कविताएँ -नंदलाल भारती विष की खेती नेकी पर कहर बरस गया है सगा आज बैरी हो गया है !! हक पर जोर आजमाइश होने लगा है लह...
कविताएँ
-नंदलाल भारती
विष की खेती
नेकी पर कहर बरस गया है
सगा आज बैरी हो गया है !!
हक पर जोर आजमाइश होने लगा है
लहू से खुद का आज संवारने लगा है !!
कभी कहता दे दो,नही तो छिन लूंगा
कहता कभी सपने मत देखो,
वरना आंखे फोड़ दूंगा !!
मय की हाला में डूबा,
कहा उसको पता
बिन आंखों के भी
मन के तरूवर पर,
सपनों के भी पर लगते हैं !!
हुआ बैरी अपना,
जिसको लेकर बोया था सपना !!
धन के ढेर बौराया मद चढ़ा अब माथे
शकुनि का यौवन
कंस का अभिमान हुआ साथ !!
बिसर गयी नेकी दौलत का भारी दम्भ
स्वार्थ के दाव नेकी घायल,
छाती पर गम !!
नेकी की गंगा में ना घोलो जहर
ना करो रिश्ते के संग हादसे
देवता भी तरसे मानव जीवन को,
मतलब बस ना करो विष की खेती
डरा करो खुदा से .!!
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काबिलीयत पर ग्रहण लगा दोधारी,
योग्यता पर छा गयी अब महामारी !!
फर्ज और भूख ने कैदी बना रखा है
मुश्किलों के समर ने राहें रोक रखा है !!
चन्द सिक्कों की बदौलत उम्र बिक रही है
श्रम की बाजार में तकदीर छिन गयी है !!
मायूसी के बादल उखड़ने लगे है पर
तार तार अरमानों को,
ताग ताग कर रहा बसर !!
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धनिकों की बस्ती में दौलत का बसेरा !
गरीबों की बस्ती में भूख अभाव का डेरा !!
वही मुसीबतों की कुलांचे,
चिथड़ों में लपटे शरीर !
हर चौखट पर लाचारी कोस रहे तकदीर !!
गरीबों की तकदीरों पर पड़ते हैं डाके यहां
भूख पर रस्साकसी मतलब सधते है वहां !!
मजबूरी के जाल उम्र बेचा जाता है !
धनिकों की दुकान पर ,
पूरी दाम नही मिल पाता है !!
बदहाली में जीना मरना नसीब बन गया हैं
अमीर की तरक्की,
गरीब,गरीब ही रह गया है !!
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!!लोक मैत्री!!
लोकमैत्री की बहारे, बीती कारी रातें
बिहसा जन जन, छायी जग में उजियारी
नया सबेरा नई उमंगें,
जीवित मन के प्रपात,
फैलने लगा अब लोकमैत्री का प्रकाश!
सदभावना का उदय,मन हुआ चेतन
जातिधर्म की बात नही,
जग सारा हुआ निकेतन !
मान्य नही जातिधर्म का समर
जयगान सदभावना का,
बिहस उठेगा जीवन सफर !
विश्वबन्धुत्व की राह,
नही होगा अब मन खिन्न !
ना होगा भेदभाव,
ना होगा आदमी भिन्न !
लोकमैत्री का भाव विश्व एकता जोड़ेगा
ना गैर ना बैर हर स्वर,
सदभावना की जय बोलेगा !
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!! सोचता हूं !!
सोचता हूं बार बार
बिहस पड़े मेरा भी मन एक बार !
व्यवधान खड़ा हो जाता है कोई
उमंगे रौंद देती हैं अड़चनें कोई ना कोई !
चहुंओर मौत के सामान बिकने लगे है
रोजमर्रा की चीजों में जहर मिलने लगे है !
महंगाई है भूख हैं हवा प्रदूषित है
भागदौड़ भय जल भी दूषित है !
शासन है प्रशासन हैं
फिर भी रिश्वतखोरी है
समता सम्पन्नता के वादे तो
बस मुंहजोरी हैं !
न्याय मंदिर हैं दण्ड के विधान हैं,
फिर भी अत्याचार हैं !
बुद्ध भावे की ललकार,
फिर भी अनाचार है !
चहुंओर मुश्किलों का घेरा,
कहां से आये मुस्कान
मोह मद का बाजार हावी सब है परेशान !
खुश रहने के उपाय विफल हो जाते हैं
मुखौटाधारी मतलब का,
दरिया पार कर जाते हैं !
सच भारती मैं भी सोचता हूं बार बार
विहस पड़े मेरा भी मन एक बार !!
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!! धूप का जश्न !!
मुस्कराने की लालसा लिये
दर दर भटक रहा हूं !
हाल ए दिल बयान करने को तरस रहा हूं !
दर्द आंकने वाला नहीं मिल रहा कोई !
दर्द नाशक के बहाने,
रची जाती साजिशें कोई ना कोई !
यहां रात के अंधेरे में अट्टहास करता डर हैं !
दिन के उजाले में बसा खौफ हैं !
रक्त रंजित दुनिया के आदी हो रहे !
कही आदमी,
तो कही आदमियत के कत्ल हो रहे !
दर्द के पहाड़ तले दबा,
ख्वाहिशों को हवा दे रहा !
आतंक से सहमा भारती,
सर्द कोहरे से छन रही,
धूप का जश्न मनाने से डर रहा !!
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!! मंगल कामना !!
बंटवारे में विषमता मिली मुझे,
सोचता हूं,
विरासत में तुम्हें क्या दूं !
विधान संविधान के पुष्प से,
कोई सुगन्ध फेल जाये !
हृदय दीप को ज्योर्तिपुंज मिल जाये !
आशा की कली को ,
समानता का मिले उजास !
धन धरती से बेदखल
देने को बस ,
सदभावना का नैवेद्य हैं मेरे पास !
ग्रहण करों,
बुद्ध जीवन वीणा के बने रहे सहारे !
चाहता हूं,
जग को नई ज्योति दो नयन तारे !
तुम्हीं बताओ भारती,
शोषण उत्पीड़न का विष पीकर,
साधनारत, जीवन को आधार क्या दूं !
बंटवारे में मिली विषमता मुझे,
तुम्हें मंगलकामना के अतिरिक्त,
और क्या दूं !!
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!! वेदना के फूल !!
वेदना के फूल,
श्रद्धा की थाली मे भर लाया हूं !
संवेदना का गंगाजल,
पलकों पर उतार लाया हूं !
कल की आशा में,
चोट बहुत खाया हूं !
संवर जाये कल,
ऐसा गुण ढूंढने आया हूं !
सूख की आशा में,
छलकते आंसू पाया हूं !
ठगा गया जीवन,
शान्ति के द्वार आया हूं !
ना रिसे घाव अब,
ऐसा मरहम खोजने आया हूं !
लोग खींचे खींचे,
मैं सदभावना का भाव मांगने आया हूं !
नफरत ने जलाया,
मैं सदप्रेम की छांव ढूंढने आया हूं !
ना जाति धर्म का विष बोने,
मैं तो मानवता की बात करने आया हूं !
पलकें नम दिल रोता जख्म गहरा पाया हूं !
तकदीर कैद, मैं तो फरियाद करने आया हूं !
लकीरों ने किया फकीर,
मैं तो एकता का संदेश लाया हूं !
फले फूले कायनात,
मैं तो तरक्की का वरदान लेने आया हूं !
भारती वेदना के फूल ,
श्रद्धा की थाली में भर लाया हूं !
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!! कविता की तलाश में !!
कविता की तलाश में फिरता हूं
खेत खलिहान बरगद की छांव
पोखर तालाब बूढे कुएं
सामाजिक पतन
भूख बेरोजगारी में झांकता हूं !
मन की दूरी
आदमी की मजबूरी में ताकता हूं !
तलाशता हूं कविता
खादी और खाकी में !
दहेज की जलन अम्बर अर्ध्दबदन,
अत्याचार के आतंक में !
मूक पशुओं के क्रन्दन
आदमी के मर्दन में !
ऊंचे पहाड़ों नीचे समतल मैदानों में !
कहां कहां नही तलाशता कविता को !
खुद के अन्दर गहराई में
उतरता हूं
कविता को खिलखिलाता हुआ पाता हूं !
सच भारती यही तो हैं
वह गहराई,
जहां से उपजी हैं कविता
दिल की गहराई
आत्मा की ऊंचाई से..............
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!! कैसा धर्म !!
आजकल शहर खौफ में जीने लगा है,
कही दिल तो ,
कही आशियाना जलने लगा है !
आग उगलने वालों को भय लगने लगा है,
तभी तो शहर का चैन खोने लगा है !
धर्म के नाम पर लहू का खेल होने लगा है,
सिसकियां थमती नही,
तब तक नया घाव होने लगा है !
कही भरे बाजार ,
तो कही चलती ट्रेन में धमाका होने लगा है ,
आस्था के नाम पर ,
लहू कतरा कतरा होने लगा है !
कैसा धर्म,धर्म के नाम आतंक होने लगा है,
लहूलुहान कायनात धर्म बदनाम होने लगा है !
आँसुओं का दरिया,
कराहने का शोर पसरने लगा है ,
धर्म के नाम बांटने वालो का,
जहां रोशन होने लगा है !
आँसुओं को पोंछ भारती ,
आतंकियों को ललकारने लगा है
धर्म सदभाव बरसाता,
कत्ल क्यों होने लगा है !
आजकल शहर ,
खौफ में जीने लगा है................
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।।जयगान ।।
आओ बोये फूल काँटों का क्या काम है,
गुजर जायेगा कारवां रहने वाला नाम है ।
कोयले की कोठरी से निकल चले बच के ,
पत्थरों पर कर्म के निशां छोड़ दे ।
आज ना आयेगी याद,यही होता आ रहा,
कल थे अजनबी, उन्हीं का गीत गा रहा जमाना ।
लकीर का नतीजा करम का है तराना ,
अनेक दण्ड , किसी को जहर परोसा गया
काल के थे सिपाही ,आज उन्हीं को मसीहा कहा गया ।
बढ़े चले जहरीला तूफान में प्यारे,
कल जयगान करेंगे ये जो ,
आज दुश्मन बन बैठे है हमारे ।
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।। कत्ल।।
आंखे तरस रही है प्यारे दीदार नही हो रहा ,
अपने जहां में धूल और तूफान बढ़ रहा ।
हो रहे कत्ल दिन दहाड़े, छाती पर आरा चल रहा
बिक रहे हाड़ मांस कोई नही खबर ले रहा ।
सिरों पर चादर थी मनोहर,
बड़े बड़े स्तम्भ खड़े थे जैसे धरोहर ।
ठूंठ छायाविहीन तरबतर रो रोकर
हम रह गये स्वार्थी होकर ।
कब सुध लेंगे जब उजड़ जायेगा चमन
क्या अपनों का, अपने हाथों कर देंगे दमन ।
जीवन ना बने जहर ले ले वचन
लगायेंगे पेड़ बहुत,कत्ल कोई ना करेंगे सहन ।
अँखियाँ अब ना तरसे प्यारे
घर आंगन बिहसे हरियाले हमारे.......
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भूख का इलाज ढूंढ ढूंढ थक रहा हूं,
श्रमिक की उदासी देख तड़प रहा हूं ।
झोपड़ी से उठ रहे धुएं में,
रोटी का,
सोंधापन तलाश रहा हूं,।
तरक्की की दौड़,
खुद को बहुत दूर पा रहा हूं ।
कब आयेगी चौखट तक ,
बाट जोह रहा हूं ।
मन में आस पेट में आग लिये,
फटी बनियाइन निचोड़ रहा हूं......
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तबाही पर किसी की किसी का,,
आज विहस रहा है,
आंसुओं पर रोशन जहां हो रहा है ।
मैं कैसे तकदीर को आस से जोड़ रहा हूं,
हाल पर खुद के बेहाल हो रहा हूं ।
एक ओर रोटी पर दंगल,
दूसरी ओर ताला लटक रहा ।
सच कोई आँसुओं में,
कोई जाम में नहा रहा..........
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सदभावना के जंगल में वीरान पसरने लगा है,
स्नेह का बीज,
दुश्मनी की धूप में सूखने लगा है।
कही का अभाव,
कही खजाना तंग लग रहा है।
सब कुछ आज बाजार में बिकने लगा है।
व्यापार की खुमारी में,
तन का पुर्जा ,
पुर्जा तक बिकने लगा है.....
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द्वेष के दलदल डूब रहे हैं हम,
कहने को समभाव,
वास्तव में भेद ढो रहे हैं हम ।
महफिलों में आदमियत का नही हैं मान,
जातिधर्म का भ्रम हो गया महान ।
बजा बजा ढोल नही थक रहे भाई भाई,
धर्मान्धता के नाम बन गये हैं कसाई ।
जाति धर्म की दरिया में,
घुटता है दम हर पल,
मोह का कसता शिकंजा,
आदमी हो गया है कल ।
आदमियत का रिश्ता सब रिश्ते में रहे महान,
आदमी बसन्त धरा का,
संस्कृति उज्जवल पहचान ।
आओ हर चौखट,
समभाव सदभाव की पौध लगायें,
आदमियत को,
जातिधर्म के प्रदूषण से बचाये......
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खुशियों के सिर चढने वाला,
बिलख रहा था
अधखिला सा यौवन तडप रहा था ।
लाल सुर्ख थी पंखुडियां
मातम मना रही थी तितलियां ।
आदमी डाल से नोंच कर फेंक दिया था
बेकद्री पर वह सिसक रहा था ।
वक्त था राहों में बिछना,
नसीब समझता था
बालाओं के सिर चढ़ इतराता था ।
वक्त की बेवफाई,
सरेआम कुचला जा रहा है आज,
दिखावा चकाचौंध कुपोषित मन का साज ।
पुप्प की देख वेदना आंसू गिर पड़े
उसूलों पर मरने वाले आदमी,
और मुझे एक से लगे............
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माना मुश्किलों के दौर है,
तो क्या हुआ,
वक्त गवाह है,
आंधियों ने कब दिया है दुआ ।।
कलम के सिपाही ,
कहां खौफ खाते है ।
हर अंधियारे को रौंद जाते है ।।
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कैद मुकद्दर की जमानत पर,
लम्हा लम्हा रिस रहा है ।
बेदाग सी जिन्दगी पर,
दरारों का दाग लग रहा है ।
आबरू पर कुर्बान,
फरेब बेआबरू कर रहा है ।
विषबेल चढ चुकी सिर पर,
आदमी लकीर खींच रहा है...........
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बड़े घाव हैं जिगर में,छिपाने से नही छिपते,
उतरते नही लफ्ज जबान पर इशारे खुद कहते।
कहने से भी क्या हुआ रह गये तरसते,
अपनों ने ठगा रह गये हाथ मलते ।
तबाही की फिक्र हमें हम भी हैं डरते,
मतलब की दुनिया दिन अब नही फिरते ।
अधिकर की दुहाई, इंकलाब को कहते,
पिये जहर बहुत, अब ललकार हैं करते ....
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कर गया छेद मन मेरा तीर उनका,
हाथों जिनके जहर मढ़ा था -
क्या बयां करुँ हाल उनका ।
राह में बारूद बिछाये है जालिम आज भी
हर वक्त फूटने का डर है जिनका ,
उत्थान मन्तव्य मेरा विखण्डन है उनका ।
घाव में बसर करना तकदीर हो गया अपना,
फूट गयी किस्मत,
टूटी तस्वीर हो गया सपना.........
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।। जहर।।
खुले हैं पर हाथ बंधे लग रहे हैं,
खुली जुबान पर ताले जड़े लग रहे हैं।
चाहतों के समन्दर कंकड़ों से भर रहे है,
खुली आंखों को अंधेरे डंस रहे है ।
लूट गयी तकदीर डर मे जी रहे है,
कोरे सपने आँसूं बरस रहे हैं।
फैले हाथ नयन शरमा रहे है ,
चमचमाती मतलब की खंजर,
बेमौत मर रहे है ।
समझता अच्छी तरह क्या कह रहे हैं,
बांधे हाथ खुले कान सुन रहे हैं ।
बंदिशों स घिरे वंचित,ताक रहे हैं,
छिन गया सपना कल को देख रहे है ।
भीड़ भरी दुनिया में अकेले लग रहे है,
अपनों का भीड़ में पराये हो गये हैं ।
झराझर आँसुओं को कुछ तकदीर कह रहे हैं,
आगे बढ़ने वाले ,
पत्थर पर लकीर खींच रहे हैं ।
क्या कहें कुछ लोग,
खुद की खुदाई पर विहस रहे हैं ,
कैद तकदीर कर जाम टकरा रहे हैं।
दीवाने धुन के भारती,जहां आंसू से सींच रहे हैं,
उभर जाये कायनात जहर पी रहे हैं......
!! माटी का घर !!
एक एक टोकरी माटी को जोड़कर
खड़ा था एक घर !
जला करता था,
नन्हा सा दीया जहां ड्योढ़ी पर !
जिसे सब पहचानते थे
छोटा बड़ा अमीर गरीब भी !
मां की तपस्या और,
त्याग के बलबूते खड़ा था यह घर !
घर के सुकून में शामिल था
बाप का पुरुषार्थ और,
रिश्ते का सोंधापन भी !
दुनिया की चकाचौंध से दूर
पहुंचा जा सकता था जहां
कच्ची सड़कों या पगडण्डियों से होकर !
जहां उगता हैं सूरज पहले आज भी !
उतरा करती थी,
खुशी के झोंके की हवा !
तंगी में भी जहां होता था मां का हाथ दवा !
मां की तपस्या और ,
बाप के पुरूषार्थ से खड़े घर पर !
कागा दृष्टि पड गयी,
टुकड़े टुकड़े हो गया
माटी के ढेलों पर भी कब्जा हो गया!
रिश्ते के ही लोगो ने आतंक मचा दिया !
रोटी रोजी को तलाशता मै भी,
पहुंच गया गांव से दूर बहुत दूर
ईंट पत्थरों के शहर में !
एक आशियाना मैने भी खड़ा कर लिया !
अपनी साठ साल तक की उम्र को बेचकर !
आसपास जहां लोग तो बसते हैं,
पर जिन्दा लाश होकर !
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बेचैन हो जाता हूं रह रह कर !
ढूंढता हूं,
मानवीय रिश्तों की सुगन्ध और,
अपनेपन का एहसास भी !
नही मिलता हैं कहीं
माटी के घर सी छांव
नही सोंधेपन का भाव पुराने गांव सा!
ईंट पत्थरों के शहर में
कैद हो गया हूं जैसे,
बड़ी बड़ी इमारतों से घिरे
परिश्रम के ईंट पसीने के गारे की नींव पर टीके अपने ही घर में !!
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दरकार
आज दौर सामने जो खड़ा है ।
गलत बयानबाजियों ने जोर पकड़ा है ।।
दर्द की बयार है,खुदा भी गवाह है ।
घायल मैं भी, दिल में भरी आह है ।।
आज अपनों की आंखों मे परायापन है ।
दौर है कातिल,सब ओर सूनापन है ।।
गुजर रहा जिस बुरे दौर से ।
शूलों का सफर सींच रहा अश्रु से ।।
दगाबाजी से मुकद्दर कांपने लगा है ।
खण्डित आज का आदमी बेवफा हो गया है
जानता है हर शख्स कुछ नही ले जाने को ।
सम्भाले बैठा है, अभिमान के खजाने को ।।
नफरत जवां, लकीरों पर हो रही तकरारे ।
दर्द का बढ़ता दरिया,नित बढ़ रही रारे ।।
शराफत की चादर में ढंका घायल घराने में ।
बढ़ रहा खौफ,भरे जहां के वीराने में ।।
थक रहा कर कर जमाने से गुजारिश यारों ।
जग उठो, ढहाने बांटने वाली हर दीवारें ।।
बैर में खैर नही, मोहब्बत की दरकारे ।
मिला लो हाथ भारती ना सगुन लाई है रारे।।
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गरीब के दामन दर्द, चुभता निशान छोड़ जाता है ।
दर्द के बोझ जवां बूढ़ा होकर रह जाता है ।।
दर्द में झोकने वाला मुस्कराता है किनारे होकर ।
बदनसीब थक जाता हैं दर्द का बोझ ढोकर ।।
शोषण वंचित का, जुल्म आदमियत पर ।
दर्द का जख्म रिस रहा ऊंचनीच के नाम पर ।।
मातमी हो जाता है,गरीब का जीवन सफर ।
सांस भरता गरीब अभावों के बोझ पर ।।
जंग अभावों से, हांफ हांफ करता बसर ।
चबाता रोटी, आंसुओं में भिगोकर ।।
उत्पीड़ित नही कर पाता पार,
दर्द का दरिया जीवन भर ।
दिया है दर्द जमाने ने दीन जानकर ।।
गरीब का दामन रह गया जख्म का ढेर हाकर ।
दर्द भरा जीवन कटते लम्हे कांटों की सेज पर ।।
अब तो हाथ बढ़ाओ भारती, डूबते की ओर ।
वंचित हैं, उठ जाओगे, नर से नारायण होकर ।।
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।। मुक्ति ।।
मैं ऐसे गांव की माटी में खेला हूं
जहां खेतिहर मजदूरों की चौखट पर नाचती है
भय और दरिद्रता आज भी
वंचितों की बस्ती अभिशापित है
बस्तियों के कुएं का पानी अपवित्र है आज भी
भूख नंगा मजदूर ना जाने कब से हाड़ फोड़ रहा है
न मिट रही भूख ना ही तन ढंक पा रहा है
कहने को आजादी है पर वो बहुत दूर पडा है
भूमि हीनता के दलदल मे खड़ा है
भय से आतंकित कल के बारे में कुछ नही जानता
आंसू पोंछता आजादी कैसी वह यह भी नही जानता
वह जानता है खेत मालिकों के खेत में खून पानी करना
मजबूरी है उसकी भूख भय और पीड़ा मे मरना
कब सुख की बयार बही है उसकी बस्ती में
इतिहास भी नही बता सकता सही सही
पीड़ित जन भयभीत बंटवारे की आग से
वह भी सपने देखता है
दुनिया के और लोगो की तरह गांव की धूप में पक कर
उसके सपनों को पंख नही लग पाते
उसे भी पता लगने लगा हैं दुनिया की तरक्की का
आदमी के चांद पर उतर जाने का भी
वह नही लांघ पर रहा है मजबूरी की मजबूत दीवारें
वह दीनता को ढोते ढोते आंसू बोता हुआ
कूच कर जा रहा है अनजाने लोक को
विरासत में भय भूख और कुछ कर्ज छोड़कर
अगला जन्म सुखी हो
डाल देते हैं परिजन मुंह में गंगाजल
मुक्ति की आस में दरिद्रनारायण को गुहारकर
मं भी माथा ठोक लेता हूं
पूछता हूं क्या यही तेरी खुदाई है
क्या इनका कभी इनका उद्धार होगा
सच भारती मैं ऐसे गांव की माटी में खेला हूं
जहां अनेकों आंसू पीकर बसर कर रहे है आज भी........
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।। जहर।।
खुले हैं पर हाथ बंधे लग रहे हैं,
खुली जुबान पर ताले जड़े लग रहे हैं।
चाहतों के समन्दर कंकडों से भर रहे हैं,
खुली आंखों को अंधेरे डंस रहे है ।
लूट गयी तकदीर डर मे जी रहे हैं,
कोरे सपने आंसू बरस रहे हैं।
फैले हाथ नयन शरमा रहे हैं ,
चमचमाती मतलब की खंजर,
बेमौत मर रहे है ।
समझता अच्छी तरह क्या कह रहे हैं,
बांधे हाथ खुले कान सुन रहे हैं ।
बंदिशों स घिरे वंचित,ताक रहे हैं,
छिन गया सपना कल को देख रहे है ।
भीड़ भरी दुनिया में अकेले लग रहे है,
अपनों का भीड़ में पराये हो गये हैं ।
झराझर आँसुओं को कुछ तकदीर कह रहे हैं,
आगे बढ़ने वाले ,
पत्थर पर लकीर खींच रहे हैं ।
क्या कहें कुछ लोग,
खुद की खुदाई पर विहस रहे हैं ,
कैद तकदीर कर जाम टकरा रहे हैं।
दीवाने धुन के भारती,जहां आंसू से सींच रहे हैं,
उभर जाये कायनात उम्मीद में,जहर पी रहे हैं......
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।। पड़ाव ।।
कुछ लोगों का मानना है कि,
मैं हार चुका हूं ।
सच ये नही है
दो वक्त की रोटी जीत नही होती
मैं संघर्षरत हूं
हां मैं खंजर पास नही रखता
मेरी म्यान में कलम होती है,
स्याही से भरी और दिल में शब्दों की तीर
मैं शोला भी नही उगलता कलम से
क्योंकि मेरा मकसद जहर बोना नही है
मैं समानता का बीज बोना चाहता हूं ।
आदमी को आदमी के पास लाना चाहता हूं ।
मैं नही चाहता कि,
आदमी जाति धर्म के नाम पर विखण्डित रहे ।
भले ही अर्थ की तुला पर व्यर्थ हूं
दिल मे हौसले रखता हूं
आदमी की आन मान शान को पहचानता हूं
सच यही है उद्देश्य मेरा,
समानता से दूर बैठे आदमी के लिये संघर्षरत हूं । मौन ही सही
हारकर भी उठा लेता हूं कलम,
आदमियत के लिये तो जी रहा हूं
जानता हूं जीवन का अन्तिम पड़ाव है मृत्यु
मेरे जीवन का अर्थ है समभाव
सच इसीलिये तो जी रहा हूं
वरना कब का जीवन के अन्तिम पड़ाव को पार कर लिया होता ।
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।। प्रतिकार ।।
याद है वो बीते लम्हे मुझे
भूख से उठती वो चीखें भी
जिसको रौंद देती थी
वो सामन्ती व्यवस्था
डर जाती थी
पूरी मजदूरों की बस्ती
खौफ में जीता था हर वंचित
दरिद्रता बैठ जाती चौखट पर
काफी अन्तराल के बाद सूर्योदय हुआ
दीन बहिष्कृत भी,
सपनों का बीज बोने लगा
वक्त ने तमाचा जड़ दिया
हैवानियत के गालों पर
दीन का मौन टूट गया है
दीनता का हिसाब मांगने लगा है,
आजाद हवा के साथ कल संवारने की सोच रहा है
आज भी गिद्ध आंखे ताक रही है
तभी तो दीन दीनता से,
उबर नही पा रहा है
बुराइयों का जाल टूट नही रहा है ।
आओ करें प्रतिकार
बेबस भूखी आंखों में झांक कर,
कर दे समृद्धि का बीजारोपण .....
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।। तुला।।
नागफनी सरीखे उग आये है कांटे
दूषित माहौल में
इच्छायें मर रही है नित
चुभन से दुखने लगा है रोम रोम।
दर्द आदमी का दिया हुआ है
चुभन कुव्यवस्थाओ की
रिसता जख्म बन गया है
अब भीतर ही भीतर ।
हकीकत जीने नही देती
सपनों की उड़ान में जी रहा हूं
उम्मीद का प्रसून खिल जाये
कहीं अपने ही भीतर से ।
डूबती हुई नाव में सवार होकर भी
विश्वास है हादसे से उबर जाने का
उम्मीद टूटेगी नहीं
क्योंकि मन में विश्वास है
फौलाद सा.......
टूट जायेंगे आडम्बर सारे
खिलखिला उठेगी कायनात
नही चुभेंगे नागफनी सरीखे कांटे
नहीं कराहेंगे रोम रोम
जब होगा अंधेरे से लड़ने का सामर्थ्य
पद और दौलत की तुला पर भले ही दुनिया कहे व्यर्थ.........
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तस्वीर
ये कैसी तस्वीर उभर रही है,
आंखों का सकून,
दिल का चैन छिन रही है ।
अम्बर घायल हो रहा है ,
अवनि सिसक रही है ।
ये कैसी तस्वीर उभर रही है...............
चहुंओर तरक्की की दौड़ है,
भ्रष्टाचार, महंगाई मिलावट का दौर है ।
पानी बोतल में कैद हो रहा है,
जनता तकलीफों का बोझ ढो रही है।
ये कैसी तस्वीर उभर रही है...........
बदले हालात में,
सांस लेना मुश्किल हो रहा है ,
जहरीला वातावरण बवण्डर उठ रहा है।
जंगल और जीव तस्वीर में जी रहे है,
ईंट पत्थरों के जंगल की बाढ़ आ रही है ।
ये कैसी तस्वीर उभर रही है...........
आवाम शराफत की चादर ,
ओढ़े सो रहा है।
समाज, भेदभाव और गरीबी का,
अभिशाप ढो रहा है ।
एकता के विरोधी,
खंजर पर धार दे रहे है,
कही जाति कही धर्म की तूती बोल रही है।
ये कैसी तस्वीर उभर रही है...........
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आदमी बदल रहा है
देखो आदमी बदल रहा है.
आज खुद को छल रहा है,
अपनों से बेगाना हो रहा है
मतलब को गले लगा रहा है
देखो आदमी बदल रहा है.................
और के सुख से सुलग रहा है
गैर के आंसू पर हंस रहा है,
आदमी आदमियत से दूर जा रहा है
देखो आदमी बदल रहा है.................
आदमी आदमी का नही हो रहा है
आदमी पैसे के पीछे भाग रहा है
रिश्ते को रौंद रहा है
देखो आदमी बदल रहा है.................
इंसान की बस्ती में भय पसर रहा है
नाक पर स्वार्थ का सूरज उग रहा है
मतलब बस छाती पर मूंग दल रहा है
देखो आदमी बदल रहा है.................
खून का रिश्ता घायल हो गया है
आदमी साजिश रच रहा है
आदमी मुखौटा बदल रहा है
देखो आदमी बदल रहा है.................
दोष खुद का समय के माथे मढ रहा है
मर्यादा का सौदा कर रहा है
स्वार्थ की छुरी तेज कर रहा है
देखो आदमी बदल रहा है.................
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डर
आसपास देखकर डर जाता हूं
कहीं से कराह कहीं से चीख ,
धमाकों की उठती लपटें देखकर ।
इंसानों की बस्ती को जंगल कहना,
जंगल का अपमान होगा अब
ईंट पत्थरों के महलों में भी इंसानियत नही बसती।
मानवता को नोचने ,इज्जत से खलने लगे हैं
हर मोड मोड़ पर हादसा बढ़ने लगा है ।
आदमी आदमखोर लगने लगा है
सच कह रहा हूं
ईंट पत्थरों के जंगल में बस गया हूं ।
मैं अकेला इस मंजर का साक्षी नही हूं
और भी लोग है,
कुछ तो अंधा बहरा गूंगा बन बैठे है
नही जमीर जाग रहा है
आदमियत को कराहता हुआ देखकर ।
यही हाल रहा तो वे खूनी पंजे
हर गले की नाप ले लेंगे धीरे धीरे ।
खूनी पंजे हमारी ओर बढ़े उससे पहले,
शैतानों की शिनाख्त कर बहिष्कृत कर दे
दिल से घर परिवार समाज और देश से ।
ऐसा ना हुआ तो खूनी पंजे बढते रहेंगे,
धमाके होते रहेंगे, इंसानी काया के चिथड़े उड़ते रहेंगे
तबाही के बादल गरजते रहेंगे
इंसानियत तड़पती रहेगी नयन बरसते रहेंगे
शैतानियत के आतंक से नही बच पाएंगे
छिनता रहेगा चैन कांपती रहेगी रूह
क्योंकि मरने से नही डर लगता
डर लगता है तो मौत के तरीकों से..............
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।। मुखौटा ।।
बेकसूर चोट खाय है बहुत राह चलते चलते ।
बेगाने जहां म जीते रहे मरते मरते
जहर पीये है भेद भरी दुनिया में गम से दबे डूबे रहे
आतंक अपनों अमानवीय दरारों की धूप छलते रहे
आदमी द्वारा खींची लकीरों पर मरते रहे
ना मिली छांव रह गये दम्भ में भटकते भटकते
बेकसूर चोट खाय है राह चलते चलते....................
उम्मीद की जमीं पर विश्वास की बनी है परतें
विरोध की बयार में भी दिन गुजरते रहे
स्याह रात से बेखबर उजास ढूंढते रहे
घाव के बोझ फूंक फूंक कदम रखते रहे
बिछुड गये कई लकीर पर फकीर रहते रहते
बेकसूर चोट खाय है बहुत राह चलते चलते...........................
दिल में जवां मौसमी बहारें गुजर रही यकीन पर रातें
ना जाने कौन से नक्षत्र वक्त ने फैलायी थी बाहें
कोरा मन था जो, बेबस है अब भरने को आहें
आदमी की भीड़ में थक रहे अपना ढूंढते ढूंढते
बेकसूर चोट खाय है बहुत राह चलते चलते............................
नही अच्छा बंटवारा धर्म के नाम पर, जुल्म रोकिये
खुदा के बन्दे है सच्चे, छोटे हो या बड़े बन्दे को गले लगाइए
समता शान्ति के नाम मुखौटे को नोच दीजिये
कारवां गुजर गया ना मिला सकून लकीर पीटते पीटते
बेकसूर चोट खाय है बहुत राह चलते चलते..............................
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डराते है धमकाते है चुप रहने को कहते है,
अपने विधान का पालन करने को कहते है।।
नाइंसाफी की बयार खुद श्रेष्ठ समझते है
लोग अब आतंक की भाषा को समझते है ।।
मन नही मानता विरोध करने को ललकारता है
आत्मसम्मान संग जीने को कहता है ।।
कैसे चुप रहकर अंधी राह चलता जाउंगा
स्वहित में जीवन संग्राम नही जीत पाउंगा।।
ना बुद्ध ना गुरूनानक ना चुप रह पाये महावीर
अहंकार की मीनार पर कर गये प्रहार दास कबीर ।।
हम चल पड़े अब सर्वजन हिताय की राह,
करे अटखेली सिर चढ़ बहुजन सुखाय की चाह ।।
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बो रहा हूं सपने आज ,
कल ना होकर भी गीत सुनाउंगा
क्या जोडूं क्या घटाउं क्या संचय कर जाउंगा ।।
एक कठपुतली जब तक सांस नाचता रह जाउंगा
जीवन टंगा फर्ज की खूंटी ,यहीं लटका रह जाउंगा ।।
वक्त बदलता रंग कहां एक सा रह पाउंगा
रूप बदले रंग बदले पर फर्ज से ना भटकूं,
यही भीख खुदा से मांगूंगा...............
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घायल मुस्कान,कान खड़े हो रहे है
शब्द बेअसर लोग मौन हो रहे है ।।
चीख है पुकार है लोग आंसू बहा रहे
मुश्किलें खडी करन वाले जाल बिछा रहे ।।
मर चुकी संवेदना खुद खुदा बन रहे
दीन दुनिया से बेखबर पत्थरों से खेल रहे ।।
देखो वे किसी ना किसी भार से दबे कराह रहे
उठा लो फर्ज की कटार,वे राह ताक रहे..........
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।। स्वस्थ वातावरण-स्वस्थ जीवन ।।
पेड़ों की बेखौफ कटाई छाती पर हुए बहुत प्रहार
दोहन का दर्द झेल झेल धरती मां हुई बीमार ।।
बढ़ता प्रदूषण रोज रोज घटती हरियाली
महामारी का डर जीवन खतरे से नही खाली ।।
जोरों पर पेड़ों की कटाई जमीन का उत्खनन
कार्बन कीं बढ़ोतरी कम होती आक्सीजन ।।
धूल धुआं बदरंग कर रहा जमीन आसमान
दमा क्षय त्वचा रोग का दंश झेल रहा इंसान ।।
बढ़ता प्रदूषण घटता पानी नित कम होता खाद्यान्न
ग्लोबल वार्मिंग की वार्निंग चेता जा अब लोभी इंसान ।।
प्रकृति का शोषण ,बाढ सुनामी भूकम्प के गहरे घाव
प्रदूषण जहरीली गैसों का दाता नित देता रिसते घाव ।।
पेट्रोल पदार्थों और कोयले का करे कम से कम हो उपभोग
स्वस्थ वातावरण में निहित खुशहाल जीवन का योग ।।
हाथ जोड़ता हूं आओ पर्यावरण सुरक्षा की कसम दोहराये
ग्लोबल वार्मिंग के विरूद्ध पेड़ को ही हथियार बनाये ......
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।। बरसात ।।
पहली बरसात ने शहनाई का एहसास करा दिया ।
पक्षियों के समूहगान ने द्वारपूजा लगा दिया ।।
गुडहल, कनेर के फूलों ने नवश्रृंगार कर दिया।
पेड़रहित महलों से मेरे छोटे से घर को ,
नये रंग में रंग दे दिया ।।
बादाम,अशोक नीम और दूसरे छोटे बड़े पौधे,
मस्ती में झूम रहे थे ।
चमेली सेमल के फूल इत्र छिड़क रहे थे ।।
रंग बिरंगी पंछियां नाचने में मस्त थी ।
अमरूद का पेड़ हवन कर्म में व्यस्त था ।
बूंद बूंद रोकर,अवनि को समर्पित कर रहा था ।।
समीर संग नीर मेरे मन को स्पर्श करने लगा था ।
अबोध बच्चा जैसे कोई सहला रहा था ।।
बरसात के अद्भुत रोमांच से ,मेरा भी कवि मन जाग उठा ,
मैने कलम उठा लिया ..............
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।। विषबीज ।।
चक्रव्यूह में फंसा,सोचता हूं
आखिरकार वह कौन सी योग्यता है
मुझमें नही है जो,
ऊंची ऊंची डिग्रियां है मेरे पास,
सम्मान पत्रों की सुवास भी तो हैं
अयोग्य हूं फिर भी, क्यूं......... ?
शायद अर्थ की तुला पर व्यर्थ हूं
नहीं नहीं......
पद की दौलत मेरे पास नहीं है
बड़ी दौलत तो है , कद की
सारी दौलत उसके सामने छोटी हैं
फिर भी अस्तित्व पर हमला,जुल्म शोषण,
अपमान का जहर, भेद की बिसात.............
ये कैसे लोग है ? भेद के बीज बोते हैं,
बड़ा होने का दम्भ भरते हैं
अयोग्य होकर कमजोर की योग्यता को नकारते हैं
आदमी को छोटा मानकर दुत्कारता है
सिर्फ जन्म के आधार पर
कर्म का कोई स्वाभिमान नहीं...........
ये कैसा दम्भ है बड़ा होने का ?
पैमाइस में छोटा हो जाता है,
ऊंचा कर्म ऊंचा कद और मान सम्मान भी........
कोई तरीका है,
विषबीज को नष्ट करने का आफ पास
यदि हां तो श्रीमान जी अवश्य अपनायें
गरीब,वंचित उच्चकर्म और कदवान को,
कभी न सताने की कसम खाये ।
सच्ची मानवता है यही
और
आदमी का फर्ज भी..................
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।। सम्भावना के फूल ।।
जख्म पर जख्म अपने ही जहां में,
साथ चलने वाला ना मिला ।
रोटी का बन्दोबस्त
सिर की छांव का इन्तजाम पसीने के भरोसे,
विभाजित जहां में सम्मान ना मिला ।
सर्व समानता के नारे कान तो गुदगुदाते ,
जख्म के अलावा कुछ न मिला ।
भ्रमबस माना तकदीर के खिल गये फूल
हकीकत में टूटा हुआ आईना मिला ।
घाव और गहरा हो गया,
जब आदमी के चेहरे पर,
मुखौटा ही मुखौटा मिला ।
कथनी और करनी को खंगाला जब
आदमियत का लहूलुहान चेहरा मिला ।
आंखें में सपने,दिल घायल मगर
अपनों की महफिल में मीठा जहर मिला ।
बड़ी मन्नतें थी चखें आजादी का स्वाद असली
बिखर गयी उम्मीदें,
मानवीय एकता को ना अवसर मिला ।
छायेगी समता चौखट चौखट होगी सम्पन्नता
सम्भावना का है भारती फूल खिला.............
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।। सपना ।।
कैसी आजादी उम्मीदों के टूट गये पंख,
जुल्म अत्याचार भ्रष्ट्राचार अवनति के जम हैं पंख ।
देश की जनता देख चुकी अपनी संसद में दंगल,
सांसद खींच रहे थे कुर्सी उड़े नोट के बण्डल ।
सत्ता के भूखों को जन-देश की कहां चिन्ता,
जोड़-तोड़ से कुर्सी हथियाना यही हैं चिन्ता ।
होती चिन्ता तो लोकतन्त्र के छाती में खंजर धंसता
आमजन करता गर्व, सद्भावना का डंका बजता ।
ना संवरती लकीरें ना खण्ड खण्ड में आदमी बंटता,
देश-जन के रक्षक को ना कोई जन भक्षक कहता ।
देख बुरा हाल लगता असली आजादी है अभी दूर ,
ना थी ऐसी उम्मीदें सत्ता भूखे सुखभोगे भरपूर ।
मेहनतकश पसीने की रोटी आंसू से गीला करता
भेद-गरीबी के दलदल में फंसा आजादी पर गर्व करता ।
किस रंग में रंग दी आजादी सत्ता के भूखों ने,
क्या यही सपना देखा था देश के अमर शहीदों ने ।
कसम है सत्ता के भूखों ना बदलों पल-पल चेहरे,
स्वहित में ना जीओ, सींचो आमजन के सपने सुनहरे ।
उम्मीदें हैं टूटी ना पूरा हुआ असली आजादी का सपना,
आजादी का ये दिन लेकर आया है नई सम्भावना ।
कर्जदार है हम सभी आजादी के अमर दीवानों के,
उठा ले बीड़ा देश समाज को खुशहाल बनाने के ।
ध्यान भारत माता का, करें शक्ति का आह्वान
राष्ट्रहित-जनहित मे स्वार्थ का करें हर बलिदान ।
मन्तव्य को दोहराये, करे अमर शहीदों की वन्दना ,
बहुजनहिताय बहुजन सुखाय का बाकी है सपना ।
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।। अस्तित्व ।।
चिन्ता की चिता पर सुलगते हुए
अस्तित्व संवारने में जुट गया हूं,
बाधायें भी निर्मित कर दी जाती है,
थकने लगा हूं बार बार के प्रहार से
मैं डरता नही हार से क्योंकि,
बनी रहती है सम्भावनायें जीत की ।
अर्न्तमन में उपजे सद्विचारों में
अस्तित्व तलाशने लगा हूं,
मेरी दौलत की गठरी में है,
कुलीनता,कर्तव्य,निष्ठा,आदमियत
बहुजन सुखाय के ज्वलन्त विचार ।
जानता हूं पीछे मुड़कर देखता हूं
विश्वास पक्का हो जाता है कि,
मैं भी स्थायी नही परन्तु स्वार्थी नही हूं ।
मैं दौलत संचय के लिये नही,
अस्तित्व के लिये संघर्षरत् हूं ।
टूटा नही है मेरा विश्वास हादसों से
निखरी नही है मेरी आस जानता हूं
सम्भावनाओं के पर नही टूटे हैं
भले ही दौलत की तुला पर निर्बल हूं ।
कलम का सिपाही हूं,
बिखरी आस को जोड़ने में लगा हूं
चिन्ता की चिता पर सुलगते हुए भी
कलम पर धार दे रहा हूं ।
अभी तक टूटा नही हूं मैं।
दिल क गहराई में पड़े हैं
ज्वलन्त सद्विचारों के ज्वालामुखी जो,
अस्तित्व को जिन्दा रखने के लिये काफी हैं ......
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।। गुरू वन्दना ।।
आओ करें गुरू वन्दना
मुबारक दिन पूजा का है त्यौहार ।
पावे मन भर भर आशीष, कर जाये भवसागर पार
गुरू महिमा की बजती ढोल नाचा है संसार ।
आओ करें गुरू वन्दना
मुबारक दिन पूजा का है त्यौहार ................
गुरू की चोट निराली ना हो तनिकों घाव
गुरू की शीतल छांव मिट जाते सब पाप
बाहर की चोट, मिटावे अन्दर की खोट
चरणों में लोट भरे ज्ञान का भण्डार
आओ करें गुरू वन्दना
मुबारक दिन पूजा का है त्यौहार ................
गुरू, शिष्य-विकास का ढोता बोझ
सच्चे गुरू की आत्मा यही, यही है जोश
रिश्ते की कसौटी पर खरा उतरता
समानता की डोर,जाति धर्म नहीं आधार
आओ करें गुरू वन्दना
मुबारक दिन पूजा का है त्यौहार ................
दुनिया की आस गुणवान शिक्षा पर टिका विकास
ज्ञान नैतिक मूल्यों और संस्कारों का बांटे उजास
राष्ट्र-निर्माण युग निर्माण गुरू का चमत्कार
हमारा भी कर्तव्य, मोड दे श्रद्धा की धार,
आओ करें गुरू वन्दना,
मुबारक दिन पूजा का है त्यौहार ................
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।। निशान ।।
चाहता हूं सद्भाववना की उजली तस्वीर बना दूं
जमाना मुड़ मुड़कर देखे और इतरायें
कोशिश और मेहनत भी करता हूं दिन रात
पर ये क्या तस्वीर उभर नही पाती
रंग धर नहीं पाती है परछाईयों के घाव से ।
मैं भयभीत रहने लगा हूं
सपने टूटने उम्मीदें बिखरने लगी है
श्रम के गारे की दीवार ढहने लगी है,
आंसुओं के रंग को परछाइयों का कुहरा ढंकने लगा है
सम्भावना पर कब तक जी पाउंगा
सोच सोच कर आतंकित रहने लगा हूं ।
संवेदना शून्य बना दिया हैं लोगों को
मानवीय रिश्ते में दरार डाल दिया है
आज भी परछाइयां संवर रही हैं
चैन से जीने भी नही देती हैं ये परछाइयां ।
बिखर गया है भविष्य और सपने भी
योग्यता हारने लगी हैं परछाइयों के आगे,
विषबाण सरीखे बेधने लगी हैं
भविष्य को सम्भावनाओं में ढूंढ रहा हूं
चौपट तो हो गये है सपने मेरे
पर डर भी अभी बाकी है
कहीं परछाईंयों के आतंक से ,
निशान ना मिट जाये ,
पसीने और आंसुओं के मेरे..........
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।। शिनाख्त ।।
शिनाख्त कर ली है मैंने, कातिलों की,
वही है वे जो चाहते है,
दूर रहूं ,आंख उठाकर भी न देखूं
मेरी आंखों की बाढ़ और टूटते हुए सपने,
अच्छे लगते है उनको ।
धुन का पक्का हूं मैं भी
बदले का भाव मेरे मन में नही है,
ना किसी तरह का कोई बैर भी ।
निखरी छाप छोड़ना चाहता हूं
कातिलों के हमले थम नही रहे हैं
चाहते हैं कैदी बना रहूं ।
विकास की दौड़ में बहुत पीछे छूट गया हूं
कातिल है कि पीछे ही खींचने में जुटे है,
मैं आगे जाना चाहता हूं
सदियों की खींचातानी में पर उखड गये हैं
तरक्की से वंचित हो गया हूं ।
खींचातानी में पांव नही जमा पा रहा हूं
धैर्य मजबूत होता जा रहा है
विकास की बयार चौखट तक नही पहुंच रही है
कुछ लोग धर्म-जाति का जहर बो रहे है ।
सच यही विकास के दुश्मन है,
समाज को विखण्डित करने के बहाने है,
नफरत के तराने है
उग्रवाद के पोषक है,वंचितों के शोषक है ।
शिनाख्त तो हो गयी है कातिलों की
खुद को खंगाल ले,मानवता का दामन थाम ले,
कर दे कातिलों को अपने से बहुत दूर
क्योंकि ये कातिल विकास में बाधक है
और कायनात के दुश्मन भी ..........।
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।। जीवन परिचय ।।
नन्दलाल भारती
कवि/कहानीकार/उपन्यासकार
शिक्षा - एम.ए. । समाजशास्त्र । एल.एल.बी. । आनर्स ।
पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा इन ह्यूमन रिर्सोस डेवलपमेण्ट
जन्म तिथि - ०१.०१.१९६३
जन्म स्थान- - ग्र्राम चकी। खैरा। तह.लालगंज जिला-आजमगढ ।उ.प्र।
स्थायी पता- आजाद दीप, १५-एम-वीणानगर ,इंदौर ।म.प्र.!
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nandlalram@yahoo.com /nl_bharti@bsnl.in
प्रकाशित पुस्तकें
उपन्यास-अमानत ,निमाड की माटी मालवा की छाव।प्रतिनिधि काव्य संग्रह।
प्रतिनिधि लघुकथा संग्रह- काली मांटी एवं अन्य कविता, लघु कथा एवं कहानी संग्रह ।
अप्रकाशित पुस्तके
उपन्यास-दमन,चांदी की हंसुली एवं अभिशाप, कहानी संग्रह- २
काव्य संग्रह-२ लघुकथा संग्रह-१ एवं अन्य
सम्मान
भारती पुष्प मानद उपाधि,इलाहाबाद,
भाषा रत्न, पानीपत ।
डां.अम्बेडकर फेलोशिप सम्मान,दिल्ली
काव्य साधना,भुसावल, महाराष्ट्र,
ज्योतिबा फुले शिक्षाविद्,इंदौर ।म.प्र.।
डां.बाबा साहेब अम्बेडकर विशेष समाज सेवा,इंदौर
कलम कलाधर मानद उपाधि ,उदयपुर ।राज.।
साहित्यकला रत्न ।मानद उपाधि। कुशीनगर ।उ.प्र.।
साहित्य प्रतिभा,इंदौर।म.प्र.।
सूफी सन्त महाकवि जायसी,रायबरेली ।उ.प्र.।
विद्यावाचस्पति,परियावां।उ.प्र.। एवं अन्य
आकाशवाणी से काव्यपाठ का प्रसारण ।कहानी, लघु कहानी,कविता
और आलेखों का देश के समाचार पत्रो/पत्रिकओं में
एवं www.swargvibha.tk swatanraawaz.com एवं अन्य बेवसाइटस् पर प्रकाशन ।
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