(कोश, समांतर कोश और द पेंगुइन इंग्लिश-हिंदी/हिंदी-इंग्लिश थिसारस ऐंड डिक्शनरी के रचयिता अरविंद कुमार का यह विशेष आलेख वर्तमान भारत के द्वंद्...
(कोश, समांतर कोश और द पेंगुइन इंग्लिश-हिंदी/हिंदी-इंग्लिश थिसारस ऐंड डिक्शनरी के रचयिता अरविंद कुमार का यह विशेष आलेख वर्तमान भारत के द्वंद्व, संघर्ष और टकराव युक्त सामाजिक स्थिति को बेहद पैनेपन के साथ चित्रित करता है. आत्मावलोकन हेतु प्रत्येक भारतीय के लिए आवश्यक रूप से पठनीय)
लंदन में अँगरेजी के महान कोशकार जानसन के घर के बाहर अरविंद कुमार
लेखक वरिष्ठ पत्रकार रहे हैं। अनेक नाटकों के सफल अनुवादक हैं। नाटक और फ़िल्म जगत से निकट संबंध से बहुत कुछ सीखा है। आजकल स्वतंत्र रूप से कोश निर्माण में व्यस्त रहते हैं।
(G लक्ष्मी जी के चरण चिह्न).
दीवाली पर विशेष
वर्तमान भारत के द्वंद्व...
लक्ष्मीजी के चरण घर घर पहुँचाने के लिए
भारत के टकराते बढ़ते क़दम
द्वंद्व, संघर्ष, टकराव जीवन की, प्रगति की पहली शर्त हैं। सृष्टि के आरंभ से हर जीवजाति, वनस्पति, समूह, इकाई आपस में टकराते लड़ते भिड़ते कमज़ोर के विध्वंस और मज़बूत के उत्कर्ष के साथ आगे बढ़ते रहे हैं।
ये बड़ी बड़ी वैज्ञानिक सिद्धांत की बातें वैज्ञानिकों विचारकों के पल्ले डाल कर हम आधुनिक भारत के टकरावों पर नज़र डालें। आज के भारत की शुरूआत मैं सन '47 से मान कर चलता हूँ। तब मैं 17 साल का था... देशभक्ति से भरपूर, दिल्ली कांग्रेस में छोटे से स्वयंसेवक के तौर पर सक्रिय... उस साल की 14-15 अगस्त की रात हम लोगों की टोली ट्रक में लद कर करोलबाग़ की सड़कों पर मस्ती में झूमती नारे लगाती चक्कर लगाती रही। सुबह हुई तो नए जोश से भरपूर हम लाल क़िले जा पहुँचे... पंडितजी का भाषण सुनने... हज़ारों लाखों सुनने वाले थे। पंडितजी ने पूरे लंबे इतिहास का कम शब्दों में जायज़ा लेते हुए सीधी सादे शब्दों में बता दिया कि हम कौन हैं, कितने पुराने हैं और अब जाना कहाँ है।
सरकार के पास ख़ुशियों में खो जाने का समय नहीं था। पाकिस्तान बन चुका था। देश इतिहास के सब से भारी टकराव से जूझ रहा था। हर तरफ़ दंगा, मारपीट, ख़ूनखच्चर... से पार हो जाने पर ही देश बच सकता था। देश न सिर्फ़ बचा बल्कि आज दुनिया के सब से बड़े स्वतंत्र प्रजातंत्र के रूप में सब की आँखों का तारा है।
विभाजन हिंदु-मुस्लिम टकराव का परिणाम था। आज़ादी से पहले मुसलमान नेता कहते थे कि हिंदु-बहुल भारत में मुसलमान पिच जाएँगे। हिंदु नेता हिंदुत्व ख़तरे में है का नारा लगाते रहते थे। कमाल की बात यह है कि वह टकराव आज साठ साल बाद भी चल रहा है। कुछ नेताओं की रोज़ी रोटी इसी बात पर चलती है टकराव को जितना बढ़ाएँगे चढ़ाएँगे, जितने उत्तेजक नारे लगाएँगे, जितने भ्रामक तर्क पेश करेंगे, उतना ही दोनों कमाएँगे, सत्ता के क़रीब आएँगे... कई बार लगता है दोनों में मिलीभगत है...
इसी से जु़ड़ा है आतंकवाद का सवाल। आज जिस आतंकवाद से दुनिया जूझ रही है वह इसलामी आतंकवाद के नाम से जाना जाता है। हर धर्म समय समय पर कई लहरों से आंदोलित होता रहा है। कभी उग्रवाद ज़ोर पर होता है, कभी उदारतावाद। आज इसलाम उग्रवाद के भीषण दौर में है। उग्रवाद से लड़ाई भारत में ही नहीं, पाकिस्तान में, मिस्र में, सूडान में, जार्जिया में, सिंकियांग (चीन) में चल रही है। हल किसी एक के पास नहीं है। निपटने का रास्ता मात्र हथियार नहीं हैं। यह लड़ाई वैचारिक स्तर पर बहुत देर तक चलने वाली है।
हाँ, इस क्षेत्र में हम ने कुछ तरक़्क़ी भी की है... अब ईसाइयों से भी बैर भाव रहने लगा है। ध्यान देने की बात यह है कि यह बार, झगड़ा उन प्रदेशों में अधिक है जहाँ हिंदू-मुस्लिम टकराव कम है, उस के नाम पर जनता को देर तक भड़काए रखना संभव नहीं है, जैसे उड़ीसा, या फिर कर्नाटक जहाँ मुसलमानों के साथ साथ ईसाइयों की बड़ी आबादी के कारण हिंदुओं को उकसा कर सत्ता में आने का रास्ता प्रशस्त हो सकता है...
हिंदु मुसलमान, सिख ईसाई से हट कर देखें तो सब टकरावों का जड़ है आर्थिक भागीदारी। हमारे पास जितनी भी रोटी है उसमें से किसको कितनी मिलेगी?
नेताओं ने इन टकरावों की संभावना 1930 में ही देख ली थी। पंडित नेहरू ने तब कहा था कि हमें यह भी तय करना चाहिए कि आज़ादी किसके लिए होगी। देश--मतलब क्या? गाँव, शहर, किसान, व्यापारी, उद्योगपति, दिल्ली, पंजाब, बंगाल... हिंदु, मुसलमान, ईसाई, सिख, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र... अहीर, यादव... नागा, गोरखा... आदिवासी... भील, संथाल... टाटा बिरला, किसान, मज़दूर... ? आख़िर देश इनमें कोई एक है या सब किसी को मिला कर? तरह तरह के टकरावों की पूरी संभावना थी। योजना आयोग बने तो सब से पहले तय किया गया कि उद्योग किसी एक इलाक़े में नहीं हर हिस्से में फैलाए जाएँगे। विकास का मतलब होगा -- सब का विकास।
पर देखा गया कि अधिकांश मलाई उच्च वर्गों के मुँह में जा रही है। पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की माँग उठना अनिवार्य था। (अगर हिंदुओं का ही देश मान लिया जाता तो भी बहुत देर तक हिंदु का मतलब द्विज जातियाँ नहीं रह सकता था। पिछड़ी जातियाँ पिछड़ी रहें यह देर तक नहीं चल सकता था।) आरक्षण की ज़रूरत न भी पड़ती अगर समाज, सरकार, व्यापारी, कल कारख़ाने सब वर्गों के लोगों को काम मुहैया करने के लिए सचेत सक्रिय क़दम उठा रहे होते। हम जानते हैं कि कितने उच्च वर्गीय युवकों को नौकरियाँ क्षमता या क्वालिफ़िकेशन के आधार पर मिलती हैं और कितनों को सिफ़ारिश से। हम कहते कुछ भी रहें, सिफ़ारिश नौकरियों का मुख्य स्रोत रही हैं। क्वालिफ़िकेशन की बात तब आती है जब कोई सिफ़ारिशी सामने न हो।
क्वालिफ़िकेशन की बात तब तक आती रहेगी जब तक उँची नीची सभी जातियों के लोगों को पढ़ाई का समान अवसर न मिले। ग़रीबों को कम फ़ीस पर बड़े कालिजों में दाख़िला न मिल सके। मैं अपनी ही बात कहता हूँ। मैं वैश्य वंश से हूँ पर निर्धन घर से हूँ। मेरी पढ़ाई मेरठ में मुफ़्त के म्यूनिसपल स्कूल में हुई। मैट्रिक की पढ़ाई भी लगभग मुफ़्त सी, बेहद कम फ़ीस वाले स्कूलों में हुई। चार विषयों में डिस्टिंक्शन पाने के बाद भी पारिवारिक क्षमता नहीं थी कि मुझे कालिज भेजा जा सके। बाल श्रमिक के रूप में मैंने 1945 में काम करना शुरू किया। मित्रों की प्रेरणा से शाम के समय सस्ते प्राइवेट स्कूलों में पढ़ना शुरू किया। भला हो पंजाब विश्वविद्यालय का कि पचासादि दशक में दिल्ली में उन्होंने शाम के समय उच्च शिक्षा का सस्ता कालिज--कैंप कालिज--खोल दिया। नाममात्र की फ़ीस पर मैं वहाँ से अच्छे नंबरों इंग्लिश साहित्य में ऐमए कर पाया। उसी के बूते पर बाद में मैं समांतर कोश हिंदी थिसारस और द पेंगुइन इंग्लिश–हिंदी/हिंदी–इंग्लिश थिसारस ऐंड डिक्शनरी जैसे मानक कोश दे पाया।
तो मुख्य टकराव अमीर ग़रीब सभी के लिए तरक्की के समान रास्ते खोलने के हैं। यह तभी होगा जब उच्च सिक्षा सभी को सुलभ हो। लेकिन आजकल उच्च तकनीकी शिक्षा महँगी की जा रही है। यह एक और तरीक़ा है धनी वर्गों के हाथों में सत्ता बनाए रखने का। आईईटी जैसे संस्थानों में नाममात्र की फ़ीस और आरक्षण ही निम्न वर्ग को सत्ता में भागीदारी देने का कारगर तरीक़ा है।
भाषा के टकराव भी देश में उपलब्ध कम दूध में से मलाई पाने की कोशिशों के टकराव हैं। चाहे आंध्र प्रदेश का मुल्की-ग़ैरमुल्की टकराव हो, बंबई में कभी मराठी-बनाम-मद्रासी या आज हिंदी-मराठी के नाम पर टकराव हो, मलाई के और नेतागिरी के टकराव हैं। भाषा के सवालों में इंग्लिश भाषा के पुनरुत्थान का सवाल भी है। आज़ादी से पहले हम लोग अँगरेजी को विदेशियों द्वारा हम पर लादी गई भाषा के तौर पर देखते थे। आज़ादी के नारों में एक नारा अँगरेजी के विरोध का भी था। बाद में यह नारा कई पार्टियाँ साठ सत्तर वाले दशक में भी लगाती रहीं। पर जनता ने इस नारे को सिरे से रीजैक्ट कर दिया है। '47 के बाद हमने देखा कि अँगरेजी हमारे पास एक ऐसी खिड़की या महापथ है जिससे हम संसार से संपर्क तो कर ही सकते हैं, बाहर काम करके धनदौलत भी बटोर सकते हैं। आज अँगरेजी सामाजिक और निजी तरक़्क़ी की सीढ़ी के तौर पर हर अगड़े पिछड़े वर्ग के मन में बस गई है। बहुतेरे हिंदी वाले अब भी हिंदी ख़तरे में का नारा लगा रहे हैं। जब कि मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि हिंदी भी तेज़ी से बढ़ रही है। हाँ, वह हिंदी नहीं जो सरकारी संस्थानों द्वारा करोड़ों रुपए बरबाद करके बनाने की काशिश की गई थी, बल्कि वह हिंदी जो जनता, लेखक, पत्रकार और टीवी वाले बना रहे हैं--एक जीतीजागती हिंदी।
जैसा कि हमने देखा कि टकरावों के मूल में रोटी रोज़ी है। एक नारा रहा है जो कुछ भी है सबमें बराबर बाँट दो। पिछले दो सौ सालों से यह संसार के सब से मोहक नारों में रहा है। इसके पीछे भावना बिल्कुल सही है। मैं स्वयं इस नारे के साथ कई दशक रहा हूँ। पर हमेशा यह सवाल मन को सालता था कि बँटवारा किसका? ग़रीबी का या अमीरी का? अमीरी होगी तब बँटेगी न! हम ग़रीबी का वितरण करेंगे तो परिणाम क्या होगा? ग़रीब को ग़रीबी का बराबर हिस्सा मिले तो किसी के पल्ले क्या पड़ेगा? वैसा ही भूखापन, नंगापन जो 47 में ग्रामीण भारत का अभिशाप था!
आतंकवाद से लड़ने के लिए भी भूख मिटाना ज़रूरी है। इसके लिए हाल ही में पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने चार बातें बताईं--1) नागरिक सचेत रहें, 2) देश में एकीकृत इंटैलिजेंस विभाग हो, 3) अदालतों में मुक़दमों का निपटारा जल्द से जल्द हो, और 4) आर्थिक प्रगति के माध्यम से ग़रीबी का सफ़ाया हो।
यह चौथी बात सब से महत्त्वपूर्ण है। ग़रीबी हटाए बिना हम गहरे दलदल में धँसते चले जाएँगे। आर्थिक विकास के लिए सबसे पहली ज़रूरत है ऊर्जा उत्पादन में तेज़ी से बढोतरी। यही कारण है कि परमाणु समझौते के समर्थन में डाक्टर कलाम ने आवाज़ बुलंद की थी। इसके लिए आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हमारे प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने सरकार तक दाँव पर लगा दी। ख़ुशी की बात है कि अब यह समझौता हो चुका है और अब हम तेज़ी से परमाणु ऊर्जा संयंत्र लगा सकेंगे।
परिणामस्वरूप आर्थिक क्षमता बढ़ने से देश की ताक़त बढ़ेगी। ताक़तवर देश की तरफ़ टेढ़ी नज़र से देखने की हिम्मत बड़े से बड़ा देश नहीं कर सकता, चाहे वह अमरीका हो, रूस हो, चीन हो, पाकिस्तान तो चीज़ क्या है! आज सन 47 वाला भूखा नंगा भारत नहीं है। कल वह दुनिया के सब से धनी देशों में होगा। तब के टकराव कुछ अलग तरह के होंगे। *****
संपर्क:
--अरविंद कुमार, सी-18 चंद्रनगर, ग़ाज़ियाबाद 201011
Tel (0120) 411 0655 Mob 09312760129
आपको तथा आपके परिवार को दीपोत्सव की ढ़ेरों शुभकामनाएं। सब जने सुखी, स्वस्थ, प्रसन्न रहें। यही मंगलकामना है।
जवाब देंहटाएंबहुत विचारपूर्ण आलेख है रवि भाई !
जवाब देंहटाएंआपको दीपावली पर परिवार सहित शुभकामनाएँ
- लावण्या
अरविन्द जी का लेख पढ़ाने के लिए धन्यवाद। पिछले कई सालों से उनका समांतर कोश हमारे लिए भी काफी मददगार रहा है।
जवाब देंहटाएं****** परिजनों व सभी इष्ट-मित्रों समेत आपको प्रकाश पर्व दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं। मां लक्ष्मी से प्रार्थना होनी चाहिए कि हिन्दी पर भी कुछ कृपा करें.. इसकी गुलामी दूर हो.. यह स्वाधीन बने, सशक्त बने.. तब शायद हिन्दी चिट्ठे भी आय का माध्यम बन सकें.. :) ******
समसमायिक पर महत्वपुर्ण लेख/आपको बधाई/आपको और आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें/
जवाब देंहटाएंअच्छी पोस्ट...।
जवाब देंहटाएं=================
दीपावली की शुभकामनाएं।
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बहुत सही आलेख!
जवाब देंहटाएंदीपावली पर हार्दिक शुभकामनाएँ!
दीपावली आप और आपके परिवार के लिए सर्वांग समृद्धि लाए!
पहली बार आपके विचार पढ़े.चिंतन की दिशा स्वस्थ और रचनात्मक है, किंतु बिखराव इतना अधिक है कि देखकर लगता है जैसे मोती की माला हाथ से छूटकर गिर गई हो और दाने बिखर गए हों. अब उन्हें फिर से चुना जा रहा है. कुछ भी हो आपने अपना उदाहरण देकर यह संकेत तो कर ही दिया की प्रतिकूल परिस्थितियों में भी यदि संकल्प और लगन हो तो आगे बढ़ने के रास्ते निकल ही आते हैं. आगे बढ़ने का यह रास्ता तो लोग आज भी निकालने में जुटे हैं, किंतु संयम की परिधियाँ तोड़कर, एक दूसरे को कुचलकर.
जवाब देंहटाएंदीपावली की शुभकामनाओं के साथ
शैलेश जैदी