भीड़ के बीच अस्वीकृति में उठा हाथ एक दूसरी भोपाल गैस त्रासदी भी चुपचाप घटित होती रही -वीरेन्द्र जैन 2 दिसम्बर 2008 को भो...
भीड़ के बीच अस्वीकृति में उठा हाथ
एक दूसरी भोपाल गैस त्रासदी भी चुपचाप घटित होती रही
-वीरेन्द्र जैन
2 दिसम्बर 2008 को भोपाल गैस त्रासदी को हुये पूरे चौबीस साल बीत जायेंगे। इन सालों में गैस पीड़ितों के विभिन्न संगठनों द्वारा चलाये गये निरंतर संघर्ष के बाद आज से चार साल पहले उच्चतम न्यायालय ने यह फैसला दिया था कि रिजर्व बैंक में जमा 1503 करोड़ और रूपयों को गैस पीड़ितों में बांटा जाये। उनके आदेश का परिपालन किया गया और यह राशि वितरित की गयी।
1989 में अदालत के निर्देश पर यूनियन कार्बाइड और भारत सरकार के बीच हुये समझौते के अर्न्तगत लगभग 2350 करोड़ रूपये हर्जाना देने का फैसला लिया गया था। यह फैसला उस समय उपलब्ध गैस पीड़ितों के आंकड़ों के आधार पर लिया गया था जबकि बाद में किये गये सर्वेक्षण के अनुसार मृतकों की संख्या 15000 तथा पीड़ितों की संख्या 570926 पायी गयी। मार्च 1990 को सुप्रीम कोर्ट ने उपरोक्त गैस पीड़ितों को 200 रूपये प्रतिमाह अंतरिम राहत के रूप में देने का फैसला दिया था जबकि मई 1989 में सुप्रीम कोर्ट ने ही गैस पीड़ितों को दो भागों में बाँट कर एक ओर तीन हजार रूपया देने तथा गैस पीड़ितों की विधवाओं को 750 रुपया देने का फैसला दिया था। अंतरिम राहत राशि की देयता 1996 तक जारी रखी गयी। इस दौरान विभिन्न गैस अदालतों ने मामलों की जाँच की और अपने फैसलों में पीड़ितों की पाँच श्रेणियाँ बना कर न्यूनतम 25000 से अधिकतम तीन लाख रूपये तक मुआवजे के रूप में देने के आदेश दिये। इसी फैसले के अनुसार पूर्व में दी गयी अंतरिम राहत राशि का इस राशि में समायोजन कर लिया गया। इस बीच अक्टूबर 1991 में सुप्रीम कोर्ट ने पीड़ितों के उपचार के लिए एक बड़ा अस्पताल बनाने व यूनियन कार्बाइड के लापरवाह अधिकारियों/मालिकों के खिलाफ आपराधिक प्रकरण जारी रखने का फैसला दिया। पर अक्टूबर 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि मुआवजे की राशि का उपयोग किसी अन्य कार्य में नहीं हो सकता। कुल मिलाकर प्राप्त राशि में से 31 अक्टूबर 2003 तक 1530 करोड़ रूपये बांटे जा चुके थे। बाद में सन 2004 के दौरान 1503 करोड़ और वितरित किये गये। कोर्ट के निर्देश के अनुसार यह राशि दो सप्ताह के अन्दर ही वितरित की गयी।
इसी दौरान हुयी हलचल को तत्कालीन गैस राहत मंत्री बाबूलाल गौर ने हल करने के लिए नगर के बाकी बचे बीस वार्डों के लिए भी मुआवजे की मांग करने का शगूफा उछाल दिया वहीं दूसरी ओर गैस पीड़ित संगठनों ने मांग छेड़ दी थी कि मुआवजा राशि का वितरण वास्तविक गैस पीड़ितों के बीच ही होना चाहिये।
यह क्रूरतम दुखद घटना सन 1984 में घटित हुयी थी। इस घटना ने न केवल पन्द्रह हजार बेगुनाह लोगों की जान ही ली थी अपितु नगर के कई लाख लोगों को विभिन्न तरह के रोगों और अपंगता का शिकार भी बनाया था। भोपाल नगर की पूरी आबादी को भय और आतंक से मानसिक पीड़ा पहुँचायी तथा मृतकों और बीमारों के रोजगार बन्द हो जाने से नगर की अर्थ व्यवस्था पर विपरीत असर पड़ा था। भोपाल में नये उद्योग धन्धे स्थापित करने के लिए आने वालों का प्रवाह रूक गया था तथा जलवायु में व्याप्त हो गये प्रभाव से बचने के लिए अनेक लोगों ने भोपाल छोड़ कर जाने का मन बना लिया था।
भोपाल गैस काण्ड एक भयंकर त्रासदी थी जिसका रोंगटे खड़ा कर देने वाला विवरण बार बार विभिन्न सूचना माध्यमों द्वारा बताया गया है। किंतु इस घटना के बाद की त्रासदी इससे भी अधिक भयंकर रही। इस गैस काण्ड ने इस खूबसूरत शहर की आबोहवा ही खराब नहीं की अपितु इसके बाद के मुआवजा काण्ड ने शहर के सामाजिक व्यवहार चरित्र और अर्थतंत्र को ही खराब करके रख दिया। खेद है कि इस त्रासदी पर ना तो अब तक कोई ध्यान दिया गया और ना ही दिया जा रहा है।
1984 से 1989 के बीच जब घातक गैस का प्रभाव निरंतर लोगों की जानें ले रहा था तब राज्य शासन द्वारा छुटपुट सम्भव सहायता ही प्रदान की गयी तथा इसी बीच गम्भीर रूप से पीड़ित हुये सैकड़ों व्यक्ति काल कवलित हो गये। जब 1989 में भारत सरकार और यूनियन कार्बाइड के बीच समझौता हो गया तब इस क्षेत्र में एकदम नयी गतिविधियाँ देखने को मिलने लगीं। इस दौरान गैस पीड़ितों के बीच ऐसे अनेक संगठन और नेता पैदा हो गये जिनकी उपस्थिति 1984 से 1989 के बीच कहीं भी नहीं थी।
गरीब बस्ती के जिस निचले क्षेत्र पर गैस का सर्वाधिक प्रभाव पड़ा था वहाँ अधिकतर अल्पसंख्यक समुदाय के लोग रहते थे। इस समुदाय के लोगों को अचानक मुआवजे के रूप में बड़ी राशि प्राप्त हो जाने की संभानाओं ने बहुसंख्यक समुदाय के साम्प्रदायिक संगठनों के कान खड़े कर दिये। इसकी प्रतिक्रिया के रूप में इन संगठनों ने अपने समुदाय के लोगों को ‘गैस पीड़ित बनवाने' और उस आधार पर अपने संगठन के विस्तार की योजनाएं बनाना शुरू कर दीं। इस गतिविधि से अल्पसंख्यक समुदाय के चुनावी नेता भी हरकत में आ गये और उन्होंने अपने समुदाय के लोगों को तलाश तलाश कर ‘‘गैस पीड़ित'' बनवाना शुरू कर दिया। दुर्भाग्य से यह वह समय भी था जब कुल दो सीठों पर सिमट गयी भाजपा ने थोड़े समय के लिए अपनाये गांधीवादी समाजवाद के नारे से पीछा छुड़ा कर अपने जनसंघ काल का हिंदुत्व वाला पुराना मार्ग पकड़ लिया था तथा भूले बिसरे रामजन्म भूमि मन्दिर विवाद के सहारे आन्दोलन चलाने व साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करके सत्ता में आने के सपने देख रही थी। गैस मुआवजा के आधार पर जनित लालच ने झूठे गैस पीड़ितों के बीच उसे एक बड़ा आधार बनाने में मदद मिली तथा व्यापारी वर्ग और पंडितों की पार्टी के नाम से जानी जाने वाली इस पार्टी को गरीबों व पिछड़ी दलित जातियों में घुसपैठ का अवसर दिया।
1992 में हुये साम्प्रदायिक दंगों में इस ध्रुवीकरण का बहुत बड़ा हाथ रहा है और तब ही से साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए मशहूर भोपाल से भाजपा का सांसद चुना जा रहा है। दूसरी ओर पुराने लोग बताते हैं कि कामरेड शाकिर अली खान व उन कैफ भोपाली के शहर में जो कहा करते थे कि ‘‘ ये दाढियाँ ये तिलकधारियाँ नहीं चलतीं, हमारे शहर में मक्कारियाँ नहीं चलतीं'' इतनी अधिक संख्या में जालीदार गोल टोपियाँ लगाये मस्जिद जाने वाले लोग उन्होंने पहले कभी नहीं देखे।
आंकड़े बताते हैं कि 1984 से 1989 तक गैस पीड़ितों की संख्या एक लाख पाँच हजार थी वहीं समझौते के बाद यह पाँच लाख सत्तर हजार नौ सौ छब्बीस हो गयी। इस बीच मुआवजा वंचित लोगों के बीच से यह माँग भी शुरू हुयी कि गैस काण्ड के प्रभाव से न केवल पूरे भोपाल के आर्थिक हित ही प्रभावित हुये हैं अपितु इस गैस का असर हवा और पानी में मिलकर पूरे भोपाल के निवासियों को प्रभावित कर रहा है इसलिए मुआवजा राशि का भुगतान सम्पूर्ण भोपाल नगर के निवासियों के बीच होना चाहिये। चुनावी राजनीति करने वाले राजनीतिक दलों ने इस मांग को बिना सोचे विचारे समर्थन दिया तो दूसरी ओर घोषित गैस पीड़ितों ने इससे असहमति दर्षायी।
मुआवजा, हो गये नुकसान की वास्तविक भरपाई और भविष्य में पड़ने वाले प्रभाव से बचाने के अनुसार ही दिया जाता है या दिया जाना चाहिये किंतु 1991 से 1996 के बीच जो राशि बांटी गयी उसका मुआवजे से कुछ भी लेना देना नहीं था। (इन पंक्तियों का लेखक स्वयं बैंक अधिकारी के रूप में मुआवजा वितरण से जुड़ा रहा है व उसे कम से कम दो हजार फाइलें देखने का अवसर मिला है) जिन लोगों ने दस हजार की राशि मांगी थी उन्हें भी फैसले के अनुसार पच्चीस हजार न्यूनतम दिये गये और गम्भीर रूप से पीड़ित व्यक्तियों को भी पच्चीस से पचास हजार तक ही दिये गये। आर्थिक, सामाजिक और मानसिक नुकसान का कहीं कोई मूल्यांकन ही नहीं हुआ। सन 2004 के फैसले के अनुसार भी इन्हीं लोगों में इतनी ही राशि और वितरित की गयी।
कम शिक्षित और लम्बी खानापूर्ति से अनभिज्ञ लोगों की कागजी कार्यवाही करने के लिए वकीलों का बड़ा समूह सामने आया जिसने समुचित फीस लेकर अच्छी खासी आय अर्जित की। दावा दायर करने के लिए आवश्यक राशनकार्ड, जो वास्तविक पीड़ितों के सचमुच गुम हो गये थे तथा जिनके पास पहले से ही नहीं थे, उनके तैयार करने का धन्धा बड़े पैमाने पर हुआ तथा इसमें लाखों का बारा न्यारा हुआ। इलाज करने वाले डाक्टरों ने झूठे मेडिकल प्रमाण पत्र बनाये और आश्चर्य की चीज होगी कि एक एक डाक्टर ने एक दिन में हजारों लोगों के इलाज का दावा ही नहीं किया अपितु सबका हिसाब भी रखा और घटना के सालों बाद उसी अनुसार उन्हें प्रमाण पत्र भी दिये। जो लोग गैस प्रभावित वार्डों से नहीं थे उनमें से हजारों लोग सपरिवार ‘र्दुसंयोग' से उसी दिन गैस प्रभावित क्षेत्र में आयोजित किसी विवाह समारोह में गये थे व जहाँ रात्रि बारह बजे के बाद तक रहे थे। प्रमाण स्वरूप सबने विवाह का निमंत्रण पत्र सुरक्षित रखा था व उसे अपने आवेदन के साथ लगाया हुआ था। एक विवाह में एक ही वार्ड के विभिन्न जाति धर्म व आय वर्ग के हजारों लोगों का सम्मिलित होना भी रिकार्ड का हिस्सा है।
घटना के बारह साल बाद दिये गये मुआवजे की रकम को तीन महीने के लिए फिक्सड डिपाजिट के रूप में रखने का नियम बनाया गया था जिसे कुछ विशेष परिस्थितियों में गैस कोर्ट समयपूर्व भुगतान का आदेश दे सकती थी। राशि को जल्दी प्राप्त करने के लिए उत्सुक व्यक्तियों की सहायता के लिए वकील उपलब्ध थे जो अनेक प्रकरणों में ठीक ठाक फीस वसूल कर अदालत से आदेश प्राप्त कर लेते थे। कहने की जरूरत नहीं कि यह सुविधा यों ही नहीं मिल जाती रही।
इतना समय गुजर जाने के बाद मुआवजे के रूप में प्राप्त धनराशि बहुत से लोगों के लिए अप्रत्याशित थी। एक एक घर में लाखों रूपये पहुँचे थे। इस राशि ने जमीनों और मकानों के भाव बढ़ा दिये थे। उन दिनों गैस कनेक्शन सहज सुलभ नहीं था इसलिए गैस सिलैंडर पर ब्लैक की राशि बहुत बढ़ गयी थी। उपभोक्ता बाजार का तेजी से विकास हुआ। टीवी, फ्रिज व वाशिंग मशीनें खूब बिंकीं। यही हाल फर्नीचर और सजावट के सामानों का हुआ। सबसे अधिक लाभ शराब के ठेकेदारों और बार चलाने वालों का हुआ। आबकारी ठेकों की राशि अप्रत्याशित रूप से बढ़ गयी थी। मजदूरी करने वालों में आत्मविश्वास बढ़ गया था परिणामस्वरूप उनकी मांगें भी। वाहनों की संख्या में भी तेज वृद्धि दर्ज की गयी थी जिसका प्रभाव ट्रैफिक पर भी पड़ा। कुल मिला कर वह सब कुछ बढ़ा जो सहज धन उपलब्ध होने पर समाज में बढ जाता है। पर जो एक लाख लोग वास्तव में गम्भीर समस्याओं से ग्रस्त थे उनको वह राशि और सुविधाएं नहीं मिल पायीं जिसके वे हकदार थे, और ना ही शहर में व्याप्त हो गये प्रदूषण से मुक्ति के कुछ ठोस उपाय ही हुये। वही कुछ हुआ जो खोटे सिक्कों के प्रचलन में आने पर चोखे सिक्कों के साथ होता है। मँहगाई एकदम तेजी से बढ़ी और पैसा व्यापारिक केन्द्रों में सिमटने लगा।
गैस त्रासदी के पीड़ित लोगों के संगठन जिस तेजी के साथ पैदा हुये व उसमें जो लोग सामने आये उसमें से अनेक कभी किसी सेवा कार्य में नहीं देखे गये ।इन संगठनों के लोगों की आर्थिक दशा में आश्चर्यजनक सुधार देखने को मिला तथा साइकिल से चलने वाले कारों से चलने लगे। नव साम्राज्यवादी देशों की जिन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के खिलाफ एक वातावरण तैयार होकर पूरे देश में फैल सकता था वह सच्चे और झूठे मुआवजे में सिमट कर रह गया। जो लोग आन्दोलन चला सकते थे वे एन जी ओ चलाने लगे तथा ग्रान्ट बटोरने लगे।
यह तय है कि घटना के चौबीस साल बाद बीमारी झेलने वाले अधिकांश गम्भीर रोगी चल बसे हैं तथा जो लोग गत बीस सालों से अपने इलाज की जो जैसी व्यवस्था कर रहे हैं उसमें नये प्राप्त धन से लाभान्वित होकर और अच्छी इलाज व्यवस्था प्राप्त करने वाले लोग बहुत कम संख्या में शेष होंगे।
यह मुआवजे की त्रासदी एक दूसरी त्रासदी थी और ये कम बड़ी नहीं थी किंतु डालरों की चकाचौंध ने इसके खिलाफ प्रतिरोध की दिशा ही बदल दी। रोचक यह भी है कि 2008 के विधानसभा चुनावों में किसी भी दल ने गैस त्रासदी जैसी घटनाओं के न होने देने के सवाल को चुनावी मुद्दा नहीं बनाया व उसे लगभग भूल ही गये। केवल बाबू लाल गौर का इस आधार पर विरोध किया गया कि उन्होंने अभी तक शेष वार्डों को गैस पीड़ित घोषित कराने का जो वादा किया था उसे पूरे कराने के लिए कुछ नहीं किया।
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वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल म.प्र.
माननीय, चूंकि इन लोगों से कोई वोट बैंक नहीं बनता, इसलिये इन्हें कहां से न्याय मिलेगा.
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