१. प्रभु ही मेरा रक्षक है दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी के साथ उनके जर्मन मित्र कैलनबैक रहते थे गांधीजी के प्रयोगों में वह उनका बराबर साथ दे...
१.प्रभु ही मेरा रक्षक है
दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी के साथ उनके जर्मन मित्र कैलनबैक रहते थे गांधीजी के प्रयोगों में वह उनका बराबर साथ देते थे उन्हीं दिनों किसी ग़लतफहमी के कारण कुछ भोले-भाले पठान गांधीजी से नाराज हो गये कुछ लोगों ने उनको और भी भड़का दिया वातावरण गर्म हो उठा लगा वे पठान किसी भी समय गांधीजी पर हमला कर सकते हैं कैलनबैक को भी यह बात मालूम हुई तबसे वह बराबर गांधीजी के साथ रहने लगे गांधीजी को मालूम न हो, इस तरह जहाँ भी गांधीजी जाते, वह भी उनके साथ हो लेते एक दिन दफ्तर से बाहर जाने के लिए गांधीजी कोट पहन रहे थे कैलनबैक का कोट भी पास ही टंगा हुआ था गांधीजी ने देखा कि उनकी जेब भारी हैं उनको ऐसा अनुभव हुआ, जैसे उसमें रिवाल्वर था उन्होंने तुरंत जेब की तलाशी ली सचमुच उसमें रिवाल्वर था उन्होंने कैलनबैक को बुलाया पूछा, "यह रिवाल्वर अपनी जेब में किसलिए रखते हैं ?" कैलनबैक सहसा हतप्रभ हो उठे लज्जित होकर उत्तर दिया, "कुछ नहीं, ऐसे ही" गांधीजी हँस पड़े बोले, "रस्किन और टाँल्सटाँय की पुस्तकों में ऐसा लिखा है कि बिना कारण रिवाल्वर जेब में रखा जाये ? इस परिहास से कैलनबैक और भी शर्मिन्दा हुए बोले, "मुझे पता लगा हैं कि कुछ गुण्डे आप पर हमला करनेवाले हैं" "और आप उनसे मेरी रक्षा करना चाहते हैं ?" "जी हाँ, मैं इसलिए आपके पीछे-पीछे रहता हूँ" कैलनबैक का यह उत्तर सुनकर गांधीजी खूब हँसे बोले,"अच्छा तब तो मैं निश्चिन्त हुआ मेरी रक्षा करने का प्रभु का जो उत्तरदायित्व था, वह आपने ले लिया है जब तक आप जीवित हैं, तबतक मुझे अपने आपको सुरक्षित समझना चाहिए वाह, मेरे प्रति स्नेह के कारण आपने प्रभु का अधिकार छीन लेने का खूब साहस किया" यह सुनकर कैलनबैक विचलित हो उठे उन्हें अपनी भूल मालूम हुई गांधीजी फिर बोले,"क्या सोच रहे हो ? यह भगवान के प्रति श्रद्धा के लक्षण नहीं हैं मेरी रक्षा की चिन्ता मत करो मेरी चिन्ता करनेवाला तो वह सर्वशक्तिमान प्रभु है इस रिवाल्वर से आप मेरी रक्षा नहीं कर सकते" अत्यन्त नम्र भाव से कैलनबैक बोले, "मेरी भूल हुई मैं अब और आपकी चिन्ता नहीं करूंगा" यह कहकर उन्होंने वह रिवाल्वर फेंक दिया
२.धमकी देना हिंसा है
गांधीजी जोहानिसबर्ग (दक्षिण अफ्रीका) में वकालत करते थे श्री पोलक उनके साथ थे वह उनका हिसाब-किताब रखते थे गांधीजी का एक मुवक्किल था वह फीस समय पर नहीं देता था धीरे-धीरे उसपर बहुत कर्जा चढ़ गया, परन्तु बार-बार तकादा करने पर भी उसने भुगतान करने की जरा भी चिन्ता नहीं की जब पोलक बहुत परेशान हो उठे तो उन्होंने अदालत में जाने का निश्चय किया उसके लिए जरूरी कागजात तैयार किये और गांधीजी के पास जाकर बोले,"इन कागजों पर हस्ताक्षर कर दीजिये" गांधीजी उन कागजों को पढ़कर पोलक से बोले, "क्या आप नहीं जानते कि मैं इस प्रकार के कामों के लिए अदालतों के दरवाजे नहीं खटखटाता? धमकी देना हिंसा ही तो हैं और हिंसा के द्वारा किसी व्यक्ति को ईमानदार नहीं बनाया जा सकता अगर वह व्यक्ति मेरे पैसे नहीं चुकाता तो मुझे अपनी मूर्खता का फल भोगना ही चाहिए मैने ही तो उसे छूट दे रखी थी यदि समय पर उससे फीस लेता रहता तो यह स्थिति पैदा न होती अपराध मेरा भी हैं" और वह अदालत में नहीं गये
३.कसूर तुम्हारा नहीं, मेरा है
एक बार दक्षिण अफ्रीका में एक महीने तक बिना नमक का भोजन करने की प्रतिज्ञा लेकर फिनिक्स-आश्रम में भर्ती हुए लेकिन शीघ्र ही वे इस सादे भोजन से उकता गये एक दिन उन्होंने डरबन से खाने की मसालेदारे और स्वादिष्ट चीजें मंगवाई और चुपचाप खा ली बाद में उन्हीं में से एक युवक ने, जिसने वे चीजें खाई थी, इस बात की सूचना गांधीजी को दे दी शाम की प्रार्थना में गांधीजी ने उन्हें एक-एक करके बुलाया और पूछा, "क्या तुमनें वह खाना खाया?"
सबने स्पष्ट इन्कार कर दिया इतना ही नहीं, उन्होंने सूचना देनेवाले को झूठा ठहराया इसपर गांधीजी बड़े जोर से अपने गालों को पीटने लगे और बोले, "मुझसे सच्चाई छिपाने में कसूर तुम्हारा नहीं, मेरा हैं, क्योकि अभी तक मैने सत्य का गुण प्राप्त नहीं किया है सत्य मुझसे दूर भागता है" वह अपने को ताड़ना देते ही रहे यह स्थिति कब तक बर्दाश्त की जा सकती थी सारे युवक एक-एक करके उनके सामने आये और उन्होंने अपना अपराध स्वीकार कर लिया
५.आटा पीसना तो अच्छा है
गांधीजी ने जब दक्षिण अफ्रीका में आश्रम खोला था, तब उनके पास जो कुछ भी अपना था, सब दे दिया था स्वदेश लौटेर तो कुछ भी साथ नहीं लाये सबका वहीं ट्रस्ट बना दिया और ऐसा प्रबन्ध कर दिया कि उसका उपयोग सार्वजनिक कार्य के लिए होता रहे भारत लौटने पर पैतृक सम्पत्ति का प्रश्न सामने आया पोरबन्दर और राजकोट में उनके घर थे उनमें गांधी-वंश के दूसरे लोग रहते थे उन सबको बुलाकर गांधीजी ने कहा, "पैतृक सम्पत्ति में मेरा जो कुछ भी हिस्सा है, उसे मैं आपके लिए छोड़ता हूँ" वह केवल कहकर ही नहीं रह गये, लिखा-पढ़ी करवाने के बाद अपने चारों पुत्रों के हस्ताक्षर भी उन कागजों पर करवा दिये इस प्रकार वे कानूनी हो गये गांधीजी की एक बहन भी थीं उनका नाम रलियातबहन था, लेकिन सब उनको गोकीबहन कहकर पुकारते थे उनके परिवार में कोई भी नहीं था प्रश्न उठा कि उनका खर्च कैसे चले अपने निजी काम के लिए गांधीजी किसी से कुछ नहीं मांगते थे फिर भी उन्होंने अपने पुराने मित्र डाँ प्राणजीवनदास मेहता से कहा कि वह गोकीबहन को दस रुपये मासिक भेज दिया करें भाग्य की विडम्बना देखिये! कुछ दिन बाद गोकीबहन की लड़की भी विधवा हो गई और माँ के साथ आकर रहने लगी उस समय बहन ने गांधीजी को लिखा, "अब मेरा खर्च बढ़ गया है उसे पूरा करने के लिये हमें पड़ोसियों का अनाज पीसना पड़ता हैं" गांधीजी ने उत्तर दिया,"आटा पीसना बहुत अच्छा है दोनों का स्वास्थ्य ठीक रहेगा हम भी आश्रम में आटा पीसते हैं तुम्हारा जब जी चाहे, तुम दोनों आश्रम में आ सकती हो और जितनी जन-सेवा कर सको, उतना करने का तुम्हें अधिकार है जैसे हम रहते हैं,वैसे ही तुम भी रहोगी मैं घर पर कुछ नहीं भेज सकता और न अपने मित्रों से ही कर सकता हूँ"
६.अब तू मेरी विवाहिता नहीं रही
दक्षिण अफ्रीका में एक दिन श्रीमती कस्तूरबा गांधी रसोईघर में खाने की कोई चीज बना रहीं थी गांधीजी कुछ और काम कर रहे थे सहसा उन्होंने कस्तूरबा से पूछा, "तुझे पता चला या नहीं?" बा उत्सुक स्वर में बोलीं,"क्या?" गांधीजी ने हँसते हुए कहा, "आजतक तू मेरी विवाहिता पत्नी थी, लेकिन अब नहीं रही" बा ने चकित होकर उनकी और देखा पूछा, "ऐसा किसने कहा हैं? आप तो रोज नई-नई बातें खोज निकालते हैं" गांधीजी बोले, "मैं कहाँ खोज निकालता हूँ यह जनरल स्मट्स कहता है कि ईसाई विवाहों की तरह हमारा विवाह सरकारी अदालत के रजिस्टर में दर्ज नहीं हुआ है, इसलिए वह गैर कानूनी माना जायेगा और तू मेरी विवाहिता पत्नी नहीं बल्कि रखैल मानी जायेगी" बा का चेहरा तमतमा उठा बोली, "उसका सिर! उस निठल्ले को ऐसी बातें सूझा करती हैं" गांधीजी ने पूछा, "लेकिन अब तुम स्त्रियाँ क्या करोगी?" बा बोलीं, "आप ही बताइये, "हम क्या करें?" गाँधीजी तो यह सुनने के लिए तैयार बैठे थे तुरन्त बोले, "हम पुरुष जिस तरह सरकार से लड़ते हैं, वैसे तुम स्त्रियाँ भी लड़ो अगर तुम्हें विवाहिता पत्नी बनना हो और अपनी आबरू प्यारी हो तो तुम्हे भी हमारी तरह सत्याग्रह करके जेल जाना चाहिए" बा ने अचरज से कहा, "मैं जेल जाँउ! औरतें भी कभी जेल जा सकती है?" गांधीजी एकाएक गम्भीर हो उठे बोले, "औरतें जेल क्यों नहीं जा सकतीं? राम के साथ सीता, हरिशचन्द्र के साथ तारामती और नल के साथ दमयन्ती--इन सभी ने वनो में अपार दु:ख सहे थे" बा बोली, "वे सब तो देवताओं- जैसे थे उतनी शक्ति हममें कहाँ है" गांधीजी ने उत्तर दिया, "हम भी उनके जैसा आचरण करें तो देवता बन सकते हैं मैं राम बन सकता हूँ और तू सीता बन सकती है सीता राम के साथ न गई होती, तारा हरिशचन्द्र के साथ न बिकी होती औरे दमयन्ती ने नल के साथ कष्ट न उठाये होते तो उन्हें कोई भी सती न कहता" यह सुनकर बा कुछ देर चुप रहीं फिर बोलीं, " तो मुझे आपको जेल में भेजना ही हैं जाऊँगी जेल में भी जाऊँगी लेकिन जेल का खाना क्या मुझे अनुकुल आयेगा?" गांधीजी बोले, "जेल का खाना अनुकुल न आवे तो वहाँ फलों पर रहना" बा ने पूछा, "जेल में सरकार मुझे फल खाने को देगी?" गांधीजी ने कहा, "न दे तो तू उपवास करना" यह सुनकर बा हँस पड़ी और बोली, "ठीक है यह मुझे आपने अच्छा मरने का रास्ता बता दिया लगता है कि अगर मैं जेल गई तो जरूर मर जाऊँगी" गांधीजी खिलखिला पड़े और कहा, "हाँ-हाँ तू जेलो में जाकर मरेगी तो मैं जगदम्बा की तरह तेरी पूजा करूँगा" बा दृढ़ स्वर में बोली, "अच्छा, तब तो मैं जेल जाने को तैयार हूँ"
७.चालीस के चालीस हजार हो जायेंगे
गांधीजी उस समय फिनिक्स-आश्रम में रहते थे दक्षिण अफ्रीका की सरकार से अंतिम संघर्ष आरम्भ ही होनेवाला था तभी एक रात को प्रार्थना के बाद उनके एक साथी रावजी- भाई मणिभाई पटेल ने कहा,"बापूजी डरबन में आज मैं खूब घूमा, परन्तु सत्याग्रह के बारें में मुझे कोई उत्साह नहीं दिखाई दिया इसके विपरीत अधिकांश लोगों में इसके प्रति अश्रद्धा ही भरी हुई हैं बहुत से लोग कहते हैं कि गांधीभाई व्यर्थ ही पेट दबाकर दर्द पैदा कर रहे हैं सिद्धांत और मानापमान की बात छोड़कर जो कुछ हम पैदा करते हैं, उसे करने दें तो बहुत अच्छा यदि हम गोरों के साथ संघर्ष करेंगे तो वे हमें और भी दुख देंगे आज जैसी स्थिति है, उसमें रहना ही क्या अच्छा नहीं होगा? जरा मूंछ नीची रखकर चल लेंगें यहां हम रुपया कमाने के लिये आये हैं, बर्बाद होने के लिए नहीं स्वाभिमान की रक्षा के लिए जेल में जाना होता तो हम यहां किसलिए आते..? बापूजी, ऐसी साफ-साफ बातें बहुत-से लोगों ने मुझसे कहीं मैं इससे बहुत दुखी हुआ हूँ सच तो यह है कि सरकार से लड़ने के लिए हमारे पास कितनी शक्ति प्राप्त हुई? क्या आपने कभी हिसाब लगाया है कि इतनी बड़ी सरकार से लड़ने के लिए हमारे पास कितने आदमी हैं?" गांधीजी हंसे और बोले, "मैं तो रात-दिन हिसाब लगाता रहता हूँ, फिर भी चाहो तो तुम गिन सकते हो सभी तो हमारे परिचित है" रावजीभाई ने गिनना शुरु किया संख्या चालीस पर आकर ठहर गई उन्होंने कहा, "बापूजी ऐसे चालीस व्यक्ति हैं" गम्भीर स्वर में गांधीजी ने पूछा," परन्तु ये चालीस योद्धा कैसे हैं?" रावजीभाई पटेल इस प्रश्न का अर्थ समझते थे बोले,"ये चालीस तो ऐसे हैं, जो अन्त तक जूझेंगे ये जीकर भी जीतेंगे और मरकर भी जीतेंगे" यह सुनकर गांधीजी बोल उठे, "बस ऐसे चालीस सत्याग्रही योद्धा-प्राणों की बाजी लगाकर अन्त तक जूझनेवाले चालीस सत्याग्रही योद्धा-काफी हैं तुम देख लेना, ऐसे चालीस योद्धाओं के चालीस हजार योद्धा हो जायेंगे" यह कहते हुए गांधीजी बहुत ही भावावेश से भर उठे उनके रोंगटे खड़े हो गये उसी स्वर में वह फिर बोले, "ये चालीस भी न हों तो मैं अकेला ही गोखले के अपमान का बदला लेने को काफी हूँ कितनी ही बड़ी सल्तनत क्यों न हो, गोखले के साथ विश्वासघात करनेवाले के विरुद्ध मैं अकेला ही संघर्ष करुंगा जबतक गोखले को दिया वचन पूरा नहीं किया जाता, तबतक पागल बनकर मैं गोरों का द्वार खटखटाऊंगा गोखले का अपमान हो ही कैसे सकता है? यह कैसे सहन हो सकता हैं?"
८/ मेरे घर में यह कलह नहीं चल सकता
गांधीजी डरबन में वकालत करते थे उनके मुंशी भी प्राय: उन्हीं के साथ रहते थे उसमें हिन्दू,ईसाई,गुजराती,मद्रासी सभी धर्म और प्रान्तों के व्यक्ति होते थे गांधीजी उनके साथ किसी तरह का भेद-भाव नहीं रखते थे उन्हे अपने परिवार के रुप में ही मानते थे जिस घर में वह रहते थे, उसकी बनावट पश्चिमी ढंग की थी कमरों में नालियां नहीं थी पेशाब के लिए खास तरह के बरतन रखे जाते थे उन्हें नौकर नहीं उठाते थे यह काम घर के मालिक और मालकिन करते थे जो मुंशी घर में घुल-मिल जाते थे, वें अपने बरतन स्वयं ही उठा ले जाते थे एक बार एक ईसाई मुंशी उनके घर में रहने के लिये आया उसका बरतन घर के मालिक और मालकिन को ही उठाना चाहिए था लेकिन कस्तुरबा गांधी ने इस मुंशी का बरतन उठाने से इंकार कर दिया वह मुंशी पंचम कुल में पैदा हुआ था उसका बरतन बा कैसे उठाती! गांधीजी स्वयं उठावें, यह भी वह नहीं सह सकती थीं इस बात को लेकर दोनों में काफी झगड़ा हुआ बा बरतन उठाकर ले तो गई, लेकिन क्रोध और ग्लानि से उनकी आंखे लाल हो आई गांधीजी को इस तरह बरतन उठाने से संतोष नहीं हुआ वह चाहते थे कि बा हंसते-हंसते बरतन ले जायें, इसलिये उन्होंने ऊंचे स्वर में कहा, "मेरे घर में यह कलह नहीं चल सकता" ये शब्द बा के हृदय में तीर की तरह चुभ गये वह तड़प-कर बोलीं,"तो अपना घर अपने पास रखो मैं जाती हूँ" गांधीजी भी कठोर हो उठे क्रोध में भरकर उन्होंने बा का हाथ पकड़ा और दरवाजे तक खींचकर ले गये वह उन्हें बाहर कर देना चाहते थे, लेकिन जैसे ही उन्होंने दरवाजा खोला अश्रुधारा बहाती हुई बा बोलीं, "तुमको तो शर्म नहीं है, लेकिन मुझे है जरा तो शर्माओ मैं बाहर निकलकर कहाँ जाऊं यहाँ मेरे मां-बाप भी नहीं हैं, जो उनके घर चली जाऊं मैं स्त्री ठहरी तुम्हारी धौंस मुझे सहनी होगी अब शर्म करो और दरवाजा बंद कर दो कोई देख लेगा तो दोनों का ही मुंह काला होगा" यह सुनकर मन-ही-मन गांधीजी बहुत लज्जित हुए उन्होंने दरवाजा बंद कर दिया सोचा--अगर पत्नी मुझै छोड़कर कहीं नहीं जा सकती तो मैं भी उसे छोड़कर कहाँ जानेवाला हूँ
९/मैं तुमको अंग्रेजी पढ़ाऊंगा
एक बार दक्षिण अफ्रीका में एक मुसलमान बटलर गांधीजी के पास आया बोले, "गांधीभाई, मुझे बहुत थोड़ी तनख्वाह मिलती है बाल-बच्चेदार आदमी हूँ उतने में गुजारा नहीं होता अगर मुझे थोड़ी-सी अंग्रेजी आ जाये तो ज्यादा तनख्वाह मिल सकती है" गांधीजी उन दिनों बैरिस्टर थे उन्होंने क्षणभर सोचा और फिर मन-ही-मन निश्चय करके जवाब दिया, "अच्छा, मैं तुमको अंग्रेजी पढ़ाऊँगा" बटलर चकित होकर गांधीजी की तरफ देखने लगा विलायती ठाठ से रहनेवाला यह बैरिस्टर मुझे अंग्रेजी सिखायेगा! उसे बहुत खुशी हुई, लेकिन उसके सामने एक और समस्या थी उसने वह समस्या भी गांधीजी के सामने रखी और कहा, "आप मुझे पढ़ायेंगे तो यह ठीक है, लेकिन नौकरी से समय निकालकर मैं यहाँ जल्दी कैसे आ सकता हूँ?" गांधीजी ने तुरन्त जवाब दिया, "तुम इसकी फिकर मत करो मैं तुम्हारे घर आकर पढ़ाया करुंगा" बटलर की आंखे कृतज्ञता से भीग आईं बैरिस्टर गांधी प्रतिदिन चार मील पैदल चलकर उसको अंग्रेजी पढ़ाने के लिए जाते और फिर उसी प्रकार घर वापस लौटते यह एक-आध दिन की बात नहीं थी पूरे आठ महीने तक यही क्रम चलता रहा
१०/प्रतिज्ञा वापस नहीं ली जाती
एक बार कस्तूरबा गांधी बहुत बीमार हो गईं जल-चिकित्सा से उन्हें कोई लाभ नहीं हुआ दूसरे उपचार किये गये उनमें भी सफलता नहीं मिली अंत में गांधीजी ने उन्हें नमक और दाल छोड़ने की सलाह दी परन्तु इसके लिए बा तैयार नहीं हुईं गांधीजी ने बहुत समझाया, पोथियों से प्रमाण पढ़कर सुनाये, लेकर सब व्यर्थ बा बोलीं, "कोई आपसे कहे कि दाल और नमक छोड़ दो तो आप भी नहीं छोड़ेंगे" गांधीजी ने तुरन्त प्रसन्न होकर कहा,"तुम गलत समझ रही हो मुझे कोई रोग हो और वैद्य किसी वस्तु को छोड़ने के लिये कहें तो तुरन्त छोड़ दूंगा और तुम कहती हो तो मैं अभी एक साल के लिए दाल और नमक दोनों छोड़ता हूं, तुम छोड़ो या न छोडो, ये अलग बात है" यह सुनकर बा बहुत दुखी हुईं बोलीं, "आपका स्वभाव जानते हुए भी मेरे मुंह से यह बात निकल गई अब मैं दाल और नमक नहीं खांऊगी आप प्रतिज्ञा वापस ले लें" गांधीजी ने कहा, "तुम दाल और नमक छोड़ दोगी, यह बहुत अच्छा होगा उससे तुम्हें लाभ ही होगा, लेकिन की हुई प्रतिज्ञा वापिस नहीं ली जाती किसी भी निमित्त से संयम पालन करने पर लाभ ही होता है मुझे भी लाभ ही होगा इसलिए तुम मेरी चिन्ता मत करो" गांधीजी अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहे
११/देश-सेवा की और पहला कदम
गांधीजी ने साबरमती में आश्रम खोला था एक भाई उनसे मिलने आये वह बहुत अच्छी अंग्रेजी जानते थे और मानते थे कि बढिया अंग्रेजी में लेख लिखना देश की सेवा करना हैं उन्होंने गांधीजी से कहा,"मेरे योग्य कोई हो तो बताइये" उनका विचार था कि गांधीजी उनसे अंग्रेजी में लेख लिखने के लिए कहेंगे, पर बात कुछ और ही हुई उस समय गांधीजी गेहूं साफ कर रहे थे उन्होंने कहा,"वाह यह तो बहुत अच्छी बात है ये गेहूं बीनने है आप मदद करेंगे?" वह भाई सकपका गये अच्छा महीं लगा, परन्तु मना भी कैसे करते! बोले, "अवश्य मदद करुंगा" वह गेहूं बीनने लगे ऊपर से शान्त, मन में सोच रहे थे कि कहां आ फंसा! गांधीजी कैसे हैं? इतनी बढ़िया अंग्रेजी जाननेवाले से गेहूं बिनवाते हैं! किसी तरह राम-राम करके उसने घंटा पूरा किया फिर बोला, "बहुत समय हो गया, अब जाना चाहता हूं" गांधीजी ने कहा, "बस घबरा गये?" उसने कहा, "नहीं, घबराया तो नहीं, पर घर पर जरूरी काम है" गांधीजी ने पूछा, "क्या काम है?" वह भाई बोले, "जी, रात को खाने में देर हो जाती है, इससे संध्या का नाश्ता कर लेता हूं, उसी का समय हो रहा है" गांधीजी हंस पड़े बोले, "इसके लिये घर जाने की जरूरत नहीं है हमारा भोजन भी बस तैयार होने वाला है हमें भी एक बार अपने साथ भोजन करने का मौकाअ दीजिये हमारी नमक-रोटी आपको पसन्द होगी न? मैं काम में लगा हुआ था आपसे बातें नहीं कर सका माफ करें,अब खाते समय बातें भी कर लेंगे" वह भाई क्या करते! रुकना पड़ा कुछ देर में खाने का समय हो गया भोजन एकदम सादा रूखी रोटी,चावल और दाल का पानी न घी,न अचार,न मिर्च,न मसाले बापू ने उन भाई को अपने पास बैठाया बड़े प्यार से खाना परोसा भोजन शुरु होते ही बातें भी शुरु हो गई, पर उन भाई की बुरी हालत थी वह ठहरे मेवा-मिठाई से नाश्ता करने वाल और वहां थी रुखी रोटी एक टुकड़ा मुंह में दें और एक घूंट पानी पिये तब भी एक रोटी पूरी न खा सके इतने पर भी छुट्टी मिल जाती तो गनीमत थी वहां तो अपने बरतन आप मांजने का नियम था जैसे-तैसे वह काम भी किया तब कहीं जाकर जाने का अवसर आया जाते समय गांधीजी ने उनसे कहा, "आप देश की सेवा करना चाहते हैं, यह अच्छी बात है आपके ज्ञान और आपकी सूझ-बूझ का अच्छा उपयोग हो सकता है लेकिन इसके लिए शरीर का निरोग और मजबूत होना जरूरी हैं आप अभी से उसकी तैयारी करें यही आपका देश-सेवा की ओर पहला कदम होगा"
१२/मैं तुझसे डर जाता हूं
साबरमती-आश्रम में रसोईघर का दायित्व श्रीमती कस्तुरबा गांधी के ऊपर था प्रतिदिन अनेक अतिथि गांधीजी सें मिलने के लिए आते थे बा बड़ी प्रसन्नता से सबका स्वागत-सत्कार करती थीं त्रावनकोर का रहने वाला एक लड़का उनकी सहायता करता था एक दिन दोपहर का सारा काम निपटाने के बाद रसोईघर बन्द करके बा थोड़ा आराम करने के लिये अपने कमरे में चली गईं गांधीजी मानो इसी क्षण की राह देख रहे थे बा के जाने के बाद उन्होंने उस लड़के को अपने पास बुलाया और बहुत धीमे स्वर में कहा, "अभी कुछ मेहमान आनेवाले हैं उनमें पंड़ित मोतीलाल नेहरु भी हैं उन सब के लिए खाना तैयार करना है बा सुबह से काम करते-करते थक गई हैं उन्हें आराम करने दे और अपनी मदद के लिए कुसुम को बुला ले और देख, जो चीज जहां से निकाले, उसे वहीं रख देना" लड़का कुसुम बहन को बुला लाया और दोनो चुपचाप अतिथियों के लिए खाना बनाने की तैयारी करने लगे काम करते-करते अचानक एक थाली लड़के के हाथ से नीचेर गिर गई उसकी आवाज से बा की आंख खुल गई सोचा रसोईघर में बिल्ली घुस आई है वह तुरन्त उठकर वहां पहुंची, लेकिन वहां तो और कुछ ही दृश्य था बड़े जोरों से खाना बनाने की तैयारियां चल रही थीं वह चकित भी हुईं और गुस्सा भी आया ऊंची आवाज में उन्होंने पूछा, "तुम दोनों ने यहां यह सब क्या धांधली मचा रखी हैं?" लड़के ने बा को सब कहानी कह सुनाई इसपर वह बोलीं, "तुमने मुझे क्यों नहीं जगाया?" लड़के ने तुरन्त उत्तर दिया, "तैयारी करने के बाद आपको जगानेवाले थे आप थक गई थीं, इसलिए शुरु में नहीं जगाया" बा बोलीं, "पर तू भी तो थक गया था क्या तू सोचता है, तू ही काम कर सकता हैं,मैं नहीं कर सकती ?" और बा भी उनके साथ काम करने लगीं शाम को जब सब अतिथि चले गये तब वह गांधीजी के पास गईं और उलाहना देते हुए बोलीं, "मुझे न जगाकर आपने इन बच्चों को यह काम क्यों सौंपा?" गांधीजी जानते थे कि बा को क्रोध आ रहा है इसलिए हंसते-हंसते उन्होंने उत्तर दिया, "क्या तू नहीं जानती कि तू गुस्सा होती है, तब मैं तुझसे ड़र जाता हूं?" बा बड़े जोर से हंस पड़ीं, मानो कहती हों --"आप और मुझसे डरते हैं!"
१३ / तुझे नहीं मरूंगा ......................
सन् १९३३ में गांधीजी यरवदा-जेल में थे. उस समय हरिजन-कार्य को लेकर उन्होंने इक्कीस दिन का उपवास करने का निश्चय किया था. एक दिन पांच बजे खबर आई कि कोई हरिजन बालक उनसे मिलना चाहता है. समय नहीं था, लेकिन बेचारा लड़का कई घंटों से दरवाजे पर बैठा बाट जोह रहा था. वह पांच महीने पहले भी आया था. उस समय उसने गांधीजी से छात्रवृति मांगी थी. गांधीजी ने उसे वचन दिया था कि यदि वह कालेज के प्रिंसिपल का प्रमाण-पत्र ले आयेगा तो मदद के लिए विचार करेंगे. अब वह परिक्षा पास करके और प्रिंसिपल का प्रमाण-पत्र लेकर आया था. जेल में मिलने आने के लिए उसने चप्पल की जोड़ी खरीदी थी. बड़ी मुसीबत उठाकर उसने ये पैसे इकट्ठे किये थे. महादेवभाई ने गांधीजी से कहा कि वह लड़का एक मिनट से ज्यादा नहीं लेगा. वह इतना आश्वासन चाहता है कि ठक्करबापा उसकी बात पर ध्यान देकर उसकी मदद करें. वह लड़का आया. अपने साथ वह फूल लाया था. उन्हें उसने गांधीजी के चरणों में रखा लेकिन जब गांधीजी ने उसे उसकी बात ठक्करबापा तक पहुंचाने का आश्वासन दिया तो उसने कहा," मैं दूसरों पर विश्वास नहीं करता. मेरा तो आप ही पर विश्वास है." गांधीजी बोले,"अगर मेरे साथी इतने अप्रामाणिक हैं तो मैं सबसे ज्यादा अप्रामाणिक ठहरा. तुम्हें मुझपर भी विश्वास नहीं रखना चाहिए." यह सुनकर लड़का रो पड़ा. हिचकियां भरते हुए बोला, आप हमें छोड़कर जाने के लिए किसलिए तैयार हो गये हैं? आप ही कहते हैं कि आपके साथी अपवित्र हैं.
आपके आसपास पवित्रता का वायुमण्डल नहीं है, और इसलिए आप उपवास करना चाहते हैं." गांधीजी ने कहा, "तुम जो यह कहते हो कि मैं तुम्हें छौड़कर जा रहा हूं, सो मैं नहीं जाऊंगा." लड़का बोला, "मैं कैसे मानूं?"
१६/इन पर आकाश से फूल बरसने चाहिए
यरवदा जेल में एक बिल्ली थी एक बार उसके दो बच्चे हुए जैसे ही वे कुछ बडे हुए कि तरह-तरह के केल करके सबको रिझाने लगे गांधीजी से उन्हे देखकर बहुत खुश होते थे वे भी धीरे -गांधीजी से इतना हिल-मिल गये कि प्रार्थना के समय उनकी गोद में आ बैठते या फिर उनके इधर -उधर चक्कर लगाने परन्तु वल्लभभाई उन्हें तार की जाली के नीचे बन्द करके आनन्द लेते एक दिन वल्लभभाई ने एक बच्चे को जाली के नीचे बन्द कर दिया तो वह सिर पटकते -पटकते जाली वरामदे के सिरे तक ले गया और फिर बाहर निकल गया यह सब उसने अपनी बुद्धि से ही किया कुछ दूर जाकर वह शौच की तैयारी करने लगा जमीन खोदी शौच करके उसे ढका वहां मिट्टी बहुत नहीं थी इसलिए दूसरी जगह गया वहां उसने यह क्रिया संतोषपूर्वक की और पहले की तरह उसे ढंकने लगा दूसरे बच्चे ने भी इस काम में उसकी मदद की गांधीजी यह सब देख रहे थे बोले इन बच्चों पर आकाश से फूल बरसने चाहिए
१७/गरीबी के व्रती ऐसी भेंट नहीं दे सकते
साबरमती आश्रम में एक बार श्रीमती कस्तूरबा गांधी के कमरे में चोरी हो गई चोर कपड़ों से भरी हुई दोपेटियां उठाकर ले गये कपड़े उन्होंने निकाल लिये और पेटियां वहीं खेत में छोड़कर चले गये जब यह समाचार गांधीजी को मिला तो उन्होंने पूछा ;बा के पास दो पेटी -भर कपड़े कहां से आये ?वह रोज बदल-बदलकर साडियां तो पहनती नहीं बा ने कहा रामी और मनु की मां तो भगवान के घर तली गई लेकिन जब कभी ये बच्चियां मेरे पास आयेंगी तो उन्हे देन के लिए दो कपड़े तो मुझे चाहिए ही इसी विचार से कुछ साड़ियाँ और खादी उन पेटियों में रख छोड़ी थी इस बात का विरोध करते हुए गांधीजी ने कहा "हम कपड़ों का संग्रह नहीं कर सकते पहनने के लिए जितने जरूरी हो उतने ही अपने पास रखे जा सकते हैं उससे अधिक हो तो उन्हे आश्रम के कार्यालय में करा देना चाहिए गांधीजी इतना कहकर ही संतुष्ट नहीं हुए उसी दिन सायंकाल की प्रार्थना के बाद उन्होंने सार्वजनिक रूप से इस विषय की चर्चा की और कहा "हमारे जैसे लोगों को इस प्रकार का व्यवहार करने का अधिकार नहीं है लडकियां हमारे घर
आवे तो वे रहें और खाये-पिये लेकिन जिन्होंने गरीबी का व्रत लिया है वे अपनी लड़कियों को ऐसी भेंट नहीं दे सकते
१८/जो दूसरों पर आश्रित है वे नंगे ही हैं
गांधीजी बारडोली तहसील में थे प्रतिदिन हजारों स्त्री-पुरूष उनके दर्शनों के लिए आते थे एक दिन एक भद्र महिला उनके दर्शन करने आई उसके हाथ में रूमाल से ढंकी एक थाली थी उस थाल में रूपये भरे हुए थे महिला ने वह थाली सामने रखकर बड़ी श्रद्धा से उन्हे प्रणाम किया. गांधीजी ने एक क्षण उस महिला की ओर देखा फिर गम्भीर भाव से बोले तुम मेरे सामने इस प्रकार नंगी कैसे आईं? यह सुनकर सब उपस्थित व्यक्ति स्तब्ध रह गये महिला ने घबराकर अपने वस्त्रों पर एक दृष्टि डाली कही से वे फटे तो नहीं रहे ?सभी वस्त्र सुंदर और नये थे किसी की कुछ समझ में नहीं आया गांधीजी बोले मेरी बात का अर्थ तुम लोगो की समझ में नहीं आया सबों की बुद्धि मानो जड़ हो गई है इस बहन के सभी कपड़े विलायती है न?आज तुम सबकी लाज विलायती कपड़े ढंकते हैं?यदि कल को विलायत से कपड़ा नहीं आया तो तुम्हारी लाज कैसे ढंकी जायेगी?जो दूसरे पर आश्रित रहते हैं वे नंगे ही होते हैं अपनी इज्जत को अपने हाथ से कातकर खादी पहननी चाहिए
१९/लेकिन सिर्फ नाक ही क्यों...
एक बार गांधीजी बारडोली में ठहरे हुए थे किसी ने उनके साथियों को सूचना दी कि एक हट्टा-कट्टा पहाड़ जैसा काबुली मस्जिद में आकर ठहरा है क्योंकि वह गांधीजी के बारे में पूछता रहता है कही वह गांधीजी पर हमला न कर दे इसलिए उनके साथियों ने मकान के आस-पास कंटीले तारों की जो आड़ लगी हुई थी उसका दरवाजा बंद करके ताला लगा दिया उसी वह काबुली उस दरवाजे के पास देखा. उसने अंदर आने का प्रयत्न भी किया, लेकिन वहां पहरेदार थे, इसलिए सफल नहीं हो सका. रे दिन कुछ मुसलमान भाइयों ने आकर बताया, "वह काबुली पागल मालूम होता है. कहता है कि मैं गांधीजी की नाक काटूंगा. यह सुनकर सब लोग और भी घबराये, लेकिन गांधीजी से किसी ने कुछ नहीं कहा. वे उसी तरह अपना काम करते रहे. रात होने पर वह अपने स्वभाव के अनुसार खुले आकाश के नीचे सोने के लिए अपने बिस्तर पर पहुंचे. उन्होंने देखा कि उनको घेरकर चारों ओर कुछ लोग सोये हुए हैं. उन्हें आश्चर्य हुआ. पूछा, " आप सब लोग तो बाहर नहीं सोते थे. आज यह क्या बात है?" उन लोगों ने उस काबुली की कहानी कह सुनाई. सुनकर गांधीजी हंस पड़े और बोले, "आप मुझे बचाने वाले कौन हैं? भगवान ने मुझे यदि इसी तरह मारने का निश्चय किया है तो उसे कौन रोक सकेगा? जाइये आप लोग अपने रोज के स्थान पर जाइये." गांधीजी के आदेश की उपेक्षा भला कौन कर सकता था! सब लोग चले गये, परंतु सोया कोई नहीं. वह काबुली पहली रात की तरह आज भी आया, लेकिन अंदर नहीं आ सका. फिर सवेरा हुआ. प्रार्थना आदि कार्यों से निबटकर गांधीजी कातने बैठे. देखा, वह काबुली फिर वहां आकर खड़ा हो गया है. एक व्यक्ति ने गांधीजी से कहा, "बापू, देखिये, यह वही काबुली है." गांधीजी बोले, "उसे रोको नहीं, मेरे पास आने दो." वह गांधीजी के पास आया. उन्होंने पूछा, "भाई, तुम यहां क्यों खड़े थे?" काबुली ने उत्तर दिया, "आप अहिंसा का उपदेश देते हैं. मैं आपकी नाक काटकर यह देखना चाहता हूं कि उस समय आप कहां तक अहिंसक रह सकते हैं."
गांधीजी हंस पड़े और बोले, "बस, यही देखना है, लेकिन सिर्फ नाक ही क्यों, अपना यह धड़ और यह सिर भी मैं तुम्हें सौंपे देता हूं. तुम जो भी प्रयोग करना चाहो, बिना झिझक के कर सकते हो." वह काबुली गांधीजी के प्रेम भीने शब्द सुनकर चकित रह गया. उसने ऐसा निडर व्यक्ति कहां देखा था! एक क्षण वह खड़ा रहा. फिर बोला, "मुझे यकीन हो गया है कि आप सत्य और अहिंसा के पुजारी हैं. मुझे माफ कर दीजिये."
२०) मैं भंगी की चरण-रज ले लूंगा, पर
जब गोलमेज परिषद् में भाग लेने के लिए गांधीजी इंग्लैंड गये तो देश-विदेश के अनेक संवाददाता उनके साथ थे! उनमें से बहुत-से संवाददाता जहाजी जीवन की घटनाओं पर नमक-मिर्च जगाकर प्रसारित करते थे! वे प्रार्थना के दृश्य तथा चर्खा कातने के चित्र देकर ही संतुष्ट नहीं होते थे. ऐसी-ऐसी कल्पनाएं भी करते थे! कि हंसी आ जाये! उदाहरण के लिए एक संवाददाता ने एक ऐसी बिल्ली का आविष्कार किया था. जों प्रतिदिन गांधीजी के साथ दूध पीती थी! इन्हीं में एक संवाददाता थे श्री स्लोकोव! गांधीजी से अपनी यरवदा-जेल की मुलाकात का रोमांचकारी वर्णन प्रकाशित कर वह काफी प्रसिद्ध हो गये थे! इर्वनिंग स्टैडर्डं में गांधीजी की उदारता की प्रशंसा करते समय उन्होंने भी अनुभव किया कि बिना किसी स्पष्ट उदाहरण के यह विवरण अधूरा रह जायेगा! बस. उन्होंने अपनी कल्पना दौड़ाई और लिख डाला कि जब प्रिंस आँफ वेल्स भारत गये थे. तब गांधीजी ने उन्हें दंडवत किया था यह पढ़कर गांधीजी ने उन्हें अपने पास ! बोले.मि स्लोकोव. आपसे तो मैं यह आशा करता था कि आप सही बातें जानते होंगे और सही बातें ही लिखेंगे. परंतु आपने जो कुछ लिखा है. वह तो आपकी कल्पना-शक्ति को भी लांछित करनेवाला है! मैं भारतवर्ष के गरीब भंगी और अछूत के सामने न केवल घुटने टेकना ही पसंद करुंगा. बल्कि उनकी चरण-रज भी ले लूंगा. कयोंकि उन्हें सदियों से पद दलित करने में मेरा भी भाग रहा हैं परंतु प्रिंस आँफ वेल्स तो दूर. मैं बादशाह तक को भी दंडवत नहीं करुंगा! वह एक महान सत्ता का प्रतिनिधि है ! एक हाथी भले ही मुझे कुचल दे. परंतु मैं उसके सामने सिर न झुकाऊंगा. परंतु अजाने में चींटी पर पैर रख देने के कारण उसको प्रणाम कर लूंगा !
२१/निर्दोष प्राणी की बलि से देवी प्रसन्न नहीं होती. .........................................
एक दिन बिहार के चम्पारन जिले के एक गांव से होकर लोगों का एक जुलूस देवी के थानक की ओर जा रहा था. संयोग से गांधीजी उस दिन उसी गांव में ठहरे हुए थे, जब वह जुलूस गांधीजी के निवास के पास से होकर गुजरा तो उसका शोर सुनकर उनका ध्यान उसकी ओर गया. पास बैठे हुए एक कार्यकर्ता से उन्होंने पूछा ~यह कैसा जुलूस है? और ये इतना शोर क्यों मचा रहे हैं" कार्यकर्ता पता लगाने के लिए बाहर आया ही था कि उत्सुकतावश वह स्वयं भी बाहर आ गये ओर सीधे जुलूस के पास चले गये. उन्होंने देखा कि सबसे आगे एक हट्टा-कट्टा बकरा चला जा रहा है. उसके गले में फूलों की मालाएं पड़ी हुई हैं और माथे पर टीका लगा हुआ है. वह समझ गये कि यह बलि का बकरा है. क्षण-भर में अंधविश्वास में डूबे हुए इन भोले-भाले लोगों का सजीव चित्र उनके मस्तिष्क में उभर आया. हृदय करुणा से भीग गया. थोड़ी देर तक इसी विचार में डूबे वह जुलूस के साथ चलते रहे. लोग अपनी धुन में इतने मस्त थे कि वे यह जान ही नहीं सके कि गांधीजी उनके साथ-साथ चल रहे हैं. जुलूस अपने स्थान पर पहुंचा. बकरे का बलिदान करने के लिए विधिवत् तैयारी होने लगी. तभी गांधीजी उन लोगों के सामने जा खड़े हुए. कुछ लोग उन्हें पहचानते थे. निलहे गोरोंके अत्याचार के विरुद्ध वही तो उनकी सहायता करने आये थे. उन्हें अपने सामने देखकर वे चकित हो उठे. तभी गांधीजी ने उनसे पूछा, `इस बकरे को आप लोग यहां क्यों लाये है? सहसा किसी को कुछ कहते न बना. क्षण भर बाद एक व्यक्ति ने साहस करके कहा, ~देवी को प्रसन्न करने के लिए." गांधीजी बोले "आप देवी को प्रसन्न करने के लिए बकरे की भेंट चढ़ाना चाहते हैं, लेकिन मनुष्य तो बकरे से भी श्रेष्ठ है". वे कुछ समझ न पाये बोल उठे,"जी हां, मनुष्य तो श्रेष्ठ है ही" गांधीजी ने कहा,"यदि हम मनुष्य का भोग चढ़ायें तो क्या देवी अधिक अधिक प्रसन्न नहीं होगी?" बड़ा विचित्र प्रश्न था. उन ग्रामीणों ने इस पर कभी विचार नहीं किया था. वे सहसा कोई उत्तर न दे सके. गांधीजी ने ही फिर कहा, "क्या यहां पर कोई ऐसा मनुष्य है, जो देवी को अपना भोग चढ़ाने को तैयार हो? अब भी उनमें से कोई नहीं बोला. थोड़ा रुककर गांधीजी ने कहा, "इसका मतलब है कि आप में से कोई तैयार नहीं है. तब मैं तैयार हूं." वे सब लोग अब तो और भी हक्के-बक्के हो उठे. पागल-से एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे. उन्हें सूझ नहीं रहा था कि वे क्या कहें? विमूढ़ से खड़े ही रहे. गांधीजी ने अब अत्यंत व्यथित स्वर में कहा, `गूंगे और निर्दोष प्राणी के रक्त से देवी प्रसन्न नहीं होती. अगर यह बात किसी तरह सत्य भी हो तो मनुष्य का रक्त अधिक मूल्यवान है. वही देवी को अर्पण करना चाहिए, परन्तु आप ऐसा नहीं करते. मैं कहता हूं कि निर्दोष प्राणी की बलि चढ़ाना पुण्य नहीं है, पाप है, अधर्म है.
२२/ वह मजदूर कहां है ? ......................
चम्पारन में निलहे गोरों के विरुद्ध जांच का काम चल रहा था. गांधीजी के आसपास काफी लोग इकट्ठे हो गये थे. उनमें कुष्ठ-रोग से पीड़ित एक खेतिहर मजदूर भी था. वह पैरों में चिथड़े लपेटकर चलता था. उसके घाव खुल गये थे और पेर सूज गये थे. उसे असह्य वेदना होती थी, लेकिन न जाने किस आत्म- शक्ति के बल पर वह अपना काम कर रहा था. एक दिन चलते-चलते उसके पैरों के चिथड़े खुलकर रास्ते में गिर गये, घावों से खून बहने लगा, चलना दूभर हो गया. दूसरे साथी आगे बढ़ गये. गांधीजी तो सबसे तेज चलते थे. वह सबसे आगे थे. उस रोगी की और किसी ने ध्यान नहीं दिया. अपने आवास पर पहुंचकर जब सब लोग प्रार्थना के लिए बैठे तो गांधीजी ने उसको नहीं देखा. पूछा,` हमारे साथ जो मजदूर था, वह कहां है? एक व्यक्ति ने कहा,` वह जल्दी चल नहीं पा रहा था. थक जाने से एक पेड़ के नीचे बैठ गया था. गांधीजी चुप हो गये और हाथ में बत्ती लेकर उसे खोजने निकल पड़े. वह मजदूर एक पेड़ के नीचे बैठा रामनाम ले रहा था. गांधीजी को देखकर उसके चेहरे पर प्रकाश चमक आया. गांधीजी ने कहा, `तुमसे चला नहीं जा रहा था तो मुझे कहना चाहिए था, भाई. उन्होंने उसके खून से सने हुए पैरों की ओर देखा. चादर फाड़कर उन्हें लपेटा. फिर सहारा देकर उसे अपने आवास पर ले आये. उस दिन उसके पैर धोकर ही उन्होंने अपनी प्रार्थना शुरू की.
२३/ मरने के लिए अकेला आया हूं. .............................
चम्पारन बिहार में है. वहां गांधीजी ने सत्याग्रह की एक शानदार लड़ाई लड़ी थी गोरे वहां के लोगों को बड़ा सताते थे. नील की खेती करने के कारण वे निलहे कहलाते थे. उन्हीं की जांच करने को गांधीजी वहां गये थे. उनके इस काम से जनता जाग उठी. उसका साहस बढ़ गया, लेकिन गोरे बड़े परेशान हुए वे अब तक मनमानी करते आ रहे थे. कोई उनकी ओर उंगली उठाने वाला तक न था. अब इस एक आदमी ने तूफान खड़ा कर दिया. वे आग-बबूला हो उठे.
इसी समय एक व्यक्ति नेत आकर गांधीजी से कहा,`यहां का गोरा बहुत दुष्ट है.
वह आपको मार डालना चाहता है. इस काम के लिए उसने हत्यारे भी तैनात कर दिये हैं. गांधीजी ने बात सुन ली. उसके बाद एक दिन, रात के समय अचानक वह उस गोरे की कोठी पर जा पहुंचे. गोरे ने उन्हें देखा तो घबरा गया. उसने पूछा,`तुम कौन हो? गांधीजी ने उत्तर दिया, मैं गांधी हूं. वह गोरा और भी हैरान हो गया. बोला, `गांधी! `हां मैं गांधी ही हूं. गांधीजी ने उत्तर दिया, `सुना है तुम मुझे मार डालना चाहते हो. तुमने हत्यारे भी तैनात कर दिये हैं. गोरा सन्न रह गया जैसे सपना देख रहा हो. अपने मरने की बात कोई इतने सहज भाव से कह सकता है! वह कुछ सोच सके, इससे पहले ही गांधीजी फिर बोले, `मैंने किसी से कुछ नहीं कहा. अकेला ही आया हूं. बेचारा गोरा! उसने डर को जीतने वाले ऐसे व्यक्ति कहां देखे थे! वह आगे कुछ भी नहीं बोल सका.
२४/ यदि कुछ और विचार है तो बता दो. ................................. राजकोट-आन्दोलन ने जब देशव्यापी महत्व प्राप्त कर लिया, तब राज्य के अधिकारी और जमींदार भड़क उठे. उस आन्दोलन के पीछे जनता का बहुत बड़ा बल था. गांधीजी की प्रार्थना सभाओं में अपार जन-समूह इकट्ठा होता था. अधिकारियों ने सोचा, इस जन-समूह को आतंकित किया जाये. उन्होंने भाड़े के बदमाशों की एक टोली को लाठियों और डंडों से लैस कर प्रार्थना-स्थल की भीड़ को तितर-बितर करने का काम सौंपा. प्रार्थना की समाप्ति के बाद वे गुंडे भीड़ को चीरते हुए गांधीजी की ओर बढ़े. कांग्रेस स्वयम् सेवकों ने सदैव की भांति अहिंसात्मक रीति से उन्हें रोकने का प्रयत्न किया. लेकिन उनकी सारी कोशिशें व्यर्थ गईं. गांधीजी मोटर की ओर बढ़ रहे थे कि उन बदमाशों ने उन्हें घेर लिया. परिस्थिति सहसा विकट हो उठी. धक्का-मुक्की और ठेला-ठेली के कारण गांधीजी संकट में पड़ गये. तभी सहसा उनका शरीर कांपने लगा. वह डर नहीं रहे थे. लेकिन उस हिंसात्मक वातावरण की प्रतिक्रिया के कारण उनका शरीर कांप उठा था. उपवास के कारण वह दुर्बल भी हो गये थे. वह किसी भी क्षण गिर सकते थे, लेकिन उसी समय उन्होंने आंखें मूंद लीं और भक्तिभाव से रामनाम का जप करने लगे. कई क्षण बीत गये. उन्होंने आंखें खोली. अब परिस्थिति बिलकुल बदल गई थी. उन्होंने दृढ़तापूर्वक सभी स्वयंसेवकों और आश्रमवासियों से कहा कि वे चले जायें और उन्हें गुंडों की दया पर छोड़ दें. वे अब मोटर से नहीं आवेंगे. पैदल ही चलकर पहुंचेंगे. उसके बाद उन्होंने गुंडों के मुखिया के मुखिया को अपने पास बुलाया और कहा, `अगर तुम्हारी इच्छा बहस करने की है तो मैं तैयार हूं और यदि तुम्हारा विचार कुछ और है तो वह भी बता दो. आश्चर्य कि गांधीजी के स्वर कान में पड़ते ही गुंडों की हिंसा मोम की तरह पिघल गई. उनका सरदार हाथ जोड़कर गांधीजी के सामने खड़ा हो गया. बोला `मुझे माफ कर दो, बापूजी. मुझे आपसे क्या बहस करनी है! आप अपना हाथ मेरे कंधे
पर रखिए. जहां भी आप चलने को कहेंगे, मैं आपको सुरक्षित पहुंचा दूंगा. और उस संध्या को गांधीजी अपना एक हाथ गुंडों के सरदार के कंधे पर रखकर अपने डेरे पर लौटे.
२५/ यह दीया कौन लाया है? .............................
सेवाग्राम में गांधीजी का जन्म-दिवस मनाया गया. शाम की प्रार्थना के बाद गांधीजी प्रवचन करनेवाले थे. इसलिए आसपास के बहुत से लोग आ गये थे. गांधीजी ठीक समय पर प्रार्थना सभा मैं आये. देखा, उनके सामने घी का एक दीया जल रहा है. यह नई बात थी. वह एकटक उसकी ओर देखने लगे. कई क्षण देखते रहे. फिर प्रार्थना शुरू हुई और वह उसमें लीन हो गये. प्रार्थना के बाद प्रवचन प्रारम्भ हुआ. चारों ओर पूर्ण शांति थी. सब लोग यह जानने के लिए उत्सुक थे कि अपने जन्म दिवस पर गांधीजी क्या कहने वाले हैं. सहसा गांधीजी ने पूछा, `यह दीया कौन लाया है? कस्तूरबा पास ही बैठी हुई थीं. बोली `मैं लाई हूं. गांधीजी ने पूछा, `कहां से लाई? बा ने उत्तर दिया, `गांव से लाई हूं. आज आपकी वर्षगांठ है न? गांधीजी थोड़ी देर के लिए मौन हो गये. फिर गम्भीर स्वर में बोले,`आज अगर सबसे बुरा कोई काम हुआ है तो यह कि बा ने घी का दीया जलाया. आज मेरी वर्षगांठ है, इसीलिए दीया जलाया गया है. आसपास के गांव में लोग बाग रहते हैं, वे कैसे गांव में लोग बाग रहते हैं. वे कैसे जीते हैं, यह मैं रोज देखता हूं. उन बेचारों को ज्वार-बाजरे की सूखी रोटी पर चुपड़ने के लिए तेल तक नहीं मिलता और यहां आज मेरे आश्रम में घी का दीया जल रहा है! बेचारे गरीब किसानों को जो चीज नसीब न हो, उसे हम इस तरह बरबाद कैसे कर सकते हैं? उनके उस प्रवचन में दर्द जैसे साकार हो उठा था.
२६/ कानून के सामने सब बराबर होते हैं ................................. गांधीजी मानते थे कि सामाजिक या सामूहिक जीवन की और बढ़ने से पहले कौटुम्बिक जीवन का अनुभव प्राप्त करना आवश्यक है. उनके रामराज्य की यह पहली सीढ़ी थी. इसीलिए वे आश्रम-जीवन बिताते थे. वहां सभी एक भोजनालय में भोजन करते थे. इससे समय और धन तो बचता ही था, सामूहिक जीवन का अभ्यास भी होता था. लेकिन यह सब होना चाहिए, समय-पालन, सुव्यवस्था और शुचिता के साथ. इस ओर लोगों को प्रोत्साहित करने के लिए गांधीजी स्वयं भी सामूहिक रसोईघर में भोजन करते थे. भोजन के समय दो बार घंटी बजती थी. जो दूसरी घंटी बजने तक भोजनालय में नहीं पहुंच पाता था, उसे दूसरी पंक्ति के लिए बरामदे में इन्तजार करना पड़ता था. दूसरी घंटी बजते ही रसोईघर का द्वार बंद कर दिया जाता था, जिससे बाद में आनेवाले व्यक्ति अंदर न आने पावें. एकदिन गांधीजी पिछड़ गये. संयोग से उस दिन आश्रमवासी श्री हरिभाऊ उपाध्याय भी पिछड़ गये. जब वे वहां पहुंचे तो देखा कि बरामदे में खड़े हैं. बैठने के लिए न बैंच है, न कुर्सी. हरिभाऊ ने विनोद करते हुए कहा, `बापूजी, आज तो आप भी गुनहगारों के कठघरे में आ गये हैं! गांधीजी खिलखिलाकर हंश पड़े. बोले,` कानून के सामने तो सब बराबर होते हैं न? हरिभाऊजी ने कहा, `बैठने के लिए कुर्सी लाऊं, बापू? गांधीजी बोले, `नहीं, उसकी जरूरत नहीं है. सजा पूरी भुगतनी चाहिए. उसी में सच्चा आनन्द है.
२७/ मैं निकाल दूं तो वह किसके पास जायेगा ....................................... गांधीजी मगनबाड़ी में ठहरे हुए थे. एक दिन एक युवक उनसे मिलने आया. उसकी आयु लगभग अठारह वर्ष की होगी. उसे कम्पन रोग था. हाथ-पैर कांपने लगते तो रुकते ही न थे. उसने गांधीजी से कहा,` मैं किसी के काम नहीं आ सकता. मेरा जीवन एक बोझ बन गया है. मुझे आप अपने पास रख लीजिये. गांधीजी बोले,`मैं हर अपंग को अपने साथ कैसे रख सकता हूं! मेरे लिए यह सम्भव नहीं है. आप कहीं और आसरा खोजें. परन्तु वह युवक अपनी बात पर अडिग रहा. वह किसी भी तरह वहां से जाने को राजी नहीं हुआ. शाम तक बराबर के मकान की सीढ़ियों पर बैठा रहा. एक भाई ने इस बात की सूचना गांधीजी को दी. कहा, `इस युवक को निकाल बाहर किया जाये. यह सुनना था कि गांधीजी बोल उठे,`यदि मैं उसे निकाल बाहर करूं तो वह आखिर किसके पास जायेगा? रहने दो बेचारे को! मैं सोचकर उसके योग्य काम बता दूंगा. वह युवक वहीं रह गया. गांधीजी ने सबसे पहले उसे साग-सब्जी धोने का काम बताया. शुरु- शुरु में वह यह काम भी नहीं कर पाता था, लेकिन वह हिम्मत हारने वाला नहीं था. काम करने की उसके मन में बड़ी उत्कट इच्छा थी. वह लगा रहा और धीरे-धीरे हाथ में
चाकू लेकर साग काटने लगा. उसके मन में बड़ी उत्कट इच्छा थी वह लगा रहा और धीरे-धीरे हाथ में चाकू लेकर साग काटने लगा. उसके मन में अपनी नसों को बस में रखने की इच्छा-शक्ति तीव्र होती गई. कुछ महीने बीतते-न-बीतते वह सचमुच ठीक हो गया. उसके बाद तो वह पढ़ने के लिए अमरीका चला गया. अदम्य इच्छा-शक्ति, सहानुभूति और प्यार, ये तीनों मिल जायें तो हिमालय भी हिलाया जा सकता है.
२८/ मैं भी ऐसे नाइयों से बाल नहीं कटवाऊंगा ........................................ गर्मी के दिन थे. गांधीजी मगनबाड़ी से आकर सेवाग्राम आश्रम में नये-नये ही बसे थे. गोविन्द नाम का एक हरिजन लड़का उनकी सेवा में रहता था. उनके खाने-पीने, सोने बैठने की सारी व्यवस्था वही करता था. वह इस बात से बहुत प्रसन्न था कि हरिजन होकर भी गांधीजी की सेवा करने का उसे सौभाग्य प्राप्त हो रहा है. एक दिन उसने गांधीजी से कहा, "मैं थोड़ी देर के लिए वर्धा जाना चाहता हूं." गांधीजी ने पूछा, "किसलिए?" गोविन्द ने उत्तर दिया, मेरे सिर के बाल बहुत बढ़ गये हैं. वहां जाकर उनको कटवाना चाहता हूं." गांधीजी बोले "क्या सेगांव में नाई नहीं हैं?" "नाई तो हैं, पर वे सब ऊंची जाति के हिन्दुओं के हैं." "तो क्या वे तेरे बाल नहीं काटते?" गोविन्द ने कहा, " जी नहीं, वे हरिजनों के बाल नहीं काटते. स्वर्ण हिन्दुओं की तरह वे भी हमसे नफरत करते हैं." गांधीजी ने पूछा, "तो क्या वर्धा के सवर्ण नाई हरिजनों के बाल काट देते हैं?" गोविन्द ने झिझकते हुए उत्तर दिया, "जी नहीं. जाति बताने पर वे भी नहीं काटते." "तो तू जात छिपाकर बाल कटवायेगा?" " नहीं बापूजी, जाति छिपाकर मैं अपना धर्म नहीं डुबोना चाहता." " तो फिर वर्धा जाकर क्या करेगा? तेरे बाल कौन काटेगा?" गोविन्द ने कहा, बापूजी, वहां एक-दो हरिजन नाई भी हैं. वे बड़े प्रेम से मेरे बाल काट देते हैं." गांधी जी ने गम्भीर होकर कहा," अच्छी बात है, तू जा. लेकिन अगर सेगांव के सवर्ण नाई तेरे बाल नहिं काट सकते तो मैं भी उनसे बाल नहीं कटवाऊंगा." और उसके बाद से गांधीजी ने बाल काटने की मशीन (कैंची) मंगा ली और आश्रम-वासियों की मदद से अपने बाल कटवाने लगे.
२९/ पैसे को धरोहर मानो ......................
एक बार गांधीजी दिल्ली से वर्धा जा रहे थे. राजकुमारी अमृतकौर उनके साथ थीं. गांधीजी ने उनसे कहा कि संध्या का भोजन वह गाड़ी में करेंगे. इसके लिए गर्म दूध और गर्म पानी साथ ले जाना आवश्यक था. लेकिन राजकुमारी
के पास थरमस केवल एक ही था. तब वह क्या करें? किसी तरह श्री घनश्यामदास बिड़ला को इस कठिनाई का पता चल गया. एक दिन पहले ही वह एक नया थरमस खरीदकर लाये थे. वही उन्होंने राजकुमारी को दे दिया. आवश्यकता थी, इसलिए उन्होंने उसे ले लिया. लेकिन गांधीजी की दृष्टि तो बड़ी तीव्र थी खाने के समय उन्होंने उस थरमस को देखा. तुरन्त भांप गये कि यह नया है. पूछा, "तुमने यह नया थरमस खरीदा है?" राजकुमारी ने उत्तर दिया, "जी नहीं. बिड़लाजी ने दिया है. हमारे पास एक ही थरमस रह गया था." यह सुनकर गांधीजी को बहुत दुख हुआ. बोले "तुम इतनी गरीब हो, जो दूसरों का पैसा खर्च करवाती हो! मानलिया, उनके पास बहुत पैसा है, पर तुमको तो अधिक समझदारी से काम लेना चाहिए. भगवान् ने जिसे पैसा दिया है, वह उसे धरोहर माने. उसमें से एक कौड़ी भी किसी गैर-जरूरी चीज पर खर्च न करे. महादेवभाई वापस दिल्ली लौटने वाले थे. उन्हीं के हाथ वह नया थरमस उन्होंने बिड़लाजी को लौटा दिया.
३०/ बिना मजदूरी किये खाना पाप है. .............................. एक समय अवधेश नाम का एक युवक वर्धा में गांधीजी के आश्रम में आया. बोला, "मैं दो-तीन रोज ठहरकर यहां सब कुछ देखना चाहता हूं. बापूजी से मिलने की भी इच्छा है. मेरे पास खाने-पीने के लिए कुछ भी नहीं है. मैं यहीं भोजन करूंगा." गांधीजी ने उसे अपने पास बुलाया. पूछा, "कहां के रहने वाले हो और कहां से आये हो?" अवधेश ने उत्तर दिया, "मैं बलिया जिले का रहने वाला हूं. करांची कांग्रेस देखने गया था. मेरे पास पेसा नहीं हे. इसलिए कभी मैंने गाड़ी में बिना टिकट सफर किया, कभी
पैदल मांगता-खाता चल पड़ा. इसी प्रकार यात्रा करता हुआ आ रहा हूं." यह सुनकर गांधीजी गम्भीरता से बोले,"तुम्हारे जैसे नवयुवक को ऐसा करना शोभा नहीं देता. अगर पैसा पास नहीं था तो कांग्रेस देखने की क्या जरुरत थी? उससे लाभ भी हुआ? बिना मजदूरी किये खाना और बिना टिकट गाड़ी में सफर करना, सब चोरी है और चोरी पाप हे. यहां भी तुमको बिना मजदूरी किये खाना नहीं मिल सकेगा." अवधेश देखने में उत्साही और तेजस्वी मालूम देता था. कांग्रेस का कार्यकर्ता भी था. उसने कहा "ठीक है. आप मुझे काम दीजिये. मैं करने के लिए तैयार हूं." गांधीजी ने सोचा, इस युवक को काम मिलना ही चाहिए और काम के बदले में खाना भी मिलना चाहिए. समाज और राज्य दोनों का यह दायित्व है. राज्य जो आज पराया है, लेकिन समाज तो अपना है. वह भी इस ओर ध्यान देता, परन्तु मेरे पास आकर जो आदमी काम मांगता है उसे मैं ना नहीं कर सकता. उन्होंने उस युवक से कहा,"अच्छा, अवधेश, तुम यहां पर काम करो. मैं तुमको खाना दूंगा. जब तुम्हारे पास किराये के लायक पैसे हो जायें तब अपने घर जाना." अवधेश ने गांधीजी की बात स्वीकार कर ली और वह वहां रहकर काम करने लगा.
३१ / गांवों में विलायती दवाएं क्यों? ............................... एक बार एक अमरीकी बहन सेवाग्राम-आश्रम में रहने के लिए आई. एक दिन काम करते हुए अचानक वह किसी तरह जल गई. सोचा, यहां किसी के पास कोई-न-कोई मरहम तो होगा ही, इसलिए उन्होंने मरहम मांगा. गांधीजी ने कहा,"इस पर मिट्टी लगाओ." उसने ऐसा ही किया और उसे आराम भी मालूम हुआ. वह किसी पत्र की प्रतिनिधी थी और भारतीय संस्कृति का अध्ययन करने के लिए इस देश में आई थी. इसलिए उसे समझाते हुए गांधीजी बोले"गांवों में विलायती दवाओं का उपयोग क्यौं किया जाये? अगर ऐसा हुआ तो हमारे लोग कंगाल बन जायेंगे. मामूली घाव का इलाज क्या हो सकता है, यह हमें जान लेना चाहिए. उसके स्थान पर झट से तैयार मरहम लगाना मेरे विचार में एक प्रकार से आलस्य को ही बढ़ावा देना है. पुराने जमाने में हमारे देश की बूढ़ी बहनें देसी दवाइयों का अच्छा ज्ञान रखती थीं. आज भी रखती है लेकिन अब उसमें कुछ सुधार होना चाहिए. अगर उन्हें वैज्ञानिक रीति से समझाया जाये तो वे गांवों में लेडी डाक्टर जरूर बन सकती हैं. आप एक शिक्षित महिला हैं. हमारे देश की स्थिति का अध्ययन करने आई हैं, इसलिए आप इन बातों की ओर खास तौर पर ध्यान दीजियेगा."
३२ / मैं तो पहले तिल साफ करूंगा. ................................ मगनवाड़ी में तेलघानी गांधीजी के कमरे के पीछे ही चलती थी और तिल आदि की सफाई उनके सामने के बरामदे में होती थी. तिल की सफाई का काम बा और दूसरी बहनें करती थीं. एक रोज बा ने बलवंत सिंह से कहा, "बलवंत, देखो, ये तिल बहुत बारीक हैं और इनमें जो कचरा है, वह भी बहुत बारीक है. मेरी आंख से दिखाई नहीं देता. तुम किसी मजदूरनी से साफ करा दो तो अच्छा हो." बलवंत सिंह ने तुरंत कहा,"अवश्य करा दूंगा." उन दिनों एक बोरे की सफाई करने के लिए एक मजदूरनी दो या चार आने लेती थी. परंतु एक मजदूरनी को तिल साफ करने के लिए लगा दिया गया. लेकिन तभी गांधीजी किसी काम से अपने कमरे से बाहर निकले. मजदूरनी को तिल साफ करते हुए देखकर बोले, इस बहन को किसने लगाया है?" इसका उत्तर कौन दे! अंत में बलवंत सिंह ने डरते-डरते कहा "बापुजी, मैंने लगाया हे." गांधीजी बोले, "क्यों लगाया हे? मैंने तो यह काम बा को सौंपा था न! तुम बीच में क्यों पड़े?" बलवंत सिंह ने सकुचाते हुए उत्तर दिया,"तिल बहुत बारीक हैं और उनमें कचरा भी बारीक है.बा को ठीक-ठीक दिखाई नहीं देता. फिर इसकी सफाई में पैसे भी ज्यादा नहीं लगेंगे." गांधीजी सहसा गम्भीर हो गये. उन्होंने कहा, "ठीक है. मैं दूसरे सब काम छोड़कर पहले तिल साफ करूंगा." वे सूप लेकर तिल साफ करने लगे. बलवंत सिंह तो जैसे पसीना-पसीना हो उठे. पास वाले कमरे में बा सब सुन रही थीं. थोड़ी देर में वे बाहर आईं और गांधीजी के हाथ से सूप छीनकर बोलीं, "आप अपना काम करें. हम साफ कर लेंगे." गांधीजी चले गये और बा तिल साफ करने लगीं.
३३ / इसका प्रायश्चित करना होगा .............................. उस वर्ष काठियावाड़ के राजनैतिक कार्यकर्ताओं ने अपना वार्षिक सम्मेलन मोरबी में किया था. उसी अवसर पर काठियावाड़ के नौजवान कांग्रेसियों का भी एक सम्मेलन हुआ था. सरदार वल्लभभाई पटेल और पंडित जवाहर लाल नेहरू क्रमशः इन दोनों के सभापति थे. गांधीजी तो काठियावाड़ के ही थे. उन्हें विशेष रूप से आमंत्रित किया गया था. अपने दल के साथ वह मोरबी गये और सम्मेलन की समाप्ति पर उसी प्रकार वापस लौट आये. गाड़ी रवाना होने के बाद सहसा गांधीजी ने अपने साथियों के बारे में पूछताछ की. कितने व्यक्ति साथ आये थे. कितने वापस जा रहे हैं, टिकट कितने हैं, यह सब उन्होंने विस्तार से जानना चाहा. जांच करने पर पता लगा कि यात्री कम हैं और टिकट ज्यादा हैं. श्री महादेव देसाई ने उतने ही व्यक्तियों के लिए टिकट खरीदे थे, जितने साबरमती से रवाना हुए थे. लेकिन अब पता लगा कि दो भाई मोरबी में ही रह गये हैं. उन्होंने इस बात की सूचना नहीं दी थी और वे लोग भी वापस लौटने की जल्दी में पूछना भूल गये थे. अब चलती रेल में इस तथ्य का पता लगा. गांधीजी गम्भीर हो उठे. उनका चेहरा अंतर की
वेदना से व्यथित हो आया. वह इतने अशांत हुए कि उस रात न तो स्वयं सोये, न उनके साथी ही सो सके. सारी रात उनके अंतर में तीव्र मंथन और चिंतन चलता रहा, जैसे वेदना का कोई पार ही नहीं था. उन्होंने सारा दोष अपने ऊपर ले लिया. वे अपने को ही प्रताड़ित करने लगे- मैं इतना गाफिल क्यों बन गया? मैने ध्यान क्यों नहीं रखा? ये सब बातें मैंने गाड़ी पर सवार होने से पहले ही क्यों नहीं पूछीं? गलती मेरी है महादेव तो अभी बच्चा है, पर मुझे बुढ़ापे में यह क्या हो गया! लोग मेरी सच्चाई पर भरोसा करके मुझे पैसा देते हैं. उस पैसे का ठीक-ठीक उपयोग करना मेरा कर्तव्य हो जाता है. आज मैं चूक गया. मुझे इसका जवाब अपने सिरजनहार के सामने देना होगा. आदि-आदि. साथियों ने उनको बहुत समझाया. महादेवभाई ने अपनी असावधानी के लिए क्षमा मांगी. विश्वास दिलाया कि जो पैसे अधिक खर्च हुए हैं, उन्हें वह आश्रम के हिसाब में नहीं डालेंगे. अपने पास से दे देंगे. लेकिन गांधीजी को संतोष नहीं हुआ. बोले "तुम अपने पास से क्या दोगे! तुम्हारे पास रह ही क्या गया है!तुमने अपना सबकुछ देश को दिया है. अब अलग कमाई कैसे करोगे? यह तो एक भारी भूल हम सबसे हो ही गई है. इसका प्रायश्चित हमें करना होगा."
३४ / काम की चीज को संभालकर रखना चाहिए. ........................................... नहाते समय गांधीजी साबुन का प्रयोग नहीं करते थे. अपने पास एक खुरदरा पत्थर रखते थे वर्षों पहले मीराबहन ने उन्हें यह पत्थर दिया था. नोआखाली की यात्रा के समय एक बार पत्थर संयोग से पिछले पड़ाव पर छूट गया. उस समय मनु गांधीजी के साथ रहती थी. स्नानघर में जब उसने गांधीजी से कहा, बापूजी, नहाते समय आप जिस पत्थर का प्रयोग करते हैं, वह मैं कहीं भूल आई हूं. कल जिस जुलाहे के घर ठहरे थे, शायद वह वहीं छूट गया है. अब क्या करूं?" गांधीजी कुछ देर सोचते रहे. फिर बोले, तुझसे गलती हुई, तू उस पत्थर को खुद खोजकर ला." सुनकर मनु सकपका गई. फिर झिझकते हुए पूछा,"गांव में बहुत से स्वयंसेवक हैं, उनमें से किसी को साथ ले जाऊं?" बापू ने पूछा, "क्यों?" मनु को क्रोध आ गया. बापूजी सब कुछ जानते हैं, फिर भी पूछते हैं. यहां नारियल और सुपारी के घने जंगल हैं. अनजान आदमी तो उसमें खो जाये. फिर ये तूफान के दिन हैं. आदमी, आदमी का गला काटता है. आदमी, आदमी की लाज लूटता है. राह
एकदम वीरान और उजाड़ है. उस पर कोई अकेले कैसे जाये? मगर भूल जो हुई थी. उसने क्यों का कोई जवाब नहीं दिया. किसी को साथ भी नहीं लिया, अकेली ही उस राह पर चल पड़ी. कांप रही थी, पर उसके कदम आगे बढ़ रहे थे. पैरों के निशान देखती जाती थी, रामनाम लेती जाती थी और चलती जाती थी. आखिर वह उस जुलाहे के घर पहुंच गई. उस घर में केवल एक बुढ़िया रहती थी. वह क्या जाने कि वह पत्थर कितना कीमती था. शायद उसने तो उसे फेंक दिया था. मनु इधर-उधर ढ़ूंढने लगी. आखिर वह मिल गया. मनु के आनंद का पार न रहा. खुशी-खुशी लौटी. डेरे पर पहुंचते-पहुंचते एक बज गया. जोर की भूख लग आई थी और इस बात का दुख भी था कि इस भूल के कारण वह अपने बापू की सेवा से वंचित रह गई. इसीलिए वह उन्हें पत्थर देते समय रो पड़ी. उसे समझाते हुए गांधीजी बोले, "इस पत्थर के निमित्त आज तेरी परीक्षा हुई. इसमें तू पास हुई. इससे मुझे कितनी खुशी हो रही है. यह पत्थर मेरा पच्चीस साल का साथी है. जेल में, महल में, जहां भी मैं जाता हूं, यह मेरे साथ रहता है. अगर यह खो जाता तो मुझे और मीराबहन को बहुत दुख होता. तूने आज एक पाठ सीखा. ऐसे पत्थर बहुत मिल जायेंगे, दूसरा ढ़ूंढ लेंगे, इस खयाल से बेपरवाह नहीं होना चाहिए. काम की हर चीज को संभालकर रखना सीखना चाहिए."
३५ / मेरे पास शान का क्या काम! ................................. उन दिनों गांधीजी पूर्वी बंगाल की यात्रा पर थे. एक दिन उन्हें नाव के द्वारा मालीकंडा से लोहागंज जाना था. वह नाव जमींदार श्री राय की थी. दो दिन के लिए उन्होंने उसे गांधीजी की सेवा में रख दिया था. उसी मार्ग पर श्री राय का घर भी पड़ता था, लेकिन उस दिन गांधीजी को उस कस्बे में नहीं जाना था. पर जिस समय वह नाव उनके घर के सामने पहुंची तो अंदर से एक व्यक्ति व्यवस्थापक के पास आया और बोला,"श्री राय के घर की महिलाएं गांधीजी के दर्शन करना चाहती हैं." कार्यक्रम में इस बात की कोई व्यवस्था नहीं थी. इसलिए व्यवस्थापक महोदय को यह अच्छा नहीं लगा. बोले,"पहले स्वीकृति क्यों नहीं ली थी? क्या जगह-जगह रोके जाने से इतने बड़े नेता की शान फीकी नहीं पड़ती. आप जानते हैं कि उनके ऊपर कितना बोझ हैं और वे कितने व्यस्त रहते हैं?" ये सब बातें गांधीजी सुन रहे थे. उन्होंने कहा, मेरे पास शान का क्या काम है, भाई? अपने ही देशवासियों के सामने अपनी मान-मर्यादा का विचार कैसे कर सकता हूं? चलिए हम श्री राय के मकान के अन्दर चलें. वहां से लौटकर आगे बढ़ेंगे." नाव रुकी. गांधीजी अंदर गये. स्त्रियों ने उनका यथोचित आदर-सत्कार किया और उनका
हृदय-कमल खिल उठा.
३६ / बच्चों जैसी कल्पनाएं नहीं करनी चाहिए ...................................... सत्याग्रह के दिनों में एक बार गांधीजी कराड़ी नाम के गांव में ठहरे हुए थे. एक दिन सवेरे-सवेरे ही क्या देखते हैं कि गांव वालों ने एक बड़ा जुलूस निकाला है. सबसे आगे स्त्रियां हैं. राष्ट्रध्वज भी है, बाजे बज रहे हैं. सोचने लगे-ये लोग क्या सत्याग्रह करने जा रहे हैं? लेकिन पुरुषों के हाथों में ये फल, फूल और पैसे कैसे हैं? सोचते-सोचते वे झोंपड़ी से बाहर निकल आये. लोग उनकी जयजयकार करने लगे. पास आकर सबने उनको श्रद्धा से प्रणाम किया और अपने-अपने उपहार उनके चरणों में समर्पित कर दिये. गांधीजी ने पूछा, "आप लोग कैसे आये हैं? और यह बाजा किसलिए बज रहा है?" जुलुश के नेता ने कहा,"महात्माजी, हमारे गांव में हमेशा पानी का अकाल रहता है. गर्मी के दिन आये कि कुएं सूख जाते हैं, लेकिन आश्चर्य कि इस बार आप आये तो सबकुछ पलट गया. गांव में आपके चरण पड़ते ही कुओं में पानी भर आया. उसी के लिए हम अपना भक्तिभाव प्रगट करने आये हैं." गांधीजी का स्वर जरा कठोर हो उठा. बोले, "तुम लोग पागल हो क्या? मेरे आने का और इस पानी का क्या सम्बन्ध! ईश्वर पर मेरा अधिकार नहीं है. उसके लिए आपकी वाणी का जो मूल्य है, वही मेरी वाणी का है." सुनकर बेचारे गांव के लोग लज्जित हो उठे. अब गांधीजी हंस पड़े और बोले,"देखो, किसी पेड़ पर कौआ बैठे और संयोग से उसी घड़ी वह डाल टूट जाये तो क्या तुम कहोगे कि कौए ने पेड़ को तोड़ दिया? बहुत से कारण होते हैं. तुम्हारे कुएं में पानी आया, उसका कारण यही होगा कि धरती के भीतर कुछ उथल पुथल मची होगी और एक नया झरना फूट पड़ा होगा. हमें बच्चों जैसी कल्पनाएं नहीं करनी चाहिए."
३७ /सार्वजनिक काम में अव्यवस्था ठीक नहीं ...................................... एक बार मलाबार प्रदेश की एक कांग्रेस कमेटी का मंत्री गांधीजी के पास आया. वह बहुत दुखी था. उसने सार्वजनिक कोष का काफी धन लोक-सेवा में खर्च दिया था, लेकिन उसका हिसाब वह नहीं रख सका था. इसलिए जमा-खर्च ठीक नहीं हो सका था. लगभग एक हजार रुपये की कमी पड़ रही थी. उसने अपने लिए एक भी पैसा खर्च नहीं किया था. लेकिन हिसाब तो होना ही चाहिए. कार्यकारिणी समिति ने उससे कहा, "या तो हिसाब दो या पैसे भरो." मंत्री ने कहा, "मैं इतनी रकम कहां से दूंगा?" समिति का उत्तर था, " हम कुछ नहीं जानते. सार्वजनिक पैसे का हिसाब मिलना ही चाहिए." वह बेचारा बहुत दुखी हुआ. उसने सोचा, क्यों न गांधीजी के पास चला जाये. वे तो मेरी बात समझ लेंगे. उनके कहने से शायद ये लोग मान जायें. बस यही सोचकर वह गांधीजी के पास आया था. सब बातें बताकर उसने कहा, बापू, मैं स्कूल की नौकरी चौड़कर अपने को कांग्रेस की सेवा के लिए समर्पित कर चुका हूं. मैंने एक पैसा भी अपने काम में नहीं लिया." गांधीजी बोले," यह सच हो सकता है, लेकिन आपको पैसे तो भरने ही होंगे. सार्वजनिक काम में अव्यवस्था ठीक नहीं होती." मंत्री ने कहा, "लेकिन मैं पैसे कहां से भरूं?" गांधीजी बोले, यह मैं नहीं जानता. कुछ भी करके तुम्हें पैसे भरने चाहिए." उस युवक की आंखों में आंसू आ गये. दीनबन्धु एन्ड्रयूज पास ही बैठे थे. बोले, "बापू यह युवक पछता रहा है. इससे आप इतनी कठोरता से क्यों बोलते हैं?" गांधीजी ने कहा, "पश्चाताप केवल मन में होने से क्या होता है! असली पश्चाताप तभी होता है, जब दोष का परिमार्जन हो. इस युवक को अपनी भूल सुधारनी चाहिए. यह जनसेवक है."
३८ / सबको कुरते चाहिए ......................... एक बार गांधीजी एक स्कूल देखने गये. उन दिनों वे लंगोटी पहनने लगे थे. कंधे पर एक चादर डाल लेते थे. उन्हें इस रूप में देखकर एक बच्चे ने कहा, परंतु शिक्षक ने उसे रोक दिया. गांधीजी सबकुछ देख रहे थे. उस बच्चे से बोले, "तुम कुछ कहना चाहते हो?" वह बच्चा बोला, " आपने कुरता क्यों नहीं पहना? मैं अपनी मां से कहूंगा, वह आपके लिए कुरता सी देगी. आप पहनेंगे न?" गांधीजी बोले, " जरूर पहनूंगा, लेकिन एक शर्त है, बेटे, मैं अकेला नहीं हूं." बच्चे ने पूछा, "तब आपको कितने कुरते चाहिए? दो. मां से कहूंगा, वह आपके लिए दो कुरते सी देगी." गांधीजी ने उत्तर दिया, दो नहीं, मेरे चालीस करोड़ भाई-बहन हैं. उन सबको कुरते चाहिए. क्या तुम्हारी मां चालीस करोड़ कुरते सी सकेगी?" वह बच्चा शायद कुछ समझ नहीं सका. गांधीजी उसकी पीठ थपथपाकर चले गये. लेकिन शिक्षकों ने तो सबकुछ समझ ही लिया था.
३९ / अब आपको नींद आ जायेगी
ब्रिटेन के सुप्रसिद्ध मजदूर नेता श्री फेनर ब्रोकवे भारत आये. हुए थे. मद्रास पहुंचने पर वह अचानक अस्वस्थ हो गये. गांधीजी भी उन दिनों मद्रास में ही थे. वे उन्हें देखने अस्पताल गये. फेनर ब्रोकवे के पास जाकर बोले, "मैं आपसे मिलने आया हूं. सुना है, आपको बहुत तकलीफ हो रही है. क्या बात है?" फेनर ब्रोकवे ने उत्तर दिया, "आप आये आपकी बड़ी कृपा है. मैं क्या कहूं, मुझे बड़ी बैचैनी अनुभव हो रही है ." गांधीजी ने पूछा, " आखिर इस बेचैनी का कुछ कारण तो होगा ही." फेनर ब्रोकवे ने उत्तर दिया, "जी हां, कारण तो है. नींद बिलकुल नहीं आती. जरा नींद आ जाये तो कितना अच्छा हो." गांधीजी बोले, "यह तो आप ठीक कहते हैं. नींद सचमुच रसायन है." इतना कहकर उन्होंने बड़े प्रेम-भाव से इनके माथे पर हाथ रखा और आंखें बंद कर ली दूसरे ही लगा, जैसे वे समाधिस्थ हो गये हैं और अपने ईश्वर से
प्रार्थना कर रहे हैं. कुछ देर वे इसी स्थिति में खड़े रहे. फिर आंखें खोलकर बोले," अब आपको नींद आ जायेगी और आप आराम अनुभव करेंगे." इतना कहकर गांधीजी लौट आये. फेनर ब्रोकवे ने अपनी पुस्तक पचास वर्ष का समाजवादी जीवन का इतिहास में लिखा है,"कितना आश्चर्य है कि गांधीजी गये और कुछ ही देर में मुझे एकदम गहरी नींद आ गई. नींद खुली तो मैं कैसी स्फूर्ति अनुभव कर रहा था!"
४० / अब यह सोने की चूड़ियां न पहनेगी .................................... बंगाल के सुप्रसिद्ध कांग्रेसी नेता बाबू श्यामसुंदर चक्रवर्ती की देवती रानीबाला कोई दस वर्ष की रही होगी. अपने स्वभाव के अनुसार गांधीजी उसके साथ हास्य-विनोद कर रहे थे. उसके हाथ में सोने की छः चूड़ियां थीं. उन्हें देखकर वह बोले, "तुम्हारे नन्हें-नन्हें हाथों में इतनी भारी-भारी चूड़ियां!" रानीबाला तुरंत उनको उतारने लगी. उसके नाना ने भी उसे प्रोत्साहित करते हुए कहा, "हां- हां, ये चूड़ियां गांधीजी को दे दो." गांधीजी को लगा, जैसे यह उदारता बहुत उचित नहीं है, क्योंकि आखिर ये चूड़ियां बाबू श्यामसुंदर चक्रवर्ती की तो है नहीं. चक्रवर्ती महोदय शायद गांधीजी के मन की यह बात भांप गये. बोले,"आप मेरी बेटी और दामाद को नहीं जानते. रानीबाला ने ये चूड़ियां आपको दे दी हैं, यह जानकर मेरी बेटी बहुत प्रसन्न होगी और मेरा दामाद तो बहुत उदार है. वह गरीबों की मदद करता है." गांधीजी ने यह सब मजाक में ही कहा था, पर उनका उद्देश्य गहनों के प्रति अरुचि पैदा करना तो था ही. वह लोगों के मन में गरीबों को सहायता करने की इच्छा भी पैदा करना चाहते थे. फिर भी उन्होंने चूड़ियां लौटाने की कोशिश की, लेकिन श्यामबाबू नहीं माने. तब गांधीजी बोले,"लेकिन अब रानी सोने की नई चूड़ियां नहीं पहनेगी. हां, वह शंख की चूड़ियां पहन सकती है. इसी शर्त पर मैं इन्हें ले सकता हूं." नन्हीं रानीबाला और उसके नाना श्यामबाबू दोनों ने सहर्ष उनकी यह शर्त स्वीकार कर ली.
४१ / सब चीजें व्यवस्थित और स्वच्छ रखना ...................................... एक दिन गांधीजी ने आदेश दिया कि रसोईघर में भोजन करनेवाले व्यक्तियों के झूठे बर्तन प्रतिदिन बारी-बारी से दो या तीन व्यक्ति मांजा करें. ऐसा करने से लोगों में प्रेम भाव बढ़ेगा और एक -दूसरे के बर्तन मांजने में जो घृणा व अनुभव करते हैं, वह दूर हो जायेगी. समय भी बचेगा उन दिनों रसोईघर की व्यवस्था बलवंतसिंह देखते थे. उन्हें यह आदेश बहुत अच्छा नहीं लगा. उन्हें डर था कि ऐसा करने से और भी अव्यवस्था फैलेगी. गांधीजी बोले,"मेरा उद्देश्य अव्यवस्था में व्यवस्था लाना है. अच्छा, सबसे पहले मैं और बा ही इस काम का श्रीगणेश करेंगे." और वे बा को लेकर तुरंत बर्तन मांजने की जगह पर जाकर बैठ गये. उन्होंने सबसे कहा," आप लोग अपने बर्तन यहां पर रख दें और हाथ धोकर चले जायें." लोग घबराये, परंतु वे जानते थे कि गांधीजी जो कह देते हैं, वही करते हैं. इसलिए वे अपने-अपने बर्तन वहीं छोड़कर चले गये. गांधीजी और बा दोनों बड़े मनोयोग से बर्तन मांजने लगे. बलवंतसिंह बराबर सोच रहे थे कि कैसे गाधीजी को यह काम छोड़ने के
लिए मनायें, लेकिन साथ ही उन्हें ऐसा भी लग रहा था कि जब गांधीजी और बा इस तरह का काम कर सकते हैं तो हमें भी मन में किसी काम के लिए छोटे-बड़े का भेदभाव नहीं रखना चाहिए. उधर गांधीजी और बा में होड़ लग रही थी कि किसका बर्तन अधिक चमकता है. गांधीजी बर्तन साफ करते जाते और कहते, "क्यों बलवंत सिंह, कैसा साफ हुआ है? तुम डरते क्यों हो?" आदमी नित्य करे तो क्या नहीं कर सकता? आखिर स्त्रियां घर में सबके झूठे बर्तन साफ करती ही हैं. यह आश्रम हमारा बड़ा कुटुम्ब है. हमें तो स्त्री-पुरुष का भेद मिटाना है. इसीलिए तो रसोईघर का भार तुम पर सौंपा है. मैंने जीवन में बहुत प्रयोग किये हैं और मैं इस परिणाम पर पहुंचा हूं कि सामूहिक रसोईघर खोलने में जो कुटुम्ब- भावना बढ़ती है वह और किसी प्रकार नहीं बढ़ती. जो रसोईघर चलाता है उसका दायित्व बहुत अधिक होता है. सब चीजों को व्यवस्थित और स्वच्छ रखना और जितने भोजन करने वाले हैं, उनको भगवान् समझ कर, प्रेम से खिलाना, यह आध्यात्मिक प्रगति की बड़ी साधना है. तुम इसमें पास हो जाओगे तो मैं समझूंगा कि तुम सेवा कर सकते हो."
४२ / ऐसा आदमी किस काम का ............................. एक बार गांधीजी देहरादून में महिलाओं की एक सभा में भाषण दे रहे थे. वहां पर उन्हें थैली भी भेंट की गई. भाषण देने के उपरांत वे बोले, " मैं तो गहने भी
ले सकता हूं. दरिद्र नारायण के लिए अंगूठी भी ले सकता हूं और चूड़ी भी ले सकता हूं. इन्हें देने में पुरुषों से पूछने की कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि यह तो स्त्री -धन है. इसलिए देर क्यों की जाये? आप सब थोड़े-थोड़े गहने मुझे दे सकते हैं. मेरे पास आने की जरूरत नहीं है. मैं ही आपके पास आकर ले लूंगा." उस दिन गांधीजी को बहुत-कुछ मिला, इतना कि वे संभाल भी न सके. काफी कुछ इधर-उधर बिखर गया. इसीलिए सभा से लौटते समय उन्होंने श्री महावीर त्यागी से कहा, "अपने सामने फर्श को खूब अच्छी तरह झाड़कर रुपये और गहने बटोरना, अच्छा." कहकर वे चले गये. त्यागीजी ने सबसे पहले पंडाल को खाली करवाया. फिर मुड़े-तुड़े नोट, दुवन्नी, अठन्नी आदि सिक्के और छोटे-छोटे गहने-नथ, बाली, बुंदे, चूड़ियां जो इधर-उधर बिखरे पड़े थे, उन सबको इकट्ठा करके संभाला और कैम्प में पहुंचा दिया. रात को प्रार्थना के बाद गांधीजी ने त्यागीजी को बुला भेजा. त्यागीजी बहुत खुश थे. शायद गांधीजी ने शाबाशी देने के लिए बुलाया है! लेकिन जब वे वहां पहुंचे तो गांधीजी ने कहा, मैंने कहा था कि अपने सामने दरी झाड़कर सारा पैसा इकट्ठा कर लेना. ऐसा लगता हे कि तुमने किसी दूसरे को कह दिया, क्योंकि सारी चीजें नहीं आईं. त्यागीजी बोले,"नहीं बापूजी, मैंने स्वयं ही सारा पंडाल झाड़ा था." गांधीजी ने दृढ़ स्वर में कहा,ऐसा मत कहो, मुझे तुम्हारा विश्वास नहीं हे. तुमने स्वयं नहीं देखा. ऐसा आदमी किस काम का, जो अपनी जिम्मेदारी दूसरे पर डाल दे! तुम्हें स्वयं देखना चाहिए था. मैने तो तुम्हारे भरोसे सब कुछ छोड़ दिया था." त्यागीजी घबराकर बोले,"बापु आपसे किसने कहा कि मैं वहां नहीं था?" गांधीजी ने तुरंत एक सोने का बुंदा निकाल कर त्यागिजी को दिखाया और कहा, "यह बुंदा कहता है कि तुम वहां नहीं थे. भला कोई स्त्री मुझे एक बुंदा देगी और दूसरा अपने कान में रखेगी? इसका जोड़िदार कहां है. अगर आंख खोलकर देखते तो मिलता न! जो जनता के पैसे के साथ लापरवाही वह भरोसे का आदमी नहीं हो सकता. मेरे पास अपनी कोई पूंजी नहीं है. मैं इस नुकसान को कहां से भरूंगा. जब तक वह बुंदा नहीं मिलता, वहां जाकर झाड़ू लगाओ. जाओ." रात हो गई थी. लताड़ खाकर त्यागीजी पंडाल में पहुंचे. गैस के हंडे मंगवाये. टार्च ली. कुछ मित्रों को साथ लिया. दरी, चटाई सब कुछ झाड़ा-बुहारा भाग्य की बात कि वह बुंदा मिल गया. उसके साथ मिले कुछ नोट, कुछ रुपये-पैसे, एक दो अंगूठी, छल्ले, चांदी के बाले, आदि-आदि. लगभग ढाई सौ रुपये का सामान होगा. गांधीजी की निगाह तेज थी!
४३ / हमारा मतलब समय पर रवाना होने से है ......................................... उड़ीसा यात्रा में काकासाहब कालेलकर गांधीजी के साथ थे. घूमते-घूमते वे बालसोर पहुंचे. वहां से उन्हें भद्रक जाना था. वहां एक सभा का प्रबंध किया गया था. परंतु किसी कारणवश गांधीजी का वहां जाना सम्भव नहीं हो सका. उन्होंने काकासाहब से कहा, मैं नहीं जा सकता, लेकिन तुम चले जाओ और मेरा संदेशा सभा को सुना दो." काकासाहब तैयार हो गये, लेकिन उन्हें ले जाने के लिए कोई निहीं आया. राह देखते- देखते एक घंटा बीत गया. तभी गांधीजी ने उन्हें देख लिया. उन्होंने अचरज से पूछा, "क्यों गये नहीं?" काकासाहब ने कहा "मैं तो तैयार बैठा हूं. कोई मुझे ले जाये तब न?" यह सुनकर गांधीजी बड़े नाराज हुए. बोले, " इस तरह से काम नहीं होते. समय होते ही तुम्हें पैदल चल देना चाहिए. मोटर न मिली तो क्या हुआ, पैदल ही चलते. दो दिन लगते तो लग जाते. हमारा मतलब गंतव्य स्थान पर पहुंचने से नहीं हे, समय पर रवाना होने से है." काकासाहब बड़े लज्जित हुए और उसी क्षण चल पड़े.
४४ / यही तो पवित्र दान है ........................ खादी-यात्रा के समय दक्षिण के बाद गांधीजी उड़ीसा गये थे. घूमते-घूमते वे ईटामाटी नाम के एक गांव में पहुंचे. वहां उनका व्याख्यान हुआ और उसके बाद, जैसा कि होता था, सब लोग चंदा और भेंट लेकर आये. प्रायः सभी स्थानों पररुपया-पैसा और गहने आदि दिये जाते थे, लेकिन यहां दूसरा ही दृश्य देखने में आया. कोई व्यक्ति कुम्हड़ा लाया था, कोई बिजोरा, कोई बैंगन और कोई जंगल की दूसरी भाजी. कुछ गरीबों ने अपने चिथड़ों में से खोल खोलकर कुछ पैसे दिये. काकासाहब कालेलकर घूम-घूमकर वे पैसे इकट्ठे कर रहे थे. उन पैसों के जंग से उनके हाथ हरे हो गये. उन्होंने अपने हाथ बापू को दिखलाये. वे कुछ कह न सके, क्योंकि उनका मन भीग आया था. उस क्षण तो गांधीजी ने कुछ नहीं कहा. उस दृश्य ने मानों सभी को अभिभूत कर दिया था. अगले दिन सवेरे के समय दोनों घूमने के लिए निकले. रास्ता छोड़कर वे खेतों में घूमने लगे. उसी समय गांधीजी गम्भीर होकर बोले,"कितना दारिद्र्य और दैन्य है यहां! क्या किया जाये इन लोगों के लिए. जी चाहता है कि अपनी मरण की घड़ी में यहीं आकर इन लोगों के बीच में मरूं. उस समय जो लोग मुझसे मिलने के लिए यहां आयेंगे, वे इन लोगों की करुण दशा देखेंगे. तब किसी-न-किसी का हृदय तो पसीजेगा ही और वह इनकी सेवा के लिए यहां आकर बस जायेगा." ऐसा करुण दृश्य और कहीं शायद ही देखने को मिले. लेकिन जब वे चारबटिया ग्राम पहुंचे तो स्तब्ध रह गये. सभा में बहुत थोड़े लोग आये थे. जो आये थे उनमें से किसी के मुंह पर भी चैतन्य नहीं था. थी बस प्रेत जैसी शून्यता. गांधीजी ने यहां भी चन्दे के लिए अपील की. उन लोगों ने कुछ-न-कुछ दिया ही. वही जंग लगे पैसे. काकासाहब के हाथ फिर हरे हो गये. इन लोगों ने रुपये तो कभी देखे ही नहीं थे. तांबे के पैसे ही उनका सबसे बड़ा धन था. जब कभी उन्हें कोई पैसा मिल जाता तो वे उसे खर्च करने की हिम्मत नहीं कर पाते थे. इसीलिए बहुत दिन तक बांधे रहने या धरती मैं गाड़ देने के कारण उस पर जंग लग जाता था. काकासाहब ने कहा, "इन लोगों के पैसे लेकर क्या होगा?" गांधीजी बोले," यही तो पवित्र दान है. यह हमारे लिए दीक्षा है. इसके द्वारा इन लोगों के हृदय में आशा का अंकुर उगा है. यह पैसा उसी आशा का प्रतीक है. इन्हें विश्वास हो गया है कि एक दिन हमारा भी उद्धार होगा."
४५ / इसी का नाम है अंधा प्रेम ............................. उन दिनों गांधीजी बिहार में काम कर रहे थे. अचानक वायसराय ने उन्हें बुला भेजा. अनुरोध किया कि वे हवाई जहाज से आयें. गांधीजी ने कहा, "जिस सवारी में करोड़ों गरीब लोग सफर नहीं कर सकते, उसमें मैं कैसे बैठूं?" उन्होंने रेल के तीसरे दर्जे से ही जाना तय किया. मनु बहन को बुलाकर बोले," मेरे साथ सिर्फ तुझको चलना है. सामान भी कम-से-कम लेना और तीसरे दर्जे का एक छोटे-से-छोटा डिब्बा देख लेना." सामान तो मनु बहन ने कम-से-कम लिया, लेकिन जो डिब्बा चुना, वह दो भागों वाला था.
एक में सामान रखा और दूसरा गांधीजी के सोने-बैठने के लिए रहा. ऐसा करते समय मनु के मन में उनके आराम का विचार था. हर स्टेशन पर भीड़ होगी. फिर हरिजनों के लिए पैसा इकट्ठा करना होता है. रसोई का काम भी उसी में होगा तो वह घड़ी भर आराम नहीं कर सकेंगे. यही बातें उसने सोची पटना से गाड़ी सुबह साढ़े-नौ बजे रवाना हुई. गर्मी के दिन थे. उन दिनों गांधीजी दस बजे भोजन करते थे. भोजन की तैयारी करने के बाद मनु उनके पास आई. वे लिख रहे थे. उसे देखकर पूछा,"कहां थी?" मनु बोली,"उधर खाना तैयार कर रही थी." गांधीजी ने कहा, जरा" खिड़की के बाहर तो देख." मनु ने बाहर झांका. कई लोग दरवाजा पकड़े लटक रहे हें. वह सबकुछ समझ गई. गांधीजी ने उसे एक मीठी-सी झिड़की दी और पूछा,"इस दूसरे कमरे के लिए तूने कहा था?" मनु बोली," जी हां, मेरा विचार था कि यदि इसी कमरे में सब काम करूंगी तो आपको कष्ट होगा." गांधीजी ने कहा,"कितनी कमजोर दलील है. इसी का नाम है अंधा-प्रेम. यह तो तूने सिर्फ दूसरा कमरा मांगा, लेकिन अगर सैलून भी मांगती तो वह भी मिल जाता. मगर क्या वह तुझको शोभा देता? यह दूसरा कमरा मांगना भी सैलून मांगने के बराबर है." गांधीजी बोल रहे थे और मनु की आंखों से पानी बह रहा था. उन्होंने कहा, "अगर तू मेरी बात समझती है तो आंखों में यह पानी नहीं आना चाहिए. जा, सब सामान इस कमरे में ले आ. गाड़ी जब रुके तब स्टेशन मास्टर को बुलाना." मनु ने तुरंत वैसा ही किया. उसके मन में धुकड़-धुकड़ मच रही थी. न जाने अब गांधीजी क्या करेंगे! कहीं वे मेरी भूल के लिए उपवास न कर बैठे! यह सोचते-सोचते स्टेशन आ गया. स्टेशनमास्टर भी आये. गांधीजी ने उनसे कहा, "यह लड़की मेरी पोती है. शायद अभी मुझे समझी नहीं. इसीलिए दो कमरे छांट लिए. यह दोष इसका नहीं है, मेरा है. मेरी सीख में कुछ कमी है. अब हमने दूसरा कमरा खाली कर दिया है. जो लोग बाहर लटक रहे हैं, उनको उसमें बैठाइये. तभी मेरा दुख कम होगा." स्टेशन मास्टर ने बहुत समझाया, मिन्नतें की, पर वे टस-से-मस न हुए. अन्त में स्टेशन मास्टर बोले, मैं उनके लिए दूसरा डिब्बा लगवाये देता हूं." गांधीजी ने कहा, हां, दूसरा डिब्बा तो लगवा ही दीजिये, मगर इसका भी उपयोग कीजिये. जिस चीज की जरूरत न हो उसका उपयोग करना हिंसा है. आप सुविधाओं का दुरुपयोग करवाना चाहते हैं. लड़की को बिगाड़ना चाहते हैं. बेचारा स्टेशनमास्टर! शर्म से उसकी गर्दन गड़ गई. उसे गांधीजी का कहना मानना पड़ा.
४६ / उस पेंसिल को मैं कैसे खो सकता हूं? ...................................... गांधीजी मद्रास में श्री नटेसन के मेहमान थे. एक दिन सुबह वह दीवानखाने में बैठे हुए पेंसिल से कुछ लिख रहे थे. उसी समय श्री नटेसन का छोटा लड़का वहां आया. देखा, गांधीजी जिस पेंसिल से लिख रहे हैं, वह बहुत छोटी है. बाल-सुलभ उत्सुकता से वह पूछ बैठा,"आप इतनी छोटी पेंसिल से क्यों लिख रहे है?"बड़े आदमी तो बड़ी पेंसिल से लिखा करते हैं." गांधीजी हंसे और कहा, "मुझे छोटी पेंसिल से लिखना अच्छा लगता है, लेकिन क्या तुम्हारे पास बड़ी पेंसिल है?" बालक बोला, है क्यों नहीं! मेरी पेंसिल बड़ी चमकीली है. लाऊं?" यह कहकर बालक भागा हुआ अंदर गया और कुछ ही देर बाद अपनी पेंसिल लेकर लौट आया. बोला, देखिए, है न यह आपकी पेंसिल से बड़ी और चमकीली?" गांधीजी विनोद भरे स्वर में बोले," है तो, लेकिन क्या तुम इसे मेरी पेंसिल से बदलोगे?" बालक ने एक क्षण सोचा. फिर कहा, "नहीं, मैं आपको वैसे ही दे दूंगा. लेकिन आप इसे कभी खोइयेगा मत." गांधीजी ने उत्तर दिया,"तुम्हारी बात मंजूर है. जब तक ये पेंसिल काम देगी, तब तक मैं इससे लिखता रहूंगा." बहुत दिन बीत गये. उसी वर्ष बम्बई में कांग्रेस का अधिवेशन था. एक दिन काकासाहब कालेलकर गांधीजी के पास बैठे हुए थे. उन्हें कहीं जाना था. डेस्क पर रखी हुई सब चीजें संभालकर रखने लगे. सहसा काकासाहब ने देखा कि गांधीजी कोई चीज ढूंढ़ रहे हैं और उसके न मिल पाने पर वे परेशान हो उठे हैं. उन्होंने पूछा, बापूजी, क्या ढूंढ़ रहे हैं?" गांधीजी ने उत्तर दिया, "अपनी पेंसिल ढूंढ़ रहा हूं. बहुत छोटी-सी है." काकासाहब ने उनका समय बचाने की दृष्टि से अपनी जेब से एक पेंसिल निकाली और कहा,"आप इसे ले लीजिये." गांधीजी बोले,"नहीं-नहीं, मुझे वही मेरी छोटी पेंसिल चाहिए." काकासाहब ने पूछा, "उस पेंसिल में एसी क्या विशेषता है, जो आप अपना समय इस प्रकार बेकार गंवा रहे हैं?" गांधीजी बोले, "तुम्हें नहीं मालूम, वह छोटी-सी पेंसिल मुझे मद्रास में नटेसन के छोटे बच्चे ने दी थी. बड़े प्यार से वह उसे ले आया था. उसे मैं कैसे खो सकता हूं?" यह सुनकर काकासाहब गांधीजी के साथ उस पेंसिल को ढूंढ़ने में लग गये. जब तक वह नहीं मिली. गांधीजी शांत नहीं हुए. वह दो इंच से भी कम ही थी.
४७ / तो मैं अभी चलता हूं ......................... उन दिनों कड़ाके का जाड़ा पड़ रहा था. गांधीजी किसी काम से दिल्ली आये. उनकी गाड़ी सुबह चार बजे स्टेशन पर पहुंचती थी. श्री घनश्यामदास बिड़ला उन्हें लेने के लिए स्टेशन गये. वहां पहुंचने पर उन्हें पता लगा कि गांधीजी एक घंटे बाद ही अहमदाबाद चले जायेंगे. उनके गाड़ी से उतरते ही बिड़लाजी ने पूछा,"एक दिन ठहर नहीं सकते?" गांधीजी ने कहा,"नहीं, जाना बहुत आवश्यक है." यह सुनकर बिड़लाजी निराश हो गये. गांधीजी ने पूछा,"क्यों. क्या बात है?" बिड़लाजी ने कहा,"घर में कोई मृत्यु-शैया पर है. वह आपके दर्शन करना चाहती है." गांधीजी ने तुरंत कहा,तो मैं अभी चलता हूं." बिड़लाजी बोले," समय बहुत थोड़ा है. इस जाड़े में ले जाकर आपको कष्ट नहीं देना चाहता." उन दिनों खुली मोटरें होती थीं. खूब ठंडी हवा चल रही थी. फिर भी गांधीजी नहीं माने. उनके आग्रह करने के कारण बिड़लाजी लाचार हो गये और उन्हें अपने घर ले गये. वह स्थान दिल्ली से कोई पंद्रह मील दूर था. गांधीजी ने रोगी को देखा, उसे सांत्वना दी और फिर दिल्ली छावनी जाकर अपनी गाड़ी पकड़ी. बिड़लाजी चकित रह गये. इतना बड़ा व्यक्ति उनकी जरा-सी प्रार्थना पर कड़ाके के जाड़े में इतना कष्ट उठा सकता है! पर यह उनकी आत्मीयता ही तो थी, जो लोगों के प्रति पानी-पानी कर देती थी. वह बीमार और कोई नहीं, श्री घनश्यामदास बिड़ला की धर्मपत्नी थीं.
४८ / मेरा पुण्य तूने ले लिया ........................... नोआखली में गांधीजी पैदल गांव-गांव घूम रहे थे. वह दुखियों के आंसू पोंछते थे. उनमें जीने की प्रेरणा पैदा करते थे वह उनके मन से डर को निकाल देना चाहते थे. इसीलिए उस आग में स्वयं भी अकेले ही घूम रहे थे. वहां की पगडंडियां बड़ी संकरी थी. इतनी कि दो आदमी एक साथ नहीं चल सकते थे.
इस पर वे गंदी भी बहुत थी. जगह-जगह थूक और मल पड़ा रहता था. यह देखकर गांधीजी बहुत दुखी होते, लेकिन फिर भी चलते रहते. एक दिन चलते-चलते वे रुके. सामने मैला पड़ा था. उन्होंने आसपास से सूखे पत्ते बटोरे और अपने हाथ से वह मैला साफ कर दिया. गांव के लोग चकित हो देखते रह गये. मनु कुछ पीछे थी. पास आकर उसने यह दृश्य देखा. क्रोध में भरकर बोली "बापूजी, आप मुझे क्यों शर्मिंदा करते हैं? आपने मुझसे क्यों नहीं कहा? अपने आप ही यह क्यों साफ किया?" गांधीजी हंसकर बोले, "तू नहीं जानती. ऐसे काम करने में मुझे कितनी खुशी होती है. तुझसे कहने के बजाय अपने-आप करने में कम तकलीफ है." मनु ने कहा "मगर गांव के लोग तो देख रहे हैं."गांधीजी बोले,"आज की इस बात से लोगों को शिक्षा मिलेगी. कल से मुझे इस तरह के गंदे रास्ते साफ न करने पड़ेंगे. यह कोई छोटा काम नहीं है" मनु ने कहा, "मान लीजिये गांववाले कल तो रास्ता साफ कर देंगे. फिर न करें तब?" गांधीजी ने तुरंत उत्तर दिया,"तब मैं तुझको देखने के लिए भेजूंगा. अगर राह इसी तरह गंदी मिली तो फिर मैं साफ करने के लिए आऊंगा." दूसरे दिन उन्होंने सचमुच मनु को
देखने के लिए भेजा. रास्ता उसी तरह गंदा था, लेकिन मनु गांधीजी से कहने के लिए नहीं लौटी. स्वयं उसे साफ करने लगी. यह देखकर गांव वाले लज्जित हुए और वे भी उसके सात सफाई करने लगे. उन्होंने वचन दिया कि आज से वे ये रास्ते अपने-आप साफ कर लेंगे. लौटकर मनु ने जब यह कहानी गांधीजी को सुनाई तो वे बोले, "अरे, तो मेरा पुण्य तूने ले लिया! यह रास्ता तो मुझे साफ करना था. खैर, दो काम हो गये. एक तो सफाई रहेगी, दूसरे अगर लोग वचन पालेंगे तो उनको सच्चाई का सबक मिल जायेगा."
४९ / मैं फरिश्ता नहीं, छोटा सा सेवक हूं
नोआखली-यात्रा के समय की बात है. गांधीजी चलते-चलते एक गांव में पहुंचे. वहां किसी परिवार में नौ-दस वर्ष की एक लड़की बहुत बीमार थी. उसके मोतीझरा निकला था. उसी के साथ निमोनिया भी हो गया था. बेचारी बहुत दुर्बल हो गई थी. मनु को साथ लेकर गांधीजी उसे देखने गये. लड़की के पास घर की और स्त्रियां भी बैठी हुई थीं. गांधीजी को आता देखकर वे अंदर चली गईं. वे परदा करती थीं. बेचारी बीमार लड़की अकेली रह गई. झोंपड़ी के बाहरी भाग मैं उसकी चारपाई थी. गांव में रोगी मैले-कुचैले कपड़ों में लिपटे गंदी-से-गंदी जगह में पड़े रहते. वही हालत उस लड़की की थी. मनु उन स्त्रियों को समझाने के लिए घर के भीतर गई. कहा, " तुम्हारे आंगन में एक महान संत-पुरुष पधारे हैं. बाहर आकर उनके दर्शन तो करो." लेकिन मनु की दृष्टि में जो महान पुरुष थे, वही उनकी दृष्टि में दुश्मन थे. उनके मन में गांधीजी के लिए रंचमात्र भी आदर नहीं था. स्त्रियों को समझाने के बाद जब मनु बाहर आई तो देखा, गांधीजी ने लड़की के बिस्तर की मैली चादर हटाकर उस पर अपनी ओढ़ी हुई चादर बिछा दी है. अपने छोटे से रूमाल से उसकी नाक साफ करदी है. पानी से उसका मुंह धो दिया है. अपना शाल उसे उढ़ा दिया है और कड़ाके की सर्दी में खुले बदन खड़े-खड़े रोगी के सिर पर प्रेम से हाथ फेर रहे हैं. इतना ही नहीं. बाद में दोपहर को दो तीन बार उस लड़की को शहद और पानी पिलाने के लिए उन्होंने मनु को वहां भेजा. उसके पेट और सिर पर मिट्टी की पट्टी रखने के लिए भी कहा. मनु ने ऐसा ही किया. उसी रात को उस बच्ची का बुखार उतर गया. अब उस घर के व्यक्ति, जो गांधीजी को अपना दुश्मन समझ रहे थे, अत्यंत भक्तिभाव से उन्हें प्रणाम करने आये. बोले,"आप सचमुच खुदा के फरिश्ते हैं. हमारी बेटी के लिए आपने जो कुछ किया, उसके बदले में हम आपकी क्या खिदमत कर सकते हैं?" गांधीजी ने उत्तर दिया, "मैं न फरिश्ता हूं और न पैगम्बर. मैं तो एक छोटा-सा सेवक हूं. इस बच्ची का बुखार उतर गया, इसका श्रेय मुझे नहीं है. मैंने इसकी सफाई की. इसके पेट में ताकत देने वाली थोड़ी सी खुराक गई, इसीलिए शायद बुखार उतरा है. अगर आप बदला चुकाना चाहते हैं तो निडर बनिये और दूसरों को भी निडर बनाइये. यह दुनिया खुदा की है. हम सब उसके बच्चे हैं. मेरी यही विनती है कि अपने मन में तुम यही भाव पैदा करो कि इस दुनिया में सभी को जीने-मरने का समान अधिकार है."
५० / मैं तुम्हारा चेला बनता हूं ...........................
आगाखां महल से छूटकर गांधीजी पर्णकुटी मैं आकर ठहरे. उनकी चप्पलें कई दिन पहले ही टूट थीं. मनु ने वे टूटी चप्पलें उनसे बिना पूछे मरम्मत करने के लिए मोची को दे दीं. देकर लौटी तो देखा कि गांधीजी अपनी चप्पलें ढूंढ़ रहे हैं. मनु देखकर उन्होंने पूछा "तूने मेरी चप्पलें कहां रख दी हैं?" मनु ने कहा, "बापूजी, वे तो मैं मरम्मत के लिए मोची को दे आई हूं." मनु ने जवाब दिया, "आठ आने मजदूरी ठहराई है, बापूजी." गांधीजी बोले," लेकिन तू तो एक कौड़ी भी नहीं कमाती और न मैं कमाता हूं. तब मजदूरी के आठ आने कौन देगा?" मनु सोच में पड़ गयी. आखिर मोची से चप्पलें वापस लाने का निर्णय उसे करना पड़ा. लेकिन उस बेचारे को तो सवेरे-सवेरे यही मजदूरी मिली थी. इसीलिए वह बोला,
"सवेरे के समय मेरी यह पहली-पहली बोहनी हे. चप्पलें तो मैं अब वापस नहीं दूंगा." मनु लाचार होकर उससे कहा, "ये चप्पलें महात्मा गांधी की हैं. तुम इन्हें लौटा दो भाई." यह सुनकर मोची गर्व से भर उठा. बोला, "तब तो मैं बड़ा भाग्यवान हूं. ऐसा मौका मुझे बार-बार थोड़े ही मिलने वाला है. मैं बिना मजदूरी लिये ही बना दूंगा. लेकिन चप्पलें लौटाऊंगा नहीं" काफी वाद-विवाद के बाद मनु चप्पलें और मोची दोनों को लेकर गांधीजी के पास पहुंची और मोची दोनों को लेकर गांधीजी के पास पहुंची और उन्हें सारी कहानी सुनाई. गांधीजी ने मोची से कहा, " तुम्हें तुम्हारा भाग ही तो चाहिए न? तुम मेरे गुरु बनो. मैं तुम्हारा चेला बनता हूं. मुझे सिखाओ कि चप्पलों की मरम्मत कैसे की जाती है?" और गांधीजी सचमुच उस मैले-कुचैले मोची को गुरु बना कर चप्पल सीने की कला सीखने लगे. वे अपने मिलने वालों से बातें भी करते जाते थे और सीखते भी जाते थे. गुरु-चेले का यह दृश्य देखकर मुलाकाती चकित रह गये. उन्होंने जानना चाहा कि बात क्या है? गांधीजी बोले,"यह लड़की मुझसे बिना पूछे मेरी चप्पलें मरम्मत करने दे आई थी. इसलिए इसको मुझे सबक सिखाना है और इस मोची को इसका भाग चाहिए, इसलिए मैंने इसे अपना गुरु बना लिया है." फिर हंसते हुए उन्होंने कहा, देखते हैं न आप महात्माओं का मजा!"
५१ / ऐसी सफाई हमें रखनी चाहिए ................................
यरवदा-जेल में गांधीजी सवेरे नौ बजे सोडा और नींबू लेते थे. उन दिनों सरदार वल्लभभाई पटेल उनके साथ थे. वही उनका यह पेय तैयार करते थे. एक दिन जब वे यह पेय तैयार कर रहे थे तो सहसा गांधीजी ने कहा, "आपको नर्सिंग का एक कोर्स लेने की जरूरत नहीं है?" सरदार ने अचकचा कर उनकी ओर देखा. गांधीजी उसी तरह बोले," देखिये तो, आपने चम्मच ऊपर से पकड़ने के बजाये ठेठ मुंह के पास से पकड़ा है. यह सारा चम्मच गिलास में जायेगा, इसलिए उस जगह उसको हाथ से नहीं छूना चाहिए और जिस रूमाल से आप अपना मुंह पोंछते हैं, उसी से आपने इस चम्मच को साफ किया है. यह भी नहीं होना चाहिए. आप तो जानते हैं कि नर्स आपरेशन के कमरे में किसी भी चीज को हाथ नहीं लगा सकती. सब चीजों को वह चिमटी या संडसी से ही उठाती है. हाथ से ले तो उसे बर्खास्त कर दिया जाता है. ऐसी ही सफाई हमें भी रखनी चाहिए." एक क्षण रुककर वे फिर बोले," और पीने के बाद गिलास यों ही औंधे नहीं रख देने चाहिए. हम शायद ऐसा इस आशा से करते हैं कि वे धुल जाते होंगे,
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(टीडीआईएल के हिन्दी पाठ कार्पोरा से साभार)
bapu ke sansmran padh ke accha lga.bapu ka chritr apne aap main ek udharn hai.aur isi liye lagta hai baapu ishwar ke avtaar hai.
जवाब देंहटाएंसुन्दर संकलन.
जवाब देंहटाएंआपने तो अनमोल निधि से उपकृत कर दिया । ये तो मनुष्य जीवन को प्रांजल करने वाले औषध हैं ।
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत आभार ।