(सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’) करुणोदात्तशील ’निराला‘ -हिमांशु कुमार पाण्डेय करुणोदात्त शील एक ऐसी सुन्दर डायरी होता है जिसम...
(सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’)
करुणोदात्तशील ’निराला‘
-हिमांशु कुमार पाण्डेय
करुणोदात्त शील एक ऐसी सुन्दर डायरी होता है जिसमें तीन सौ पैंसठ दुःख होते हैं किन्तु उसके प्रारब्ध की कार्य-कारण व्याख्या उसके कर्मों से नहीं हो सकती । प्रारब्ध उसके कर्मों से अतिरिक्त पड़ता है । उसकी गाथा हमारे मन में वीर तथा करुण रस की प्रपानक अनुभूति कराती है । उसमें भाव-द्वैत नहीं भाव का गुण-कल्प होता है । करुणोदात्तशील की उदात्तता दूसरों के विध्वंस या पराजय करने की क्षमता में नहीं, अपितु सामरिक उत्साह तथा पीड़ा सह सकने की, स्वाभिमान को अक्षुण्ण बनाये रखने की निस्सीम शक्ति में, संकल्प की वज्र कठोरता में होती है ।
निराला जी हिन्दी साहित्याकाश के ऐसे कवि वीर जाज्वल्यमान नक्षत्र हैं जो प्रारब्ध से पराजित होकर भी हार न माने, दस हजार तीर एक साथ झेलकर भी अपना तीर छोड़ता जाय, तन चला जाय, धन चला जाय, लेकिन मन न माने । निराला जिन शक्तियों से संघर्ष करते हैं वे अखिल मानवता से, शिव मूल्यों से या स्वभावधर्म से विरोध या उनपर व्यंग करती-सी प्रतीत होती हैं; किन्तु निराला का करुणोदात्त शील सबका बंधुत्व प्राप्त कर लेता है । इतनी दुर्धर्ष शक्तियों से संघर्ष करने वाले निराला संकल्प, साहस, शक्ति तथा मर्यादा की असाधारण विभूति हैं ।उनकी यह असाधारण विभूति हमें विस्मय से, गौरव से भर देती है । निराला हमें अद्भुत वीर-से लगते हैं । उनमें आत्मबल की, मनोबल की अतिशय पूंजी दीख पड़ती है । सबको हटा कर, अहं के कारण सबका निषेध कर, करुणोदात्तशील निराला अकेले हो जाते हैं । अपनी वर्द्धमान परिधि के वे स्वयं बन्दी हो जाते हैं । इसीलिये सूनेपन अथवा एकान्त की उदासी जितना उन्हें सताती है, उतना किसी को नहीं ।
सापेक्षताओं पर सर पटक-पटक कर मर जाना अच्छा, पर मुड़ना ठीक नहीं, यही निराला के करुणोदात्तशील की भोक्तृत्व पद्धति है ।
निराला में करुणोदात्त नायकत्व की पीड़ा प्रगाढ़ है । प्रगाढ़ इसलिये कि वे स्वाभिमानी हैं । चूंकि स्वाभिमानी हैं, इसलिये उनका विरोध रुकने का नाम नहीं लेता । विरोध बढ़ने से उनकी पीड़ा बढ़ती है, क्योंकि नियति उनके साथ परिहास करती है । वे कभीं उल्लास के उत्तरी ध्रुव को छूते हैं तो कभी नैराश्य के दक्षिणी ध्रुव को ।लेकिन चकि वे करुणोदात्त व्यक्तित्व के गगनचुम्बी हिमालय हैं इसलिये उनके बीज संकल्प का अध्यवसाय स्वाभिमान के बल पर अन्त तक चलता रहता है । अन्तस्थल की मर्यादा-भावना कठोर अनुशासन, साधना, एकान्त और गंभीरता की ओर उन्हें बलात् खींच ले जाती है । तमाम अंतर्जीवन मिल कर उनके भीतर एक भयानक अन्तर्विरोध पैदा करते हैं, और वही अंतर्विरोध उनकी कविताओं में जटिल संसार के रूप में व्यक्त होता है ।
करुणोदात्त शील की यह एक विरल विशेषता है कि वह अपने समस्त अंतर्विरोध को व्यक्त करना चाहता है -अपने टूट जाने की लगातार बढ़ती आशंका के बावजूद । अपनी कविताओं के भीतर के संसार को तय करने की प्रक्रिया में निराला ने भी अपने को नष्ट कर दिया पर अदम्य जिजीविषा से ललकारा कि समाज का वर्तमान ढाँचा टूटे, इतिहास बदले और यथास्थिति नष्ट हो ।
उन्होंने ’पीलिया साहित्य‘ नहीं रचा । निराला अपने आन्तरिक सत्य और उसकी अस्मिता (आइडेन्टिटी) के सक्रिय, क्रियाशील अन्वेषक हैं । दर्द का निर्वाह, कठिनतर ताप का विस्तार, दुःख, असफलता, निराशा सब उन्हीं में है । इसीलिये वे शक्ति, धृति या शांति को पहचानते हैं । निराला की कोटि के करुणोदात्त शील महापुरुष कभी व्यक्ति मात्र नहीं रहते, वे प्रतीक बन जाते हैं ।
गंगा प्रसाद पाण्डेय के संग गंगातट पर निराला के जन्मदिन वसंत पंचमी को भेट करने पहुंचे धर्मवीर भारती । उन्हें वसंत का गणित समझाते हुये निराला ने कहा था - ’’देखो, पहले तत्व लो, फिर उसमें गुण जोड़ दो । हो गया । अब ऋषियों को बुलाकर स्थापित कर दो और उनमें से सूर्यका्न्त त्रिपाठी को घटा दो - बस हो गयी पंचमी । फिर अपने गणित का अर्थ बताते हुये बोले - ’’देखो, तत्व होते हैं पाँच.....अब इसमें जोड़ो गुण । गुण कै होते ह ? तीन- सत्, रज और तम । तो पाँच और तीन हुये आठ ।ऋषि बुलाये तो सप्तऋषि आ गये ।यानी सात और आठ हुये पन्द्रह । अब इस पन्द्रह में से सूर्यकान्त त्रिपाठी को घटा दो । कितने बचे ? चौदह । चौदह में दो अंक हैं - एक और चार । दोनों को जोड़ दो तो सारतत्व बच गया पाँच । यानी पंचमी । समझे पंचमी का गणित ।‘‘ फिर उन्होंने समझाया - ’’सूर्यकान्त त्रिपाठी तो एक व्यक्ति है । उसमे राग है, द्वेष है, अहंकार है, लोभ है, मोह है, काम है, क्रोध है । वह सब उसका अपना व्यक्तिगत है । सरस्वती आयीं तो उन्होंने उसका ममत्व छुड़ा कर उसे सबका बना दिया । तब कवि पैदा हुआ, तब निराला पैदा हुआ ।‘‘ ऐसा बहुआयामी व्यक्तित्व, ऐसी विस्तार दृष्टि, ऐसी गहरी संवेदना निराला के उदात्तशील के अतिरिक्त दीपक लेकर खोजने पर भी क्या कहीं मिलेगी ?
’अज्ञेय‘ जी शिवमंगल सिंह ’सुमन‘ के साथ निराला से मिलने गये । सुमन जी के यह पूछने पर कि ’’निराला जी, आजकल आप क्या लिख रहे हैं ‘‘, निराला ने एकाएक कहा - ’’निराला, कौन निराला ?....नहीं, नहीं, निराला तो मर गया । There is no Nirala. Nirala is dead.क्क्‘‘ व्यक्तिगत कष्ट को मानव मात्र की पीड़ा में आत्मसात करने की, दलित, पतित, पीडत मानव के कष्टों को वाणी देने की ललक में प्राण-विसर्जन की संकल्पित अंजलि उठी तो निराला की ही । ऐसे उदात्त कवि शिरोमणि की थाती पुनः प्राप्त करने के लिये हिन्दी काव्य-धारा को अभी बहुत दिनों तक तपस्या करनी पड़ेगी । श्री श्रीनारायण चतुर्वेदी ने कहा - ’’उनके समान तेजस्वी मेधा और मौलिक और ऊंची उड़ान लेने वाला कवि तथा ’शब्दों का बादशाह‘ यदा-कदा ही जन्म लेता है ।‘‘
कवि रामेश्वर शुक्ल ’अंचल‘ की निम्न पंक्तियाँ जैसे निराला के विरल व्यक्तित्व को ही प्रतिबिम्बित करती प्रतीत होती हैं -
’’देख ही लोगे क्षितिज तट तक तरसते प्रश्न को
अश्रु ने थमकर घडी भर भी नहीं सोखा जिसे ।
थी अमिट विधि-अंक सी जिसकी अबूझी गूढ़ता
आंधियों ने, बिजलियों ने भी नहीं पोंछा जिसे ।‘‘
सन् १९५४ में कोलकाता में निराला का अभिनन्दन किया गया था । अचानक गले में पड़े पुष्पहार को उतार कर मंच से द्रुत गति से नीचे आये और जैसे अपने आप से ही बोले -
’’ Mr. One ! you cannot make us wooden headed, Mr. Second ! you cannot catch us with gold.‘‘ ’मिस्टर वन‘ से निराला की घृणा थी जो साहित्य, कला और संस्कृति से अनभिज्ञ साधारण जनता थी, और जो तब निराला को नहीं पढ़ती थी । ब्लेक सिरीज के हल्के जासूसी उपन्यासों और पारसी थियेटर की औरतों के ’खेमटा‘ नाच देखती थी । ’मिस्टर सेकन्ड‘ को भी निराला घृणा का उपादान मानते थे जो साहित्य और साहित्यकार की ईमानदारी को स्वर्ण-श्रृंखला में आबद्ध कर लेना चाहता है ताकि ’वह तोड़ती पत्थर, इलाहाबाद के पथ पर‘ और ’वह आता/ दो टूक कलेजे के करता/ पछताता पथ पर आता‘, और ’राम की शक्तिपूजा‘ और ’बादल राग‘ जैसी कवितायें न लिखी जाँय न गायी जाँय ; बल्कि ’गीत गोविन्द‘ ’भामिनी विलास‘, अमरू शतक‘ आदि के ढंग की कवितायें लिखी जाँय या आधुनिक युगीन रघुवंशगाथा लिखी जाय ।
किन्तु निराला का करुणोदात्त शील इस ’मिस्टर वन‘ और इस ’मिस्टर सेकण्ड‘ का मुखापेक्षी नहीं रहा । उन्हें इनकी श्रद्धा और श्रद्धांजलि की आवश्यकता नही थी । जिसकी उस महानायक को आवश्यकता थी, वह भी उसको कहाँ मिला । इसीलिये हमने निराला के शील को करुणोदात्त शील कहा । उनके विलक्षण व्यक्तित्व का अहं उन्हें दया, सहानुभूति और दान स्वीकारने से रोकता था । शायद वे शारीरिक आवश्यकताओं से ऊर्ध्वगामी हो चुके थे, और बीमारियों और अभावों की अनवरत आवृत्ति झेलते हुये भी यह कहने का साहस रखते थे -
’’मेरे जीवन का यह जब प्रथम चरण
इसमें कहाँ मृत्यु, है जीवन ही जीवन
अभी पड़ा है मेरे आगे सारा यौवन
स्वर्ण-किरण-कल्लोलों पर बहता रे यह बालक-मन ।‘‘
और यह साहस ही निराला क हर प्रकार की यातनाओं में जीवंत और आत्म-सम्पूर्ण रखता था । अविराम आत्म-सम्पूर्ण और आत्मतुष्ट और अपराजित उदात्तता का नाम ही निराला है ।
निराला की उदात्तता - करुणोदात्तता - तब और हमें मथती है जब उनके भाव और अभाव का द्वंद्व समास घटित होता है । निराला को मिली थी मनोरमा देवी के रूप में ऐसी जीवन संगिनी, जिसने उन्हें हिन्दी से परिचित कराया और प्राणप्रण से प्रेरित किया कि हिन्दी को एक नया तुलसीदास, हिन्दी को एक रवीन्द्रनाथ मिल जाय । चन्द्रज्योत्सना में पति-पत्नी गंगा-तट की विमल बालुका राशि में समीपस्थित होते थे और बिखरे पाषाण-खंडों को मृदुल अंगुलियों में उठा मनोहरा देवी सीधी-टेढी लकीरें खींच-खींच कर अपने कवि-स्वामी को देवनागरी के अक्षर और शब्द सिखातीं थीं । अभिराम बरसती चाँदनी --कलकल निनादिनी गंगा की शान्त एकान्त उर्मियाँ -- वेदकालीन आर्यब्राह्मण की तरह व्यक्तित्व वाला पति -- उपनिषदकालीन आर्यऋषि-पत्नी की सी दर्शिता मनोहरा देवी । ऐसे में निराला ने कितने गीत लिखे --
’’शब्द के कलिदल खुलें
गति-पवन-भर काँप थर-थर भीड़ भ्रमरावलि ढुलें
गीत-परिमल बहे निर्मल फिर बहार बहार हो
स्वप्न ज्यों सज जाय
यह तरी, यह सरित, यह तट, यह गगन समुदाय
कमल-वलयित सरल दृग-जल हार का उपहार हो ।‘‘
उस औपनिषदिक ऋषिकल्प कवि ने - ’आयत-दृग, पुष्ट-देह ,गतमय / अपने प्रकाश में निःसंशय / प्रतिभा का मंदस्मित परिचय, संस्मारक निराला ने कलियों के, पवन के, वसंत के स्वप्नों के, गगन के, नदी तट के अमोलक स्नेह गीत लिखे । पर समय और परिस्थिति सब कुछ सह सकती है, स्नेही मन के भावुक गीत नहीं । मनोहरा देवी चलीं गयीं । सन् १९१८ में इन्फलुएंजा के भयावह रोग से ग्रसित हुये । और निराला पागल हो गये । जिस गंगा तट पर स्वप्नों की भीड़ उमड़ आती थी, वह श्मशान बन गया, और निराला पागल हो गये । गंगा में बहती जाती लाशें खींचकर बाहर लाने लगे कि शायद यह लाश उनकी मनोहरा की हो, उस प्रियतमा की हो । अपनी खोयी हुयी पत्नी का नाम ले लेकर चीखते थे, प्रत्येक शवदाह की ज्वाला में खड़े होकर अपनी ज्वालामुखी को शान्त करना चाहते थे, किन्तु ’’अब नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा, श्यामतृण पर बैठने को निरुपमा ।‘‘
फिर, निराला के पूज्य पिता पं० रामसहाय त्रिपाठी का देहान्त हुआ । सद्यःविवाहिता दृगपुतरी सरोज क्षयरोग से चल बसी । सरोज की मृत्यु ने निराला को तोड़ दिया । साहित्य को ’सरोज-स्मृति‘ की महान कविता तो मिली, लेकिन निराला को क्या मिला ? विक्षिप्तता और आत्मदाह । विक्षिप्तता इसलिये कि समवर्ती समाज ने निराला को नहीं समझा; उसके काव्य को, और उसके अहं को, और उसके व्यक्तित्व को नहीं समझा । आत्मदाह इसलिये कि कवि के पास, स्रष्टा के पास आत्मदाह के सिवा होता ही क्या है ?
किन्तु अद्भुत थे निराला । उस करुणोदात्त नायक के शील को विधाता ने बड़े मन से गढा था । उनके पास अपरजिय अहं था जिसने उन्हें टूटने को मजबूर किया, लेकिन कभी किसी क्षण झुकने नहीं दिया । निराला ने पाठ्य-पुस्तकों के लिये कवितायें नहीं लिखीं, न तो साहित्य की अकादमियों और सरकार का सम्मान पाने के उद्देश्य से साहित्य रचा । निराला विक्षिप्त होकर सड़कों पर घूमते थे, पर रुपये-पैस की उन्होंने कभीं चिन्ता नहीं की । निराला अपनी विक्षिप्तता की स्थिति में बार-बार एक पंक्ति दुहराते थे “ I am not subject to the limitations of my audience….. I am making an example of playing the same card in life and literature.” और जीवन और साहित्य में ताश के एक ही पत्ते खेलने से पागलपन न मिले, पीड़ायें न मिलें तो और क्या मिलेगा ?
इस धीरोद्धत उदात्त नायक को मृत्यु मिल गयी, किन्तु सतत प्रयत्न करके भी क्या निराला के साहित्य को मृत्युमुख किया जा सकेगा ? क्या उग्र समय-धारा के चपेट में, रज-रज बिखेर देने वाली सांपातिक घूर्णिकाओं में बुदबुद की तरह वह विलीन हो जायेगा “Never ! Never ! Never !” निराला हमेशा गाते मिलेंगे -
’’पुष्प-पुष्प से तन्द्रालस लालसा खींच लगा मैं
अपने नवजीवन का अमृत
सहर्ष सींच दगा मैं
द्वार दिखा दगा फिर उनको हैं मेरे वे जहाँ अनंत
अभी न होगा मेरा अंत ।‘‘
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संपर्क:
हिमांशु कुमार पाण्डेय
हिन्दी विभाग
सकलडीहा पी०जी०कालेज,
सकलडीहा-चन्दौली (उ०प्र०)
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