अनुज नरवाल ‘रोहतकी’ का ग़ज़ल संग्रह : वो जैसा भी है मेरा है

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ग़ज़ल संग्रह    : वो जैसा भी है मेरा है   ग़ज़लकार        : अनुज नरवाल 'रोहतकी'   सर्वाधिकार    : प्रकाशकाधीन प्रकाश...

ग़ज़ल संग्रह    : वो जैसा भी है मेरा है

anuj narwal ka vyangya sangraha vo jaisa bhi hai mera hai (WinCE) 

ग़ज़लकार        : अनुज नरवाल 'रोहतकी'

 


सर्वाधिकार    : प्रकाशकाधीन
प्रकाशक    : सुकीर्ति प्रकाशन 2005
                  डी. सी. निवास के सामने, करनाल रोड
         कैथल-136027 (हरियाणा)
         फोन 01746-235862, 309229
आवरण    : आनंद अकीन
मुद्रक        : सुकीर्ति प्रिंटर्ज,
         करनाल रोड, कैथल
मुख्य वितरक    : अक्षरधाम समिति (रजि.)
         (भारत की सर्वाधिक पुस्तक मेले आयोजित करने वाली संस्था)
         करनाल रोड, कैथल-136027 (हरियाणा)
मूल्य        : 40/-चालीस रुपये मात्र

 

समर्पण

परम पूजनीय माँ श्रीमती चाँद कौर
एव्
पिता श्री हुक्म चन्द जी
                                             को सादर समर्पित

 

कौन उतरा है भला किसकी उम्मीदों पे खरा
औरों को क्या देखते हो, खुद को ही देख लो

तू बेवफाई कर रहा है इसमें खता नहीं तेरी
आजकल तेरे शहर का मौसम ही ऐसा है

दौलत, शोहरत की हसरत नहीं है मुझे
मालूम है कफन में जेब नहीं होती

सबर तो किजीए कि रात भी होगी
चाँद भी निकलेगा ज़माना भी देखेगा

इस प्रयास के बारे में


    हरियाणा में ग़ज़ल विधा विषयक असंख्य 'ग़ज़ल-संग्रह' प्रकाशित हो चुके हैं। साहित्य क्षेत्र में अनेक लेखकों की लेखनी मंज चुकी हैं। परन्तु इस क्षेत्र में एक नया नाम है-अनुज नरवाल 'रोहतकी'। इनकी ग़ज़लें, कविताएँ, कहानियाँ कई प्रतिष्ठित समाचार-पत्रों व पत्रिकाओं में तो प्रकाशित होती रही हैं परन्तु ग़ज़ल-संग्रह 'वो जैसा भी है मेरा है' इनका पहला प्रयास है। जिला सोनीपत के गाँव कथूरा में जन्मे अनुज नरवाल, फिलहाल कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। ये सरल स्वभाव, स्पष्टवादिता, एवं सादगी पूर्ण जीवन में विश्वास रखते हैं। अच्छे ख्याल, मुहावरा बन्दी, व्यंग्य, यथार्थवाद आदि सभी पुटों का समावेश इनकी ग़ज़लों में दिखाई पड़ता है। इनकी ग़ज़लों के कुछ शे'र जिनमें व्यंग्यात्मक शैली का प्रयोग हुआ है-
        दिल हर रोज जाने कितने चेहरों पे मरता है,
        हो गया किस कदर आसान मरना आजकल।

        नफरत से करता है यह मुहब्बत बहुत
        अजीब मिज़ाज वाला है तुम्हारा शहर।

    आज के यर्थाथवादी युग में शायर ने कल्पना से दूर रहकर हकीकत से रू-ब-रू कराने का प्रयास किया है-
        ज़िस्म तक ही महदूद क्यों हो गई हर नज़र,
        क्यों नहीं चाहता कोई दिल में उतरना आजकल।

        किसको क्या लेना किसी के गम से,
        सबको ख्याल अपनी खुशी का है।

    आज के भौतिकवादी युग में सभी सुख-सुविधाओं के होते हुए भी मनुष्य निराश और हताश नज़र आता है परन्तु इस शायर के शे'रों में आशावाद की झलक साफ दिखाई देती है-

        आस न छोड़ उससे इंसाफ की,
        खुदा के घर देर है अंधेर नहीं।

        शबे-तार भी हो जाती है तबदील सुबह में 'अनुज',
        फिर मुझे न मिलेगा प्यार कब तक आखिर कब तक।
    शायर समाज के प्रति सचेत दिखाई देता है। पारिवारिक बिखराव, रिश्तों की टूटन, स्वार्थपरक व्यवहार आदि मोज़ू शायर से अछूते नहीं रहे हैं।
        जमाने लग जाते हैं जिन रिश्तों को बनाने में
        इक लम्हा भी नहीं लगता उनको टूट जाने में

        उजले जिस्म की चाह रखने वालों,
        कीमते-साफ दिल तुम्हें पता नहीं।

        तुम तो चाहो दौलत-शोहरत,
        कदर वफा की कब करते हो।

    मुहावराबन्दी पर आधारित शायर के कुछ अशआर-

        पाँचों उंगलियाँ बराबर नहीं होती,
        बे वजह मुझको बुरा बताने वाले।

        मुँह-दर-मुँह रहता था जो कभी मेरी नज़रों के,
        ईद का चाँद हो गया है आज दीदार यार का।
    शायर कम उम्र में ही नाम की बुलन्दियों को छूने की चाहत रखता है। इसी चाहत को दर्शाता हुआ उनका ये शे'र-
        'गालिब' 'मीर' 'ज़ोक' की तरह जानेंगे लोग तुम्हें भी,
        जीवन के हर पहलू पे 'अनुज' ग़ज़लें लिखते रहना।
    मैं कामना करती हूँ कि भविष्य में अनुज नरवाल साहित्य जगत को ऐसे ही अनमोल मोतियों से नवाज़ते रहें। आशा है कि पाठक इनके ग़ज़ल संग्रह का तहेदिल स्वागत करेंगे। आखिर में अनुज की लिखी चन्द पंक्तियों के साथ अपनी शुभकामनाएं देना चाहूँगी।

    दिल में लगन हो सच्ची तो हमने तकदीर को बदलते देखा है
    तोड़कर हर दीवार जमाने की राँझे से हीर को मिलते देखा है

-डॉ. कमला देवी
876, सेक्टर 19-प्प्, अर्बन एस्टेट, कैथल
   

लेखक की ओर से
    मानसिक भावनाओं की अभिव्यक्ति मानव समाज की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। मनुष्य समाज में रहकर जो देखता है, सुनता है एवं पढ़ता है, वह उसे किसी न किसी माध्यम से व्यक्त करना आवश्यक समझता है। मैंने भी अपने और अपने आस-पास से जुड़े अनुभवों को अपने ग़ज़ल-संग्रह       'वो जैसा भी है मेरा है' के माध्यम से पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने का     छोटा-सा प्रयास किया है। लेकिन पाठकों की कसौटी पर मैं कहाँ तक खरा उतर पाऊँगा। इसका निर्णय तो पाठक वर्ग द्वारा प्रदत्त स्नेह पर निर्भर करता है।
    लेखन कार्य को समृध्द बनाने के लिए पाठकों की प्रतिक्रियायें एवं सुझावों का विशेष योगदान होता है इसलिए मुझे पाठकों की राय का बेसब्री से इंतजार रहेगा। जिससे मेरे लेखन कार्य को और सही दिशा मिल सकेगी और भविष्य में मैं पाठक वर्ग की कसौटी पर खरा उतरने की अनवरत कोशिश कर सकूंगा।

प्रेम सहित।

-अनुज नरवाल 'रोहतकी'

सम्पर्क :-
    454/33 नया पड़ाव, काठ मण्डी,
रोहतक-124001


ख़ास-शुक्रगुज़ार

    तहेदिल से शुक्रगुज़ार हूँ- अपनी दीदी डॉ. कमला देवी का जिन्होंने मेरी बिखरी हुई ग़ज़लों को यकजा करके एक ग़ज़ल संग्रह की सूरत दी है।
    तहेदिल से शुक्रगुज़ार हूँ- संस्थापक अदबी संगम के शायर नाना जी श्री दोस्त भारद्वाज जी का जिनके प्रति मेरे अन्तस् में उनकी विद्वता और गुणवत्ता की छाप अंकित है।
    तहेदिल से शुक्रगुज़ार हूँ- स्टेट बैंक कैथल में कार्यरत शायर ज़नाब गुलशन मदान का जिन्होंने समय-समय पर मुझे अनुगृहित किया।
    तहेदिल से शुक्रगुज़ार हूँ-अपने परिवार, रिश्तेदारों और दोस्तों का जिन्होंने समय-समय पर मेरी रचनाओं को सुनकर हौसला अफ़ज़ाई की।
    तहेदिल से शुक्रगुज़ार हूँ-उस शख्स का जिसके ख्याल मात्र से ही मैं ग़ज़ल-यात्रा के इस दुर्गम पड़ाव पर पहुँच सका हूँ। उन्हें धन्यवाद देना स्वयं को धन्यवाद देने जैसा ही होगा। अत: मौन स्वीकृति में ही उनको धन्यवाद देना चाहूँगा।

-अनुज नरवाल 'रोहतकी'

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1.

मुहब्बत की थी तो निभाई तो होती
कोई प्यार की ज्योति जलाई तो होती

भूले से गर खता हो गई थी हमसे
कभी आकर तुमने बताई तो होती

औरों को वफा की सीख देने वाले
ये सीख खुद तूने अपनाई तो होती

वफा का बेवफाई से क्यूं दिया सिला
कमियां क्या थी गिनवाई तो होती

'अनुज' मुझपे लिख डाली किताब तूने
कोई ग़ज़ल खुद पे बनाई तो होती

---
2.

आदत हो गई है सबकी, जुबान से फिरना आजकल
हो गया है इक शौक, मुहब्बत करना आजकल

दिल हर रोज जाने कितने चेहरों पे मरता है
हो गया है किस कदर आसान मरना आजकल

ज़िस्म तक ही महदूद क्यों हो गई हर नज़र
क्यों नहीं चाहता कोई दिल में उतरना आजकल

मशहूर होने के लिए ये कैसा दीवानापन है
करते हैं पसन्द नज़रों से भी गिरना आजकल

आंख बंद करके यकीं कर लेते हो सब पर तुम
है बेवकूफी 'अनुज' ऐसा कुछ करना आजकल

---3.

किताब-ए इश्क पढ़ते रहना, शरहें1, लिखते रहना
कागज-ए-दिल पे अपनी सारी बातें लिखते रहना

किसने तेरा गम बाँटा और किसने ताने दिए
तुमने जुदाई में कैसे काटी रातें लिखते रहना

यादों के तूफां उठे कब-कब दिल के समन्दर में
कब-कब बेताब हुई मिलने को धड़कनें लिखते रहना

जहन में क्या-क्या चली हैं बातें मुझको ले लेकर
तेरी आँखों ने क्या देखें, सपनें लिखते रहना

खोए हुए मेरे चेहरे को ढूँढा तुमने कब तक आखिर
ढूंढ रही थी कहाँ-कहाँ मुझको आँखें लिखते रहना

'गालिब' 'मीर' 'ज़ोक' की तरह जानेंगे लोग तुम्हें भी
जीवन के हर पहलू पे 'अनुज' ग़ज़लें लिखते रहना।

---
1. शरहें - व्याख्या
4.

चोरी-चोरी मुझको यूँ न देखा कर
क्या-क्या कहेंगे लोग जरा-समझा कर

नींद से बोझल हैं पलकें अब तलक तेरी
मेरी खातिर तू इतना भी न जागा कर

मुझे सोचने में कहीं भूल न जाओ खुद को ही
सोचाकर मुझे मगर इतना भी न सोचा कर

आना है तो आ जाओ जिन्दगी में मेरी
या फिर तू सपनों में भी न आया कर

इश्के-'अनुज' में रंगे-हकीकत नज़र आएगा
दिल को देखाकर, सूरत पे न जाया कर

---5.

आँखों में बसा लीजे
पलकों पे बिठा लीजे

सुर्खी बनाकर मुझको
होठों पे लगा लीजे

फूल बनाकर मुझको
बालों में सजा लीजे

चुनरी बनाकर मुझको
सीने से लगा लीजे

कंगना बनाकर मुझको
हाथों में सजा लीजे

बिंदिया बनाकर मुझको
माथे पर लगा लीजे

सिंदुर बनाकर मुझको
मांग में सजा लीजे

कुछ भी बना लीजे पर
मुझको अपना बना लीजे।

---6.

अपना लीजिए या ठुकरा दीजिए
फैसला आज मगर सुना दीजिए

अपना कहने में मुझे, आए गर हया तुझे
समझ जाऊँगा बस मुस्कुरा दीजिए

तुमको चाहता हो गर कोई मेरे सिवा
मुकाबला उसका मुझसे करा दीजिए

तेरी गोद में रखकर सिर सो जाऊँगा
मेरे बालों में हाथ फिरा दीजिए

जिंदगी जीने में आसान हो जायेगी
मये-मुहब्बत मुझको पिला दीजिए

सब कुछ अपना बना लीजे इश्क को
फर्क, धर्म, जात का ये मिटा दीजिए

शेख जी खुद को जो भी कहे पारसा
आईना आज उसको दिखा दीजिए

आने वाला है अब महफिल में 'अनुज'
कहीं दिल, कहीं पलकें बिछा दीजिए।

---7.

दिल बना है मेरा शायद गम छिपाने को
आँखें दी हैं खुदा ने आँसू बहाने को

जब से छोड़ा है उसने मुझ दीवाने को
प्यारा लगने लगा हूँ मैं भी जमाने को

उसकी जरूरत है न उसका प्यार लाज़मी
है उसकी याद बहुत दिल बहलाने को

वो नज़र न आई नज़र जो पहचाने मुझे
यूँ तो आँखें दी हैं खुदा ने जमाने को

जहाँ में और भी रहते हैं मेरे सिवा
सबको मिलता है क्यूँ 'अनुज' ही सताने को

---8.
खुद को मेरा दोस्त बताने वाले
तुम भी निकले मुझे सताने वाले

झूठे भी हो तुम फरेबी भी हो
सब हुनर हैं तुझमें जमाने वाले

पाँचों उंगलियाँ बराबर नहीं होती
बेवजह मुझको बुरा बताने वाले

मेरे दीदार को तरसते थे कभी
आज हमसे यूँ नज़र चुराने वाले

दिल आसूदा है, तेरा दर्द पाकर भी
ओ बन्दा-नवाज मुझे भुलाने वाले

दिल मुश्ताक़े दीद है 'अनुज' का
मुझको यादों से मिटाने वाले

---9.

करूं मैं तेरा इंतजार कब तक आखिर कब तक
चलेंगी ये साँसे चार कब तक आखिर कब तक

मुझसे मिलने का इरादा तो बना, कोशिश तो कर
सोएंगे ये पहरेदार कब तक आखिर कब तक

मुझे अब ओर कोई काम नहीं इस जिद्द के सिवा
होगा न तेरा दीदार कब तक आखिर कब तक

कभी न कभी तो आएगा दौर उल्फ़ते-रूहानी का
ज़िस्म बिकेगा सरे बाज़ार कब तक आखिर कब तक

शबे-तार भी हो जाती है तबदील सुबह में 'अनुज'
फिर मुझे न मिलेगा प्यार कब तक आखिर कब तक

---9.

करूं मैं तेरा इंतजार कब तक आखिर कब तक
चलेंगी ये साँसे चार कब तक आखिर कब तक

मुझसे मिलने का इरादा तो बना, कोशिश तो कर
सोएंगे ये पहरेदार कब तक आखिर कब तक

मुझे अब ओर कोई काम नहीं इस जिद्द के सिवा
होगा न तेरा दीदार कब तक आखिर कब तक

कभी न कभी तो आएगा दौर उल्फ़ते-रूहानी का
ज़िस्म बिकेगा सरे बाज़ार कब तक आखिर कब तक

शबे-तार भी हो जाती है तबदील सुबह में 'अनुज'
फिर मुझे न मिलेगा प्यार कब तक आखिर कब तक

---10.

मेरे खत का कुछ यूँ जवाब भेजा है
बंद लिफाफे में लाल गुलाब भेजा है

बू-ए-वफा आ रही है इस गुल से
नए तौर से इश्क का ख़िताब भेजा है

जश्न का माहौल है आज मेरे दिल में
मेरे सवाल का सही जवाब भेजा है

मुरझाया हुआ चेहरा फिर खिल गया
मेरे लिए ईलाज-ए-इज्तिराब भेजा है

'अनुज' खोल दी है तेरी किस्मत उसने
बनाके हकीकत हर ख्वाब भेजा है

---11.

नींव पड़ी थी अपने रिश्तों की
बात हो जैसे कई बरसों की

मिलते थे जहाँ पे छुप-छुप के
याद है, बाड़ थी वह सरसों की

बिछुड़े मुद्दत हुई हमें फिर भी
बात लगती है कल-परसों की

तुम तो इक साल भी न साथ चले
बात करते थे सात-जन्मों की

बारहा उसकी याद जो लाएं
छोड़िये बात ऐसे सपनों की

जब भी दिया हमको गम ही दिया
क्या कहें 'अनुज' ऐसे अपनों की

---12.

जिगर में रहकर भी वो जुदा हो जैसे
मगर फिर भी लगे है अपना हो जैसे

मिलता भी है तो ऐसे मिलता है वो
दरमियां जन्मों का फासिला हो जैसे

उसके लिए सबसे लड़ने चला, तो लगा
उसका इश्क मेरा हौसला हो जैसे

ख्वाबों में भी नहीं आता वो आजकल
ऐसे लगता है भूल गया हो जैसे

किसी पे कभी एतबार करके तो देख
लगेगा पत्थर में भी, खुदा हो जैसे

तेरी बातों से साफ पता चलता है
'अनुज' तुमने भी प्यार किया हो जैस

---13.

तुम इक मुद्दत बाद मिले हो
सुनाओ हमें तुम कैसे हो

दिल में रहना छोड़ा तूने
फिर आजकल कहाँ रहते हो

आज भी हमसे रूठे हुए हो
तुम बिल्कुल भी नहीं बदले हो

कह दो जो कुछ भी है कहना
चुपचाप होकर क्यों खड़े हो

लगते हो 'अनुज' तुम भी पागल
जहाँ छोड़ा था वहीं खड़े हो

---14.

बेशक मुझसे आज खफा है
वो जैसा भी है मेरा है

कहने से नहीं टूटते रिश्ते
अपना तो अपना होता है

जीवन में रूठने मनाने का
अपना इक अलग मजा है

वह रूठे हैं तो मन जाएंगे
न मैं बुरा हूँ न वो बुरा है

कहती हैं ये हिचकियां मुझको
याद मुझे वो भी करता है

नींद नहीं मुझको भी आती
वो भी तो तारे गिनता है

मांगी दुआ तुम्हें पाने की
टूटा जब कोई तारा है

तू मिले तो सब मिला समझूं
'अनुज' मुझे जग से क्या लेना है

---15.

जब कभी तुम तनहा बैठोगे
खुद से होकर खफा बैठोगे

यादें मेरी घेरेंगी तुमको
दिल कर जब यकजा बैठोगे

होंगी तभी दूर सब कमियां
लेकर अगर आईना बैठोगे

सबकी नज़र से गिर जाओगे
होकर अगर बेवफा बैठोगे

खुदा भी न करेगा माफ तुम्हें
'अनुज' से अगर जुदा बैठोगे

---16.

मुझको कलेजे से लगाए कोई
जिन्दगी में आप-सा आए कोई

बुझ सके न जो उमर भर के लिए
शम्मा-ए-इश्क ऐसी जलाए कोई

वादा करता हूँ हर खुशी दूंगा
मगर शर्त है वफा निभाए कोई

दिल में है जो वही चेहरे पे हो
हकीकत से रू-ब-रू कराए कोई

मेरी तमन्ना तो है 'अनुज' यही
अपने दिल में मुझे बसाए कोई

---17.

शाख़ से टूटकर पत्ते दोबारा नहीं चिपका करते
दिल से बनाए हुए रिश्ते कभी नहीं टूटा करते

पहला-पहला ये प्यार ही कुछ होता है ऐसा
दिले आशिक जिसको भूलकर भी नहीं भूला करते

प्यार करके वो मुझे भूल गए हो, कैसे मानूं
जो दिल में रहते हैं वो दिल से नहीं जाया करते

मौत तो आती है हमारे तुम्हारे जिस्मों को ही
प्यार के रिश्ते अमर हैं, ये नहीं टूटा करते

जो कहते हो 'अनुज' सच कहते हो इसलिए हम
मुस्तहिके-रब्त तेरे सिवा ओर को नहीं समझा करते

---18.

प्यार का ये पहला ही खत है कोई बताए क्या-क्या लिखूँ
बातें दिल में आज बहुत हैं समझ न आए क्या-क्या लिखूँ

खत में पहले क्या लिखते हैं मुझको कुछ मालूम नहीं
तज़रबा नहीं खत लिखने का कोई बताए क्या-क्या लिखूँ

लिखकर उसका हाल मैं पूंछूं या अपना ही हाल कहूँ
कशमकश में हूँ बड़ी देर से समझ न आए क्या-क्या लिखूँ

नावाकिफ है जो उल्फत से मेरी अब तक 'अनुज' उसे
राजे दिल मैं कैसे लिखूँ कोई बताए क्या-क्या लिखूँ

---
19.

हुस्न तेरा इक जलता दरिया
इश्क मेरा है पिघलता दरिया

रूह-बदन गर मिल जाएं दोनों के
दिल बन जाएगा मचलता दरिया

टूटेंगी अगर ये रस्मों की दीवारें
इश्क बन जाएगा चलता दरिया

मत हो खफा तू मेरी वफा से
हिलने दे वफा का हिलता दरिया

बिन हर्फों के 'अनुज' कैसे लिक्खें
रूका है ग़ज़ल का चलता दरिया

---20.

हमसे हर किसी ने बस इतना ही वास्ता रक्खा
सिर्फ गरज के लिए ही हमको अपना आशना रक्खा

हमने जिसको भी चाहा, तहे दिल से चाहा मगर
सभी ने दिलों के दरमियां सदा फासिला रक्खा

जहाँ तक याद है, मैंने सबसे वफा निभाईं है
फिर भी हर किसी ने मेरा नाम बेवफा रक्खा

असलियत जान जाएंगे तो लौट आएंगे वो भी
इसी आस में हमने दरवाजा-ए-दिल खुला रक्खा

अपनों के चेहरे भी आए नज़र बेगाने हमें
जब भी हमने उनके आगे 'अनुज' आईना रक्खा

---21.

तुमसे पहले मैंने किसी पे यकीं किया न था
इस धोखे से पहले कोई धोखा हुआ न था

तेरी नजरों का स्पर्श दिल में घर कर गया
तुमसे पहले तो किसी ने इस तरह देखा न था

क्या पता कैसी होती हैं बियाबान की रातें
शाम के बाद घर से मैं कभी निकला न था

अब मैं समझा उसकी इस नाकामयाबी का सबब
हौसला करके वो पूरा राह पे चला न था

इन हुस्न वालों से न रखिए वफा की उम्मीद
वक्त पे देंगे ये धोखा 'अनुज' यह कहता न था

---22.

पत्थरों पे कर लेना तुम यकीं
लेकिन इन्सानों पर करना नहीं

इन्सां को मुहब्बत मिले जहां से
करता है ये दगा, आखिर वहीं

खुदा-ए-इश्क तुम कहते हो जिसे
मतलबे-इश्क तक उसे पता नहीं

उजले जिस्म की चाह रखने वालों
कीमते-साफदिल तुम्हें पता नहीं

आस न छोड़ उससे इंसाफ की
खुदा के घर देर है अंधेर नहीं

---23.

अब तो वक्त कुछ यूँ गुजारना होगा
अहसां जिन्दगी का उतारना होगा

साथ मेरे कोई चले न चले
खुद को तूफां में उतारना होगा

किसी में बुराई देखने से पहले
हमें खुद को भी तो संवारना होगा

यकीनन दौरे-इश्क आएगा मगर
दिल से इस नफरत को मारना होगा

'अनुज' तनहा सफर नहीं होता
अब हमसफर को पुकारना होगा

---24.

मैं ख्वाबों से निकलना चाहता हूँ
तुम्हारे साथ-साथ चलना चाहता हूँ

दर्द है क्या, समझाने की खातिर
मैं तुमसे दिल बदलना चाहता हूँ

जिया हूँ मैं इक पत्थर की तरह
अब बनके मोम जलना चाहता हूँ

वफा करने से कुछ हासिल नहीं है
जफा में अब, मैं पलना चाहता हँ

गमों में तो जला हूँ मैं 'अनुज' अब
तेरी खुशियों में ढलना चाहता हूँ

---25.

मुझको तुम अपना कहते हो
इसीलिए अच्छे लगते हो

जिससे मैंने धोखा खाया
तुम भी बिल्कुल उन जैसे हो

कैसे मानूँ बात मैं तेरी
तुम तो दुनिया के झूठे हो

तुम तो चाहो दौलत-शोहरत
कदर वफा की कब करते हो

तुमको प्यार पे यकीं नहीं है
कल उसके थे, अब इसके हो

सच को सच कहते हो 'अनुज'
सबको तुम कड़वे लगते हो

---26.

तुम क्यों ऐसे खफा हो गए
बेवजह बेवफा हो गए

क्या खता थी हमारी भला
बिन बताए जुदा हो गए

ख्वाबों में भी नहीं आते अब
ऐसे क्यूं तुम जुदा हो गए

एक भी न सुनी और 'अनुज'
देखते ही हवा हो गए

---27.

धीरे-धीरे चलना होगा
गिरकर भी संभलना होगा

जीवन के इस राह में यारों
गमों से भी मिलना होगा

बिछड़े हैं जो आज भी हमसे
कल उनसे भी मिलना होगा

गम मिले या खुशियाँ हमको
फूलों जैसा हँसना होगा

जब तक सांस 'अनुज' है बाकी
यादों में ही जलना होगा

---28.

वो जब भी मुझसे मिला करता था
हँस-हँस कर बातें किया करता था

साथ न छोडूंगा किसी कीमत पर
हरदम मुझे यही कहा करता था

हर गम, हर खुशी यूँ बाँटा करते थे
मैं उसको वो मुझे सुना करता था

खरा नहीं उतरा वो अपनी बातों पर
वादे तो बहुत किया करता था

भूल गया वो इस तरह से मुझे
जिस तरह 'अनुज' याद किया करता था

---29.

दर्दे दिल है और आँखों में पानी है
हाँ यही, बस यही, मेरी कहानी है

ऐ खुदा रखना हरा इसको सदा
यह जख्म दोस्त की दी निशानी है

जानी है जबसे हकीकत उसकी
ये दुनिया लगने लगी बेगानी है

मेरा तज़रबा तो कहता है यही
छोटी उमर में इश्क करना नादानी है

सबके इश्क में मिलेगी-बू-ए-हवस
'अनुज' का इश्क उल्फते-रूहानी है

---30.

मरता नहीं कोई किसी से जुदा होने पर
अफसोस जरूर होता है किसी को खोने पर

लम्हात जो होते हैं बीते हुए जमानों के
घेर लेते हैं अक्सर तनहा होने पर

होने लगता है अहसास गमों में खुशी का
जिन्दगी आसान लगती है तज़र्बा होने पर

कौन क्या है और कितने पानी में है
लगता है पता सामने आईना होने पर

दिल में कितनी मुहब्बत है किसके लिए
पता लगता है अक्सर 'अनुज' जुदा होने पर

---31.

सारी जिन्दगी जीते रहे हम ख्वाबों में
होती नहीं खुशबू कभी काग़जी गुलाबों में

जुदा हो गए हम मिलने से पहले ही
कुछ तो रही है कमी हमारे भी हिसाबों में

भूल हो गई हमसे उनको समझने में ही
छिपा रखा था उसने खुद को जो हिज़ाबों में

न रहा कोई हमसे मुहब्बत करने वाला अब
हम भी तो हैं अब जहां के खाना खराबों में

मुहब्बत में वो सब नज़र नहीं आया कभी
हमने जो कुछ भी पढ़ा था 'अनुज' किताबों में
--

(क्रमशः अगले अंकों में जारी….)

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: अनुज नरवाल ‘रोहतकी’ का ग़ज़ल संग्रह : वो जैसा भी है मेरा है
अनुज नरवाल ‘रोहतकी’ का ग़ज़ल संग्रह : वो जैसा भी है मेरा है
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