‘नेपथ्य’ में वन-डे का टेस्ट मैच -- अनुज खरे अ बे, बस जरा बल्ला अड़ा भर दिया होता, हां ठीक कह रहे हो साले विज्ञापनों में ही दबाए रहते...
‘नेपथ्य’ में वन-डे का टेस्ट मैच
-- अनुज खरे
अ बे, बस जरा बल्ला अड़ा भर दिया होता, हां ठीक कह रहे हो साले विज्ञापनों में ही दबाए रहते हैं आंखें, कहा दिखेगी बॉल उड़ गईं ना गिल्लियां। देखना अब ये जा रहा है स्पिनर के सामने देखना कैसा डांस करेगा। पूरी गंभीरता से कोई दो टीवी के सामने खिलाडियों को खेलना सिखा रहे थे। भारत में यही तो खास बात है। क्रिकेट की इतनी प्रचुर मात्रा में प्रतिभाएं पड़ी हुईं हैं कि जो मैदान पर नहीं है वो उन्हें टीवी पर खेलने सिखाने का दायित्व निभाते रहते हैं। कुछ कहो तो कहेंगे कोई पैसा थोड़ी ना ले रहे हैं फ्री में ही बता रहे हैं कि इस बॉल पर थोड़ा हटकर स्क्वायर कट मारना था। देखते भी नहीं हैं कि कैसे तो वह ऑफ स्टंप पर अटैक रखे हैं। इन्हें देखो दिमाग चलाते ही नहीं हैं। सारे समय दिमाग में तो एड मनी का जोड-घटाना चलता रहता है। पूरा खेल ही साले पैसे की पिच पर खेलते रहते हैं।
एक उसे देखो जब से उस ब्रैंड के विज्ञापन में आया है रन ही नहीं बना रहा है। बना तो रहा है किसी ने कहा नहीं कि फिर ये विशेषज्ञ बता देंगे कि चच्चा-बुढ़ा गया है तुम्हारा चहेता द्राविड़। रन तो बनाता नहीं टीम में डुंसे रहने की जुगाड़ में ही लगा रहता है। एक इन्हें देखिए, ये भी सचिन को रन बनाना सिखा रहे हैं। कोई पूछे भैइया वो तो सालों से खेल रहा है, हजारों रन बना चुका है। तुम कहां तक खेले हो, कितने रन बनाए हैं। तो देखिए जवाब क्या मिल रहा है। कहीं खेले भले ही न हों खेल तो देखे हैं और सारे दिन देखे हैं। बचपन से आज तक सिर्फ खेल ही तो देखे हैं, ग्राउंड-ग्राउंड की खाक छानी है।
सचिन तो रन बनाने और पैसे कमाने में लगा रहता है। फिर जब मैदान पर खेल भी रहा होता है तो क्या उसे दिखता है रिप्ले, हम देखते हैं हम। तभी तो पता चलती हैं गलतियां। फिर चिल्ला-चिल्ला कर यहां गला फाड़ते रहते हैं। सुनेगा थोडे ही... अब उन्हें कौन समझाए अबे, बावले टीवी के सामने चिल्लाओगे तो कैसे तो वो सुनेगा, कैसे तो तुम्हारी बात मानेगा। फिर एक नहीं सैकडों लगे पड़े हैं टीवी के सामने.... सबकी सुनेगा तो बहरा ही न हो जाएगा, सचिन को ही क्रिकेट की बारीकियां सिखाने की उत्कंठा। ये ही ऐसे नहीं है मैचों में तो पूरा स्टेडियम ही शिक्षक होने के महान दायित्व को निभाने लगता है। एक बार आप मैच देख तो लो, आपको पता चल जाएगा। इस राष्ट्र में जिज्ञासु छात्र कम क्यों हैं? इसलिए कम हैं कि सारे के सारे तो पार्ट टाइम शिक्षक हैं। अकसर मैच होते हैं। सारा जरूरी काम छोड़कर फिर सारे संविदा शिक्षक की भूमिका में उतर आते हैं।
देश के सम्मान का प्रश्न है भाई। सारे काम एक तरफ छोड़कर जान लगा देंगे। कोई सीखे ना सीखे ये सिखाने में कोई कसर बाकी नहीं रखेंगे। मैचों में आप आम घर का नजारा देखो, पूरा घर टीवी के सामने। जो ज्यादा प्रेमी है वो तो हर शॉट पर चीख-चीख कर लोटन कबूतर होता रहता है। मैचों वाले दिन घर के कुत्ते-पिल्लों की हालत खराब रहती है। उन्हें भी मालिक के साथ भौंक-भौंक कर अपनी खुशी प्रकट करनी पड़ती है। स्वामीभक्ति के शाश्वत रिप्रजेंटेटिव होने की परंपरा का पालन करना है। हालांकि वे तय ही नहीं कर पाते कि ऐसा अपना मालिक काहै पगलौट हुआ जा रहा है। कई सीनियर किस्म के कुत्ते तो इस सिचुएशन से ट्यूनिंग बैठा चुका हैं। वे मालिकों की ऐसी भयंकर खुशी प्रकट करने के क्षणों में भी संयमित बने रहकर सिर्फ पूंछ हिलाकर काम चला देते हैं।
मालिक ज्यादा खुश हुआ तो टीवी पर देखकर सामने वाले खिलाडी पर ही भौंक दिया। वे खेल में ज्यादा टांग नहीं अड़ाते, मालिक पर नजर रखते हैं। कई मामलों में मालिक से भी ज्यादा व्यावहारिक होते हैं। खिलाडी को खेल के पैसे, विज्ञापन के पैसे, जीते तो जनता से पैसे, हारे तो कहीं और से भी पैसे यानि हर ओर से पैसे मिलते हैं। हमारा मालिक क्यों वैसई बेगानी शादी में अब्दुल्ला टाइप दीवाना हुआ जा रहा है, इस पर ज्यादा दिमाग नहीं लगाते। इस कारण वे टीवी से ज्यादा मालिक पर नजर रखते हैं। मालिक उनके आईक्यू लेबल को नहीं जानता। वे बताना भी नहीं चाहते रोटी-पानी का जुगाड़ बना रहे इतना जरूरी है उनके लिए, इसलिए चेहरे पर भोलेपन-मूर्खता की ताजगी भरी चमक हमेशा रखते हैं। इसलिए कुत्तों का वफादारी ब्रांड्स सदियों से साख कायम रखे है।
खिलाडियों का तो ब्रांड्स आदि का मामला लंबा नहीं है, वे जानते हैं। कुत्ते हैं इसलिए इन फिजूल की बातों पर भौंकते नहीं हैं। हल्की सी पूंछ हिलाकर ही मुद्दा उड़ा देते हैं। बात चल रही है मालिकों की, मालिक डूबे हैं किक्रेट में, क्रिकेटर डूबे हैं खेल में, खेल उगल रहा है पैसा, पैसा बना रहा है हमें क्रिकेट शक्ति, शक्ति मिलने पर हम कर सकते हैं मनमानी, मनमानी करने की हमारी आदत नहीं ऐसा हम क्लेम करते हैं, क्लेम हम जीतने का भी करते हैं, इस क्लेम के अगेंस्ट हम दावा करते हैं सदियों से सामने वाले की खुशी में हमारी खुशी का, तो उसे जीत जाने देते हैं, इस खेल हमारे लिए जीत हार से ज्यादा खुशी का मामला है। और रोटी-पानी का जुगाड़ चलता रहे कुत्तों की खुशी इसमें है। पूरे दृश्य पर हम कोई टिप्पणी नहीं कर रहे हैं।
लेकिन ए प्लस बी एजीक्यूल टू... जैसा सीधा-साधा समीकरण ऐसा बता रहा है। खैर, जाने दीजिए। समीकरणों की कौन परवाह करता है। समीकरण तो किताबों के लिए होते हैं। लेकिन भाई साहब आंकड़ों की किताब तो हमारी हार के आंकड़ों से भरी है, किसी ने कहा। होगी, लेकिन हारकर भी हमने कितनों के दिल जीते हैं आपको पता है कि नहीं? पता भी होगा तो आप बोलोगे थोड़ी ना, राष्ट्रप्रेम के नाम पर तो सबकी बोलती बंद नहीं हो जाती है। बाकी सारे मामलों पर हम कितना मुंह चलाते हैं देश की बात आते ही चुप्पी साध जाते हैं। अरे, तो हमारे इन बडे खिलाडियों के बल्ले भी तो चुप्पी साधे बैठे हैं, ये टीम पर बोझ बन गए हैं बोझ। अबकी बार पान की दुकान के पास से एक्सपर्ट कमेंट आया। फिर दूसरे ने बोला- अरे, वो गांगुली कल कैसा बच्चों जैसा शॉट मारकर आउट हुआ। नंबरी है नंबरी एकाध मैच में अच्छा खेल लिया अगले 5-1॰ मैचों की व्यवस्था बैठा ली फिर शुरू कर दिया घटिया शॉट मारना। इसे तो सन्यास दिलवाओ।
दूसरा भी उसकी हां में हां में शुरू, ठीक कह रहे हो भिया, इतने तो बाहर बेंचों पर बैठे हैं जब तक ये हटेंगे नहीं दूसरे को मौका कहां से मिलेगा। ये तो पट्टा लिखाकर लाए हैं कि लाठी टेकने की उमर तक मैदान में ही दिखेंगे,भले ही कोई तो इन्हें कंधों पर ढोकर पिच तक छोड़ जाए। पान की पिचकारी के साथ विशेषज्ञता की उगाल भी फच्च से बैनर रूप में दीवार पर जा सजी। अरे,गांगुली तो फिर भी खेलता है उन्हें देखो द वॉल को दीवार ही धसक गई है। वे मिस्टर वैरी-वैरी स्पेशल हैं। आम मौकों पर काम नहीं आते, स्पेशल मौकों पर चलने लगते हैं। स्पेशल मौके भी कौन से जब टीम की हार तय हो चुकी हो तो पिच पर ठहरकर दर्शकों को और रुलाएंगे। हार का अंतर कम करने में अपना स्पेशल टैलेंट दिखाएंगे।
इतने में किसी की प्रतिवादनुमा आवाज भी आ जाती है- ...तो तुम्हारे वे यंग टैलेंट क्या कर रहे हैं? एकाध मैच में चलते हैं। फिर एकाध कायदे का फॉस्ट बॉलर आते ही सारा टैलेंट मैदान पर ही पसर जाता है। सब स्पिनरों के खिलाफ ही उछलते हैं? तेज गेंदबाजों को खेलते समय तो घिग्घी बंध जाती है। वो तो हमारे बुढ़ापे हैं जो चल जाते हैं, नहीं तो क्या करेगा टैलेंट...? बस ऐसा होते ही एक अलग ही युद्ध छिड़ जाता है। सब एक-दूसरे पर राशन पानी लेकर पिल जाते हैं। उन बिचारे खिलाडियों को तो पता तक नहीं कि उनके पीछे दो-चार खेत रहे... तीन-चार के माथे फूट गए... इन अज्ञात शहीदों को किसी स्तर पर सम्मान भी तो नहीं मिलता? लेकिन मजाल है कि सम्मान की जरा सी भी भावना दिखाए ये तो निस्वार्थ भाव से अपने तरफ वाले खिलाडी के पक्ष में डटे रहते हैं। उधर वन-डे शुरू होता है, इधर ये टीमें भी बांट जाती हैं, देश में जगह-जगह टेस्ट शुरू हो जाता है... लोगों का लोगों से ... टीम के लिए ... हर बार यही किस्सा... अनवरत... आगे भी अनवरत...।
इति।
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संपर्क:
अनुज खरे
सी-175
मॉडल टाउन
जयपुर
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