राजेन्द्र नाथ ‘रहबर’ का ग़ज़ल संग्रह : याद आऊंगा

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'रहबर` की शायरी वो जलता हुआ चिराग  है जो अपनी सोंधी सोंधी आंच की दिल गुदाज़ हरारत का कैफ़ पैदा करती है। – सिने स्टार दिलीप कुमार. ख़ुशी...

'रहबर` की शायरी वो जलता हुआ चिराग  है जो अपनी सोंधी सोंधी आंच की दिल गुदाज़ हरारत का कैफ़ पैदा करती है। – सिने स्टार दिलीप कुमार.

ख़ुशी के दौड़ते लम्हे इधर का रुख़ न करें
ख़ुशी का काम ही क्या दिल जलों की बस्ती में

(इसी संग्रह से)

yaad aaunga gazal sangraha rajendra nath rahabar

ग़ज़ल संग्रह : याद आऊंगा

rajendranath rahabar

राजेन्द्र नाथ 'रहबर`


१०८५, सराए मुहल्ला,
पठानकोट-१४५००१ पंजाब भारत

संस्करण             :    २००८ ई.
मूल्य             :    ७५/- रूपये
मुद्रक            :    प्रिंटवैल
                १४६, इंडस्ट्रियल फ़ोकल प्वाइंट,
                अमृतसर-१४३००६ पंजाब
टाइटल/कम्पोज़िंग    :    शशि भूषण 'चिराग़’
                गली नं. ५, इंदिरा कॉलोनी, पठानकोट-१४५००१
               
मिलने का पता        :    दर्पन पब्लिकेशन्ज़,
                बी.-३५/७, सुभाष नगर,
                पठानकोट-१४५००१ पंजाब


विशेष आभार
मैं अपने प्यारे मित्र श्री राकेश ओबराय एडवोकेट और उनकी धर्म पत्नी श्रीमती संगीता ओबराय के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करना अपना ईश्वरादिष्ट कर्तव्य मानता हूं।  उन्होंने मुझे यह काव्य संग्रह देवनागरी लिपि में प्रकाशित करने के लिए प्रेरित किया।  वह कई वर्षों से स्थायी रूप से कैनेडा में रह रहे हैं किन्तु शायरी के प्रति बे-पनाह मुहब्बत और प्यारे भारत की सोंधी मिट्टी की ख़ुशबू आज भी उन के दिलों में रची बसी हुई है।  और वह भारत आने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं किन्तु रोज़गार के मुआमलात में आदमी मजबूर हो जाता है फिर भी समय मिलते ही वह भारत आ जाते हैं,उन की प्रेरणा और परामर्श के फलस्वरूप ही यह ग़ज़ल संग्रह भारत वर्ष की प्रधान लिपि देवनागरी में प्रकाशित हो कर प्यारे पाठकों के हाथों में पहुंचा है।  इस प्रेरणा और परामर्श के लिए ओबराय दम्पति का कोटि-कोटि धन्यवाद!
    जय हिन्दी : जय नागरी!
पठानकोट            राजेन्द्र नाथ रहबर

 

सुपर स्टार दिलीप कुमार
फ़िल्म ऐक्टर

    ये कहूं तो ग़लत न होगा कि इस दौर के जिन चंद शायरों ने मुझे मुतआस्सिर किया उन में 'रहबर` का नाम भी है।  'रहबर` की शायरी वो जलता हुआ चिराग  है जो अपनी सोंधी सोंधी आंच की दिल गुदाज़ हरारत का कैफ़ पैदा करती है।  उन की शायरी का एक बहुत बड़ा वस्फ़ ये है कि उन्होंने आमियाना और उर्यां मज़ामीन से गुरेज़ किया है।  दरअस्ल उन की सोचें चांदनी की पाजेब पहन कर सर्फए-क़िर्तास काग़ज़ पर उतरती हुई दिखाई पड़ती हैं।  उन की तख्ल़ीक़ी कुव्वत की तवानाई मन्दर्जा ज़ैल अशआर से नुमायां है।    -    तारीख के सफ्हों ने जो देखा न सुना है         वो बाब मेरे एह्द के इन्सां ने लिखा है

    -    ख़ुशी के दौड़ते लम्हे इधर का रुख़ न करें
        ख़ुशी का काम ही क्या दिल जलों की बस्ती में

    -    रवां दवां रहे सिक्का तेरे तबस्सुम का
        दिलों पे चलती रहें बादशाहतें तेरी

    -    जब भी हमें मिलो ज़रा हंस कर मिला करो
        देंगे फ़क़ीर तुम को दुआयें नई नई

    -    कहीं ज़मीं से तअल्लुक़ न ख़त्म हो जाये
        बहुत न ख़ुद को हवा में उछालिये साहिब
        जबीने-वक्त़ पे उभरीं हज़ारहा शिकनें
        कभी जो भूले से हम मुस्कुरा लिये साहिब

    -    हर रोज़ नया क़ौल, नया एह्द, नई बात
        इस भीड़ में गुम हो गये इक़रार पुराने

    -    मुस्कुराहट, चाल, तेवर, गुफ्तगू, तऱ्जे-ख़िराम
        हर अदा उतरे है दिल में मीर के अशआर सी

    -    हम कोई 'सरमद` नहीं, हक़ बात भी कहते नहीं
        क्यों हमारे क़त्ल के एह्काम जारी हो गये

    -    नतीजा कुछ न निकला हाले-दिल उनको सुनाने का
        वो बल देते रहे आंचल को, बल खाता रहा आंचल

    -    सहर होते ही कोई हो गया रुख्स़त गले मिलकर
        फ़साने रात के कहती रही टूटी हुई चूड़ी

    -    क्या इस का एतिबार, अभी थी, अभी नहीं
        'रहबर` बसाने-नक्श़े-कफ़े-पा है जिंदगी

तेरी तन्हा रवी भी ऐ 'रहबर`
        कारवां कारवां सी लगती है

(As told to Armaan Shahabi, Film Writer)

प्रो. प्रेम कुमार नज़र साहिब
मशहूर शायर

    राजेन्द्र नाथ रहबर का शुमार पंजाब की उन अदबी हस्तियों में होता है जिन्हों ने उर्दू की बुझती हुई शमअ को रौशन रखने में अपना ख़ूने-जिगर जलाया है। आज उन की हैसियत एक कुहना-मश्क़ शायर और मुसल्लमुल-सबूत उस्तादे-फ़न के तौर पर तसलीम१ की जा चुकी है। उन की बे-पनाह ज़िहानत और फ़न्नी महारत ने उन्हें अदबी हल्क़ों में एक मुम्ताज़२ मक़ाम पर फ़ाइज़३ कर दिया हैं उन के आबाई शहर पठानकोट में एक दबिस्ताने-शायरी आलमे-वजूद में आ चुका है। पंजाब में इस वक्त़ शायद ही कोई दूसरा और शहर होगा जहां उर्दू शायरी की रिवायत इस क़दर मुस्तहकम४ है जैसी कि पठानकोट में। मुझे इस बात से बे-हद ख़ुशी होती है कि उन्होंने अपने शहर में उर्दू शायरी की एक बे-मिसाल शमअ रौशन कर रक्खी है।
    राजेन्द्र नाथ रहबर ने पंजाब के एक कामिल उस्तादे-फ़न और कुहना-मश्क़ शायर जनाब रतन पंडोरवी से फ़न्नी इस्तिफ़ादा५ किया। रतन पंडोरवी साहिब क़लन्दराना ज़िंदगी गुज़ारते थे। उन पर हमेशा रूहानी वजदान की कैफ़ियत छाई रहती थी। वो फ़क़्र सन्यासको ज़िंदगी का तुर्रा-ए-इम्तियाज़ समझते थे और दुनियावी आसाइशों६ से कोसों दूर रहते थे। रहबर को अपने उस्ताद से फ़न की बे-पनाह दौलत और ज़िंदगी करने की अदा विरासत में मिली और सच तो ये है कि आप ने इस रिवायत को ईमान की तरह निभाया और हस्बे-तौफ़ीक़ आगे बढ़ाया।
    सिले और सिताइश७ की तमन्ना किए बगै़र रहबर बरसों से एक पुर-वक़ार ख़ामोशी के साथ उर्दू की ख़िदमत में मसरूफ़ हैं बल्कि कई बार तो ऐसा महसूस होता है कि किसी गै़बी ताक़त८ ने आप को इस काम पर मामूर९ कर रक्खा है। अगर आज के पंजाब में उर्दू का ख़ामोश और बे-लौस ख़िदमत-गार देखना हो तो राजेन्द्र नाथ रहबर को देखिए।

    होशियारपुर             प्रेम कुमार 'नज़र`

श्री जगजीत सिंह
विश्व प्रसिद्ध गायक

माई डियर रहबर जी,

    आप का काम सराहनीय है और आप की नज्म़ 'तेरे ख़ुशबू में बसे ख़त मैं जलाता कैसे` में ये ख़ास तौर पर सराहनीय है।
    आप के क़लम द्वारा लिखी गई कोई भी रचना सब से पहले मेरे पास आनी चाहिए।

    मुम्बई                 एहतिराम के साथ,
                    आप का मुख़लिस,
                    जगजीत सिंह

श्री प्रेम वार बर्टनी
प्रसिद्ध शायर

    राजेन्द्र नाथ 'रहबर` का शुमार उर्दू के उन गिने चुने शायरों में होता है जिन के बारे में वाक़िई ये फ़ैसला करना दुशवार है कि उन की नज्म़ें ज़ियादा ख़ूबसूरत हैं या ग़ज़लें।  वो निहायत पाकीज़ा, सच्चे और पुर-ख़ुलूस अशआर तख़लीक़ करते हैं और तनक़ीद१ की काली खुर्दरी कसौटी पर उन के अक्सर अशआर अनमोल अशरफ़ियों की तरह दमकते और खनकते हैं।  दरअस्ल उन की मासूम व पाकीज़ा शायरी किसी गाती गुनगुनाती हुई नदी की लहरों पर बहते हुए उस नन्हे दिये की मानिन्द है जो किसी सुहागिन ने अपने रंग भरे हाथों से बसद-ख़ुलूस गंगा की गोद के हवाले किया हो।
    'रहबर` की शायरी का सब से नुमायां वस्फ़ यह है कि वह रिवायती अंदाज़े-फ़िक्र से सीधे सपाट रास्तों पर नहीं चलती बल्कि क़दम क़दम रोक कर हमें दा`वते-नज्जारा देती है।  कहीं 'अजमेर कौर` के पैकर२ में ढल कर क़ारईन३ से कोई सवाल करती है और कहीं गंगा में बहाए हुए ख़तों की आग किसी गै़रते-नाहीद४ की याद दिलाती है, कहीं शबे-वस्ल५ किसी की माला के मोती टूटते हैं तो दिल के आस्मान पर कहकशां की तरह बिखर जाते हैं,कहीं 'गुफ्तगू` में शायर ख़ुद से हम-कलाम है और कहीं पूरी काइनात से।
    राजेन्द्र नाथ 'रहबर` ब-हैसियत शायर सिर्फ रंगा-रंग मोतियों के शायर नहीं बल्कि उन के दामन में कंकर भी हैं, चंद ऐसे नोकीले और निराले कंकर जिन की दिल नवाज़ चुभन पर मोतियों की आबो-ताब और उन का सारा
लम्स न्योछावर किया जा सकता है।
    'रहबर` चाहे शिमला में रहें चाहे चण्डीगढ़ में या पठानकोट में, मैं ज़ाती तौर पर उन्हें हिन्दोस्तान गीर शुहरत का शायर तसलीम करता हूं और अदब के साथ उन्हें सलाम करता हूं।

    चण्डीगढ़               प्रेम वार बर्टनी

पंजाब उर्दू अकादमी
''सिपास-नामा``
बख़िदमत जनाब राजेन्द्र नाथ 'रहबर`

    उर्दू के क़द-आवर, मुहक्किक़ीन और नाक़दीन ने इस बात का एतिराफ़ किया है कि उर्दू ज़बान-ओ-अदब की तारीख़ में पंजाब की अदबी ख़िदमात का एक अहम हिस्सा है।  पंजाब ने नस्र-ओ-नज्म़ की हर सिन्फ़ में ऐसी ऐसी शख्स़ीयतें पैदा की हैं कि जिन के तज्क़िरे के बगै़र अदब की तारीख़ मुकम्मल नहीं हो सकती।  हमें इस बात को तस्लीम कर लेना चाहिये कि वो क़ौम कभी तरक़्क़ी नहीं करती जो अपने बुज़ुर्गों के कारनामों को याद नहीं करती और उन की नेक सालिह ख़िदमात को क़द्र की निगाह से नहीं देखती।
    ख़ुदा का शुक्र है कि यहां आज की मह्फ़िल में हम लोग 'रतन` पंडोरवी के शार्गिद राजेन्द्र नाथ 'रहबर` साहिब की अदबी ख़िदमात का ए`तिराफ़ करते हुये मौसूफ़ की ख़िद्मत में सिपास-नामा भी पेश कर रहे हैं।  'रहबर`साहिब का रुत्बा उर्दू शायरी में आ`ला-ओ-अऱ्फा है।  आप फ़न्ने-शायरी में उस्ताद हैं।  आप बड़े मुत्वाजे़, ख़लीक़, मिलनसार और मुन्कसिरुल मिज़ाज इन्सान हैं।  आप की ज़िंदगी दुन्यावी नुमाइश-ओ-आराइश से पाक है।  आप सादा दिल और पाक तीनत शख्स़ीयत के मालिक हैं।  आप की गुफ्तगू की नर्मी और इख्ल़ाक़ की शाइस्तगी मिलने वालों के दिलों को मुसख्ख़़र करती है।  यही वजह है कि आप से इस्तिफ़ादा करने वालों का हल्क़ा काफ़ी वसीअ है।  अपने शार्गिदों की पुरज़ोर हौसला अफजाई करना और उन की शायराना सलाहियतों को महमीज़ करना आप की फ़ित्रत में शामिल है।  आप अपनी ज़ात में वो अंजुमन हैं जिस ने उभरते हुये नौजवानों की नस्ल को शे`र-ओ-अदब के निकात से रूशनास कराया और उन में शे`र-ओ-अदब के ज़ौक़ को पैदा किया।  'रहबर` साहिब की ग़ैर मा`मूली इल्मी-व-अदबी सलाहियतों के बाइस आप को पंजाब बिलख़ुसूस पठानकोट में बहुत शुहरत मिली है।  मौ`सूफ़ की शे`री ख़िद्मात का ये हाल है कि आज पठानकोट और गिर्द-ओ-नवाह के शुअरा का एक 'दबिस्तान` वुजूद में आ चुका है।  बहैसियत मज्मूई 'रहबर` साहिब की शायराना शख्स़ियत पठानकोट की सरज़मीन पर उस मीनारए-नूर की हैसियत रखती है जिस की किरणों से आज नयी नस्ल के दिल-ओ-दिमाग़ मुअघर-व-मुनव्वर हैं।
    जब हम 'रहबर` साहिब के शायराना कमाल का जाइज़ा लेते हैं तो साफ़ ज़ाहिर होता है कि आप की ग़ज़लें बुलंद पर्वाज़ी और उम्दा ख़यालात-ओ-जज्ब़ात की आईना दार हैं जिन में सक़ील अल्फ़ाज़ का शाइबा तक नहीं मिलता।  आप अपने माफ़ीउल-ज़मीर के इज़्हार में बड़ी सादगी, दिलकशी और बे तकल्लुफ़ाना तर्ज इख्त़ियार करते हैं।  रिवायत की पासदारी करते हैं और क़दीम रविश से इनहिराफ़ पसंद नहीं करते लेकिन उर्दू शायरी के नये रुज्हानात के क़द्रदां भी हैं यही वजह है कि 'रहबर` साहिब की शायरी में रिवायत और जदीदियत की धूप छांव बयक वक्त़ देखने को मिलती है।  आप के शे`री मज्मूए 'तेरे ख़ुशबू में बसे ख़त` और 'याद आउंगा` आप की गैर मा`मूली शे`री सलाहियतों का आईना हैं, जिन में नये ज़ाविये, नया एहसास, नयी फ़िक्र, नयी होशमंदी के ख़द-ओ-ख़ाल बदर्जा-उघम मौजूद हैं।


    तारीख़ :                पेशकश :
    १९ नवम्बर २००६            डॉ. रूबीना शबनम

                    मालेरकोटला पंजाब

शाइस्ता रूमानियत का शायर : रहबर

    राजेन्द्र नाथ 'रहबर` नई नस्ल का एक संजीदा और ज़िम्मावार शायर है जिस ने पांच दर्याओं की इस सरज़मीन पर जनम लिया जिसे पंजाब कहते हैं।  वो बुनियादी तौर पर एक रूमानी शायर है क्यों कि उस की तख्ल़ीक़ात पर रूमानियत की एक दबीज़ धुंद छाई हुयी है।  क्लासिकी रूमानियत और जदीद तर्जे़-इज़्हार उस के फ़न में गले मिलते दिखाई देते हैं लेकिन उस रूमानियत ने कहीं भी फ़रारजोई, लाउबाली, आवारा मिज़ाजी और मुत्लक़ुलइनान इश्रतकोशी का जामा नहीं पहना।  ख़ला में दूर उघ्त़ादा मौहूम बस्तियों और रूमान के तिलिस्मी जज़ीरों की तलाश उस का मुंतहा नहीं बल्कि 'रहबर` ने अपने शे`र की रूमानियत को पुर ख़ुलूस जज्ब़े और संजीदा और पुर वक़ार लबो-लह्जे से एक तहारत अता की है।  'रहबर` के यहां एक संभला हुआ मुह्तात और शाइस्ता लह्जा मिलता है जो अपने मह्बूबे-तरहदार के नाज़-ओ-अंदाज़ और बाहमी राज़-ओ-नियाज़ को भी एक अज्म़त, एक वक़ार बख्श़ देता है, जो मर्दे-मुक़ाबिल की शान के शायां भी है।  अपने हुस्ने-तख़घ्युल से उस ने जो पैकर तराशे वो अजंता के अस्नाम से कम नहीं हैं।
    'रहबर` ने गो पंजाब के क़स्बा शकरगढ़ में आंख खोली जो अब पाकिस्तान में है और लड़कपन सरहद के इस पार पठानकोट भारती पंजाब में गुज़ारा जहां उस के वालिद मुह्तरम पंडित त्रिलोक चंद एक मुम्ताज़ वकील थे।  ताहम उन्फ़ुवाने-शबाब के माह-ओ-साल उस ने शिमला की ख़ुनुक और सरमस्त निथरी सुथरी फ़ज़ाओं में गुज़ारे।  शायद इसी माहौल का असर है कि इस नर्म गुफ्तार शायर के लह्जे पर हौले हौले चलने वाली नसीमे-सहरी का गुमां होता है।  ऐसा लगता है जैसे कोई तेज़ रौ कोहिस्तानी नदी मैदान के आग़ोश में पहुंच कर आहिस्ता ख़िरामी से अपने किनारों को इत्मीनान से सैराब-ओ-शादाब करती बह रही है।  'रहबर` की इब्तिदाई ग़ज़लों की ओट से उस का मुतबस्सिम चिहरा और खलिंदड़ापन झांकते हैं।  इन ग़ज़लों में वो एक नाज़ुक ख़याल और शाइस्ता शायर के रूप में ज़िंदगी का भरपूर तबस्सुम और ख़ाबनाक इम्बिसात लिये नमूदार होता है। उस के जमालियाती अश्आर में जहां पंजाब और हिमाचल की शोख़ मुटियारों के हाथों की महंदी और क़िर्मिज़ी रंग झिलमिलाते हैं वहां हुस्न-ओ-इश्क़ के राज़-ओ-नियाज़ की तस्वीर कशी में उन के जज्ब़ात आफ़ाक़ी हैं और अरज़ी।  वो उसी दुन्या की बात करता है जिस में वो सांस लेता है।  उस का मह्बूब गोश्त पोस्त का जीता जागता दिलफ़रेब इन्सानी पैकर है न कि कोई आस्मानी मख्ल़ूक़।  हिज्र-ओ-विसाल, कर्ब-ओ-निशात उस इश्क़ के लाज़िमी अनासिर हैं और इन कैफ़ीयात के इज़्हार में 'रहबर` का लब-ओ-लह्जा बिलकुल ताज़ा, शिगुफ़्ता और जदीद है लेकिन रिवायत के साथ भी उस का रिश्ता मज़्बूत है।  वो एक मुह्तात, ख़ुश सलीक़ा और वज़्अदार क़लमकार है।  उस की नज्म़ों और ग़ज़लों में सालिह जिघ्त आमेज़ी है।  यही वजह है कि उस की नज्म़ें नयी नस्ल को बिलख़ुसूस मुतास्सिर करती हैं।  हैयत और मवाद के ऐसे सिह्हत मंद-व-सालिह तज्रिबे जो शे`र-ओ-अदब के ईतिक़ा में मुआविन हों और जिन से अबलाग़ के मसाइल खड़े न हों,नक़काद और क़ारी दोनों से बे इख्त़ियार दाद-ओ-तह्सीन हासिल कर लेते हैं।  ऐसे तज्रिबों की राजेन्द्र नाथ 'रहबर` के हां कोई कमी नहीं।
    शायरी शिफ्ते-जज्ब़ात की देन होती है।  कोई जज्ब़ा या कैफ़ियत यकबारगी यूं उमड़ उमड़ कर सामने आती है जैसे सावन की घटा जो साअतों में उमडती और लम्हों में बरस पड़ती है।  शायर जिस शिद्दत के साथ किसी मर्ई या गै़र मर्ई पैकर से मुतआस्सिर होता है, अगर वो इसी सुर्अत के साथ अपने तास्सुर को शे`र का जामा पहना सकता है तो वो सच्चा और कामयाब फ़नकार कहलायेगा और ये अहलियत-व-सलाहियत दाख़लियत का किरिश्मा है।  शायर ने जब कभी दाख़िली मह्सूसात को ख़ारिजी असरात पर तर्जीह दी है, उस ने मुन्फ़रिद और आ`ला अदब तख्ल़ीक़ किया है।  इस की मिसाल 'मीर`, 'ग़ालिब` और 'नज़ीर` कैफ़ी` आज़मी, जिन्होंने अपने दौर की मरव्वजा रविश से हट कर अपनी ज़ात के गिर्द फैलने वाले हज़ारों रंगों को अपने दाख़िली मह्सूसात की गिरिफ्त़ में ले कर उस अंदाज़ से शे`र के पैकर में ढाला है कि वो हमारे ही दिल की बात मा`लूम होती है।  यही बात 'रहबर` के अश्आर में भी है।  इन अश्आर में कुछ नफ्स़याती तज्रिबे भी हैं और कुछ माद्दी कैफ़ियात भी. लड़कपन से जवानी की शाहराहों पर बढ़ते बढ़ते हालात की सख्त़ गिरिफ्त़, मुहब्बत की नाकामियों और वक्त़ के हाथों उठाई हुयी हर मुसीबत का तल्ख़ एहसास 'रहबर` की शायरी पर भी असर अंदाज़ होता दिखाई देता है।  यहां एक हल्के हल्के दर्द की रौ उस की शायरी के रग-ओ-पै में सरकती दिखाई देती है जो दिल में एक कसक सी पैदा करती है लेकिन इस कसक में भी एक बे-नाम सी लज्ज़त है।  यहां उस के मिज़ाज की वारफ्त़गी और दिल गिरिफ्त़गी लतीफ़ जज्ब़ात की कश्मकश के हमराह उस के अंदाज़ के कर्ब से क़ारी को रूशनास करवाती है।  लेकिन 'रहबर` की ग़ज़ल में जहां कहीं उदासी, नारसाई और नाआसूदगी की टीस झलकती है, झल्लाहट और उक्ताहट से उसे दूर का भी वासिता नहीं।  उस ने ज़िंदगी को एक चैलेंज नहीं बल्कि एक समझौते के तौर पर क़बूल किया है।  इस कैफ़ियत में उस के लह्जे में न करख्त़गी आयी है और न आवाज़ में दरश्तगी, बल्कि एक गुदाज़ और पुर क़नाअत गिला गुज़ारी है जो क़ारी को उस का हमदर्द-ओ-दमसाज़ बनाती है।  इज़्हारे-ज़ात और तज्रिबे की तरसील का ये अंदाज़ आप बीती को जग बीती में बदल देता है और बे इख्त़ियार उन ज़र्बात को अपने दिल पर पड़ता हुआ मह्सूस करता है। 

    राजेन्द्र नाथ 'रहबर` की नज्म़ों में भी ज़बान-ओ-बयान की वही सादगी और सलासत जल्वारेज़ है जो उस की ग़ज़लों को पुर कशिश बनाती है। उन नज्म़ों में वारदाते-दिल भी है और हालाते-हाज़िरा पर इज़्हारे-राय भी।  इन नज्म़ों में उन्होंने अपनी ज़ात के तवस्सुत से समाजी मसाइल और मआशी बदअतों की नौहा-गरी की है और उन ज़ियाद्तियों और कज फ़ह्मियों के नताइज का बे-बाकाना इज़्हार किया है।  इस अमल में उन का लह्जा कहीं कहीं एक भरपूर सदाए-एह्तिजाज में बदल जाता है क्यों कि उन मसाइल से शायर का नाता एक ख़ामोश तमाशाई या मुबस्सिर का नहीं बल्कि वो हर तजर्बे में शामिल नज़र आता है।  उन की नज्म़ ''अजमेर कौर`` को ही लीजिए।  जब ये नज्म़ ताज़ा ताज़ा लिक्खी गयी थी तो इस ने बड़ा तह्लका मचाया था, अदबी हल्क़ों में इस की क़ाबिले-रश्क पज़ीराई हुयी थी।  ये नज्म़ शायर की ज़िंदगी के पेच-ओ-ख़म के संग संग समाज के रिसते हुये नासूर की निशान-दिही करती है।  इस नज्म़ का नुक्त़ए-उरूज  क़ारी को न सिर्फ चौंकाता है बल्कि उस के दिल में यक बयक एक जज्ब़ए-तरह्हुम और हमदर्दी का सैलाब मौजज़न कर देता है।  इसी क़बील की एक और नज्म़ ''नादान बुज़ुर्ग`` जिस में 'रहबर`ने समाज की एक दुखती रग पर हाथ रक्खा है और नयी नस्ल और पुरानी नस्ल के फ़िक्री टकराव और जज्ब़ाती बग़ावत के असबाब की निशान-दिही की है।

    इसी तरह 'रहबर` की नज्म़ ''नई दुन्या`` अस्री कर्ब, सोज़-ओ-गुदाज़ से पूरी है।  ये मआशरे के अलमिया और इन्सानी मज्बूरियों पर एक चीख़ सी लगती है। 

    इन नज्म़ों के इलावा ''एक सवाल``, ''उसूल``, ''मुगा़लता``, ''ऐ वतन``,''गुफ्त़गू`` वगै़रह रहबर की कुछ निहायत पसंदीदा नज्म़ें हैं।  नज्म़ ''उसूल`` पर रायज़नी करते हुये आंजहानी प्रेम वार बर्टनी ने सहीह फ़रमाया था कि पांच मिस्रों की इस नज्म़ में पचास मिस्रों का तास्सुर है। लफ्ज़ों के इस्तेमाल में किफ़ायत भी अच्छी शायरी का एक वस्फ़ है। 
    नज्म़ हो चाहे ग़ज़ल 'रहबर` ने अपने इज़हारे-ख़याल के लिये साफ़,शुस्ता और सलीस ज़बान अपनाई है जो उस के इस एतिराफ़ को बर-हक़ ठहराती है.

    ये वक्त़ का तक़ाज़ा भी है।  उर्दू ज़बान को ज़िंदा रखने के लिये ये ज़रूरी है कि इसे अवाम के क़रीब-तर लाया जाये लिहाज़ा 'रहबर` भारी भरकम अल्फ़ाज़ के महल ता`मीर नहीं करता न ही वो ''अमेजरी`` को बतौर फ़ैशन इस्तेमाल करता है।  सादगी और नर्म गुफ्त़ारी के इस रवीये को उस ने अपने पूरे तख्ल़ीक़ी अमल में बर क़रार रक्खा है।  उस के शे`री मज्मूए ''कलस``, ''मल्हार``, ''और शाम ढल गई``, ''ज़ेबे-सुख़न``, ''तेरे ख़ुशबू में बसे ख़त``, ''याद आऊंगा``, वग़ैरह सभी इस अमर का सबूत हैं।
    शे`री लवाज़िम के इंतिख़ाब में 'रहबर` ने सलीस अल्फ़ाज़-ओ-तराकीब और मानूस इस्तआ`रात-ओ-अलाइम को तरसील का आलए-कार बनाया है। उस्तादे-सुख़न जनाब रतन पंडोरवी जैसे अज़ीम माहिरे-फ़न से शऱ्फे-तलम्मज़ हासिल होने के बाअस उस के कलाम में जहां सालिह और मो`तमिद कलासिकी की हिफ़ाज़त की गयी है, वहां तह्ज़ीबे-ग़ज़ल के लवाज़िम, सलासत, रवानी, ज़बान की शुस्तगी, जज्ब़े की आ`ला नस्बी,अस्लूब-ओ-लह्जा की तरहदारी, बंदिश की चुस्ती पूरी आब-ओ-ताब से जल्वागर हैं।  अपनी पूरी शायरी में 'रहबर` एक इन्सान दोस्त, शाइस्ता और पुर ख़ुलूस रूमानी शायर के रूप में उभर कर सामने आता है जो उर्दू के रौशन मुस्तक़बिल में कामिल एतिमाद रखता है

                    डॉ. शबाब ललित
                    बी.-१८६, सैक्टर-३
                    न्यू शिमला-१७१००९

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कुछ अपने बारे में

    मेरा जन्म क़स्बा शंकरगढ़ में हुआ जो इसी नाम की एक तह्सील का सद्र मक़ाम था।  मेरे पिता पं. त्रिलोक चंद वहां वकालत करते थे।  १९४७ ई. के मुल्की बटवारा में ज़िला गुरदासपुर (पंजाब) की ये तहसील पाकिस्तान को मिल गई तो दूसरे लाखों परिवारों की तरह हमारा परिवार भी आवार-ए-वतन हुआ और मैं अपने माता पिता और परिवार के दूसरे सदस्यों के साथ पठानकोट (भारत) आ गया।  मेरे पिता पठानकोट में वकालत करने लगे और हम लोग पठानकोट के हो गये।  अब मैं इसी को अपना वतने-सानी मानता हूं। पठानकोट के अह्ले-ज़ौक़, अह्ले-अदब अह्ले-नज़र अह्ले-इल्म और अह्ले-दिल दोस्तों से मुझे बहुत स्नेह मिला जिस के लिए मैं हमेशा अह्ले-पठानकोट का शुक्र-गुज़ार रहा हूं और रहूंगा।

    मैं ने हिन्दू कॉलेज अमृतसर से बी.ए., ख़ालसा कॉलेज अमृतसर से एम.ए. (अर्थ शास्त्र) और पंजाब यूनिवर्सिटी चण्डीगढ़ के डिपार्टमैंट ऑफ़ लॉज़ से एलएल.बी. के इम्तिहानात पास किये।     शायरी का शौक़ लड़कपन ही से दामनगीर हो गया था और ये ज़िंदगी के हर दौर में मेरा हमसफ़र रहा।  मेरे बरादरे-अक्बर श्री ईश्वर दत्त 'अंजुम`भी उर्दू के शायर हैं और देहली में रहते हैं।  मैं ने शायरी का फ़न पंजाब के उस्ताद शायर पं. 'रतन` पंडोरवी से सीखा जो प्रसिद्ध शायर अमीर मीनाई के चहेते शार्गिद, 'दिल` शाहजहानपुरी के शार्गिद थे।
    मेरी एक नज्म़ ''तेरे ख़ुशबू में बसे ख़त`` को विश्व व्यापी शोहरत नसीब हुई है।  ख़ुदा का हुक्म मुक़द्दर की मौज अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त ग़ज़ल गायक श्री जगजीत सिंह इस नज्म़ को अपनी देश विदेश में होने वाली महफ़िलों में १९८० ई. से अपनी मख़्मली आवाज़ में गाते चले आ रहे हैं और ये उन के कमो-बेश ३० से ज़ियादा ऑडियो कैसिट, ऑडियो सी.डी. और विडियो सी.डी. में शामिल है और ख़ुदाए-बुज़ुर्गो-बरतर के फ़ज्ल़ से इसे जो शोहरत हासिल हुई है वो साहिर लुधियानवी की नज्म़ ''ताजमहल`` और हफ़ीज़ जालंधरी की नज्म़ ''अभी तो मैं जवान हूं`` से किसी तरह कम नहीं।
    मेरा एक अनुभव है जो मैं अपने पाठकों के साथ सांझा करना चाहूंगा! कई बार ऐसा होता है कि शायर किसी और ख़याल से कोई शे`र कहता है किन्तु पाठक तक पहुंचते पहुंचते उस के अर्थ बदल जाते हैं!  पाठक अपने निजी हालात के अनुसार, अपनी शिक्षा दीक्षा के अनुसार उस का अर्थ निकालता है, जिसे शायर के फ़रिश्तों ने कभी सोचा भी नहीं होता। 

    उर्दू शायरी का मिज़ाज लड़कपन से ही आशिक़ाना रहा है इस लिए उर्दू शायरी के हिसाब से तो इस शे`र का अर्थ यही है कि एक प्रेमी अपनी प्रेमिका के द्वार पर सर धड़ की बाज़ी लगा कर बैठ गया है और उस का अनुरोध अपनी प्रेमिका से यही है कि द्वार पर आ कर मुझे दर्शन दो वरना मैं यहीं प्राण त्याग दूंगा।  किन्तु मुझे उस समय बड़ी हैरानी हुई जब मैं ने शिमला में एक ट्रेड यूनियन लीडर श्री पी. एल. झींगन जनरल सैक्ट्रेरी इण्डियन आडट एन्ड एकॉऊंट्स एसोसीएशन को देखा कि एक अफ्स़र के कमरे के बाहिर भूक हड़ताल पर बैठे हैं और बैनर पर वही शे`र लिखा हुआ है।

    या`नि मांगें पूरी होने पर ही भूक हड़ताल समाप्त करूंगा वरना यहीं प्राण त्याग दूंगा।
    इसी प्रकार मेरा एक और शे`र में एक आशिक़ अपनी महबूबा की बेवफ़ाई का गिला करता हुआ ख़ुशी कट जाता!  किन्तु उस समय मेरी हैरानी की इंतिहा न रही जब मैं ने दिल्ली से प्रकाशित होने वाले एक बड़े अंग्रेज़ी अख्ब़ार में एक महिला की फ़ोटो के नीचे यह शे`र छपा हुआ देखा और महिला की फ़ोटो के ऊपर IN
MEMORIAM लिखा हुआ था!  ज़ाहिर है पत्नी की मौत पर उस के पति ने उस की याद में उस की फ़ोटो के साथ यह शे`र छपवाया था!
    आख़िर में यही कहना चाहता हूं कि अगर मेरे पाठकों को इस ग़ज़ल संग्रह में से एक भी शे`र पसंद आता है तो मैं अपने आप को कामयाब समझूंगा।
    शुक्रिया और ख़ुदा हाफ़िज़!

                    राजेन्द्र नाथ 'रहबर`
          १०८५, सराए मुहल्ला,
            पठानकोट-१४५००१पंजाब

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राजेन्द्र नाथ 'रहबर` की प्रकाशित पुस्तकें

याद आऊंगा २००८ ई.
    ग़ज़ल संग्रह देवनागरी लिपि, ये पाठकों के हाथों में है
याद आउंगा २००६ ई.
    ग़ज़ल संग्रह फारसी लिपि
`तेरे ख़ुशबू में बसे ख़त २००३ ई.
    काव्य संग्रह देवनागरी लिपि
जेबे सुख़न १९९७ ई.
    काव्य संग्रह फारसी लिपि, पंजाब सरकार के भाषा विभाग ने इसे साल १९९७ की बैस्ट प्रिंटिड उर्दू बुक क़रार देते हुये इसे अवार्ड से नवाज़ा
.......और शाम ढल गई १९७८ ई.
    काव्य संग्रह फारसी लिपि, बिहार उर्दू अकाडमी की ओर से इस पर अवार्ड दिया गया
मल्हार १९७५ ई.
    कविता संग्रह देवनागरी लिपि
कलस १९६२ ई.
    कविता संग्रह फारसी लिपि, इस का दूसरा संस्करण १९६४ में प्रकाशित हुआ
आगो़शे-गुल १९६१ ई.
    हिमाचल प्रदेश के २२ उर्दू शायरों का प्रसंग फारसी लिपि
अनुक्रम

जब मुझे भूलना चाहोगे तो याद आउंगा
मेरे ख़याल सा है मेरे ख़ाब जैसा है
जगजीत की आवाज़ में ग़ालिब की ग़ज़ल
दिल ने जिसे चाहा हो क्या उस से गिला रखना
उसूल
दिल को जहान भर के मुहब्बत में ग़म मिले
तेरे ख़ुशबू में बसे ख़त
एक विद्यार्थी की आरज़ू
क्या ग़रीबों का भी ख़ुदा है कोई
डॉलर के लिये अपना वतन छोड़ रहा है
भला ऐसी भी आख़िर बे रुख़ी क्या
नई दुन्या्
कौन किसी का मीत पपीहे
क्या क्या सवाल मेरी नज़र पूछती रही
आज वो हम को हमारे सारे ख़त लौटा गये
मर्क़जे़-हर निगाह बन जाओ
ये कैसी चारागरी है इलाज कैसा है
उस को लाये कहां से अब कोई
ख़ुद बतायेगा नक्श़े-क़दम रास्ता
शाम कठिन है रात कड़ी है
करते रहेंगे हम भी ख़ताएं नई नई
मुक़ाबिल से कभी हंस कर गुज़र जा
बे सबब ही उदास हो जाना
तह्जीब हो न जाये नीलाम बस्तियों में
दिल मिरा वाक़िफ़ न था अंजाम से
इक आग तन बदन में लगाती है चांदनी
रौशनी का सुराग़ ग़ाइब है
तभी हो सकूंगा मैं सुर्ख़रू, जो लहू में अपने नहा सकूं
ऐ वतन
तुम उधर और हम इधर तन्हा
कुछ मनचले फ़क़ीर के डेरे चले गये
लिखा होता मिरी क़िस्मत में ऐ मेरे ख़ुदा उसको
तुझ से बिछुड़ कर मैं ने बरसों अश्क बहाये सोग मनाया
हम हैं यारों एक पंछी डार से बिछुड़े हुये
अपना डेरा फ़क़ीर छोड़ गये
ये भीगी शाम है इस को न टालिये साहिब
अंजाम से वाक़िफ़ है मगर झूम रहा है
याद न क्या आयेगी बस्ती
कभी हमारे लिये थीं मुहब्बतें तेरी
छिले हैं पैर कभी मख़्मलों की बस्ती में
मुहब्बत कर के पछताना पड़ा है
पैरों में खटकते हैं अभी ख़ार पुराने
सबाहतें भी हैं क़ुर्बां वो सांवला पन है
तुम मेरे दिल से जा नहीं सकते
नज़रें मिलीं न होंट हिले बात हो गई.
हमारे हाल पर हम को ख़ुदारा छोड़ देना
महताब नहीं निकला सितारे नहीं निकले.
सर को वो आस्तां मिले न मिले
बरसती आग से कुछ कम नहीं बरसात सावन की
हम किसी रोज़ तेरे दिल में समा कर देखें
आया न मेरे हाथ वो आंचल किसी तरह
नसीमे-सुब्ह का झोंका इधर नहीं आया
शाख़ से गुल को तोड़ के लाना कोई अच्छी बात नहीं है
चांद को पानी पानी कर दो
दर्द ही को दर्द की आख़िर दवा हम ने कहा
हम ने कब अपने लिये कोई दुआ मांगी है
ख़यालों पर कोई छाया हुआ है
मैं ने तिरी आंखों में वो बात भी पढ़ ली है
किस का है इंतिज़ार
खिले हुये हैं अभी चंद फूल शाख़ों पर
दिल ने भी किस से लौ लगाई है
खिंच गई है दो दिलों के दरमियां दीवार सी
कोई चिराग़ की सूरत जला है कमरे में
ये कुल निज़ाम तुम्हारा तवाफ़ करता है
हज़ार बार तुम उभरे मेरे ख़यालों में
कोई जीना है जीना ऐ सनम तुझ से जुदा हो कर
फ़क़त रह जायेंगे ज़र्रात बाक़ी
लेकिन दिल में दर्द बड़े हैं
आप अपना जवाब हैं हम लोग
मेरे कानों में कुछ चुपके से कह जाता रहा आंचल
वो मुझे जिस रंग में रखता है जी लेता हूं मैं
पानी तो अब सरों से निकलने लगा है यार
किस को ऐ दिल याद करे है
क्या क्या हैं दिल को तुम से शिकायात इन दिनों
कर लिया कुर्क ग़रीबों का मुक़द्दर किसने
न ला सकोगे हमारी मिसाल फिर कोई
खिला है फूल तो वो चिहरा याद आया है
चंद यादों को कलेजे से लगाये रखना.
हमें भी ले चलो हमराह अपने
बुलबुल के ज़मज़मे हैं
रौशनियों का मेला आया
गुफ्तगू.
क़तए
तुम फ़क़ीरों की शरण में कभी आओ तो सही
तेरे हाथ को थामना चाहता हूं
बदला
वो नज़र बदगुमां सी लगती है
मुझ में उतना हौसिला है जितना परवाने में है
मुझे राहत मिले उन से बिछुड़ कर हो नहीं सकता
आह! मीना कुमारी
कब से प्यासा हूं मिरी प्यास बुझा दे साक़ी
ज़माने की हक़ीक़त दर हक़ीक़त चार दिन की है
तेरी नज़रों से गिर गया हूं मैं
हौसिले देखिये मेरे दिल के
लीजिये जीने की सूरत हो गई
किस बशर से ख़ता नहीं होती
आप की हर ख़ुशी मुक़द्दम है
हर ख़ुशी मेरी हम-सफ़र होगी
गणतंत्र दिवस
मुतफ़र्रिक़ अशआर

राजेन्द्र नाथ 'रहबर` की शायरी पर मशाहीर१ का इज़हारे-ख्य़ाल

जनाब अली सरदार जा`फ़री साहिब
ज्ञानपीठ अवार्ड विजेता

ब्रादरम्! तसलीम

    आप की किताब ज़े़बे-सुख़न का नुस्ख़ा२ मिला, शुक्रिया!
    ऐसी अच्छी, साफ़ सुथरी, दिलकश और दिलावेज़ शायरी पर मुबारक बाद क़बूल कीजिए!

                    दुआ गो,
    मुम्बई                सरदार जाफ़री

        जनाब शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी साहिब

ब्रादरम् राजेन्द्र नाथ रहबर साहिब!
तसलीमात वा आदाब !

    आप के कलाम१ में जो मश्शाक़ी२ और उस्तादाना रवानी है उस से दिल बहुत मुतआस्सिर हुआ।  मुझे (प्रो. प्रेम कुमार) नज़र ने बताया कि आप ने उस दयार के कई शायरों के अदबी ज़ौक़ की तर्बियत की है।  ये बात मेरे लिये और ख़ुशी का बाइस हुई।  अब ऐसे लोग कम रह गए हैं जो अपनी फ़न्नी महारत से दूसरों को इस्तिफ़ादा३ करने का मौक़ा फ़राहम कर सकें।

    उम्मीद कि मिज़ाज बखै़र होगा!

                आप का
    इलाहाबाद        शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी
                (के. के. बिरला फ़ाउंडेशन के सरस्वती सम्मान से सम्मानित)

जनाब काली दास गुप्ता रिज़ा
(माहिर-ए-ग़ालिबियात)`

    शे`री मज्मूआ 'ज़ेब-ए-सुख़न`` मेरे पेश-ए-नज़र है।  ये मेरी जनम भूम या`नी पंजाब के एक कुहना-मश्क़ उर्दू शायर की तस्नीफ़१ है। लब-ए-शौक़ से इसे बोसा२ दिया और सर आंखों से लगाया।  बेहद मसर्रत हुई कि आज भी हमारे हिस्से के बचे खुचे पंजाब में कुछ जियाले मौजूद हैं जो उर्दू ज़बान को गले लगाए बैठे हैं और जवाहिर उगल रहे हैं।
    किताब की वर्क-गर्दानी३ से मालूम हुआ कि जनाब राजेन्द्र नाथ 'रहबर` शे`र ही नहीं कहते बल्कि कहने की तरह शे`र कहते हैं।  ज़बान साफ़ सुथरी,मुहावरे और रोज़-मर्रे से आरास्ता४, कहीं आमियाना-पन५ नहीं और सब
से बढ़ कर ये कि बा-मा`नी।
        हैरत है कि पठानकोट ऐसे उर्दू से ना-ख़ांदा९ इलाक़े में भी आप उर्दू के गुलज़ार खिला रहे हैं ।

                    मुख़लिस
    मुम्बई                 काली दास गुप्ता रिज़ा   

भाषा विभाग पंजाब सरकार, पटियाला
(सम्मान पत्र)

    पिछले पांच दशकों से निरंतर काव्य साधना करने वाले जनाब राजेन्द्र नाथ 'रहबर` का उर्दू काव्य जगत में विशेष स्थान है।  अबुल-बलागत़ पं. रतन पंडोरवी के लाइक़ शार्गिद के रूप में अपना शे`री सफ़र शुरू करने वाले श्री 'रहबर` अब ख़ुद रेख्त़ा (उर्दू का प्राचीन नाम) के कामिल उस्ताद का दर्जा हासिल कर चुके हैं।  आप की रचनाएं जहां कला पक्ष से जीवन और सादगी का ख़ूबसूरत मुजस्समा (प्रतिमा) हैं वहां विषय पक्ष से इन्सानी ज़मीर की आवाज़ भी हैं। आसान और सादा शब्दों में बे-हद गम्भीर ख़यालात के इज़हार में महारत रखने वाले जनाब 'रहबर` की काव्य-कृतियां जीवन की मूल वास्तविकता, नैतिक क़द्रों क़ीमतों और इन्सानी रिश्तों का दर्पण हैं।
आप की तहरीरें बहते पानियों को आग लगाने वाली ही नहीं बल्कि इन्सानी रगों में दौड़ रहे ख़ून को भी हरारत प्रदान करती हैं। आप की शायरी महबूब की ज़ुल्फ़ों की असीर नहीं बल्कि यह नए और मौलिक अंदाज़ में आधुनिक इन्सान को दर-पेश समस्याओं और मानसिक तनावों का सार्थक विश्लेषण भी है।
    समूह साहित्यिक जगत को, समाज की सेहतमन्द रहनुमाई करने वाले ऐसे अदबी रहबर पर गर्व है।

    पठानकोट            भाषा विभाग पंजाब
    २१.४.२००१
           

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आइना सामने रक्खोगे तो याद आऊंगा
अपनी ज़ुल्फ़ों को सँवारोगे तो याद आऊंगा
रंग कैसा हो, ये सोचोगे तो याद आऊंगा
जब नया सूट ख़रीदोगे तो याद आऊंगा
भूल जाना मुझे आसान नहीं है इतना
जब मुझे भूलना चाहोगे तो याद आऊंगा
ध्यान हर हाल में जाये गा मिरी ही जानिब
तुम जो पूजा में भी बैठोगे तो याद आऊंगा
एक दिन भीगे थे बरसात में हम तुम दोनों
अब जो बरसात में भीगोगे तो याद आऊंगा
चांदनी रात में, फूलों की सुहानी रुत में
जब कभी सैर को निकलोगे तो याद आऊंगा

जिन में मिल जाते थे हम तुम कभी आते जाते
जब भी उन गलियों से गुज़रोगे तो याद आऊंगा
याद आऊंगा उदासी की जो रुत आयेगी
जब कोई जश्न मनाओगे तो याद आऊंगा
शैल्फ़ में रक्खी हुई अपनी किताबों में से
कोई दीवान१ उठाओगे तो याद आऊंगा
शम्अ की लौ पे सरे-शाम सुलगते जलते
किसी परवाने को देखोगे तो याद आऊंगा
जब किसी फूल पे ग़श२ होती हुई बुलबुल को
सह्ने-गुल्ज़ार में देखोगे तो याद आऊंगा
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मेरे ख़याल सा है, मेरे ख़ाब जैसा है
तुम्हारा हुस्न महकते गुलाब जैसा है
मैं बंद आंखों से पढ़ता हूं रोज़ वो चिह्न
जो शायरी की सुहानी किताब जैसा है
नहीं है कोई ख़रीदार अपना दुनिया में
हमारा हाल भी उर्दू किताब जैसा है
ये जिस्मो-जां के घरौंदे बिगड़ने वाले हैं
वुजूद सब का यहां इक हबाब१ जैसा है
वो रोज़ प्यार से कहते हैं हम को दीवाना
ये लफ्ज़ अपने लिए इक ख़िताब२ जैसा है
ये पाक साफ़ भी है, और है मुक़द्दस३ भी
हमारा दिल भी तो गंगा के आब जैसा है
जो लोग रखते हैं दिल में कदूरतें अपने
उन्हें न मिलना भी कारे-सवाब४ जैसा है
तुम्हें जो सोचें तो होता है कैफ़५ सा तारी६
तुम्हारा ज़िक्र भी जामे-शराब जैसा है
किये हैं काम बहुत ज़िंदगी ने लाफ़ानी७
सफ़र हयात का गो इक हबाब जैसा है
खड़े हैं कच्चा घड़ा ले के हाथ में हम भी
नदी का ज़ोर भी 'रहबर` चिनाब जैसा है
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तुम जन्नते कश्मीर हो तुम ताज महल हो
'जगजीत`१ की आवाज़ में ग़ालिब की ग़ज़ल हो
हर पल जो गुज़रता है वो लाता है तिरी याद
जो साथ तुझे लाये कोई ऐसा भी पल हो
होते हैं सफल लोग मुहब्बत में हज़ारों
ऐ काश कभी अपनी मुहब्बत भी सफल हो
उलझे ही चला जाता है उस ज़ुल्फ़ की मानिन्द
ऐ उक़दा-ए-दुशवारे मुहब्बत२ कभी हल हो
लौटी है नज़र आज तो मायूस हमारी
अल्लह करे दीदार तुम्हारा हमें कल हो
मिल जाओ किसी मोड़ पे इक रोज़ अचानक
गलियों में हमारा ये भटकना भी सफल हो
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दिल ने जिसे चाहा हो क्या उस से गिला रखना
उस के लिये होंटों पर हर वक्त़ दुआ रखना
जब क़िस्मतें बटती थीं ऐसा भी न था मुश्किल
उस वक्त़ सनम तुझ को क़िस्मत में लिखा रखना
जब हम ने अज़ल१ ही से तय एक डगर कर ली
फिर रास न आयेगा राहों को जुदा रखना
वो नींद के आलम से बेदार२ न हो जायें
हौले से क़दम अपना ऐ बादे-सबा३ रखना
आयेगा कोई भंवरा रस चूसने फूलों का
तुम फूल तबस्सुम४ के होंटों पे खिला रखना

आयेंगे वो ऐ 'रहबर` सो जायेगी जब दुनिया
पत्तों की भी आहट पर तुम कान लगा रखना
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उसूल

फ़र्क  है तुझ में, मुझ में बस इतना,
तू ने अपने उसूल की ख़ातिर,
सैंकड़ों दोस्त कर दिए क़ुर्बां,
और मैं! एक दोस्त की ख़ातिर,
सौ उसूलों को तोड़ देता हूं।
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दिल को जहान भर के मुहब्बत में गम़ मिले
कमबख्त़ फिर भी सोच रहा है कि कम मिले
रोई कुछ और फूट के बरसात की घटा
जब आंसुओं में डूबे हुए उस को हम मिले
कुछ वक्त़ ने भी साथ हमारा नहीं दिया
कुछ आप की नज़र के सहारे भी कम मिले
आंखें जिसे तरसती हैं आये कहीं नज़र
दिल जिस को ढूंडता है कहीं वो सनम मिले
बे-इख्त़ियार१ आंखों से आंसू छलक पड़े
कल रात अपने आप से जिस वक्त़ हम मिले
जितनी थीं मेरे वास्ते खुशियां मुझे मिलीं
जितने मेरे नसीब में लिक्खे थे ग़म मिले
फ़ाक़ों से नीम-जान, फ़सुर्दा, अलम-ज़दा१
ग़म से निढाल, हिन्द के अह्ले-क़लम२ मिले
कुछ तो पता चले कहां जाते हैं मर के लोग
कुछ तो सुरागे़-राह-रवाने-अदम३ मिले
खोया हुआ है आज भी पस्ती४ में आदमी
मिलने को उस के चांद पे नक्श़े-क़दम५ मिले
'रहबर` हम इस जनम में जिसे पा नहीं सके
शायद कि वो सनम हमें अगले जनम मिले
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तेरे ख़ुशबू में बसे ख़त मैं जलाता कैसे
यार की आख़िरी पूंजी भी लुटा आया हूं
अपनी हस्ती को भी, लगता है, मिटा आया हूं
उम्र भर की जो कमाई थी, गंवा आया हूं
तेरे ख़त आज मैं गंगा में बहा आया हूं
आग बहते हुये पानी में लगा आया हूं
तूने लिक्खा था जला दूं मैं तिरी तहरीरें१
तू ने चाहा था जला दूं मैं तिरी तस्वीरें
सोच लीं मैंने मगर और ही कुछ तदबीरें२
तेरे ख़त आज मैं गंगा में बहा आया हूं
आग बहते हुये पानी में लगा आया हूं
तेरे ख़ुशबू में बसे ख़त मैं जलाता कैसे
प्यार में डूबे हुये ख़त मैं जलाता कैसे
तेरे हाथों के लिखे ख़त मैं जलाता कैसे
तेरे ख़त आज मैं गंगा में बहा आया हूं
आग बहते हुये पानी में लगा आया हूं
जिन को दुन्या की निगाहोंं से छुपाये रक्खा
जिन को इक उम्र कलेजे से लगाये रक्खा
दीन१ जिन को, जिन्हें ईमान बनाये रक्खा
जिन का हर लफ्ज मुझे याद था पानी की तरह
याद थे मुझ को जो पैगा़मे-ज़ुबानी२ की तरह
मुझ को प्यारे थे जो अन्मोल निशानी की तरह
तू ने दुन्या की निगाहों से जो बच कर लिक्खे
सालहा-साल३ मेरे नाम बराबर लिक्खे
कभी दिन में तो कभी रात को उठ कर लिक्खे
तेरे रूमाल, तेरे ख़त, तेरे छल्ले भी गये
तेरी तस्वीरें, तेरे शोख़ लिफ़ाफ़े भी गये
एक युग ख़त्म हुआ युग के फ़साने भी गये
तेरे ख़त आज मैं गंगा में बहा आया हूं
आग बहते हुये पानी में लगा आया हूं
कितना बेचैन उन्हें लेने को गंगा जल था
जो भी धारा था उन्हीं के लिये वो बेकल४ था
प्यार अपना भी तो गंगा की तरह निर्मल था
तेरे ख़त आज मैं गंगा में बहा आया हूं
आग बहते हुये पानी में लगा आया हूं
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एक विद्यार्थी की आरज़ू

मेरे स्कूल मैं यह हमेशा दुआ करूं
अगले जनम में भी तिरा विद्यार्थी बनूं
छोटे से मेरे पांव हों और रास्ता तिरा
बस्ता उठा के मैं तिरी जानिब चला करूं
कण कण में तेरे इल्मो-अदब का निवास है
आंगन में तेरे इल्म के मोती चुना करूं
उस्ताद साहिबान से इज्ज़त से आऊं पेश
सहपाठियों को याद हमेशा किया करूं
तौफ़ीक़१ यह अता२ करे मेरा ख़ुदा मुझे
अध्यापकों के क़दमों में हर दम झुका रहूं
मेरे स्कूल मुझ को यह आशीर्वाद दे
जो रास्ता हो नेक मैं उस रास्ते चलूं
अफ्स़र बनूं, खिलाड़ी बनूं या शहीदे-क़ौम
दम तेरी अज़्मतों१ का हमेशा भरा करूं
लब मेरे वक्फ२ हों तिरी ता`रीफ़ के लिये
गुण गान मैं जहान में तेरा किया करूं

मुझ पर निसार इल्मो-अदब की हों दौलतें
मैं फ़ख़्रे-अह्ले-दानिशो-इल्मो-हुनर३ बनूं
होने से मेरे हर सू उजाला हो देश में
राहे-वतन में शम्अ की सूरत जला करूं
रौशन करूं मैं नाम तिरा ऐ मेरे स्कूल
ऊंचा रहे मक़ाम तिरा ऐ मेरे स्कूल
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ईद का चांद हो गया है कोई
जाने किस देस जा बसा है कोई
पूछता हूं मैं सारे रस्तों से
उस के घर का भी रास्ता है कोई
एक दिन मैं ख़ुदा से पूछूं गा
क्या ग़रीबों का भी ख़ुदा है कोई
इक मुझे छोड़ के वो सब से मिला
इस से बढ़ के भी क्या सज़ा है कोई
दिल में थोड़ी सी खोट रखता है
यूं तो सोने से भी खरा है कोई
वो मुझे छोड़ दे कि मेरा रहे
हर क़दम पर ये सोचता है कोई
हाथ तुम ने जहां छुड़ाया था
आज भी उस जगह खड़ा है कोई
फिर भी पहुंचा न उस के दामन तक
ख़ाक बन बन के गो उड़ा है कोई
तुम भी अब जा के सो रहो 'रहबर`
ये न सोचो कि जागता है कोई
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जो शख्स़ भी तह्जीीबे-कुहन१ छोड़ रहा है
वो अपने बुज़ुर्गों का चलन छोड़ रहा है
अल्लाह निगहबान! मिरा लाडला बेटा
'डॉलर` के लिये अपना वतन छोड़ रहा है
शायद कि वो कांधा भी तुझे देने न पहुंचे
तू जिन के लिये अपना ये धन छोड़ रहा है
ये तर्क२ की है कौन सी मंज़िल या रब
दुन्या की हर इक चीज़ को मन छोड़ रहा है
उर्यानी३ का वो दौर मआज़ अल्लाह४ है जारी
मुर्दा भी यहां अपना कफ़न छोड़ रहा है

मीज़ाइलें, रॉकिट, कभी बौछार बमों की
क्या क्या नहीं धरती पे गगन छोड़ रहा है
आओ कि सलाम अपना गुज़ार आयें रफ़ीक़ो५
इक शायरे-ख़ुश-फ़िक्र६ वतन छोड़ रहा है
इस्टेज के अशआर पे रखते हैं नज़र हम
हम फ़न को तो 'रहबर` हमें फ़न छोड़ रहा है
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भला ऐसी भी आख़िर बेरुख़ी क्या
न देखोगे हमारी बेबसी क्या
तमाशाई१ हुये जाते हैं रुख्स़त२
ये रौनक़ है जहां की आरज़ी३ क्या
नवाजेंगे तुम्हें हम मयकदे में
सुनोगे तुम हमारी शायरी क्या
जो मेला देखने आ ही गये हो
यहां से फिर गुज़रना सरसरी क्या
बहुत ऊंचा मुक़द्दर है तुम्हारा
तुम्हारे साथ है वो सुन्दरी क्या
न गुज़रोगे इधर से क्या किसी दिन
न देखोगे हमारी बेकसी क्या
थे सिक्के हम किसी बीती सदी के
नई हम को सदी पहचानती क्या
हमारी दोस्ती तो तुम ने देखी
न देखोगे हमारी दुश्मनी क्या
किसी दिन पूछ ही लूं उस से 'रहबर`
करोगे साथ मेरे दोस्ती क्या
नई दुन्या----

दिले-मजबूर तू मुझ को किसी ऐसी जगह ले चल
जहां महबूब महबूबा से आज़ादाना१ मिलता हो
किसी का नर्म-ओ-नाज़ुक हाथ अपने हाथ में ले कर
निकल सकता हो बे-खटके कोई सैरे-गुलिस्तां को
निगाहों के जहां पहरे न हों दिल के धड़कने पर
जहां छीनी न जाती हो ख़ुशी अह्ले-मुहब्बत२ की
जहां अर्मां भरे दिल ख़ून के आंसू न रोते हों
जहां रौंदी न जाती हो हंसी अह्ले-मुहब्बत की

जहां जज़्बात३ अह्ले-दिल के४ ठुकराये न जाते हों
जहां बाग़ी५ न कहता हो कोई ख़ुद्दार इन्सां६ को
जहां बरसाये जाते हों न कोड़े ज़िह्ने-इन्सां पर७
ख़यालों को जहां ज़ंजीर पहनाई न जाती हो!
कहां तक ऐ दिले-नादां क़ियाम८ ऐसे गुलिस्तां में
जहां बहता हो ख़ूने-गर्मे-इन्सां९ शाहराहों१० पर
दरिन्दों की जहां चांदी हो, ज़ालिम दनदनाते हों
झपट पड़ते हों शाहीं१२ जिस जगह कमज़ोर चिड़ियों पर
दिले-मजबूर तू मुझ को किसी ऐसी जगह ले चल
जहां महबूब महबूबा से आज़ादाना मिलता हो
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यही है जग की रीत पपीहे
कौन किसी का मीत पपीहे
किस की ख़ातिर तू गाता है
ये मन मोहक गीत पपीहे
इस जंगल में कौन सुने गा
तेरा ये संगीत पपीहे
सुब्ह सवेरे छेड़ न देना
कोई विरह का गीत पपीहे
दुन्या में बस दो ही गायक
इक तू इक 'जगजीत`१ पपीहे
किस को बुलाता है तू निस दिन
कौन है तेरा मीत पपीहे
पी को पुकारे, पी को ढूंडे
तेरा इक इक गीत पपीहे
सब को गाना है दुन्या में
अपना अपना गीत पपीहे
कितनी सदियों से जारी है
तेरा ये संगीत पपीहे
मिल जायेगा इक दिन तुझ को
तेरा बिछड़ा मीत पपीहे
ख़त्म न होगा तेरा गाना
जायेंगे युग बीत पपीहे
गाता जा तू सांझ सवेरे
तेरी होगी जीत पपीहे
      १
तेरी हस्ती, तेरा जीवन
एक निरंतर गीत पपीहे
'पी` की लगन में गाते जाना
होना मत भयभीत पपीहे

मिल के पुकारें पी को हम तुम
मिल कर गायें गीत पपीहे
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क्या क्या सवाल मेरी नज़र पूछती रही
लेकिन वो आंख थी कि बराबर झुकी रही
मेले में ये निगाह तुझे ढूँढ़ती रही
हर महजबीं१ से तेरा पता पूछती रही
जाते हैं नामुराद२ तेरे आस्तां३ से हम
ऐ दोस्त फिर मिलेंगे अगर ज़िंदगी रही
आंखों में तेरे हुस्न के जल्वे बसे रहे
दिल में तेरे ख़याल की बस्ती बसी रही
इक हश्र४ था कि दिल में मुसलसल बरपा  रहा५
इक आग थी कि दिल में बराबर लगी रही
मैं था, किसी की याद थी, जामे-शराब था
ये वो निशस्त६ थी जो सहर७ तक जमी रही
शामे-विदा-ए-दोस्त८ का आलम न पूछिये
दिल रो रहा था लब९ पे हंसी खेलती रही
खुल कर मिला न जाम ही उस ने कोई लिया
'रहबर` मेरे ख़ुलूस१० में शायद कमी रही
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फेर कर मुंह आप मेरे सामने से क्या गये
मेरे जितने क़हक़हे थे आंसुओं तक आ गये
ये इशारा है किसी आते हुये तूफ़ान का
आज वो हम को हमारे सारे ख़त लौटा गये
अब बहार आये न आये, क्या ग़रज़ इस से हमें
मुस्कुराहट से हज़ारों फूल वो बरसा गये
जा रहे थे हम तो अपनी धुन में मंज़िल की तरफ़
ले के तुम नज़रानए-दिल रास्ते में आ गये
आओ हम सब मिल के भेजें उन शहीदों पर सलाम
जो वतन के वासिते मैदान में काम आ गये
हम को भी खिलना था इक दिन बांटनी थीं ख़ुशबुयें
हम हवाए-गर्मे-दुन्या से मगर मुर्झा गये
वो समंदर था, बुझाता था वो सहराओं की प्यास
पास उस के कितने तश्ना-लब१ गये, सहरा गये
कुछ तो उन में ख़ूबियां थीं, कुछ तो उन में वस्फ़२ थे
ज़िंदगी में अपने क़द से लोग जो ऊंचा गये
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मर्क़जे-हर१ निगाह बन जाओ
दोस्तो ख़िज़्रे-राह२ बन जाओ
थाम लो हाथ बे सहारों का
उन की जाए-पनाह३ बन जाओ
जिस में आ कर मिलें सभी राहें
तुम वही शाहराह बन जाओ
झूट से तोड़ कर सभी रिश्ते
एक सच्चे गवाह बन जाओ
बे-हिसी४ से न वासिता रखना
आह बन जाओ वाह बन जाओ
हक़ परस्ती५ के, हक़ शनासी६ के
दिल से तुम खै़र-ख्व़ाह७ बन जाओ

सब से बढ़ कर चमक दमक रक्खो
तुम सितारों में माह बन जाओ
जो सभी दुश्मनों पे भारी पड़े
हिन्द की वो सिपाह१ बन जाओ
दर पे साइल२ करे जो आ के सदा
उस घड़ी बे-पनाह बन जाओ
कुछ न आये नज़र बजुज़ मह्बूब३
एक आशिक़ की चाह बन जाओ

एक दुन्या तुम्हें सलाम करे
सच की आमाजगाह४ बन जाओ
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ये कैसी चारागरी१ है इलाज कैसा है
पिला के ज़हर कहे है मिज़ाज कैसा है
ये मानता हूं तिरा कल था ताबनाक२ बहुत
मगर ये गौ़र भी कर तेरा आज कैसा है
जो कोई खाता है करता है ज़हर-अफ्श़ानी३
हमारे अह्द४ का यारों अनाज कैसा है
बदल के भेस महल से निकल कभी शब५ को
जो देखना है तिरा राम राज कैसा है
मैं सोचता हूं उन्हें क्या जवाब दूं 'रहबर`
वो पूछते हैं तुम्हारा मिज़ाज कैसा है
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क्या करे एतिबार अब कोई
रूठ जाये न जाने कब कोई
वो तो ख़ुशबू का एक झोंका था
उस को लाये कहां से अब कोई
क्यों उसे हम इधर उधर ढूंढे
दिल ही में बस रहा है जब कोई
वो हसीं१ कौन था, कहां का था
पूछ लेता हसब-नसब२ कोई
प्यार से हम को कह के दीवाना
दे गया इक नया लक़ब३ कोई
आज दिन क़हक़हों में गुज़रा है
रो के काटेगा आज शब४ कोई
उस से क्या अपनी दोस्ती 'रहबर`
वो समझता है ख़ुद को रब कोई
----
तय करें मिल के हम तुम ब`हम१ रास्ता
बढ़ के ले गा हमारे क़दम२ रास्ता
         १
कौन गुज़रा है आहों में डूबा हुआ
हो गया किस के अश्कों से नम३ रास्ता
लम्से-अव्वल४ तेरे पांव का जब मिला
हो गया और भी मुहतरम५ रास्ता
राहे-उल्फ़त के पुर-जोश राही हैं हम
चूमता है हमारे क़दम रास्ता
ख़ुद-बख़ुद आयेंगी मंज़िलें सामने
ख़ुद बतायेगा नक्श़े-क़दम६ रास्ता
हम भी पहुँचें सरे-मंज़िले-सरख़ुशी७
दे अगर हम को शामे-अलम८ रास्ता
ये सफ़र, ये हसीं शाम ये घाटियां
कितना दिलकश९ है पुर-पेचो-ख़म१० रास्ता
क्यों न 'रहबर` चलूं मंज़िलों मंज़िलों
मेरी तक्द़ीर में है रक़म रास्ता
----

शाम कठिन है रात कड़ी है
आओ कि ये आने की घड़ी है
वो है अपने हुस्न में यकता१
देख कहां तक्द़ीर लड़ी है
मैं तुम को ही सोच रहा था
आओ तुम्हारी उम्र बड़ी है
काश कुशादा२ दिल भी रखता
जिस घर की दह्लीज़३ बड़ी है
फिर बिछड़े दो चाहने वाले
फिर ढोलक पर थाप पड़ी है
वो पहुंचा इम्दादी बन कर
जब जब हम पर भीड़ पड़ी है
शहर में है इक ऐसी हस्ती
जिस को मिरी तक्लीफ़ बड़ी है
हंस ले 'रहबर` वो आये हैं
रोने को तो उम्र पड़ी है
----

करते रहेंगे हम भी ख़ताएं१ नई नई
तज्वीज़२ तुम भी करना सज़ाएं नई नई
जब भी हमें मिलो ज़रा हंस कर मिला करो
देंगे फ़क़ीर तुम को दुआएं नई नई
दुन्या को हम ने गीत सुनाये हैं प्यार के
दुन्या ने हम को दी हैं सज़ाएं नई नई
ये जोगिया लिबास, ये गेसू३ खुले हुए
सीखीं कहां से तुम ने अदाएं४ नई नई
तुम आ गये बहार सी हर शय पे छा गई
मह्सूस हो रही हैं फ़ज़ाएं५ नई नई
आंखों में फिर रहे हैं मनाज़िर६ नऐ नऐ
कानों में गूंजती हैं सदाएं७ नई नई
गुम हो न जायें मंज़िलें गर्दो-गु़बार८ में
रहबर नये नये हैं दिशाएं नई नई
जब शायरी हुई है वदीअत९ हमें तो फिर
गज़लें जहां को क्यों न सुनाएं नई नई
'रहबर` कुदूरतों१० को दिलों से निकाल कर
हम बस्तियां वफ़ा की बसाएं नई नई
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सफ़र को छोड़ कश्ती से उतर जा
किसी तन्हा जज़ीरे पर ठहर जा
हथेली पर लिये सर को गुज़र जा
जो जीने की तमन्ना है तो मर जा
मुक़ाबिल से कभी हंस कर गुज़र जा
मेरे दामन को भी फूलों से भर जा
नई मंज़िल के राही, जाते जाते
सब अपने गम़ हमारे नाम कर जा
ये बस्ती है हसीनों की, यहां से
किसी आवारा बादल सा गुज़र जा
बरस जा दिल के आंगन में किसी दिन
ये धरती भी कभी सेराब१ कर जा
तू ख़ुशबू है तो फिर क्यों है गुरेज़ां२
बिखरना ही मुक़द्दर है बिखर जा
ज़माना देखता रह जाये तुझ को
जहां में कोई ऐसा काम कर जा
इधर से आज वो गुज़रेंगे 'रहबर`
तू ख़ुशबू बन के रस्ते में बिखर जा
----

बे-सबब ही उदास हो जाना
किस ने दिल के मिज़ाज को जाना
वो मिरा ढूंढना तुझे हर सू१
वो तिरा इस जहां में खो जाना
आंसुओं एक दिन रवां हो कर
आसियों२ के गुनाह धो जाना
अह्दे-हाज़िर३ के नेक इन्सानों
बीज तुम नेकियों के बो जाना
गम़ की फुंकारती हुई नागिन
एक शब४ मेरे साथ सो जाना
आ के ऐ यादेऱ्यार निश्तर५ सा
रगे-एहसास६ में चुभो जाना
हम को आता है ये भी फ़न 'रहबर`
ख़ार७ से भी लिपट के सो जाना
----

कल तक था नाम जिनका बदनाम बस्तियों में
चलते हैं आज उन के एह्काम१ बस्तियों में
हर सू मचा हुआ है कुहराम२ बस्तियों में
तह्ज़ीब३ हो न जाये नीलाम बस्तियों में
घोला था ज़हर किस ने कोई न जानता था
तेगे़४ खिंची हुई थीं इक शाम बस्तियों में
जिन के नफ़स नफ़स५ में तख्ऱीब६ बस रही है
ऐसे हलाकुओं का क्या काम बस्तियों में
कोई न हो शनासा७ कोई न जानता हो
आओ कि जा बसें हम बे-नाम बस्तियों में
सूने पड़े हैं मन्दिर, वीरान मस्जिदें हैं
धूमें मची हैं क्या क्या बदनाम बस्तियों में

सब शोरिशें८ हों 'रहबर` नापैद९ बस्तियों से
अमन-ओ-अमां का फैले पैगा़म बस्तियों में
----

मुंतज़िर१ बैठे हुए हैं शाम से
और हम वाक़िफ़ भी हैं अंजाम से
मिल गये जब तुम तो कैसा काम फिर
घर से हम निकले थे यूं तो काम से
जो पिता के हुक्म का पालन करें
अब कहां बेटे जहां में 'राम` से
आ मिरी गहराइयों में डूब जा
कह रही है ये सुराही जाम से
भर गया कांटों से दामन प्यार में
दिल मिरा वाक़िफ़ न था अंजाम से
ले गये वो इक नज़र में नक्द़े-दिल२
लुटने वाले लुट गये आराम से
रफ्त़ा रफ्त़ा३ सुबह तक सब बुझ गये
वो दिये जो जल उठे थे शाम से
ये भी है उस की मुरव्वत४ की अदा
पी गया वो आज मेरे जाम से५
क्यों न हों मक्ब़ूल६ 'रहबर` मेरे शे`र
लिख रहा हूं हट के राहे-आम से
----

इक आग तन बदन में लगाती है चांदनी
हां दिल जलों को और जलाती है चांदनी
नग़्मे मुहब्बतों के सुनाती है चांदनी
जादू खुली छतों पे जगाती है चांदनी
आती है दिल को एक शबे-दिलनशीं१ की याद
जब साहिलों पे धूम मचाती है चांदनी
पुर-दर्द लय में पिछले पहर इक उदास गीत
महरूमियों२ के साज़ पे गाती है चांदनी
सैरे-चमन३ को तुम जो निकलते हो रात को
फूलों से रास्तों को सजाती है चांदनी
लेती है तेरी ज़ुल्फ़ से बादे-सबा४ महक
तेरे बदन से रूप चुराती है चांदनी
यकसां५ हैं चांदनी की नज़र में गदा-ओ-शाह६
दर पर गदा-ओ-शाह के जाती है चांदनी
पड़ती है ये दिलों पे कभी तो फुहार सी
'रहबर` कभी दिलों को जलाती है चांदनी
----

रौशनी का सुराग़१ ग़ाइब है
रास्ते का चिराग़ ग़ाइब है
आज सब से बड़ा ज़हीन२ है वो
जिस के सर से दिमाग़ ग़ाइब है
उम्र जिन की गुनाह में गुज़री
उन के दामन से दाग़ ग़ाइब है
रह रहे हैं मशीनी दौर में हम
ज़िंदगी से फ़राग़३ ग़ाइब है
तश्ना लब४ हैं तमाम बादा कश५
मयकदे से अयाग़६ ग़ाइब है
हर तरफ़ हैं ग़नीम७ सफ़-बस्ता
दोस्तों का सुराग़ ग़ाइब है
किस की जादूगरी है ये 'रहबर`
फल तो हाज़िर हैं बाग़ ग़ाइब है
----

कभी पास तुम को बिठा सकूं, तुम्हें दिल का हाल सुना सकूं
जो तुम्हारे दिल में उतर सके, वो वफ़ा का गीत मैं गा सकूं
मुझे एक ज़ख्म़ से काम क्या, मुझे ज़ख्म़ दे तू हज़ारहा
तभी हो सकूंगा मैं सुर्ख़रू, जो लहू में अपने नहा सकूं
तुझे भूल जाऊं मैं ऐ सनम, मेरे बस की काश ये बात हो
मुझे जैसे तू ने भुला दिया, तुझे काश मैं भी भुला सकूं
तुझे खो चुका हूं जनम जनम, तुझे ढूंढता हूं मैं ऐ सनम
यही मेरे दिल की है आरज़ू, तुझे इस जनम में तो पा सकूं
----

लहलहाती रहें वादियां खेतियां, ऐ वतन तेरे गुलशन महकते रहें
तेरी कानें जवाहिर उगलती रहें, जाम ख़ुशहालियों के खनकते रहें
                तेरे बाग़ों में ग़ुंचे चटकते रहें
तेरी तोपों के मुंह आग उगलते रहें, दुश्मनों को तेरे मात होती रहे
तेरी धरती उगलती रहे सीमो-ज़र१, सोने चांदी की बरसात होती रहे
                तेरी तामीर२ दिन रात होती रहे
तेरे टैंकों के बढ़ते हुए क़ाफ़िले, दुश्मनों की सफ़ों३ को मिटाते रहें
कर के सर हर महाज़४ और हर मोर्चा, शान अपने वतन की बढ़ाते रहें
                धाक अपनी जहां में बिठाते रहें
दुश्मनों के ठिकानों पे प्यारे वतन, तेरी मीज़ाईलें वार करती रहें
कर के तय सैंकड़ों कोस की दूरियां, दुश्मनों पर ये यलग़ार५ करती रहें
                उन के अड्डों को मिस्मार६ करती रहें
जगमगाते रहें कारख़ाने तेरे, तू तरक्की की राहों पे चलता रहे
तेरी हर आरजू का मुक़द्दस शजर७, हर घड़ी फूलता और फलता रहे
                तू तरक्की के सांचे में ढलता रहे

ऊंची शिक्षा के भी सिलसिले आ`म हों, आये दिन हर जगह दर्स-गाहें१ खुलें
नित नये डैम तामीर होते रहें, पेश क़दमी२ की हर रोज़ राहें खुलें
                हर जगह हर तरफ़ शाहराहें३ खुलें
तेरे सच्चे सिपाही तेरे वासिते, अपनी जानों को क़ुर्बान करते रहें
तेरे जां-बाज़४ जब भी ज़रूरत पड़े, तेरी राहों में हंस हंस के मरते रहें
                तेरे दामन को फूलों से भरते रहें
आयें ठण्डी हवायें तिरी ऐ वतन, मस्त झरने हसीं गीत गाते रहें
तेरे बागों के सर सब्ज़ पेड़ों तले, तेरे दिह्क़ान५ तानें उड़ाते रहें
                जश्न आज़ादियो के मनाते रहें
मुझको मा`लूम था मेरे प्यारे वतन, 'कारगल` से भी तू कामयाब आयेगा
वक्त़ का ये गुज़रता हुआ क़ाफ़िला, तेरे दामन को फूलों से भर जायेगा
                दुश्मन अपने किये की सज़ा पायेगा
----
शम्अ जलती है ता-सहर१ तन्हा
हम को जलना है उम्र भर तन्हा२
हो लिया साथ एक रस्ता भी
चल रही थी कोई डगर तन्हा

वाए३ मज्बूरियां मुहब्बत की
तुम उधर और हम इधर तन्हा
कोई साथी नहीं किसी का यहां
राहे-हस्ती से तू गुज़र तन्हा
सारे चालाक लोग बच निकले
तुह्मत४ आई तो मेरे सर तन्हा
वो जनम से नहीं है पागल, जो
बैठा रहता है मोड़ पर तन्हा
बाम-ओ-दर५ इस क़दर उदास थे कब
ज़िंदगी कब थी इस क़दर तन्हा
उड़ गए यक-बयक सभी पंछी
रह गया पेड़ सर-बसर तन्हा
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किसी दिन बूए-गुल१ पैग़ाम मेरा जा सुना उस को
किया करता है याद अक्सर कोई सुब्हो-मसा२ उस को
बनाया है हसीनों में अगर यकता३ उसे तूने
लिखा होता मिरी क़िस्मत में ऐ मेरे ख़ुदा उस को
दुआएं ले के मां की जो सफ़र पर घर से निकले गा
हवाए-गर्म से मह्फ़ूज़४ रक्खे गा ख़ुदा उस को
यही है मश्ग़्ला अब तो दिले-नाशाद का अपने
कहीं तन्हाईयों५ में बैठ जाना सोचना उस को
उठा कर दिल का आईना किया दीदार ऐ 'रहबर`
हमारे दिल ने चाहा है कभी जब देखना उस को
----
किस ने अपना दामन१ झटका किस ने अपना हाथ छुड़ाया
बस्ती बस्ती, महफ़िल महफ़िल हम ने ख़ुद को तन्हा पाया
दिल करता है दुन्या तज दें जंगल का रस्ता अपनायें
जैसे इक दिन गौतम बु़द्ध ने जंगल का रस्ता अपनाया
सुब्ह सवेरे, नूर के तड़के२ ख़ुशबू सी हर जानिब फैली
फेरी वाले बाबा ने जब संत कबीर का दोहा गाया
शाम ढले ये किस जोगिन ने कानों में रस घोल दिया है
मंदिर के आंगन में किस ने मीरां के भजनों को गाया
मुझ से बिछुड़ कर तेरे दिल पर क्या बीती मा`लूम नहीं है
तुझ से बिछुड़ कर मैं ने बरसों अश्क बहाये सोग मनाया

बैठे हैं हम आस लगाये पलकों पर कुछ दीप जलाये
बीत गयीं कितनी ही सदियां चाहत का संदेश न आया
अपने इक इक शे`र में 'रहबर` तू ने दर्द की फ़स्लें बो दीं
इतना सोज़३ कहां से आया इतना दर्द कहां से पाया
----
जिस्मो-जां घायल, परे-परवाज़१ हैं टूटे हुये
हम हैं यारों एक पंछी डार से बिछुड़े हुये
आप अगर चाहें तो कुछ कांटे भी इस में डाल दें
मेरे दामन में पड़े हैं फूल मुरझाये हुये
आज उस को देख कर आंखें मुनव्वर२ हो गयीं
हो गई थी इक सदी३ जिस शख्स़ को देखे हुये
फिर नज़र आती है नालां४ मुझ से मेरी हर ख़ुशी
सामने से फिर कोई गुज़रा है मुंह फेरे हुये
तुम अगर छू लो तबस्सुम-रेज़५ होंटों से इसे
देर ही लगती है क्या कांटे को गुल६ होते हुये
वस्ल की शब७ क्या गिरी माला तुम्हारी टूट कर
जिस क़दर मोती थे वो सब अर्श८ के तारे हुये
क्या जचे 'रहबर` ग़ज़ल-गोई९ किसी की अब हमें
हम ने उन आंखों को देखा है ग़ज़ल कहते हुये
----

अपना डेरा फ़क़ीर छोड़ गये
ख़ुशबुओं की लकीर छोड़ गये
आइना देखते तो किस मुंह से
आईना बे-ज़मीर१ छोड़ गये
अह्ले-दुन्या की रहबरी२ के लिये
अपने दोहे कबीर छोड़ गये
रूह में जा के हो गये पैवस्त३
तंज़४ के तुम जो तीर छोड़ गये
ईद फ़ाक़ा-कशों५ की हो जाये
जूठे टुकड़े अमीर छोड़ गये
उस के हम पासदार६ हैं 'रहबर`
वो विरासत७ जो 'मीर`८ छोड़ गये
----
ये भीगी शाम है इस को न टालिये साहिब
   जो जेब में है रक़म तो निकालिये साहिब
जो चखना चाहें कभी आप ज़ाइक़ा१ विष का
तो आस्तीं में कोई सांप पालिये२ साहिब
कहीं ज़मीं से तअल्लुक़ न ख़त्म हो जाये
बहुत न ख़ुद को हवा में उछालिये साहिब
जबीने-वक्त़३ पे उभरीं हज़ारहा शिकनें
कभी जो भूले से हम मुस्करा लिये साहिब
मुरव्वतों४ की नई बस्तियां बसानी हैं
कुदूरतों५ को दिलों से निकालिये साहिब
गुले-मुराद६ से भर दो हमारे दामन को
हमें न वादए-फ़र्दा७ पे टालिये साहिब
जो रौशनी के अमीं८ हो तो इस अंधेरे से
किरण उमीद की कोई निकालिये साहिब
वतन की बात करें, गम़-ज़दों९ का ज़िक्र करें
मुहब्बतों के बहुत गीत गा लिये साहिब
तलाशे-गौहरे-नायाब१० है तो 'रहबर` जी
समंदरों की तहों को खंगालिये साहिब
----

अंजाम से वाक़िफ़ है मगर झूम रहा है
वो फूल कि जो शाखे़-तमन्ना पे खिला है
तारीख़ के सफ्ह़ों१ ने जो देखा न सुना है
वो बाब२ मेरे अह्द३ के इंसां ने लिखा है
सुनने को जिसे गोश-बर-आवाज़४ है दुन्या
वो गीत अभी साज़ के पर्दों में छुपा है
इक उम्र गुज़ारी है सुलगते हुये मैं ने
मैं ऐसा दिया हूं जो जला है न बुझा है
फ़ुट-पाथ का बिस्तर है तो है ईंट का तकिया
ये नींद के यूं कौन मज़े लूट रहा है
ठहरे हुये पानी की तहें चौंक पड़ी हैं
कँकर कोई यादों के सरोवर में गिरा है
आईनए-दिल में तू कभी देख उसे भी
इक और भी चेहरा तेरे चेहरे में छुपा है
इस राह से गुज़रो तो कभी तुम को सुनाऊं
इक गीत तुम्हारे लिये अश्कों से लिखा है
करता है इसे संग५ पे तह्रीर६ अबस७ तू
ऐ दोस्त तिरा नाम तो पानी पे लिखा है
----

(क्रमश: अगले अंकों में जारी…)

प्रस्तुति : अनुज नरवाल रोहतकी.

टीप: चूंकि पाठ का मशीनी फ़ॉन्ट रूपांतर किया गया है अत: प्रूफ की गलतियाँ संभावित हैं. सुधी जनों से आग्रह है कि उन्हें ठीक कर पढ़ें.

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फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: राजेन्द्र नाथ ‘रहबर’ का ग़ज़ल संग्रह : याद आऊंगा
राजेन्द्र नाथ ‘रहबर’ का ग़ज़ल संग्रह : याद आऊंगा
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