‘ गाडी के कार्बोरेटर , तुझे हुआ क्या है , आखिर इस धकाधक धुएं की वजह क्या है। ’ व्यंग्य शीशी भरी गुलाब की... - अनुज खरे मैं...
‘गाडी के कार्बोरेटर, तुझे हुआ क्या है,
आखिर इस धकाधक धुएं की वजह क्या है।’
व्यंग्य
शीशी भरी गुलाब की...
-अनुज खरे
मैं आजकल कुछ भयंकर सी खोजबीन में लगा हूं। हालांकि मेरी खोजबीन का ताल्लुक अदीबो-अदब, शेरो-शायरी की दुनिया से है। आपको भी कुछ अजीब सा लग रहा होगा कि शेरो-शायरी में क्या भयंकर खोजा जा रहा है। हुजूर, मेरी खोजबीन बहुत गहराई लिए हुए है। मैं पता करने के प्रयास में जुटा हूं कि ट्रकों-टैंपुओं, रिक्शे के पीछे युगांतरकारी शेर लिखने वाले ये अज्ञात लोग कौन हैं, उनकी शिक्षा-दीक्षा, पठन-पाठन का लेवल क्या है, उनकी आर्थिक-सामाजिक हैसियत क्या रही होगी, वे अपनी विरासत में कैसी परंपरा को प्राप्त किए होंगे, वगैरहा-वगैरहा। मैंने अत्यंत ही सूक्ष्म दृष्टि से विश्लेषण करने के पश्चात् पाया है कि ये शेर अत्यंत ही गहन जीवन दर्शन से ओतप्रोत, मारकता से भरपूर, ताडकता से अविछिन्न, भाषिकता से लदे-फदे शायरी की अदबी दुनिया में गुलशन नंदाई हैसियत से अभिहित होते हैं। कई शेरो की तीक्ष्णता तो कमाल-ए-दाद है, मुलाहिजा फरमाएं...
‘बुरी नजर वाले, तेरा मुंह काला
दिल है तेरा काला और जां भी है काली’
प्राचीनकाल में पहली-पहली बार जब ये शेर ट्रकों पर नमूदार हुए थे तो कई एक्सीडेंट केवल इसी कारण से हो गए कि ट्रक के पीछे चलने वाली गाड़ी के ड्राइवर ने अपने बारे में इतना सच्चा पढकर जब बैक मिरर में अपना चेहरा देखना चाहा तो गाड़ी ने इसी दौरान किसी अन्य गाड़ी से ‘चर्चा’ का वक्त निकाल लिया था। आप ही बताइए है ना गहरी मारकता। दो लाइनें लिखीं, कमाल की लिखीं, अमर हो गए। ढूंढना न होगा उसे, नाम न प्रकाश में लाना होगा। इसी तरह इस शेर में ‘दर्शन’ के दर्शन कीजिए,
‘3 में ना 13 में
तू कौन खामाखां’
अर्थात् लोग तीन से तेरह करने के चक्कर में लगे हैं, फिर भी कहीं वजूद नहीं है। हर मुद्दे पर टांग अडाएंगे, बिना ये जाने कि हे, हाड़-मांस के मानव, तू क्या? तेरा वजूद क्या? माटी की देह, माटी हो जाएगी, क्यों फिजूल की बातों में तन गला रहा है, मन मैला कर रहा है, खुद भी अशांत है, दूसरों को चिंतित कर रहा है, किसलिए बावरे, यू हीं खामखां। कैसा होगा ये शायर, पनघट पर लिखा होगा उसने ये शेर या विरह में या नश्वरता की गहन अनुभूति से भरे क्षणों में या यूं ही मुर्गों की लड़ाई देखते हुए प्रस्फुटित हो गया होगा। आप मत मानिए देश, काल का रचना पर प्रभाव जानने का महान साहित्यिक प्रश्न भी है ये, इसीलिए तलाश में जुटा हूं। हालांकि अभी तो सिर्फ बिखरे सूत्र ही हाथ लग रहे हैं। कड़ियों से कड़ियां जुड़ने के आसार ही नहीं दिखाई दे रहे हैं। खैर, एक और कालजयी शेर याद आ रहा है, विस्मृत हो रहा है कि टैंपू के पीछे देखा या ऑटो के पीछे या शायद बस के अंदर ही पढ़ा हो, क्या करें ये ‘क्लासिकल’ सामग्री यत्र-तत्र बिखरी हुई है ना, फिर देखिए है भी तो कितनी प्रचुर मात्रा में, चलिए स्रोत के विवरण में ना जाकर शेर का लुत्फ उठाते हैं। अर्ज किया है-
‘शीशी भरी गुलाब की पत्थर से तोड़ लूं
तू ना आया जालिम, तेरी याद में माथा ही फोड़ लूं’
‘‘आपने इरशाद कह तो दिया था ना, अच्छा भूल गए थे।’’ खैर, इस शेर के भावार्थ में जाइए कितना सुंदर कहा है शायर ने- कि अत्यंत मेहनत से पहले गुलाबों को तोड़कर शीशी में घुसाकर भरा जाएगा, तत्पश्चात् कहीं जोरदार पत्थर देखकर तोड़ा जाएगा, तत्पश्चात् आहें भरी जाएंगी, तत्पश्चात् माथा फोड़ने की उत्कंठा में भी उनका इंतजार रहेगा, ताकि प्रेमी के सामने ही माथा फोड़कर उसका क्रेडिट लिया जाए, अकेले में फोड़ने से क्या फायदा, जब कोई देखने वाला ही न हो। चूंकि इस पूरी प्रक्रिया में कोई व्यक्त उसे ये बताने वाला नहीं होगा कि- अरे बावली जब तू शीशी में गुलाब भर रही थी तभी ‘वो’ आकर तुझे ना पाकर चला गया था। बैठी रह शीशी और गुलाब लेकर।
आप इसे छोड़कर केवल शेर की गहराई देखिए- कैसे दो लाइनों में उस समय को जीवंत कर दिया शायर ने। ऐतिहासिक तथ्यों से भी अवगत करा दिया कि कैसे किसी कालखंड में शीशी में गुलाब भरने जैसे विरह के अजीब से टाइमपास संसाधन मौजूद थे। इन्हीं सूत्रों को पकड़कर तो अपन शायर के रचना समय-कालखंड का अनुमान लगाने में लगे हैं कि आखिर शायर ने कहां से देखा होगा ये दृश्य, पहाड़ से या वृक्ष की ओट से या शायद जिस पत्थर पर शीशी के फोड़ने का जिक्र है, वह प्रतीक के रूप में हो, इंतजार से क्षुब्ध होकर यह शीशी शायर के खोपड़े से ही मारकर फोड़ी गई हो, जिसे कालांतर में पत्थर में परिवर्तित कर दिया गया हो। देखा आपने एक-दो लाइनों का शेर कैसे शिल्प विधान के प्रतिमानों को समझा रहा है। साहित्य के विकास को बता रहा है। पता ना लगाना होगा शायर के कद्दावर व्यक्तत्व का, जो रचना कौशल के लिए अपना ललाट तक फुड़वा रहा है। अच्छा इस शायर के बारे में एक बात तो कन्फर्म है, शारीरिक रूप से निश्चित ही बलिष्ठ रहा होगा, तभी माथा खुलवा कर भी शेर पूरा करने का साहस कर सका।
अहा! कैसी उत्कृष्ट भावना है, कैसी उदात्त परंपरा है। अब पता चला न क्यों ढूंढ रहा हूं। एक शेर और नजर कर रहा हूं। ये शेर मुझे जातीय तौर पर भी पसंद है-
‘13 मेरा 7,
9 दो 11,
हम हैं राही प्यार के,
आती क्या खंडाला’
ये शेर ज्योतिष और प्यार का अत्यंत गूढ़ रहस्य है। पहली लाइन 13 और 7 मिलाकर 2॰, दूसरी लाइन के 9 और 11 मिलाकर भी 2॰ हो रहे हैं। यानी अंकशास्त्र के मुताबिक योग 2+॰=2 यानी दो अर्थात् हम दोनों, दो जो प्यार के पथ पर खंडाला नामक स्थल पर बसने की इच्छा रखते हैं, फिर इस शेर में शायर की वृत्ति और स्थिति का भी विशद विवरण छुपा है, जिस तरह से अंकों का प्रयोग किया गया है, शायर निश्चित तौर पर शासकीय उच्चतर माध्यमिक स्कूल का गणित का अध्यापक रहा होगा, जो आमिर खान का फैन एवं फिल्मों का प्रेमी है। इसके अलावा उसकी पोस्टिंग गांव में है, जिसके कारण ही वह कक्षाओं के दौरान अपने शौक के लिए समय निकाल पा रहा है। स्कूल की ही किसी टीचर से नैन लड़ जाने के कारण वो खंडाला आदि स्थल पर चलकर बातचीत करने आदि का संकेत दे रहा है। कुल मिलाकर सरकारी तनख्वाह पर साहित्य की सेवा में रत है। अब बताइए चार लाइनें, मात्र चार लाइनें दे सकती हैं इतनी जानकारी। अरबी-फारसी के वजनी श?दों से अटे पडे शेरों में है इतना माद्दा। तो आपका मानना है कि मैं ठीक ही पसीना बहा रहा हूं। ऐसे साहित्य को बाहैसियत रचियता प्रकाश में लाना ही चाहिए। चलिए, हौसला अफजाई का शुक्रिया चूंकि इस पूरे साहित्य में यही तो खासियत है इसमें विविध रंग है। ... आपने हिम्मत बढ़ाई ही है तो एक और शेर पेशे खिदमत है... इस शेर को ही लें, इसमें आलसियों-काहिलों के लिए विशेष रूप से कहा गया है-
‘वक्त से पहले, किस्मत से ज्यादा
किसी को मिला है न किसी को मिलेगा।’
यानी सरल शब्दों में चुभती सी बात कि काहिल भाईजान पड़े रहो, काम से क्या होता है, समय पर खुद ही सब मिल जाएगा, काहै हाथ-पांच हिलाकर हड्डियों को कष्ट दे रहे हो। फिर शायर की मनोस्थिति के बारे में जानकारी भी शेर के पैकेज में शामिल, अर्थात् भारी ट्राई करने पर न मुशायरा मिला, न एक अदद गजल या गाना बिका, थक-हार कर बैठै थे तो किसी टटपुंजिया मुशायरे में जाना पडा, जहां किसी घटिया म्युजिक डायरेक्टर ने सुना, बाद में बात बैठ गई और शेर-तुकबंदीनुमा गाने की शक्ल में किसी प्राइवेट एलबम में चल निकला, ट्रकों पर छा गया तो टैंपों रंग गए, लो जी साहब, वक्त आने पर किस्मत के सिकंदर बन गए, अदीब की दुनिया में ‘आवाम के शायर’ टाइप की पतली गली से दाखिला पा गए। एक भाग्यवादी देश में शेर राष्ट्रीय ‘पंचलाइन’ बन गया। दो मजदूर गलियों-चौबारों में बीडी सुलगाते हुए इसी शेर के सहारे अच्छे दिनों के ख्वाब देखने लगे। तो ये होती है दो लाइनों की ताकत। दिमाग में क्रांति ला दे, अराजकता के हालातों को नियतिवाद में तब्दील कर दे। अब इतने महान शायद को ढूंढना न होगा, क्या कहते हैं। कितनी श्रमसाध्य खोज है मेरी, शायर की खोज, उसके अवदान का विवरण और परिस्थितियों की बारीकी में जाना ही है। अब जैसे इस शेर को ही लें...
‘गाडी के कार्बोरेटर, तुझे हुआ क्या है,
आखिर इस धकाधक धुएं की वजह क्या है।’
भई शायरी के बेहद मकबूल रहे मूल शेर पर बनाए गए इस शेर का देसी शायर गजल के लबो-लहजे से अत्यंत निकट का वास्ता रखने वाला जान पडता है। ऐसा इसलिए भी कर पा रहा हूं क्योंकि उसने जिस खूबसूरती से अलिफके काफिए (अंतिम दो शब्दों की तुकबंदी) बैठाई है, वैसा कोई साधारण शायर कर ही नहीं सकता। बस के बोनट पर बैठकर यात्रा करते समय ड्राइवर की पीडा देखकर ट्रक-बसों की दुनिया की कालजयी लाइनें फूट पड़ी होंगी। ऐसी परंपरा से जानकारी मिलती है। फिर ये लाइनें खासो-आम की श्रुति परंपरा के जरिए कालांतर में ट्रकों के पीछे, बसों के भीतर अपना यथायोग्य स्थान ले विराजित हो गई होंगी। व्यवस्था की विद्रूपता के खिलाफ भी ऐसा ही मैंने एक शेर एक कच्ची रोड पर जाते समय एक बस के पीछे लिखा देखा था-
‘खलिहान में नहीं धान, हाड़ में नहीं जान
पत्थरों की जाजम, धूप का पैराहन,
क्या सूबा, क्या निजाम, कैसा ईमान,
कल्लू दे ढाबे पर सबको राम-राम।’
इस शेर का जायका देखिए, भदेस आंचलिकता के साथ, गजलगोई की बारीकी, गांव की दुर्दशा के बारे में बताते हुए शायर कल्लू के ढाबे की तारीफ करता है कि वहां सबको बराबरी का अधिकार है, आइए-खाइए, सर्वहारावाद का मजा उठाइए। इस शायर के बारे में मेरा मानना है कि यह प्राइवेट बस का कंडक्टर रहा होगा, जो किसी खास ढाबे पर ही गाड़ी रुकवाकर कमीशन भी लेता होगा और बस के पीछे शेर लिखवाकर उसके विज्ञापन का पैसा भी वसूलता होगा। अब देखिए इतना प्रचुर साहित्य, इतने विविध रंग, किसी को तो संजोने की, व्यवस्थित करने की जिम्मेदारी लेनी थी, सो मैंने ले ली। आपको मेरी मदद करनी होगी, जब कोई ऐसा शेर कहीं लिखा देखें तो मुझे भेजें, इस उसमें गहन विश्लेषण, बैकग्राउंड का अध्ययन, विवरण शामिल होना चाहिए, ताकि दोनों मिलकर ऐसे साहित्य की अतुलनीय सेवा कर सकें। तो फिर एक शेर पेशे खिदमत है। इसका शायर विषय की तरन्नुम की पिनक में जमाने के स्वार्थी यारी के दस्तूर की क्या खूबसूरत से धज्जियां उड़ा रहा है...
‘नशेड़ी यार किसके,
ट्रक तुम्हारा, पेट्रोल तुम्हारा,
उनने तो दम लगाया और खिसके’
क्या भाई साहब, कुछ बोल नहीं रहे हैं। ये क्या फुसफुसा रहे हैं।
अच्छा! आप साहित्य एसोसिएशन की ओर से ट्रक किराए पर लेने जा रहे हैं, ताकि शेर लिखे ट्रक से ही मेरा तिया-पांचा कर सकें।
राम...राम... एक जिज्ञासु-अन्वेषक के साथ ऐसा व्यवहार।
एक्सक्यूजमी भाई सा... आपकी प्रवृत्ति-पृष्ठभूमि तो इस अंतिम शेर में बताए गए यारों के समान लग रही है। क्या सुन ही नहीं रहे भाईजान, कहानी सुन ली और खिसक लिए....।
हा,हा,हा......अत्यन्त मनोरंजक,रोचक..
जवाब देंहटाएंजितने मार्मिक भावपूर्ण शेर ,उतनी ही भावात्मक उसकी विवेचना है.
हा हा हा !! गजब का विश्लेषण है !!हमारी भयंकर शुभकामानायें
जवाब देंहटाएं‘गाडी के कार्बोरेटर, तुझे हुआ क्या है,
आखिर इस धकाधक धुएं की वजह क्या है।’
ये शेर अपने दोस्त को भेज दी हमने !!