प्रो. टीएम उर्फ 'टंगड़ीमार प्रबंधन ' --अनुज खरे सारी दुनिया में इस समय महान कैसे बनें, महानतम सफलता कैसे पाएं टाइप की...
प्रो. टीएम उर्फ 'टंगड़ीमार प्रबंधन '
--अनुज खरे
सारी दुनिया में इस समय महान कैसे बनें, महानतम सफलता कैसे पाएं टाइप की किताबों की बाढ़ आई हुई है। ऐसी ही एक किताब मेरे हाथ लग गई है। उसके लेखक और उसने सादे सिद्धांतों को मैंने पढ़ा, मानवता के इतिहास में यदा-कदा ही इतना महान काम इतनी सरल भाष में हुआ होगा, ऐसा मेरा मानना है। हालांकि जब आप खुद पढ़ लेंगे तो मान लेंगे कि मैं कितना सही कह रहा हूं। महात्वाकांक्षियों के हितार्थ अलंकार रहित यह किताब इतनी सरल और लोकल भाष में लिखी गई है कि आपको लगेगा कि जैसे आप अपने आसपास के ही किसी व्यक्ति का संस्मरण सुन रहे हों। यही इस किताब के लेखक और उसके सिद्धांत की खासियत है। खैर, मैं यों पूरी कहानी सुना दूं आप ही पढ़ लें, लेखक का प्रेरणादायी जीवन और उनका कालजयी सिद्धांत की दास्तान...
नोटः यह रचना जीवन को बेहतर बनाने से संबंधित है। अतः शुरू में ही बताता चलूं कि पूरी रचना में व्यंग्य या हास्य जैसी फिजूल की चीजों को ढ़ूंंढने का अनावश्यक प्रयास कताई ना करें, प्रेरणादायी रचना को महान नजरिए से पढ़ें।
तो चलिए शुरू से शुरू करते हैं। जीवन परिचय...
वैसे उनका असली नाम टीएम मोरले है, लेकिन सारा कॉलेज उन्हें प्रो. टीएम साहब के नाम से जानता है, ठीक उसी तरह जिस तरह अजीत को सारा शहर लायन के नाम से जानता था। तेजराम मोती प्रकाश मोरले नहीं बल्कि 'टंगड़ीमार' मोरले उर्फ प्रो. टीएम साहब। उनके मैनेजमेंट कौशल के कायल, 'मेधा' से आतंकित पूरे कॉलेज के लोग, उनकी कारगुजारियों के जीवंत कैसिट, बटन दबाया किस्से शुरू, किस्से भी क्या अखंड किस्से, एक किस्से में ही तीन सहायक किस्से निकल आएं। अनंत कथाएं एक प्रो. टीएम। यूं तो उन्होंने अपना कॅरियर चपरासीनुमा किसी चीज से शुरू किया था। हालांकि वे तब भी इसे शिक्षण सहायक ही कहते थे। शिक्षण सहायक के रूप में उनके दायित्वों के अंतर्गत वे बताते थे। जी हां, यहां सब कुछ वे ही बताते थे योंकि उनके समय के बाकी सब 'वरिष्ठ' तो उनकी कारगुजरियां से असमय ही मृतप्राय हो गए। इस कारण ये दायित्व उन्हें ही निभाना पड़ता है। तो वे जब शिक्षण सहायक थे तो वरिष्ठ प्राध्यापकों, अध्यापकों को चाक, डस्टर, पानी, सुटाई का रूल, भविष्य के दृष्टिगत कुछ प्रोफेसरों के घर की राशन-पानी आदि लाकर देते थे। इसके अलावा सम्मानित कार्यों के अंतर्गत वे बताते थे कि लाइब्रेरी से किताबें लाना भी उन्हीं के दायित्व हुआ करते थे।
यहीं उस ऐतिहासिक जगह वे पुस्तकों के निकट संपर्क में आए, जहां उन्हें अपनी मेधा के बारे में 'ज्ञान' हुआ, और वे काफी पढ़ लिखकर इस जगह तक पहुंचे। इसी संदर्भ में एक मौखिक किंवदंती यह कहती है कि उन्हें प्राध्यापकों द्वारा दी गई लिस्ट की किताबों को ढूंढने के दौरान कुछ पुरानी पीएचडी धूल खाती मिल गई थी, जिन्हें उन्होंने हस्तगत करके घर पहुंच लिया था। तत्पश्चात कॉलेज के ट्रस्टी महोदय के यहां दी गई अपनी 'निस्वार्थ' सेवाओं के प्रतिफल के रूप में उन्हें इसी कॉलेज में अध्यापकी प्राप्त हो गई थी। एक अन्य (यहां भी मौखिक किंवदंती) का विवरण कुछ दूसरी तरफ का है, जिसके अंतर्गत बताया जाता है कि ट्रस्टी महोदय के बूढ़े बाप जो रिटायर प्रोफेसर थे, कि टीएम साहब ने इतनी सेवा की थी कि मरते समय वे अपनी पीएचडी उन्हें सौंप गए थे जिसे टीएम साहब जिल्द खोलकर दोबारा पेशकर पीएचडी प्राप्त कर ली थी, जिस विषयक उनका कथन था कि उन्होंने ''गुरुप्रसाद अमर कर दिया है'' वो गुरु के खासे भक्त थे और जब तब लास में बताते रहते थे कि कैसे उनके गुरु ने केवल उनकी लगन और जिज्ञासा देखकर खांसते-खांसते ही उन्हें 'प्रबंधन' की शिक्षा दी थी। हालांकि यह बात अलग है कि इस दौरान गिरने वाले थूक का वे प्रबंधन उचित ढंग से नहीं कर पाए थे, जिस संबंध में भी उनकी अमर सूति थी कि ''गुरु का थूक भी शिष्य के लिए मोती बन जाता है।'' अर्थात वे शिक्षण पर इसी थोकोत्सर्जित पद्धति के अंतर्गत शिक्षित-दीक्षित हुए थे, जिस कारण थूककर चाटने, दूसरों के चरित्र पर थूकने आदि-आदि कार्यों को अत्यंत ही निष्णात एवं समर्पित भाव से करते थे।
ये तो था उनके प्रोफेसर बनने की दिशा में एक छोटा सा फ्लैश बैक।
अब उस बात पर आते हैं जिसके चलते वे फेमस हैं। उनकी अथाह 'ख्याति' है। वह है प्रबंधन का उनका बिलकुल मौलिक टीएम उर्फ टंगड़ीमार सिद्धांत या मॉडल। ढेरों छात्र इसकी सहायता से उच्च शिखरों पर पहुंच चुके हैं। छात्रों के जीवन में प्रेरणा भरने वाला यह मोस्ट फेमस मॉडल है, आप भी इससे प्रेरणा ले सकें, इसलिए इस सिद्धांत का लाइव डेमो दिया जा रहा है, ताकि आप इसे सीखें, गुनें और पद-हैसियत और अंततः जीवन 'बेहतर' बना सकें।(नोटः यह भी उस किताब में ही बताया गया है।)
फिलहाल वे लास में पढ़ा रहे हैं...
छात्र तन्मयता से उनसे 'प्रबंधन' की शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। टीएम साहब कह रहे थे ''देखो बच्चों प्रबंधन क्या है? क्षुद्र दृष्टि से देखो तो व्यक्ति, संस्था, वस्तुओं का उचित नियोजन ही प्रबंधन है। लेकिन जब आप इसे 'व्यापक' नजरिए से देखते है तो प्रबंधन है व्यक्ति, संस्था, वस्तुओं की अपने अनुकूल कर, ठीक ढंग से अपनी व्यवस्था बैठा लेना, अर्थात विनम्रता से टंगड़ी मारते हुए कम से कम समय में अधिकतम दूरी प्राप्त कर लेना। श्रम-बुद्धि-कौशल के वांछित घालमेल से, तीक्ष्णता से चीजें मैनेज करते हुए मैनेजर हो जाना। ये व्यावहारिक प्रबंधन है।'' आगे उन्होंने जोड़ा आधुनिक काल में से ही 'टंगडीमार मैनेजमेंट' कहते हैं। यह प्रबंधन का एकदम नया और 'स्पेसिलाइज्ड एरिया' है। स्पेसिलाइज्ड इसलिए है कि कोई आम छात्र इसे कर ही नहीं सकता। इसके लिए तो 'काइयांपंती' की धूर्तता में पगे हुए खास बैकग्राउंड की आवश्यकता पड़ती है, यूं ही नहीं हर कोई इसे प्राप्त कर सकता है। इसमें सबसे खास बात है उचित टाइमिंग की यानि योग्य अवसर पर तत्क्षण ही कलाकारी दिखा दी जाए, अन्यथा तो 'लूजर्स' कैटेगिरी में गिने जाने के लिए तैयार रहना पड़ता है। टीएम साहब अपनी बात कह भी नहीं पाए थे कि पूर्व में ही एक छात्र बोल पड़ा। ''सर जरा टाइमिंग की बात डिटेल में समझाइए ना...''
''बिलकुल'' उन्होंने कहा-''जैसे अत्यंत महत्वपूर्ण व्याख्यान के बीच तुम्हारी से पिन-पिनाती, जिज्ञासायुत आवाज बैड टाइमिंग का क्लासिकल उदाहरण है। बगुले की तरह घात लगाकर साधी जाती है टाइमिंग जरा सा चूके और पूरी मेहनत का सफाया'' जैसे किसी ऑफिस में प्रमोशन एक का होना हो और तीन दावेदार हो तो यहां टाइमिंग का क्या महत्व है, एक उदाहरण के माध्यम से समझो-'अ' ने इसके लिए सालभर दिखाए अपने काम कर्मठता को ही पर्याप्त आधार मानते हुए। आधार पर खुद को प्रमोशन का सबसे बड़ा दावेदार माना लिया। वहीं 'ब' ने काम और कर्मठता के साथ-साथ बॉस को सामने अपनी निरंतर हाजिरी को प्रमोशन का आधार पाना। वहीं इसी दौरान 'स' ने काम-कर्मठता-कर्तव्य के स्थान पर बॉस के प्रति कर्तव्य को प्राथमिकता देते हुए जेस्चर-पोश्चर में भी विनम्रता की अतिरिक्त 'डोज' मिलाना शुरू कर दी। ऑफिस और बंगले पर ड्यूटी की पंक्चुअलटी बढ़ा दी, यानि फल पकने का मौसम आने पर हर तरह की निष्क्रियता को त्याग कर 'प्रबंधन' में जुट गया। ''हां तो बच्चो बताओ फिर किसे मिला होगा प्रोमोशन'' टीएम साहब ने कहा। 'स' को ही मिला होगा, सर। कई आवाजें एक साथ आई। 'वैरी गुड अब समझ रहे हो 'टंगड़ीमार प्रबंधन' जहां 'अ' और 'ब' कर्तव्य और मेहनत में कम नहीं थे लेकिन जब अतिरिक्त मेहनत की जरूरत थी तो वे चूक गए, वहीं 'स' ने इस अतिरिक्त मेहनत अर्थात फल पकने के मौसम में 'माली' के समान नजरें रखीं, पेड़ के आसपास फल के चंहुओर 'झोली' फैलाकर उसके गिरने पर लपकने के लिए तैयार हो गया। तब कही जाकर हाथ आता है फल। ये क्या कि बीज तो डाल दिए और निश्चिंतता में बैठ गए, कोंपले भी नहीं निकलने पाएंगी कि ढ़ोर-डंगर खेल कर देंगे। मचान बंधना पड़ता है, फसल की रक्षा करनी पड़ती है निराई-गुढ़ाई भी समय-समय पर की जाती है, तब प्रमोशन की फसल पक कर खलिहान में आती है। जैसी 'स' के खलिहान में आई।
''पूरी कहानी से क्या शिक्षा मिलती है'' टीएम साहब बोले। फिर खुद ही आगे शुरू हो गए, शिक्षा ही नहीं ये कहानी तो अपने आप में पूरी 'पासबुक' ही है, जो कहती है उचित समय किया गया कोई भी अतिरिक्त प्रयास फल की प्राप्ति करवाता है। मैनेजमेंट की भाषा में 'सही टाइमिंग में सही एट' जबकि 'टंगडीमार मैनेजमेंट' में इसे कहते है 'कारगुजारी विद टाइमिंग' क्योंकि अगर आज तुम्हारे पास यह कला नहीं है तो आगे बढ़ने के अवसर भी नहीं ह,ै कारण ये है कि आज तो िसफारिश तक योग्य लोगों की लगाई जाती है, अयोग्य की तो कोई सिफारिश तक नहीं लगाना तो ऐसे परिदृश्य में टंगडी मारते हुए ही आगे बढ़ना पड़ता है।''
''फिर तो टंगड़ीमारने' का मतलब दूसरों का अन्यायपूर्ण ढंग से मौका छीनना हुआ सर'' फिर लास के कहीं कोने से आवाज आई।
''बिलकुल'' टीएम साहब ने कहा ''तुम काबिलियत नहीं दिखाओगे तो कोई दूसरा दिखा जाएगा, क्योंकि मार्ड्न मैनेजमेंट में काबिलियत और कारगुजारी लगभग पर्याय ही बन चुके हैं।''
ये तो तुम्हारी इच्छा है कि तुम्हें अगुआ बनाना है या कार्यकर्ता। हालांकि कार्यकर्तापना मैंटेन करना भी हरेक के बस की बात नहीं है'' क्योंकि कार्यकर्तापने में भीड़ बनना पड़ता है, भीड़ लगाना पड़ती है, भीड़ जैसा मुंह बनना पड़ता है, कई बार तो सारी व्यवस्था जेब से ही करना पड़ती है, फिर सैकड़ों कार्यकर्ता होते हैं नेता के चहुंओर खड़े होने को। कारगुजारी की कला नहीं आती हो तो दो-तीन पीढ़ियों तक भीड़ ही बने रहना पड़ता है। नेता के दरवाजे पर ही मंडराते रहना पड़ता है, पांवों में पड़े रहना पड़ता है, जूते-मोजे तक बन जाना पड़ता है, टिकट की मशकत करनी पड़ती है। ऐसे न जाने कितने 'पड़ता है' करने पड़ते है तब कही जाकर एकाध इच्छा पूरी हो पाती है। अब तुम्हीं बताओ हैं ना सौ मुश्किलें, इसलिए मैनेजर बनो वत्स्, मैनेजर, एजीयूटिव बने रहने में कार्यकर्तापने का दम चाहिए, इसलिए कारगुजारी दिखानी ही पड़ती है'' फिर मेरे अलावा पूरे देश में तुम्हें इतना उच्चस्तरीय प्रबंधन मॉडल कोई नहीं पढ़ा पाएगा, समझा पाएगा। इसलिए मेरे इन सीखों को आज ही गांठ बांध लो अन्यथा फिर टापते ही रह जाओगे। टीएम साहब प्रबंधन में गहन दर्शन मिस करके रोज ही इसी तरह का अथाह ज्ञान छात्रों को प्रदान करते ही रहते हैं।
अब एक प्रेरणादायी प्रसंग स्टाफरूम का भी हो ही जाए।
वहां भी टीएम साहब की ओजमयी वाणी गूंज रही है। ''अपना प्रिंसीपल नंबरी है नंबरी, स्टूडेंटों से पॉलिटिस करके अपना हित साधता रहता है। कल ही छात्रों को बरगला रहा था कि अगर कोई प्रोफेसर पढ़ाए नहीं तो उसे शिकायत की जाए, बताओ तो अब स्टूडेंट बताएंगे हम या-कैसे पढ़ा रहे हैं, २५ साल से तो पढ़ा रहे हैं आज तक समझे क्या जो अब बताएंगे, वैसे समझ जाते तो 'हम' न हो जाते, ठरकी दिखता है प्रिंसीपल क्या कहते हो, टेका मरते हुए बाकियों से हामी भरवाएंगे फिर स्टाफरूम से निकलकर प्रिंसीपल के कमरे में भी पहुंचेंगे ताकि वहां भी... वहां प्रिंसीपल को बताएंगे कि इन बूढ़े-खूंसट प्रोफेसरों के पास कोई काम तो होता नहीं है, दिनभर बैठकर कॉलेज की बुराई करते रहेंगे, फिर ऐसा नहीं हो रहा, वैसा नहीं हो रहा कि तान छेड़े रहेंगे,सर जरा टाइट तो करो इनको। इतने 'प्रबंधन' से निवृत होकर वे एक चकर स्टूडेंट लीडरों के पास लगाएंगे जिन्हें वे बताएंगे कि राजनीति कैसे चलाएं, कौन से प्रोफेसर छात्रों के विरोधी है, फंड कितना है आदि-आदि। इतना करने के बाद वे मोटरसाइकिल लेकर पहुंचेंगे प्रेस, जहां सब एडिटरों के पास बैठकर उन्हें बताएंगे कि भाई कॉलेज में क्या घपले-घोटाले चल रहे हैं, नाम मत देना लेकिन देख लो कैसा दुर्दशा कर दी कॉलेज की, शिक्षा की दुकानें बना के छोड़ दिया है। तुम ही कुछ करो नहीं तो सब रसातल में जाएगा। मेरा नाम नहीं छापना आदि दो-तीन बार दोहराकर वे अपनी प्राइवेट कोचिंग में पहुंचेंगे ताकि में बाहरी छात्रों को भी व्यावहारिक प्रबंधन में दीक्षित किया जा सके।
वैसे उनका मानना है कि उनके टीएम प्रबंधन मॉडल के सिद्धांत बेहद सरल एवं भारतीय लाइमेट के सर्वथा अनुकूल हैं, क्योंकि पश्चिम प्रंबध की किताबों में 'व्यावहारिक प्रबंधन' वहीं के नजरिए से लिखा गया है, जिसे स्थानीय जरुरतों के हिसाब से परिवर्धित-परिमार्जित करने का प्रयास आज तक किसी ने किया ही नहीं, चूंकि इस प्रबंधन को उन्होंने पूर्वरूपेण प्रैटिकल तौर पर आजमाकर भी देखा है, प्रीटेस्टिंग के अनुकूल परिणाम प्राप्त होने पर ही बहुसंख्यक छात्र वर्ग के व्यापक हितों को दृष्टिगत रखते हुए वे इसे एक सिद्धांत के रूप में विकसित कर उसके दूरगामी शिक्षण-प्रशिक्षण में लगे हैं। उनका तो मानना यहां तक है कि किसी भी सफलता को आप जान नहीं पा रहे हो तो उनके मौलिक सिद्धांतों की रोशनी में इस सिद्धांत का विश्लेष्ण कर लें, कहीं न कहीं उसके जीवन में इनका अनुशीलन मिल ही जाएगा। प्रतिदिन लगभग ये बात किसी न किसी लास बताते ही हैं फिर छात्र कल्याण के महान सिद्धांत के जन्मदाता के तौर पर उसकी खुमारी में ही घर की ओर लौटते हैं। यही संतुष्टि ही उनके जीवन की कमाई है, थाती है...। वे प्रसन्न हैं, जीवन की उत्कृष्टता इसी प्रसन्नता में छुपी है। खुशी किसी भी रास्ते से जीवन में आनी चाहिए...महान साध्य की राह में तुच्छ साधनों की ओर नहीं देखा जाना चाहिए। उनके सिद्धांतों के अनुशीलन से सर्वत्र खुशी फैले इसी कामना के साथ.....
इति।
यहां तक की कहानी तो उनकी बेहद व्यावहारिक किताब में बताई गई है। चूंकि इसके आगे क्या हुआ, यह जानने की घोर जिज्ञासा में मैंने इसके आगे की कहानी की भयंकरतम रिसर्च की तो जो पता चला वो अपने मुंह से आपको बता नहीं पाऊंगा... आगे खुद ही पढ़ लें।
यह कहानी ऊपर के उस पैराग्राफ से आगे शुरू होती है.... वे महान सिद्धांत के जनक की खुमारी में डूबे घर की ओर लौटते हैं।
अब आगे...
घर पहुंचते ही उनका व्यावहारिक सिद्धांत, घरेलू सिद्धांत के आगे हो जाता है फेल। जहां वो महान प्रोफेसर बन जाता है सिर्फ मोती। थोड़ा बहुत सम्मानित हुआ तो उनकी पत्नी मोती प्रकाश बोल देंगी। आज तक वे यहां अपना व्यापक प्रबंधन नहीं चला पाए हैं, पूरी दुनिया को टंगड़ीमार प्रबंधन की कला में निष्णात कर रहे हैं, यहां एक टांग पर खड़े हाउस प्रबंधन में कार्यकर्तापने की भूमिका निभा रहे हैं, बरसों से... आगे भी कोई राह नहीं... मैनेजर नहीं बन पा रहे हैं... टंगड़ीमार प्रबंधन का कोई मॉडल श्रीमतीजी पर नहीं चला पा रहे हैं...घर की खिड़की से वे हर आनेजाने वाले को आशाभरी निगाहों से देखते हैं, कुछ आप ही बता दीजिए...जी हां उनका आशय आप से ही है... कुछ व्यावहारिक ज्ञान दीजिए ना प्लीज, कोई घरेलू- सिद्धांत कोई मॉडल...हो सके तो बताइए....भाई साब... ओ भाई साब....।
हर महान खोज के पीछे का दारुण...विवशता.... काश कि मैंने यह खोजबीन न की होती...। खैर, अब आप महान सिद्धांतों को देने वालों के बैकग्राउंड की खोज में न जुट जाना... याद रखिए, दारुण-विवशता...।
वाह! आनन्द आ गया. पढ़वाने का आप को बहुत शुक्रिया.
जवाब देंहटाएंye farjivaadaa patni ke saamne chalne kaa nahi
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