है बहू और सास में टकराव ये आज के दिन घर में पोंछा कौन दे ---- वो मिरे बचपन की सख़ियाँ वो मिरी हमजोलियाँ जाने किस नगरी गयीं, किस द...
है बहू और सास में टकराव ये
आज के दिन घर में पोंछा कौन दे
----
वो मिरे बचपन की सख़ियाँ वो मिरी हमजोलियाँ
जाने किस नगरी गयीं, किस देस जा कर खो गयीं
--- इसी संग्रह से…
ग़ज़ल संग्रह
जियारत
-अनु जसरोटिया
===== 1
महफ़िल में हैं तेरी यादें तन्हाई में तेरी सोचें
आ जा हम को रहने लगी हैं हर दिन हर पल गहरी सोचें
शाम ढले बेटी का घर से बाहर जाना ठीक नहीं है
बाप की बूढ़ी आंखों में हैं जाने कैसी कैसी सोचें
ये तुलसी का विरवा इक दिन और किसी आंगन में होगा
जूँ जूँ बेटी का क़द बढ़ता बढ़ती जातीं माँ की सोचें
आँगन आँगन, कुटिया कुटिया, पहुँची महल चौबारों में
बँद दरीचों में भी जाने कैसे आती जाती सोचें
बाँट दिए हैं अम्मा-बाबा अब इस घर के बटवारे ने
बदली दुनिया बदले तेवर बच्चों की भी बदली सोचें
========== 2
एक भी गुल पर कहीं नाम-ओ-निशाँ मेरा नहीं
ये चमन मेरा नहीं ये गुलिस्ताँ मेरा नहीं
एक क़तरे की इजाज़त भी नहीं मुझ को यहाँ
ये नदी मेरी नहीं आबे-रवाँ मेरा नहीं
जाऊँ भी तो दोस्तों जाऊँ कहाँ मैं किस नगर
इस भरी दुनिया में कोई भी मकाँ मेरा नहीं
इस के कण कण को किया करती हूँ मैं झुक कर सलाम
कौन कहता है कि ये हिन्दोस्ताँ मेरा नहीं
आदमी दुश्मन बना है आदमी का हर जगह
ये गया गुज़रा ज़माना ये जहाँ मेरा नहीं
चल रही हूँ साथ सब के और हूँ सब से अलग
मैं शरीके-कारवाँ हूँ कारवाँ मेरा नहीं
========== 3
यूँ उमड़ने को तो हर रोज़ ही उमड़ा बादल
मेरी आशाओं की खेती पे न बरसा बादल
एक छींटे को तरसती रहीं फ़स्लें मेरी
मेरे खेतों के मुक़द्दर में नहीं था बादल
ऐसी तासीर भी होती है कभी पानी में
आग सी दिल में लगाता है सुहाना बादल
जाने किस देस की धरती को करेगा जल थल
एक अन्जाने सफ़र पर है रवाना बादल
आस बँध जाती ज़रा सूखते तालाबों की
झूठा वा'दा ही जो कर जाता गुज़रता बादल
जाने किस देस बरसने के लिए जाता है
मेरे घर में भी किसी रोज़ बरसता बादल
वो किसी और ही बस्ती में बरस जाता है
भूल जाता है मिरे गाँव का रस्ता बादल
हर पहाड़ी से लिपट जाता है बादल ऐसे
जैसे हर एक पहाड़ी ने हो पहना बादल
कुछ ख़याल उस को न था प्यास के मारों का 'अनु'
आज रह रह के समंदर पे जो बरसा बादल
------------------ 4
गीत
तरक्क़ी के शिख़र पर जा के भारत मुस्कुराता है
बड़ा ऊँचा मुक़द्दर हो तो ऐसा वक्त आता है
जिधर देखो उधर ही कारख़ाने जगमगाते हैं
गुलिस्तानों में पँछी डालियों पर चहचहाते हैं
जिसे देखो वही आज़ादियों के गीत गाता है
बड़ा ऊँचा मुक़द्दर हो तो ऐसा वक्त आता है
शहीदों के लहू ने हम को आज़ादी दिलाई है
ये आज़ादी कोई ख़ैरात में हम ने न पाई है
बचायेंगे इसे ये हर कोई सौगंध खाता है
बड़ा ऊँचा मुक़द्दर हो तो ऐसा वक्त आता है
सलाम ऐ मादरे-हिन्दोस्ताँ तेरे तिरंगे को
कि झुक कर चूमता है आस्माँ तेरे तिरंगे को
तिरंगे के लिए तो आस्माँ भी सर झुकाता है
बड़ा ऊँचा मुक़द्दर हो तो ऐसा वक्त आता है
मिरे भारत तिरी फ़ौजों से दुश्मन थरथराते हैं
तिरे जाँ-बाज़ अपनी जान पर भी खेल जाते हैं
तिरी फ़ौजों को जब भी कोई मौक़ा आजमाता है
ख़ुशा ऐ दिल ज़माना गीत आज़ादी के गाता है
हमेशा क़ाइम-ओ-दाइम रहे तू ऐ मिरे भारत
ऋषि मुनियों की गाथाएँ कहे तू ऐ मिरे भारत
तिरा तो कृष्ण जी से, राम से, गौतम से नाता है
शहीदाने-वतन के गीत हर ज़र्रा सुनाता है
तुझे नज़राने जाँ के पेश कर जायेंगे ऐ भारत
ख़ुशी से हम तिरी राहों में मर जायेंगे ऐ भारत
कभी हम को अगर भारत हमारा आजमाता है
बड़ा ऊँचा मुक़द्दर हो तो ऐसा वक्त आता है
------------------ 5
ये बरखा रुत ये बरसातें हमें अच्छी नहीं लगतीं
तिरे बिन चाँदनी रातें हमें अच्छी नहीं लगतीं
बरस पड़ते हैं आँसू बे-सबब, बे-वक्त भी अक्सर
ये बे-मौसम की बरसातें हमें अच्छी नहीं लगतीं
किसी दिन सामने आओ हमारे रूबरू बैठो
ये टेलीफ़ोन पर बातें हमें अच्छी नहीं लगतीं
कभी तो अश्क थम जायें, कभी तो ख़ुश्क हो मौसम
ये बरसातों पे बरसातें हमें अच्छी नहीं लगतीं
तसल्ली से कभी दो पल हमारे साथ बैठो तुम
ये रस्ते की मुलाक़ातें हमें अच्छी नहीं लगतीं
ख़ुशी का भी कभी पैग़ाम भेजो तो तुम्हें जानें
ये रंजो-ग़म की सौग़ातें हमें अच्छी नहीं लगतीं
हमीं से बे-वफ़ाई, और हमीं को बे-वफ़ा कहना
ये इल्ज़ामों की बरसातें हमें अच्छी नहीं लगतीं
किसी दिन जीत ही लेंगे 'अनु' बाज़ी महब्बत की
कि आये दिन की ये मातें हमें अच्छी नहीं लगतीं
------------------ 6
पिंजरों में सदा क़ैद न रहते हैं परिन्दे
दर खुलते ही उड़ते हुये देखे हैं परिन्दे
लगता है कि छू लेंगे अभी नील गगन को
आकाश में किस शान से उड़ते हैं परिन्दे
इस देश के रंगीन नज़ारों को तो देखो
हर रंग के इस देश में मिलते हैं परिन्दे
सरहद के ये उस पार चले जाते हैं बेख़ौफ़
हम सोचते हैं हम से तो अच्छे हैं परिन्दे
ले उड़ते हैं पिंजरों को अगर दम हो परों में
ख़ुद अपने मुक़द्दर को भी लिखते हैं परिन्दे
मा'सूम हैं फ़रियाद भी ये कर नहीं सकते
मत इन को सताओ ये परिन्दे हैं परिन्दे
क़ुदरत ने इन्हें गीत-निगारी जो अता की
हर सुब्ह नया गीत सुनाते हैं परिन्दे
जागीर समझ कर वो इन्हें पुरखों की अपने
खेतों में बड़ी शान से उतरे हैं परिन्दे
बच्चों के लिये लाये हैं कुछ चोंच में रख कर
दिन भर की उड़ानों से जो लौटे हैं परिन्दे
समझो कि ये आसार हैं बारिश के 'अनु जी'
जिस वक्त की मिट्टी में नहाते हैं परिन्दे
==== 7
हर एक मँज़िले-दुश्वार से गुज़रते हैं
जो चल पड़े हों, वो कब क़ाफ़िले ठहरते हैं
ख़ुदा न बख्शे, कभी ऐसे बे-यक़ीनों को
जो कर के वादा, फिर उस वादे से मुकरते हैं
तुम्हीं बता दो ये ईमान से, किधर जाएँ
तुम्हारी चाह भी करते हैं, और डरते हैं
वो गीत जिन को सुने कुल जहाँ तवज्जो से
सुना है गीत वो आकाश से उतरते हैं
अमर शहीद कहाते हैं वो हर इक युग में
वतन की राह में जो जाँ निसार करते हैं
लजा सी जाती है उस दम फ़ज़ा ज़माने की
वो फूल टाँक के जूड़े में जब सँवरते हैं
ग़मों की आँच को समझो न तुम कभी बे-कार
ग़मो की आग में तप कर ही हम निखरते हैं
तू अपने ख़्वाब बिखरने का ग़म न कर कि यहाँ
जो आज खिलते हैं वो फूल कल बिखरते हैं
हिला भी देती है वो आह आस्मानों को
तड़प के भूख से जब लोग आह भरते हैं
========== 8
रुक जाए सरे-राह वो मज़दूर नहीं है
दिन भर की तकानों से भी ये चूर नहीं है
बेटी के जनम पर भी मनाये कोई ख़ुशियाँ
हरगिज़ अभी दुनिया का ये दस्तूर नहीं है
ख़ुद अपने मुक़द्दर को मैं अब कैसे बदल दूँ
क़ुदरत को ये शायद अभी मन्ज़ूर नहीं है
दीवाना है, नादान है या है कोई मजज़ूब
मत इस को सताओ कि ये मग़रूर नहीं है
ख़ुद अपने ही हाथों से लिखे हम ने अन्धेरे
ऐसा नहीं ये रौशनी भरपूर नहीं है
लगता है सरे-शाम ही उतरी हैं बहारें
दिल वस्ल के आलम में है महजूर नहीं है
ख़ुद अपने ही हाथों से वो इतिहास लिखेगा
इँसान के हाथों से वो दिन दूर नहीं है
========== 9
क्या रात सुहानी है क्या ख़ूब नज़ारा है
आ जाओ तुम्हें दिल ने ऐसे में पुकारा है
ये झील की नीलाहट, ये पेड़, ये गुल बूटे
आ जाओ कहीं से तुम क़ुदरत का इशारा है
इक जिस का सहारा था वो भी न मिला उस को
जाए तो कहाँ जाए तक़दीर का मारा है
ये किस का तसव्वुर है, है किस का ख़याल आख़िर
इन बन्द दरीचों से ये कौन पधारा है
जो शब भी गुज़र जाए ऐसे ही तो अच्छा हो
बस याद में तेरी ही दिन आज गुज़ारा है
पीते हैं लहू दिल का, सो जाते हैं भूखे ही
बिन माँ के दुलारों का फ़ाक़ों पे गुज़ारा है
ये हिन्द की धरती है, आकाश है भारत का
हर फूल है इक गुलशन हर ज़र्रा सितारा है
========== 10
ज़मीने-दिल लरज़ गई ग़ुबार भी उठा तो है
गुज़र के क़ाफ़िला कोई अभी अभी गया तो है
ख़ज़ाँ का दौर है तो क्या बहार है क़रीब अब
कि कोई पात शाख़ पर कहीं कहीं हरा तो है
चमक रहा तो है दिया कोई अंधेरी रात में
जलेंगे और भी दिये चिराग़ इक जला तो है
है रास्ता अटा हुआ ग़ुबार से तो क्या हुआ
ख़ुदा का फिर भी शुक्र है कि कोई रास्ता तो है
वो मुस्कुरा के राह में, कभी कभी मिला मुझे
यक़ीं नहीं करे कोई, मगर ये भी हुआ तो है
वो आएँगे, वो आ गए, वो रूबरू हैं अब मिरे
ये ख्वाब मेरी आँख ने कभी कभी बुना तो है
जो ख़ुद भी एक फूल है गुलाब सा खिला हुआ
वो फूल ले के हाथ में मिरी तरफ़ बढ़ा तो है
नहीं है उस की आँख से छुपी कोई भी बात 'अनु'
ख़ुदाए दो जहाँ हमें फ़लक से देखता तो है
====== 11
आहों की कहानी है अश्कों का फ़साना है
हस्ती जो हमारी है क्या उस का ठिकाना है
तुम झूट की नगरी में रहते हो ज़माने से
बरसों में कहीं जा कर हम ने तुझे जाना है
उतरा है कोई पंछी फिर दिल की मुंडेरों पर
फिर याद मुझे आया इक गीत पुराना है
शो'लों में भी झुलसे हैं अश्कों में भी भीगे हैं
इक अपने लहू में भी अब हम को नहाना है
तुम अपनी निगाहों से जिस को भी गिरा दो हो
फिर ऐसे अभागे का किस देस ठिकाना है
ये भीगी हुई रतियाँ, ख़ुशबू में बसी शामें
इस मौसमे-रंगीं से इक लम्हा चुराना है
क्या दाल गले अपनी, चोरों की है जब चाँदी
युग आया है ये कैसा, ये कैसा ज़माना है
रहने नहीं देंगे हम, धरती पे कोई रावण
हर झूट की नगरी को अब हम ने जलाना है
क्यों ध्यान भटकता है अब भी उन्हीं राहों में
जिन राहों में अब अपना आना है न जाना है
क्यों दाद न देंगे सब, शे'रों पे 'अनु' तुझ को
हर शे'र में जब बाँधा मज़मून सुहाना है
========== 12
आ और आ के हाले-दिले-बेक़रार सुन
दिल याद तुझ को करता है बे इख्तियार सुन
मायूसियों को छोड़ के तू चल हवा के साथ
क्या कह रहा है राह का उठ कर ग़ुबार सुन
कहता है कुछ तो करता है कुछ और ही बशर
बातों का इस की कुछ भी नहीं एतबार सुन
बर्बाद हो न जाये कहीं ये घड़ी ये पल
सुनने की जो है बात उसे बार बार सुन
जब से लगी है दिल को मुलाक़ात की लगन
दिल पर नहीं है हम को कोई इख्तियार सुन
अटकी है नाव मेरी भँवर में तू पार कर
परवरदगार, ऐ मिरे परवरदगार सुन
सारे ही ग़म भुला के ज़रा हँस ले चार दिन
क्या कह रहे हैं फूल तुझे, एक बार सुन
========== 13
चाँद पर जा के अगर रहने लगेगी दुनिया
उस की धरती को भी नापाक करेगी दुनिया
पाँव रखने को भी बाक़ी न बची जो धरती
क्या समंदर के तले जा के रहेगी दुनिया
उम्र भर साथ किसी के न चली ये ज़ालिम
उम्र भर साथ किसी के न चलेगी दुनिया
एक ऐटम ने मिटा डाला था ''नागासाकी''
उस को दुहराओगे तो कैसे बचेगी दुनिया
ज़ुल्म की हद से गुज़र जायेगा जब भी कोई
क़ह्र बन बन के न क्या टूट पड़ेगी दुनिया
अम्न की फ़ाख्ता पर खोलेगी इक दिन अपने
अम्न का गीत भी इक रोज़ सुनेगी दुनिया
चैन से जीने की तो बात बड़ी दूर की है
चैन से हम को तो मरने भी न देगी दुनिया
====== 14
याद आई पुरानी सखियों की
खुल गयीं खिड़कियाँ ख़यालों की
कोई काँटों को पूछता भी नहीं
धूम है हर तरफ़ गुलाबों की
क़ौ'ल और फ़े'ल एक जैसा हो
शान है इस में बादशाहों की
बन के दासी मैं आरती गाऊँ
कृष्ण की, राम की, शिवालों की
माँद है ताब रूबरू तेरे
माहताबों की आफ़ताबों की
मुझ को अपनी तरफ़ बुलाती है
ये घनी छाँव देवदारों की
झूमते गाते अब्र छा जायें
कह रही है ये रुत बहारों की
हम को इक दिन 'अनु' बसानी है
एक दुनिया अलग किताबों की
========== 15
मैं ने ख़ाकों में कई रंग भरे हैं अब तक
मेरी आँखों ने कई ख्वाब बुने हैं अब तक
कितने ख़त मैं ने तिरे नाम लिखे हैं अब तक
कितने दिन उन के जवाबों में कटे हैं अब तक
मुस्कुराहट के न क्या फूल बिखेरोगे कभी
हम को तो राह में काँटे ही मिले हैं अब तक
गो भलाई को नहीं रास हवा दुनिया की
फिर भी कुछ लोग ज़माने में भले हैं अब तक
कोई हँसता हुआ चिह्न भी मिलेगा शायद
सहमे-सहमे से बहुत लोग मिले हैं अब तक
ज़िँदगी तू ने फ़क़त एक हँसी की ख़ातिर
ज़हां के छलके हुए जाम पिये हैं अब तक
हँसना चाहा है तो देखा है 'अनु' ये मैं ने
मेरे नग़्मात भी अश्कों में ढले हैं अब तक
========== 16
हट गुनगुनाये सवेरा हुआ;;
गुलिस्ताँ में हर सू उजाला हुआ
ज़माने से आशा न रखना कोई
ये ज़ालिम भला कब किसी का हुआ
हुए मुग्ध बच्चे कहानी में तब
जो परियों का उस में बसेरा हुआ
तवक्क़ो नहीं हम को इस से कोई
जब इँसाफ़ ही अन्धा बहरा हुआ
तुम्हें ले के जाऊँगी मंज़िल पे मैं
है रस्ता मिरा देखा भाला हुआ
किसी नेक साइत में जन्मा था वो
बुज़ुर्गों की आँखों का तारा हुआ
चलो खेल गुड़ियों का खेलें कहीं
खिलौनों से खेले ज़माना हुआ
निकल आओ ख़्वाबों की दुनिया से अब
'अनु' तुम भी जागो सवेरा हुआ
========== 17
हम ने कब तुझ को चाहा नहीं है
हम ने कब तुझ को पूजा नहीं है
जिस को देखें सभी राह चलते
ज़िंदगी वो तमाशा नहीं है
एक ऐसा सफ़र भी है जिस पर
जो गया फिर वो लौटा नहीं है
ख्वाब पाला नहीं कोई हम ने
दिल में कोई तमन्ना नहीं है
कुछ न चाहूँ यही सोचती हूँ
मेरा चाहा तो होता नहीं है
तुझ से रक्खूँ कोई राबिता मैं
मेरा क़द इतना ऊँचा नहीं है
रोक लूँ एक दिन तेरा रस्ता
मैं ने कब ऐसा सोचा नहीं है
अब इधर से नहीं क्यूँ गुज़रते
क्या ये रस्ता, वो रस्ता नहीं है
इस पे तारीकियों के हैं साये
ये उजाला, उजाला नहीं है
========== 18
ख़ुश्क सहराओं को सब्ज़ा कौन दे
सूखते खेतों को दरिया कौन दे
माँगते हैं दिल मिरा बे मोल वो
एक पैसे में ये दुनिया कौन दे
नस्ले-नौ अब सोचती है बैठ कर
इस हवेली का किराया कौन दे
घर में बेटे के नहीं जिन की जगह
उन बुज़ुर्गों को सहारा कौन दे
सोचते हैं बस में बैठे सब कवि
देखिए बस का किराया कौन दे
है बहू और सास में टकराव ये
आज के दिन घर में पोंछा कौन दे
ये बरसती आग, ये सहरा 'अनु'
हम को अब ऐसे में साया कौन दे
========== 19
जब जब अत्याचार हुआ है
तब तब कृष्ण अवतार हुआ है
जब भी मैं ने सच बोला तो
बैरी ये संसार हुआ है
गौतम, नानक से सँतों का
कलियुग में अवतार हुआ है
बगले भगत हर मोड़ पे मिलते
हर कोई सरकार हुआ है
जिस भी किसी ने ध्यान लगाया
भव सागर के पार हुआ है
जब भी हम ने उस को सोचा
उस का हमें दीदार हुआ है
महँगाई के कारण सब का
जीना अब दुश्वार हुआ है
वो भी कृष्ण का भगत है शायद
मंदिर में दीदार हुआ है
रातों की तन्हाइयों में ही
गीतों का सिंगार हुआ है
========== 20
दिले-शिकस्ता को फिर कोई ख्वाब मत देना
पुराने घर को नई आबो-ताब मत देना
सवाल हम ने किया है बड़ी उम्मीदों से
जवाब ठीक ही देना ख़राब मत देना
ग़मों के बोझ तले हम न दब के रह जायें
जो ग़म ही देना है तो बे-हिसाब मत देना
कहीं न टूट के रह जायें हम दुखों के सबब
अब और दुख दिले-नाकामयाब मत देना
बहक न जाये वो कम-ज़र्फ़ पी के थोड़ी सी
तुम उस के हाथ में जामे-शराब मत देना
वो पेड़ पौधे कि लगते हैं जिन को काँटे ही
तुम ऐसे पेड़ों को भूले से आब4 मत देना
पढ़े लिखों से हम अनपढ़ कोई बुरे भी नहीं
ख़ुदा के वास्ते हम को किताब मत देना
हर इक सवाल का होता जवाब भी है एक
हर इक सवाल के सौ-सौ जवाब मत देना
========== 21
जोगिया पैरहन में रहते हैं
हम प्रभु की लगन में रहते हैं
जिस तरह 'राम' वन में रहते थे
हम भी वैसे ही छन में रहते हैं
हैं ग़रीबी में बरकतें लाखों
सैंकड़ों ऐब धन में रहते हैं
इस तरफ़ भी निगाह करता जा
हम भी तेरे वतन में रहते हैं
कुछ तो देखे गये हैं धरती पर
कुछ सितारे गगन में रहते हैं
मुल्के-गँगो जमन हमारा है
मुल्के-गँगो जमन में रहते हैं
अनगिनत ख़ुशबुएँ, हज़ारों रंग
फूल के बाँकपन में रहते हैं
दौड़ते हैं लहू से रग रग में
जान से वो बदन में रहते हैं
हम अकेले भी हों तो लगता है
जैसे इक अंजुमन में रहते हैं
हम को क्या काम अहले-दुनिया से
मस्त हम अपने फ़न में रहते हैं
हम हैं ऊँची उड़ान के पंछी
शायरी के गगन में रहते हैं
========== 22
तेरे होंटों का गीत बन जाऊँ
गीत बन कर फ़ज़ा में लहराऊँ
आप ख़ुश रंग फूल बन जायें
उस में ख़ुशबू सी मैं समा जाऊँ
जी में आता है बिन मिले तुझ से
मैं तिरे शहर से गुज़र जाऊँ
तू मिरी रूह में समा जाये
मैं तिरी रूह में उतर जाऊँ
तू मिरा कृष्ण है, कन्हैया है
क्यों न मीरा के मैं भजन गाऊँ
बाँसुरी बज रही हो गोकुल में
और मैं उस की धुन पे लहराऊँ
सोचती हूँ कि कृष्ण मन्दिर में
जोगिनों के लिबास में जाऊँ
पा के तुझ से मैं रौशनी की किरण
अपने दिल का दिया जला पाऊँ
कृष्ण मँदिर में मूर्ति को 'अनु'
आज सोने का ताज पहनाऊँ
========== 23
मीर-ओ-ग़ालिब को पढ़ा तो राज़ हम कुछ पा गये
शायरी में कुछ सुहाने रंग भरने आ गये
झूठ की राहों पे चलना तर्क हम ने कर दिया
चलते-चलते हम सचाई की डगर पर आ गये
फूल झड़ते थे वो जब करता था हम से गुफ्तगू
वो तो जादूगर था हम बातों में उस की आ गये
उन की ख़ुशबू-ए-बदन का ये करिश्मा देखिये
सैर को आये थे, सारे बाग़ को महका गये
उस ने बातों में लगाया, एक दिन ऐसा हमें
चलते-चलते साथ उस के दूर तक हम आ गये
गूँजते हैं ज़िंदगी में क़हक़हे ही क़हक़हे
आप जिस दिन से हमारी ज़िंदगी में आ गये
===== 24
बात लाओगे अगर दिल की ज़ुबाँ पर
राज़ खुल जायेंगे फिर सारे जहाँ पर
फ़िक्र कर नादान अपने आशियाँ की
बिजलियों की हैं निगाहें आशियाँ पर
था यक़ीनी उस का आना दिल पे मेरे
तीर जब उस ने चढ़ाया था कमाँ पर
सहमा-सहमा है यहाँ हर इक परिन्दा
वक्त क़ैसा आ पड़ा है गुलसिताँ पर
सोच कर अब हो गई हँ मैं परेशाँ
वक्त मुश्किल क्यूँ पड़ा इक मेहरबाँ पर
इस तरह ले चल हमारे कारवाँ को
कोई आफ़त आ न पाये कारवाँ पर
उन की बातों से महक जाता है ये मन
जैसे आ जायें बहारें गुलिस्ताँ पर
मैं तसव्वुर में ये अक्सर सोचती हँ
चल रहे हों जैसे हम तुम कहकशाँ पर
क्या बिगाड़ेगा कोई हिन्दोस्ताँ का
है ख़ुदा जब मेहरबान हिन्दोस्ताँ पर
किस पवित्र आत्मा का है ये मस्कन
आस्माँ भी झुक रहा है आस्ताँ पर
========== 25
किसी रोज़ हम भी सँवर कर तो देखें
गुलों सा कभी हम निखर कर तो देखें
बिखर कर भी हो रौशनी चार जानिब
सितारों के जैसा बिखर कर तो देखें
हमें उस का दीदार होगा यक़ीनन
कभी ध्यान में हम उतर कर तो देखें
हिला कर जो रख दे ज़मीं आस्माँ को
कभी इस तरह आह भर कर तो देखें
बिछाई हैं रस्ते में कलियाँ किसी ने
कभी आप इधर से गुज़र कर तो देखें
ये हर रोज़ मरना कुछ अच्छा नहीं है
वतन पर किसी रोज़ मर कर तो देखें
==== 26
ज़ख्मे-दिल ताज़ा हुए, लौ दे उठीं तन्हाइयाँ
फिर लहू का ज़ायक़ा चखने लगीं पुरवाइयाँ
काम आती है जुनूँ की रहनुमाई इस जगह
चल नहीं सकतीं महब्बत में कभी दानाइयाँ
झूट छुप सकता नहीं तुम लाख पर्दे डाल दो
झूम कर अंगड़ाई लें गी एक दिन सच्चाइयाँ
आँच आने दी न हम ने उस की शोहरत पर कोई
सर झुका के सह गये बदनामियाँ, रुस्वाइयाँ
ऊँचा उठना हो जिन्हें उन के लिये ज़ीने बहुत
गिरने वालों के लिये मौजूद गहरी खाइयाँ
ऐसी भी कुछ हैं अभागिन लड़कियाँ इस शहर में
बज न पाईं जिन की शादी की कभी शहनाइयाँ
आ किसी दिन रूह में, दिल में समाने के लिये
याद करती हैं तुझे अब रूह की गहराइयाँ
नन्हे मुन्नों की जहाँ किलकारियाँ हों गूँजती
हम को तो लगती हैं प्यारी बस वही अंगनाइयाँ
अब नहीं बाक़ी कहीं अद्ले-जहाँगीरी यहाँ
अब नहीं होतीं ग़रीबों की कहीं शुनवाइयाँ
थक गई हैं अब निगाहें तेरा रस्ता देखते
छुट्टी ले के घर को आ जा मेरे सर के साइयाँ
========== 27
वो मद भरी आँखों में, डाले हुये काजल है
बस्ती में जिसे देखो, मदहोश है घायल है
ये कैसे उजाले हैं, तहज़ीब है ये कैसी
आवारा निगाहें हैं, उड़ता हुआ आँचल है
इक राह है नफ़रत की, इक राह मुहब्बत की
इक राह में काँटे हैं, इक राह में मखमल है
आता है यही जी में, पी जाऊँ तिरे आँसू
गँगा की तरह प्यारे ये जल भी तो निर्मल है
देती है पता हम को, तूफ़ान की आमद का
पानी की तहों में जो, ख़ामोश सी हलचल है
कहता है मुझे ले चल, तू कूचा-ए-क़ातिल में
ये दिल तो है सौदाई, नादान है, पागल है
दीवानों की सोचों में रहते हैं सदा सहरा
बस्ती को भी दीवाने, कहते हैं कि जंगल है
मालूम नहीं हम पर, क्या शब में गुज़र जाये
दिल शाम ही से अपना, बे-चैन है बेकल है
घुँघरू की सदा ज़ख्मी, पैरों में फफोले हैं
क्या रक्स करे कोई, टूटी हुई पायल है
जो दिल में उतर जाये, कहते हैं ग़ज़ल उस को
जो उँगलियाँ कटवाये, ढाके की वो मलमल है
बे-रूह है चण्डीगढ़, बिन आत्मा की नगरी
सीमेन्ट की बस्ती है, सरिये का ये जंगल है
कल रात गये, उठ कर, हम फूट के जो रोये
आँगन में 'अनु' दिल के, क्या ख़ूब ये जल थल है
========== 28
कैसी कैसी हस्तियाँ आख़िर ज़मीं में सो गयीं
कैसी कैसी सूरतें मिट्टी की आख़िर हो गयीं
फिर भी पावन ही रहीं वो, फिर भी निर्मल ही रहीं
सारे जग का मैल ''गँगा जी'' की लहरें धो गयीं
वो मिरे बचपन की सख़ियाँ वो मिरी हमजोलियाँ
जाने किस नगरी गयीं, किस देस जा कर खो गयीं
देख लेना एक दिन फ़स्लें उगेंगी दर्द की
दिल की धरती में मिरी आँख़ें जो आँसू बो गयीं
जाने किन किन मुश्किलों का सामना उन को रहा
अपने घर की चारदीवारी से बाहिर जो गयीं
तुम भी आ जाओ हमारा हाल तुम भी देख लो
बदलियाँ आ कर हमारे हाले-दिल पर रो गयीं
क़ैद उस में रात भर के वास्ते भँवरा रहा
जब कमल की पत्तियाँ मुँह बंद शब को हो गयीं
पूजते हैं हम उसे मंदिर की मूरत की तरह
अपनी आँखें उस के पैरों से लिपट कर सो गयीं
नफ़रतों के मौसमों की बादशाहत है 'अनु'
अब ज़बानें भी कटारों के मुआफ़िक़ हो गयीं
========== 29
दिन कोई ऐसा हो दुख के बोझ हल्के हो सकें
रात ऐसी हो कोई जब चैन से हम सो सकें
रात ही वो नेक दिल माँ है कि जिस की गोद में
हम सराहनों के तले मुँह को छुपा कर सो सकें
ऐ ख़ुदा दर से तिरे तौफ़ीक़ ये हम को मिले
ज़िंदगी का बोझ हम आसानियों से ढो सकें
नेक बँदे हम बनें, हम माँगते हैं ये दुआ
बीज हम दुनिया में आ कर नेकियों के बो सकें
ये नहीं मंज़ूर था शायद ख़ुदा की ज़ात को
तुम हमारे हो सको, और हम तुम्हारे हो सकें
हो कोई दीवार जिस को, हम सुनायें हाले-दिल
हो कोई दरवाज़ा ऐसा, जिस से लग कर रो सकें
प्यार के दो बोल हैं क़ीमत हमारी ऐ 'अनु'
काश ये क़ीमत जहाँ वाले अदा कर तो सकें
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ग़ुँचा हँसा न हो, कली दिल की खिली न हो
ये क्या चमन में पत्ता हरा एक भी न हो
उस बाँसुरी से हम को सरोकार कुछ नहीं
वो बाँसुरी जो साँवरे घनश्याम की न हो
दरवाज़ा खोल देने से पहले ये देख लो
दस्तक जो दे रहा है कोई अजनबी न हो
उस दिन की आस में ही जिये जा रहे हैं हम
वो दिन, हमारी जान पे जिस दिन बनी न हो
ज़िद पर तो अड़ गए हो मगर सोच लो ज़रा
जिस बात पर अड़े हो, कहीं खोखली न हो
दिल से निकल रही है, तुम्हारे लिए दुआ
जिस राह पर चले हो, वो काँटों भरी न हो
उस शाख़ के क़रीब भी रुकता नहीं कोई
जो शाख़ फूलों और फलों से लदी न हो
ऐसे नगर में रहना भी किस काम का भला
जिस के क़रीब से नदी बहती कोई न हो
ये रंगो-बू, ये इत्र में डूबी हुई फ़ज़ा
पहुँचे हैं जिस में आ के, वो तेरी गली न हो
जैसा लिखा गया है मुक़द्दर मिरा 'अनु'
क़िस्मत ख़ुदा ने ऐसी किसी की लिखी न हो
===== 40
ग़ुँचा हँसा न हो, कली दिल की खिली न हो
ये क्या चमन में पत्ता हरा एक भी न हो
उस बाँसुरी से हम को सरोकार कुछ नहीं
वो बाँसुरी जो साँवरे घनश्याम की न हो
दरवाज़ा खोल देने से पहले ये देख लो
दस्तक जो दे रहा है कोई अजनबी न हो
उस दिन की आस में ही जिये जा रहे हैं हम
वो दिन, हमारी जान पे जिस दिन बनी न हो
ज़िद पर तो अड़ गए हो मगर सोच लो ज़रा
जिस बात पर अड़े हो, कहीं खोखली न हो
दिल से निकल रही है, तुम्हारे लिए दुआ
जिस राह पर चले हो, वो काँटों भरी न हो
उस शाख़ के क़रीब भी रुकता नहीं कोई
जो शाख़ फूलों और फलों से लदी न हो
ऐसे नगर में रहना भी किस काम का भला
जिस के क़रीब से नदी बहती कोई न हो
ये रंगो-बू, ये इत्र में डूबी हुई फ़ज़ा
पहुँचे हैं जिस में आ के, वो तेरी गली न हो
जैसा लिखा गया है मुक़द्दर मिरा 'अनु'
क़िस्मत ख़ुदा ने ऐसी किसी की लिखी न हो
========== 41
क़लमकारों की नगरी है कलाकारों की बस्ती है
वो बस्ती जिस में हम रहते हैं अवतारों की बस्ती है
भला हम जाहिलों को कौन इस बस्ती में पूछे गा
ख़ुदा के फ़ज़्ल से ये तो समझदारों की बस्ती है
ये बस्ती वो है जिस में आयें तो फ़नकार बिक जायें
ये ज़रदारों की बस्ती है, ख़रीदारों की बस्ती है
इन्हीं के दम से फ़स्लें हैं ये मिहनत के फ़रिशते हैं
यहां से बा-अदब गुज़रो ज़मींदारों की बस्ती है
वो बस्ती जिस में हम रहते हैं मामूली नहीं बस्ती
वो गुलज़ारों की बस्ती है वो नज्ज़ारों बस्ती है
ख़ुदा जाने ये किस दूरी से पानी ले के आती हैं
ये पानी के घड़े ढोती हुई नारों की बस्ती है
चलो दो चार दिन हम जा के सेवा उन की कर आयें
ये बस्ती बेकसों, बीमार, लाचारों की बस्ती है
हमारा साथ आख़िर कौन देगा शहर में उस के
सभी उस की तरफ़ हैं ये तरफ़दारों की बस्ती है
कहीं से आ नहीं सकती यहाँ ताज़ा हवा हरगिज़
नहीं है कोई दरवाज़ा ये दीवारों की बस्ती है
यहाँ हर रोज़ पढ़ते हैं कई अच्छी बुरी ख़बरें
जहां रहते हैं हम वो एक अख़बारों की बस्ती है
गले कटते हैं आये दिन यहाँ मासूम लोगों के
ये शमशीरों की बस्ती है, ये तलवारों बस्ती है
===== 42
तेरी दरगाह से मिलती जो इजाज़त तेरी
हम भी कर जाते किसी रोज़ ज़ियारत तेरी
राख का ढेर है, बुझती हुई चिंगारी है
इस से बढ़ कर तो नहीं कुछ भी हक़ीक़त तेरी
रोता रहता है ग़रीबी का तू रोना हर दम
कुछ सुदामा से तो बढ़ कर नहीं ग़ुरबत तेरी
अब सिवा तेरे दिखाई नहीं देता कुछ भी
दिल को किस मोड़ पे ले आई मुहब्बत तेरी
दौड़ता है तू लहू बन के हमारे दिल में
हम किसी तौर न बन पाये ज़रूरत तेरी
बँद दरवाज़े भी क्या रोक सकेंगे इस को
चोर दरवाज़ों से आ जाये गी चाहत तेरी
उठ के तू चल भी दिया ऐसी भी क्या जल्दी थी
हम ने देखी भी न थी ग़ौर से सूरत तेरी
जब बनाये गा कोई रेत का घर साहिल पर
हम को याद आये गी बचपन की शरारत तेरी
किसी मेले किसी महफ़िल में नहीं दिल लगता
रास आती है फ़क़त हम को तो सँगत तेरी
------------------ 43
इक सहेली की तरह करती है मुझ से प्यार माँ
मेरे हर सुख दुख में रहती है शरीके-कार माँ
तुझ से कर बैठा अगर कोई कभी तकरार माँ
बन के आऊँगी मैं तेरे हाथ की तलवार माँ
तेरी ठण्डी छाँव में लेती हूँ हरदम साँस मैं
तू है तपती धूप में इक पेड़ सायादार माँ
छोड़ कर सब काम आ जाया करो मेरी तरफ़
उम्र भर मुझ को तिरा होता रहे दीदार माँ
सब बलाएँ मेरी अपने सर सदा लेती रही
तू ने अक्सर कर दिया रस्ता मिरा हमवार माँ
तू है मेरी माँ, सहेली भी है, हमदम भी मिरी
तेरा हर इक रूप में करती हूँ मैं सत्कार माँ
याद हैं बचपन के मुझ को वो सुहाने दिन कि जब
मेरा माथा चूम के देती थी मुझ को प्यार माँ
मैं ने माना तुझ को पोतों से नहीं फ़ुर्सत मगर
ख्वाब ही में अपनी इस बेटी को दे दीदार माँ
तुझ को भड़कायें अगर, बहुएँ तिरी मेरे ख़िलाफ़
आ न पाये मेरे तेरे दरमियाँ दीवार माँ
हर तरफ़ फैली हुई है तेरी ममता की महक
तेरे आने से हुआ घर मेरा ख़ुशबूदार माँ
राजपूती ख़ून है तेरे रगो-पै में रवाँ
तू परस्तिश के है क़ाबिल ऐ मिरी ख़ुद्दार माँ
तू ने मुझ बेटी से अक्सर काम बेटों के लिये
तू ने बांधी थी कभी सर पर मिरे दस्तार माँ
आ लगा लूँ बढ़ के मैं तुझ को गले, चूमूँ तुझे
तू मिरी हमदर्द माँ है, तू मिरी ग़मख़ार माँ
====== 44
रंग जीवन में भरूंगी एक दिन
अपनी क़िस्मत ख़ुद लिखूंगी एक दिन
शम्अ की सूरत जलूंगी एक दिन
दह्र को रौशन करूंगी एक दिन
तेरे हर ज़र्रे की ख़ातिर ऐ वतन
रानी झाँसी सी लड़ूंगी एक दिन
ऐ भगत सिंह, ऐ शहीदे-मुल्को-क़ौम
मैं तिरी गाथा लिखूंगी एक दिन
मेरे बाबुल तेरे घर आँगन में मैं
बन के तुलसी फिर उगूँगी एक दिन
देश सैनानी गये थे जिस डगर
उस डगर मैं भी चलूंगी एक दिन
मुझ से हर रहगीर पायेगा दिशा
मील का पत्थर बनूंगी एक दिन
सर बुलन्दी है मिरी तक्दीर में
इक बगूले सी उठूँगी एक दिन
दाद देंगे मुझ को सब अहले-क़लम
इक ग़ज़ल ऐसी कहूंगी एक दिन
मेरे आँगन में भी उतरे वो कभी
चाँदनी से मैं कहूंगी एक दिन
चल रही हैं जो मुख़ालिफ़ सम्त से
उन हवाओं से लड़ूंगी एक दिन
ख़ुद बनाऊँगी मैं अपने रास्ते
अपनी मँज़िल ख़ुद चुनूँगी एक दिन
आ के खेलें मेरी बिटिया से कभी
चाँद तारों से कहूँगी एक दिन
है बहुत मा'सूम बच्चे की हँसी
इस हँसी पर मर मिटूँगी एक दिन
हर मुख़ालिफ़ रस्म को अब तोड़ कर
नीले अम्बर में उड़ूँगी एक दिन
जो परिन्दे उड़ रहे हैं मेरे साथ
उन से मैं ऊँचा उड़ूँगी एक दिन
ऐ हिमालय ऐ मुहाफ़िज़ हिन्द के
मैं अटल तुझ सी बनूँगी एक दिन
ये भी है तुम तक पहुँचने की सबील
फूल की ख़ुशबू बनूँगी एक दिन
कृष्ण जी की मूर्ति से ऐ 'अनु'
गीत मीरा के सुनूँगी एक दिन
===== 45
कोई रंगीं नज़ारा मिल गया है
कि जीने का सहारा मिल गया है
हमारा डूबना भी काम आया
जो डूबे तो किनारा मिल गया है
इक अनजाने सफ़र पर चल पड़ी हूँ
उन आँखों का इशारा मिल गया है
जो बिछुड़ा था किसी पिछले जनम में
वो साथी अब दुबारा मिल गया है
डुबोयेगा हमें क्या कोई तूफ़ाँ
कि मौजों का सहारा मिल गया है
मुक़द्दर पर न हो क्यों नाज़ हम को
जिसे दिल ने पुकारा मिल गया है
हमेशा रास्ता देखा था जिस का
हमें वो जाँ से प्यारा मिल गया है
दिखायेगा हमें जो राहे-मँज़िल
हमें ऐसा सितारा मिल गया है
पिया करते हैं हम जी भर के उस से
हमें गंगा का धारा मिल गया है
'अनु' हम देख कर जी लें गे उस को
हमें इक माह-पारा मिल गया है
==== 46
एक दिन सब जहाँ से चल देंगे
साथ कब ज़िंदगी के पल देंगे
ढलते सूरज को कौन पूछेगा
चढ़ते सूरज को लोग जल देंगे
हम लगायेंगे जिस तरह के शजर
वैसे ही एक दिन वो फल देंगे
इस ज़माने में फूल मत बनना
लोग पैरों तले मसल देंगे
जितनी रस्में हैं वक्त के विपरीत
ऐसी रस्मों को हम बदल देंगे
छलनी करते हैं पैर जो सब के
ऐसे कांटों को हम कुचल देंगे
ऐसी आशा है आज कल बेकार
साफ़ पानी हमें ये नल देंगे
इतना कड़वा न तू जहाँ में बन
दुनिया वाले तुझे उगल देंगे
आओ पौधे लगाएँ मिल कर सब
कल को ये पेड़ बन के फल देंगे
========== 47
कोई पंछी चहचहाया क्यूँ नहीं
वन में कोई गीत गूँजा क्यूँ नहीं
कर के वादा फिर निभाया क्यूँ नहीं
अब्र छाया था तो बरसा क्यूँ नहीं
कोई बिजली क्यों नहीं अब कौंधती
कोई जुगनू अब चमकता क्यूँ नहीं
कौन सी सोचों में थे खोए हुए
आज तुम ने हम को सोचा क्यूँ नहीं
बेनियाज़ाना गुज़र जाता है अब
देख कर हम को वो रुकता क्यूँ नहीं
बोझ बस्ते का है बच्चे से सवा
और कहते हैं ये हँसता क्यूँ नहीं
जो नज़र आता है ख़ाबों में मुझे
मेरी क़िस्मत में वो लिक्खा क्यूँ नहीं
अब कहाँ रिश्तों का बाक़ी एतबार
अब कोई करता भरोसा क्यूँ नहीं
पेड़ पौधों से है जीवन में बहार
पेड़ पौधे तू लगाता क्यूँ नहीं
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प्रस्तुति:
डॉ.अनुज नरवाल रोहतकी454/33 नया पड़ाव,काठ मंडी रोहतक-हरियाणा
मो. 092567058
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अच्छा संग्रह है....फुर्सत से पूरा पढूंगी!
जवाब देंहटाएंbahut badia.aag hai,emotion hai aur tewar bhi khas hai.
जवाब देंहटाएंbadhai
anuj khare
bahut badia . badhai
जवाब देंहटाएंanuj khare
bahut achhcha . abhi sarsari nigah se hi dekha hai.
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