एक नई सामाजिक क्रान्ति की भूमिका -वीरेन्द्र जैन फ्रायड को मार्क्स के प्रतिद्वन्दी की तरह पेश करने वालों की भूल पर विचार होना चाहिये...
एक नई सामाजिक क्रान्ति की भूमिका
-वीरेन्द्र जैन
फ्रायड को मार्क्स के प्रतिद्वन्दी की तरह पेश करने वालों की भूल पर विचार होना चाहिये। स्मरणीय है कि मार्क्स के सम्बंध अपनी नौकरानी से थे गत शती के साठ के दशक में सोवियत रूस के एक मंत्री का नाम कि्रस्टीन कीलर कांड में आया था। माओत्सेतुंग की चार पत्नियाँ थीं जिनमें से एक के कार्यों ने उनके व्यक्तित्व को काफी नुकसान पहुंचाया था। यशपाल के दादा कामरेड से लेकर सैकडों साहित्यिक कृतियाँ इस द्वन्द से टकराती नजर आती हैं तथा अपनी पारंपरिक नैतिकता में पैर फंसाये हुये अनेक प्रगतिशील कई कई तरह की कुंठाओं में जीते हैं क्योंकि उन्होंने अपने राजनीतिक विचारों के अनुरूप नई नैतिकता गढ़ नहीं पायी है व उनका कार्यक्षेत्र पुराना समाज ही है जिससे सम्बंध बनाये रखने के लिए उसकी मान्यताओं को कम से कम ऊपरी तौर स्वीकार करना होता है। यह द्वंद्व उनके राजनीतिक कार्य को भी नुकसान पहुंचाता है और व्यक्तिगत जीवन को भी। वे अब इतनी बड़ी संख्या में इकाइयों के रूप में मौजूद हैं कि चाहें तो एक नया समाज संगठित कर सकते हैं। इसकी जरूरत इसलिए भी है कि अक्सर ही पुरानी सामाजिक नैतिकताओं के विश्वासी असंगठित समाज के नये मूल्यों को व्यक्ति का नैतिक विचलन बतला कर उसके राजनीतिक कार्य को नुकसान पहचाते रहते हैं।
आज नारी और पुरूष के सम्बंधों की विवाह संस्था को पुर्नगठित करना राजनीतिक कार्य के समानान्तर आवश्यक हो गया है। इस परिवर्तन को जाति और सम्प्रदायों में बंटा पुराना समाज नहीं करेगा अपितु वह इसके खिलाफ यथासंभव अवरोध ही खडे़ करेगा। हरियाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश में आये दिन इस तरह का दुस्साहस करने वालों को मौत तक की अवैधानिक सजाएं दी जा रही हैं। ऐसा इसलिए हो रहा है कि क्योंकि ऐसे लोगों का अपना कोई संगठन नहीं है और ना ही कोई रक्षात्मक एजेन्सी है। हिन्दी फिल्मों से रोमांटिक विचार लेने वाले नवयुवक कभी हिन्दी फिल्मों के हीरो की तरह अपना शरीर तैयार नहीं कर पाते और ना ही समाज से अकेले टकराने का हौसला और ताकत ही रखते हैं।
इस विचार का समय
यह इस तरह के विचार का उपयुक्त समय है। आजादी के बाद हमने अपने संविधान में परंपरा से आगे बढ़ कर जातिविहीन समाज की स्थापना का लक्ष्य भी रखा है जिसके लिए हमने सबसे पहले सर्वाधिक उपेक्षित दलित और आदिवासियों जिन्हें भेद भाव का शिकार भी होना पड़ता था, के लिए आरक्षण की व्यवस्था की ताकि वे पढ लिख कर व नौकरी पाकर समानता पर आ सके तथा अपने परिवेश को भी आगे बढ़ाने में मदद कर सकें। पर इस अधिकार को हमने जिस बेमन से दिया है उसका परिणाम है कि हमने इसे केवल वोट का माघ्यम बना कर छोड़ दिया है और कभी भी इस बात का मूल्यांकन करने का प्रयास नहीं किया कि जाति विहीन समाज की स्थापना की ओर हमारे कदम क्यों नहीं बढ रहे हैं। पूंजीवाद और फिर उसके बाद अनेक देशों में आयी समाजवादी क्रान्ति ने दुनिया को यह संदेश तो दे ही दिया है कि उनकी र्दुदशा के पीछे कोई दैवीय कोप नहीं है अपितु ये मानवीय षडयंत्र भर है। यदि इन षडयंत्रकारियों से टकराने की इच्छा और हौसला हो तो अपनी स्थितियों को बदला जा सकता है। आरक्षण शिक्षा और अनेक तरह की सशक्तिकरण योजनाओं के द्वारा कुछ मात्रा में ऐसी इच्छाएं पैदा भी हुयी हैं। आवश्यकता इन इच्छाओं के एक जगह पर एकत्रित होकर संघर्ष के बल देने की है। आरक्षण का पक्ष और विपक्ष आज देश की बहुत बड़ी समस्या बन कर उभरे हैं जिनके आधार पर आज देश के अनेक राजनीतिक दल वोट बटोरने का काम कर रहे हैं। जैसे जैसे हम जातिविहीन विवाह की ओर बढ़ेंगे वैसे वैसे जातियों की संकीर्ण सीमाएं भी टूटेंगीं जिससे आरक्षण की आवश्यकता और उसके दुरूपयोग से मुक्ति मिलेगी। कल्पना कीजिये कि देश में एक जाति विहीन समाज स्थापित हो गया तो बहुजन समाज पार्टी, आर जे डी, समाजवादी पार्टी सवर्ण समाज पार्टी समेत सैकडों पार्टियों का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा तथा इसके बाद जो दल बचेंगे वे जनता की जनवादी मांगों के आधार पर काम करने वाले सचमुच के राजनीतिक दल ही होंगें। इस वैश्वीकरण के युग में एक ओर तो हमारे युवा पूरी दुनिया पर छा जाने की सोच रहे हैं और कहाँ संकीर्णतम जाति और उपजाति में विवाह तक सीमित रह कर अपना और देश तथा समाज का कचूमर निकाल रहे हैं।
दृश्य माध्यम सदैव से ही लोगों को प्रभावित करने का सबसे सशक्त संचार माध्यम रहा है कथा प्रवचनों से चलकर रामलीला नौटंकी के बाद हिन्दी फिल्मों और टेलीविजन ने गत पचास सालों में युवा हुयी पीढी के मन में गहरी पैठ जमायी है। नब्बे प्रतिशत फिल्मों में युवा मन के प्रेम और इस प्रेम के पाने के लिए समाज की रूढियों और विद्वेषियों से संघर्ष को ही प्रमुख विषय के रूप में चित्रित किया गया है। इन फिल्मों के करोड़ों दर्शकों ने जहाँ एक ओर तो फिल्म के संदेश के साथ सहमति व्यक्त की हुयी होती है वहीं दूसरी ओर उसे अपने जीवन में उतार कर समाज से टकराने का दुस्साहस कम ही लोग कर पाये हैं। इतना ही नहीं जिन्होंने यह दुस्साहस भी किया उनका खुल कर साथ भी नहीं दे सके। अनेक लोगों के प्रयास तो इसलिए भी असफल हो गये क्योंकि एक संगठित समाज के विरोध के विरूद्ध वे अकेले पड गये और टूट गये। किंतु प्रत्येक युवा मन में अपने प्रेम को पाने की कामना गहरे तक विद्यमान है जिसे फिल्म के क्लाइमैक्स दृश्यों में दर्शकों की तालियों से महसूस किया जा सकता है। समाज व्यापक रूप में बदलना चाहता है किंतु बदलाव चाहने वाले अलग अलग इकाइयों में परंपरावादी संगठित समाज से पराजित होते रहते ह। आवश्यकता है कि वे संगठित होकर उनसे मुकाबला करें तो वे अपनी इच्छाओं का समाज बना सकेंगे। अभी तक ऐसी कल्पनाएं मात्र उपहास करने के लिए की गयी हैं जबकि ये आज की सचमुच की जरूरत हैं।
आर्थिक पक्ष
मेरे परिचित एक सरकारी अधिकारी रिश्वत लेने के लिए बदनाम थे। जब मैंने उनसे इस बेशर्मी का कारण पूछा तो वे लगभग फटते हुये बोले कि यदि तुम्हारे भी मेरी तरह चार लड़कियाँ होतीं तब मैं तुम से पूछता। दहेज प्रथा ने न केवल लड़कियों के प्रति नफरत भ्रूण हत्या व वधूदहन जैसे सामाजिक अपराध ही पैदा किये हैं अपितु प्रशासनिक भ्रष्टाचार के प्रसार में भी इसका बड़ा योग दान है। इस सब के होते हुये भी जाति से बाहर विवाह को सामाजिक अपराध माना गया है । इस लांछन से बचने के लिए लोग भ्रष्ट होने के लाँछन को छोटा समझते हैं। दहेज से जनित इस भ्रष्टाचार ने न केवल हमारी महात्वाकांक्षी विकास योजनाओं को ही चूना लगाया है अपितु पूरे तंत्र को खराब करके रख दिया है। जब हमारे कर्मचारी अपनी वेतन बढ़ाने सम्बंधी मांगों को लेकर जाते हैं तो बडे अधिकारी उनकी बचतों के आंकडे बताते हुये कहते हैं कि तुम्हें तो वर्तमान वेतन में ही खर्च के बाद इतनी बचत हो रही है फिर वेतन बढ़ोत्तरी की क्या आवश्यकता है? पर सच तो यह है कि आदमी अपना पेट काट कर भी अपनी बेटियों की शादी में दहेज के लिए पैसे जोड़ता है। यदि हमारे देश में युवा अपने आप अपने जीवन साथी का चुनाव करने लगें तो भ्रष्टाचार पर लगाम लगेगी और देश का भला होगा। परंपरागत विवाह में एक होड़ के कारण बहुत ही अनापशनाप खर्च होता है जिसमें से एक बड़ा हिस्सा बिल्कुल ही व्यर्थ का खर्च होता है। विवाह प्रणाली में परिवर्तन आने पर वही धन वर वधू की गृहस्थी के लिए एक बेहतर आधार बन सकता है और उसके जीवन में सुखों का विस्तार कर सकता है। जाति विवाह में जो दोष देखने में मिलते हैं उनमें से एक सबसे बडा दोष बेमेल विवाह का दोष है। जहाँ एक ओर युवाओं के सपने किसी सीमा को नहीं मानते वहीं जाति विवाह के साथ गोत्र उपगोत्र के बंधनों के साथ कुण्डली मिलान समेत भावी वर वधू की शिक्षा और सौन्दर्य को भी चुनाव का आधार बनाये जाने के कारण चुनाव बहुत कठिन होता जाता है जो अंततः बेमेल विवाह पर टूटता हैं। उस पर भी दहेज आदि अनेक प्रकार के घर तोडू दोष पैदा करता है। एक रिपोर्ट के अनुसार हमारा समाज सर्वाधिक असन्तुष्ट वैवाहिक इकाइयों का समाज है। जाति बंधन से मुक्त विवाह प्रथा इनमें से अनेक सामाजिक बुराइयों से मुक्ति दिला सकता है। यदि वैवाहिक तनावों को दूर किया जा सके तो इस देश के लोगों के आधे से भी अधिक मानसिक तनाव दूर हो सकते हैं।
जाति बंधन से मुक्त समाज का अर्थ केवल जाति के बंधन से मुक्ति भर है इसमें ऐसा कोई बंधन नहीं है कि अन्यथा उपयुक्त होने पर कोई अपनी जाति में विवाह ना ही करे। जाति विहीन समाज की स्थापना न केवल हमारी राष्ट्रीय एकता को बढायेगी अपितु एक नई भारतीय पीढी को जन्म देगी जो अनेक तरह की रूढ़िगत बुराइयों से मुक्त होगी। ऐसी सुखी संतुष्ट पीढी ही भविष्य में साम्प्रदायिकता को निर्मूल करने का आदर्श बनेगी। यह एक सामाजिक क्रान्ति होगी जो यहीं तक नहीं रूकेगी अपितु अनेक वांछित परिवर्तनों तक जायेगी। यह समाज में बढ रहे धार्मिक पाखण्डियों के अस्तित्व को समाप्त करेगी व धर्म के नाम पर चल रहे अवैध व्यापार पर अंकुश लगायेगी। धर्म जब अपनी मूल अवस्था में आयेगा तो वह अपने जन्म वाली समाज हितैषी भूमिका में होगा।
असल में इस घटना को एक आन्दोलन का रूप दिया जाना जरूरी है जिसके बीज विद्यमान हैं। जब हम देख रहे हैं कि युवा पीढ़ी किसी भी तरह के सामाजिक परिवर्तन के कामों के प्रति उदासीन हो रही है तथा उसकी आस्थाएं संस्थाओं से टूट चुकी हैं तब ऐसे आन्दोलनों से प्रारम्भ किया जा सकता है जो कहीं न कहीं मौजूद है और जब कोई आन्दोलन आकार लेता है तो संवाद भी प्रारंभ होता है।
इन मूल्यों के प्रतिमान बनने के लिए न केवल इतिहास में अपितु वर्तमान समाज में भी अनेक सेलिब्रिटीज मौजूद हैं या दूसरे शब्दों में कहा जाये तो इस दौर के सारे के सारे सेलीब्रिटीज की सफलताओं को उनके जीवन के इस पक्ष से जोडा जा सकता है। संयोग से आज जो लोग भी समाज में शिखर पर स्थान रखते हैं उनमें से अधिकांश ने जाति बंधनों से मुक्त होकर विवाह किये हैं। उन्हें समाज के आदर्श की तरह प्रस्तुत करने की आवश्यकता भर है।
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वीरेन्द्र जैन
२/१ शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल म.प्र.
फोन ९४२५६७४६२९
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