व्यंग्य शरशैय्या पर भीष्म...एक मार्ड्न वर्जन - अनुज खरे ( दृश्य आधुनिक काल के एक खेल ग्राउंड का है , जो प्राचीनकाल में महाभारत का ...
व्यंग्य
शरशैय्या पर भीष्म...एक मार्ड्न वर्जन
-अनुज खरे
(दृश्य आधुनिक काल के एक खेल ग्राउंड का है, जो प्राचीनकाल में महाभारत का युद्ध स्थल था। यहां पितामह भीष्म अपनी इच्छामृत्यु के वरदान के कारण बाणशैय्या पर हैं। सीन सुबह का है। सुहानी हवा चल रही है। मौसम बैकग्राउंड में रूमानियत भर रहा है, हालांकि यह बात अलग है कि यह रूमानियत भीष्म के किसी काम की नहीं है।)
पितामह कुछ देर पूर्व ही कुल्ला-मंचन करके निवृत हुए हैं कि लोग भीड़ की शक्ल में चारों ओर पहुंच गए। अंदर से दिमाग घूमा जा रहा है, बिना नॉक करे आ जाते हैं, कोई कायदा-एटीकैटस नहीं, जाहिल हैं पूरे जाहिल। फिर याद आया ग्राउंड में तो पड़े हैं, कहां नॉक करेंगे बेचारे। खैर, परंपरागत यशस्वी भवः का आशीर्वाद प्रदान किया, तिरछी नजरों से देखा भी कि किसी ने आशीर्वाद के प्रति सद्भावना नहीं दिखाई है। घोर कलियुग है, कारण जानकर मन ही मन कुछ निश्चिंत हुए। फिर जिज्ञासायुक्त निगाहों से लोगों को देखा, हालांकि भीड़ देखते ही भांप तो गए थे कि फोकट में तो ये आने से रहे, जरूर कोई बात तो है। क्या बात है, की अर्थपूर्ण निगाहों से फिर उन्होंने भीड़ की तरफ देखा अब एक नेतानुमा व्यक्त ने आगे बढ़कर बात शुरू की- पितामह, हम आफ पास एक विनय निवेदन लेकर आए हैं। पितामह ने मन ही मन सोचा, निवेदन के बिना तो आते ही क्यों? इतने दिनों से यहां पड़े हैं किसी ने चाय-पानी तक का तो पूछा नहीं है, अब देखो कैसे निवेदन-आवेदन के सुर लगा रहे हैं, ढोंगी कही के। खैर, दायित्वों का स्मरण हो आया। मुख-मुद्रा को संयत बनाके आगे बोलो किस्म की पलकें झपकाईं।
उसी नेताटाइप आदमी ने आगे कहना शुरू किया- पितामह, ये कालू, बंशी, दिनेश सभी मान्यवर की प्रजा सरीखी हैं, नई कॉलोनी में रहते हैं वहां, बिजली के पोल लगे नहीं हैं, घर में बहुत मच्छर काटते हैं, आप से इसी बाबत अभ्यर्थना करने आए हैं कि श्रीमान की बिजली विभाग में जबर्दस्त घौंस-धमक है, अपने दस्तखत का एक पत्र भेजेंगे कि खुद चीफ इंजीनियर साहब दौडे-दौडे पोल लगाने को आ जाएंगे। अच्छा तो ये मामला है, पितामह ने मन ही मन सोचा, बिजली नहीं है, मच्छर काट रहे हैं, हम यहां सर्दी-गर्मी में पड़े हैं हमारी चिंता नहीं है, बस बिजली लगवा दो। देख भी नहीं रहे हैं कि ऐसी हालत में कहां से तो भाग-दौड कर पाऊंगा, पुराना जमाना होता तो एक-एक को विद्युत पोल की जगह गड़वा देता। खैर, फिर विचार किया कोई तो आया, नहीं तो आजकल तो बोरियत ही बहुत हो जाती है, कोई आता-जाता तो है नहीं, अब ये आए हैं इन्हें भी भगा दिया तो...
फिर बोले-‘‘एप्लीकेशन लेकर आए हो या वो भी मुझसे ही लिखवाओगे’’
‘हें...हें...हें...’ वो ही नेताटाइप आदमी, दांत निपोरते हुए बोला नहीं पितामह, एप्लीकेशन रेडी है, बस आफ साइन की कमी थी।
सारी तैयारी करके आए हैं, मन ही मन सोचा। खैर, ‘‘कहां करना है दस्तखत’’ पितामह ने कहा।
दस्तखत करवाकर सारी भीड़ बिना उन्हें प्रमाण किए, नहीं किए ही बिजली दफ्तर की ओर निकल ली। घोर कलियुग है, उन्होंने दोबारा सोचा।
लोग एप्लीकेशन लेकर बिजली विभाग के बड़े बाबू के पास पहुंचे, उससे जैसे-तैसे मामला जमाया, कुछ दोस्ती-यारी कुछ रिश्तेदारी जैसा कुछ बताया तब जाकर बड़े साहब तक पहुंचने का रास्ता मिला। साहब भी घाघ एक दिन में काम कर दे तो साहब काहै का उन्हें एप्लीकेशन रखकर तीन दिन बाद आने को कह दिया। लोग खुश हैं कि पितामह की धौंस से काम बन गया, ठीक ही वे उनके पास चले गए थे अन्यथा तो वो वार्ड पार्षद ही पीछे पड़ा था, गुरु पुराना सामान तो होता ही बड़े काम का है, एक ने तो कह भी दिया था, जब वे विमर्श कर रहे थे कि किसके माध्यम से हो सकता है काम। अब दिल बल्लियों उछल रहा है कि तीन दिन में उन्हें समस्या से निजात मिल जाएगी। जैसे-तैसे करके तो पहाड जैसे तीन दिन बीत रहे हैं, मच्छरों को भी लोग घर में बर्दाश्त कर रहे हैं कि पी लो बेटा तीन दिन और खून फिर तो नालियों में ही पड़े-पड़े मर जाओगे। हालांकि जैसा सदियों से सरकारी विभागों में देखा जा रहा है, वहां तीन दिन क्या तीन सालों में कुछ नहीं होना था, सो होता भी कुछ नहीं है। चिंतित लोग फिर बिजली ऑफिस पहुंचते हैं। वहां से उन्हें बताया जाता है कि एप्लीकेशन में रिकमंडेशन वाले साइन मैच नहीं कर रहे हैं, दोबारा करवाओ।
सरकारी प्रक्रियाओं से अन्जान लोग कर्मचारियों को पितामह का परिचय देते हैं लेकिन बाबू ठहरे बाबू, जो फाइल में एक बार नोटिंग हो गई सो हो गई। ऐसी ही नहीं हजारों सालों से दफ्तर चल रहा है। कायदा है कायदा, दस्तखत मैच नहीं कर रहे हैं तो नहीं कर रहे हैं, लकीर के फकीर बाबुओं ने लोगों को तन्यमयता से समझाया, कुल मिलाकर नतीजतन फिर कुछ नहीं हुआ। लोग फिर टल्ले खाते पितामह के पास पहुंचते हैं। प्रजा की पीड़ा देखकर अबकी बार वे दस्तखत के साथ जांघ में धंसा एक बाण निकालकर नत्थी करते हैं, ताकि माकूल प्रभाव पड़े और पांव को भी हिलाने-डुलाने की जगह मिले, सदियों से ऐसे ही धरा है। फिर देखो बाण की नोक भी जाने किस लोहे से बनाते थे कमबख्त, इतने वर्षों में भी जंग नहीं लगी है, अभी का होता जो टिटनिस से ही इच्छामृत्यु से पहले ही काम हो गया होता। लोग तो खैर एप्लीकेशन लेकर बिजली विभाग जाकर फिर उसे साहब को थमाते हैं। विभाग में फिर वही प्रक्रिया दोहराई जाती है। लोग फिर तीन दिन मच्छरों के अंतिम चेतावनी सी देने में गुजारते हैं। फिर कुछ नहीं होता तो वापस दफ्तर पहुंचते है,ं जहां बताया जाता है कि भीष्म आदि नाम का रिकार्ड विभाग के पास नहीं हैं, नाम में कुछ गड़बड़ी है, फिर वापस जाकर लोग पितामह को बताते हैं, जिस पर वे अत्यधिक विचार करके बात के मूल तक पहुंचते हैं, फिर अपना मूल नाम देवव्रत लिखते हैं।
तदुपरांत मामला फिर बड़े साहब के पास पहुंचता है, जहां साहब विचार करते हैं तथा फाइल को तीन दिन की व्यवस्था के हवाले कर लोगों को पुनः तीन दिन बाद आने को कहते हैं। लोगों के इस बार के तीन दिन घबराहट के साथ मच्छरों को कोसते हुए बीतते हैं। फिर ऑफिस पहुंचते है तो उन्हें बताया जाता है कि देवव्रत नाम तो मिल रहा है लेकिन पुराने रिकार्डों में, अब अगर वे इतने दिनों तक जिंदा हैं तो एक प्रमाण-पत्र उनके जिंदा रहने के वैरीफिकेशन का बनेगा। जनता सीधे नगर निगम पहुंचती है जहां बताया जाता है कि संबंधित वार्ड के पार्षद से लिखवाओ तथा व्यक्त को वैरीफिकेशन के लिए यहां लेकर आओ। जनता जैसे-तैसे समझाकर पार्षद से प्रमाण पत्र बनवाती है और पितामह के लिए यथायोग्य एक ट्रेक्टर सजवाकर उन्हें लेने पहुंचती है, वहां उन्हें बताया जाता है कि उन्हें अपने जिंदा रहने का वैरीफिकेशन करवाना होगा तभी उनके दस्तखत मान्य होंगे। उन्हें सशरीर विभाग के साहब के पास चलना होगा, जहां से उनके जिंदा रहने का प्रमाण-पत्र मिलेगा।
पितामह गुर्राते हैं-‘‘मूर्खों हम अमर हैं, जब तक चाहें जिंदा रह सकते हैं, इस बारे में प्राचीन शास्त्रों में लिखा हैं, वहीं पढ़ लो।’’ जनता भेड़ की शक्ल में फिर एक के पीछे एक विभाग पहुंचकर बताती है कि वे जिंदा हैं, शास्त्रों में लिखा है, वे अमर हैं। विभाग कहता है कि ये प्रमाण तो सपोर्टिंग डाक्यूमेंट के रूप में मान्य होंगे, विभागीय प्रक्रिया के लिए तो उन्हें यहां ही लाना होगा। लोग फिर कदमताल करते हुए पितामह के पास पहुंचकर उन्हें बताते हैं, जिस पर वे उन्हें अपने धर्म से बंधा रहने की बात कहते हुए डांटते हैं कि इस बाण शैय्या से कहीं नहीं जा सकते। अब क्या करें की समस्या पर नेताटाइप का आदमी मोर्चा संभालकर बताता है कि अफसर को ही रिश्वत देकर यहां लाना होगा। रिश्वत का जुगाड़ भी पितामह को ही करना होगा, क्योंकि प्रजा तो गरीब-गुरबा है, पैसे होते तो छोटी सी कॉलोनी में क्यों रहते, बंगले न खरीद लेते।
पितामह की तरफ से उन्हें अपनी लाचार स्थिति के बारे में बताया जाता है। इस पर लोग कुछ विमर्श करके कहते हैं कि वे कान का कुंडल निकालकर दे दें, तो मामला जम सकता है। भीष्म महादानी हैं, आदि बातों के बारे में भी उन्हें याद दिलाया जाता है, जिस पर मजबूरी में वे कुंडल उतारकर देते हैं, जिसे लेकर लोग पहुंचते हैं अफसर के पास, फिर उसे लेकर आते हैं। अफसर वैरीफिकेशन तो कर देता है, लेकिन साथ ही हैल्थ चैकअप का भी रिकमंडेशन कर देता है। इस पर भारी सेटिंग कर बड़े अस्पताल से बड़े डॉक्टर को लाया जाता है, एक कुंडल उसमें चला जाता है। इतनी व्यवस्थाओं के बाद एप्लीकेशन बिजली विभाग पहुंचाई जाती है तो अब वहां के साहब की तरफ से उन्हें सूचित किया जाता है कि देवव्रत का जन्म प्रमाण पत्र एवं मूल निवास प्रमाण-पत्र भी चाहिए। जिस व्यवस्था में पितामह के दोनों हाथों के कडे शहीद होते हैं। वे भी प्रजावत्सलता में फिर महान त्याग करते हैं। तत्पश्चात, एप्लीकेशन फिर बिजली विभाग पहुंचाई जाती है। कई दिनों तक कोई उत्तर नहीं मिलने पर वही नेताटाइप आदमी पता लगाता है तो पता चलता है कि बिजली विभाग में ऊपर से नीचे तक भेंट की व्यवस्था नहीं की गई है। इस व्यवस्था में पितामह को कमरबंध वीरगति को प्राप्त होता है।
प्रजावत्सलता-त्याग की भावना आदि कारणों को दृष्टिगत पितामह यह भी सदमा सहन करते हैं। इसके पश्चात फिर एप्लीकेशन लगाई जाती हैं जिस पर कुछ दिनों में जानकारी प्राप्त होती है कि उनकी कॉलोनी तो ग्रामीण क्षेत्र में आती है, अतः वहां के विभाग में नए सिरे से एप्लीकेशन लगाएं। सारे कागजात से लदी-फदी एप्लीकेशन ग्रामीण कार्यालय में पहुंचाई जाती है। ‘प्रजा’ पितामह के पास पहुंचती है, जहां फिर कार्रवाई आगे बढ़वाने आदि के नाम पर पितामह का स्वर्ण कवच अंतिम सांसें ले लेता है। बीच-बीच में लोग पितामह की दानवीरता का बारंबार ईको करते रहते हैं। उधर घटनाएं चल रही हैं इधर, इस सबके बीच मैदान में श्रीहीन पितामह फिर अकेले हैं, लोगों का कई दिनों से आना-जाना नहीं हो रहा है। पितामह को बोरियत हो रही है। टाइपपास के लिए दोनों युगों की तुलना कर रहे हैं। लोगों की प्रवृतियों में आए मूलभूल परिर्वतन की विवेचना कर रहे हैं। भविष्यदृष्टा की हैसियत से कलियुग में आगे घटित होने वाली घटनाओं पर विचार कर रहे हैं, उन्हें कुछ क्षोभ भी है कि ऐसी भविष्य दृष्टि का क्या लाभ जब सारा कुछ जानते हुए भी महाभारत युद्ध रोक नहीं पाए थे।
एकाएक फिर कोलाहल सुनाई देने लगता है, नजरें घुमाते हैं तो देखते है लोग बड़े उत्साह से चले आ रहे हैं, आगे वही नेताटाइप आदमी गले में मालाएं डाले चला आ रहा है। भीड़ उनके पास पहुंचती है। उनके जयकारे लगाकर सूचना देती है कि घरों में बिजली आ गई, अब मच्छर नहीं काटेंगे। एक-दो मालाएं भी निकालकर उन्हें जबर्दस्ती पहनायी जाती हैं। सारे शुभ प्रंसगों हर कोण से विश्लेषण सहित उन्हें सुनाए जाने लगते हैं। जय-जयकार की ध्वनियां गूजने लगती हैं। फिर भी भीड़ जाने का नाम नहीं ले रही है, अब पितामह को कुछ चिंता सी हो रही हैं। एकाएक वो नेताटाइप आदमी फिर हाथ जोडकर निवेदन सा करना शुरू करता है-‘‘ पितामह आपकी कृपा से बिजली तो आ गई। सुना है पीडब्ल्यूडी में भी आपकी खासी धौंस-धमक है। कॉलोनी में कच्ची सड़क है, गाडियां खराब हो रही हैं। आपकी कृपा से सड़क और बन जाती ....! एक एप्लीकेशन और लाए हैं हुजूर ....!’’
पितामह के दिमाग में पहले कलियुग... फिर विचार आया कि अब तो उनके पास बाणों की शैय्या और पहने हुए कुछ वस्त्र ही बचे हैं। गंभीर वाणी में बोले-‘‘एक दिन विचार करने के लिए दो, कल आना।’’ दूसरे दिन फिर लोग उत्साह में वहां पहुंचे तो देखा। पितामह मौन लेटे हैं। निशब्द...गर्दन एक और लुढकी हुई है...तत्क्षण हाहाकार मच जाता है एक महान आत्मा के त्याग बलिदान के संक्षिप्त किस्से आदि सुनाए जाते हैं, इन सबके पश्चात लोग अपनी मूल समस्या पर विवेचन-विमर्श प्रारंभ करते हैं, फिर एप्लीकेशन में नीचे से पितामह का नाम काटा जाता है, उन्हें सरकारी कागजों से भी मुक्त दी जाती है। वहां वार्ड पार्षद का नाम लिखा जाता है और उत्साह से लोग पार्षद के घर की ओर चल देते हैं।
तो बंधुओ कथा तो हुई खत्म... छूट गए कुछ सवाल...जिनका विवेचन आगे...
शाश्वत सवाल ः सदियों से रहस्य के गर्त में छुपा है यह प्रश्न कि क्या पितामह ने अपने इच्छामृत्यु के वरदान का इस्तेमाल ‘इन’ परिस्थितियों में किया था?
जवाबः सड़क की एप्लीकेशन कई विभागों से पास होनी थी, जबकि पितामह के पास केवल वस्त्र ही बचे थे, हां लोगों के पास पार्षद से लेकर विधायक, चुनाव-मतदान तक कई विकल्प थे। हां यहां इतना जरूरी होता है कि पबि्लक को पता हो कि वह पबि्लक है। स्पष्ट है कि एक भविष्यदृष्टा वीर ऐसी परिस्थितियों में अपने सम्मान की रक्षा के लिए क्या निर्णय लेता।
अब इस सबसे दूर कथा का मार्ड्न सबक ः 1. सरकारी विभागों से काम करवाना हो, तो कई सदियों का पैशेंस चाहिए, पैसा चाहिए, पॉवर चाहिए, पोजिशन चाहिए। ऐसे कई ‘चाहिए’ होने चाहिए तब कहीं जाकर चाहा काम बनता है। चाहिए की समझ आते ही लोग जब पबि्लक में बदलते हैं तो अमरबेल हो जाते हैं फिर खोज करते हैं ऐसे ही किसी ‘चाहिए संपृक्त वीर’ की, जो एक बार मिलभर जाए। फिर क्या होता है? ऊपर लिखा दोबारा देख लें...
2. फुरसतिया किस्म के समाज सेवियों के पास हमेशा विकल्पों का अभाव होता है। इसलिए आधुनिक काल में किसी काम में टांग डालने के फैसले से पहले यह देख लिया जाना चाहिए कि कही वह काम किसी सरकारी विभाग से सबंधित तो नहीं है... अन्यथा जब ऐसे काम का जिम्मा ले लिया जाता है तो फिर इसकी परिणिती किन हालातों में होती है जानना हो तो फिर ऊपर लिखा तिबारा देख लें...
इति।
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सम्पर्क:
अनुज खरे
सी-175, मॉडल टाउन,
जयपुर ।
वाह ! जबरदस्त स्टोरी है.
जवाब देंहटाएंयुग विवेचन संग सरकारी व्यवस्था विवेचन एकदम सत्य और लाजवाब है.
एकदम सटीक व्यंग्य! बहुत-बहुत बधाई!!
जवाब देंहटाएं-सुधीर सक्सेना 'सुधि'
खरे साहेब /दीपावली की शुभकामनाएं /व्यंग्य पढ़ कर आनंद आगया /व्यंग्य वह भी कथा के रूप में /जहाँ तक मुझे याद है जब भीष्मजी शैया पर पड़े थे तब उन्हें प्यास लगी थी और पानी मांगने पर कोई चांदी के बर्तन में कोई सोने के बर्तन में लाया उन्होंने नहीं पिया /अर्जुनकी और देखा /अर्जुन ने धरती में तीर मारा पानी की धारा निकली /भीष्म ने पानी पिया /
जवाब देंहटाएंदूसरे दिन अर्जुन को नगरपालिका ने नोटिस देदिया के हमारी पाईप लाइन फोड़ दी भरपाई करो