कहानी स्मृति -राजेश कुमार पाटिल लीला, कुछ खास नहीं बदला है पिछले बीस वर्षों में हमारी तहसील के इकलौते सरकारी कॉलेज में, वही बिल...
कहानी
स्मृति
-राजेश कुमार पाटिल
लीला, कुछ खास नहीं बदला है पिछले बीस वर्षों में हमारी तहसील के इकलौते सरकारी कॉलेज में, वही बिल्डिंग है, वही कक्षाएं हैं, हाँ अपनी क्लास की खिड़की से लगे हुए बगीचे के किनारे-किनारे पंक्ति से लगे अशोक के पेड़ अब काफी बड़े हो गए हैं । जहाँ पहले तार की फेंसिंग हुआ करती थी अब पक्की बाउंड्री बन गई है । कितना सुखद होता है जिस कॉलेज में शिक्षा ग्रहण की उसी में अध्यापन का अवसर मिल जाना । कॉलेज प्रांगण में कदम पड़ते ही अतीत जैसे फिर जीवंत होकर वर्तमान के धरातल पर दौड़ने लगता है । मुझे याद है, कॉलेज में तुम्हारा नया-नया एडमीशन हुआ था । उस दिन फीस जमा करने की अंतिम तिथि थी । एक ही कैश काउंटर होने के कारण काउंटर पर अत्यधिक भीड़ थी छात्र-छात्रायें यद्यपि अलग अलग लाइनों में लगे हुए थे, किंतु धक्कामुक्की इतनी अधिक थी कि समझ नहीं आ रहा था कि छात्र-छात्राओं की लाईनें अलग-अलग कैसी बनी है, हर कोई जितनी जल्दी हो सके फीस जमा कर, भीड़ और धक्कामुक्की से मुक्त होना चाह रहा था । तुम भी उसी भीड में फीस जमा करने के प्रयास में लगी हुई थी कि अचानक तुम जोर-जोर से चिल्लाने लगी ’बद्तमीज !’ ’तेरी हिम्मत कैसे हुई मेरे दुपट्टे को हाथ लगाने की !’ ’मैं अभी शिकायत करती हूं प्रिंसीपल से . . . तेरी मां-बहन नहीं है क्या ?’ . ’गंवार . . बेशरम . . नालायक और न जाने क्या - क्या ।’ तुम मुझे लगातार डाँटे जा रही थी । मुझे तुरंत तो कुछ समझ ही नहीं आया कि तुम मुझे क्यों डाँट रही हो, किंतु बाद में पता चला कि लाईन में धक्कामुक्की के कारण किसी लड़की की हेयरपिन में फंसकर तुम्हारा दुपट्टा खिंच गया था और इत्तेफाक से तुम्हारे बिल्कुल बाजू से मैं खड़ा था बस, और तुम्हें लगा जैसे मैंने ही जानबूझकर तुम्हारा दुपट्टा खींचा हो । बस, तुमने बिना कुछ सोचे समझे मुझ पर गालियों की बौछार कर दी । यद्यपि बाद में तुमने हृदय से मुझसे माफी मांगी थी । ऐसे हुआ था हमारा पहला परिचय ।
तुम्हारे सौन्दर्य और चंचल व्यवहार को देखकर क्लास और कॉलेज के कितने ही लड़के तुमसे दोस्ती करने के लिए लालायित रहते थे कि कब तुमसे बात करने का मौका मिल जाए । पर पता नहीं तुमने मुझ जैसे सदैव गंभीर और शांत रहनेवाले लड़के में ऐसा क्या देखा था कि क्लास के आधुनिक रहन सहन वाले लड़कों को छोड़ तुम मुझसे बातें करने के मौके तलाशती रहती । क्लास की प्रथम पंक्ति के बाएं तरफ खिड़की के किनारेवाली बैंच पर तुम कुछ इस तरह बैठती थी कि देखनेवाले को लगता था कि तुम ब्लेकबोर्ड की तरफ देख रही हो पर वास्तव में तुम्हारी नजर क्लास के दायी तरफ पहली बैंच पर होती थी जहाँ मैं बैठा करता था । तुम मुझसे बातचीत करने का कोई भी अवसर खाली नहीं जाने देती थी बल्कि अपनी शरारतों से रोज-रोज नये अवसर बना लिया करती थी और मैं इससे बचने की कोशिश करता रहता था, इसलिये नहीं कि मैं तुम्हें पसंद नहीं करता था बल्कि सच बात तो यह थी कि मैं तुम्हें उसी दिन से चाहने लगा था जिस दिन तुमने रौद्र रूप धारण करते हुए मुझे डाँट लगाई थी और सच्चाई का पता चलने पर उतनी ही विनम्रता से मुझसे बार-बार सॉरी प्लीज, सॉरी प्लीज कहा था । तुम्हारे लिए कॉलेज पढ़ना, सुयोग्य वर की तलाश पूरी होने तक मात्र समय व्यतीत करना था । तुम्हारा उद्दे’य बस इतना ही था कि तुम्हारे नाम के साथ एम.ए. की डिग्री जुड़ जाए । पूरे कॉलेज समय में तुम्हारा ध्यान पढाई की तरफ कम और शरारतें करने में ज्यादा लगा रहता था । कॉलेज की सांस्कृतिक गतिविधियाँ, पिकनिक, एन.एस.एस. के कैम्प, तुम कॉलेज जीवन के हर पल को भरपूर जी लेना चाहती थी । कॉलेज का अर्थ तुम्हारे लिए सिर्फ मौज था, किंतु मेरे लिए कॉलेज पढ़ने का मतलब था अपने माता-पिता की आशाओं को पूरा करना, उनके सपनों को पूरा करना . . . और यही वजह थी की तुमको चाहते हुए भी मैं शुरू-शुरू में तुमसे दूरी बनाये रखता था, किंतु को प्रेम तो प्रेम होता है वह तो बस हो जाता है । तुम्हें कदाचित यकीन न हो पर तुम्हारा लिखा दस पेज का पहला पत्र आज भी मेरे पास सुरक्षित रखा है । एम.ए.होते ही हमारा मिलना जुलना लगभग बंद ही हो गया था, क्योंकि कॉलेज में ही हम मिल सकते थे । इसी बीच तुम्हारे पिता का स्थानांतर किसी दूरस्थ जिले में हो गया और फिर तुम जो गई तो कभी वापस नहीं लौट सकी । सिर्फ तुम्हारे विवाह की खबर ही मिली थी ।
लीला, मैं तुम्हें दोष नहीं दे रहा हूँ कि तुमने मेरी प्रतीक्षा क्यों नहीं की, यथार्थ प्रेम में इसकी कोई जगह नही है । हम स्वजातीय थे हमारी शादी में कोई रूकावट नहीं आनी चाहिए थी, किंतु स्वजातीय मात्र होना ही प्रेम के परिणय बंधन में परिवर्तित होने का कोई ठोस आधार नहीं है, क्योंकि मुझे लगता है बेरोजगारी और प्रेम का प्रायः सामंजस्य नहीं होता है, अपने प्रेम को पाने के लिए रोजगार एक अनिवार्य तत्व है । और मेरे पास था ही क्या ? बी.ए.एम.ए. की प्रथम श्रेणी की डिग्रियाँ, विश्वविद्यालय के गोल्ड मेडल, और पृष्ठभूमि में एक दूरस्थ गांव के गरीब किसान माता-पिता की अनगिनत आशायें और उम्मीदें . . . । विद्यार्थी जीवन में हमारा पहला उद्दे’य अपने लक्ष्य की प्राप्ति होना चाहिए न कि प्रेम के दिवास्वप्न, क्योंकि जीवन का यह अमूल्य समय एक बार हमारे हाथ से निकल जाने के बाद न तो हमें प्रेम ही मिल पाता है और न ही अपना लक्ष्य । शेष बचता है सिर्फ पश्चाताप ।
हाँ, हममें समानतायें तो बहुत थीं, हम एक ही कॉलेज में पढ़ते थे, एक ही क्लास में पढ़ते थे, हमउम्र थे और एक दूसरे के गुणों, अवगुणों को जानते समझते हुए एक दूसरे को पसंद करते थे, किंतु ये समानतायें एक बेटी के पिता के लिए बिल्कुल पर्याप्त नहीं थीं मैं कहां गांव का रहनेवाला किसान का बेटा और तुम शहर में पली बढ़ी तहसीलदार साहब की इकलौती, सुन्दर सुशील बेटी । मेरा तुम्हारा कैसे मेल हो पाता क्योंकि लीला, हर इंसान सुख सुविधा चाहता है, तुम, तुम्हारे माता पिता और, और . .शायद प्रेम भी । हिंदी साहित्य से एम.ए. के बाद मैंने शीघ्र ही पीएचडी. के लिए पंजीयन करा लिया था और साथ ही नौकरी के लिए भी हरसंभव प्रयास करता रहा, किंतु जहां चारों तरफ अंग्रेजी का बोलबाला हो, पश्चिमी संस्कृति की आंधी चल रही हो वहां निराला, पंत की कविताओं और प्रेमचंद के उपन्यासों की भूमि से रोटी उपजाना आसान नहीं था । हाँ इसके लिए कहीं उर्वर भूमि मिली भी तो भ्रष्टाचार के कीटाणुओं ने उसके अंकुरण पर विराम लगा दिया । तुम सच कहती थी ’प्रेम हृदय की अतल गहराइयों में आविर्भित होता है, किंतु उसके जीवित रहने के लिये दो वक्त की रोटी और सिर पर छत होना नितांत आव’यक है ।’ ’अनुराग तुम जल्दी करो यदि तुम्हें जल्दी ही नौकरी नहीं मिली तो मैं फिर तुम्हें कभी नहीं मिल पाउंगी ।’ हाँ, तुमने एक रास्ता और सुझाया था कि सामाजिक मर्यादाओं को तोड़कर हम घर से भागकर मंदिर में शादी कर लेते हैं किंतु बहुत सोच विचार करने के बाद मेरा मन ऐसे रास्ते पर चलने पर सहमत नहीं हुआ था, जो हमारे माता-पिता की प्रतिष्ठा और उनके मान सम्मान पर कालिख लगा देता और प्रेम तो गौरवान्वित करता है अपमानित नहीं । मैं नौकरी की निरंतर तलाश करता रहा और उधर तुम मुझसे धीरे-धीरे दूर होती गई और अपनी बेटी के लिए डिप्टी कलेक्टर जैसा दामाद मिल रहा हो तो कौन पिता नहीं चाहेगा कि उसकी बेटी का विवाह जल्दी न हो । दुख और सुख ने आगे-पीछे ही मेरे दरवाजे पर दस्तक दिए थे, जिस वर्ष तुम्हारी शादी हुई उसके एक वर्ष बाद ही मुझे पीएचडी अवार्ड हुआ था । और नौकरी के रास्ते भी खुल गये थे, पर तब तक तो बहुत देर हो चुकी थी, तुम किसी और की दुनिया में सदा के लिए चली गई थी। तब मुझे बहुत दुख हुआ था । किंतु मैं कुछ कर नहीं पाया, क्योंकि तुम वैवाहिक जीवन की ऐसी सीमाओं में बंध गई थी, जिसमें पूर्व प्रेम का प्रवेश दाम्पत्य जीवन की खुशियों को खत्म कर विनाश और बर्बादी को जन्म देता है और मैंने यह कभी भी नहीं चाहा कि मैं या मेरा प्रेम तुम्हारे सुखी वैवाहिक जीवन में दरार पड़ने का कारण बने । मैंने तो ईश्वर से सदैव यही प्रार्थना की कि तुम जहाँ भी रहो सदा स्वस्थ व प्रसन्न रहो । परंतु कहते हैं न धरती गोल है कहीं से भी चलना प्रारंभ करो घूम फिरकर हम वहीं आ जाते हैं, जहाँ से चलना शुरू किया था । 20 साल बाद मैं आज वहीं लौट आया हूँ हमारे उसी कॉलेज में जहाँ हमारे मध्य प्रेमबीज का अंकुरण हुआ था । वहीं तुम्हारी स्मृतियों के बीच जहाँ से मेरा मन कभी बाहर नहीं निकल सका ।
आज तुम न जाने कहाँ हो ? कैसी हो, पिछले बीस सालों में तुमने मुझे कभी याद किया हो या न किया हो किंतु मैं तुम्हें कभी भुला नहीं पाया । प्रेम की धरा पर उपजे तुम्हारी स्मृतियों के फूल अभी मुरझाये नहीं है प्रथम प्रणय की खुशबू लिये वे अब भी सुरभित करते हैं, मुझे, मेरे मन को, मेरी आत्मा को, ऐसे, जैसे अभी खिले हों ।
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संपर्क:
राजेश कुमार पाटिल
मकान नं. डी.के. 1@2
(दानिशकुंज गेट के बगल में)
कोलार रोड, भोपाल
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चित्र : साभार, बनवासी उत्सव 08, भोपाल
सवाल सीढ़ियां दर सीढ़ियां चढ़ते रहे-बढ़ते रहे……
जवाब देंहटाएंजवाब घबराये खुद ब खुद बनते रहे-मिटते रहे…
" found this story very heart touching full of feelings love, pain, sacrifice , departure, everything. liked it very much"
Regards
atyant sshakt,yatharth ke atyant karib,marmik katha.
जवाब देंहटाएंswati
swati-rishi.blogspot.com