों की सियाही को तुम्हें धोने नहीं देंगे
भले लोगो ! ये सूरज रौशनी होने नहीं देंगे
तुम्हारे आँसुओं को सोख लेगी आग दहशत की
तुम्हें पत्थर बना देंगे , तुमें रोने नहीं देंगे
सुरंगें बिछ गईं रस्तों में, खेतों में, यहाँ अब तो
तुम्हें वो बीज भी आराम से बोने नहीं देंगे
घड़ी भर के लिए जो नींद मानो मोल भी ले ली
भयानक ख़्वाब तुमको चैन से सोने नहीं देंगे
जमीं हैं हर गली में ख़ून की देखो ,कई परतें
मगर दंगे कभी इनको तुम्हें धोने नहीं देंगे
अभी 'द्विज' ! वक़्त है रुख़ आस्थाओं के बदलने का
यहाँ मासूम सपने वो तुम्हें बोने नहीं देंगे.
39.
हाँफ़ता दिल में फ़साना और है
काँपता लब पर तराना और है
जुगनुओं-सा टिमटिमाना और है
पर दिए-सा जगमगाना और है
बैठ कर हँसना -हँसाना और है
नफ़रतों के गुल खिलाना और है
कुछ नए सिक़्क़े चलाना और है
और फिर उनको भुनाना और है
मार कर ठोकर गिराना और है
जो गिरें , उनको उठाना और है
ठीक है चलना पुरानी राह पर
हाँ , नई राहें बनाना और है
जो गया बीता न उसकी बात कर
आजकल यूँ भी ज़माना और है
ज़ात में अपनी सिमटना है जुदा
ख़ुशबुओं—सा फैल जाना और है
'द्विज' ! अकेले सोचना-लिखना अलग
बैठकर सुनना-सुनाना और है.
40.
राज महल के नग़्में जो भी गाते हैं
उन के दामन मुहरों से भर जाते हैं
ख़ाली दामन लोग शहर को जाते हैं
झोले में उम्मीदें भर कर लाते हैं
भीग रहे हैं हम तो सर से पाँवों तक
कैसे छप्पर , कैसे उनके छाते हैं
करते हैं बरसात की बातें सूखे में
और पानी की बूँदों से डर जाते हैं
ढल जाता है सूरज की उम्मीद में दिन
ऐसे भी तो फूल कई मुरझाते हैं
पाए हैं जो सच कहने की कोशिश में
अब तक उन ज़ख़्मों को हम सहलाते हैं
बस्ती के कुछ लोग ख़फ़ा हैं गीतों से
फिर भी हैं कुछ लोग यहाँ जो गाते हैं
'द्विज' जी ! कैसे कह लेते हो तुम ग़ज़लें ?
ये अनुभव तो आते-आते आते हैं.
41.
आसमानों में गरजना और है
पर ज़मीं पे भी बरसना और है
सिर्फ़ तट पर ही टहलना और है
और लहरों में उतरना और है
दिल में शोलों का सुलगना और है
और शोलों से गुज़रना और है
बिजलियाँ बन टूट गिरना और है
बिजलियाँ दिल में लरज़ना और है
रतजगे मर्ज़ी से करना और है
रोज़ नींदों का उचटना और है
है जुदा घर में उगाना कैक्टस
रोज़ काँटों में गुज़रना और है
ख़ुशबुओं से ढाँपना ख़ुद को जुदा
पर पसीने से महकना और है
इस घुटन में साँस लेना है अलग
आग सीने में सुलगना और है
जाम भर कर 'द्विज', पिलाना है जुदा
क़तरे-क़तरे को तरसना और है.
42.
सबकी बोली है ज़लज़ले वाली
क्या करें बात सिलसिले वाली
उनके नज़दीक जा के समझोगे
उनकी हर बात फ़ासिले वाली
अब न बातों में टाल तू इसको
बात कर एक फ़ैसले वाली
बात हँसते हुए कहें कैसे
यातनाओं के सिलसिले वाली
सीख बंदर को दे के घबराई
एक चिड़िया वो घौंसले वाली
कल वो अख़बार की बनी सुर्ख़ी
एक औरत थी हौसले वाली
वो अकेला ही बात करता था
जाने क्यों, रोज़ क़ाफ़िले वाली
फ़िक्र क़ायम रहा हज़ार बरस
'द्विज' की हस्ती थी बुलबुले वाली.
43.
पर्वतों जैसी व्यथाएँ हैं
'पत्थरों' से प्रार्थनाएँ हैं
मूक जब संवेदनाएँ हैं
सामने संभावनाएँ हैं
रास्तों पर ठीक शब्दों के
दनदनाती वर्जनाएँ हैं
साज़िशें हैं 'सूर्य' हरने की
ये जो 'तम' से प्रार्थनाएँ हैं
हो रहा है सूर्य का स्वागत
आँधियों की सूचनाएँ हैं
घूमते हैं घाटियों में हम
और काँधों पर ' गुफ़ाएँ ' हैं
आदमी के रक्त पर पलतीं
आज भी आदिम प्रथाएँ हैं
फूल हैं हाथों में लोगों के
पर दिलों में बद्दुआएँ हैं
स्वार्थों के रास्ते चल कर
डगमगाती आस्थाएँ हैं
ये मनोरंजन नहीं करतीं
क्योंकि ये ग़ज़लें व्यथाएँ हैं
छोड़िए भी…फिर कभी सुनना
ये बहुत लम्बी कथाएँ हैं.
44.
चार दिन इस गाँव में आकर पिघल जाते हैं आप
पर पहुँच कर शहर में कितने बदल जाते हैं आप
आपके अंदाज़ , हमसे पूछिए तो मोम हैं
अपनी सुविधा के सभी साँचों में ढल जाते हैं आप
आपके औक़ात की इतनी ख़बर तो है हमें
मार कर लँगड़ी हमें आगे निकल जाते हैं आप
कुश्तियों खेलों के चसके आपको भी खूब हैं
शेर बकरी पर झपटता है बहल जाते हैं आप
सिद्धियाँ मिलने पे जैसे मंत्र-साधक मस्त हों
शहर में होते हैं दंगे , फूल-फल जाते हैं आप
दूर तक फैली अँधेरी बस्तियाँ अब क्या करें
रौशनी की बात आती है तो टल जाते हैं आप
कारवाँ पागल नहीं जो आपके पीछे चलें
मंज़िलें आने से पहले 'द्विज' ! फिसल जाते हैं आप.
45.
कौंध रहे हैं कितने ही आघात हमारी यादों में
और नहीं अब कोई भी सौगात हमारी यादों में
वो शतरंज जमा बैठे हैं हर घर के दरवाज़े पर
शह उनकी थी , अपनी तो है मात हमारी यादों में
ताजमहल को लेकर वो मुमताज़ की बातें करते हैं
लहराते हैं कारीगरों के हाथ हमारी यादों में
घर के सुंदर-स्वप्न सँजो कर, हम भी कुछ पल सो जाते
ऐसी भी तो कोई नहीं है रात हमारी यादों में
धूप ख़यालों की खिलते ही वो भी आख़िर पिघलेंगे
बैठ गए हैं जमकर जो 'हिम-पात' हमारी यादों में
जलता रेगिस्तान सफ़र है, पग-पग पर है तन्हाई
सन्नाटों की महफ़िल-सी, हर बात हमारी यादों में
सह जाने का, चुप रहने का, मतलब यह बिल्कुल भी नहीं
पलता नही है कोई भी प्रतिघात हमारी यादों में
सच को सच कहना था जिनको आख़िर तक सच कहना था
कौंधे हैं ' द्विज ,' वो बनकर ' सुकरात ' हमारी यादों में .
46.
ये किताबें हिदायतों वाली
सिर्फ़ उनके ही फ़ायदों वाली
आदतें भी कभी बदलती हैं ?
छोड़ बातें ये पागलों वाली
तू पकड़ सिर्फ़ रास्ता अपना
सारी सड़कें हैं दो रुखों वाली
फिर भी तोले थे 'पर' परिंदे ने
गो हवाएँ थीं साज़िशों वाली
रास्ते 'झूठ' के रहे आसाँ
'सच' की राहें थीं मुश्किलों वाली
उनकी मासूमियत पे मत जाना
उनकी चालें हैं शातिरों वाली
अब वो परियाँ कहाँ से लाएँ हम
नानी-माँ की कहानियों वाली
घिर के बरसात में कही हमने
ग़ज़लें ख़ुशरंग मौसमों वाली.
47.
जो थे बुलंद सही फ़ैसले दिलाने में
वो लफ़्ज़ बन्द हैं दहशत के कारख़ाने में
जो याद आ गए बच्चे , ज़रूरतें घर की
तमाम दर्द गए भूल कारखाने में
चलो फिर आज भी फ़ाक़े उबाल लेते हैं
अभी तो देर है फ़स्ल-ए-बहार आने में
है सेज काँटों की अब और आसमाँ छत है
मिलेगा और भला क्या ग़रीबख़ाने में
जुड़ेंगी सीधे कहीं ज़िन्दगी से ये जाकर
भले ही ख़ुश्क़ हैं ग़ज़लें ये गुनगुनाने में
ग़ज़ल में शे'र ही कहना है 'द्विज' ! हुनरमन्दी
नया तो कुछ भी नहीं क़ाफ़िए उठाने में.
48.
चुप्पियों से ग़ज़ल बनाता है
और फिर शोर को सुनाता है
गाँवों में जब कभी वो आता है
रो के सब को यहाँ रुलाता है
वो जो सरदार है कबीले का
पानी माँगो तो आग लाता है
आदमी है नए ज़माने का
दोस्ती सबसे वो निभाता है
बन के बैठा है जो ज़माने पर
बोझ वो खुद कहाँ उठाता है
कालिजों में पढ़ा-लिखा सब कुछ
देखिए वक़्त क्या सिखाता है
बात करता है सिरफ़िरों जैसी
आँधियों में दिया जलाता है
खोदता है वो खाइयाँ अक्सर
लोग कहते हैं ' पुल बनाता है '
दर्द से भागकर कहाँ जाएँ
दर्द सबको गले लगाता है
आँकड़ों में बदल दिया सबको
अब उन्हें जोड़ता घटाता है
भीड़ की बात 'द्विज' नहीं सुनता
भीड़ में रास्ता बनाता है.
49.
उघड़ी चितवन
खोल गई मन
उजले हैं तन
पर मैले मन
उलझेंगे मन
बिखरेंगे जन
अंदर सीलन
बाहर फिसलन
हो परिवर्तन
बदलें आसन
बेशक बन-ठन
जाने जन-जन
भरता मेला
जेबें ठन-ठन
जर्जर चोली
उधड़ी सावन
टूटा छप्पर
सर पर सावन
मन ख़ाली हैं
लब `जन-गण-मन '
तन है दल-दल
मन है दर्पन
मृत्यु पोखर
झरना जीवन
निर्वासित है
क्यूँ 'जन-गण-मन'
खलनायक का
क्यूँ अभिनंदन
'द्विज' की ग़ज़लें
जय ' जन-गण-मन '.
50.
चुप्पियाँ जिस दिन ख़बर हो जाएँगी
हस्तियाँ ये दर-ब-दर हो जाएँगी
आज हैं अमृत मगर कल देखना
ये दवाएँ ही ज़हर हो जाएँगी
सीख लेंगी जब नये अंदाज़ ये
बस्तियाँ सारी नगर हो जाएँगी
सभ्य-जन हैं, आस्थाएँ , क्या ख़बर
अब इधर हैं , कब उधर हो जाएँगी
साहिलों से अब हटा लो कश्तियाँ
वर्ना तूफ़ाँ की नज़र हो जाएँगी
है निज़ाम-ए-अम्न पर तुम देखना
अम्न की बातें ग़दर हो जाएँगी
गर इरादों में नही पुख़्ता यक़ीं
सब दुआएँ बेअसर हो जाएँगी
मंज़िलों की फ़िक्र है गर आपको
मंज़िलें ख़ुद हमसफ़र हो जाएँगी
ज़िंदगी मुश्किल सफ़र है धूप का
हिम्मतें आख़िर शजर हो जाएँगी.
51.
एक चुप्पी आजकल सारे शहर पर छाई है
अब हवा जाने कहाँ से क्या बहा कर लाई है
जिस सड़क पर आँख मूँदे आपके पीछे चले
आँख खोली तो ये जाना ये सड़क तो खाई है
अब चिराग़ों के शहर में रास्ते दिखते नहीं
इन उजालों से तो हर इक आँख अब चुँधियाई है
ख़्वाब में भी देख पाना घर ग़नीमत जानिए
पूछिए हमसे, हमें तो नींद भी कब आई है
कुछ तो तीखी चीख़ डालेगी ही नींदों में ख़लल
पत्थरों के शहर से आवाज़ तो टकराई है
कंकरीले रास्तों में हमसफ़र के नाम पर
साथ ' द्विज ' के तिश्नगी है, भूख है, तन्हाई है.
52.
ज़िंदगी का गीत यूँ तो अब नए सुर-ताल पर है
फिर भी जाने क्यों हमारी हर ख़ुशी हड़ताल पर है
हादसे की वजह तो अब दोस्तो ! मिलती नहीं
आजकल मुजरिम कोई बैठा हुआ पड़ताल पर है
आँधियों में क्या करें अब अपने घर की बात भी हम
ये समझिये एक तिनका मकड़ियों के जाल पर है
कैसे अपनी बात लेकर आप तक पहुँचेंगे हम,जब,
मसखरों का एक जमघट आपकी चौपाल पर है
रास्तों या मंज़िलों की फ़िक्र तो है बाद में ' द्विज '
खेद पहले हमसफ़र की अनमनी-सी चाल पर है.
53.
सन्नाटे से बढ़कर बोली , सन्नाटों की रानी रात
संत्रासों की मूक चुभन को दे जाएगी बानी रात
दिन तो चुनेगा कंकर-पत्थर ,फिर बच्चों के जैसे ही
और कहेगी कोई क़िस्सा , बन जाएगी नानी रात
सारी गर्मी कुछ लोगों ने भर ली अपने झोले में
अपने हिस्से में आई है ले-देकर बर्फ़ानी रात
हमने भी दिन ही चाहा था , हम भी लाए थे 'सूरज'
जाने क्यों कुछ साथी जाकर ले आए वो पुरानी रात
जाने वो क्यों वो शहर में तब से, मारा-मारा फिरता है
यारो, उसने, जिस दिन से है , जाना दिन ,पहचानी रात
आँख में हो दिन का सपना तो आँखों में कट जाती है
' द्विज ', कुछ पल की ही लगती है फिर तो आनी-जानी रात .
54.
सूरज डूबा है आँखों में, आज है फिर सँवलाई शाम
सन्नाटे के शोर में सहमी बैठी है पथराई शाम
सहमे रस्ते थके मुसाफ़िर और अजब -सा सूनापन
आज हमारी बस्ती में है देखो क्या-क्या लाई शाम
' लौट कहाँ पाए हैं परिंदे आज भी अपने नीड़ों को '
बरगद की टहनी की बातें सुन-सुनकर मुरझाई शाम
साया-साया बाँट रहा है दहशत घर-घर , बस्ती में
सहमी आँखें, टूटे सपने और है इक पगलाई शाम
अभी-अभी तो दिन है निकला , सूरज भी है पूरब में
' द्विज ' ! फिर क्यों अपनी आँखों में आज अभी भर आई शाम .
55.
रात -दिन हम से तो है उलझती ग़ज़ल
उनकी महफ़िल में होगी चहकती ग़ज़ल
शोख़ियों के नशे में बहकती ग़ज़ल
सिर्फ़ बचकाना है वो मचलती ग़ज़ल
झूमती लड़खड़ाती ग़ज़ल मत कहो
अब कहो ठोकरों से सँभलती ग़ज़ल
ख़ामुशी साज़िशों के शहर की सुनो
फिर कहो साज़िशों को कुचलती ग़ज़ल
अब मुखौटों , नक़ाबों के इस दौर में
जितने चेहरे हैं सबको पलटती ग़ज़ल
देखिए इसमें सागर-सी गहराइयाँ
अब नहीं है नदी-सी उफ़नती ग़ज़ल
गुम बनावट की ख़ुश्बू में होती नहीं
ये पसीने -पसीने महकती ग़ज़ल
फिर युगों के अँधेरे के है रू-ब-रू
इक नई रौशनी-सी उभरती ग़ज़ल
दिन के हर दर्द से , रंज से जूझकर
रात को 'द्विज' के घर है ठहरती ग़ज़ल.
56.
जीवन के हर मोड़ पर अब तो संदेहों का साया है
नफ़रत की तहज़ीब ने अपना रंग अजब दिखलाया है
गाँवों में जो सब लोगों को इक -दूजे तक लाती थीं
किसने आकर उन रस्मों को आपस में उलझाया है
तुमने अगर था अम्न ही बाँटा ,राह, गली, चौरा्हों में
सुनते ही क्यों नाम तुम्हारा हर चेहरा कुम्हलाया है
सोख तटों को नदिया तो फिर सागर में मिल जाएगी
बेशक पूरे दम से बादल घाटी पर घिर आया है
जन-गण-मन के संवादों के संकट से जो लड़ती हैं
उन ग़ज़लों को कुछ लोगों ने पागल शोर बताया है
अब के भी आई आँधी तो बच्चों ! ज़ोर लगा देना
इस घर को पुरखों ने भी तो कितनी बार बनाया है
बातों का जादूगर है वो , सपनों का सौदागर भी
सदियों से भूखे-प्यासों को जिसने भी बहलाया है
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Janaab Dwij Sahib is daur ke safal
जवाब देंहटाएंaur mashhoor gazalkaar hain.Unkee
sabse badee khoobee hai ki ve badee
se badee baat ko seedhee-sadee
zaban mein kahne kee kalaa ko jaate
hain iseeliye unke bahut sare
ashaar suktian ban gaye hain.unkee
shayree jab bee padhtaa hoon to
sukun miltaa hai mujhko.
द्विज जी के बारे मे कुछ कहना सूरज को दिया दिखाने जैसा है.मुझे गर्व है कि वो मेरे उस्ताद है.
जवाब देंहटाएंdwij sahab ka Jan Gan Man dekh kar maza aaya. badhai. Mere bade Bhai aur Ustaad bhi hen vo.
जवाब देंहटाएंNavneet.
आज 'रचनाकार' पर 'द्विज' साहेब की ग़ज़लों का संकलन 'जन-गण-मन' और 'जहीर कुरेशी' की क़लम से भूमिका पढ़कर आनंद आगया। हिंदी-ग़ज़ल के बारे में जानकारी दी है, वास्तव में सराहनीय है।
जवाब देंहटाएंइसमें अतिशयोक्ति नहीं होगी कि दुष्यंत कुमार के बाद द्विजेन्द्र 'द्विज' ही वह शख़्स है जो हिंदी- ग़ज़ल की प्रगति में ही नहीं बल्कि ग़ज़ल को सामंती युग के हिज्र-विसाल, शमा-परवाना आदि प्रतिमानों के सीमित दायरे से निकाल कर नयापन देने में 'द्विज' साहेब का बहुत बड़ा योग है।
कंप्यूटर के मॉनीटर पर कुर्सी में बैठे बैठे पूरा
संग्रह पढ़ते हुए कितना आनंद आते है, इसका अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता जहां पन्नों को पलटने की भी ज़रूरत नहीं।
'जन-गण-मन' की सारी ग़ज़लें और भूमिका के 'रचनाकार' में प्रकाशित करने के लिए रवि भाई,
आपको अनेक धन्यवाद।
महावीर शर्मा
'जन-गण-मन' के रचयिता श्री द्विजेन्द्र 'द्विज' को बधाई हो!!!
जवाब देंहटाएंग़ज़लों का संकलन 'जन-गण-मन' और 'जहीर कुरेशी' जी की प्रस्तावना से सभी मंज़र साफ़ साफ़ हुए हैं और बस ताज़गी व रौनकी से लिपटी गज़ले सामने तैर रही है एक के बाद एक. हिंदी-ग़ज़ल के बारे में जानकारी पाई वह अलग. महावीर ने गागर को सागर में भरते हूए सच के सामने आइना रक्खा है ....
"इसमें अतिशयोक्ति नहीं होगी कि दुष्यंत कुमार के बाद द्विजेन्द्र 'द्विज' ही वह शख़्स है जो हिंदी- ग़ज़ल की प्रगति में ही नहीं बल्कि ग़ज़ल को सामंती युग के हिज्र-विसाल, शमा-परवाना आदि प्रतिमानों के सीमित दायरे से निकाल कर नयापन देने में 'द्विज' साहेब का बहुत बड़ा योग है।"
काबिले तारीफ़ यह ग़ज़ल का सफ़र ओर आगे बडता रहे इसी मागलकामना के साथ
देवी नागरानी
कितनी-कितनी बार पढ़ चुका हूं इन गज़लों को.मन भरता नहीं.तारीफ करने या उस लिहाज से कुछ भी कहने की तो हैसियत तक नहीं रखता मैं द्विज जी के सामने...बस चुपचाप पूजता हूं
जवाब देंहटाएंज़फ़र गोरखपुरी का शेर है-
जवाब देंहटाएंजिगर का क़तरा क़तरा कट के बहना
बहुत मुश्किल है अपना शेर कहना
'जन-गण-मन' के रचयिता श्री द्विजेन्द्र 'द्विज' को बधाई कि उन्होंने अपने शेर कहे हैं, अपनी ग़ज़ल लिखी है -
किसी के पास वो तर्ज़े -बयाँ नहीं देखा
सही-सही जो कहे दास्ताँ नहीं देखा
दिखा रहे हैं अभी इसको 'सोन-चिड़िया' ही
हमारी आँख से हिन्दोस्ताँ नहीं देखा .....
दरअसल अपने युगबोध को साथ लेकर चलना ही एक रचनाकार का धर्म होता है। द्विजेन्द्र 'द्विज' में यह रचनात्मक ईमानदारी भरपूर दिखाई देती है।