'रहबर` की शायरी वो जलता हुआ चिराग है जो अपनी सोंधी सोंधी आंच की दिल गुदाज़ हरारत का कैफ़ पैदा करती है। – सिने स्टार दिलीप कुमार...
'रहबर` की शायरी वो जलता हुआ चिराग है जो अपनी सोंधी सोंधी आंच की दिल गुदाज़ हरारत का कैफ़ पैदा करती है। – सिने स्टार दिलीप कुमार.
आते जाते मुझे रौंदा करें बस्ती वाले,सोचता हूं कि तेरे गांव का रस्ता हो जाऊं।
(इसी संग्रह से)
ग़ज़ल संग्रह : याद आऊंगा
राजेन्द्र नाथ 'रहबर`
१०८५, सराए मुहल्ला,
पठानकोट-१४५००१ पंजाब भारत
संस्करण : २००८ ई.
मूल्य : ७५/- रूपये
मुद्रक : प्रिंटवैल
१४६, इंडस्ट्रियल फ़ोकल प्वाइंट,
अमृतसर-१४३००६ पंजाब
टाइटल/कम्पोज़िंग : शशि भूषण 'चिराग़’
गली नं. ५, इंदिरा कॉलोनी, पठानकोट-१४५००१
मिलने का पता : दर्पन पब्लिकेशन्ज़,
बी.-३५/७, सुभाष नगर,
पठानकोट-१४५००१ पंजाब
----
----
कैसा डेरा, कैसी बस्ती
हम फिरते हैं बस्ती बस्ती
हर नगरी में घर है अपना
हर बस्ती है अपनी बस्ती
रमते जोगी घूम रहे हैं
नगरी नगरी, बस्ती बस्ती
बस्ती बस्ती फिरने वालो
तुम भी बसा लो कोई बस्ती
अपनी बस्ती में सब कुछ है
क्यों फिरते हो बस्ती बस्ती
तुझ को छोड़ के तुझ को तरसे
हम ऐ जान से प्यारी बस्ती
इक अल्हड़ मुटयार पे यारों
मरती है बस्ती की बस्ती
कोई दूर नहीं बंजारो१
अलबेली नारों की बस्ती
पर्वत के उस पार बसायें
हम तुम एक सुहानी बस्ती
दिल का दामन थाम रही है
अन-देखी, अनजानी बस्ती
बस्ती छोड़ के जाने वाले
याद न क्या आयेगी बस्ती
बस्ते बस्ते बस जायेगी
'रहबर` दिल की सूनी बस्ती
----
कभी हमारे लिये थीं मुहब्बतें तेरी
रहेंगी याद हमेशा रफ़ाक़तें१ तेरी
रवां दवां२ रहे सिक्का तेरे तबस्सुम३ का
दिलों पे चलती रहें बादशाहतें तेरी
नज़र में, रूह में, दिल में, लहू में, सांसों में
कहां कहां नहीं हमदम सुकूनतें४ तेरी
है कौन तुझ से बड़ा मुंसिफ़ो-अदील५ यहां
तेरे हज़ूर करूंगा शिकायतें तेरी
बिला-सबब६ नहीं सिज्दा-गुज़ार७ तू ऐ दिल
बिला-ग़रज़ नहीं साहिब-सलामतें तेरी
हर एक लफ़्ज में पिन्हां८ है दफ्त़रे-मा`नी९
कुछ ऐसी सहल नहीं हैं सलासतें१० तेरी
मेरे वतन तेरे तहवार ईद, दीवाली
हसीं हैं सारे जहां से रिवाइतें१ तेरी
ये अपने अपने मुक़द्दर की बात है प्यारे
कि रंजो-ग़म तो मेरे हैं मसर्रतें२ तेरी
जला न दे कहीं आतिश३ तुझे तनफ़्फुर४ की
मिटा न दें कहीं तुझ को कुदूरतें५ तेरी
मिलेगा कुश्तों६ को इंसाफ़ ऐ ख़ुदा किस दिन
न जाने बैठेंगी किस दिन अदालतें तेरी
नहीं हैं जे़ब७ तुझे ख़ुद-सिताइयां८ 'रहबर`
अयां९ हैं सारे जहां पर फ़ज़ीलतें१० तेरी
----
मचलते गाते हसीं१ वलवलों२ की बस्ती में
रहे थे हम भी कभी मनचलों की बस्ती में
किसी तरफ़ से कोई संग३ ही न आन गिरे
ज़रा संभल के निकलना फलों की बस्ती में
ख़ुशी के दौड़ते लम्हे४ इधर का रुख़ न करें
ख़ुशी का काम ही क्या दिलजलों की बस्ती में
जो आ के बैठा वो दामन पे दाग़ ले के उठा
बचा है कौन भला काजलों की बस्ती में
चले चलो न कड़ी धूप की करो परवाह
रुकेंगे जा के हसीं आंचलों की बस्ती में
गुज़र गया हूं कभी बे-ख़राश५ कांटों से
छिले हैं पैर कभी मख़्मलों की बस्ती में
टपक रहा है लहू जिन की आस्तीनों१ से
वो लोग आन बसे हैं भलों की बस्ती में
हवा से कह दो यहां से गुरेज़-पा२ गुज़रे
करे न शोर बहुत जंगलों की बस्ती में
यक़ीं रखो कोई आफ़त इधर न आयेगी
सुकूं३ से बैठ रहो ज़ल्ज़लों४ की बस्ती में
बसे हुये हैं कुछ अह्ले-ख़िरद५ भी ऐ 'रहबर`
न जाने सोच के क्या पागलों की बस्ती में
----
मुहब्बत कर के पछताना पड़ा है
ग़मों में ग़र्क हो जाना पड़ा है
किसी ने मुस्कुरा कर जब भी देखा
मुझे कुछ देर रुक जाना पड़ा है
दिल आमादा१ न था तर्के-वफ़ा२ पर
इसे ता देर३ समझाना पड़ा है
उन्हें आवाज़ दी है जब भी दिल ने
वो आये हैं उन्हें आना पड़ा है
शबे-फ़ुर्कत४ बड़े हीलों से 'रहबर`
दिले-मुज़्तर५ को बहलाना पड़ा है
----
ग़ाजे़१ हैं नये और हैं रुख्स़ार२ पुराने
बाज़ार में निकले हैं फुस़ूंकार३ पुराने
हो जाये सफल अपना भी बाज़ार में जाना
मिल जायें अगर राह में कुछ यार पुराने
हर रोज़ नया क़ौल४, नया अह्द५, नई बात
इस भीड़ में गुम हो गये इक़रार पुराने
कर देते हैं जो ताज़ा गुलाबों की ज़िया६ मांद
हैं शहर में कुछ ऐसे भी गुलज़ार पुराने
रखते थे दिलों में न तअस्सुब७ न कुदूरत८
किस शान के थे लोग मज़ेदार पुराने
तू कृष्ण ही ठहरा तो सुदामा का भी कुछ कर
काम आते हैं मुश्किल में फ़क़त९ यार पुराने
अब और किसी जादए-उल्फ़त१० पे चलें क्या
पैरों में खटकते हैं अभी ख़ार पुराने
फ़ाक़ों पे जब आ जाता है फ़नकार हमारा
बेच आता है बाज़ार में अख्ब़ार पुराने
आयेगी किसी रोज़ अजल१२ राहतें१३ ले कर
जीते हैं इसी आस पे बीमार पुराने
देखा जो उन्हें एक सदी१४
छालों की तरह फूट पड़े प्यार पुराने
----
सबाहतें१ भी हैं क़ुर्बां वो सांवला-पन है
वो मेरा कृष्ण कन्हैया है मेरा काहन है
हवा के दोश२ पे उड़ता है आप का आंचल
उलझ गया है जो कांटों से मेरा दामन है
जवानी भंवरा है रस चूसती है फूलों का
जो पीछे तितलियों के दौड़ता है, बचपन है
दिलो-दिमाग़ मुनव्वर३ तुम्हारे ज़िक्र से हैं
तुम्हारी याद से दिल का चिराग़ रौशन है
तमाम शहर हिमाचल के हम ने देखे हैं
जो सब से बढ़ के हसीं है वो शहर 'नाहन` है
वो एक शायरेऱ्यकता४, वो बे-ग़रज़ इंसां
बुरा किसी का नहीं सोचता ब्रहमन है
पठानकोट में रहते हैं इक ज़माना से
इसी के दम से हमारा भी नाम रौशन है
हर एक गोशा५ यहां शो`ला-बार६ है 'रहबर`
हमारा दिल है कि जलता हुआ कोई बन है
----
हाल दिल का सुना नहीं सकते
आप को हम रुला नहीं सकते
जा तो सकते हो छोड़ कर मुझ को
तुम मेरे दिल से जा नहीं सकते
दिल जलाते हो क्या क़ियामत है
शम्ए-उल्फ़त१ जला नहीं सकते
हम तुम्हारे हसीं तसव्वुर२ से
दिल का दामन छुड़ा नहीं सकते
इश्क़े-सादिक़ की शम्ए-रौशन३ को
लाख तूफ़ां बुझा नहीं सकते
शे`र हम अंजुमन४ में ऐ 'रहबर`
पढ़ तो सकते हैं गा नहीं सकते
----
क्या आज उन से अपनी मुलाक़ात हो गई
सहरा१ पे जैसे टूट के बरसात हो गई
वीरान बस्तियों में मिरा दिन हुआ तमाम
सुनसान जंगलों में मुझे रात हो गई
करती है यूं भी बात मुहब्बत कभी कभी
नज़रें मिलीं न होंट हिले बात हो गई
ज़ालिम ज़माना हम को अगर दे गया शिकस्त
बाज़ी मुहब्बतों की अगर मात हो गई
हम को मिटा सकें ये अंधेरों में दम कहां
जब चांदनी से अपनी मुलाक़ात हो गई
बाज़ार जाना आज सफल हो गया मिरा
मुद्दत के बा`द उन से मुलाक़ात हो गई
----
मुदावा१ दर्दे-दिल का ऐ मसीहा२ छोड़ देना
हमारे हाल पर हम को ख़ुदारा३ छोड़ देना
तुम्हीं ईमान से कह दो कहां तक है मुनासिब
किसी को यूं भरी दुन्या में तन्हा छोड़ देना
यही मस्लक४ था जब तुम साथ होते थे हमारे
जहां से सब गुज़रते हों वो रस्ता छोड़ देना
ज़माने भर की ख़ुशियां अपने दामन में समोना
हमारे वास्ते ग़म का ख़ज़ाना छोड़ देना
हथेली पर लिए सर को निकलना घर से यारों
जो जीना है तो जीने की तमन्ना५ छोड़ देना
गुलों से खेलना तुम ये दुआ है और हम को
किसी जलते हुए सहरा६ में तन्हा छोड़ देना
जो दिल में पार उतरने की तमन्ना है तो 'रहबर`
किसी तूफ़ान में अपना सफ़ीना७ छोड़ देना
----
मह्ताब१ नहीं निकला सितारे नहीं निकले
देते जो शबे-ग़म२ में सहारे नहीं निकले
कल रात निहत्ता कोई देता था सदायें३
हम घर से मगर ख़ौफ़४ के मारे नहीं निकले
क्या छोड़ के बस्ती को गया तू कि तेरे बा`द
फिर घर से तेरे हिज्र५ के मारे नहीं निकले
बैठे रहो कुछ देर अभी और मुक़ाबिल६
अर्मान अभी दिल के हमारे नहीं निकले
निकली तो हैं सज धज के तिरी याद की परियां
ख़ाबों के मगर राज दुलारे नहीं निकले
कब अह्ले-वफ़ा७ जान की बाज़ी नहीं हारे
कब इश्क़ में जानों के ख़सारे८ नहीं निकले
अंदाज़ कोई डूबने के सीखे तो हम से
हम डूब के दरिया के किनारे नहीं निकले
वो लोग कि थे जिन पे भरोसे हमें क्या क्या
देखा तो वही लोग हमारे नहीं निकले
अशआर९ में दफ्त़र है मआनी का१० भी 'रहबर`
हम लफ्ज़ों ही के मह्ज१२ सहारे नहीं निकले
----
सर को वो आस्ताँ१ मिले न मिले
ख़ाक को आस्माँ मिले न मिले
आओ खिल जायें चाँदनी की तरह
फिर ये मौसम जवाँ मिले न मिले
दिल को होने दो हम-कलामे-दिल२
फिर दिलों को ज़बाँ मिले न मिले
आज की सुह्बतें३ ग़नीमत४ जान
कल हमारा निशाँ मिले न मिले
कह ही दूँ दिल का मुद्दआ उन से
वक्त़ फिर मिहरबाँ मिले न मिले
चल के 'रहबर` से कुछ कलाम सुनें
फिर वो जादू-बयाँ५ मिले न मिले
----
बरसती आग से कुछ कम नहीं बरसात सावन की
जला कर ख़ाक कर देती है दिल को रात सावन की
उठी हैं काली काली बदलियां क्या तुम न आओगे
गुज़र जायेगी क्या तन्हा१ भरी बरसात सावन की
हमारी रात यूँ कटती है सावन के महीने में
इधर बरसात अश्कों की, उधर बरसात सावन की
किसी की याद आई है लिये अश्कों की तुग़्यानी२
मिली है झोलियाँ भर कर हमें सौग़ात सावन की
डगर सुन्सान, बिजली की कड़क, पुर-हौल तारीकी३
मुसाफ़िर राह से ना-आश्ना४, बरसात सावन की
तुम्हारे मुँतज़िर५ रहते हैं सावन के हसीं झूले
किया करती है तुम को याद ये बरसात सावन की
तही-दस्ती का आलम६, जामे-मय, साक़ी न पैमाना
ये किस ने छेड़ दी ऐसे में 'रहबर` बात सावन की
----
आया न मेरे हाथ वो आंचल किसी तरह
साया मिला न धूप में दो पल किसी तरह
मैं हूं कि तेरी सम्त१ मुसलसल२ सफ़र में हूं
तू भी तो मेरी सम्त कभी चल किसी तरह
यूं हिज्र३ में किसी के सुलगने से फ़ाइदा
ऐ ना-मुरादे-इश्क़४ कभी जल किसी तरह
होंटों पे तेरे शोख़ हंसी खेलती रहे
धुलने न पाये आंख का काजल किसी तरह
चलने कभी न देंगे दरिन्दों की हम यहां
बनने न देंगे शहर को जंगल किसी तरह
----
आया न मेरे हाथ वो आंचल किसी तरह
साया मिला न धूप में दो पल किसी तरह
मैं हूं कि तेरी सम्त१ मुसलसल२ सफ़र में हूं
तू भी तो मेरी सम्त कभी चल किसी तरह
यूं हिज्र३ में किसी के सुलगने से फ़ाइदा
ऐ ना-मुरादे-इश्क़४ कभी जल किसी तरह
होंटों पे तेरे शोख़ हंसी खेलती रहे
धुलने न पाये आंख का काजल किसी तरह
चलने कभी न देंगे दरिन्दों की हम यहां
बनने न देंगे शहर को जंगल किसी तरह
----
शाख़ से गुल को तोड़ के लाना कोई अच्छी बात नहीं है
फूलों से गुलदान सजाना कोई अच्छी बात नहीं है
दिन में पीना और पिलाना कोई अच्छी बात नहीं है
सूरज रहते जाम उठाना कोई अच्छी बात नहीं है
मुर्गे़ को टेबल पे सजाना कोई अच्छी बात नहीं है
पेट को क़ब्रिस्तान बनाना कोई अच्छी बात नहीं है
ना-क़द्रों को शे`र सुनाना कोई अच्छी बात नहीं है
भैंस के आगे बीन बजाना कोई अच्छी बात नहीं है
----
जल्वों की अर्ज्ा़ानी१ कर दो
रोज़-ओ-शब नूरानी कर दो
चेहरे से आंचल को हटा कर
चांद को पानी पानी कर दो
छू कर अपने हाथ से मुझ को
फ़ानी से लाफ़ानी२ कर दो
बख्श़ दो सुब्हों को ताबानी
शामों को रूहानी कर दो
बेसुध जोड़े नाच रहे हैं
रक्स़३ की लय तूफ़ानी कर दो
गुल करके इन रौशनियों को
कुछ लम्हे४ नूरानी कर दो
उस महफ़िल में अर्ज किसी दिन
अपनी राम कहानी कर दो
हिज्र५ में जीने वालों पर अब
वस्ल६ को भी इम्कानी७ कर दो
बज्म़े-सुख़न८ में तुम भी 'रहबर`
कुछ गौहर-अफ्श़ानी९ कर दो
----
उस दरे-फ़ैज़-असर१ पर कभी जा कर देखें
उस के कूचे में किसी रोज़ सदा२ कर देखें
ये अना३ का जो महल हम ने बना रक्खा है
इस इमारत को किसी रोज़ गिरा कर देखें
इस तरह बोझ गुनाहों का हो कुछ कम शायद
एक दो अश्क नदामत४ के बहा कर देखें
कौन रहता है तेरे दिल के सनम ख़ाने में
हम किसी रोज़ तेरे दिल में समा कर देखें
कोई इम्दाद को आता है, नहीं आता है
रात के वक्त़ कभी शोर मचा कर देखें
ज़िक्र सुनते हैं बहुत अद्ले-जहाँगीरी५ का
क्यों न इँसाफ़ की ज़ँजीर हिला कर देखें
ऐन मुम्किन है कि गुलगश्त६ को वो आ जायें
दिल के वीराने में इक फूल खिला कर देखें
----
बस चंद ही दिनों के थे डेरे चले गये
ख़ाना-बदोश लोग सवेरे चले गये
हाथों में अपने जाल सुनहरी लिये हुये
गहरे समुंदरों के मछेरे चले गये
कुछ मयकदे१ की सम्त गये झूमते हुये
कुछ मनचले फ़क़ीर के डेरे चले गये
पहले से अब कहां वो मुहब्बत के रोज़-ओ-शब२
शामें चली गयीं वो सवेरे चले गये
ऐ दोस्त जिनसे हमको तवक्को३ गुलों की थी
वो रास्तों में ख़ार४ बिखेरे चले गये
जो लूटते थे दिन का सुकूं५ रात का क़रार
किस देस वो हसीन लुटेरे चले गये
----
बेवफ़ाओं को वफ़ाओं का ख़ुदा हम ने कहा
क्या हमें कहना था ऐ दिल और क्या हम ने कहा
लब१ को ग़ुंचा२, ज़ुल्फ़ को काली घटा हम ने कहा
दिल ने हम को जो भी कहने को कहा हम ने कहा
किस क़दर मज्बूर होंगे उस घड़ी हम ऐ खुदा
जब तेरे बे-फ़ैज़३ बंदों को ख़ुदा हम ने कहा
दाद देना४ तुम हमारी चश्म-पोशी५ की हमें
राह में जो गुम थे उन को रहनुमा६ हम ने कहा
जब मरीज़े-इश्क़ को कोई दवा आई न रास
दर्द ही को दर्द की आख़िर दवा हम ने कहा
गिर गया अपनी निगाहों में ही अपना सब वक़ार७
जब सरे-बाज़ार८ खोटे को खरा हम ने कहा
----
हम से मत पूछ कि क्या हम ने दुआ१ मांगी है
तेरे आंचल तेरे दामन की हवा मांगी है
रंग फूलों ने लिया है तेरे रुख्स़ारों२ से
तेरे जल्वों से सितारों ने ज़िया३ माँगी है
खै़र हम मांगते रहते हैं जहां की यारों
हम ने कब अपने लिये कोई दुआ मांगी है
हाथ उट्ठे थे किसी और की ख़ातिर उन के
मैं ये समझा कि मेरे हक़ में दुआ मांगी है
क्या दुआ मांगते हम अह्ले-मुहब्बत 'रहबर`
सांस लेने को मुहब्बत की फ़ज़ा४ मांगी है
----
सुलगती धूप में साया हुआ है
कहीं आंचल वो लहराया हुआ है
दिलों में बस रही है कोई सूरत
ख़यालों पर कोई छाया हुआ है
पढ़ो तो, हम ने अपने बाज़ुओं पर
ये किस का नाम गुदवाया हुआ है
उस आंसू को कहो अब एक मोती
जो पलकों तक ढलक आया हुआ है
किसी का अब नहीं वो होने वाला
वो दिल जो तेरा कहलाया हुआ है
किसी हीले१ उसे मिल आओ 'रहबर`
वो दो दिन के लिये आया हुआ है
----
आंखों में तजस्सुस१ है रफ्त़ार में तेज़ी है
लड़की है कि जंगल में भटकी हुई हिरनी है
जिस बात को कहने से माज़ूर२ हैं लब३ तेरे
मैं ने तिरी आंखों में वो बात भी पढ़ ली है
बीते हुये लम्हों की, टूटे हुये रिश्तों की
यादों की चिता शब४ भर रह रह के सुलगती है
वो सिन्फ़े-सुख़न५ जिस को कहते हैं ग़ज़ल यारों
हर रूप में जंचती है हर रंग में खिलती है
खुलती है मेरे दिल के आंगन में वो ऐ 'रहबर`
बेलों से सजी संवरी उस घर में जो खिड़की है
----
जाने वालो, हज़ार दरवाज़े
बाज़१ हैं बे-शुमार दरवाज़े
शब ढले भी खुला हुआ क्यों है
किस का है इंतिज़ार दरवाज़े
वो अटीं ख़ून से हसीं गलियां
वो हुये संगसार२ दरवाज़े
कृष्ण` को ले के जब चले 'वसुदेव`
खुल गये ख़ुद हज़ार दरवाज़े
इक ज़माना था हम पे भी वा३ थे
शहरे-उल्फ़त के द्वार दरवाज़े
ज़िंदगी ने फ़रार४ जब चाहा
खुल गये सद-हज़ार५ दरवाज़े
हम: तन गोश६ खिड़कियां घर की
हम: तन इंतिज़ार७ दरवाज़े
सो गये अह्ले-शहर क्या दिन में८
बँद हैं पुर-बहार दरवाज़े
आमद आमद९ है किस की ऐ रहबर
हो रहे हैं निसार१० दरवाज़े
----
पड़ी रहेगी अगर ग़म की धूल शाख़ों पर
उदास फूल खिलेंगे मलूल१ शाख़ों पर
अभी न गुलशने-उर्दू को बे-चिराग़२ कहो
खिले हुये हैं अभी चंद फूल शाख़ों पर
हवा के सामने उन की बिसात३ ही क्या थी
दिखा रहे थे बहारें जो फूल शाख़ों पर
खिलायें अह्ले-हुकूमत४ के हुक्म से वो फूल
न चल सकेगा कभी ये उसूल शाख़ों पर
निकल पड़े हैं हिफ़ाज़त५ को चंद कांटे भी
हुआ है जब भी गुलों का नुज़ूल६ शाख़ों पर
निसारे-गुल७ हो मिला है ये इज्ऩ८ बुलबुल को
हुआ है हुक्म गुले-तर९ को झूल शाख़ों पर
वो फूल पहुंचे न जाने कहां कहां 'रहबर`
नहीं था जिन को ठहरना क़ुबूल१० शाख़ों पर
दिल ने भी किस से लौ लगाई है----
जिस का मस्लक१ ही बे-वफ़ाई है
गूंज उठी घाटियों में दर्द की लय
किस ने ये बांसुरी बजाई है
गुल रुख़ों२ से है दोस्ती मेरी
मह-जबीनों३ से आश्नाई४ है
आदमी पस्तियों५ में गुम है अभी
इस की गो चांद तक रसाई६ है
आज दीदार हो गया उन का
आज की बस यही कमाई है
----
हर डगर पुर-ख़ार१ है हर राह ना-हमवार२ सी
ज़िंदगी है ज़िंदगी के नाम से बेज़ार३ सी
ज़हर ये घोला है किस ने कुछ पता चलता नहीं
खिंच गई है दो दिलों के दरमियां दीवार सी
ज़िंदगी अब तेरे लब४ से वो भी ग़ाइब हो गई
रक्स़५ करती थी जो कल तक इक हंसी बीमार सी
बोल पड़ने को है गोया जिस्म का हर एक अंग
ख़ामुशी भी है किसी की माइले-गुफ्त़ार६ सी
मुस्कुराहट, चाल, तेवर, गुफ्त़गू, तऱ्जे-ख़िराम७
हर अदा उतरे है दिल में 'मीर` के अशआर सी८
क़त्ल होते हैं फ़रिश्ते रोज़ राहों में यहां
ज़िंदगी सी क़ीमती शय को कहो बेकार सी
जब किया तस्लीम९ ऐ 'रहबर` ज़माने ने हमें
जब कही हम ने ग़ज़ल उन के लब-ओ-रुख्स़ार१० सी
----
हर एक शय से अलम आइना१ है कमरे में
उदासियों का वो मेला लगा है कमरे में
वो कौन है जो ख़यालों पे है मुहीत२ ऐ दिल
तमाम रात किसे सोचता है कमरे में
वही है शोरे-फ़ुग़ां३, शोरे-आहे-नीम-शबी४
क़ियामतों का वही रतजगा५ है कमरे में
महक उठी हैं फ़ज़ायें उदास कमरे की
ये किस के हुस्न का चर्चा हुआ है कमरे में
दिलों के कर्ब६ का आईनादार होता है
वो क़हक़हा जो कभी गूंजता है कमरे में
बिखर गया है कोई मिस्ले-बूए-गुल७ रहबर
कोई चिराग़ की सूरत जला है कमरे में
----
दिलों से गर्दे-जहालत१ को साफ़ करता है
गुज़रता वक्त़ नये इन्किशाफ़२ करता है
ये कहकशां३, ये सितारे, ये चांद ये सूरज
ये कुल निज़ाम४ तुम्हारा तवाफ़५ करता है
ख़ता६ हुई है तो फिर उस के दर७ पे सिज्दा८ कर
कि वो रहीम९ ख़तायें मुआफ़ करता है
तेरे मकान के बेलों लदे दरीचे पर
ये किस की रूह का ताइर१० तवाफ़ करता है
हो उस के ज़िह्न में शायद ख़याले-नौ१२ कोई
हर एक शख्स़ से वो इख्त़िलाफ़१३ करता है
ख़मोश रह के करे है लहू लहू दिल को
करे वो बात तो दिल में शिगाफ़१४ करता है
कहें तो किस को कहें बेवफ़ा कि जब 'रहबर`
लहू लहू से यहां इन्हिराफ़१५ करता है
----
हज़ार बार तुम्हें मैं ने भूलना चाहा
हज़ार बार तुम उभरे मेरे ख़यालों में
वो फूल अपने मुक़द्दर पे नाज़१ करता है
सजा लो जिस को तुम अपने सियाह२ बालों में
पनाह३ मांगती है ज़ुल्मते-शबे-दैजूर४
वो तीरगी५ है यहां सुब्ह के उजालों में
न हो सके वो हमारे किसी तरह 'रहबर`
झुकाया सर को बहुत मंदिरों, शिवालों में
----
कोई जीना है जीना ऐ सनम तुझ से जुदा हो कर
किसी की आई हम को काश आ जाये खत़ा१ हो कर
मुझे ठुकरा के जा सकते हो तुम तसलीम२ है लेकिन
कहां जाओगे आग़ोशे-तसव्वुर३ से जुदा हो कर
निकल जाते हो जब तुम फेर कर मुंह बे-नियाज़ाना४
किसी पर टूट पड़ते हैं अलम५ क़हरे-ख़ुदा६ हो कर
तकल्लुफ़७ बर-तरफ़८ हर दिन नया ग़म ले के आता है
बड़ा दुश्वार९ है दुन्या में जीना आप का हो कर
कभी तो आप मेरे पास आने की तरह आयें
कोई आना है आते ही चले जाना जुदा हो कर
अंधेरी रात है रस्तों पे तारी हू का आलम१० है
बला जाये तिरी ऐ दोस्त ऐसे में जुदा हो कर
मैं उन के वा`दए-फ़र्दा पे ईमां किस तरह लाऊं
ये वा`दा भी न रह जाये कहीं आया गया हो कर
कोई कब तब सहे 'रहबर` फ़िराक़ेऱ्यार१२ के सदमे
कोई कब तक जिये रंज-ओ-अलम में मुब्तिला१३ हो कर
----
न कोई गुल न कोई पात बाक़ी
चमन में है ख़ुदा की ज़ात बाक़ी
बिखर जायेगा शीराज़ा१ किसी दिन
फ़क़त२ रह जायेंगे ज़र्रात३ बाक़ी
इजाज़त हो तो वो भी अर्ज़ कर दूं
मेरे होटों पे है इक बात बाक़ी
वही हैं वस्वसे४ अब भी दिलों में
वही हैं आज भी ख़त्रात५ बाक़ी
जलाल६ अपना दिखायेगी किसी दिन
अगर होगी ख़ुदा की ज़ात बाक़ी
----
देखो तो हमदर्द बड़े हैं
लोग मगर ये सर्द बड़े हैं
हर मौसम की रम्ज़१ को जानें
वो पत्ते जो ज़र्द२ बड़े हैं
हम मंज़िल पर क्या ठहरेंगे
हम आवारा-गर्द बड़े हैं
पोंछ लिये हैं आंख से आंसू
लेकिन दिल में दर्द बड़े हैं
दुन्या एक दुखों का घर है
दुन्या में दुख दर्द बड़े हैं
आ निकले हैं उस की गली में
हम भी कूचा-गर्द३ बड़े हैं
----
साफ़, शफ़्फाफ़१ आब२ हैं हम लोग
आइनों का जवाब हैं हम लोग
चाक कर दें जिगर अंधेरों का
साहिबे-आबो-ताब३ हैं हम लोग
हो सके तो मुतालआ४ करना
एक उम्दा किताब हैं हम लोग
क्या हमारा जवाब लाओगे
आप अपना जवाब हैं हम लोग
काम हम ने किये हैं लाफ़ानी५
यूं तो मिस्ले-हबाब६ हैं हम लोग
बह रहा है जो अपनी मस्ती में
ऐसे दरिया का आब हैं हम लोग
----
कभी जब उन के शानों१ से ढलक जाता रहा आंचल
तो दिल पर एक बिजली बन के लहराता रहा आंचल
नतीजा कुछ न निकला उन को हाले-दिल सुनाने का
वो बल देते रहे आंचल को, बल खाता रहा आंचल
इधर मज्बूर था मैं भी, उधर पाबंद थे वो भी
खुली छत पर इशारे बन के लहराता रहा आंचल
फ़क़त इक बार उन के रेशमी आंचल को चूमा था
मेरे एह्सास२ पर हर शाम छा जाता रहा आंचल
हवा के तुंद३ झोंके ले उड़े जब उन के आंचल को
तो उड़ उड़ कर उन्हें ता-देर४ तड़पाता रहा आंचल
वो आंचल को समेटे जब भी 'रहबर` पास से गुज़रे
मेरे कानों में कुछ चुपके से कह जाता रहा आंचल
----
दामने-सद-चाक१ को इक बार सी लेता हूं मैं
तुम अगर कहते हो तो कुछ रोज़ जी लेता हूं मैं
बे-सबब पीना मिरी आदात२ में शामिल नहीं
मस्त आंखों का इशारा हो तो पी लेता हूं मैं
गेसुओं का हो घना साया कि शिद्दत३ धूप की
वो मुझे जिस रंग में रखता है जी लेता हूं मैं
आते आते आ गये अंदाज़ जीने के मुझे
अब तो 'रहबर` ख़ून के आंसू भी पी लेता हूं मैं
----
दामने-सद-चाक१ को इक बार सी लेता हूं मैं
तुम अगर कहते हो तो कुछ रोज़ जी लेता हूं मैं
बे-सबब पीना मिरी आदात२ में शामिल नहीं
मस्त आंखों का इशारा हो तो पी लेता हूं मैं
गेसुओं का हो घना साया कि शिद्दत३ धूप की
वो मुझे जिस रंग में रखता है जी लेता हूं मैं
आते आते आ गये अंदाज़ जीने के मुझे
अब तो 'रहबर` ख़ून के आंसू भी पी लेता हूं मैं
----
मौसम मिज़ाज अपना बदलने लगा है यार
वो शाल ओढ़ घर से निकलने लगा है यार
फैंका था जिस दरख्त़ को कल हम ने काट के
पत्ता हरा फिर उस से निकलने लगा है यार
ये जान साहिलों के मुक़द्दर संवर गये
वो गु़स्ले-आफ्त़ाब१ को चलने लगा है यार
उस का इलाज ख़ाक करेगा कोई तबीब२
वो ज़हर जो हवास३ में पलने लगा है यार
उठ और अपने होने का कुछ तो सुबूत दे
पानी तो अब सरों से निकलने लगा है यार
तुझ से तो ये उमीद रखी ही न थी कभी
तू भी हमारे नाम से जलने लगा है यार
मश्रिक ४ में जो तुलूअ५ हुआ था बवक्त़े-सुब्ह
मग़्रिब६ में वक्त़े-शाम वो ढलने लगा है यार
----
देखें वो कब शाद१ करे है
ग़म से कब आज़ाद करे है
मेरे हाल पे रोने वाले
क्यों आंसू बर्बाद करे है
कितना सच्चा प्यार था अपना
आज भी दुन्या याद करे है
हर पल आहें भरता गुज़रे
हर लम्हा२ फ़र्याद करे है
मिलते थे जिस पेड़ तले हम
तुम को बराबर याद करे है
किस के हिज्र३ में आंखें नम४ हैं
किस को ऐ दिल याद करे है
----
दिल बन रहा है मरकज़े-आफ़ात१ इन दिनों
मिलती है रोज़ दर्द की सौग़ात इन दिनों
सब देखते हैं अपने मुफ़ादात२ इन दिनों
बटती है अपने अपनों में खै़रात इन दिनों
बरसात की फुहार के रसिया ये सुन रखें
होती है गोलियों की भी बरसात इन दिनों
मिलते हैं यूं तो लोग सब अच्छे बुरे मगर
मुश्किल है एक ख़ुद से मुलाक़ात इन दिनों
फ़ुर्सत अगर मिले तो कभी आ के तुम सुनो
क्या क्या हैं दिल को तुम से शिकायात इन दिनों
डूबा हुआ है आहों में 'रहबर` हर एक दिन
भीगी हुई है अश्कों में हर रात इन दिनों
----
प्यार में डूबे हुये गीत सुना कर किस ने
ज़ुल्फ़ से बांध लिया दिल सा तवंगर१ किस ने
उस के वा`दा पे भरोसा तो है ऐ दिल तुझ को
रेत पर यार बनाया है मगर घर किस ने
वो था 'सुक़रात` कि थी कृष्ण की 'मीरां` कोई
पी लिया ज़हर का छलका हुआ साग़र किस ने
काश अर्बाबे-सियासत२ से ये पूछे कोई
कर लिया क़ुर्क३ ग़रीबों का मुक़द्दर किस ने
हो गया और भी वो ज़ुल्म-ओ-सितम पर माइल४
कह दिया एक सितमगर५ को सितमगर किस ने
बहरे-हस्ती६ के शनावर७ हैं बख़ूबी आगाह८
आज तक पार किया है ये समंदर किस ने
राह में कौन मिला आज ये हंस कर 'रहबर`
कर दिया जादए-हस्ती९ को मुनव्वर१० किस ने
----
खिला हुआ है शफ़क़ की मिसाल१ फिर कोई
दिखा रहा है बहारे-जमाल२ फिर कोई
नहा के बांध रहा है वो बाल फिर कोई
बना हुआ है अछूता ख़याल फिर कोई
मेरे ख़याल की दुन्या में आ के चुपके से
छिड़क गया है फ़ज़ा में गुलाल फिर कोई
न मिल सकेगा कोई हम सा चाहने वाला
न ला सकोगे हमारी मिसाल फिर कोई
लजा लजा सी गई है फ़ज़ा दुआलम३ की
निहारता है ख़ुद अपना जमाल४ फिर कोई
जो हौसला है तो फिर बढ़ के हाथ फैला दे
वो देख बांट रहा है मलाल५ फिर कोई
ज़मीन कांप उठी आस्मां है सक्ते६ में
सुना रहा है मुसीबत का हाल फिर कोई
पलट दिया है किसी ने बिसाते-आलम७ को
वो चल गया है क़ियामत की चाल फिर कोई
मेरे वतन मेरे हिन्दोस्तां उदास न हो
मिलेगा लाल बहादुर सा लाल८ फिर कोई
किसी के हुस्ने-दिलारा९ को देख कर 'रहबर`
मचल रहा है लबों१० पर सवाल फिर कोई
----
घटा उठी है तो याद आ गई हैं वो ज़ुल्फ़ें
खिला है फूल तो वो चिहरा याद आया है
वही सी चाल, वही सी अदा वही सा बदन
ये कौन उस सा मेरे सामने से गुज़रा है
तरस रही हैं तिरी दीद१ को मिरी आंखें
जो ख़ाके-पा२ को तरसता है मेरा माथा है
ख़ुदा की बंदगी हम इस लिये नहीं करते
किसी को हम ने ख़ुदा मान कर ही पूजा है
बसे हुये हो तुम्हीं तुम हमारी सोचों में
किसी को हम ने तुम्हारे सिवा न सोचा है
----
कोई भूला हुआ गम़ दिल में बसाये रखना
इस ख़राबे१ में कोई जोत जगाये रखना
मैं पलट आऊंगा परदेस से इक रोज़ ज़रूर
आस के दीप मँडेरों पे जलाये रखना
ग़म की यूरुश२ में भी हंसता हूं कि फ़ित्रत है मिरी
रेगज़ारों३ में भी कुछ फूल खिलाये रखना
ज़ीस्त४ को और भी दुश्वार५ बना देता है
चंद यादों को कलेजे से लगाये रखना
सुब्ह के शोख उजालों से मिरा रिश्ता है
मेरे घर में न क़दम शाम के साये रखना
फिर कोई गर्म हवा तुम को नहीं छू सकती
तुम मिरी बात के मफ़्हूम६ को पाये रखना
मैं भी पलकों पे सितारों को करूंगा रौशन
तुम भी बुझती हुई शम्ओं को जलाये रखना
तुम कन्हैया हो न मैं राधा हूं फिर भी मुझ को
बांसुरी जान के होंटों से लगाये रखना
बस यही शेवा-ए-अर्बाबे-वफ़ा७ है यारों
उस की चौखट पे सरे-शौक़ झुकाये रखना
शौक़ से चाहो किसी ज़ुहरा-बदन८ को 'रहबर`
दौलते-दिल९ से मगर हाथ उठाये रखना
----
न ग़ुंचे हैं न गुल हैं आह अपने
फ़क़त कांटे हैं फ़र्शे-राह अपने
किसे अपना कहे कोई जहां में
जब आंखें फेर लें नागाह१ अपने
चले हो सूए-मयख़ाना२ तो यारों
हमें भी ले चलो हमराह३ अपने
ख़ज़ाने दे गये रंजो-अलम के
वो ख़ुशियां ले गये हमराह अपने
पलट कर काश आ सकते दुबारा
वो दिन, वो पल, वो सालो-माह४ अपने
निक़ाब५ अपना उलटने को है कोई
छुपा लें जल्वे महर-ओ-माह६ अपने
सरे-मंज़िल७ पहुंचते हम भी 'रहबर`
वो चलते दो क़दम हमराह अपने
----
बुलबुल के ज़मज़मे१ हैं चिड़ियों के चहचहे हैं
आई बसंत, हर सू ग़ुंचे खिले हुये हैं
मौसम भी आज अपने तेवर बदल रहा है
सर्दी की शिद्दतों२ से बाहर निकल रहा है
ग़श३ हो रही है बुलबुल फूलों के बांकपन पर
मस्ती सी छा रही है हर शाख़ हर चमन पर
शबनम के आइने में ख़ुद को निहारती है
अपनी ज़बां४ में बुलबुल किस को पुकारती है
फूलों की ख़ुशबुओं से सब्ज़ा महक रहा है
कोंपल महक रही है, ग़ुंचा चटक रहा है
----
दीवाली के दीप जले हैं, उजले उजले दीप जले हैं
चांद सितारों को शर्माते, नूर लुटाते दीप जले हैं
रंग बिरंगे फूलों जैसे, प्यारे प्यारे दीप जले हैं
राम, लखन, सीता जी आये, तारों जैसे दीप जले हैं
रंग बिरंगी आतिशबाज़ी चारों जानिब छूट रही है
फुलझड़ियों ने रंग जमाया, दिन के जैसी रात बनी है
दौड़ी है आकाश की जानिब, शोर मचाती एक हवाई
रंगों का बाज़ार लगा है, हर दिल से आवाज़ ये आई
१
वो देखो वो एक सुहागिन, थाली में कुछ दीप सजाये
पहली दीवाली है शायद, सो वो मन ही मन मुस्काये
सास बहू दोनों ने मिल कर, दीवारों पर दीप सजाये
बूढ़े दादा झूम रहे हैं, देख उन्हें बच्चे मुस्काये
बच्चों का उत्साह तो देखो, अपनी सुध-बुध भूल गये हैं
शोर मचाते मस्ती करते, मौज में अपनी झूम रहे हैं
राम, लखन, सीता घर लौटे, ख़त्म हुआ बनबास का मौसम
राम राज का युग आया है, सब के दिल की आस का मौसम
बच्चे, बूढ़े सब ने मिल कर, मस्ती में ये शोर मचाया
रंगों का बाज़ार खुला है, रौशनियों का मेला आया
लो बज उट्ठी फ़ोन की घंटी, कितने प्यारेपन से भेजी
सात समंदर पार से हम को, उस ने दीवाली की बधाई
और कहा तुम ही खा लेना, मेरे हिस्से की भी मिठाई
----
जब कभी करता हूं टैलीफ़ोन उस नम्बर पे मैं
उस को बस अंगेज ही पाता हूं मैं
मस्रूफ़ ही पाता हूं मैं
पूछता हूं तब मैं ये अर्बाबे१-टैलीफ़ोन से
क्यों कोई पत्ता उधर हिलता नहीं
क्यों मेरे दिल का कंवल खिलता नहीं
क्यों फ़ुलां२ नम्बर मुझे मिलता नहीं
उस तरफ़ से तब ये मिलता है जवाब
ये तो नम्बर आप ही का है जनाब
दूसरों से बात बेशक कीजिये
ख़ुद से मिलने की न कोशिश कीजिये
आदमी ख़ुद से मुख़ातिब हो सके
आज की मस्रूफ़ दुन्या में कहां मुम्किन है यह
(कहानीकार जोगिन्द्र पाल की कहानी ''रब्तो-ज़ब्त`` पर आधारित)
----
क़त्ए
(१)
मा`रिफ़त१ की शराब है शिमला
एक शायर का ख़ाब२ है शिमला
दस्ते-क़ुदरत३ ने ख़ुद लिखा जिस को
एक ऐसी किताब है शिमला
(२)
पत्ती पत्ती ने एह्तिराम४ किया
झुक के हर शाख़ ने सलाम किया
बढ़ के फूलों ने पांव चूम लिये
तुम ने जब बाग़ में ख़िराम५ किया
(३)
बढ़ गया इज्त़िराब६ ले आओ
हाले-दिल है ख़राब ले आओ
वो न आयेंगे अपने वा`दा७ पर
मयकदे८ से शराब ले आओ
(४)
लिख तो दूं बर्फ पर तुम्हारा नाम
लेकिन इक डर है मेरे दिल में मकीं९
बर्फ की अनगिनत तहों के तले
दब न जाये तुम्हारा नाम कहीं
----
उस की चौखट पे सरे-शौक़ झुकाओ तो सही
उस अमर जोत से तुम जोत जलाओ तो सही
पोंछने आयेंगे ख़ुद मुर्शिदे-कामिल१ आंसू
अपने अश्कों में किसी रोज़ नहाओ तो सही
फिर कोई गर्म हवा तुम को नहीं छू सकती
तुम फ़क़ीरों की शरण में कभी आओ तो सही
ये वो चोरी है जो हर हाल में जाइज़ होगी
उस की बग़िया से कोई फूल चुराओ तो सही
बीज विश्वास का हो और श्रद्धा का पानी
दिल में ऐसी भी कोई फ़स्ल उगाओ तो सही
जिस के दीदार से हो जायें मुनव्वर२ आंखें
दिल के मंदिर में वो तस्वीर सजाओ तो सही
ख़ुद बख़ुद खुलते चले जायेंगे सब दरवाज़े
उस के दर पर कभी तुम शीश झुकाओ तो सही
पार हो जाये गी तूफ़ान से कश्ती 'रहबर`
दिल में इक बार स्वरूप उस का सजाओ तो सही
----
फ़क़ीरों से कुछ मांगना चाहता हूं
अंधेरे में कोई दिशा चाहता हूं
जो मंज़िल पे मेरी मुझे ले के जाये
मैं ऐसा कोई रहनुमा चाहता हूं
दरीदा१ हुये हैं ये कपड़े बदन के
मैं चोला कोई अब नया चाहता हूं
नहीं सिर्फ अपना भला चाहता मैं
ख़ुदाई का मैं तो भला चाहता हूं
तेरे नूर की मुझ पे बारिश हो हर दम
मैं सर ता क़दम भीगना चाहता हूं
नहीं है किसी और शय की तमन्ना
तेरे दर का मैं तो पता चाहता हूं
दिखाये अंधेरे में जो राह मुझ को
कोई ऐसा रौशन दिया चाहता हूं
मैं मेले की रौनक़ में गुम हो न जाऊं
तेरे हाथ को थामना चाहता हूं
निशां उस के क़दमों के जिस पर हों 'रहबर`
मैं उस ख़ाक को चूमना चाहता हूं
----
----
एक हाकिम१ था फ़क़ीरों पर निहायत सख्त़-गीर
कांपते थे उस के डर से शहर के सारे फ़क़ीर
यूं तो वो हर रोज़ होता था फ़क़ीरों पर ख़फ़ा२
लेकिन इक दिन उस को ग़ुस्सा कुछ ज़ियादा आ गया
कर लिया ग़ुस्से को ठण्डा उस ने बे-ख़ौफ़-ओ-ख़तर३
इक फ़क़ीरे बे-नवा४ के सर पे पत्थर मार कर
और भी उस संग-दिल५ का रौ`ब तारी हो गया
बे-नवा के सर से जिस दम ख़ून जारी हो गया
ले सके बदला ये उस मज़्लूम६ में ताक़त न थी
सामने हाकिम के बेचारे की कुछ वक़्अत७ न थी
जब न कुछ भी चल सका उस बे-नवा का इख्त़ियार
कर लिया मह्फ़ूज़८ पत्थर को समझ कर यादगार
लेकिन आख़िर रंग ला कर ही रही बेबस की आह
हो गया नाराज़ उस हाकिम से इक दिन बादशाह
कर दिया कैद़ उस को इक गहरे गढ़े में शाह ने
तब वही पत्थर उसे मारा फ़क़ीरे-राह ने
बेकसो-मज्बूर हाकिम ने यह चिल्ला कर कहा
कौन हो, क्यों मारते हो मुझ को पत्थर बे-ख़ता१
तब कहा मज़्लूम ने पत्थर को ख़ुद पहचान लो
बे-ख़ता है कौन हम दोनों में ये तुम जान लो
बात की तह से हुआ जब वो सितमगर२ आश्ना३
तब कहा इतने दिनों बदला न क्यों तुम ने लिया
वो फ़क़ीर इस बात पर बोला कि ऐ हाकिम मेरे
पहले मैं डरता था तुझ से और उह्दा४ से तेरे
अब ख़ुदा के फ़ज्ल़५ से तू है गिरिफ्त़ारे-बला६
वक्त़ को मैंने ग़नीमत७ जान कर बदला लिया
----
वो नज़र बदगुमां सी लगती है
ज़िंदगी रायगां१ सी लगती है
जिस पे वो मह्वे ख़ुश-ख़िरामी२ हों
वो ज़मीं आसमां सी लगती है
नक्श़े-पा हैं कि माह-ओ-अंजुम हैं३
रहगुज़र४ कह्कशां५ सी लगती है
ज़िक्र हो जिस में उस परी-वश६ का
वो ग़ज़ल नौजवां सी लगती है
आर्ज़ूओं के ख़ूने-नाहक़७ में
दिल की कश्ती रवां८ सी लगती है
तेरी तन्हा-रवी९ भी ऐ 'रहबर`
कारवां कारवां सी लगती है
----
लुत्फ़ गो जज्ब़ात के दरिया में बह जाने में है
अज्म़ते-इंसां१ तो दिल को राह पर लाने में है
सूरते-परवाना जल जाऊंगा राहे-हक़२ में मैं
मुझ में उतना हौसला है जितना परवाने में है
हम पहनने को पहन लेते हैं यूं तो हर लिबास
लुत्फ़ लेकिन और ही कुछ जोगिया बाने में है
त्याग से होता है जीवन आदमी का कामयाब
जो मज़ा खोने में है कब वो मज़ा पाने में है
१
साक़िया इक और दौरे-जाम होना चाहिये
होश का उन्सर३ अभी कुछ तेरे दीवाने में है
वो किसी होटल के खाने में कहां ऐ दोस्तो
जो नफ़ासत आश्रम के सादा से खाने में है
दिलबरों के जौरे-पैहम४ का गिला अच्छा नहीं
आशिक़ी की शान 'रहबर` घुट के मर जाने में है
----
बराबर जामे-मय१ के जामे-कौसर२ हो नहीं सकता
कभी ज़र्रा बरंगे-माह-ओ-अख्त़र३ हो नहीं सकता
हमारा हाल है और अब्तरी४ की आख़िरी मंज़िल
चलो अच्छा हुआ ये और अब्तर हो नहीं सकता
ख़ुदारा५ कोई समझाये मेरे समझाने वालों को
मुझे राहत मिले उन से बिछुड़ कर हो नहीं सकता
उन्हें क्या फ़ाइदा हाले-ख़राबे-दिल६ सुनाने का
असर हाले-ख़राबे दिल का उन पर हो नहीं सकता
वो नंगे-इश्क़े-सादिक़७ है उसे दिल कौन कहता है
जो तेरे इक इशारे पर निछावर हो नहीं सकता
सहर का वक्त़ हो या शाम के ढलते हुये साये
जुदा दिल से ख़यालेऱ्यार दम भर हो नहीं सकता
सुकूने दिल के तालिब ये तलब है सईए-लाहासिल८
सुकूने दिल तो जीते जी मुयस्सर९ हो नहीं सकता
मैं उन को ढूंडने निकलूं ये अक्सर होता रहता है
वो मुझ को ढूंडने निकलें ये 'रहबर` हो नहीं सकता
----
मह्जूर, ना-मुराद, फ़सुर्दा, अलम-ज़दा१
तन्हा तू अपनी ज़ीस्त२ के दिन काटती रही
दो गाम तेरा साथ ज़माना न दे सका
तल्ख़ी ग़मों की ज़ख्म़े-जिगर चाटती रही
कौसर३ में वो धुला हुआ चेहरा नहीं रहा
वो वांकपन, वो अबरुए-ख़मदार४ मिट गये
वो सादगी, वो सोज़ में डूबी हुई हँसी
वो चांद सी जवीन५, वो रुख्स़ार६ मिट गये
पानी थी तुझ को और भी शुहरत७ जहान में
तेरे रहे-अदम८ से गुज़रने के दिन न थे
करनी थीं तय कुछ और तरक्की की मंज़िलें
ऐ 'महजबीं`९ अभी तेरे मरने के दिन न थे
----
मन्नत
(शैख़ सलीम चिश्ती की दरगाह पर शहंशाह 'अक्बर` की अऱ्जदाश्त)
सुना है तेरे दर पर आ के जो सर को झुकाता है
तिरी दरगाह से मन की मुरादें पा के जाता है
संवर जाती हैं तेरे लुत्फ़ से माथे की तहरीरें१
तिरी नज़रे-इनायत से बदल जाती हैं तक्द़ीरें
जो हो तेरा इशारा ख़ाक से बनती हैं इकसीरें२
जो हो तेरी रज़ा आहों में आ जाती हैं तासीरें३
चले आये हैं हम भी तेरे दर पर हाथ फैलाये
हमारी बे-कसी की ऐ ख़ुदा अब लाज रह जाये
हुये जाते हैं गहरे और भी कुछ यास के साये
तिरी चौखट से उठ कर कोई जाये तो कहां जाये
सवाली बन के बैठे हैं मुरादें पा के उट्ठें गे
तुझे हम अपने दिल का मुद्दआ समझा के उट्ठें गे
भरे हैं जाम औरों के हमारा जाम ख़ाली है
निगाहें भी सवाली हैं ये दामन भी सवाली है
तू इस दुन्या का मालिक है तू इस दुन्या का वाली है
तेरे दर पर तेरे बंदों ने अब गर्दन झुका ली है
जिन्हें बख्श़ी हैं दाता तू ने आली शान जागीरें
लिखी हैं तू ने सोने के क़लम से जिन की तक्द़ीरें
तेरे दर पर खड़े हैं आज बन कर ग़म की तस्वीरें
मिलें गी ना-मुरादों को तेरे ही दर से तौक़ीरें१
हज़ूरी में न काम आती हैं तद्बीरें न तक्ऱीरें
ज़माने भर की हर ने`मत से जब तू ने नवाज़ा है
तो फिर औलाद की ने`मत से क्यों महरूम रक्खा है
खुले कुछ तो ये बंदों पर कि बंदों की ख़ता क्या है
भरे औलाद की ने`मत से झोली ये तमन्ना है
कोई नन्हीं सी कोंपल तो हमारी शाख़ से फूटे
जो अपनी मुस्कुराहट से हमारे दो जहां लूटे
हमारे घर के आंगन में खिलें ऐ काश गुल बूटे
हमारी ना-मुरादी का कहीं तो सिलसिला टूटे
जो हो तेरा इशारा ख़ाक से बनती हैं इकसीरें
संवर जाती हैं तेरे लुत्फ़ से माथे की तह्रीरे
----
कब से प्यासा हूं मिरी प्यास बुझा दे साक़ी
तू ने जो पी है वो मुझ को भी पिला दे साक़ी
राज़ मस्ती के ज़माने को सिखा दे साक़ी
सरमदी१ गीत कोई आज सुना दे साक़ी
तेरा मयख़ाना सदा क़ाइम-ओ-आबाद रहे
हम फ़क़ीरों को भी दो घूंट पिला दे साक़ी
अपने क़दमों में जगह दे के मुझे थोड़ी सी
मेरी सोई हुई तक्द़ीर जगा दे साक़ी
तेरे मयख़ाने में आये हैं जो मयख्व़ार२ नये
उन को तू मस्ती-ओ-रिंदी की दुआ दे साक़ी
हम नहीं वो कि जो उठ जायेंगे पी कर इक जाम
तेरे मयख़ाने में जितनी है पिला दे साक़ी
जो बहक जाते हैं दो घूंट ही पी कर अक्सर
उन को मयख़ाने की तह्जीब सिखा दे साक़ी
तू कि हर राही को मंज़िल का पता देता है
मुझ से गुमगश्ता१ को मंज़िल का पता दे साक़ी
खै़र हो साक़िये-आलम२ तेरे मयख़ाने की
सब को दीवानए-हुशियार बना दे साक़ी
जज्ब़३ हो जाये मिरी हस्ती तिरी हस्ती में
आज ये फ़ऱ्के-मन-ओ-तू४ भी मिटा दे साक़ी
आज 'रहबर` भी है मयख़ाना में रौनक़ अफ्ऱोज़
उस के होंटों से भी इक जाम लगा दे साक़ी
----
मुहब्बत चार दिन की है अदावत१ चार दिन की है
ज़माने की हक़ीक़त दर-हक़ीक़त२ चार दिन की है
बनाये हैं मकां अह्बाब३ ने लाखों की लागत से
मगर उन में ठहरने की इजाज़त चार दिन की है
जो सैरे-गुलशने-हस्ती४ को आये हो तो सुन रक्खो
कि सैरे-गुलशने-हस्ती की मुह्लत चार दिन की है
अभी से किस तरह मैं अर्ज५़ दिल का मुद्दआ६ कर दूं
अभी उन से मिरी साहिब-सलामत७ चार दिन की है
हर इक ताज़ा मुसीबत पर ये कह कर मुस्कराता हूं
ये आफ़त चार दिन की, इस की शिद्दत८ चार दिन की है
रफ़ीक़ों९ की रफ़ीक़ाना अदा है दिल-नशीं१० लेकिन
ये महफ़िल चार दिन की है ये सुह्बत चार दिन की है
हवाए-ज़र१ में ऐ अपनी हक़ीक़त भूलने वाले
ये हश्मत२ चार दिन की, शान-ओ-शौकत चार दिन की है
ख़ुदा की बंदगी कर लो ख़ुदा के नेक इन्सानों
'लहू में ये रवानी ये हरारत३ चार दिन की है`
ये रंग-ओ-नूर के मेले सदा क़ाइम नहीं रहते
कि इन की ये चमक ये क़द्र-ओ-क़ीमत चार दिन की है
न देते दिल न भरते दम मुहब्बत का कभी 'रहबर`
अगर ये जानते उन की मुहब्बत चार दिन की है
----
उन को क्या चाहने लगा हूं मैं
ख़ुद से बेगाना हो गया हूं मैं
अपनी तस्कीने-बंदगी१ के लिये
नित नये बुत तराशता हूं मैं
तुझ को दिल में छुपाये बैठा हूं
देख लेता हूं जब भी चाहूं मैं
दाद दे२! तेरे इक इशारे पर
हंस के क़ुर्बान हो गया हूं मैं
लुटने वाले ख़ुशी से लुटते हैं
उन के लूटे कहां लुटा हूं मैं
क्या उठायेगा अब मुझे कोई
तेरी नज़रों से गिर गया हूं मैं
दिन हो या रात, सूरते-तस्वीर३
आप की राह देखता हूं मैं
तेरा दरवेश४ हूं तेरे दर५ से
प्यार की भीक मांगता हूं मैं
सर हथेली पे रख के ऐ 'रहबर`
इश्क़ की राह हो लिया हूं मैं
----
चूम लेता हूं हाथ क़ातिल१ के
हौसिले देखिये मेरे दिल के
कौन पुर्साने-हाल२ है दिल का
किस से कहिये मुआमले दिल के
तेरे ग़म तेरी याद तेरे तीर
दिल में आये तो हो रहे दिल के
ख़ून रोती हैं हसरतें दिल की
ज़ख्म़ ख़ुर्दा३ हैं वलवले४ दिल के
वक्त़ पड़ने पे साथ छोड़ गये
ना-ख़ुदा मेरी कश्तिए-दिल५ के
दिल का हरगिज़ बुरा नहीं 'रहबर`
आप चाहें तो देख लें मिल के
----
रंज की ख़ूगर१ तबीअत हो गई
लीजिए जीने की सूरत हो गई
आप नाहक़ हो रहे हैं शर्मसार
मेरी जो होनी थी हालत हो गई
एक कांटा सा खटकता है मुदाम२
दिल की दुश्मन दिल की हसरत हो गई
अब वो आयें भी इयादत३ को तो क्या
ग़ैर अब अपनी तो हालत हो गई
हो गये दीवाने हम अच्छा हुआ
रोज़ के झगड़ों से फ़ुर्सत हो गई
मयकशी४ की क्या कहूं 'रहबर` कि ये
होते होते मेरी आदत हो गई
----
बात दिल की अदा१ नहीं होती
ये गिरह२ हम से वा३ नहीं होती
ऐसी बातों पे क्यों बिगड़ते हो
जिन की कोई बिना४ नहीं होती
कोई समझाये चारा-साज़ों५ को
दर्दे-दिल की दवा नहीं होती
आदमी ख़ामियों६ का पुतला है
किस बशर से ख़ता७ नहीं होती
ज़ुल्म की इंतिहा८ न हो जब तक
रह्म की इब्तिदा९ नहीं होती
जब से रूठे हैं मुझ से वो 'रहबर`
फ़स्ले-गुल कैफ़ ज़ा१० नहीं होती
----
गाह१ शो`ला है गाह शबनम है
हाय क्या चीज़ आप का ग़म है
आप के हिज्र२ में ये आलम३ है
मैं हूं और एक लश्करे-ग़म४ है
आ भी जाओ कि बुझ न जाये कहीं
ज़िंदगी का चिराग़ मद्धम है
होने वाला है हादिसा कोई
शिद्दते-दर्द५ आज कुछ कम है
ज़िंदगी भी निसार६ कर दूंगा
आप की हर ख़ुशी मुक़द्दम७ है
मुझ को अपनी ख़बर नहीं 'रहबर`
और उन का ख़याल हर दम है
----
मुल्तफ़ित१ जब तिरी नज़र होगी
हर ख़ुशी मेरी हम-सफ़र२ होगी
इस जहाने-हरीफ़े-उल्फ़त३ में
ज़िंदगी किस तरह बसर होगी
क़ातिले-दिल४ कोई तो है आख़िर
तू नहीं तो तिरी नज़र होगी
दोस्ती तेरी क्या ख़बर थी मुझे
चार दिन से भी मुख़्तसर५ होगी
इश्क़ की राह ऐ दिले-नादां
हम न कहते थे पुर-ख़तर६ होगी
शबे-गम़७ और तो न कुछ होगा
इक सदाए सहर-सहर८ होगी
हंस ले 'रहबर` कि कोई आया है
आहो-ज़ारी९ तो उम्र भर होगी
गणतंत्र दिवस----
छब्बीस जनवरी है बड़ा दिन महान है
ख़ुशियां मना रहा मिरा हिन्दोस्तान है
देखी अनेकता में यहां हम ने एकता
जमहूरियत की अपनी अनोखी ही शान है
हिन्दू हो कोई सिख हो मुसिलमान हो कोई
वतने-अज़ीज़ सब का ये हिन्दोस्तान है
करता है जो बहिश्त की भी माँद आबो-ताब१
हिन्दोस्तान है मिरा हिन्दोस्तान है
फिर 'कारगल` में आज बड़ी आन बान से
लहरा रहा हमारा तिरंगा निशान है
जो साईचिन की सर्द हवाओं में हैं मक़ीम
क्या देश वासियों तुम्हें उन का भी ध्यान है
फिर क्यों न सोना उगलें वो अलवेली खेतियां
जिन में पसीना अपना बहाता किसान है
'रहबर` उसे सलाम करें मिल के हम सभी
सरहद पे सीना ताने खड़ा जो जवान है
----
मुतफ़र्रिक़ अश्आर
* अजीब बात है जो ख़ुद ही राह में गुम है
दिखा रहा है वो मंज़िल का रास्ता मुझ को
शिमला में हम ने ये किया मह्सूस दोस्तों
ज़ुल्फ़े-दराज़ेऱ्यार१ का साया है ज़िंदगी
* 'रहबर` मैं देखता हूं उन्हें बस अक़ीदतन२
हो और कोई बात ख़ुदा की क़सम नहीं
* ज़िंदगी के इक बिलकते मोड़ पर बिछुड़ा था जो
आज भी उस जाने वाले को सदा देता हूं मैं
* सहर३ होते ही कोई हो गया रुख्स़त४ गले मिलकर
फ़साने रात के कहती रही टूटी हुई चूड़ी
* शिकस्त खा के मुहब्बत में यूं उदास न हो
ये हार जीत से बिहतर है हारने वाले
* उठ एहतिमामे-जामे-मये-अर्ग़वां५ करें
शिमले में 'रहबर` आज तो सर्दी बला की है
* उट्ठा है फिर फ़साद का फ़ितना नगर नगर
मह्फ़ूज़६ हर बला से हमारा मकां रहे
* वहीं पेड़ों तले छोटी सी कुटिया डाल कर रहते
तुम इस जंगल की हिरनी को कहां शहरों में ले आये
* उड़ के पहुंचा सब के सर माथे पे वो
कल तलक जो रास्ते की धूल था
* डुबई, जर्मनी, इंगलैंड और अमरीका
कहां कहां नहीं उर्दू ज़बान की ख़ुशबू
* हम को दरवेशी१ की दौलत भी मिली है फ़न के साथ
हम 'रतन` पंडोरवी के सीनियर शार्गिद हैं
* कुछ तो तस्कीन२ मिले मुझ से किसी राही को
मैं कोई पेड़ बनूं पेड़ का साया हो जाऊं
* आते जाते मुझे रौंदा करें बस्ती वाले
सोचता हूं कि तेरे गांव का रस्ता हो जाऊं
* मैं देखता हूं तुझे बस अक़ीदतन३ वरना
मिरी निगाह का मर्कज़४ तिरा शबाब नहीं
* नाव खेते हुये आते हैं वो मिलने हम से
हम उन्हें ख़ाब जज़ीरों में मिला करते हैं
* यूं शाखे़-दिल पे तेरी यादों ने गुल खिलाये
जैसे कि कोई बच्चा सोते में मुस्कुराये
* तुम्हारी राह मैं अगले जनम भी देखूंगा
तुम आओगे तो मैं घी के दिये जलाऊंगा
* बढ़ के हम सर काट लेंगे दुश्मने-बेपीर का
संग-रेज़ा५ भी उठाये वो अगर कशमीर का
* अपने हाथों जो बहाये ख़त अब उनका क्या मलाल
उनके वो ख़त अब तो 'रहबर` गंगा जी के हो गये
* किये हैं कितने घरों के चिराग़ गुल उस ने
जो देखने में ख़ुदा सा दिखाई देता है
* चेहरे पे बिखर जाती हैं जब ज़ुल्फ़ें हवा से
यूं उन को हटाते हो, नहीं जैसे हटाते
* इस सूनी कलाई पे घड़ी क्यों नहीं पहनी
अच्छा ही किया बोझ घड़ी का न उठाया
* यूं हाथ की उंगली के कड़ाके न निकालो
ये भी दिले-आशिक़१ की तरह टूट न जाये
* क्या हाथ से मैं एक तरफ़ उस को हटा दूं
जिस ज़ुल्फ़ ने आंखों को तिरी ढांप लिया है
* क्यों मौली कलाई से उतारी नहीं अब तक
दीवाली के पूजन को तो युग बीत गया है
* हम भूल भी जायेंगे अगर ख़ुद को किसी दिन
भूलेगी न उस के लब-ओ-रुख्स़ार२ की लाली
* हुक्मे-सफ़र३ जो आया तो रुख्स़त हुये मकीं४
दीवार-ओ-दर५ पे लिक्खे हुए नाम रह गये
* आ जाओ कि बारिश में नहाने का मज़ा लें
कुछ दिन तो चलेगी कि ये सावन की घटा है
* तुझ को छुआ न था तो कोई पूछता न था
छू कर तुझे सलीब अज़ीज़े-जहां हुई
* दुआ है कि ऊंचे घरानों में जायें
मेरे शहर की नेक दिल लड़कियां
* कर के तूफ़ान के सिपुर्द मुझे
तुम किनारों से दोस्ती कर लो
* भेज दे तू देस में परियों के लोरी से मुझे
ऐ मुक़द्दस मां सुला दे एक थपकी से मुझे
* अंजाम हो बखै़र सफ़र का ख़ुदा करे
जुगनू की रौशनी में सफ़र कर रहे हैं हम
* ख़ारज़ारे-हयात१ में 'रहबर`
मेरे ज़ख्म़ों से ख़ून जारी है
* शैख़ की जन्नते पुर-फ़ज़ा से
मेरा हिन्दोस्तां कम नहीं है
* मैं ने तुम पर गीत लिखा है
तुम को अपना मीत लिखा है
* मंज़र हैं दिल-फ़रेब सुहाने हैं रास्ते
आना हमारे गांव अगर तुम से बन पड़े
* साधकों संतों से कुछ रौशनी लेते जाओ
कुछ मक़ामात पे रस्ते में अंधेरा होगा
* तू सलीबों का मसीहा था तुझे आता था
अपना पैग़ाम सलीबों की ज़ुबानी देना
----
(समाप्त)
प्रस्तुति : अनुज नरवाल रोहतकी.
टीप: चूंकि पाठ का मशीनी फ़ॉन्ट रूपांतर किया गया है अत: प्रूफ की गलतियाँ संभावित हैं. सुधी जनों से आग्रह है कि उन्हें ठीक कर पढ़ें.
excellent unsung hero.
जवाब देंहटाएं